शनिवार, 27 नवंबर 2021

हिन्दू धर्म की आलोचना क्यों?

उमेश जी हमेशा हिन्दू धर्म और संस्कृति की आलोचना करते रहते हैं। एक दिन मैं भी उखड़ गया। पूछ बैठा - आप हिन्दू हो कर हिन्दू धर्म और संस्कृति के इतने विरोधी क्यों हैं? आप हमेशा हिन्दू संस्कृति की आलोचना करते हैं, मानों दूसरे धर्मों में कोई गड़बड़ी है ही नहीं ।

उमेश जी ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा - बैठिए सर। आपको बताता हूं।  अपने जूते के अंदर का कंकड़-पत्थर जितना कष्ट देते हैं, उतना कष्ट जूते के बाहर का कंकड़-पत्थर नहीं देता है। मेरी संस्कृति महान है, लेकिन इसका ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास और अनावश्यक कर्मकांड कंकड़-पत्थर की तरह हमलोगों को चुभते रहते हैं। अपने धर्म से मुझे पग-पग पर कष्ट मिलता है, कभी जाति की निम्नता के नाम पर और कभी पाखंड, आडम्बर, अंधविश्वास, ढोंग के नाम पर| दूसरे के धर्म में मैं अपना माथा क्यों लगाऊं?

यह एक बुद्धिजीवी का उत्तर था। मुझे चुप हो जाना पड़ा। उनकी बात सही है| दूसरे का घर कितना देखें, जब अपना ही घर दुरुस्त नहीं है? रहना इस घर में है, तो सुधारना और सजाना भी तो इसी घर को है। इन्हें अपने इस धर्म से घृणा रहता, तो वे अब तक अपना धर्म बदल लिए होते। मतलब कि इन्हें अपने जन्मजात धर्म से प्यार भी है और गहरी पीड़ा भी| ये इसे छोड़ना भी नहीं चाहते| ये तो इसे ही सुधारना और सजाना चाहते हैं| इसीलिए मैंने भी इन्हें सुनने का मन बना लिया|

फिर भी मैंने उन्हें छेड़ने के ख्याल से पूछ ही बैठा। क्या दिक्कत है आपको इस धर्म और संस्कृति से? क्या दूसरे धर्मों में पाखंड, आडम्बर, अंधविश्वास, ढोंग नहीं है? उन्होंने बताया कि इस धर्म में न्याय, समानता, स्वतंत्रता और भाई चारा तो है ही नहीं| इस धर्म में जाति के नाम और आधार पर ही योग्यताएं और निर्योग्यताएं निश्चित हैं| इसमें व्यक्ति की योग्यता और गुणवत्ता का महत्व ही नहीं है, बल्कि जन्म के परिवार और वंश का ही महत्व है|

उन्होंने कहा कि आप ही बताइए कि आपको जाति में वैज्ञानिकता दिखती है? जाति में तो सामंतवादी भाव दिखता है, सांस्कृतिक जड़ता रहती है| जाति में जन्म के आधार पर योग्यता का निर्धारण होता है, और ऐसा उदहारण विश्व के किसी भी धर्म में हो तो बताइए? मेरे पास तो कोई उत्तर नहीं था| अब तो विश्व के वैज्ञानिक भी 'यूनेस्को घोषणा पत्र' में मान चुके हैं, कि 'होमो सेपिएन्स' मानव में जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर योग्यता एवं गुणवत्ता में भिन्नता नहीं है| मुझे भी मानना पड़ा कि इस 'जाति व्यवस्था' में कोई वैज्ञानिकता नहीं है|

मैंने टोका कि आपने दूसरे धर्म के पाखंड, आडम्बर, अंधविश्वास, ढोंग के बारे में कुछ नहीं कहा| तब उन्होंने कहा- इस सम्बन्ध में दो बाते हैं| एक, मुझे दूसरे धर्म की परवाह नहीं| और दूसरा यह कि, बाकि धर्मों में ठगी का आधार जन्म के वंशज - आधार पर नहीं होता| जबकि 'हिन्दू' धर्म में  ठगी का एकाधिकार जन्म के वंश के आधार पर ही तय होता है| इस मामले में अब मुझे चुप हो जाना पड़ा|

लेकिन अचानक मुझे भारत के गौरव की याद आ गयी| मैंने उन्हें इस धर्म की सनातनता, प्राचीनता और गौरव की याद दिलाया| तब वह कुछ उल्टा ही बोलने लगे| वह बोलने लगे कि कैसी सनातनता, कैसी प्राचीनता और कैसा गौरव? वे कहने लगे सभी धर्मों का वर्तमान स्वरूप दसवीं शताब्दी के बाद ही आया, चाहे आप उसे किसी भी प्राचीन नाम से जोड़ दें|यह तत्कालीन "सामंतवादी व्यवस्था" की आवश्यकता रही, और उसी के अनुरूप उपरोक्त चीजें बनी एवं ढलीं| वे बताने लगे कि हिन्दू धर्म का यह स्वरूप ही दसवीं शताब्दी के बाद ही आया| वे कहने लगे कि आप लंबा- लंबा दावा चाहे जो कर लें, क्या कोई ढंग का साक्ष्य आपके पास है, इसकी सनातनता और प्राचीनता के समर्थन में? मुझे चुप हो जाना पड़ा| मुझे याद आया कि भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष प्रोफ़ेसर रामशरण शर्मा ने भी ऑक्सफ़ोर्ड यूनिनेर्सिटी प्रेस से प्रकाशित अपनी पुस्तक भारत का प्राचीन इतिहास में वैदिक सभ्यता के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया है, जिसकी नीव पर आज के 'हिन्दू धर्म' की पूरी इमारत खड़ी है। अपने समर्थन में उन्होंने काफी तथ्य, तर्क, साक्ष्य और सन्दर्भ भी दिया है| मेरे पास उमेश जी के सवालों का तो कोई जवाब नहीं था, परन्तु यदि आपको कोई जवाब सूझे तो मुझे अवश्य बताइयेगा|

अब मैंने भी अपना रंग बदला| मैंने कहा उमेश जी, फिर आपके और एक देशद्रोही की भाषा में क्या अंतर रह गया? उन्होंने आश्चर्य से कहा एक देशद्रोही से मेरी तुलना? आप सठिया तो नहीं गए हैं सर ? मैंने प्यार से कहा - आप नाराज क्यों हो गए? क्या इसका जवाब आपको नहीं सूझता है? तब उन्होंने कहा सर, देशद्रोही तो वे हैं, जो अपने निजी स्वार्थ में 'जाति और धर्म' के नाम पर समाज और देश को बांटते हैं, और उसे तोड़ते हैं| वे लोग देशद्रोही हैं, जो लोगों को गैर संवैधानिक ढंग से "जाति और धर्म" का  भक्त बनाते हैं| जिस चीज का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं हो, और जो वैज्ञानिकता के बिल्कुल विरुद्ध हो, उसी जाति व्यवस्था का समर्थन कर देश को हजारों खंड में जो बांटता हो, वही वास्तव में  देशद्रोही है| वे पूरी तरह से भड़क गए थे| कहने लगे कि इतना बड़ा देश, इतना अपार संसाधन, इतनी बड़ी आबादी और उस पर भी हमारे भारत देश की यह दुर्गति? क्या हमें दुख नहीं है? लेकिन इन आधारों (जातियों) को तोड़ने वाली कोई पहल अभी तक किसी व्यवस्था ने नहीं किया|

मैंने कहा मतलब यह कि आप समझदार हैं, और बाकि के लोग मुर्ख और धूर्त हैं? उन्होंने कहा सर, रुकिए| आप मूर्ख और धूर्त से क्या समझते हैं? मैंने कहा आप ही समझाइए| उन्होंने कहा जो अज्ञानी हैं, जो चीज़ों को ढंग से नहीं समझते, वे मूर्ख हैं| दूसरी तरफ, जो ज्ञानी हैं, जो चीजो को अच्छी तरह और उचित संदर्भों में समझते हैं, लेकिन फिर भी अपने निजी स्वार्थ में अंधे होकर 'जाति और धर्म' का दुरूपयोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में करते हैं, वे ही लोग धूर्त हैं| ये लोग कानून की नजर में अपराधी यानि क्रिमिनल हैं, क्योंकि  उनका प्रत्येक कार्य और उनकी प्रत्येक गतिविधि सदैव गलत इरादे (Intention) से प्रेरित होती है| इन लोगों को तो सजा मिलनी चाहिए| मैंने स्पष्ट करने के लिए कहा कि आपके अनुसार जो जाति व्यवस्था के समर्थक हैं, वे इसकी अवैज्ञानिकता को जानते हुए भी देश और समाज के व्यापक हितों के विपरीत अपने जन्म आधारित लाभों को बनाये रखने के लिए ऐसा कर रहे हैं, वे अपराधी हैं| ऐसे अपराधी लोगो पर तो मुकदमा चलना चाहिए, और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।इस पर उन्होंने सहर्ष अपनी सहमति दी|

उमेश जी ने मुझसे पूछा क्या आप किसी गैर हिन्दू व्यक्ति को हिन्दू बना सकते हैं? मैं हाँ कहने ही वाला था, कि मुझे याद आया कि उस पुराने धर्म को छोड़ कर हिन्दू धर्म में आने वाले को कौन सी जाति दी जाएगी? बिना जाति के तो आजकल कोई हिन्दू ही नहीं सकता, और कोई उसे सर्वोच्च जाति का नाम या स्थान दे भी नहीं सकता| मुझे तो दूसरों को हिन्दू धर्म में लाने के बारे में असहमति दिखानी पड़ी| उन्होंने पूछा कि क्या किसी दूसरे धर्म में ऐसी व्यवस्था है? इसके लिए मैं भारत के अन्य धर्मों को दोष नहीं दे सकता था|

अब बात समाप्त हो गई थी। लेकिन अचानक उमेश जी बोले कि मेरे एक सवाल पर गौर किया जाए। मैंने पूछा कि बताइएगा। उन्होंने कहा कि हिन्द की इस धरती की संस्कृति को हिन्दू कहा जाता है, यह एक भौगोलिक अर्थ देता हुआ एक सामासिक संस्कृति तो है, लेकिन इसके पीछे कौन-कौन खिलाड़ी है, जो इसके नामकरण और मूल को बार-बार संशोधित करते रहते हैं और बदलते रहते हैं? इसका कोई प्रमाणिक प्राथमिक साक्ष्य प्राचीन काल में नहीं है। यह पहली बार साक्ष्यात्मक रुप में मध्य काल में आया। मध्य सामंती प्रारम्भिक काल में यह वैदिक संस्कृति के नाम से आया, जिसे बिना किसी पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाण के प्राचीनतम बताया गया। फिर मुगल काल में यह ब्राह्मण संस्कृति हो गया, जो ब्रिटिश काल में आर्य संस्कृति हो गया। प्रथम विश्व युद्ध के समय वैश्विक लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक व्यवस्था के शानदार आगाज की आहट में हिन्दू संस्कृति हो गया, जिसे अब सनातनी संस्कृति कहा जाने लगा। इतना बदलाव - वैदिक से ब्राह्मणी, फिर आर्य, फिर हिन्दू और अब सनातनी। इतना मनमानी बदलाव क्यों हुआ, यही बता दीजिए। मैं तो निरुत्तर हो गया, आप भी मेरे समर्थन में आइए और कुछ बताइए।

अंत में मैंने उनसे इसका समाधान भी पूछ ही लिया, कि आपके पास इसका कोई समाधान है तो बताया जाय| उन्होंने कहा, यदि ईमानदार शुरुआत हो तो एक दिन में ही जाति व्यवस्था का समाधान हो जायेगा| एक दिन में? मैंने आश्चर्य किया|

उन्होंने कहा हाँ सर, एक दिन काफी है|

कैसे?

उन्होंने कहा सभी को अपना नाम और परिवार का नाम कभी भी बदलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए| जब कोई चाहे तो अपना नाम एवं उपनाम बदल सकता है| यह नाम आधार” (ADHAAR) से जुड़ा होगा| शायद आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं होगी| यदि आरक्षण की आवश्यकता हुई भी तो, आरक्षण के प्राधिकारी ही इस गोपनीय जानकारी को पा सकते हैं| इसी तरह पुलिस प्राधिकारी भी अपराधों के मामलों में सही और मौलिक जानकारी पा सकते हैं| किसी की वास्तविकता को जानने का अधिकार बहुत ही सीमित होगा, जो लिखित कारणों से इसे जान सकेंगे| किसी का नाम ही तो समाज में किसी का पहचान है, और हर इंसान का यही वैज्ञानिक आधार है| मुझे लगा कि यह एक विचारणीय समाधान हो सकता है| इस सन्दर्भ और इस दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है|

अब मुझे समझ में आया कि किसी का स्वस्थ आलोचना उसी के हित में होता है, और उसी के सम्यक विकास के लिए होता है| इसीलिए मुझे उमेश जी की आलोचना में कोई खराबी नहीं दिखाई दी| वैसे आप विद्वान पाठक गणों का मत और सुझाव अलग हो सकता है, पर यदि आप कुछ बताएँगे तो हम लोग एक अच्छे समाधान की ओर बढ़ सकते हैं| हम लोग आपके अमूल्य विचारों और सुझावों की प्रतीक्षा में है|

(मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देखा जा सकता हैं।)

निरंजन सिन्हा

शनिवार, 20 नवंबर 2021

भगवान राम और भगवान बुद्ध में सम्बन्ध

भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी ने हाल ही में एक संदर्भ में बताया कि भगवान श्री राम और भगवान बुद्ध में गहरा संबंध है। तो मैं यह सोचने पर विवश हो गया कि दोनों में क्या संबंध हो सकता है? चूंकि यह विचार माननीय के हैं, तो गहराई से अवलोकन की आवश्यकता हो गई।

मैने इस पर विचार किया और गहराई से छानबीन किया| तत्पश्चात इनमें समानताओं को एकत्र करना शुरू कर दिया। तब मुझे आश्चर्यजनक रूप से कई क्षेत्रों में समानता मिलनी शुरू हो गईं। ये समानताएं महानता, भगवान की उपाधि, वैवाहिक जीवनप्रदेश, अवतार, उद्देश्य एवं व्यवस्था आदि कई क्षेत्र में हैं| मिथक एवं ऐतिहासिकता एक ही भाव की दो अलग अवधारणाएं(Concepts) हैं| मिथक बिना साक्ष्य अर्थात कल्पना पर आधारित कहानी होता है, जबकि इतिहास साक्ष्य युक्त सत्यता यानि वास्तिवकता पर आधारित कहानी होता है| अर्थात समानता कहानी की होती है, मिथक में आधार विहीन विश्वास होता है, जबकि इतिहास में ठोस साक्ष्य युक्त विश्वास होता है|

महानता:

ये दोनों ही भारत भूमि पर अपने अपने काल में लोगों के आदर्श रहे एवं लोकप्रिय रहे| बुद्ध प्राचीन भारत में भारतीय समाज के आदर्श रहे, तो राम मध्यकालीन भारत में भारतीय समाज के आदर्श रहे| इन दोनों की लोकप्रियता की स्थिति भी ऐसी ही है|

भगवान की उपाधि:

दोनों के नाम के आगे विशेषण यानि उपाधि भगवान लगाया जाता है - भगवान श्री राम और भगवान बुद्ध। लेकिन दोनों "भगवान" के अर्थ में काफी अंतर है। श्री राम के आगे भगवान (संस्कृत का शब्द) का अर्थ 'ईश्वर' है, जबकि बुद्ध के दर्शन में ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है। बुद्ध के भगवान (पालि का शब्द) वे व्यक्ति हैं, जिसने अपने राग (Attachment) एवं द्वेष (Detachment) को भग्न (Eliminate / Destroy) कर लिया है। इन शब्दों में समान अक्षरों की समान बनाबट के बावजूद भी भावार्थ में अंतर है।

वैवाहिक जीवन:

दोनों के वैवाहिक जीवन असामान्य रहे| दोनों का अपनी पत्नियों से अलग रहने की कहानी है| बुद्ध को रोहिणीनदी के जल उपयोग विवाद में गणराज्य के परिषद् (Council) के निर्णय के आलोक में राज्य त्यागना पड़ा| राम को भी घरेलू विवाद में राज्य का त्याग करना पड़ा| बुद्ध के राज्य एवं गृह त्याग पर अलग अलग मत है, पर दोनों को राज्य का त्याग करना पडा| दोनों को ही राज्य त्याग के प्रक्रम में ही पत्नी से भी अलग रहना पड़ा| बहुत बाद में पत्नी से मिलना भी हुआ, तो वैवाहिक जीवन में कोई सुखद अनुभव नहीं रहा|

प्रदेश:

जब इन दोनों महापुरुषों के जन्म प्रदेश यानि इलाका (क्षेत्र) पर ध्यान गया तो उसमें भी समानता दृष्टिगत हुई| दोनों कोशल प्रदेश से जुड़े हुए हैं। बुद्ध कोशल के अधिराज्य (Dominion) शाक्य गणराज्य से थे, तो श्री राम भी कोशल प्रदेश के अयोध्या से थे। ध्यान रहे कि शाक्य गणराज्य कोशल राज्य का एक सीमांत (Frontier) प्रदेश था और कोशल नरेश का अधिराज्य था| दोनों मध्य गंगा के मैदान के हैं और एक ही भौगोलिक क्षेत्र के हैं। बुद्ध का ससुराल पडोसी कोलिय गणराज्य था, तो राम का ससुराल पडोसी राज्य मिथिला था|

अवतार:

दोनों को ही भगवान विष्णु का अवतार (Incarnation) माना गया है| 'सामंत काल' (9वीं से 12वीं शताब्दी) में बुद्ध को विष्णु की परम्परा में शामिल बताया गया| यह 'सामंत काल' की आवश्यकता थी| भगवान राम को शुरू से ही विष्णु की परम्परा में शामिल बताया गया|

वैसे 'बुद्ध' भी एक परम्परा का ही नाम है, जो नगरीय समाज एवं राज्य के उदय के साथ भारत भूमि पर शुरू हो गयी थी। गोतम बुद्ध, जिन्हें सिद्धार्थ गौतम भी कहा जाता है, बुद्धों की परम्परा में 28 वें बुद्ध हुए। इस परंपरा में विशिष्ट बुद्धि वाले को बुद्ध कहा गया, और उस समय की संस्कृति को बौद्धिक संस्कृति कहा गया। भगवान श्री राम भी "भगवानों की परम्परा" में एक कड़ी माने जाते हैं।

उद्देश्य एवं व्यवस्था:

दोनों का उद्देश्य लोगों का व्यापक हित रहा है। दोनों ने नए संदर्भ काल में व्यवस्था बनाने का काम किया। दोनों ने अपने समय के शैतानोंको मारने का काम किया| एक शैतान के शारीरिक अस्तित्व को सदा के लिए समाप्त कर देते थे, ताकि उसकी शैतानी सदा के लिए समाप्त हो जाय| जबकि दुसरे जन व्यक्ति के मानसिक शैतान को मार कर उस व्यक्ति को सकारात्मक एवं सृजनात्मक बना देते थे| एक हथियार का प्रयोग कर शैतान को नष्ट करते थे, जबकि दुसरे जन बुद्धि का प्रयोग कर शैतान को नष्ट करते थे| परन्तु दोनों शैतान को ही नष्ट करते रहे| इन दोनों का उद्देश्य एक ही रहा|

यह अलग बात है कि बुद्ध की 'व्यवस्था' बौद्धिक संस्कृति की आवश्यकता थी, परन्तु राम की 'व्यवस्था' सामंतवादी संस्कृति की आवश्यकता थी। दोनों ने ही अपने समय की आर्थिक शक्तियों के अनुरूप सामाजिक व्यवस्था बनाने का प्रयास किया और उसमें सफल भी रहे| इसे बढ़िया से समझने के लिए 'बौद्धिक संस्कृति' एवं 'सामंतवादी संस्कृति' को तथा तत्कालीन आर्थिक शक्तियों को अच्छी तरह समझना होगा|

आर्थिक शक्तियों में उत्पादन, वितरण, विनियम और उपभोग को प्रभावित करने वाली शक्तियों और उनके अन्तर्सम्बन्धों को लिया जाता है| इसके आधार पर इतिहास यानि 'सामाजिक रूपांतरण' की व्याख्या वैज्ञानिक तौर पर एवं समुचित ढंग से हो जाती है

मिथक और इतिहास:

इन दोनों में एक 'मिथक' (Mythology) है, और दूसरा 'इतिहास' (History) है| फिर भी इस मामले में दोनों में समानताएं हैं| किसी की ऐतिहासिकता के लिए सबसे जरूरी बात यह है, कि संबंधित व्यक्ति अर्थात व्यक्तित्व का ऐतिहासिक होना जरूरी होता है। अर्थात ऐतिहासिक व्यक्तित्व को इतिहास की पुस्तकों में दर्ज किया हुआ होता है| यदि किसी व्यक्ति को इतिहास की पुस्तकों में स्थान नहीं दिया गया है, तो स्पष्ट है कि कोई भी प्राधिकार (Authority) उसे ऐतिहासिक नहीं मानता है। ऐतिहासिक होने के लिए ठोस ऐतिहासिक साक्ष्य होना चाहिए अर्थात उसे इतिहास के किसी काल खंड में वास्तविक जीवन में होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है, तो उसे मिथक ही कहेंगे; इतिहास एवं ऐतिहासिक बिल्कुल नहीं कहेंगे।

इतिहास में कोई 28 बुद्धों की चर्चा मिलती है, और 7 बुद्धों के तो आज भी पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध हैं, एवं समकालीन विदेशी साहित्य में भी उन्हें स्थान प्राप्त है। इस तरह गोतम बुद्ध, जो तथागत बुद्ध के नाम से भी जाने जाते हैंएक ऐतिहासिक व्यक्ति रहे हैं । लेकिन  जिसकी कहानी इतिहास की पुस्तकों में दर्ज नहीं है, वह व्यक्ति ऐतिहासिक नहीं है, और इसलिए ऐसे व्यक्तियों को ऐतिहासिक नहीं माना जाता है। राम की कहानी को भारत के किसी भी इतिहास की पुस्तकों में स्थान अभी तक नहीं दिया गया है| इसमें समस्या यह है कि ऐतिहासिक व्यक्ति होने के लिए ऐसे ठोस पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत किए जाने चाहिए, जिसे वैश्विक मान्यता मिले। आज विश्व एक वैश्विक गांव (Global Village) हों गया है, और कोई इस मुख्य धारा से अलग नहीं रह सकता। यदि किसी भी बात को विश्व नकारता है तो इसका अर्थ है कि उसे विश्व की आबादी का 83% का समर्थन है। वैश्विक मान्यता की उपेक्षा आज के समय में नहीं किया जा सकता है।

आस्था को ऐतिहासिकता का विकल्प नहीं माना जा सकता। ऐसा लगता है,कि बुद्ध की जीवनी पर आधारित मिथक ही राम की जीवनी है। इसी संबंध से इन दोनों में संबंध स्थापित किया जा सकता है, और जिसके बारे में माननीय प्रधानमंत्री जी ने इशारा किया है।

हम जानते हैं कि जब किसी ऐतिहासिक व्यक्ति के जीवन पर आधारित कोई कहानी लिखी जाती है, या फिल्म बनाई जाती है, तो तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ही एक 'संशोधित मॉडल' को अपनाया जाता है। ऐसा किया जाना सामान्य घटना होता है। ऐसा ही कालान्तर के सामंतवादी काल में बुद्ध की जीवनी पर आधारित सामंतवादी व्यवस्था के अनुरूप एक मिथक की आवश्यकता रही। और ध्यान रखने वाली बात है, कि जिस कहानी में ऐतिहासिकता नहीं होती है, उसे मिथक ही कहेंगे।

यह समानताएं बहुत गहरी हैं, और दोनों लोक आस्थाओं से जुड़ी हुई हैं। चूंकि दोनों में ही संबंध है, इसलिए यह लोक संस्कृति का भाग है। चूंकि दोनों दो भिन्न-भिन्न संदर्भों और आवश्यकताओं के परिणाम रहे, इसलिए संदर्भ के अनुसार चरित्र एवं आदर्श के विवरण में शाब्दिक समानता नहीं है, परन्तु भावनात्मक समानताएं पर्याप्त हैं।

इतने महत्वपूर्ण संबंध को रेखांकित करने के लिए मैं माननीय प्रधानमंत्री जी को सादर नमन करता हूं। ऐसा गहन एवं व्यापक संबंध किसी अलौकिक प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व की दृष्टि में ही आ सकता है। इसे  नए सन्दर्भों, दृष्टिकोणों, संबंधों और आर्थिक बदलाव की प्रक्रियात्मक "पैरेडाईम शिफ्ट"  के नजरिए से देखें जानें की आवश्यकता है। इससे भारतीय लोक आस्थाओं को सही, तथ्यात्मक और वैज्ञानिक आधार पर मजबूत किया जा सकता  है।

(आप मेरे अन्य आलेख    www.niranjansinha.com या   niranjan2020.blogspot.com  पर  देख सकते हैं।)

निरंजन सिन्हा|

सामाजिक नेतागिरी और हथौड़ा सिद्धांत

  Social Leadership and the Hammer Theory भारतीय समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक नेतागिरी की धूम मची हुई है , लेकिन भारतीय समाज में जो सामा...