हमारी चेतनाओं का इस कदर
ब्राह्मणीकरण किया जा चुका है कि हमें पता ही नहीं है कि हमारी चेतनाओं का भी ब्राह्मणीकरण
हो चुका है। सबसे बड़ी
बात यह है कि हम ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणीकरण को ही नहीं समझते, और इस सम्बन्ध में
हर कुछ एक जाति विशेष से जोड़ कर देखने लगते हैं|
हम चेतना के स्तर पर ब्राह्मणवाद का सख्त विरोध
करते दिखते हैं और ऐसा ही दिखाना भी चाहते हैं, लेकिन
अचेतन स्तर पर हम ब्राह्मणवाद से ही संचालित,
नियमित, प्रभावित
और नियंत्रित होते हैं। अक्सर हम
ब्राह्मणवाद का उग्र विरोधी यानि क्रांतिकारी बदलाव के लिए ब्राह्मणवाद को मिटाते
हुए संघर्षरत दिखते हैं, यानि हम अपने को उग्र विरोधी मानते हैं। ऐसा हम अपने चेतना
के स्तर पर समझते रहते हैं, लेकिन हम अपने विचार, भावनाओं,
व्यवहारों और
कर्मों से उसी ब्राह्मणवाद को क्रांतिकारी गति से आगे बढाते होते हैं,
और मजबूत करते
होते हैं, और ज्यादा सशक्त करते होते हैं। यह बात दो विपरीत दिशाओं की हो जाती है| आपको स्पष्ट रूप
में लग सकता है कि मैने कुछ अटपटी, विचित्र और शायद बकवास लिख दिया है,
लेकिन नहीं। मैं सब कुछ अपने पूर्ण चेतना
के स्तर पर पूरी वैचारिकता से यह लिख रहा हूँ। कहने का अर्थ है कि इसे आपको पूरे
मनोयोग से समझना चाहिए।
हम ब्राह्मणवाद का विरोध करते दिखते हैं,
लेकिन अपने विचारों, भावनाओं, व्यवहारों एवं कर्मों से उसी का जबरदस्त समर्थन करते
होते हैं| हम जिस भी चीज़ को अपने ध्यान में बार बार लाते हैं या देखते सोचते रहते हैं, वह बिना किसी तर्क या कारण के ही कब हमारे चेतना में समा जाता है, पता ही नहीं चलता है। तब वह हमारी चेतना को संचालित करने लगता है। हम अपने हरेक
विचार, भावना, व्यवहार
और कर्म को ब्राह्मणवाद के ही संदर्भ (Reference) में लेते हैं और इसीलिए यही
ब्राह्मणवाद ही हमारे सभी विचारों, भावनाओं, व्यवहारों एवं कर्मों का संदर्भ
बिन्दु यानि केन्द्र बिन्दु भी बन जाता है। तब हम इस
ब्राह्मणवाद का ही परिक्रमा करते हुए और परिभ्रमण करते ब्राह्मणवाद को ही अपना
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बना लेते हैं। तब इसी ब्रह्माण्ड का हम चक्कर लगाने में,
इसी संदर्भ लकीर से उपर उठने की कवायद
में सारी उम्र खपा देने के बाद भी यह समझ में नहीं आता है कि हमें अपने जीवन में और
भी बहुत कुछ करना था, या है।
तो सवाल यह है कि यह ब्राह्मणवाद
क्या है? यह ब्राह्मणवाद एक ख़ास विचारधारा
की मानसिकता है, एक ख़ास पैटर्न का मानसिक बुनावट है, एक माइंड सेट है, और कोई
जरुरी नहीं है कि यह ‘ब्राह्मणों’ से सम्बन्धित हो| इस ब्राह्मणवाद के कुछ ख़ास लक्षणों में ‘अपनी जाति की सत्यता और गौरव गाथा में विश्वास’,
‘ईश्वर’ यानि प्राकृतिक शक्तियों के मानवीकरण में
विश्वास’, ‘इस शरीर के समाप्त हो जाने
बाद नए शरीर में पुन: जन्म लेना’, ‘इस
जन्म में किए गये कर्मों का परिणाम अगले शरीर में प्राप्त करना’, और ‘आपके आत्म (Self) को किसी अन्य स्वरुप में यथा आत्मा (Soul)
के रूप में निरंतरता प्राप्त करना’ आदि प्रमुख है| यदि कोई भी इनमे से
कोई भी एक या सभी लक्षणों की सत्यता को स्वीकार करता है, तो वह ब्राह्मणवादी है| इसको
सत्य मानने वाला हर व्यक्ति अपनी अज्ञानता के दल दल में फँसा हुआ है| किसी की भी
अज्ञानता के लिए आज कौन दोषी हो सकता है, यह अलग विषय है|
ब्राह्मणवाद का विरोध ब्राह्मणी कहे जाने वाले ग्रंथों,
संस्कारों,
त्योहारों,
परम्पराओं,
आदि विरोध का करना माना जाता है। ऐसा विरोध करने वाले को
सांस्कृतिक उद्विकास की सतही समझ भी नहीं होती,
गहन अध्ययन एवं विश्लेषण की बात तो छोड़
ही दीजिए। सांस्कृतिक उद्विकास की समझ यानि
ऐतिहासिक उद्विकास की सफर की वैज्ञानिक समझ नहीं होती,
उनके पास सिर्फ रटे रटाए कुछ उदाहरण का
संकलन होता है। ध्यान रहे कि किसी के अस्तित्व को
नकारना और उसका विरोध करना अलग अलग स्थिति है| नकारने में तटस्थता हो सकती है,
लेकिन विरोध करना एक सतर्क, सजग एवं सक्रिय प्रतिक्रया है, जो किसी ख़ास क्रिया के
समाप्ति के लिए क्रियान्वित होता है|
लोग सारी बुराइयों के करामातो की जड़ ब्राह्मणवाद को समझते
हैं, लेकिन यह समझने
की कभी भी कोशिश नहीं की जाती कि इस ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का उत्पत्ति एवं
उद्विकास कैसे हुआ, क्यों हुआ?
इसकी उत्पत्ति एवं
विकास में ऐतिहासिक प्रक्रियायों को वैज्ञानिक तरीके से समझना होगा| इस “इस
ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का उत्पत्ति एवं उद्विकास कैसे हुआ,
क्यों हुआ” को समझने
के लिए आपको इतिहास को उद्विकासवाद, मार्क्सवाद
और मनोविश्लेषणवाद, सापेक्षवाद और संरचनावाद
के सन्दर्भ में लाना अनिवार्य है,
अन्यथा आप इसे समझने के नाम पर मात्र
फिसल ही रहे हैं। ब्राह्मणवाद का प्रभाव इस कदर छाया हुआ है कि यदि आप तथाकथित
ब्राह्मणवाद का तथाकथित विरोध नहीं कर रहे हैं, तो आप बौद्धिक नहीं है, प्रगतिशील नहीं
है, समझदार नहीं है, भले ही इसका अर्थ
बेमतलब का है। ब्राह्मणवाद का तथाकथित विरोध करते
करते हुए विरोध कर्ता के मस्तिष्क में ब्राह्मणवाद ऐसे पैठ जाता है कि वह इसके
विरोध में दूसरे नाम का ब्राह्मणवाद का कट्टर समर्थक हो जाता है। दरअसल इस संसार में ब्राह्मणवाद
के कई स्वरुप, प्रकार एवं प्रतिरूप प्रचलित है, सिर्फ आपको ठहर कर सोचना है| ऐसे
लोग ब्राह्मणवाद को ही नहीं समझते होते हैं| अक्सर एवं साधारणतया ब्राह्मणवाद का
विरोध ब्राह्मण नामक व्यक्ति से समझता है और उसे ब्राह्मणवाद का सतही और गूढ़ अर्थ
का समझ नहीं होता है।
तथाकथित ब्राह्मणवाद का तथाकथित विरोध करना ही आधुनिकता, प्रगतिशीलता, वैज्ञानिकता
और बौद्धिकता का पर्याय बन चुका है, जबकि ऐसा व्यक्ति स्वयं पतनोन्मुख
दलदली में धंसते हुए होते हैं। लेकिन मैं उनकी
बात नहीं कर रहा हूँ, जो बहुसंख्यकों की भावनाओं को उभार कर
और उससे खेल कर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक रहे होते हैं, यानि
अपनी राजनीतिक सोपान में इसका सदुपयोग कर रहे होते हैं। मैं यहाँ बहुसंख्यक
तथाकथित नेताओं की बात कर रहा हूँ| इस तरह सामान्य
बहुसंख्यकों की सम्पूर्ण चेतना अपने सभी स्वरुपों में ब्राह्मणवाद के भंवर में
चक्कर लगाता हुआ अन्तत: डूब जाता है,
अर्थात इनकी सम्पूर्ण चेतना ब्राह्मणवाद को समर्पित हो जाता है। समर्पण सिर्फ सकारात्मक समर्थन का ही नहीं होता है, बल्कि नकारात्मक समर्थन का भी होता है। इसी नकारात्मक समर्थन को ही विरोध
करना कहा और समझा जाता है। कहने का स्पष्ट तात्पर्य यह है कि समर्थन सकारात्मक
हो या नकारात्मक, यह एक मात्रा
और स्तर का संसाधन, ऊर्जा,
समय, धन, उत्साह,
जवानी और वैचारिकी समर्पित करना होता
है, लेकिन परिणाम का स्वरूप इसके प्रतिरूप के अनुसार बदल
जाता है।
तथाकथित ब्राह्मणवाद का तथाकथित विरोध करना अधिकांश बहुसंख्यकों की संस्कृति बन गयी है और इसीलिए ये इस ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक परिधि से बाहर सोच भी
नहीं सकते। ऐसे लोग उन्ही के अप्रत्यक्ष इशारों में उन्ही के ग्रंथों
पर अनुसन्धान करते रहते हैं, लेकिन उन्हें अपने और समाज के विकास एवं समृद्धि के
लिए अन्य ग्रंथो के अवलोकन के लिए समय ही नहीं है| ऐसे नेता किसका कल्याण करना
चाहते हैं, शायद उन्हें पता हो| इन बहुसंख्यकों के लिए अज्ञानता,
योग्यता का अभाव और कौशल की कमी कोई समस्या नहीं है। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों के लिए बाजारवाद
और उसकी ऐतिहासिक शक्तियों की एवं उनकी क्रियाविधियों की कोई समझ नहीं है।
ये लोग सरकारी तंत्रों के संदर्भ में सही साबित हो सकते हैं, लेकिन उन्हें बाजार की, यानि आर्थिक शक्तियों की समझ
नहीं है। आज अदानी और अम्बानी के बच्चों को सरकारी
तंत्र में घुसने की बेचैनी नहीं है,
बल्कि बाजार की शक्तियों के सहारे उन तंत्रों पर अपनी नियंत्रण की
बेचैनी है। यहाँ अदानी और अम्बानी कोई
व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है, अपितु यह जातिवाचक संज्ञा है,
जो इसके विशेषतवा को स्पष्ट करता है, इसपर
ध्यान दिया जाए।
जाति, जो ब्राह्मणवाद का निर्मात्री इकाईयाँ (Building Blocks) है, का
गौरवान्वित करने वाले ऐतिहासिक गाथा की रचना किया जाना अधिकांश बहुसंख्यकों के लिए
मनोबल बढ़ाने वाला लगता है, लेकिन
यह गाथा किसी दूसरे जाति के सापेक्ष गौरवमयी हो सकता है, लेकिन
जाति व्यवस्था के सर्वोच्च शिखर के सापेक्ष गौरवमयी नहीं हो सकता। यह गौरवपूर्ण गाथा निश्चितया ब्राह्मणवाद
के किले को, जिसकी
यह निर्मात्री इकाईयाँ है, यानि उस व्यवस्था तंत्र को ही
गौरवपूर्ण बनाता है, सशक्त करता है। आप गौरवपूर्ण
ऐतिहासिक गाथा लिख कर अपने गौरान्वित कर रहे हैं, या अपने को
किसी के सापेक्ष क्षुद्र साबित कर रहे हैं, यह आपको खुद समझना है। इसीलिए आपके
हितों के विरोधी भी आपके इस गौरवपूर्ण ऐतिहासिक गाथा के रचना में, प्रकाशन में और प्रसारण में भी जी जान से सहयोग देने में लगे हुए हैं। आप
भी उनकी तथाकथित प्रगतिशीलता और तथाकथित मानवता के प्रशसंक हुए जा रहे हैं।
थोड़ा भी ठहरिए, सिर्फ सतहों पर मत दौडते रहिए, यह सतहों पर फिसलना मात्र होता है। थोड़ा गहराइयों में उतरिए, आपको अलग दुनिया दिखाई देगी, जिसे आपने अभी तक अपनी कल्पनाओं में नहीं लाया है। आप अभी तक ‘उजला हंस’ ही देखे हैं, आपको “काला हंस” ( The Black Swan - Book by Nassim Nicholas Taleb) भी दिखेगा।
(आप मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)
चार्य प् आचार्य प्रवर निरंजन
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