मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

‘भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान’ क्यों?

(Institute for Improvement of Indian Spirituality and Culture

आज मैं ‘भारतीय अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ के संवर्धन के लिए स्थापित एक संस्थान पर प्रकाश डालने जा रहा हूँ| यह ‘भारतीय अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ का ‘संवर्धन क्यों? यह ‘अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ क्या होता है और इसकी प्रभावोत्पादकता क्या है? यह ‘अध्यात्म’ किसी व्यक्ति के “आत्म” (Self, मन, चेतना) से सम्बन्धित होता है, या किसी के “आत्मा” से? इसी तरह ‘भारतीय अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ के ‘वृद्धि’ (Growth) या ‘विकास’ (Development) की बात नहीं कर, मैं ‘अध्यात्म’ और ‘संस्कृति के ‘संवर्धन’ (Improvement) की बात क्यों कर रहा हूँ? तो इन सबों की अनिवार्यता क्यों है?

आज यदि वैश्विक ‘राज्यों’ (States, not Provinces) या ‘राष्ट्रीय राज्यों’ (Nation –States) का वर्गीकरण उनके आर्थिक विकास और उनकी सांस्कृतिक अवस्थाओं एवं आध्यात्मिक दशाओं के साथ किया जाय, तो इनके वर्गीकरण में विभाजन की एक स्पष्ट लकीर उभर जाती है| जिन वैश्विक ‘राज्यों’ या ‘राष्ट्रीय राज्यों’ ने अपने ‘सांस्कृतिक अवस्थाओं’ एवं ‘आध्यात्मिक दशाओं’ को आधुनिक वैज्ञानिकता के आधार पर विश्लेषण एवं समीक्षात्मक मूल्याङ्कन कर अपने को सजग, सतर्क तथा समर्पित प्रयास कर अपनी दिशा और दशा को बदलना चाहा है, वे ‘राष्ट्रीय राज्य’ आज वैश्विक जगत के परिदृश्य में विकास के पैमाने पर अग्रणी बने हुए हैं| ‘आर्थिक रूप से अविकसित’ संस्कृतियों के ढाँचा (Framework), संरचना (Structure), विन्यास (Orientation) में “आस्था” (Devotion) ही ‘आस्था’ भरा पड़ा होता है, और “वैज्ञानिकता” (Scientism) को कोई भी सम्मानजनक स्थान या अवसर नहीं मिला होता है| विकसित राज्यों की संस्कृति में ‘आस्था’ के विपरीत ‘वैज्ञानिकता’ ही ‘वैज्ञानिकता’ भरी पड़ी होती है| मैंने यहाँ सिर्फ ‘आर्थिक रूप से अविकसित’ संस्कृतियाँ’ इसलिए लिखा है, क्योंकि “विकासशील” शब्द एक भ्रामक अवस्था है, जो उनको ‘रिझाने’ के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिन राज्यों की क्षमता वैश्विक बाजार में सिर्फ ‘खाने और पचाने (Use n Consume)’ में बहुत बड़ी होती है| और इसीलिए ऐसे राज्यों के लिए “विकासशील” शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है|

एशिया के इस (भारतीय) उपमहाद्वीप का नाम “आभा” (Aura) से “रत” (Full) अर्थात “ओज” (Light) से ‘परिपूर्ण’ का शाब्दिक अर्थ है, और इसीलिए प्राचीन काल में विश्व को प्रकाशित करने वाले इस भू भाग का नाम “आभारत” पड़ा| समय के साथ “आभारत” का ‘आ’ शब्द तो विलुप्त हो गया है, और सिर्फ “भारत” ही रह गया है| आज भारत के लोगों की ज्ञान एवं क्षमता का स्तर एवं गुणवत्ता यह है कि भारत की सम्पूर्ण आबादी का महज पाँच प्रतिशत आबादी वाला देश जर्मनी भी अर्थव्यवस्था में भारत से आगे स्थान रखता है| यदि आंकड़ों का सम्यक विश्लेषण किया जाय, तो भारत का सर्वोच्च दो प्रतिशत आबादी भी एक सामान्य जर्मन आबादी के ज्ञान एवं क्षमता के स्तर एवं गुणवत्ता का नहीं है, अन्यथा आज भारत अर्थव्यवस्था में जर्मनी से ऊपर ही रहता| और यह ज्ञान एवं क्षमता का स्तर एवं गुणवत्ता में कमी का कारण सिर्फ और सिर्फ संस्कृति’ और ‘आध्यात्मिकता’ में ही है| भारत को यदि फिर से प्राचीन गौरव एवं गरिमा प्राप्त करना है, तो यही संस्थान उसे उस भूमिका में फिर से ला सकेगी|

‘अध्यात्म’ किसी व्यक्ति के ‘आत्म’ (Self) का ‘अधि’ (ऊपर) से यानि ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से जुड़ने की प्रक्रिया एवं अवस्था होती है| इस प्रक्रिया में एक व्यक्ति अपना ज्ञान ‘अनन्त प्रज्ञा’ से प्राप्त करता है, और इसे ही अंतर्ज्ञान (Intuition) कहते हैं| हर ‘नवाचारी’ (Innovative) ज्ञान इसी विधि से प्राप्त किया जाता है| यदि आप कुछ आध्यात्मिक व्यक्ति का नाम मुझसे जानना चाहते हैं, तो मैं उनमे ‘गोतम बुद्ध’, अल्बर्ट आइंस्टीन और स्टीफन हाकिन्स का नाम उदाहरण स्वरुप लेता हूँ| ‘आत्म’ यानि ‘चेतना’ (मन – Mind) तो वैज्ञानिक शब्द है, लेकिन इसी से मिलता –जुलता शब्द ’आत्मा’ का विज्ञान में कोई स्थान नहीं है| इसी तरह अध्यात्म’ शब्द के अन्य तात्पर्य का विश्लेषण एवं समीक्षा आप स्वयं कर सकते हैं| इसी आध्यात्मिकता के अभाव के कारण सामान्य लोगों और इसीलिए ऐसे समाज का हर प्रतिनिधि “दोहरा चरित्र” जीता हैं, अर्थात उनके विचारों, व्यवहारों एवं कार्यों में कोई संगतता (Consistency) नहीं होती है, और इसीलिए ऐसे समाज का ‘उच्चतर विभव’ (Higher Potential) तक विकास नहीं हो पाता है| इन गुणों एवं स्वभावों को आप ‘नैतिकता’ में शामिल कर सकते हैं| यहाँ हमलोग भारतीय सन्दर्भ में ‘आध्यात्मिकता’  का अध्ययन करेंगे, और इसीलिए ‘भारतीय अध्यात्म’ शब्द का प्रयोग किया है|

मैंने किसी भी व्यवस्था के ‘पिछड़ेपन में सबसे प्रमुख कारक उसके सांस्कृतिक मूल्यों (Values), प्रतिमानों (Norms) एवं मानकों (Standards) में समझा है| संस्कृति’ किसी भी समाज का वह ‘मानसिक निधि’ (Mental Treasure) है, जिसे कोई भी उस समाज के सदस्य के रूप में साथ रहने से पाता है, और यह उस समाज की व्यवस्था (Machinery) यानि तंत्र (System) को एक ‘साफ्टवेयर’ की तरह अदृश्य रहकर स्वत: संचालित करती रहती है| किसी भी संस्कृति का ढाँचा, संरचना, विन्यास या स्वरुप में ‘वैज्ञानिकता’ या ‘आस्था’ के अंश से ही उसकी गुणवत्ता का पता चलता है| किसी भी ‘संस्कृति’ का निर्माण उस समाज के ‘इतिहास – बोध’ (Perception of History) से ही आता है| ‘बाजार की शक्तियाँ’ (Market Forces) सामाजिक संस्थाओं (Institutions) को भी प्रभावित, नियमित एवं संचालित करता रहता है, और इस तरह यह विवाह, परिवार, समाज, जाति, धर्म, नैतिकता, अदि के साथ साथ ‘संस्कृति’ और ‘अध्यात्म’ को भी प्रभावित करता रहता है| ‘बाजार की शक्तियाँ’ ही ऐतिहासिक काल खंड में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ कहलाती है, और इस रूप में सभी समाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक संस्थाओं को सशोधित एवं परिमार्जित करती रहती है| बाजार की इन्ही शक्तियों ने प्राचीन बौद्धिक संस्कृतियों को मध्य काल में  सामन्ती संस्कृतियों में बदल दिया था, जिसके समीक्षात्मक मूल्याङ्कन की अनिवार्यता है|

इसलिए मैं संस्कृतियों के या में ‘वृद्धि’ या ‘विकास’ की बात नहीं कर, इसके ‘संवर्धन’ की बात की है| किसी भी विषय में ‘वृद्धि’ या ‘विकास’ उसकी स्थिति या दशा बदलने का प्रयास तो करती है, लेकिन उसकी मूल एवं मौलिक ‘दिशा’ बदलने का प्रयास नहीं करता है| ‘वृद्धि’ एक रेखीय गमन है, तो ‘विकास’ सर्व देशीय गमन या वृद्धि है, जबकि किसी का ‘संवर्धन’ सदैव सकारात्मक एवं रचनात्मक दिशा एवं दशा में होता है| इस तरह ‘संवर्धन’ में किसी विषय की स्थिति, दशा, एवं दिशा में, अर्थात सम्यक रूप में इसका सकारात्मक एवं रचनात्मक रूपांतरण होता है, अर्थात नव जीवन प्राप्त करता है, सिर्फ कोई संशोधन नहीं होता है|

इस तरह आपको भी यह स्पष्ट हो गया होगा कि इस संस्थान का एक मात्र उद्देश्य “एक विश्व, एक मानवता” की स्थापना करना है, और यह सब भारत के ‘मार्ग- दर्शन’ (Philosophy for Ways) में ही संभव है| इसके ही साथ भारतीय उपमहाद्वीप की गौरवपूर्ण ऐतिहासिक विरासत को अपना मौलिक स्थान दिलाना भी है|

यह सब कुछ आपकी सहभागिता के साथ ही सम्भव है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी   

अध्यक्ष

‘भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान’|

रविवार, 29 दिसंबर 2024

एक कहानी कैसे मिथक या इतिहास बनता है?

घरों में जब छोटे बच्चे रोते हैं, मचलते हैं, विखलते हैं, यानि जब बेचैन होकर परिवार को परेशान करते रहते हैं, तो उन्हें भालू के आ जाने की “कहानी” (Story –कथा, किस्सा) सुना कर चुप करा देते हैं| कहानी यह होती है कि शाम या रात के अँधेरे में एक जंगली भयानक पशु - भालू आता है और रोते हुए बच्चे को पकड़ कर ले जाता है| इस छोटी से कहानी को उसके परिवार वाले बड़े ही भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते है, और वह बच्चा उसे ‘वास्तविकता’ मान कर चुप होकर सो भी जाता है| इसी तरह, दिन के समय एक ‘ढोलवाला’  आता है और रोते हुए बच्चे को पकड़ कर अपने ‘ढोल’ (Drum) में छुपा कर ले जाता है| ऐसी कहानियाँ इन ‘बाल- बुद्धि’ पर काफी कारगर होती है, परन्तु इसकी प्रस्तुति ‘वास्तविक’ बताने के लिए इसको भावपूर्ण बनाना होता है| ऐसे कहानी की प्रस्तुति को भावपूर्ण बनाने में परिवार के अन्य सारे सदस्य उसी भाव भंगिमा आ कर वैसा ही समां बनाने में सहयोग करते हैं|

इसी तरह, अधिकतर ‘वयस्कों’ (मात्र उम्र से) की “बाल-बुद्धि” की बेचैनी, बेकरारी एवं तड़प को शान्त कराने के लिए भी. यानि उन्हें डराने और लोभ दिलाने के लिए उन्हें कहानियाँ सुनानी होती है| लेकिन ये वयस्क अपने को समझदार भी समझते हैं और दुनियादारी का कुछ अनुभव भी प्राप्त किए होते हैं, इसीलिए इन कहानियों को विश्वसनीय बनाने के लिए ‘ऐतिहासिकता’ के अहसास का आधार देना होता है| इन कहानियों को धार्मिक या ऐतिहासिक बता कर उन्हें विश्वास दिलाया जाता है| तब ये कहानियाँ “मिथक” (Myth) के रूप में समाज के सामने आती है| यहाँ अधिकतर ‘वयस्कों’ की संख्या उस समाज के ज्ञान –विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन क्षमता के स्तर पर निर्भर करता है, यानि उस समाज के सांस्कृतिक वैज्ञानिक चेतना के स्तर पर निर्भर करता है, और वयस्कों की यह संख्या इसी क्षमता एवं स्तर के सापेक्ष होता है| ऐसे ‘बाल –बुद्धि’ वाले लोग अविकसित एवं विकासशील देशों में बहुसंख्यक होते हैं|

जब इन कहानियों को ऐतिहासिकता की कसौटी पर कसा जाता है, और जब यह इस कसौटी पर यह खरा उतरता है, तब ही वे “कहानियाँ” किसी काल खंड के इतिहास का हिस्सा बनने का दावा करता है और “इतिहास” कहलाता है| ‘ऐतिहासिकता की कसौटी’ के लिए उन बातों को तथ्य आधारित, साक्ष्य आधारित एवं तर्क आधारित होना चाहिए और यह तीनों ही वैज्ञानिकता के प्रमाणों से पुष्ट होना चाहिए| इसी वैज्ञानिकता के कारण जो घर, पुल, नहर, सड़क, कुआँ आदि मानव निर्मित मान कर किसी इतिहास का अभिन्न हिस्सा मान लिया जाता रहा, आज उसे किसी प्राकृतिक या किसी अन्य जैवीय प्राणी के उत्पादन का  प्रतिफल माना जा रहा है| और इसी कारण वह पूरा विषय ही ‘इतिहास’ की श्रेणी से बाहर हो जाता हैं| इसी कारण, कल तक जो ‘इतिहास’ हुआ करता था, आज महज एक ‘मिथक’ बन कर गया है, भले आपकी या किसी “आस्थाएँ” कुछ भी मानती हो| कोई भी विषय इतिहास है या मिथक है, उसी जानने का एक साधारण तरीका है, कि यदि वह विषय इतिहास की पाठ्य पुस्तक में है, तो वह इतिहास है, अन्यथा वहाँ का प्राधिकार भी उसे इतिहास नहीं मानता है, और वह महज एक मिथक है| ध्यान रहे कि मैं किन्ही के ‘आस्था’ या ‘मान्यताओं’ का विश्लेषण नहीं कर रहा हूँ|

जब हम उपरोक्त तीनों यथा ‘कहानी’, ‘मिथक’ एवं ‘इतिहास’ का समुचित ‘विश्लेषणात्मक’ एवं ‘समीक्षात्मक मूल्याङ्कन’ करते हैं, तो इन तीनों में कुछ समान तत्वों के रहने के कारण ये तीनों ही में कुछ समानता भी रहती है, बहुत कुछ असामनता भी रहती है, और इसीलिए सामान्य जनों में इनके सम्बन्ध में बहुत कुछ भ्रम भी रहता है|  ‘समीक्षात्मक मूल्याङ्कन’ से तात्पर्य यह होता है कि ऐसा ‘मूल्याङ्कन’ जिसमे कई भिन्न भिन्न आयामों से उन ‘निष्कर्षों’ पर सवाल खड़े किए जाएँ, ताकि एक “सामान्यीकृत निष्कर्ष’ या “सिद्धांत” (Theory) बनाया जा सके| तय है कि इस ‘विश्लेषणात्मक’ एवं ‘समीक्षात्मक मूल्याङ्कन’ के सभी आधार अद्यतन वैज्ञानिक होंगे, जो तथ्यात्मक होने के साथ साथ प्रमाणिक भी होंगे| इस वैज्ञानिक आधार के बिना कोई भी विषय महज एक ‘बकवास’ साबित होता है|

यहाँ यह भी ध्यान रहे कि किसी भी “प्रमाण” को मात्र किसी पुस्तक या किसी पौराणिक या किसी प्राचीन पुस्तक का ही ‘भाग’ (part) का दावा कर लेने या हिस्सा (sharing) हो जाने से ही वह “प्रामाणिक” नहीं माना जा सकता है, या मान लेना चाहिए| आज उन पुस्तकों को या उनके हिस्सों को “इतिहास” मान लेने पर कई आयामों से सवाल खड़े किए जा रहे हैं| इन किस्सों में ऐसे समाज एवं परिवार की चर्चा है कि एक ही परिवार में पुरुष जिस भाषा को जानता था, और उसी परिवार की स्त्रियाँ उसी भाषा को नहीं जानती थी, यानि उनके बीच संवाद करने के लिए कोई भी अन्य सामान्य भाषा नहीं थी, तो यह सवाल उठता है वह उस परिवार में पति –पत्नी, पिता –पुत्री, माता –पुत्र, एवं भाई –बहन के बीच संवाद कैसे होता रहा? इस तरह ‘परिवार’ नामक संस्था का निर्माण कैसे हो पा रहा था और यह संस्था कैसे अपना प्रकार्य करता रहा? स्पष्ट है कि ऐसा साहित्य, या कहानी हो सकता है, या मिथक हो सकता है, लेकिन उस साहित्य का सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं आर्थिक विवरण किसी भी इतिहास का हिस्सा नहीं ही सकता है| यह एक उदाहरण है, लेकिन ऐसे उदाहरण भरे पड़े हुए हैं, जो इतिहास होने का दावा करता है|

एक कहानी (किस्सा), मिथक, एवं इतिहास, इन तीनों में एक समान ही तत्व होते हैं, भले ही उनकी गुणवत्ता एवं मात्रा में विचलन रहा होता है| किसी भी किस्सा में, या मिथक में, या इतिहास में कोई एक “विषय” (Subject) होता है, जो किसी भी एक खास ‘कालखंड’ का होता है, या माना जाता है| इसी तरह उस विषय का ‘प्रस्तुतकर्ता’ भी एक कहानीकार या इतिहासकार के रूप में कोई व्यक्ति होता है, जो स्पष्टतया वर्तमान काल का होता है| यह ‘विषय’ तथ्य आधारित ‘इतिहास’ हो सकता है, या कल्पना आधारित एक ‘कहानी’ या ‘मिथक’ हो सकता है| किस्सा में यह ‘विषय’ वास्तविक या काल्पनिक हो सकता है| ‘मिथक’ में यह ‘विषय’ स्पष्टतया काल्पनिक यानि मनगढ़ंत ही होता है, और ऐसा ही साबित भी होता है| जब वह ‘विषय’ तथ्य आधारित एवं प्रमाणिक होता है, तब वह ‘विषय’ इतिहास हो जाता है|

स्पष्ट है कि ‘बाल –बुद्धि’ वाले कहानियों को और मिथकों को भी ‘तथ्य’ यानि ‘सत्य’ मान लेते हैं, और तब वह विषय ही इतिहास मान लिया जाता है| कुछ संस्कृतियों में कुछ समय पहले तक ‘मिथकों’ को ही ‘इतिहास’ माना जाता था, लेकिन आज ऐसी कई विषय इतिहास की पुस्तकों से बाहर हो गयी है| इन विकासशील अर्थव्यवस्था की संस्कृतियों में आज भी कई विषय इतिहास’ की पुस्तकों में नहीं हैं, फिर भी ‘सत्य’ एवं ‘तथ्य’ माना जाता है| इसके अलावा, इन विकासशील अर्थव्यवस्था की संस्कृतियों में आज भी कई विषय ऐसे हैं, जो वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरते हैं, और उनके समर्थन में कोई भी “प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य” उपलब्द नहीं है| इन संस्कृतियों में ऐसे विषय आज भी इतिहास की पुस्तकों में उपस्थिति पाए हुए हैं, जिनकी चर्चा किसी भी अन्य समकालीन वैश्विक साहित्य में नहीं है, जिनका कोई पुरातात्विक साक्ष्य खोजे नहीं मिलता, सिर्फ और सिर्फ कागजी साक्ष्य मिलता है, जो सभी के सभी मध्ययुगीन काल के होते हैं|

स्वयं “इतिहास” भी दो तत्वों से मिलकर बनता है| पहला तत्व, ऐतिहासिक तथ्य हैं, जो किसी ऐतिहासिक काल का होता है. और दूसरा तत्व, ‘इतिहासकार’ होता है, जो वर्तमान काल का होता है| ऐतिहासिक तथ्य भी वही बोलता है, जो वह इतिहासकार उससे बोलवाना चाहता है| यही बात कहानी एवं मिथक के बारे में भी सही है| अर्थात किसी भी विषय को कहानी बनना, या मिथक बनना, या इतिहास बनना उस प्रस्तुतकर्ता पर निर्भर करता है| लेकिन उसे सही मान लेना पाठक की बौद्धिकता पर निर्भर करता है| यह सब कुछ पाठक के समीक्षात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन क्षमता एवं स्तर पर निर्भर करता है| यह समीक्षात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन का विषय वह प्रस्तुतकर्ता का व्यक्तित्व भी होना चाहिए| यदि पाठक उस लेखक या प्रस्तुतकर्ता का समीक्षात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन नहीं कर पा रहा है, तो प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो० एडवर्ड हैलेट कार किसी के इतिहास समझने क्षमता के सम्बन्ध में कड़ा सवाल करते हैं| आप प्रो० एडवर्ड हैलेट कार की प्रसिद्ध पुस्तक “इतिहास क्या है” को भी देख सकते हैं|

शायद आप कहानी, मिथक एवं इतिहास के संबंधों को समझ हए होंगे|

आचार्य प्रवर निरंजन 

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

क्या किसी प्राचीन संस्कृति का पुनर्स्थापन संभव है?

यदि किसी को ऐसा लगता है कि कोई भी संस्कृति स्थिर रहती है और स्थायी प्रकृति बनाए रखती है, तो वह स्पष्टतया गलत होते हैं| कुछ लोग किसी प्राचीन या प्राचीनतम संस्कृति के गौरव एवं गुणवत्ता का काफी गुणगान करते हैं, वे ऐसा अवश्य करें, और मैं उन्हें गलत भी नहीं बता रहा हूँ| लेकिन कोई उसी संस्कृति को उसी स्वरुप एवं संरचना में आज फिर से पुनर्स्थापित करना चाहता है, तो स्पष्ट है कि उसे संस्कृति एवं उसके क्रियाविधियों की कोई ख़ास समझ नहीं है| ये प्राचीनतम या प्राचीन संस्कृति गौरवपूर्ण एवं गुणवत्ता से भरपूर थे, या हो सकते हैं, लेकिन ऐसा उस सन्दर्भ में, उस पृष्टभूमि में, और उस काल खंड के सापेक्ष में ही संभव होगा| क्या आज के बदले हुए सन्दर्भ में, पृष्टभूमि में, और वर्तमान काल खंड में वही संस्कृति सम्यक, उपयुक्त एवं समुचित होगी? ध्यान रहे कि आर्थिक शक्तियाँ निरन्तर गतिशील रहती है और समाज एवं संस्कृति सहित सब कुछ को नए तरीके से सदैव रूपान्तरित करती रहती है| इस विषय पर एक गहन विचार किया जाना चाहिए|

मानव समाज एवं संस्कृति के सन्दर्भ में, क्या आज के बदलते वैज्ञानिक युग में कोई भी एक निष्पक्ष एवं परम ‘वैज्ञानिक सत्य’ हो सकता है? किसी भी पक्ष का कोई भी एक अन्तिम सत्य नहीं होता है, बल्कि अनेक होता है, और प्रत्येक सत्य अपने आप में अपूर्ण भी होता है| सापेक्षवाद भी यही कहता है| एक ही विषय, या घटना, या प्रक्रिया के कई आयाम होते हैं, और इनकी समुचित व्याख्या एवं इनकी स्थिति का निर्धारण इन्ही आयामों के सापेक्ष किया जा सकता है, या किया जाना चाहिए| इन आयामों में प्रकृति, आत्म (अवलोकनकर्ता का मन), काल, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति, आर्थिक शक्तियाँ, बाजार की शक्तियाँ आदि आदि हो सकते हैं, और संस्कृति को इन आयामों के सापेक्ष ही देखने समझने की आवश्यकता होती है| इन आयामों के या इन आयामों के संयुक्त प्रभाव में समाज एवं संस्कृति को अपना स्वरुप, संरचना, ढाँचा, आंतरिक विन्यास, क्रियाविधि, गतिशीलता, एवं प्रभावशीलता बदलना पड़ता है| इसी क्रियाविधि से समाज एवं संस्कृति अपने बदलते हुए प्रकृति, आत्म (Self), काल, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति, आर्थिक शक्तियाँ, बाजार की शक्तियाँ आदि के अनुकूल या अनुरूप प्रतिक्षण अपना समायोजन करता रहता है, अनुकूलन करता रहता है, और अपने अनुकूलित यानि परिमार्जित स्वरुप में निरन्तरता बनाए रखता है|

आज समाज और संस्कृति को नियमित एवं नियंत्रित करने में बाजार की शक्तियाँ ही प्रमुख आर्थिक शक्तियाँ हैं| यही शक्तियां ही उस कालखंड में समाज और संस्कृति के सापेक्षिक आयामों यथा अवलोकनकर्ता के आत्म/ मन (Observor’s Self/ Mind), पारिस्थितिकी, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति को नियमित, नियंत्रित, प्रभावित, संशोधित, एवं परिवर्तित करती रहती है| और इसीलिए इन आयामों के बदलने से समाज और संस्कृति भी बदलती रहती है| आज बाजार एक शक्तिशाली संस्था के रूप में सामाजिक एवं सांस्कृतिक आयामों को नए स्वरुप (Form), संरचना (Structure), ढाँचा (Framework), आंतरिक विन्यास (Internal Matrix), क्रियाविधि (Mechanics), गतिशीलता (Dynamics), एवं प्रभावशीलता में परिभाषित कर रही है| यह वह सब कुछ बदल दे रहा है, जिसकी कल्पना कुछ समय पहले तक नहीं की जा सकती थी| आज कोई भी समाज और संस्कृति बाजार की इन शक्तियाँ के प्रभाव परिणाम से अछूता नहीं है, और नहीं रह सकता है|

इसी कारण आप यह कह सकते हैं कि जिन शक्तियों का ‘बाजार की शक्तियों’ पर प्रभावकारी नियंत्रण होता है, वही शक्तियाँ ही सामान्य जनों के मानसिकताओं, यानि विचारों, यानि अभिवृतियों की व्यवस्था पर भी नियंत्रण रखता है| अर्थात वही बाजार की शक्तियाँ ही सामान्य जनों के मानसिकताओं, यानि विचारों, यानि अभिवृतियों के उत्पादन पर भी, यानि “बौद्धिक वैचारिक उत्पादन” पर भी नियंत्रण रखता है| स्पष्ट है कि ‘बाजार की शक्तियाँ’ अवश्य ही किसी भी समाज और संस्कृति को बदल सकती है, और बदल भी रही है, और आप कुछ भी अन्यथा नहीं कर सकते हैं| 

तो आज कोई भी पुरानी संस्कृतियों के पुनर्स्थापन के लिए  बेवजह अपना माथा क्यों पीट रहा है? आज पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव में बदल गया है और ‘वैश्विक आर्थिक शक्तियाँ’ ही ‘बाजार की शक्तियों’ को भी नियंत्रित कर रही है| आज कोई भी एक सत्ता (Authority) यानि स्थानीय शक्ति वैश्विक ‘बाजार की शक्तियाँ’ को नियंत्रित एवं नियमित नहीं कर सकता| और इसी कारण वह संस्कृति के गतिशील चक्र को भी नियंत्रित नहीं कर सकता है, यानि कोई भी ऐसा कर पाने का भ्रम भी नहीं पाले| 

इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि बाजार की शक्तियाँ ही विचारों एवं उनके सह उत्पादों के उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग को भी नियंत्रित करता हुआ होता है, आप इसे मानें या नहीं मानें| अर्थात बाजार की शक्तियाँ ही लोगों की सोच, अभिवृति, मानसिकता एवं उन्मुखता (Orientation) को, यानि वैचारिकी को आकार (Shape) दे रहा है| मैं इसे यहाँ इसलिए स्पष्ट कर दे रहा हूँ, क्योंकि यदि आपको किसी समाज एवं संस्कृति के पुनर्स्थापन के सम्बन्ध में जो करना है, कीजिए, लेकिन सारी स्थिति को अच्छी तरह समझ कर कीजिए| इसीलिए बाजार की शक्तियाँ को पहचानिए, समझिये, और तब आगे रणनीति तय करने को सोचिए|

‘समाज’ और ‘संस्कृति’ के ‘व्यवस्थित उद्गम’ कोई दस हजार साल पहले माना जा सकता है| ‘समाज’ और ‘संस्कृति’ के ‘व्यवस्थित उद्गम’ मानव की पत्थरों पर से निर्भरता समाप्त होने और कृषि कार्य प्रारम्भ होने से ही शुरू हुआ| इसके ही साथ ‘बुद्धि की संस्कृति’ यानि ‘बौद्धिक संस्कृति’ का आगमन हुआ| यह आर्थिक शक्तियों का ही परिणाम एवं प्रभाव रहा| हर युग में ‘आर्थिक शक्तियों’ ने इन्हें परिमार्जित कर नए रूपों में ढाल दिया है, जैसे मध्य युग में सामन्तवादी समाज एवं संस्कृति, आधुनिक युग में पूँजीवादी एवं समाजवादी समाज एवं संस्कृति| वर्तमान युग में ‘डाटावाद’ समाज एवं संस्कृति को प्रभावित कर रहा है| इन सभी युगों का उदय एवं विकास भी ‘आर्थिक शक्तियों’ ने ही, यानि “बाजार की शक्तियों” ने ही किया है और ये अभी भी कार्यरत हैं|

‘समाज’ और ‘संस्कृति’ क्या है? ‘समाज’ लोगों के समूह का एक संस्था है, जो आपसी सम्बन्धों के नेटवर्क से गुंथा हुआ होता है| तो क्या कोई संस्कृति मूर्ति एवं स्थापत्य है, गीत एवं संगीत है, नृत्य एवं चित्रकला है, लोकभाषा एवं लोकाचार है, या धार्मिक आस्था एवं लोक परम्परा है? नहीं, यह सब ‘संस्कृति’ की “विशिष्ट अभिव्यक्तियों” के कुछ उदाहरण मात्र है, यह स्वयं संस्कृति नहीं है| यह संस्कृति कुछ खास चिन्हों, जैसे भाषा, धर्म –पंथ, जाति या प्रजाति या विशिष्ट आर्थिक संबंधों में अभिव्यक्त होता है| वास्तव में, संस्कृति एक खास पद्धति से जीवन जीने का कौशल है, उपक्रम है, और इस तरह संस्कृति उस समाज का एक निश्चित ‘मानसिक निधि’ है, जो समय के साथ विकसित होता रहता है| संस्कृति एक विशिष्ट जीवन शैली है, जिसे कोई भी व्यक्ति उस समाज के सदस्य होने एवं उसमे समय व्यतीत करने से सीखता है| संस्कृति अपने समाज के लिए कुछ ख़ास मूल्य, प्रतिमान, रीति, मानक इत्यादि निर्धारित करता है, और जिसका अनुपालन सभी से किये जाने की अपेक्षा रखता है| इस तरह संस्कृति समाज को ‘स्वयं – नियंत्रण मोड’ में संचालित एवं नियमत करने वाला एक ‘साफ्टवेयर’ है|

चूँकि संस्कृति मानवीय भावनाओं को स्वत: संचालित करती रहती है, इसीलिए सांस्कृतिक पहचानें बहुत ही उग्र एवं प्रबल होती है| ये भावनाएँ लोगों में उसके प्रति भावावेश पैदा कर उसे एकत्रित भी करती है, आन्दोलित भी करती है और इसीलिए संस्कृति का राजनीतिक उपयोग एवं दुरूपयोग भी बहुत होता है| किसी का भी उपयोग एवं दुरूपयोग होना, एक स्थिति सापेक्ष माना जाता है|

संस्कृति चूँकि एक मानसिक निधि है, और इसीलिए यह लोगों के मन में निवास करता है| चूँकि संस्कृति कोई भौतिक अस्तित्व में नहीं होती है, इसीलिए यह किसी सभ्यता की तरह मरती- मिटती नहीं है, बल्कि यह ‘समाज की निरन्तरता’ के साथ ही अपनी निरन्तरता बनाये रखती है| ‘माया’ सभ्यता के लोग समाप्त हो गये, इसीलिए उनकी संस्कृति भी विलुप्त हो गयी, लेकिन सभ्यता के अवशेष आज भी मौजूद हैं| भारत में सांस्कृतिक निरन्तरता बनी हुई है, भले यह तत्कालीन आर्थिक शक्तियों के प्रभाव में अपना स्वरुप बदल दी है, और यह अपने अनुकूलित किये गये स्वरुप में जीवित बनी हुई है| संस्कृतियों का विलोपन नहीं होता है, बल्कि इनके स्वरुप में रूपांतरण या परिवर्तन होता है| इसी तरह कोई भी किसी प्राचीन संस्कृति को उसी स्वरुप में आज पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उससे सम्बन्धित सन्दर्भ, पृष्टभूमि, कारक, काल, प्रकृति, बाजार आदि सब कुछ बदल गया है|

आप भी ठहर कर विचार कीजिए| अपनी भावनाओं को किसी के बहाव में मत उड़ने दीजिए| और संस्कृति के तथाकथित पुनर्स्थापन के खेल को समझिये| आप तो बौद्धिक हैं, और इसीलिए विमर्श में शामिल होइए|

आचार्य प्रवर निरंजन   

गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

समस्त मानवता का कल्याण कैसे हो?

यदि आप सबका यानि समस्त मानवता का कल्याण करना चाहते है, तो वह कैसे किया जा सकता है? यानि यह भी एक अहम् सवाल है कि यदि कल्याण पाने वालों की संख्या हजारोंमें हैं, या करोड़ों में हैं, या अरबोंमें शामिल हैं, तो इसे कैसे किया जा सकता है? स्पष्ट है कि लाभार्थी की संख्या के अनुसार कार्यान्वयन का तरीकाभी बदल जाता है| कल्याण करने वाला व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था, या समूह, या सरकार हो सकता है, लेकिन यह एक अहम् सवाल है कि तरीका क्या हो? यह भी सही है कि इस कल्याण की अवधारणा भी समय, स्थिति, पृष्ठभूमि, एवं सन्दर्भ के सापेक्ष बदलता हुआ होगा, परन्तु ऐसे कल्याण के लिए क्या करना समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? हमलोग इसी सवाल के विश्लेषण, मूल्याङ्कन एवं समीक्षात्मक निर्णय को लेकर आगे चलते हैं

बिना किसी भूमिका के, मैं यह कहना चाहता हूँ किस्पष्ट सवाल यह है कि मैं अरबों की संख्या में मौजूद सभी लोगों का कल्याण  करना चाहता हूँ, तो मुझे कैसे आगे बढ़ना चाहिएयह सवाल आपसे ही है|

कोई भी व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था, या सरकार आर्थिक सहयोग का कल्याण” (Welfare of Economic Cooperation) कुछ सीमित’ (Limited) लोगों तक ही पहुंचा सकती हैइसी तरह, कोई भी व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था ज्ञान आधारित सहयोग का कल्याण” (Welfare of Knowledge based Cooperation) कुछ असीमित’ (Unlimited) लोगों तक ही पहुंचा सकती है| लेकिन यदि कोई अपने कल्याण की पहुँच विश्व की समस्त मानवता तक पहुँचाना चाहता है. तो उसे अवश्य ही जीवन दर्शन” (Philosophy of Life), यानि संस्कृतिके उपागम का ही सहारा लेना होगा| और यही जीवन दर्शनसमस्त मानवता को प्रभावित एवं नियमित करता होगा| तो हमें क्या करना चाहिए?

यह तो स्पष्ट है कि यदि कोई किसी का कल्याण करना चाहता है, और वह आर्थिक सहयोग ही देना चाहता है, तो वह सहयोग कुछ हजार व्यक्तियों तक का ही का कल्याण कर सकता है| इस विधि से उससे अधिक का कल्याण करना व्यवहारिक रूप में संभव नहीं दिखता है| यदि वह कल्याण करने वाला कोई सरकार या अन्य संस्थान है, यानि उसके पास सामान्य जनता से संग्रहित किया गया अत्यधिक धनहै, तो वह सरकार या अन्य संस्थान करोड़ों एवं अरबों लोगों पर कुछ भी मात्रा में धन लुटा सकता है|

तो क्या आर्थिक दान या सहयोग किया जाना समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? इसी कड़ी में, एक सवाल यह है कि क्या धार्मिक प्रतिष्ठानों में या धार्मिक प्रतिष्ठानों के बाहर भक्तों द्वारा याचको को दिए जाने वाले दान या सहयोग समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? या जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में या विभिन्न कदमों पर दिए जाने वाले आर्थिक सहयोग या भीखदेना समुचित है? लेकिन इससे से ऐसे याचकों की संख्या भी नहीं घटती, या इनकी हालात भी नहीं बदलते और इनका मांगनाएक धंधा ही बन जाता हैतब आर्थिक सहयोगकी अपेक्षा रखना एक लोक संस्कृतिही बन जाती है| यह सहयोग सभी को सामान्य आँखों से भी दृष्टिगोचर हो जाता है, और यह तत्काल राहतपूर्ण होता है| यह देनेवाले को भी कल्याण करने का आत्मतुष्टि का भाव भी देता हैलेकिन क्या आर्थिक सहयोगकी सदैव ही अपेक्षा रखना समाज में कोढ़पनको बढ़ावा देना नहीं है? ऐसे कार्यों में आजकल लोकप्रिय सरकारे भी समाज में भीखमंगीका कोढ़ बढ़ाने में प्रमुख आरोपी साबित हो रहे हैं| ‘आर्थिक सहयोगदेकर या प्रत्यक्ष राशि देकर किसी के आय में वृद्धिकर सकता है, लेकिन उसका समुचित या किसी भी प्रकार का विकास नहीं कर सकता है?

प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने सक्षमता उपगम” (Capability Approach) को ही विकास का आधार माना है, क्योंकि आर्थिक दान देकर किसी की आय तो बढ़ायी जा सकती है, लेकिन इससे किसी का विकास नहीं हो सकता| इसीलिए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा अपनाए गये मानव विकास सूचकांक’ (HDI) के अवयवों में सिर्फ आय की बढ़ोत्तरी शामिल नहीं हैइसमें भी सबसे प्रमुख व्यक्ति का जीवन दर्शन’ (संस्कृति) ही है, जो उसके जीवित रहने की प्रत्याशा’, ‘शिक्षाएवं आय सृजनसे परिलक्षित होता है|

कल्याण करने का एक अन्य प्रमुख उपागम ज्ञान का प्रसारकरना है, जिसके द्वारा कोई कल्याणकारी व्यक्ति या एजेंसी अपने कल्याणकी पहुँच कुछ असीमितसंख्या तक, यानि कुछ करोड़ों तक पहुंचा सकता है| इसी ज्ञान के प्रसारउपागम में ज्ञान आधारित नवाचारी तकनीक भी शामिल कर लिए जाते हैं| बहुत से तकनिकी उत्पादों ने मानव के जीवन यापन को बहुत से क्षेत्रों में सरल एवं आसान कर दिया है|

लेकिन यह नवाचारी ज्ञान एवं नवाचारी तकनीक भी समस्त मानव का कल्याण करने में अभी तक समर्थ नहीं हो सका है| इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति उपयोगी एवं हितकर ज्ञानऔर तकनीकदे तो सकता है, लेकिन इसका सदुपयोग या दुरूपयोग करना तो उस लाभार्थी के मानसिकता एवं निर्णय पर निर्भर करता है| इसीलिए कहा गया है कि अभिवृति (Attitude) यानि मानसिकताही जीवन में सब कुछ है|” इसी को दुरुस्त करने के लिए ही जीवन दर्शनकी वैज्ञानिक व्याख्या की आवश्यकता होती है| और इसी जीवन दर्शनको सामान्य एवं साधारण शब्दों में संस्कृतिभी कहते हैं| इन सभी दर्शनोंको सकारात्मक, रचनात्मक, हितकारी, विकासात्मक एवं उपयोगी होना चाहिए|

इस विश्व में मानव जीवन दर्शन को प्रभावित करने एवं नियमित करने वाले कई दर्शन “पंथ” के रूप में प्रचलित है, लेकिन इनमे अधिकांश प्राचीन मानव जीवन दर्शन का आधुनिक उपयोग मानव को बांटने में, दबाने में और उत्पीडित करने में किया जा रहा है| ये सभी मानव जीवन दर्शनयानि उन संस्कृतियों के मूलाधार अपने उत्पत्ति एवं कार्यन्वयन के समय तो समुचित, उपयुक्त, उपयोगी एवं उत्तम थे| उस समय की विभिन्न वैश्विक संस्कृतियाँ अपनी अपनी भौगोलिक सीमाओं के अन्दर बाधित थे, और उन्ही भौगोलिक परिस्थितियों एवं शक्तियों से नियमित, नियंत्रित, निर्देशित एवं संचालित थे| आज भौगिलोक बाधाएँ सीमित एवं नियंत्रित हो गयी है, तकनिकी प्रसार से परिवहन एवं सूचना संचरण सरल, आसान, साधारण एवं सुविधाजनक हो गया हैअब उन विभिन्न वैश्विक संस्कृतियाँ अपने बदलते सन्दर्भों के सापेक्ष अपनी आवश्यकताओं की मौलिकता खो दी है, लेकिन इन प्राचीन मानव जीवन दर्शन के वर्तमान मठाधीशों को इस वैज्ञानिक आधुनिक युग में संकटका आभास हो रहा हैऐसे मठाधीश यथास्थितिवाद बनाए रखने के लिए वह सब कुछ कर रहे हैं, या करना चाह रहे हैं, जो समस्त मानवता के कल्याण के विरुद्ध जाता दिखता है|

इसी सन्दर्भ मेंमेरी भी दो पुस्तक जल्द आने वाली है, जो इस मानव जीवन दर्शन को वैज्ञानिक एवं आधुनिक आयाम देते हुए सब कुछ की व्याख्या स्पष्ट कर देगा| इस एक पुस्तक नाम  – मानव जाति का सफ़र पेशा, जाति एवं कास्ट तक” है

प्राचीन मानव जीवन दर्शन ही संस्कृतिकहलाती है, और अपनी गतिशीलता के कारण यही संस्कृति आधुनिक परिस्थितियों का अनुकूलन कर आधुनिक संस्कृतिभी बनती है| यह प्राचीन मानव जीवन दर्शन उस समाज के इतिहास बोध से उत्पन्न एवं विकसित होता है, जिसे इतिहास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही दुरुस्त कर सकता है| इसी सन्दर्भ में मेरी दूसरी पुस्तक – इतिहास का विज्ञान” (The Science of History) भी जल्द ही आ रहा है|

इस आलेख पर गंभीरता से विचार लिए जाने का सादर अनुरोध है| इसके ही साथ यह भी अनुरोध है कि आप अपने बहुमूल्य सुझावों से भी अवगत करावें| मेरा ईमेल ब्लॉग पर उपलब्ध है|

आचार्य प्रवर निरंजन  

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

संस्कृति, सामन्तवाद और पुरोहित

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन   (भाग – 26)

‘पुरोहित’ एवं ‘पुरोहिताई’ को लेकर उत्कृष्ट समझे जाने वाले बुद्धिजीवियों में बहुत कुछ भ्रमात्मक अवधारणाएँ जमी हुई हैं, और उन्हीं के भ्रम निवारण हेतु यह संक्षिप्त आलेख है| लेकिन इन पुरोहित की भूमिका एवं उनके महत्त्व को सम्यक ढंग से समझने के लिए हमें संस्कृति एवं सामन्तवाद को समझना होगा, और इनके अन्तरसम्बन्धों के क्रियाविधि को भी समझाना चाहिए| तब हम ‘पुरोहित की गत्यामकता’ (Dynamism of Priest) के भ्रम को समझ पाएंगे|

“संस्कृति” सामाजिक विकास, संवर्धन एवं मानव कल्याण सम्बन्धी व्यवस्था को बनाये रखने का एक सामाजिक -सांस्कृतिक प्रक्रम है, जिसके द्वारा समाज अपनी समझ से “सामाजिक -सांस्कृतिक मूल्य एवं प्रतिमान” (Socio- Cultural Values n Norms) के मानक निर्धारित करता है, और सभी सदस्यों के द्वारा इसके अनुपालन किए जाने की अपेक्षा होती है| इन ‘सामाजिक सांस्कृतिक मूल्य एवं प्रतिमान’ के मानकों (Standards) के अनुरूप व्यवहार एवं कार्य करने वाले ही ‘सुसंस्कृत व्यक्ति’ कहलाते हैं, सभ्य कहलाते हैं| इन्हीं मानको के अनुरूप सभी सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं का निर्माण होता है, पुनर्गठन होता है, संचालन होता है एवं नियमन होता है| इस तरह समाज के हितवर्धन के लिए सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं के उपयुक्त नियमन के लिए ही “पुरोहित” की भूमिका आती है|

तय है कि इन ‘सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं’ (Socio – Cultural Institutions) की प्रासंगिकता के बने रहने के लिए इन्हें बदलती हुई शक्तियों के अनुरूप अनुकूलित होकर बदलते रहना पड़ता है, और इसीलिए संस्कृति को गतिमान रहना होता है| प्राचीन काल में “बुद्धिवाद” का उदय एवं विकास हुआ| इसीलिए ऐसे काल में एक पुरोहित की भूमिका ‘सकारात्मक’ एवं ‘रचनात्मक’ रही, और इस तरह एक पुरोहित का नाम ‘पुर’ का हित करने वाला के रुप में सार्थक साबित हुआ|  

लेकिन मध्य काल के सामन्तवाद में ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव में सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं में संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक परिवर्तन हुआ, तो ‘पुरोहितों’ की भूमिका ही पूरी तरह बदल गयी दिखने लगी| सरलतम रुप में, ‘समानता’ के ‘अन्त’ को ही सामन्तवाद (= समानता + अन्त) कहते हैं| जिन ऐतिहासिक शक्तियों ने ‘बुद्धिवाद’ के काल का समापन किया, उन्हीं शक्तियों के “पुरोहिताई की संरचना, प्रकृति एवं व्यवहार” को भी बदल डाला|

‘योग्यता’ आधारित ‘पद’ एवं ‘कार्य’ की समानता के अवसर का अन्त हो गया, और

‘जन्म’ आधारित ‘पद’ एवं ‘कार्य’ के अवसर सुनिश्चित कर दिया गया|

यह सब ‘भौतिक शक्तियों’ के प्रभाव थे, जिन्हें इतिहास के काल में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ कहा हाता है| इस सामन्तवाद के काल में ‘पुरोहिताई’ का भी कार्य स्वरुप बदल गया| आज के वर्तमान ‘विज्ञानवाद’ के युग में, ‘जन्म’ आधारित ‘पद’ एवं ‘कार्य’ के अवसर ‘मानवतावाद’ एवं ‘विज्ञानवाद’ का विरोधी घोषित कर दिया गया|

इस तरह ‘सामन्ती काल का पुरोहिताई’ का कार्य अपने ‘सांस्कृतिक जड़ता’ के कारण वर्तमान सन्दर्भ में नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक भूमिका में दिखने लगा| यह मध्ययुगीन परम्परा के वर्तमान काल में निरंतरता के कारण दिखती है| यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ‘पुरोहिताई का कार्य’ नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक हुआ, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि ‘पुरोहित’ का पद ही नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक हो गया|

चूँकि पुरोहित का पद ही समाज के हितवर्धन में सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं के उपयुक्त नियमन के लिए हैं, इसीलिए एक पुरोहित का पद सभी आदिम संस्कृतियों में, सभी धार्मिक एवं सांप्रदायिक व्यवस्थाओं में, तथा सभी वैधानिक संरचनाओं में उपलब्ध रहता है|

आप एक पुरोहित के कार्य विधि, कार्य पद्धति, कार्य संरचना, एवं कार्य संपादन की सामग्री पर आपत्ति कर सकते हैं, विवाद कर सकते हैं, लेकिन आप पुरोहित के पद एवं भूमिका पर आपत्ति नहीं कर सकते हैं|

इसे समझिये और पुरोहित बनिए|

आचार्य प्रवर निरंजन 

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

राजनीति में धर्म की भूमिका और पुरोहित

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन   (भाग – 25

वैसे राजनीति का आशय राज्य की नीति से होता है,

लेकिन राजनीति में नीतियों का राज बनाए रखना होता है,

यानि नीतियों को राजपूर्ण  रखना ही राजनीति है।

अर्थात जिन नीतियों का राज कोई नहीं समझे, उसी को राजनीति कहते हैं।

वैसे यदि राजनीति को राज्य प्रशासन व्यवस्था समझ जाता है, तो गलत नहीं होगा|

एक सम्प्रभु राजनीतिक व्यवस्था या सत्ता ही वर्तमान मानव जीवन की सभी समस्यायों के समाधान की कुन्जी माना जाता है, और

इसीलिए लोकतान्त्रिक एवं गणतान्त्रन्तिक व्यवस्था में राजनीति महत्वपूर्ण हो जाती है|  

राजनीति करने के कई विधियाँ या तरीके हो सकते हैं| लेकिन एक राजनीति ‘स्वचालित मोड़’ (Automated Mode) में भी होती है, जिसमे सत्ता को व्यवस्था सञ्चालन के लिए विशेष सजग प्रयास नहीं करने होते हैं|

इस राजनीति में “संस्कृति” को आगे रख कर यानि “धर्म” को आगे रखकर करना काफी सरल, साधारण, सहज एवं स्वचालित स्वरुप में होता है| कहने का तात्पर्य यह राजनीति अपने धार्मिक सांस्कृतिक आवरण में, यानि खोल (Veil) में रह कर की जाती है| जैसा आप विश्व के सभी तथाकथित विकासशील देशों में और अविकसित देशों में देख रहे होंगे| विकसित देशों में ‘धर्म’ को विशेष महत्त्व नहीं मिलता है|

धार्मिक खोल में की गई राजनीति का उद्देश्य, स्वरुप और विधियों के बारे में किसी का ध्यान नही जाता है। ऐसी राजनीति बहुत प्रभावशाली होती है और सफल भी रहती है। 

“धर्म” की इस “राजनीति” का रास्ता “पुरोहिताई” से ही जाता है|

एक पुरोहित ही

इन सभी तथाकथित विकासशील देशों में और

अविकसित देशों की राजनीति का केंद्र होता है|

यही रास्ता साधारण मानव मन के अन्दर जाने को सुगम साधन देता है|

इसे समझिए।

और पुरोहित बनिए। 

आचार प्रवर निरंजन 

संस्कृति में बदलाव और पुरोहित

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन   (भाग – 24

जब तक किसी क्षेत्र की आबादी जीवित रहती है,

उसकी संस्कृति की निरन्तरता भी बनी रहती है,

जबकि सभ्यताएँ मिटती और बनती रहती है। 

संस्कृति की निरन्तरता अपने मौलिक स्वरूप और स्वभाव में अपनी ‘प्राथमिक प्रकृति’ (प्राकृतिक शक्तियों द्वारा) और ‘द्वितीयक प्रकृति’ (मानवी शक्तियों द्वारा) के प्रभाव में संतुलन बनाती रहती है। इस तरह यह संस्कृति जीवित भी रहती है,

निरन्तरता भी बनाए भी रखती है,

परिमार्जित होकर अनुकूलित होती रहती है।

इसी अनुकूलन की प्रक्रिया को "सांस्कृतिक गत्यात्मकता" (Cultural Dynamism) कहते हैं। 

यह “सांस्कृतिक गत्यात्मकता” सामाजिक सांस्कृतिक ढांचा, संरचना एवं विन्यास के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के निर्माण, संशोधन, समापन आदि में भूमिका निभाती रहती है। समय के साथ सामाजिक सांस्कृतिक विधियाँ, इनकी विषय वस्तु और प्रक्रियात्मक स्वरूप ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव से बदल सकता है, या बदलता रहता है, लेकिन एक पुरोहित की अनिवार्यता बनी रहती है। 

आखिर सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओ का निरन्तरता तो बनी रहेगी ही, अन्यथा इसी अव्यवस्था से ही सभ्यताओं का पतन हो जाता है। 

अतः कोई ‘पुरोहित’ पद का नाम बदल सकता हैं,

उसके कार्य- सामग्री को, या

कार्य स्वरूप को, या

कार्य- विधियों को बदल सकता है,

लेकिन

समाजिक संस्थाओं के निर्माण, संशोधन, बदलाव, या परिमार्जन करने के लिए एक वैधानिक या सामाजिक -सांस्कृतिक कर्ता की आवश्यकता होती है,

और उसी को “पुरोहित” कहते हैं। 

आप उसका नाम बदल सकते हैं और

उसकी विधि सामग्री बदल सकते हैं,

उसकी भूमिका बदल सकते हैं, और

तरीका बदल सकते हैं;

लेकिन सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं को समाप्त नहीं कर सकते।

और इसी कारण पुरोहित रहेंगे ही। आप भी मूल्यांकन कर लीजिए। 

आप तो बौद्धिक और समझदार भी है।

इसी के लिए आप भी पुरोहित बनने की जवाबदेही स्वीकार कीजिए। 

आचार्य प्रवर निरंजन

गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

क्या पुरोहित परिवर्तन के नायक है?

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन   (भाग - 23) 

सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र या व्यवस्था में परिवर्तन भौतिक एवं मानसिक, दोनों स्तर पर होता हैं, हालांकि ये दोनों ही क्रिया और प्रभावों में आपस में गुंथे हुए होते है।

भौतिक परिवर्तन तो 'आर्थिक शक्तियों' के द्वारा होता है, जिसे आधुनिक काल में "बाजार की शक्तियां" कहते हैं। भौतिक वस्तुएं भौतिक परिवर्तन से प्रभावित होता है, जिसके द्वारा ही सामाजिक सांस्कृतिक  व्यवस्था एवं तंत्र का “हार्डवेयर” बनता है|

लेकिन मानसिक परिवर्तन तो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक शक्तियों के द्वारा ही होता है, जिसे अक्सर धार्मिक, आध्यात्मिक, सम्प्रदायिक या वैचारिक मानसिकता का पर्याय_समझा जाता है। यह मानसिक परिवर्तन या सञ्चालन ही सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था एवं तंत्र का “साफ्टवेयर” बनता है| यह अदृश्य रहकर सामाजिक एवं सांस्कृतिक तंत्र एवं व्यवस्था चलाता रहता है|

इस तरह एक “पुरोहित” ही इस सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था एवं तंत्र के “साफ्टवेयर” के सञ्चालन करने वाला “साफ्टवेयर इंजीनियर”  होता है|

मानसिक परिवर्तन के लिए कथा (कहानियां), कथानक (Narrative), मिथक, इतिहास, दर्शन, साहित्य  और विज्ञान का सहारा लिया जाता है। 

एक पुरोहित भी अपने कथा, कथानक (इसे गढा जाता है), मिथक (कल्पना पर आधारित अतार्किक), इतिहास, दर्शन, साहित्य और विज्ञान के द्वारा अपने श्रोताओं को वह हर बात समझाता रहता है, जिसे वह बताना चाहता है, समझाना चाहता है।

इसलिए *आप भी पुरोहित और संस्कारक बनिए।* 

इसके लिए आप " *पुरोहित प्रशिक्षण एवं संस्कारक मिशन"* से जुड़िए।

और एक “पुरोहित” के रुप में इस सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था एवं तंत्र के “साफ्टवेयर” के सञ्चालन करने वाला सफल, कुशल एवं योग्य “साफ्टवेयर इंजीनियर” बनिए| 

(पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन से सम्बन्धित इस सीरिज के मेरे अन्य सभी आलेख niranjan2020.blogspot.com पर उपलब्ध है)

आचार्य प्रवर निरंजन

ट्राय का काठ का घोड़ा और पुरोहित

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन   (भाग – 22) 

‘ग्रीक पौराणिक कथाओं में’ “ट्रोजन हॉर्स”  (काठ का घोड़ा') एक लकड़ी का खिलौना स्वरूप घोड़ा था , जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका इस्तेमाल यूनानियों ने ‘ट्रोजन युद्ध’ के दौरान ‘ट्रॉय शहर’ में प्रवेश करने और युद्ध जीतने के लिए किया था। 

यूनानी सेनाओं की वापसी देख इस बडे खिलौने को ट्रॉय शहर वाले अपने  नगर- किले के अन्दर ले गए। रात्रि के शान्ति पहर में उस घोड़े में छिपे हुए यूनानी सिपाहियों ने निकल कर किले का फाटक खोल दिया और योजना अनुसार बाहर इंतजार कर यूनानी सैनिकों ने किले के अन्दर जाकर विजयी हो गए। 

एक पुरोहित भी ट्रोजन का घोड़ा होता है, जो

अपने पसंदीदा किसी के मन के किले के अन्दर जा सकता है।

 वह पुरोहित अपने सम्मान, प्रतिष्ठा, विद्या, विवेक,एवं परम्परा से अपने यजमान व्यक्ति और समाज के मन को खोल देता है।

फिर आप उन यजमानों को 

 *सुनाते रहिए,* 

 *बताते रहिए,* 

 *पढाते रहिए,* और 

 *समझाते रहिए।* 

चाहे आपका विषय वस्तु

*विज्ञान का हो,*

*समृद्धि का हो,*

*विकास का हो,*

*संस्कार का हो,*

*संस्कृति का हो*, या

*अध्यात्म का हो।*

तो शिक्षित प्रशिक्षित पुरोहित बनिए,

हर समाज में से बनाइए, और

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन से जुडिए। 

भारत को फिर से विश्व गुरु बनाइए।

आचार्य प्रवर निरंजन

पुरोहित का प्रकाश

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन  (भाग - 21) 

हर किसी वस्तु या व्यक्ति का मूल्यांकन

उसके ध्रकाश में आने पर, या

उसके प्रकाशित होने पर ही होता है।

आपकी वेशभूषा ही

सबसे पहले आपको प्रकाशित करती है,

आपको सबसे अलग करता है,

आपको विशिष्टता देता है।

“आग का रंग” अन्य रंगों की अपेक्षा सबसे पहले दिखाई पड़ता है।

इस रंग को केसरिया, लाल, गेरुआ आदि भी कहते हैं।

यह विरोधाभासी (Contrasting) रंग आपको सामान्य जन से अलग कर देता है,

सभी को आकर्षित करता है।

“एक पुरोहित का पोशाक” ऐसा ही और सबसे अलग होता है।

आप इसमें *हमेशा लोगों की नजरों में* रहते हैं।

आप दूसरो से ज्यादा दिलचस्प और ज्यादा महान माने जाते हैं। 

कुछ बौद्धिक इतने अस्थिर होते हैं कि उन्हें *पुरोहित का सिर्फ व्यक्ति वाचक ही अर्थ समझ में आता है और समूह एवं गुण वाचक अर्थ उनके दृष्टि से गायब हो* जाता है। वे इसे सिर्फ किसी एक " *वाद* " से जोड देते हैं और अन्य का ध्यान नही रखते। वे ये नहीं देख पाते हैं कि अन्य पंथों सम्प्रदायों में पुरोहित को विशिष्ट रूप में दिखाने के लिए विचित्र रँग, डिजाइन के साथ साथ उन्हें विशिष्ट स्थान पर आसीन किया जाता है। कानून के घर पर में भी सामाजिक संस्थाओं के निर्मात्री भूमिका वाले व्यक्ति को उच्चतर और अलग स्थान रहता है, जो वैधानिक पुरोहित की भूमिका अदा करते हैं। 

जो व्यक्ति प्रकाशित रहता है, या

प्रकाश में रहता है,

वही आंखों में टिकता है,

चर्चा में रहता है।

अंधेरे के गुमनाम व्यक्ति मत बनिए।

पुरोहित बनिए और अपने परिवार और अपने समाज का शान बनिए।

 आचार्य प्रवर निरंजन 

The Mistakes in the Upbringing of Children

Upbringing is the way parents guide and treat their children to help them understand the changing world and eventually lead it. It is the p...