मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

अन्दर का ठण्ड और टूटता राष्ट्र (Inner Coldness and Collapse of Nation)

आपसी घृणा और विद्वेष कैसे शक्तिशाली समाजों एवं राष्ट्रों का नाश करता है? एक व्यक्ति की तरह एक समाज और राष्ट्र भी आंतरिक एवं बाहरी शक्तियों से शासित, प्रभावित, नियंत्रित, एवं संचालित होता है| अक्सर बाहरी शक्तियों को आसानी से देखा, पहचाना, और समझा जा सकता है, या समझ लिया जाता है| इसी विशेषता के कारण उस बाहरी शक्तियों के विरुद्ध पर्याप्त तैयारी भी कर लेते हैं, या हो जाती है| इसी कारण बाहरी शक्तियों से निपटना आसान भी होता है| लेकिन आंतरिक शक्तियां हमारे अपने अन्दर होती है, और इसीलिए इसे पहचान पाना भी कठिन होता है| आंतरिक शक्तियां जब आदत बन जाती है, तब उसका विश्लेषण करना और उसे समझना बड़ा ही दुष्कर कार्य हो जाता है| तब आदतन किए गए कामों पर ध्यान भी नहीं जाता| उस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है, और इसीलिए यह व्याधि के रूप में कब छा जाता है, पता ही नहीं चलता है| इसे एक प्रेरक कविता के सन्दर्भ में स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा| जो भी विभाजनकारी या विध्वंसकारी शक्तियां होती है, वे विभाजन या विध्वंस का आधार बना ही लेता है, यानि आधार तैयार कर ही लेता है, आधार पहले से मौजूद हो या नहीं हो।

तो मैं उस प्रेरक कविता पर आता हूँ, जिसकी चर्चा मैंने अभी किया है| यह शायद एक अमेरिकन कवि के द्वारा साठ के दशक में रचा गया था| इसमें एक प्रसंग का वर्णन है| एक बार पांच यात्रियों को किसी प्राकृतिक आपदा में किसी ठण्ढे स्थान में एक साथ रुकने की नौबत आ गयी| पाँचों यात्रियों में एक ‘श्वेत’ (तथाकथित गोरा), एक ‘काला’ (तथाकथित अमेरिकन मूल निवासी), एक ‘अमीर’, एक ‘गरीब’, और एक ‘व्यापारी’ था| श्वेत और काले को एक दुसरे से सख्त घृणा थी, अमीर और गरीब को भी एक दुसरे से सख्त घृणा थी, और व्यापारी को अपने ‘लाभ’ से अंध भक्ति थी| वहां एक “अलाव” (Bonfire) जल रहा था, परन्तु जलावन  की लकड़ी (Firewood) पर्याप्त नहीं बचे थे| चूँकि घृणा का माहौल व्यापक था, और वह आदत में बदल चूका था।यही आदतें समय के साथ समाज का संस्कार भी बन जाता है, जिसे समन्वित रुप में संस्कृति भी कहते हैं। सभी के हाथ में लकड़ी का एक एक मजबूत एवं मोटा लठ्ठ रक्षात्मक हथियार के रूप में मौजूद था| रात चढ़ती जा रही थी, और ठण्ड बढती जा रही थी, परन्तु लकड़ी के अभाव में ‘अलाव’ कमजोर यानि फीकी पड़ती जा रही थी| सुबह होने को था, यानि सूर्य की उष्मा जीवन बचाने वाला था, लेकिन जीवन बचाने के लिए इन लोगो को अपने लठ्ठ को आग में डालने की आवश्यकता पड़ने लगी| 

श्वेत यानि गोरे ने अपनी लठ्ठ आग को बनाए रखने के लिए आग में डालना चाहा, परन्तु जब उसका ध्यान सामने के ‘काले’ (The Black) पर गया, तो वह काले के प्रति घृणा एवं विद्वेष से भर गया| उसने सोचा कि सब बच जाए, कोई बात नहीं, परन्तु इस ‘काले’ का बचना उसे कतई मंजूर नहीं था| उसने लकड़ी के उस लठ्ठ को और कस कर पकड़ लिया और उसे आग में नहीं डाला| काले ने भी ऐसा ही उस गोरे को देख कर किया, और अपने लठ्ठ को और कस कर जकड़ लिया| उस अमीर ने भी उस गरीब को देख कर ऐसा ही किया, क्योंकि वह गरीबों के प्रति उसी घृणा एवं विद्वेष की आदतों में ढल चुका था| उस गरीब का भी भाव उस अमीर के प्रति वैसा ही था, जैसा उस अमीर का उस गरीब के प्रति था| इन दोनों ने भी अपने अपने लठ्ठ को और कस कर पकड लिया| एक व्यापारी अपने लाभ को सोच कर कि अपने सामान से सभी का हित करे, यह बिना लाभ लिए करना इसके लिए संभव नहीं था| वह लाभ के अंधभक्ति में डूबा हुआ था| किसी ने भी आग के सुबह तक जलने देने के लिए अपना लकड़ी का लठ्ठ आग में नहीं डाला और आग सुबह होने से पहले ही बुझ गया था| परिणाम यह हुआ कि सुबह तक वे पाँचों ठण्ड से मर गए थे,और सभी अपने अपने लठ्ठ को जकड़े हुए थे| यहाँ कवि लिखता है कि ये पाँचों व्यक्ति किसी बाहरी ठण्ड से नहीं मरे थे, बल्कि अपने अन्दर की ठंढ से मरे थे| यह घृणा और विद्वेष का भाव लोगों की समझ यानि तार्किकता में ठण्ड पैदा करती है| इससे ऐसा आदमी एक सामान्य पशु से भी बदतर हो जाता है| इस अन्दर की ठंढ यानि इन लोगों की मानसिक ठंढ ने इन सबों की जान ले लिया|

भौतिक विज्ञान भी कहता है कि अत्यधिक ठंड में धातुओं में भी भुरभुरापन (Brittleness) आ जाता है और वह साधारण आघात (Stress/ Impact) को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। यही स्थिति एक समाज और राष्ट्र की भी होती है। अत्यधिक ठंड संबंधों (बंधनों) में सूखापन (Dryness) लाकर भी भुरभुरापन बढ़ा देता है। भावनाओं (Emotions) के मामले में ठंड ज्यादा खतरनाक और भयावह हो जाता है।

पहले घृणा और विद्वेष के अर्थ को समझा जाय| ये दोनों ही किसी के व्यक्तित्व के नकारात्मक भाव है| घृणा और विद्वेष ऐसे भाव हैं, जिसके द्वारा लोग अपनी अयोग्यता, अक्षमता एवं आलस को छिपाते है, या ढकते हैं, या पहचान नहीं पाते हैं, या समझ नहीं पाते हैं| इसे आप मानसिक रोग के लक्षण मान सकते हैं या स्पष्ट कहें, तो मानसिक रोगी मान सकते हैं| ये सभी आवेश (भाव) जनित मन के यानि व्यक्तित्व के विकार हैं|

यह सब ‘ईर्ष्या’ से सम्बन्धित है| ईर्ष्या को ‘दुसरे के सुखों को देख कर उत्पन्न नकारात्मक भाव’ कह सकते हैं| लेकिन जब ईर्ष्या इस हद तक बढ़ जाती है, कि लोग उनके सुखों को बर्दास्त नहीं कर पाते हैं, और उसे नष्ट या बरबाद कर देना चाहते हैं, तो उसे ‘द्वेष’ कहते हैं| अत: द्वेष ईर्ष्या का उग्र स्वरूप है| ईर्ष्या का साधारण स्वरुप ‘जलन’ कहलाता है| इस तरह द्वेष में ‘जिससे ईर्ष्या किया जाता है, उसे हानि पहुँचाने की ‘सोच’ आ जाती है, और इसीलिए इस हानि को  मुकाम पर पहुँचाने के लिए साजिश एवं कोशिश होती है| लेकिन जब द्वेष ज्यादा विकृत या वीभत्स हो जाता है, तो यह ‘विद्वेष’ कहलाता है| और जब यह द्वेष या विद्वेष का भाव स्थायी हो जाता है, यानि इस भाव में स्थायित्व आ जाता है, तो यह ‘घृणा’ कहलाता है| इसे ही साधारण शब्दों में ‘नफरत’ कहते हैं|

घृणा’ का भाव भी ‘प्रेम’ की तरह ही अँधा होता है| ‘घृणा करने वाले’ को ‘घृणित व्यक्ति’ में सिर्फ और सिर्फ अवगुण ही दीखता होता है, उसमे कुछ भी अच्छा नहीं दीखता है| घृणा का स्वरुप ऐसा बना दिया जाता है, मानों समूहों के आपसी हितों का टकराहट हो रहा है| जब इसका स्वरुप ‘हितों के टकराव’ में बदल जाता है, तो ‘शत्रुता’ का जन्म होता है|

जब ईर्ष्या का भाव आएगा, तो इसके विपरीत भाव में ‘मोह’ या ‘लगाव’ आएगा| इसे ही ‘भक्ति’ या ‘अंध भक्ति’ कहते हैं| अत: जिसे अंध भक्ति आएगा, वह व्यक्ति या समाज ‘मूढ़’ हो जाएगा, और जिसे द्वेष या विद्वेष आएगा, वह ‘दुष्ट’ हो जाएगा| ‘मूढ़’ का अर्थ मुर्ख, अज्ञानी , या निर्बुद्धि है, यानि दो पैर वाला पशु; हालाँकि एक पशु को मुर्ख नहीं कहा जाना चाहिए| इन दोनों में यानि एक मूढ़ और एक पशु में समानता यह है कि इन दोनों को तर्क करना नहीं आता है| तर्क का नहीं होना ही अज्ञानता का प्राथमिक लक्षण है, भले ही उसके पास कोई लम्बी उपाधि हो या कोई बड़ा पद भी हो| तो मूढ़ एवं दुष्ट व्यक्ति के पास तर्क को समझने, और तर्क को करने की क्षमता एवं योग्यता, दोनों का ही अभाव होता है| ऐसे व्यक्तियों को कोई भी आसानी से पशुओं की तरह ‘हांक’ ले जाता है, यानि बहा कर ले जाता है|

यही हाल यानि अवस्था एक समाज की और एक राष्ट्र की होती है| एक समाज और एक राष्ट्र जब अपने लोगों में समझ और तार्किकता को हटा कर घृणा और अंधभक्ति का धुंध (Mist) पैदा कर देता है, तो उन मूर्खों को उस धुंध में वही दीखता है, जो हांकने वाले यानि बहा कर ले जाने वाले दिखाना चाहते हैं| जब घृणा एवं विद्वेष की उत्पत्ति एवं विकास ही “अज्ञानता” पर आधारित होता है, तब व्यवस्था भी अज्ञानता को बनाए और फैलाए रखना चाहता है| ‘अज्ञानता के धुंध’ में ही “कथानक” (Narratives) भी इतिहास हो जाता है| तब कोई भी प्रवचनों, फिल्मों एवं नाटकों, सोशल मीडिया के अन्य साधनों, इलेक्ट्रोनिक एवं प्रान्त मीडिया के सहयोग से “कथानक” के साथ “इतिहास का बोध” (Perception of History) पैदा किया जाता है, या बदल दिया जाता है| अज्ञानियों की दुनिया में ये कथानक ही इतिहास कहलाते हैं, या बन जाते हैं|

आप भी जानते हैं कि किसी समाज का “इतिहास बोध” ही उस समाज की संस्कृति यानि उसके ‘सोच- विचार’ के प्रतिरूप (Pattern) को बनाते हैं| यह गलत इतिहास बोध ही मिलकर घृणा एवं विद्वेष को मजबूत करते हैं और अपने ‘समाज’ एवं ‘राष्ट्र’ के संस्कृति यानि ‘सोच- विचार के प्रतिरूप’ में “ठंड” (Coldness) पैदा कर देता है| ऐसे माहौल में समाज एवं राष्ट्र विरोधी शक्तियों को उनके बीच सक्रिय होने में मदद मिलती है| विचारों के इस ठण्ड से जो ‘सूखापन’ (Dryness) पैदा होता है, वह जंगल के आग को और भयावह बना देता है| ‘कुछ चूहों’ को तथा ‘कुछ उड़ने वाले पच्छियों’ को लगता है कि जंगल की आग से वे सब तो बच ही जाएंगे, परन्तु उन्हें जंगल की आग और आग की लपटों की भयावहता का अंदाजा नहीं होता है| और वे सब भी जंगल के अन्य जानवरों की तरह नष्ट होने को बाध्य हो जाते हैं|

इस वैचारिक “ठण्ड” से अपने समाज और राष्ट्र को बचा लेने का विमर्श को बढाया जा सकता है|

निरंजन सिन्हा

(मेरे अन्य आलेख www.niranjansinha .com पर भी देखे जा सकते है|)

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सम सामयिक और तथ्यों से परिपूर्ण।
    विभिन्न शब्दों की परिभाषाएं एकदम सटीक और सरल भाषा में है।
    ठंड रुपी इस आंतरिक रोग और आपदा को सभी को तुरंत और समय रहते समझना होगा, अन्यथा हम सभी एक एक कर ,/बारी बारी इस घृणा और अंधभक्ति की आंतरिक आपदा के शिकार बन जाएंगे और भारत नामक देश का अस्तित्व मिट जाएगा।

    महेंद्र चौधरी

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  2. इस आलेख की शिक्षा,संकेत व प्रतीक महत्वपूर्ण है।श्रीलंका की आर्थिक बदहाली इसी सिघला-तमिल-मुसलिम विद्वेष में छिपा है।आज सभी श्रीलंकाई विभाजनकारी राजपक्षे का विरोध कर रहे हैं एकता में ही समृद्धि बस्ती है।श्रीलंकाई धरना से हर भारतीय को सबक लेना चाहिए। विनय कुमार ठाकुर राज्य कर सहायक आयुक्त आई बी भागलपुर

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  3. A very good essay which explains the defeat of nations because of adopting anti human, unjust and unethical behaviours and habits.
    A very deep Concern shown about the future of our great Nation by Shri Niranjan Kumar Sinha ji is praiseworthy.

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  4. Correct evaluation contemporary society. such Intellectual honesty is needed to arrive at correct conclusion and solution of ongoing sad state of affairs.

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  5. आलेख के लिए आचार्य निरंजन सिन्हा जी को बहुत-बहुत धन्यवाद।

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