शनिवार, 30 अप्रैल 2022

हमारा समाज कहाँ जा रहा?

                                                        हमारा समाज यानि हमारी व्यवस्था

यानि हमारा राज्य यानि हमारा राष्ट्र

यानि हम कहाँ जा रहे हैं?

30 अप्रैल (1945) को जर्मन तानाशाह हिटलर को आत्म हत्या करना पड़ा था| आज पडोसी देश श्रीलंका अपनी अव्यवस्था से परेशान है| यह सब किन किन प्रक्रियायों की परकाष्ठा है? ये दो उदाहरण हमारे समाज के सामयिक विश्लेषण को बाध्य करता है|

इन विषयों के मूल तत्व को यदि देखा जाय, तो यह सुस्पष्ट होगा कि हमारी अवधारणा एकात्मकतायानि एकत्व” (Unity) के सम्बन्ध में अस्पष्ट है या गलत है या पूर्णरुपेण भ्रमित है| हमें एकता में विविधताएवं विविधता में एकताको समझना होगा| एकता में भी विविधता होती है, और विविधता से भी एकता स्थापित होती है| एक देश में कई राज्य, और एक राज्य में कई जनपद (जिला); एक संविधान में कई भाग, और एक भाग में कई अनुच्छेद; एक राष्ट्र में कई सामाजिक समूह, और एक सामाजिक समूह में कई जातियां; एक समाज में कई सम्प्रदाय, और एक सम्प्रदाय में कई पंथ| एक भारत में निवासियों की विविधता, खेतों की विविधता, मौसम की विविधता, भाषाओं की विविधता, पहाड़ों एवं मैदानों की विविधता| ऐसे कई अनन्त उदहारण है, जो एकता में विविधता को स्पष्ट करता हैयदि हमें यह विविधता स्वीकार्य नहीं हो, तो इन कई आधारों पर एक ही क्षेत्र में कई राष्ट्रों की झड़ी लग जाएगी, कई राष्ट्रों में देश को विभाजित करना पड़ सकता है| और बात यही समाप्त नहीं होती है| जिसे एकता देखने नहीं आता, सिर्फ विविधता में भिन्नता ही देखने की आदत हो जाती है, वो अपने परिवार एवं समाज में भी विविधता या विभाजन के आधार बना ही लेते हैं, खोज लेते हैं, अपने जाति में भी विविधता यानि विभाजन के आधार बना लेते हैं|

शायद एकात्मकतायानि एकत्वमें भी विविधता अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) यानि तथाकथित ईश्वरको भी स्वीकार्य है| और इसलिए ब्रह्माण्ड में वस्तुओं में भी मैटर एवं एंटी मैटर है, आवेश में भी घनात्मक एवं ऋणात्मक है, और मानवता या किसी भी जीव में भी विविधता (Duality यानि Diversity) है, यानि हर एक्य में विभाजन यानि विविधता है, यानि विविधता ही प्रकृति को मान्य है, स्थापित है| हम भी एक स्त्री और एक पुरुष (दो भिन्नता) के एकात्मकता (मिलन) के परिणाम हैंशून्य (Zero, not Nothing) भी विविधता का एक्य स्वरुप है| यदि विविधता नहीं है, तो वह निश्चित शून्य है|

क्या आपको लगता है कि धर्म हमें एक कर सकता है? नहीं| दुनिया में सभी कुछ सापेक्ष है| कोई यदि हिन्दू के नाम पर एक है, तो वह दुसरे किसी और धर्म के सन्दर्भ में एक है| अर्थात कोई दूसरा धर्म भी है और उसी सन्दर्भ में दूसरा कोई एक हैंजब कोई दूसरा धर्म सन्दर्भ में नहीं होता है, तो कोई हिन्दू में भी अछूत होता है, कोई दलित होता है, कोई पवित्र जाति का होता है, कोई नीच जाति का होता है| कोई यदि इस्लाम के नाम पर एक है, तो वह किसी और दुसरे धर्म के सन्दर्भ में एक है, अन्यथा वह भी शिया एवं सुन्नी के नाम पर, या क्षेत्रीयता के नाम पर या वंश के नाम पर विभक्त होता है| इसी कारण जहां ईसाई बहुसंख्यक हैं, वहां भी विभाजनकारी अपने को कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट आदि में विभक्त कर लेते हैंइतिहास से भी कुछ सिखा एवं समझा जा सकता है| अपना सब कुछ जला कर या बर्बाद कर ही नहीं सिखा जाता| कम से कम समझदार लोग या समाज तो दूसरी घटनाओं से सीख लेते हैं|

एक राष्ट्र एक धर्म पर नहीं बनता| यदि एक राष्ट्र का आधार धर्म होता, पाकिस्तान देश पूर्वी पकिस्तान (बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान में नहीं टूटता? आज एक ही धर्म ईसाई के देश उक्रेन और रूस आपस में लड़ता हुआ नहीं होता| चीन और ताइवान आपसी दुश्मन नहीं होता| इस आधार पर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि अलग अलग राष्ट्र नहीं होते| धर्म को राष्ट्र से जोड़ कर नहीं देखा जाताराष्ट्र तो ऐतिहासिक रूप से एकायानि एकात्मकताकी भावना है, और इसके अलावे यह कुछ भी नहीं है|

कोई धर्म इतना कमजोर या नाजुक नहीं होता कि दुसरे धर्म के संपर्क में आकर टूट जाय या नष्ट हो जाय या बिगड़ जाय| कोई धर्म कमजोर होता है, टूटता है, तो उसके अगुआ के दुष्टता, नासमझी एवं शैतानियों के कारण| अपने सदस्यों के प्रति किसी दुसरे फालतू यानि अवैज्ञानिक आधार पर विभाजन करना यानि विभेदकारी मानसिकता ही उस धर्म को कमजोर करता है| आर्थिक शोषण को जन्म के आधार पर और संस्कृतिक आवरण में करना ही अपने धर्म के सदस्यों के बीच ही दुर्भावना पैदा कर देता हैभारत में जाति, उपजाति, सम्प्रदाय, पंथ, आदि के आधार पर अपने तथाकथित धर्म के अन्दर ही दुर्भावना पैदा किया जाता है, जो व्यवस्था के मौन समर्थन एवं संरक्षण मिलने से अमरबेल की भांति फैलता जाता है| इसके लिए दुसरे तथाकथित धर्म का डर दिखाया जाता है| आधुनिक युग में इस आधार पर यह देश एक बार टूट (भारत विभाजन) चुका है, लेकिन इस विद्वेष के आधार पर आज फिर भावनाओं को भड़क जाने दिया जाता है| तात्कालिक लाभ तो कुछ लोग को मिलता है, परन्तु समाज और देश के नुकसान से किसी को कोई मतलब नहीं है| ऐसे तत्वों से सरकार भी परेशान है|

यदि भारत का राष्ट्रवाद हिन्दू धर्म पर आधारित है और यह राष्ट्र निर्माण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, तो तथाकथित बुद्धिवादियों एवं तथाकथित प्रगतिवादियों को चाहिए कि इस अभियान में सिर्फ दूसरों को ही शामिल होने का आह्वान नहीं करें, बल्कि अपने परिवार के सदस्यों को भी इसमें शामिल करें| राष्ट्र निर्माण अभियान को कौन फर्जी और फालतू मानता हैऐसे लोग वही है, जो किसी धर्म के पक्ष में और किसी धर्मं के विरोध में लम्बी लम्बी बातें करेगा, बड़ी बड़ी बातें लिखेगा और सामान्य जनों को धर्मों के आधार पर भावनाएँ भड़काएंगें, लेकिन अपने बेटों बेटियों एवं पत्नी को इससे दूर रखेगें| अंग्रेजी में ऐसे लोगों को ड्युअल कैरेक्टर (Dual Character) का लोग कहते हैं, हिंदी में इसके लिए अभद्र शब्द होता है, जिसे लिखना कुछ लोगों को आपत्तिजनक लग सकता है| ऐसे फर्जी और फालतू लोगों की पहचान का यही एकमात्र शर्त है, कि अपनी ऐसी घोषणाओं से अपने परिवार को दूर ही रखते हैंइसी शर्त पर देश, समाज एवं मानवता के दुश्मनों को जाना और पहचाना जा सकता है|

इस आलेख के शुरू में मैंने यह सवाल किया कि हिटलर को आत्महत्या क्यों करना पड़ा? उसने एक अवैज्ञानिक आधार पर अपनी जाति के लोगों को सर्वोत्कृष्ट बताया और शेष को नीच यानि निम्न समझा| इसी आधार उसने तथाकथित राष्ट्रवादको उभारा, लोगों को भड़काया और देश को युद्ध (आंतरिक एवं बाह्य) में झोंक दिया| धर्म के नाम पर उसने अपने देश को फ्रांस या रूस में शामिल नहीं किया, बल्कि विभाजन का नया आधार प्रजाति बना लियाविभाजनकारी लोग विभाजनकारी मानसिकता के बीमार लोग होते हैं, और वे सदैव विभाजनकारी आधार खोज ही लेते हैं| इसने जर्मनी को दो टुकड़े में बाँट दिया और बिस्मार्क के उभरते हुए जर्मनी को पीछे ठेल दिया| परिणामत: हिटलर को आत्महत्या करना पडा|

श्रीलंका का संकट क्या है? उसके द्वारा अनाप सनाप लिया अनुत्पादक कर्ज तो है ही, उसकी सबसे बड़ी समस्या को भारतीय मीडिया रेखांकित नही करता| यह अनुत्पादक कर्ज क्यों लेना पडा? राजनीतिक कारणों से श्रीलंका में सिंहली, तमिल एवं मुस्लिमों में भयानक दुर्भावना को बढ़ने दिया| सभी का लक्ष्य राजनीतिक सफलता रहा| परिणाम यह हुआ कि लोगों के इस वर्ग को या उस वर्ग को लुभाने के लिए बेतहाशा अनुत्पादक खर्च किया गया, देश की उत्पादक शक्तियों एवं व्यवस्था को अंदरूनी संघर्ष को बढ़ाने और निपटाने में लगा दिया| और उसका परिणाम विश्व के सामने है|

यदि धर्म के लिए जान देने से तथाकथित स्वर्गमिलता है, इन तथाकथित बुद्धिवादियों एवं तथाकथित प्रगतिवादियों को क्यों नहीं इस स्वर्ग में रूचि है? यदि स्वर्ग वास्तव में सच्चा है, और यदि धर्म के लिए मरने से स्वर्ग मिलता ही है, तो इन उपदेशों को देने वाले लोग इसमें अपनी जान देने में पीछे क्यों रहते हैं? जो अत्यधिक समृद्ध हैं, वे तो विदेशों में भी आशियाना तैयार कर लिए हैं, लेकिन जिनकी औकात अरबों” (एक सौ करोड़ का एक अरब) रुपयों की नहीं है, उनको समृद्ध विदेशों में कोई पूछने वाला नहीं है| आप धर्मों के लिए मरने वालों का आंकड़ा उठा कर देख लीजिए| जितने लोग इस तथाकथित पवित्र कार्य के लिए आह्वान कर रहे हैं, वे अपने बीबी बच्चों को क्यों नहीं इस पवित्र कार्य में लगाते हैंइन दुहरे चरित्र के लोगों को पहचानिए, अपने समाज, देश और राष्ट्र को बचाइए| सम्हालने का समय अभी भी है| पहले अपनी मानसिकता पर तो विचार कर लीजिए, अन्यथा हांकने वाले तो हांक कर ले जाने के लिए हांका”  लगाने को तो तैयार बैठे ही हैं| जो आदमी है, वे इनसे सावधान हैं| ये हांका वाले लोग भी जंगल के इसी भयानक आग के हवाले होंगे, जैसे आम जन होगें|

निरंजन सिन्हा


 

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

लेनिन और भारत

आज महान क्रान्तिकारी एवं राष्ट्र निर्माता लेनिन का जन्मदिन है, और उनके बहाने भारत के प्रसंग में उनसे जुड़ी कुछ बातो का विश्लेषण ज़रूरी है| विश्व मानवता को प्रभावित करने वाले दो महानायक में एक तथागत बुद्ध है और दूसरे कार्ल मार्क्स है। कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक थे, जो कई प्रमुख मानविकी विषयों में गहराई से अध्ययन कर कई तथ्य और अवधारणाएं विश्व को दिया। पूंजीवाद अपने चरम पर था और कामगारों का कष्ट भी चरम पर था। पूंजीवाद एक राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अवधारणा है, जिसमें पूंजी के निवेशको को महत्तम लाभांश उपलब्ध कराना एकमात्र लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य के साथ अन्य मूल्यों को कोई महत्व नहीं दिया जाता हैमानवीय, सामाजिक एवं अन्य मुद्दों को गौण कर दिया जाता है। इस अवस्था में बदलाव के लिए मार्क्स ने अध्ययन और बदलाव के तरीके पर काफी प्रकाश डाला है। लेनिन पहले ऐसे व्यक्ति थे, जो मार्क्स के दर्शन से काफी प्रभावित थे और किसी भी राज्य में सत्ता परिवर्तन कर शासन के नेतृत्व को सम्हाला।

मार्क्स का दर्शन एक ऐसी व्यवस्था के लिए था, जहां औद्योगिक विकास काफी हो चुका था, आबादी का प्रभावशाली हिस्सा कामगार था और पूंजीवाद भी चरम पर था| लेकिन रुस में वैसी स्थिति नहीं थी। लेनिन को रुसी जमीनी हकीकत को समझना था, इसका आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को जानना था, और उसके अनुसार मार्क्स के अवधारणाओं में व्यापक बदलाव करना था। इन्होंने जो व्यापक बदलाव किए, उसे लेनिन के जीवनोपरांत लेनिनवाद के नाम से जाना जाता है। इसी तरह मार्क्स और लेनिन के विचारधाराओं को चीन में माओ त्से तुंग ने चीन की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधित कर चीन में सफल परिवर्तन किया। इसी कारण माओ त्से तुंग के विचारधारा को माओवाद कहा जाता है।

भारत में मार्क्स, लेनिन और माओ के विचारधाराओं से प्रभावित अनेक व्यक्ति और समूह इन विचारधाराओं को भारत भूमि पर क्रियान्वित करना चाहते हैं, बदलाव लाना चाहते हैं। लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं, कि यहां न तो उस हद तक औद्योगिक विकास हुआ, न पूंजीवाद स्थापित है, न ही संगठित कामगारों की आबादी है। भारत न तो रुस है, भारत न तो चीन है और भारत न तो पश्चिम यूरोप ही है। मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष पर आधारित है, और भारत में वह वर्ग या क्लास नहीं है, जो दूसरे देशों में है। भारत में जाति और वर्ण है, जो विश्व के किसी भी समुदाय के लिए अनूठी व्यवस्था है।

इन लोगों के सन्दर्भ में भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को ही नहीं समझा गया। भारतीय विद्वानों ने भी यूरोपीय परिवेशो और भारत की सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ठीक से व्याख्यापित नहीं कर पाएं। बिना मौलिक अध्ययन के आन्दोलन खड़ा करने से भारत में अन्य संसाधनों के अतिरिक्त मानव संसाधन का भारी विनाश हुआ है। भारत में प्रजातंत्र है और विचारों के सम्प्रेषण के लिए वैधानिक साधन उपलब्ध है। भारत यूरोपीय देशों की तरह छोटी आबादी वाला देश नहीं है, अपितु एक यूरोप की तरह एक महादेश तुल्य राष्ट्र है। यहां औद्योगिकीकरण उस स्तर तक नहीं हुआ है और इसी कारण नगरीकरण भी नहीं हुआ है। भारतीय विद्वानों और दार्शनिकों को समझना चाहिए, कि परिस्थितियों में परिवर्तन समय के अनुसार होता रहता है और उसका सम्यक अवलोकन एवं अध्ययन होना चाहिए। ये भारतीय विद्वान अपने इष्ट को इतना सम्मान देते हैं कि उन्हें पथ-प्रदर्शक रहने ही नहीं देते हैं, उन्हें ईश्वर तुल्य बना देते हैं। ईश्वर मान लेने पर उनके विचारों की आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं किया जाता है और विचारों के विकास की प्रक्रिया वहीं बाधित हो जाती है। कभी कभी तो उन्हें देव मानकर उनसे कृपा बरसाने की उम्मीद भी करने लगते हैं।

विचारों के सम्यक अवलोकन, अध्ययन के साथ साथ आवश्यक आलोचनाओं से ही विचारों का सम्यक विकास होता है। उसमें भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं एवं राजनीतिक आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विश्लेषण करने से ही विचारों में ‘अनुकूलन क्षमता’ (Adaptation Capacity) मजबूत होती है। आप एक शताब्दी और उससे पहले नहीं जाइए। मैं आधी शताब्दी ही पहले की बात करना चाहता हूं। आधी शताब्दी पहले जो विचार दर्शन भारत के भविष्य के लिए गढ़े गए, क्या आज उसी अवस्था में अनुकूल है, या अपेक्षित संशोधन चाहता है?

यहां मैं ‘एपल’ कम्प्युटर के संस्थापक श्री स्टीव जॉब्स को भी स्मरण करता हूं। उसने एक ग्राफ के द्वारा “सामाजिक परिवर्तन की गति” को समय और तकनीकी सुधार के सन्दर्भ में समझाया और भविष्य का प्रक्षेपण (projection) भी किया। उन्होंने बताया कि विगत पांच हजार वर्षों में तकनीकी सुधार या विकास के कारण जितना सामाजिक रुपांतरण हुआ है, तकनीकी सुधार के वर्तमान गति के कारण आगामी कुछ दशकों में उससे भी कई गुणा सामाजिक रुपांतरण हो जाएगा। इसके द्वारा मैं यह कहना चाहता हूं कि विगत आधी शताब्दी में भारत में तीन स्पष्ट परिवर्तन हुए हैं। सर्वप्रथम, इसमें जीवन से संबंधित सभी विधाओं में विज्ञान और प्रौद्योगिकी में शोध एवं आविष्कार द्वारा काफी बदलाव हुए हैं, पुराने कई अवधारणाएं ध्वस्त हो गई, कई नवीन अवधारणाएं अवतरित हुए। दूसरा बदलाव, संचार सेवाओं में डिजिटल क्रांति आई है, अर्थात विचारों के प्रसार प्रचार के लिए परंपरागत साधनों के अलावे न्यूनतम खर्च के साधन ज्यादा असरदार हो गए हैं। तीसरा भारत के लिए विशेष महत्वपूर्ण है, कि जनांनकीय (Demographic) आंकड़े में युवाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी है। जब आधी शताब्दी पहले की अवधारणाओं और विचारों में यथावश्यक संशोधन की आवश्यकता है,  तो शताब्दी या शताब्दियों पूर्व की अवधारणाओं और विचारों का क्या होगा? इसलिए अपने श्रद्धेय की पूजा नहीं कीजिए, उनके विचारों और अवधारणाओं की समालोचना करना शुरू कीजिए। इससे आपको संशोधित अनुकूलित अवधारणा मिलेगा। उन्हें मार्गदर्शक ही रहने दीजिए।

आस्था (Faith) ही देश एवं समाज का दुश्मन है। आस्था ही बाधा है, अवरोध पैदा करता है। आस्था सामंतवादी अवधारणा है। आस्था विश्वास (Belief) से अलग है| आस्था ज्ञान (तर्क) के आधार के बिना ही किसी चीज को सत्य मान लेता है, जबकि विश्वास ज्ञान के साथ सही मानना होता है| अत: हम प्रश्न करें, विचारों का विकास होगा, समाज और देश का नवनिर्माण होगा, मानवता स्थापित होगा।

भारत के संदर्भ में एक ध्यान देने योग्य बात है। भारत में वर्ग यानि क्लास (Class) क्या जाति या वर्ण के समतुल्य हैभारतीय विद्वानों ने भारत की इस अनूठी व्यवस्था - जाति और वर्ण को विश्व के सामने किस रुप में उपस्थापित किया है? इन विद्वानों ने ‘वर्ण’ का अंग्रेजी रुपांतरण तो ‘वर्ण’ (Varn) ही किया, जैसे साड़ी, धोती, बड़ी आदि का अंग्रेजी रुपांतरण में इसे ऐसे ही रहने दिया। ऐसा इसलिए किया गया कि इन विशिष्टताधारी वस्तुओं (साड़ी, धोती आदि) को यूरोपीय लोगों को समझाने के लिए इसे इन्हीं नामों में रखना समुचित था।

पर इन भारतीय विद्वानों ने “जाति” के अंग्रेजी अनुवाद या रुपांतरण में बहुत बड़ी गड़बड़ी कर दी। इन्होंने जाति का अनुवाद ‘कास्ट’ (caste) में कर दिया। कुछ लोग तो इस अनुवाद को ही एक शातिर बौद्धिक साजिश मानते हैं|  ‘कास्ट’ मूलत: एक पुर्तगाली शब्द है, जो पुर्तगाल के एक परिवर्तनीय सामाजिक वर्ग को सूचित करता है| परन्तु भारतीय ‘जाति’ एक “बन्द वर्ग” है, जिसे ताउम्र बदला नहीं जा सकता। “जाति” एक जीवन में नहीं बदल सकता, पर “कास्ट” जीवन में बदल भी सकता है। “जाति” (Jati) को यदि अंग्रेजी में भी ‘जाति’ (Jati) ही रखा जाता, तो पश्चिमी बौद्धिक लोगों को इस नए अवधारणा को समझने में कोई भ्रम नहीं होता। इनका ग़लत अनुवाद तो हुआ है, गलती से हुआ या सजिशतन जानबूझकर, यह अलग विषय हो सकता है। इसी कारण पश्चिमी बौद्धिक विचारक भारत के संदर्भ में मार्क्स, लेनिन और माओ के विचारों को व्यक्त नहीं कर पाए।

लेनिन: भारत के लिए सीख

इन्होंने यूरोप के विशाल परन्तु अति पिछड़ा देश को सीमित समय में ऐसा स्वरुप दिया कि रुस विकास की तेज गति से आगे निकल गया। इनकी बुनियाद पर खड़ा यह देश तीन दशक के अन्दर संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे सशक्त देश के बराबर पहुंच गया। आज रूस की आबादी पन्द्रह करोड़ ही है, परन्तु शक्ति के मामले में पश्चिमी देशों को NATO का गठन करना पड़ा|

ऐसे में “बुनियाद के सिद्धांतों” (Principles for Foundation) का अवलोकन और अध्ययन करना भारत के संदर्भ में सम्यक प्रतीत होता है। उस समय रुस यूरोप में हर स्तर पर पिछड़े देशों की श्रेणी में था। उनके कार्य प्रणाली का अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण है। लेनिन का संगठनात्मक ढांचा नीचे ग्रामीण स्तर से शुरू होकर मास्को तक पिरामिड के स्वरुप में था। ग्रामीण स्तर पर विकास एवं अन्य कार्य विचार पर प्रस्ताव तैयार कर उपरी कमिटी को भेजा जाता रहा। इसी तरह अन्तिम प्रारुप पर केन्द्रीय पोलित ब्यूरो में विचार कर अंतिम निर्णय लिया जाता था। पोलित ब्यूरो में खुलकर बहस करने की पूरी छूट रहता था, परन्तु अंतिम निर्णय के बाद मतभिन्नता कदापि स्वीकार्य नहीं होता था। अंतिम निर्णय के बाद राष्ट्र की ऊर्जा का एक ही दिशा में जाना कई विशेषताओं को बनाता था। विकास के लिए यह कार्य प्रणाली महत्वपूर्ण है।

सभी कृषकों को भूमि उपलब्ध कराने के लिए बड़े जागीरदारों और धार्मिक संस्थाओं की सम्पति सहित सभी भूसम्पत्ति पर राष्ट्र का स्वामित्व स्थापित कर दिया गया। सभी किसानों को कृषि योग्य भूमि उपलब्ध कराया गया।

सभी को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए परिवहन और बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण किया गया। खेतों को पानी और औद्योगिक गति के लिए बिजली पर बहुत जोर दिया गया। इसे ‘बिजली क्रान्ति’ भी कहा गया। बड़े बड़े पनबिजली परियोजनाएं, ताप बिजली घर एवं परमाणु बिजली संयंत्र स्थापित किए गए। विश्व के सबसे बड़े भौगोलिक विस्तार वाले देश में परिवहन तंत्र का सम्यक विकास किया गया।

छोटे छोटे जोतों को मिलाकर सहयोग समितियों के आधार पर फार्म स्थापित किया गया, ताकि उनका समुचित यंत्रीकरण किया जा सके। इससे आधुनिक प्रविधियों को अपनाने में सहायता मिली। समाज में वर्ग, रंग और लिंग के आधार पर भेदभाव की समाप्ति सिर्फ कानूनों में ही नहीं, जमीनी स्तर पर किया गया। शिक्षा को सर्वव्यापक और सर्वसुलभ बनाया गया।

कार्य करने का अधिकार सुनिश्चित कराया गया। इससे युवा शक्तियों का सकारात्मक उपयोग हुआ और भटकाव एवं दुरुपयोग को रोका गया। सारे लोगों को रोजगार देने के लिए एक विस्तृत समावेशी योजना को बनाया गया। इसका परिणाम विश्व देख रहा है।

" जो काम नहीं कर सकता, उसे खाने का अधिकार नहीं है" के सिद्धान्त पर बल देने से श्रमिकों को सम्मान मिला। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि स्टालिन की पत्नी भी एक कारखाने में श्रमिक थी, उस समय भी जब  स्टालिन सोवियत प्रमुख था।

लेनिन की बुनियादी ढांचे का अध्ययन आज भी नवनिर्माण के लिए दृष्टि देता है, जिसके आधार पर त्वरित विकास किया जा सकता है। हमारे यहां कुछ प्रभावशाली यथास्थितिवादी संस्कृति की तथाकथित गौरवशाली अतीत के नाम पर मौलिक परिवर्तन नहीं होने देते हैं। ये यथास्थितिवादी येन-केन प्रकारेन तथाकथित प्रजातांत्रिक मूल्यों के नाम पर यथास्थितिवाद बनाएं रखने में सफल रहे हैं। इन्हे तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का भी मूर्खतापूर्ण समर्थन मिलता रहता है। हमें निष्पक्ष भाव से मानवता और देश के विकास के लिए फिर से इनका अध्ययन करना होगा। विश्व अग्रणी की भूमिका में आना भारत का अधिकार भी है, क्षमता भी है, संभावनाएं भी है।

बस, सिर्फ सोच शुरू होनी है।

निरंजन सिन्हा

(www.niranjansinha.com)

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

अन्दर का ठण्ड और टूटता राष्ट्र (Inner Coldness and Collapse of Nation)

आपसी घृणा और विद्वेष कैसे शक्तिशाली समाजों एवं राष्ट्रों का नाश करता है? एक व्यक्ति की तरह एक समाज और राष्ट्र भी आंतरिक एवं बाहरी शक्तियों से शासित, प्रभावित, नियंत्रित, एवं संचालित होता है| अक्सर बाहरी शक्तियों को आसानी से देखा, पहचाना, और समझा जा सकता है, या समझ लिया जाता है| इसी विशेषता के कारण उस बाहरी शक्तियों के विरुद्ध पर्याप्त तैयारी भी कर लेते हैं, या हो जाती है| इसी कारण बाहरी शक्तियों से निपटना आसान भी होता है| लेकिन आंतरिक शक्तियां हमारे अपने अन्दर होती है, और इसीलिए इसे पहचान पाना भी कठिन होता है| आंतरिक शक्तियां जब आदत बन जाती है, तब उसका विश्लेषण करना और उसे समझना बड़ा ही दुष्कर कार्य हो जाता है| तब आदतन किए गए कामों पर ध्यान भी नहीं जाता| उस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है, और इसीलिए यह व्याधि के रूप में कब छा जाता है, पता ही नहीं चलता है| इसे एक प्रेरक कविता के सन्दर्भ में स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा| जो भी विभाजनकारी या विध्वंसकारी शक्तियां होती है, वे विभाजन या विध्वंस का आधार बना ही लेता है, यानि आधार तैयार कर ही लेता है, आधार पहले से मौजूद हो या नहीं हो।

तो मैं उस प्रेरक कविता पर आता हूँ, जिसकी चर्चा मैंने अभी किया है| यह शायद एक अमेरिकन कवि के द्वारा साठ के दशक में रचा गया था| इसमें एक प्रसंग का वर्णन है| एक बार पांच यात्रियों को किसी प्राकृतिक आपदा में किसी ठण्ढे स्थान में एक साथ रुकने की नौबत आ गयी| पाँचों यात्रियों में एक ‘श्वेत’ (तथाकथित गोरा), एक ‘काला’ (तथाकथित अमेरिकन मूल निवासी), एक ‘अमीर’, एक ‘गरीब’, और एक ‘व्यापारी’ था| श्वेत और काले को एक दुसरे से सख्त घृणा थी, अमीर और गरीब को भी एक दुसरे से सख्त घृणा थी, और व्यापारी को अपने ‘लाभ’ से अंध भक्ति थी| वहां एक “अलाव” (Bonfire) जल रहा था, परन्तु जलावन  की लकड़ी (Firewood) पर्याप्त नहीं बचे थे| चूँकि घृणा का माहौल व्यापक था, और वह आदत में बदल चूका था।यही आदतें समय के साथ समाज का संस्कार भी बन जाता है, जिसे समन्वित रुप में संस्कृति भी कहते हैं। सभी के हाथ में लकड़ी का एक एक मजबूत एवं मोटा लठ्ठ रक्षात्मक हथियार के रूप में मौजूद था| रात चढ़ती जा रही थी, और ठण्ड बढती जा रही थी, परन्तु लकड़ी के अभाव में ‘अलाव’ कमजोर यानि फीकी पड़ती जा रही थी| सुबह होने को था, यानि सूर्य की उष्मा जीवन बचाने वाला था, लेकिन जीवन बचाने के लिए इन लोगो को अपने लठ्ठ को आग में डालने की आवश्यकता पड़ने लगी| 

श्वेत यानि गोरे ने अपनी लठ्ठ आग को बनाए रखने के लिए आग में डालना चाहा, परन्तु जब उसका ध्यान सामने के ‘काले’ (The Black) पर गया, तो वह काले के प्रति घृणा एवं विद्वेष से भर गया| उसने सोचा कि सब बच जाए, कोई बात नहीं, परन्तु इस ‘काले’ का बचना उसे कतई मंजूर नहीं था| उसने लकड़ी के उस लठ्ठ को और कस कर पकड़ लिया और उसे आग में नहीं डाला| काले ने भी ऐसा ही उस गोरे को देख कर किया, और अपने लठ्ठ को और कस कर जकड़ लिया| उस अमीर ने भी उस गरीब को देख कर ऐसा ही किया, क्योंकि वह गरीबों के प्रति उसी घृणा एवं विद्वेष की आदतों में ढल चुका था| उस गरीब का भी भाव उस अमीर के प्रति वैसा ही था, जैसा उस अमीर का उस गरीब के प्रति था| इन दोनों ने भी अपने अपने लठ्ठ को और कस कर पकड लिया| एक व्यापारी अपने लाभ को सोच कर कि अपने सामान से सभी का हित करे, यह बिना लाभ लिए करना इसके लिए संभव नहीं था| वह लाभ के अंधभक्ति में डूबा हुआ था| किसी ने भी आग के सुबह तक जलने देने के लिए अपना लकड़ी का लठ्ठ आग में नहीं डाला और आग सुबह होने से पहले ही बुझ गया था| परिणाम यह हुआ कि सुबह तक वे पाँचों ठण्ड से मर गए थे,और सभी अपने अपने लठ्ठ को जकड़े हुए थे| यहाँ कवि लिखता है कि ये पाँचों व्यक्ति किसी बाहरी ठण्ड से नहीं मरे थे, बल्कि अपने अन्दर की ठंढ से मरे थे| यह घृणा और विद्वेष का भाव लोगों की समझ यानि तार्किकता में ठण्ड पैदा करती है| इससे ऐसा आदमी एक सामान्य पशु से भी बदतर हो जाता है| इस अन्दर की ठंढ यानि इन लोगों की मानसिक ठंढ ने इन सबों की जान ले लिया|

भौतिक विज्ञान भी कहता है कि अत्यधिक ठंड में धातुओं में भी भुरभुरापन (Brittleness) आ जाता है और वह साधारण आघात (Stress/ Impact) को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। यही स्थिति एक समाज और राष्ट्र की भी होती है। अत्यधिक ठंड संबंधों (बंधनों) में सूखापन (Dryness) लाकर भी भुरभुरापन बढ़ा देता है। भावनाओं (Emotions) के मामले में ठंड ज्यादा खतरनाक और भयावह हो जाता है।

पहले घृणा और विद्वेष के अर्थ को समझा जाय| ये दोनों ही किसी के व्यक्तित्व के नकारात्मक भाव है| घृणा और विद्वेष ऐसे भाव हैं, जिसके द्वारा लोग अपनी अयोग्यता, अक्षमता एवं आलस को छिपाते है, या ढकते हैं, या पहचान नहीं पाते हैं, या समझ नहीं पाते हैं| इसे आप मानसिक रोग के लक्षण मान सकते हैं या स्पष्ट कहें, तो मानसिक रोगी मान सकते हैं| ये सभी आवेश (भाव) जनित मन के यानि व्यक्तित्व के विकार हैं|

यह सब ‘ईर्ष्या’ से सम्बन्धित है| ईर्ष्या को ‘दुसरे के सुखों को देख कर उत्पन्न नकारात्मक भाव’ कह सकते हैं| लेकिन जब ईर्ष्या इस हद तक बढ़ जाती है, कि लोग उनके सुखों को बर्दास्त नहीं कर पाते हैं, और उसे नष्ट या बरबाद कर देना चाहते हैं, तो उसे ‘द्वेष’ कहते हैं| अत: द्वेष ईर्ष्या का उग्र स्वरूप है| ईर्ष्या का साधारण स्वरुप ‘जलन’ कहलाता है| इस तरह द्वेष में ‘जिससे ईर्ष्या किया जाता है, उसे हानि पहुँचाने की ‘सोच’ आ जाती है, और इसीलिए इस हानि को  मुकाम पर पहुँचाने के लिए साजिश एवं कोशिश होती है| लेकिन जब द्वेष ज्यादा विकृत या वीभत्स हो जाता है, तो यह ‘विद्वेष’ कहलाता है| और जब यह द्वेष या विद्वेष का भाव स्थायी हो जाता है, यानि इस भाव में स्थायित्व आ जाता है, तो यह ‘घृणा’ कहलाता है| इसे ही साधारण शब्दों में ‘नफरत’ कहते हैं|

घृणा’ का भाव भी ‘प्रेम’ की तरह ही अँधा होता है| ‘घृणा करने वाले’ को ‘घृणित व्यक्ति’ में सिर्फ और सिर्फ अवगुण ही दीखता होता है, उसमे कुछ भी अच्छा नहीं दीखता है| घृणा का स्वरुप ऐसा बना दिया जाता है, मानों समूहों के आपसी हितों का टकराहट हो रहा है| जब इसका स्वरुप ‘हितों के टकराव’ में बदल जाता है, तो ‘शत्रुता’ का जन्म होता है|

जब ईर्ष्या का भाव आएगा, तो इसके विपरीत भाव में ‘मोह’ या ‘लगाव’ आएगा| इसे ही ‘भक्ति’ या ‘अंध भक्ति’ कहते हैं| अत: जिसे अंध भक्ति आएगा, वह व्यक्ति या समाज ‘मूढ़’ हो जाएगा, और जिसे द्वेष या विद्वेष आएगा, वह ‘दुष्ट’ हो जाएगा| ‘मूढ़’ का अर्थ मुर्ख, अज्ञानी , या निर्बुद्धि है, यानि दो पैर वाला पशु; हालाँकि एक पशु को मुर्ख नहीं कहा जाना चाहिए| इन दोनों में यानि एक मूढ़ और एक पशु में समानता यह है कि इन दोनों को तर्क करना नहीं आता है| तर्क का नहीं होना ही अज्ञानता का प्राथमिक लक्षण है, भले ही उसके पास कोई लम्बी उपाधि हो या कोई बड़ा पद भी हो| तो मूढ़ एवं दुष्ट व्यक्ति के पास तर्क को समझने, और तर्क को करने की क्षमता एवं योग्यता, दोनों का ही अभाव होता है| ऐसे व्यक्तियों को कोई भी आसानी से पशुओं की तरह ‘हांक’ ले जाता है, यानि बहा कर ले जाता है|

यही हाल यानि अवस्था एक समाज की और एक राष्ट्र की होती है| एक समाज और एक राष्ट्र जब अपने लोगों में समझ और तार्किकता को हटा कर घृणा और अंधभक्ति का धुंध (Mist) पैदा कर देता है, तो उन मूर्खों को उस धुंध में वही दीखता है, जो हांकने वाले यानि बहा कर ले जाने वाले दिखाना चाहते हैं| जब घृणा एवं विद्वेष की उत्पत्ति एवं विकास ही “अज्ञानता” पर आधारित होता है, तब व्यवस्था भी अज्ञानता को बनाए और फैलाए रखना चाहता है| ‘अज्ञानता के धुंध’ में ही “कथानक” (Narratives) भी इतिहास हो जाता है| तब कोई भी प्रवचनों, फिल्मों एवं नाटकों, सोशल मीडिया के अन्य साधनों, इलेक्ट्रोनिक एवं प्रान्त मीडिया के सहयोग से “कथानक” के साथ “इतिहास का बोध” (Perception of History) पैदा किया जाता है, या बदल दिया जाता है| अज्ञानियों की दुनिया में ये कथानक ही इतिहास कहलाते हैं, या बन जाते हैं|

आप भी जानते हैं कि किसी समाज का “इतिहास बोध” ही उस समाज की संस्कृति यानि उसके ‘सोच- विचार’ के प्रतिरूप (Pattern) को बनाते हैं| यह गलत इतिहास बोध ही मिलकर घृणा एवं विद्वेष को मजबूत करते हैं और अपने ‘समाज’ एवं ‘राष्ट्र’ के संस्कृति यानि ‘सोच- विचार के प्रतिरूप’ में “ठंड” (Coldness) पैदा कर देता है| ऐसे माहौल में समाज एवं राष्ट्र विरोधी शक्तियों को उनके बीच सक्रिय होने में मदद मिलती है| विचारों के इस ठण्ड से जो ‘सूखापन’ (Dryness) पैदा होता है, वह जंगल के आग को और भयावह बना देता है| ‘कुछ चूहों’ को तथा ‘कुछ उड़ने वाले पच्छियों’ को लगता है कि जंगल की आग से वे सब तो बच ही जाएंगे, परन्तु उन्हें जंगल की आग और आग की लपटों की भयावहता का अंदाजा नहीं होता है| और वे सब भी जंगल के अन्य जानवरों की तरह नष्ट होने को बाध्य हो जाते हैं|

इस वैचारिक “ठण्ड” से अपने समाज और राष्ट्र को बचा लेने का विमर्श को बढाया जा सकता है|

निरंजन सिन्हा

(मेरे अन्य आलेख www.niranjansinha .com पर भी देखे जा सकते है|)

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

तथाकथित क्रांतिकारी शूरवीर

हमारे समाज में कई तरह के क्रन्तिकारी और शूरवीर मिल जायेंगे| मैं इन्हें “तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीर” कहता हूँ| ‘तथाकथित’ इसलिए कि ये अपने को तो क्रन्तिकारी शूरवीर समझते होते हैं, परन्तु इन्हें क्रांतियों एवं इनकी क्रियाविधियों के बारे में ही कुछ पता नहीं होता|

इनका क्रांतिकारिता वैचारिक तो होती नहीं, शारीरिक ही होती है और इसीलिए सभी को दिख भी जाती है| कहने का अर्थ यह है कि इनकी तथाकथित क्रांतिकारिता को आँखों से हर कोई देख सकता है, और इसीलिए यह अपने निर्धारित आकार (Shape) लेने से पहले ही यह नष्ट हो जाता है, या नष्ट कर दिया जाता है| यह क्रांतिकारिता एक कदम भी नहीं चल पाता| इनकी क्रांतिकारिता स्पष्ट आँखों से दीखता है, क्योंकि ये चीखते हैं, चिल्लाते हैं, अपने विरोधियों को गालियां देते हैं| इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों को सृजनात्मक कार्यों को छोड़ कर सभी कार्य करने आते हैं, अर्थात सारे नकारात्मक यानि नकारा कार्य करने आता है| ऐसी क्रांतिकारिता अपने स्थान पर ठिठका हुआ होता है, या किसी दुसरे अन्य क्रांतियों को रोके रहने में सफल रहता है, क्योंकि यह अन्य लोगों को एवं उनके संसाधनों को भावनात्मक आधार पर उलझाएं रखता हैं|

यह आलेख इन तथाकथित क्रान्तिकारी शूरवीरों की पहचान में मदद करेगी| इसके साथ ही आप इनकी असफलता के वास्तविक कारणों को समझ सकेंगे| इसके साथ ही “आस्तीन के सांप” की तरह रहने वाले इन “शातिर तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों” की दलाली भी समझ सकेंगे|

ये तथाकथित क्रान्तिकारी अपने को शूरवीर भी समझते हैं, क्योंकि हमेशा मर –मिटने की ही बात करते हैं| ये अपने को भावी शहीद की श्रेणी में कहलाना पसंद करते हैं| लोग मर कर समाज और मानवता को क्या देते हैं, मैं आज तक नहीं समझ पाया| यह भावनात्मक दोहन का एक अचूक हथियार भले ही हो, परन्तु ‘मर जाने का लक्ष्य’ कोई काम का नहीं| मरना तो सभी को है, पर लक्ष्य कुछ करने का होता है, मरने का नहीं|

ये दुनिया की सफल क्रांतियों के बारे में बताएंगे, पर ध्यान रहे कि ये तथाकथित क्रान्तिकारी हमेशा सिर्फ राजनीतिक क्रान्तियों की ही बात करेंगे| ये कभी आर्थिक क्रान्ति, या वैचारिक क्रान्ति, या वैज्ञानिक क्रान्ति, या सांस्कृतिक क्रान्ति, या शैक्षणिक क्रान्ति की बात नहीं करेंगे| इन क्रांतियों के बारे में तो इनकी कोई सोच या विचार की ही पहुँच नहीं होती है| ये जिन वैश्विक राजनीतिक क्रांतियों की बात करते हैं, उन नेतृत्वों के अध्ययन के बराबर इनका अध्ययन भी नहीं होता| ये समझते हैं कि चीखने, चिल्लाने और गाली देने से ही बदलाव हो जाता है|या यह सब जानते हुए भी लोगों के भावनात्मक दोहन तक ही अपने को सीमित रहते हैं।

ऐसे लोग कभी कभी ही राजनीतिक रूप में सफल भी होते हैं, और यदि कभी सफल हो भी गए हों, तो तुरंत असफल भी हो जाते हैं| ये समुद्री लहरों की तरह ऊपर उठते है, और उसी तरह ध्वस्त भी हो जाते हैं| इनकी राजनीतिक सफलता भी सत्ताधारियों के प्रति जनाक्रोश के कारण मिलती है| अर्थात सत्ता की असफलता ही इन विरोधियों को सत्ता का मौका देता है, जिनमे इन विरोधियों के योगदान का महत्व देना और नहीं देना, दोनों बात बराबर है| अर्थात इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों की सफलता में इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों का कोई योगदान नहीं होता है|

इनके कुछ स्पष्ट लक्षण यानि विशेषता को मैं रेखांकित करना चाहूँगा|

सामान्यत: इनकी उम्र पैंतीस या तीस से अधिक ही होगी| मतलब ये अपने विचारों, व्यवहारों और आदर्शों के प्रतिरूप में “पके” (Ripen, matured) हुए होंगे| इसी कारण इनकी समस्या यह हो जाती है, कि इनको लगता है कि वे सब कुछ जानते हैं और इन्हें अब कुछ नया नहीं जानना है| परिणाम यह होता है कि इनकी तार्किकता और विवेकशीलता ठहरी हुई होती है| ये समझने लगते हैं कि सारी कमियां सामान्य लोगो में ही है, जो इनको समर्थन नहीं देते| इनको कमी उन चीजों में दिखती है, जो इनके पास नहीं होती, जैसे धन की कमी, समर्थन की कमी, लोगों की समझने की कमी आदि| इनको व्यक्ति एवं समाज के मनोविज्ञान का कोई समझ नहीं होता| इसी कारण ये अपने विचारो एवं व्यवहारों में लोगो के मनोविज्ञान के अनुरूप कोई बदलाव नहीं लाते हैं| ये समझते हैं कि लोग इन्हें समझ नहीं पा रहे हैं, क्योंकि ये सामान्य लोग मुर्ख हैं| लोग मुर्ख हैं, इसीलिए तो आपके जैसे विद्वानों की इन्हें जरुरत हैं, इन्हें यह समझना चाहिए, जो यह समझ नहीं पाते|वास्तव में समझ में कमी इनकी होती है और कमियां लोगों में खोजते हैं।

ये ‘तथाकथित क्रान्तिकारी शूरवीर’ कोई दूसरा भिन्न विचार सुनना नहीं चाहते| इनमे नए चीजो को जानने एवं समझने की क्षमता नहीं होती, क्योंकि ये कोई नया अध्ययन करना नहीं चाहते| ये कोई तर्क भी सुनना नहीं चाहते| ये चाहते हैं कि लोग इन्ही को सिर्फ सही ही साबित करें, कोई विपरीत तर्क नहीं करें| ये यह समझना भी नहीं चाहते हैं कि मानवीय मनोविज्ञान का भी इसमें कोई खेल होता है| जैसे कोई इन्हें पशुओं की तरह हांक लेते हैं, वैसे ही ये चाहते हैं कि ये भी सब को हांक लें|

इन ‘तथाकथित क्रान्तिकारी शूरवीरों’ की एक ख़ासी विशेषता यह होती है कि ये समाज के स्थापित महान विचारकों के नाम तो जानते हैं, परन्तु उनके विचारों से इन्हें कोई लेना देना नहीं होता है| इन विचारकों का सम्यक अध्ययन कोई तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीर नहीं करता, सिर्फ इनके बारे में जो वे सुन लिए होते हैं, वहीं तक सीमित रहते हैं| इसी कारण इनके क्रन्तिकारी विचारों का आधार घिसा पिटा वकवास विचार ही होता है, क्योंकि इनमे अध्ययन की न तो इच्छा होती है, न तो अध्ययन की योग्यता एवं क्षमता होता है, और न ही इसकी आवश्यकता समझते हैं|

तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीर उन स्थापित विचारकों के सामाजिक समूह के सामाजिक वर्गों के आधार पर अपने ज्ञान का सम्बन्ध स्थापित करते हैं, मतलब अपनी विद्वत्ता का आधार उन विचारकों की जातियों की समानता में बनाते हैं | इनके तथाकथित ज्ञान का आधार इनका यही सामाजिक वर्ग की समानता होता है| इन सम्बन्धों के आधार में  ‘जाति’ या ‘जाति समूह’ ही प्रमुख होता है| ये लोग नए हो रहे शोधों एवं विज्ञान तथा तकनीकों के विकास की पूरी उपेक्षा कर देते हैं| यदि आप उन स्थापित विचारकों में नए शोधों एवं विज्ञान- तकनिकी विकास के आलोक में कोई सकारात्मक संशोधन कर देते हैं, तो ये शूरवीर आपको उन स्थापित विचारकों का विरोधी बता देंगे, मानों उन विचारों के कार्यान्वयन का ठेका उन्ही को मिला हुआ है, या उनको एकाधिकार प्राप्त है| इन शूरवीरों को इन विचारकों के सन्दर्भ में समाज में हुए जनान्कीय (Demographic) परिवर्तन के साथ साथ अन्य कोई परिवर्तन के कारण विचारों एवं रणनीति में बदलाव होना चाहिए, नहीं दिखता है|

सिर्फ “विरोध और संघर्ष करना”, इनका एकमात्र रणनीति होता है| चूँकि कोई सृजनात्मक एवं सकारात्मक सोच नही  होता है, इसीलिए कोई सृजनात्मक एवं सकारात्मक रणनीति भी नहीं होता है| वैसे भी विरोध और संघर्ष करना, एक भावनात्मक अपील देता है, जो भावनात्मक लोगों को आसानी से बहा ले जाता है| विद्वान् लोग बताते हैं कि वैसे भी मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोग भावनाओं से संचालित होते हैं, तर्क का प्रभाव कम ही होता है| इसे साधारण भाषा में कहा जाता है कि ये लोग ‘दिल’ से सोचते हैं, दिमाग से नहीं|

हालाँकि मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए, परन्तु यही सत्य भी है| सत्य थोडा कडवा होता है, परन्तु दवा की तरह लाभदायक भी होता है, यदि आप विचार करेंगे| डाक्टर भीम राव आम्बेडकर ने नारा दिया – Educate, Agitate, Organise का| लेकिन इन शूरवीरों ने इसमें अपने सुविधा से संशोधन कर दिया और क्रम बदलने के साथ ही शब्द भी बदल कर Struggle ले आए, मानों आम्बेडकर को Agitate एवं Struggle शब्द में अंतर नहीं पता था| यदि दोनों शब्द पूर्णतया समानार्थक हैं, तो ये शूरवीर ही बाबा साहेब से ज्यादा ज्ञानी बन गए| ध्यान रहे कि यह बात विचारों में समय के साथ संशोधन का नहीं है, अपितु उनके व्यक्त नारा को बिगाड़ना है| यह भी इन “तथाकथित क्रान्तिकारी शूरवीरों” की आसान पहचान है| चूँकि इन भावनात्मक लहर में भोले भाले लोगों को बहा ले जाना आसान हो जाता है, इसीलिए इस तकनीक का उपयोग एवं प्रयोग भी बहुत होता है|

मैंने पहले ही यह रेखांकित कर दिया है कि ये तथाकथित क्रन्तिकारी लोग अध्येता नहीं होते है, इसीलिए इनका कोई वैज्ञानिक दर्शन नहीं होता है| विरोध और संघर्ष के अलावे इनका कोई सकारात्मक एवं रचनात्मक कार्य योजना नहीं होता है| ऐसे तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीर को कुछ लोग “दलाल” किस्म के मानते हैं|

इनके कार्य योजना में सभी वर्गों के सिर्फ युवाओं पर ही ध्यान होता है| क्योंकि ये युवा उत्साही होते है, आक्रामक होते हैं, तंत्र बदलने को आतुर होते हैं, नवाचारी होते हैं, प्रयोगात्मक होते हैं, और कुछ कर गुजरने की तमन्ना होती है, इसलिए यह वर्ग इनके साफ्ट टारगेट में होता है| इन ‘तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों’ की कार्य योजना में प्रमुख होता है कि इन जरुरतमंद समाज में जो लोग बदलाव चाहते हैं, उनसे भावनात्मक अपील कर “धन” निकाल लिया जाय, और चंदे के रूप में ये आर्थिक संसाधन निकालने में सफल हो जाते हैं| ऐसे क्षमतावान एवं उर्जावान लोगों की क्षमता एवं ऊर्जा को उलझाए रखा जाय, ताकि इनके आकाओं का हित लाभ हो सके और उनको कड़ा विरोध से बचाया जा सके| ऐसे अन्य संसाधन जो उन आकाओं के विरोध में जा सकते हैं, उनको भी भटकाने में सफल रहते हैं|

ये तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीर युवा शक्ति यानी इनकी जवानियों को भी बर्बाद करते है| इन "दलाल तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों" की साधारण पहचान है कि आज के लोकतंत्रात्मक पद्धति के दौर में भी खुला संघर्ष का आमंत्रण करते दीखते है| ये विरोधियों को ऐसे गालियाँ देते होते हैं, कि यदि आप भी ऐसे अलोक्तान्त्रत्मक  शब्दों का प्रयोग करे, तो आप पर तुरंत शारीरिक दंडात्मक प्रक्रिया के साथ साथ वैधानिक प्रक्रिया भी शुरू कर दी जाएगी, परन्तु उन दलाल तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों को कुछ नहीं होता है| ऐसा क्यों? क्योंकि दलालों के विरुद्ध उनके मालिक प्रतिक्रिया नहीं देते| एक स्पष्ट दूसरी पहचान यह है कि इनके पास ‘गलियों’ के सिवा अन्य कोई वैचारिक सृजनात्मक पहल नही होता|

इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीर का ज्ञान सिर्फ सुनी सुनाई होता है, क्योंकि इन्हें अधिकारिक प्रतिवेदन पढने नहीं  आता है, या पढना ही नहीं चाहते| इनके पास कोई विश्लेष्णात्मक क्षमता भी नहीं होती, इसलिए तर्कसंगत भी नहीं होते| इन बुद्धिहीन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों को अपनी तथाकथित विद्वता दिखाने के लिए चतुर यथास्थितिवादी कुछ कुछ चटपटे महत्वहीन मुद्दे देते रहते हैं| इससे इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों को जन मानस में अपनी धाक जमाने के लिए यह सब फ़ालतू विषय काफी महत्वपूर्ण लगता है| इस तरह इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों को सत्ता का अप्रत्यक्ष लाभ मिल जाता है|

इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों को न तो समस्यायों की मौलिक पहचान होती है, न ही इन समस्यायों के जड़ों की समझ होती है| ये ज्ञान के उस पोखर (Pond) में तैरते रहते हैं, जिनको इन यथास्थितिवादियों ने बड़ी समझदारी से तैयार किये होते हैं| इसी के आधार पर ये तथाकथित विद्वत्ता दिखाते रहते हैं| इनका तथाकथित मौलिक एवं नवाचारी ज्ञान का प्राथमिक स्रोत का आधार भी इन यथास्थितिवादियों का ज्ञान तंत्र ही होता है| इसी के आधार पर इनका तथाकथित नवाचारी विचार एवं शोध होता है| इसी कारण ये तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीर समाज के मूल मुद्दे से बहुत दूर दूर होते हैं और उसी में उलझे रहते हैं एवं अन्य लोगों को भी उलझाएं रखते हैं| इनको इन मूल मुद्दों से भटकाने के लिए कई कई “भटकाव वाले मुद्दे” उभारते रहते है|

क्या आपने आज तक कोई क्रान्ति सफल होते देखा या सुना है, जिसके नेता सिर्फ चिल्लाते ही हो? ये चिल्लाने वाले बिके हुए होते हैं, जो लोगों का समय, धन, उर्जा, संसाधन और जवानी को मात्र बरबाद करते हुए होते हैं| इनका उद्देश्य लोगो को ‘यथास्थितिवादियों’ के हित में उन्ही के समय, धन एवं संसाधन से उलझाए रखना होता है| इनकी चुनावी रणनीति भी चुनाव जीतने की नहीं होती है, किसी और को जिताने में मदद की होती है, और उसमे वे सफल भी होते हैं| इसीलिए वे चुनाव में जीतते नहीं है, किसी और को जीतने में सहायक बनते हैं। इससे मिले पारतोषिक कोई समझ नहीं सकता है, क्योंकि यह अदृश्य होता है| ऐसी ही गतिविधियों को कुछ लोग दलाल भी कहते हैं, जो शायद उपयुक्त शब्द नहीं है|

इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों की जय हो| यह सब सभी समझना भी नहीं चाहेंगे, और इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों का दौर भी चलता रहेगा| आजकल विद्वता का आधार भी “जाति” और ”धर्म” हो गया है| आज के तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों की एक ख़ास पहचान यह भी है कि ये तंत्र की खूब आलोचना करेंगे, परन्तु मतदान के समय अपनी “जाति” एवं “धर्म” के नाम पर ही यानि इन्ही हितों को ध्यान में रख कर निर्णय लेंगे| इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों की जब आप टिपण्णी देखेंगे, तो इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों की विद्वता और क्रान्तिकारी विचारों से आप भी दंग रह जाएंगे| ये आपको अपने जाति के और कभी कभी अपने तथाकथित धर्म के नेताओं में विद्वता और समर्पण दिखाएँगे, जबकि इनके विद्वता का एकमात्र आधार जाति एवं धर्म ही होता है|

सभी समस्यायों का एकमात्र समाधान समुचित ज्ञान है|

समुचित का अर्थ - तार्किक, तथ्यपरक, विवेकपूर्ण, एवं वैज्ञानिक यानि विज्ञान आधारित हुआ|

समुचित ज्ञान के प्रसार से ही विश्व की सभी समस्यायों का समाधान है|

परन्तु ज्ञान यानि समुचित ज्ञान को छोड़कर सब कुछ किया जाता है, क्योंकि समस्यायों का समाधान भी एक बहुत ही लाभदायक व्यवसाय बना हुआ है| इसमें वाह वाही भी खूब मिलती है, यानी तालियाँ भी खूब बजती है|

आइए, हमलोग भी ताली बजाएं| इन तथाकथित क्रन्तिकारी शूरवीरों की जय|

(मेरे अन्य आलेख आप www.niranjansinha.com पर देख सकते हैं।)

निरंजन सिन्हा 

भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक सम...