बुधवार, 18 मई 2022

मंदिरों को क्यों टूटना हुआ?

सवाल यह है कि मंदिर क्यों टूटा? इसके लिए मंदिर को समझना होगा, उस काल को समझना होगा जिसमे मंदिर टूटा, उस प्रक्रिया को समझना होगा जिन प्रक्रियाओं से यह टूटा, और उन स्थितियों को समझना होगा जिन परिस्थितियों में यह टूटा| फिर हमें यह भी समझना होगा कि हमें आज क्या चाहिए? सिर्फ वही मंदिर चाहिए या अपने नागरिकों के लिए और भी कुछ ज्यादा चाहिए?

एक मंदिर क्या है? प्राकृत बहुत प्राचीन भाषा है, क्योंकि यह ‘प्रा’ एवं ‘कृत’ से बना है| ‘कृत’ का अंग्रेजी अर्थ होता है  - Creation यानि ‘किसी चीज के बनने की स्थिति’ या 'कोई रचना', और ‘प्रा’ (Pre) का अर्थ हुआ 'पहले" यानि पूर्व की स्थिति| इस तरह 'प्राकृत' का अर्थ हुआ - किसी भी रचना की पहले की अवस्था| यानि किसी भाषा की रचना की पूर्व अवस्था| प्राकृत का उद्भव क्षेत्र मगध माना जाता है और आज भी यह मगही भाषा या मागधी भाषा के रूप में जीवित है| मगही में ‘मंदिर’ को “मंदिल” (मन + दिल) कहा जाता है, जो ‘मन’ और ‘दिल’ के संयोग से बना है| अर्थात यह ‘मन’ और ‘दिल’ से सम्बंधित है| ‘मन’ मानव के चेतना से सम्बंधित है और ‘दिल’ मानव की भावनाओं से संबधित माना जाता है| इस तरह एक “मंदिल” (MANDIL) यानि मंदिर चेतना को प्रखर करता है और भावनाओं को बौद्धिक बनाकर एक मानव को समझदारी एवं सुकून देता है| मंदिर का उपरी आकृति ब्रह्माण्डीय किरणों को मंदिरों के मध्य में केन्द्रीत करता है। यह भारत की परंपरा रही है|

यदि हम भारत में मंदिल यानि मंदिर की परम्परा देखें, तो यह पायेंगे कि यह परंपरा भारत के सभी पन्थो के साथ रही| बौद्ध परंपरा हो या जैन परंपरा या अन्य कोई और परंपरा, भले आज उनके अवशेष मिलते हों या भग्न अवस्था में हो, यह परंपरा प्राचीन भारत में भी यानी बौद्धिक काल में भी रही है|प्राचीन काल में यह चैत्यो की परम्परा थी। मध्यकाल यानि सामन्ती काल में हिन्दू परम्परा, जिसे प्रोफ़ेसर आर्थर लेवेलिन (ए एल) बाशम ब्राह्मणी परंपरा कहते हैं, के हिन्दु मंदिर बनने शुरू हो गए| सभी क्षेत्रों के भवनों को उनके भौगोलिक अनिवार्यताओं, उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं, सामाजिक एवं जनान्कीय (Demographic) आवश्यकताओं के अनुरूप ढलना एवं ढालना होता है, यानि संरचनात्मक आंतरिक एवं बाह्य आकृति और स्वरुप को बदलना होता है|

जनान्कीय एवं सामाजिक बाध्यताओं में आबादी की मात्रा और भागेदारियों का सामाजिक स्तरीकरण महत्वपूर्ण रहा| अर्थात आबादी के अनुसार इस मंदिरों का आकार छोटा –बड़ा हो सकता है| सामाजिक स्तरीकरण में पुरुष एवं स्त्री का विभेद, गुरु –शिष्य का अंतर, या और कोई अन्य सामाजिक स्तरीकरण जैसे वर्ण यां जाति का अंतर संरचना की आन्तरिक रुप रेखा को तय करता है और इसलिए भी यह सब इसकी इसकी बनाबट और सजावट में शामिल हो जाती रही। भौगोलिक आवश्यकताओं में उस क्षेत्र में बर्षा, धुप एवं हिमपात की मात्रा, तीव्रता और प्रवृत्ति प्रमुख कारक होगा| अत्यधिक वर्षा के क्षेत्र में छतों को ढालुआ (Steeep) होना होता है, बर्फ गिरने के क्षेत्र में छतों और अत्यधिक ढालुआ बनाया जाता है, लेकिन कम बर्षा या नगण्य बर्षा क्षेत्र में ढालुआ नहीं भी बनाया जा सकता है, जैसे गुप्त कालीन ‘देवगढ’ का मंदिर|

लेकिन मंदिरों के छतों की अभियांत्रिकी संरचना के सम्बन्ध में एक और दूसरा तथ्य महत्वपूर्ण है| प्राचीन कालीन बौद्ध मंदिर “चैत्य” भी कहलाते थे, जहां मानवीय चेतानाओं का अध्ययन किया जाता था, उस पर विमर्श किया जाता था, और वहां सामान्य जन एवं बौद्धिक लोग इसे विस्तार से समझते थे| इसकी छतें गुम्बदाकार (Dome) होती थी या ढालुआ (Steepy) होती थी| यह तकनीक ईसा पूर्व में भारत से पश्चिम चला गया, जिसने मस्जिद, चर्च एवं अन्य भवनों को आकार दिया| लेकिन और पश्चिम एवं उत्तर (यूरोप) में बर्फ गिरने का क्षेत्र था, जिसने बर्फ गिरने की मात्रा एवं प्रकृति के अनुसार चर्चों को और ढालुआ बना कर आकार दिया| गुम्बदाकार छत की अभियांत्रिकी में तनाव (Tension) बल कम और दवाब (Compression) का बल (Force) ही ज्यादा लगता है, और उसमें 'नमन आघूर्ण' (Bending Moment) बल नहीं लगता है, जिससे गर्भ गृह बड़ा हो जाता है| इंटों के समतल छत का गर्भ गृह बहुत बड़ा नहीं हो सकता, इसलिए ईंटों की छतों के साथ साथ गुम्बदाकार छतों की लम्बाई ही बढा दी जाती है, जैसा चैत्यों एवं दक्षिण के मंदिरों में होता रहा है|

वैसे छतों की गोलाई का एक प्रमुख कारण आकाशीय विकिरण तरंगों (Cosmic Radiation Waves) का एक मुख्य स्थल पर अपवर्तन (Refraction) द्वारा संकेन्द्रण (Concentration) रहा है| इसी तकनीक का प्रयोग कर पिरामिडों में वस्तुओं को संरक्षित किया जाता रहा है| छतों का क्षेत्रफल बढ़ा देने से विकिरण संकेन्द्रण की मात्रा भी बढ़ जाती है, चाहे उसकी सामग्री कुछ भी हो| छतों के परावलीय (Parabolic) होने या तीखा ढालुआ (Steepy) होने से यही प्रभाव उत्पन्न होता है| छतों के आकार बढ़ने से ज्यादा लोगों की उन सभाओं में हिस्सेदारी बढती है| ऐसे में सभा स्थल उर्जावान रहते हैं| इस पक्ष पर भी ध्यान देने की जरुरत है| यह सब एक पूजा स्थल यानि प्रार्थना स्थल यानि आध्यात्मिक स्थलों की विशेषताएं हैं|

अब हम मंदिरों के टूटने पर वापस आते है| हमको यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी परम्परागत धर्मों (पंथों/ सम्प्रदायों) की उत्पति एवं विकास सामन्ती काल में सामन्ती आवश्यकताओं के अनुरूप हुई है| यह काल इतिहास का मध्य काल है| हम इसके पहले के काल में परंपरागत धर्म (धर्म का वर्तमान मान्यता) का जो भी दावा कर लें, हमें तथाकथित धर्म के समर्थन में कोई भी प्रमाणिक प्राथमिक साक्ष्य उप्लब्ध नहीं करा सकता| मौखिक परम्परा का दावा और अन्य साक्ष्यों का समय काल में नाश हो जाने का दावा हर कोई कर सकता है, जिसे कुछ लोग 'थेथ्रोलाजी' भी मानते हैं| प्राचीन काल "बुद्धि के विकास" का काल था यानि बौद्धिक काल था| इसलिए मानवीय चेतनाओं या समझदारी को विकसित करने या शान्ति पाने के केंद्र को नष्ट करने या बदलने की जरुरत नहीं पड़ी| यह आवश्यकता सामन्ती काल में पड़ी, क्योंकि यह सामन्ती व्यवस्था के अनुरूप समकालिक शक्तियों की मांग थी| मध्य काल के पहले के जिन धार्मिक महापुरुषों का नाम आता है, वे वस्तुत: उन क्षेत्रों में सामाजिक सांस्कृतिक सुधारों एवं मानवीय मूल्यों के महान क्रान्तिकारी अग्रदूत रहे हैं| इसीलिए उनके सम्मानीय नामों को उन तथाकथित धर्म से जोड़ने या मिलाने का जुगत बाद में किया गया या उन्हीं के नाम पर कर किया गया|

जब ऐतिहासिक शक्तियों अर्थात तात्कालिक समकालीन शक्तियों के प्रभाव में समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक आस्थाओं का बदलना शुरू हुआ, तब बहुत से बदलाव हुए और बहुत कुछ में निरंतरता भी बनी रही| हम जानते हैं कि सामन्ती व्यवस्था का आगमन ही प्राचीन काल का समापन है| यह समकालिक शक्तियों का ऐतिहासिक परिणाम एवं प्रभाव है| सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अनिवार्यताओं ने बहुत सी धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन किए और परिणामस्वरूप लोगों ने अपनी आस्थाओं में भी परिवर्तन कर लिए| लोग वही रहे, निवास स्थान वही रहे, जीविका के साधन भी मूलत: वही रहे, सांस्कृतिक अवस्था भी कमोबेश वही रहा, समाज का पिछड़ापन भी स्थिर रहा, सामाजिक व्यवस्था भी वही रहा और सामाजिक सामुदायिक सम्पदा भी वही रहा, लेकिन उन्होंने अपनी धार्मिक आस्था बदल लिया| अब उन्ही लोगों को अपने आराधना स्थल, यानि पूजा स्थल यानि प्रार्थना स्थल की अतिरिक्त जरुरत थी|

वे लोग अपने हिस्से के पहले से मौजूद (जिस सम्प्रदाय को अब बदल दिया था) आराधना स्थल यानि पूजा स्थल के आन्तरिक संरचना और बाह्य स्वरूप को भी बदल दिया|

चूँकि वे उनके बाप दादाओं के अराधना स्थल थे,

उनकी स्मृतियाँ सम्मानित थी,

उसे इसीलिए उन स्मृतियो को संरक्षित कर दिया,

और बाकी संरचनाओ में अपनी आवश्यकतानुसार 

रूप परिवर्तन एवं संरचना परिवर्तन कर दिया|

यह ऐसा ही हुआ, जैसे किसी को अपने हिस्से में मिले चीजों या मकानों में यानि सम्पदा में आवश्यकता अनुसार बदलाव, परिवर्द्धन, संशोधन, परिवर्तन, परिमार्जन, विलोपन एवं रूपांतरण की जरुरत पड़ती है|

प्राचीन काल के बौद्धों एवं अन्य सम्प्रदाय के आराधना या पूजा या प्रार्थना स्थलों को समयानुसार मध्य काल में मंदिर आदि में बदल देना पड़ा| ऐसे ही मंदिरों को समाज के कुछ लोगों द्वारा अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक आस्था बदलने के कारण उनके हिस्से के आध्यात्मिक स्थलों को अपनी आवश्यकतानुसार बदल देना पडा| प्राचीन काल में अधिकतर लोग बौद्धिक संस्कृति के थे, जो सामन्ती शक्तियों के प्रभाव में हिन्दू संस्कृति में ढल गए| परिणामस्वरूप लगभग सभी बौद्धिक संस्कृति के आध्यात्मिक भवनों को उन्ही लोगों ने हिन्दू मंदिरों में बदल दिया, क्योंकि परम्परा से वे सब उन्ही के थे| बाद में इस्लाम की आस्था अपनाने वाले अनुयायियों ने भी अपनी आस्था बदलने के बाद अपने हिस्से के साथ भी ऐसा ही हुआ|

भारत में विदेशों से आने वाले इस्लाम के अनुयायियों की संख्या सम्पूर्ण आबादी का नगण्य हिस्सा है| सामन्ती काल में सामन्ती व्यवस्था के निचले सामंतो के आतंक एवं शोषण से पीड़ित लोगों को यह विकल्प मिल गया था, कि वे बड़े सामंतों की आस्था के अनुयायी बन कर उनके नजदीकी बन कर अपने शोषण को कम कर सकते थे या कमतर महसूस कर सकते थे| उन्होंने समाज में यह पाया कि छोटे सामंत बड़े सामंतो की कृपा दृष्टि पाने के लिए बड़े सामंतो से वैवाहिक सम्बन्ध भी बना रहे थे| इसलिए छोटे सामंतो के व्यवहार एवं प्रतिमान उनके लिए अनुकरणीय बन कर समाधान का प्रकाश बना| इन्होने आस्था बदल लिया, पर इनके संस्कार वही रहे, इनके निवास स्थान वही रहे, और उसने अपने पूर्व के आराधना स्थल वही रखे, जिसका सिर्फ बाह्य एवं आंतरिक स्वरुप बदल दिया| ये भी भारत के ही धरती पुत्र थे, इन भारत पुत्रों ने सामान्य तरीके से सब कुछ अपने नए आस्था के अनुरूप व्यवस्थित कर लिया| आज हमें यह बदलाव वर्तमान चश्मों में अटपटा सा लग रहा है| इसके लिए हमें “इतिहास का गुरुत्वीय ताल” (Gravitational Lensing of History) की अवधारणा समझनी होगी|

अब हमें यह निर्णय करना है कि भारत को आज यदि विश्व की शक्ति बननी है, तो इन घटनाओं का इसमें योगदान क्या हो सकता है और यह कैसे काम करेगा, इसे भी समझना है?

निरंजन सिन्हा

www.niranjansinha.com

रविवार, 8 मई 2022

समकालिक शक्तियों को समझें (Understand the Contemporary Forces)

क्या आप अपनी मंजिल पाने के लिए अपनी नौका को हवाओं के अनुकूल चलाना चाहेंगे या आप हवाओं का रुख ही बदल देना चाहेंगे? कौन सा उत्तर सही होगा और क्यों? यदि मैं कहूं कि दोनों स्थितियां ही सही है, बशर्ते संदर्भ यानि परिदृश्य क्या है? मतलब स्थितियों यानि परिस्थितियों के बदलने के अनुसार एक सही और दूसरा ग़लत हो जाता है। दरअसल यह निष्कर्ष भी अनुचित होगा। कोई निर्णय गलत और कोई निर्णय ही नहीं होगा, अपितु कोई एक उत्तर ज्यादा उपयुक्त होगा, और दूसरा कम उपयुक्त होगा।

समकालिक शक्तियों (Synchronous Forces) यानि समकालीन शक्तियों (Contemporary Forces) को इतिहास में ऐतिहासिक शक्तियां (Historical Forces) कहा जाता है। मतलब कि समकालिक शक्तियां ही समय बीतने के साथ 'ऐतिहासिक शक्तियां' कहलाती है| 'समकालिक शक्तियों' को बदलना आसान नहीं होता। या यों कहें कि कोई समकालीन शक्तियों को बदलने का जो भी दम भर लें, लेकिन समकालिक यानि समकालीन शक्तियों को कोई व्यक्ति एक झटके से नहीं बदल सकता। हां, किसी व्यक्ति के शुरुआती नवाचारी बदलाव और परिस्थितियों के समेकित स्वरुप के कारण भी समकालीन शक्तियां बदलती है, परन्तु मैं समकालीन शक्तियों के सामने किसी व्यक्ति को ज्यादा महत्व देने के पक्ष मे नहीं हूं। इस पर आप मतभिन्नता रख सकते हैं। मतभिन्नता भी जरूरी है, ताकि नवाचारी विचारों का संश्लेषण और विकास हो सके। मतभिन्नता ही नए विचारों को जन्म देता है| इसीलिए असहमति यानि मतभिन्नता का मैं भी समर्थक हूं।

यदि मैं अपने को वर्तमान आदमी यानि 'होमो सेपियंस' तक ही सीमित रखूं, तो हमें ऐतिहासिक शक्तियों का विश्लेषण भी यही तक सीमित रखना चाहिए। सभी कालों और सभी क्षेत्रों की ऐतिहासिक शक्तियों के विश्लेषण में मुझे एक बात स्पष्ट हुआ कि सभी शक्तियों को उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange) और उपभोग (Consumption) को प्रभावित करने वाले शक्तियों में शामिल किया जा सकता है और इसे उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर आसानी से, वैज्ञानिक ढंग से और तार्किक आधार पर समझा जा सकता है। इन शक्तियों की प्रवृतियों (Tendencies), प्रतिरुपों (Patterns), संरचनाओं (Structures) आदि का भी अध्ययन किया जाना चाहिए, जो इन शक्तियों को प्रभावित, संचालित एवं नियंत्रित करता है| इतिहास में आग, पहिया, धातु, बाष्प ईंजन, विद्युत, कम्प्यूटर, राकेट, डाटा, डिजीटल मोड, एवं मानव निर्मित कई संस्थाओं यथा परिवार, समाज, मुद्रा, राष्ट्र, कंपनी एवं पूंजी के प्रयोग ने उत्पादन, वितरण, विनिमय, और उपभोग के प्रवृत्ति और प्रतिरुप को बदल दिया। मध्य काल में विनिमय और वितरण की शक्तियों ने सामंतवाद (Feudalism) लाया, जिससे मध्य काल का उदय हुआ। पूंजी ने पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के रूप में आर्थिक शक्तियों को प्रभावित किया। मतलब यह है कि आर्थिक शक्तियों में उत्पादन को, वितरण को, विनिमय को, और उपभोग को प्रभावित, संचालित एवं नियंत्रित करने का क्षमता है| इसीलिए इनमे से कोई भी शक्ति स्वतंत्र रूप में रूपांतरण (Transformation) के स्तर को प्रभावित एवं संचालित कर सकता है, और फिर उपरोक्त चारों के संयुक्त एवं संश्लेषित प्रभाव से काम करने लगता है| इस तरह रूपांतरण की प्रक्रिया को जो शक्ति प्रारंभ करे, परन्तु आगे सभी के द्वारा संचालित एवं नियंत्रित होता रहता है|

जब हम इन ऐतिहासिक शक्तियों यानि समकालिक शक्तियों को पहचानते हैं, और उसके वास्तविक स्वभाव को समझते हैं, तो उसे नियत्रित, प्रभावित एवं संचालित कर पाना आसान होता है| तब हम इन शक्तियों को अपने उद्देश्यों को पाने के लिए उसके महत्तम हितों के अनुरूप ढाल सकते हैं, दक्षतापूर्वक उपयोग कर सकते हैं| आज की समकालीन शक्तियों में “पूंजी”, “डिजीटल मोड”, “डाटावाद”, और “विज्ञान” की भूमिका को समझना है। इन शक्तियों के स्वरुप (Form), प्रतिरुप (Pattern), संरचना (Structure) को समझने से हम इसे अपने पक्ष में सफलतापूर्वक उपयोग कर सकते हैं। विरोधियों के विचारों को समाप्त करने के कई तरीके हैं, कोई सिर्फ “दिखावा” दिखाना चाहता हैं, कोई वास्तविक सफलता पाना चाहता है।

'दिखावा' दिखाने को ही भारत में “तमाशा करना” कहा जाता है,

जिसमें अधिकांश लगे हुए हैं।

“दिखावा दिखाना पसंद” यानि “तमाशा” का क्या पहचान है?

जब किसी कार्यक्रम में खूब तालियाँ बजे,

स्पष्ट समझ लीजिए कि वह कार्यक्रम एक बेहतरीन तमाशा है|

 थोडा या ज्यादा कडवा लग रहा होगा, पर सत्य भी यही है| आप भी मानते होंगे कि गंभीर चिंतन में, नवाचारी (Innovative) दिशा के सोच में, और क्रान्तिकारी रणनीति (Strategic) के विमर्श में सभासदों में सन्नाटा छा जाएगा| उपस्थित लोग तालियाँ नहीं बजायेंगे, अपितु वे सब गंभीर हो जायेंगे| आपने भी देखा होगा कि तालियों वाली बैठकों एवं चिंतन शिविरों के चिंतकों का कोई विरोध द्वारा नहीं किया जाता है| ऐसा इसलिए कि इनके विचार यथास्थितिवादियों के पक्ष में ही होते हैं, जिसे सब कोई जानता होता है, यानि कोई मौलिक बदलाव नहीं होता है| ये तथाकथित क्रान्तिकारी वक्ता अपने तथाकथित विरोधियों के पक्ष में ही काम करते होते हैं| यानि अपने तथाकथित विरोधियों के लिए ही काम करते होते हैं या भटके हुए क्रान्तिकारी होते हैं, जो अपने समय के साथ साथ श्रोताओं का भी समय गुजार रहे होते हैं| कोई भी फासिस्ट शक्तियां ऐसे क्रान्तिकारी बदलाव को, जो उसके मौलिकता के विरुद्ध होता है, उसके नेतृत्व को ही नष्ट कर देता है|

ये तथाकथित क्रान्तिकारी विचारक

अपने लोगों की “जवानियाँ”, ‘शक्तियां’, ‘संसाधन’, ‘ऊर्जा’ ' समय' एवं ‘धन’

                                     को क्रान्ति के रचनात्मक एवं सकारात्मक दिशा में नहीं लगाकर, 

                                                     उसे मोड़ कर विधवा विलाप में लगा देता है| 

इसके लिए इन क्रांतिकारियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष “प्रोत्साहन लाभ” भी मिलता है| हालाँकि अक्सर ऐसे लाभ के भी बिना ये “तालियाँ पसंद” चिन्तक एवं रणनीतिकार अपने कार्यों में लगे हुए रहते हैं, जिनसे उनके विरोधियों का कार्य सुगमतापूर्वक होता रहता है|

भारत के राष्ट्र निर्माण एवं सशक्तिकरण में ये सभी तत्व तथाकथित रूप से बखूबी लगे हुए हैं| भारत के राष्ट्र निर्माण एवं सशक्तिकरण का पहला दुश्मन तो "यथास्थितिवादी" हैं, और दूसरा इन यथास्थितिवादियों को लाभ पहुंचाने वाले तथाकथित क्रान्तिकारी बदलाव लाने वाले चिन्तक एवं विचारक हैं| यथास्थितिवादियों में सबसे ज्यादा घातक (Fatal) 'सांस्कृतिक यथास्थितिवादी' ही है, क्योंकि संस्कृति ही किसी समाज का साफ्टवेअर है, जो अदृश्य रहकर पुरे समाज के सोच, मूल्य, प्रतिमान एवं मानसिकता को प्रभावित, संचालित एवं नियंत्रित करता रहता है| आपने ध्यान दिया होगा कि सारे परिवर्तनकारी चिन्तक बदलाव के 'सांस्कृतिक पक्ष' को ही छोड़ देते हैं, जो सबसे महत्वपूर्ण हैं| वे सारे सिर्फ व्यवस्था यानि तंत्र के हार्डवेयर पर फोकस किये रहेंगे| कुछ लोग इस स्थिति को समझ कर भी इसे छूना नहीं चाहते यानि इसे समझाना नहीं चाहते, और कुछ लोग इस भिन्नता को समझ ही नहीं पाते| भारत के लिए यही दुखदायी है|

भारत एक साधारण एवं सरल देश नहीं है| साधारण (Ordinary) का अर्थ विकास के निम्न स्तर से है, जबकि सरल (Simple) का अर्थ बनावट में पेचादिगी (Complexities) का अभाव है| भारत कई राष्ट्रों से मिलकर 'बनता हुआ एक राष्ट्र' (making a Nation) है| इसकी संस्कृति पुरातन है, पर कौन सी संस्कृति पुरातन है, जिसका पुरातात्विक एवं प्रमाणिक साक्ष्य दोनों उपलब्ध है? यह सवाल बड़ा महत्वपूर्ण है| यह दरअसल एक देश नहीं, एक महादेश है, जो कई मायने में एक यूरोप की तरह हैं| इतना बड़ा देश, इतने विविध संसाधनों से समर्थित, मानवीय संसाधन में विश्व का सबसे अग्रणी, फिर कौन इसे विश्व का “नंबर एक” बनने से रोके हुए है| यही तथाकथित समझदार एवं क्रान्तिकारी चिन्तक, जिन्हें “तालिया पसंद” हैं|

मेरा विषय है कि समकालिक शक्तियों को अपने अनुरूप कैसे करे? यानि हम 'विधवा विलाप' ही करते रहें, या अपने हिस्से का कोई सकारात्मक एवं सृजनात्मक कार्य भी करें? क्या कोई नवाचारी उपाय है, जिस ओर हमें अपनी नजर घुमानी है? मैंने ऊपर भी लिखा है कि समकालिक शक्तियों को पहचाना जाय| उसके प्रभाव एवं स्थिति का विस्तारित वर्णन भी किया है| आज की समकालीन शक्तियों में पूंजी, डिजीटल मोड, डाटावाद, सोशल मीडिया, और विज्ञान की भूमिका प्रमुख है| इसके अलावा वैश्विक जनमत या वैश्विक जगत का प्रभाव भी एक महत्वपूर्ण शक्ति है, जिससे कोई इन्कार नहीं कर सकता| आज विश्व एक छोटा सा गाँव हो गया और कोई एक देश उसका टोला, भारत भी उसका ही कोई एक टोला हो गया| यदि कोई आगे नहीं बढा, तो तय मानिए वह पीछे छुट ही जाएगा और बर्बाद भी होगा|

हमें पूंजी और कंपनी की प्रक्रिया एवं प्रभाव समझना है और अपने युवाओं को बताना है| धन (Wealth/ Assets) कब पूंजी (Capital) बनता है और धन को पूंजी बनाने के क्या तरीके हैं? हमें डिजीटल  क्रान्ति की समझ एवं नेटीजन (Netizen - वह Citizen जो internet पर सक्रिय एवं रचनात्मक हो) की भूमिका को जानना, समझना एवं अपनाना है। इसके माध्यम से कोई भी अपने प्रभाव क्षेत्र का दायरा आसानी से बढ़ाता है| आज डाटावाद सफलता का आधार है, कैसे? यह क्या है? इसकी प्रक्रिया क्या है? डाटावाद में सूचनाओं का संग्रहण, विश्लेषण, पुनर्संरचना, पुनर्विन्यास, पुनर्व्यवस्थापन कर अचूक नीतियों का निर्माण करता है। यह अर्थव्यवस्था का पांचवां प्रक्षेत्र (Quinary Sector) कहलाता है।  विज्ञान तो सारी समझ का आधार है, इसके बिना कोई चीज समझना एवं मान लेना, अपनी आँखें बंद कर किसी चीज को सही मान लेना होगा| विज्ञान के आधार पर हम किसी भी बात एवं विचार से बकवास को अलग करते हैं। आस्था (Devotion) से आप सही नहीं हो जाते| आप अपनी नई एवं नवाचारी बातें विश्व जनमत के सामने रखें| ये सब बातें समझना हमें समकालिक शक्तियों के दक्षतापूर्वक उपयोग में सक्षम बनाता है। इस पंक्ति पर ज़रा ठहर कर विचार किया जाय, यही कारगर और उचित भी है| 

इन सभी से आपकी हमारी सफलता  सुनिश्चित है| भारत फिर से विश्व गुरु बनेगा, मैं आपको आश्वस्त करता हूँ|

निरंजन सिन्हा

www.niranjansinha.com

भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक सम...