रविवार, 31 दिसंबर 2023

"विरोध करने" का मनोविज्ञान

(The Psychology of 'to Oppose')

आज हमलोग भारत के तथाकथित कई बौद्धिक सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलनों के उद्देश्यों के विपरीत उनको हो रही प्राप्ति का विश्लेषण गहराई से करेंगे और समझेंगे| ये आन्दोलनकर्ता जिस बात या अवधारणा का जबरदस्त विरोध करते दिखते हैं, कुछ दशकों से वही अवधारणा और ज्यादा मजबूत होकर उभरी है| हमलोग किसी का विरोध क्यों करते हैं?  और विरोध करने के स्पष्ट उद्देश्य और स्पष्ट मंशा के होते हुए भी विरोध के तरीकों की भिन्नता एवं विविधता से अलग अलग अर्थ कैसे निकलता हैक्या कभी कभी या अक्सर विरोध करने के कई तरीकों से उसी विरोधी लक्ष्य का समर्थन होता हैंजिसका वे विरोध करने चले हैभारत में कई सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलनया अधिकतर आन्दोलन भी इसी विरोध के निहितार्थ को साबित कर रहे हैं, कि वे जिसका विरोध करते दिखते हैंवस्तुत: वे उसका ही जबरदस्त ढंग से समर्थन कर रहे हैं? यह बात पूर्णतया सही है और इसीलिए यह बात विचित्र भी लगती हैलेकिन है पूर्ण सत्य। 

जानबूझकर तीख़ा विरोध दर्ज कर अपने काम को आगे ले जाने का एक उदाहरण भारतीय फिल्मों से लिया जा सकता है। जिन किसी फिल्म को यदि आम जन में दिलचस्प बनाकर उनमें उत्सुकता पैदा कर देने के लिए कई तरकीब सोची जाती है और उसमें सबसे ज्यादा कारगर तरीका  कोई "विरोध जताना" होता है। विरोध करने की मात्रा बढ़ाने और उसे सर्वोच्च स्तर पर ले जाने के लिए विरोध को माननीय न्यायालय मे भी ले जाया जाता है और उसके बाद मीडिया का सहारा लिया जाता है। इसमें फिल्म के निर्देशक या निर्माता के साथ मिलकर काफी विचार विमर्श कर निर्देशक या निर्माता अपने विरुद्ध उसी फिल्म के हीरो या हीरोईन से यौन उत्तेजना संबंधित कोई संवेदनशील आरोप किसी भी स्थिति में लगवा दिया जाता है और इस आधार पर विरोध दर्ज किया जाता है। इस तरह यह सामान्य दर्शकों के लिए उत्सुकता की वजह बन जाती है| फिर इन दोनों यानि पक्ष एवं विपक्ष मिलकर मीडिया के समर्थन से उस फिल्म को हिट करा दिया जाता है। यह विरोध दर्ज कर फिल्म प्रचार का अद्भुत प्रचार का तरीका है। इसमें सामान्य जनों के मनोवैज्ञानिक उपयोग के लिए सिग्मंड फ्रायड के 'मनोविश्लेषणात्मक अवधारणा' (Psycho Analytical Concept) और कार्ल जुंग के 'गहरे मनोविज्ञान' (The Depth Psychology) का उपयोग किया जाता है। 

ऐसे ही तरीके कुछ उच्च स्तरीय बौद्धिक लोग अपने सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजनों को क्रियान्वित करने में प्रयोग और उपयोग करते हैं। ऐसे उच्च स्तरीय बौद्धिक लोग अपने विरोधियों से ही जबरदस्त विरोध करवा कर अपने एजेंडे को उन्हीं से क्रियान्वित कराते हैं और सफल बनाते हैं। यह अद्भुत और कारगर तरीका हैजिसे साधारण आंखों से नहीं देखा जा सकता। इसे सही रूप में समझने के लिए मानसिक दृष्टि अवश्य चाहिएजो सामान्य जन में तो नहीं ही होती है और यह उनके नेतृत्व में भी नहीं ही होती है। यदि यह सब समझ किसी नेतृत्व में है भीतो वह नेतृत्व भी बिक गया हुआ होता है, जिसे बिके हुए लोग कहते हैं।  ये बिके हुए नेता अपने मुद्दे के ही विरोधियों के हाथों में बिके हुए होते हैं और ऐसे नेता अपने अनुयायियों को भेड़ बकरी समझकर नेतृत्व देता रहता है। समाज के पके हुए और थके हुए लोगों से इसे समझने की कोई उम्मीद भी नहीं होती है। पके हुए लोगों की श्रेणी में वैसे ही लोग शामिल हैंजिन्हें लगता है कि उनकी जानकारी समुचित और पर्याप्त है और उन्हें नया एवं अलग कुछ भी जानने की जरूरत ही नहीं है। थके हुए लोगों की श्रेणी में वैसे लोग शामिल हैंजिन्हें लगता है कि ये सामान्य जन इतने जाहिल है कि इन्हें बदला ही नहीं जा सकताऔर ऐसे लोग अब अपने को थके हुए पाते हैं। इन लोगों को न तो इतिहास और संस्कृति की समझ होती है और न ही मनोविज्ञान की समझ होती है। अतः ऐसे नादान लोग अपनी अज्ञानता को सामान्य जन की अज्ञानता समझकर छुपाने का प्रयास करते हैं। अब उम्मीद तो मात्र "विचारों के युवाओं" से ही हैचाहे उनकी शारीरिक उम्र कुछ भी हो।

जिसे हम गलत समझते हैंया अनुचित मानते हैंया अनावश्यक पाते हैउसका विरोध करना हमारी मानसिकता होती है। अर्थात यह मनोविज्ञान का विषय है। चूंकि विरोध करना मन का विज्ञान हुआऔर इसीलिए यह व्यक्ति के विचारोंभावनाओं और व्यवहारों का विज्ञान हो गया। मानव अपने मन से संचालित होता है और मन उसके पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा होता है। अर्थात मानव मन अपने पर्यावरण और परिस्थिति को जैसा देखता और समझता हैउसी से उसके मन की भावनाएंविचार और व्यवहार निर्धारितनियंत्रितसंचालित और प्रभावित होता है। इसमें उनके ज्ञान के स्तर की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और इसीलिए इसमें उसके आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक मूल्यांकन की क्षमता और स्तर की बात शामिल हो जाती है। इसके लिए उसे शारीरिक आंखों सहित सभी ज्ञानेन्द्रियो के अतिरिक्त मानसिक दृष्टि की जरूरत होती है। सामान्य जनों के पास शारीरिक आंखें तो होती हैलेकिन मानसिक दृष्टि एक कौशल और योग्यता होता हैजिसे विकसित करना होता है और हर कोई इसे अपेक्षित मात्रा तक विकसित नहीं कर पाता है। इसीलिए विरोध किए जाने के निहितार्थ को समझने के बावजूद भी उससे प्राप्त प्रतिफल के विपरीत हो जाने को वे समझ नहीं पाते हैं।

इसे भी एक उदाहरण से समझते हैं। भारतीयों का एक प्रमुख त्योहार है - होलीप्रकृति परिवर्तन यानि नए फसलों के घर आगमन के अवसर पर रंगों का पर्व या आयोजन। इसके शुरुआती दिन में घर- मुहल्ले के कूड़े कचडों को एकत्रित कर और अतिरिक्त ईंधन देकर जला दिया जाता है, जिसे “होली का दहन” यानि “होलिका दहन” कहा जाता है। तब अगले दिन सूखे गीले रंगों के साथ उमंगित हुआ जाता है। इसके साथ ही भारतीय पारंपरिक नव वर्ष की शुरुआत होती है। इसे आजकल कुछ तथाकथित बौद्धिक लोग इसे मिथकीय कहानियों को जोड़ कर इसे ऐतिहासिक मान लेते हैं और तब अपनी बौद्धिकता प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं। ऐसे तथाकथित बौद्धिक लोग इससे जुड़े ईश्वरीय नामों की ऐतिहासिकता से इंकार करते हैं और इन ईश्वरीय नामों के ऐतिहासिक अस्तित्व का सख्त विरोध करते हैं, फिर भी वे उनकी ऐतिहासिकता को ही प्रमाणित करते रहते हैं। मैंने एक परिचित को रंगों के त्योहार - होली की शुभकामनाएं भेजी। तुरंत एक तथाकथित बौद्धिक उत्तर आया - 'मैं (वह परिचित) एक महिला के दहन किए जाने के अवसर पर आपकी (लेखक निरंजन सिन्हा की) शुभकामनाएं स्वीकार नहीं कर सकता' मैंने उन्हें तुरंत उत्तर भेजा - "यदि होलिका एक ऐतिहासिक व्यक्ति थीतो उसे बचाने वाला नरसिंह अवतार अवश्य ही एक ऐतिहासिक व्यक्ति रहा होगा और वह भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। तब आप ईश्वरीय नामों के अस्तित्व भगवान श्रीराम की ऐतिहासिकता से कैसे इंकार करते हैं?" उन्होंने मोबाइल फोन का कनेक्शन ही काट दिया। यह भी विरोध करने की तथाकथित बौद्धिकता का नमूना हैजिन्हें इसका पता ही नहीं है कि वे किसका विरोध कर रहे हैं और किसका समर्थन कर रहे हैं| यह भी विरोध करने के मनोविज्ञान को स्पष्ट करता है।

आजकल जाति व्यवस्था के विरोध का प्रचलन है, या फैशन हो गया है, और उसके विरोध के लिए ही जाति आधारित संगठन बनाया जाता है। ये तथाकथित बौद्धिक जाति आधारित "सामाजिक पूंजी" (Social Capital) का निर्माण कर रहे हैं और अपने को जाति व्यवस्था विरोधी भी बता रहे हैं। ये अपने जाति की परम्परा को गौरवान्वित करने के अथक प्रयास में लगे हुए हैं और अपने को जाति व्यवस्था के विरोधी भी बताते हैं। वास्तव में जाति आधारित सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था अवैज्ञानिक है, अलोकतांत्रिक है, मानवता विरोधी है और अनुचित भी है, जिसे समाप्त किया ही जाना चाहिए। लेकिन  इन संगठनों और गतिविधियों के परिणाम जो आ रहे हैं, वह इनके उद्देश्य के विपरीत है, यानि आज जाति आधारित सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था ही और मजबूत होती जा रही है। आज जाति व्यवस्था के विध्वंस के जो उदाहरण मिल रहें हैं, वे बाजार की शक्तियो (Market Forces) के फलस्वरूप है। इसी तरह ब्राह्मणवाद के विरोध करते दिखने वाले ही सख्त  ब्राह्मणवादी हो गए हैं, क्योंकि इन्हे ब्राह्मणवाद के मूलभूत तत्वो यथा जाति आधारित ऊंच नीच में विश्वास, ईश्वर में विश्वास, कर्मकांड, अंधविश्वास, पाखंड में विश्वास आदि बहुत ज्यादा है। 

इसी तरह तथाकथित "मूल निवासी" की कहानी पर उछलने और विरोध करने की बौद्धिकता के आन्दोलन का मनोविज्ञान समझने योग्य है। वैश्विक मानव वैज्ञानिकों (Anthropologists) की एक ही मत है कि होमो सेपियंस सेपियंस की उत्पत्ति अफ्रीका के बोत्सवाना  के मैदान में कोई एक लाख साल पहले हुआं था। होमो के अन्य प्रजातियों का अस्तित्व बहुत पहले ही समाप्त हो गया था। अतः आज सभी मानव एक ही व्यक्ति की संतानें हैं। प्राक इतिहास और इतिहास के काल में आव्रजनों की कई धाराएं भारत आती रही हैतो तथाकथित मूल निवासी के सापेक्ष किसी एक ही धारा की चर्चा क्यों हैइसके सापेक्ष राजनीति को समझने के लिए शारीरिक आंखें पर्याप्त नहीं है और इसके लिए आलोचनात्मक (Critical) एवं विश्लेषणात्मक (Analytical) मानसिक दृष्टि चाहिए। इस संबंध में कई कथा कहानियों को इतिहास साबित करने का प्रयास जारी है। ऐसे मूल निवासी के समर्थक यह साबित करना चाहते हैं कि वे तथाकथित मूल निवासी कई हजार वर्षों से अपनी जाति और वर्ण के अनुसार काम करते आ रहे हैं (और शोषण के शिकार हैं)अर्थात इन्हें अपनी जाति के अनुसार कार्य करने की विशेषज्ञता और कुशलता विगत पांच हजार वर्षों से प्राप्त है। तब मूल निवासी का निहितार्थ यही है कि मूल निवासी समर्थकों के अनुसार इन्हें अपनी तथाकथित जाति के अनुसार ही कार्य का सम्पादन करना चाहिएताकि समाज और राष्ट्र को महत्तम योगदान हो सके एवं यही राष्ट्र हित में होगा| तब वे राष्ट्र को अपने इतने सर्वोत्तम योग्यता के आधार पर योगदान का विरोध क्यों करते हैं? यह भी विरोध करने के मनोविज्ञान की क्रियाविधि का एक स्पष्ट उदाहरण है। हालांकि तथाकथित मूल निवासियों की अपने पक्ष की और इसके विपरीत पक्ष की सभी कहानियाँ महज़ कहानियाँ ही है और उसमें कोई ऐतिहासिक वैज्ञानिकता नहीं है। दरअसल ये जातियाँ और वर्ण व्यवस्था मध्य काल की सामंतवादी व्यवस्था की भारतीय संस्करण है। 

ऐसे ही उदाहरण मनुस्मृति के विरोध का है 

और शूद्र वर्ण के विरोध का है।

किसी के विरुद्ध लगातार लगे रहना किसी आन्दोलन की सफलता का आवश्यक शर्त हो सकता है, जब उसके संभावित परिणामों को भी देखने समझने की मानसिक दृष्टि वे रखते हैं, लेकिन अपने विरोधियों के आव्यूह (Matrix) में ही उलझ कर उसी में समाधान खोजना भी मूर्खता होता है| किसी बिंदु पर ठहर जाना भी उसकी गहराइयों में उतरने का मौका देता है, दौड़ते रहना तो सतह पर फिसलना ही होता है| इस फिसलन का परिणाम यह होता है, कि आपको जाना कहाँ होता है और आप कहीं दूसरी अवांछित जगह पहुँच जाते हैं| जिसका आप विरोध कर बदलाव करना चाहते हैं, आज वही जबरदस्त ढंग से मजबूत होता जा रहा है| आज उपरोक्त “मूल निवासी” के स्पष्ट किया गया अर्थ के ही निहितार्थ को समझिए, मनुस्मृति के विरोध का और शूद्र वर्ण के विरोध का निहितार्थ और उसका मनोविज्ञान को कभी बाद में समझा जायगा|

 आचार्य निरंजन सिन्हा  

 

बुधवार, 27 दिसंबर 2023

हामिद दल्वई के बहाने भारतीय मुसलमान

(Indian Muslim and Hamid Dalvai)

आज़ हमलोग वर्तमान भारत के एक राष्ट्र निर्माता हामिद दल्वई को जानेंगे और इसी बहाने भारतीय मुसलमानों की वर्तमान स्थिति का आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से सम्यक मूल्यांकन करना चाहेंगे। चूंकि सभी समाज की वर्तमान स्थिति में आने या रहने का कारण और उसके भविष्य का प्रक्षेपण (Projection) उसके इतिहास में छुपा होता है, इसीलिए किसी भी समाज की वर्तमान स्थिति का कारण और भविष्य का प्रक्षेपण जानने समझने के लिए उसके  इतिहास को वैज्ञानिक और आधुनिक विधि से समझना होता है। जो कोई व्यक्ति या समाज आज जिस किसी भी स्थिति और अवस्था में है, वह अपने अब तक के सोच विचार के प्रतिरूपों (Pattern) के परिणाम है। और सोच विचार के इन्हीं स्थायी प्रतिरूपों को ही उस व्यक्ति या समाज की संस्कृति (Culture) कहते हैं। और यह संस्कृति उस व्यक्ति या समाज के अबतक के "इतिहास के बोध" (Perception of History) का समेकित परिणाम होता है।

इसीलिए किसी भी समाज की 'सांस्कृतिक संरचना' (Cultural Structure), उसके बुनावट का विन्यास (Matrix) और समेकित प्रतिरूप उसके "इतिहास बोध" में छिपा होता है। अतः हामिद दल्वई के इतिहास को तलाशने के क्रम में 'इतिहास - लेखक'  रामचन्द्र गुहा की पुस्तक 'Makers of Modern India' का अवलोकन किया। उन्होंने इस पुस्तक में आधुनिक भारत के निर्माण में हामिद दल्वई के  योगदान को गहराई से रेखांकित किया है। मैंने रामचन्द्र गुहा को "इतिहास - लेखक" (History Writter) बताया है, लेकिन इतिहासकार (Historian) नहीं लिखा है। इन्होंने इतिहास की पूर्व लिखित सामग्री को पुनः व्यवस्थित कर इतिहास को प्रस्तुत किया है, इसीलिए इन्हें "इतिहास - लेखक" तो कहा, लेकिन इन्हें "इतिहासकार" नहीं कहा जाना चाहिए। एक 'इतिहासकारऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सामाजिक सांस्कृतिक रुपांतरण की विवेकपूर्ण व्याख्या करता हैं। व्यक्तियों के नाम और घटनाओं का विवरण - ब्यौरा तो इतिहास के उदाहरण होते हैं, स्वयं इतिहास नहीं होता है। इस मंतव्य के संबंध में मुझे सर्व सहमति की अनिवार्यता भी नहीं है।

हामिद दल्वई (1932 - 1977) का जन्म महाराष्ट्र के उसी कोंकण क्षेत्र में हुआं, जहां से गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसे ऐतिहासिक व्यक्ति पैदा हुए। इन दोनों (गोखले एवं तिलक) की राजनीतिक प्रगतिशीलता की पहचान के बावजूद भी इन पर 'सांस्कृतिक जड़ता' (Cultural Inertia) के आरोप लगा दिए जाते हैं, लेकिन हामिद दल्वई पर 'सांस्कृतिक जड़ता' का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इसके  कई कारण व्याख्यापित किए जा सकते हैं। इन्होंने "मुस्लिम सत्य शोधक समाज" की स्थापना कर महात्मा ज्योतिबा फुले की सामाजिक सांस्कृतिक रुपांतरण की नयी धारा की परम्परा को आगे बढ़ाया, जो हिन्दू संस्कृति की ही तरह मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध था।  वे भारतीय मुसलमानों की अभिवृति (Attitude) को लोकतंत्र और आधुनिकता की ओर मोड़ना चाहते थे। चूंकि धार्मिक मामले अतिसंवेदनशील होते हैं और बहुसंख्यक भारतीय समुदाय के हिन्दू धर्म में लोकतांत्रिक एवं आधुनिक सुधार और संशोधन के लिए आन्दोलन तो चलाए जा रहे थे, लेकिन भारत के बंटवारे में अधिकांश मुस्लिम बौद्धिको के पाकिस्तान चले जाने से भारतीय मुसलमानों के बौद्धिक क्षेत्र में लगभग शून्यता पैदा हो गया था, और इसीलिए हामिद दल्वई काफी संदर्भित हो गए।

दल्वई वैश्विक इतिहास में हो रहे बदलाव और प्रगति का सूक्ष्म अवलोकन कर रहे थे, और उसने यूरोप के बदलाव और विकास को समझा। यूरोप के विकास में लोकतांत्रिक मूल्यों की जागरूकता, एवं आधुनिकता और वैज्ञानिकता के दृष्टिकोण होने की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी, इसलिए भारत को भी समृद्ध, विकसित और शक्तिशाली होने में सभी भारतवासियों में लोकतांत्रिक मूल्यों की जागरूकता एवं आधुनिकता और वैज्ञानिकता के दृष्टिकोण पैदा करना अनिवार्य था। बहुसंख्यक हिन्दुओं में तो इस दिशा में कई आन्दोलन चलाए जा रहे थे, लेकिन ऐसे में भारतीय मुसलमान उपेक्षित रह गया था। दल्वई ने आधी आबादी यानि मुस्लिम महिलाओं के लिए "तीन तलाक़" प्रथा और पर्दा प्रथा का सजगता और सतर्कता से विरोध किया। उन्होंने धार्मिक नियमों (किताबों) को आधुनिकता, वैज्ञानिकता और वर्तमान पारिस्थितिकी आवश्यकताओं के अनुरूप तार्किकता और विवेकशीलता पर परखने और जांचने का जबरदस्त अपील और अनुरोध किया। वे भारत के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित करने के लिए समान नागरिक संहिता के भी पक्षधर थे। भारतीय मुस्लिम समाज में अब सर सैयद अहमद के व्यक्तित्व का अभाव हामीद दल्वई को प्रेरित कर रहा था। ये भी सर सैयद अहमद की तरह ही आधुनिक शिक्षा पर जोर दे रहे थे, ताकि भारतीय मुसलमानों की आलोचनात्मक चिंतन की अभिवृति बढ़े और चिंतन की दिशा में बदलाव आ सके।

हामिद दल्वई के लेखन के मराठी से अनुवाद उनके अभिन्न मित्र दिलीप चित्रे ने किया था। रामचन्द्र गुहा अपनी पुस्तक में दिलीप चित्रे को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि दल्वई ने हिन्दुओं की संकीर्णता को भी गहराई से समझ  कर उसमें भी सुधार के लिए आवाज दिया। मात्र 44 वर्ष की कम उम्र में दल्वई के गुजर जाने से उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के मूल्यांकन में बाधा हो जाती है। इनका मानना था कि हिन्दुओं की आबादी पचासी प्रतिशत तक है और इन हिन्दुओं के आधुनिक एवं शिक्षित बने बिना भारत एक आधुनिक, शक्तिशाली, समृद्ध और विकसित राष्ट्र नहीं हो सकता है। इसके लिए हिन्दुओं और मुसलमानो के धार्मिक अंधविश्वासों को आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुरूप  बदलाव करना जरूरी है।

लेकिन भारतीय मुसलमानों की वर्तमान स्थिति और अवस्था का सम्यक मूल्यांकन करने और उसकी मानसिकता की जड़ों तक पहुंचने के लिए उनके इतिहास को समझना होगा। भारत की सांस्कृतिक एकापन के रहते हुए भी 'राजनीतिक कारणों को धार्मिक आवरण' (Religious Veil of Political Reasons) देते हुए भारत से पाकिस्तान को अलग होना पड़ा। धार्मिक आधार पर देश के विभाजन में अधिकतर औकात और हैसियत वाले मुसलमान पूर्वी या पश्चिमी पाकिस्तान चले गए।, यानि अधिकतर सक्षम मुस्लिम बौद्धिक संपदा भारत से बाहर निकल गए। इस तरह भारत में किसान, मजदूर, कारीगर और गरीब मुसलमान की बहुसंख्या के साथ साथ वे राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग भी रह गए, जो इस विभाजनकारी विचारधारा के विरोधी थे, या अपनी जन्मभूमि यानि अपनी उस माटी को छोड़ना नहीं चाहते थे जिसमें इनके पूर्वजों के इतिहास गहराई से जुड़ा हुआ था, या इन्हें भारतीय सामासिक (Composite) गौरवशाली संस्कृति में विश्वास था यह अलग बात है कि आज़ भारतीय सामासिक गौरवशाली इतिहास को पुनर्व्याख्यायित या पुनर्व्यवस्थित किए जाने की भी चर्चा है। इनके भारत छोड़ने की यह स्थिति उसी तरह थी, जैसे आज़ भी अधिकतर औकात और हैसियत वाले भारतीय विदेशी नागरिकता प्राप्त करने के लिए लाखों की संख्या में भारत छोड़ रहे हैं। इस तरह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध शताब्दी से भारतीय गरीब, अशिक्षित और निम्न सांस्कृतिक अवस्था के मुसलमानों में अपेक्षित सुधार की अनिवार्यता ज्यादा हो गई। ऐसे में हामिद दल्वई को याद किया जाना ही चाहिए।

भारतीय मुसलमानों की सांस्कृतिक जड़ता और वर्तमान स्थिति को समझने में अधिकांश भारतीय इतिहासकारों की समस्या यह है कि वे इन समस्याओं की जड़ों के इतिहास तक जाना नहीं चाहते हैं। इनकी सांस्कृतिक जड़ता और वर्तमान स्थिति भी हिन्दू संस्कृति की सांस्कृतिक जड़ता और वर्तमान स्थिति ही तरह "सम्पूर्णता की आस्था" (Faith in Completeness) का आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं करना है। इसका तात्पर्य यह है कि हमारी आस्था जिसमें है, वह सम्पूर्णता की हद तक सही है, और उसमें किसी भी संशोधन की आवश्यकता नहीं है। जहां भी "सम्पूर्णता की आस्था" के भाव का  मजबूत होगा, वहां बदलते समय और आवश्यकता के अनुरूप भी उसका मूल्यांकन भी नहीं किया जा सकता है और उस मूल्यांकन के अनुरूप संशोधन का विचार भी नहीं आएगा। यूरोप में यानि पश्चिम में इसाई धर्म में राज्य को संस्कृति से यानि राज्य को धर्म से अलग कर दिया गया, जबकि हिन्दू धर्म और मुस्लिम धर्म के नेतृत्व अभी भी अपने धर्म को ही एक अलग "राज्य का प्रतिरूप" (A pattern of State) मानते हैं यहां ठहर कर विचार करना होगा। यह धर्म पर सामंतवादी प्रभाव की विशेषता हैभले ही कोई बिना पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों के बिना भी इन लक्षणों को स्वीकार करवाने के लिए इसे अति प्राचीनता की घोषणा करता रहे।

यह भी इतिहास है कि मुसलमानों के वैश्विक उदय के तुरंत बाद ही वैश्विक सामंतवाद का उदय और विकास हुआ। भारत में भी राजनीतिक सामंतवाद जल्दी ही आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी व्याप्त और प्रभावी हो गया। भारत के अधिकांश प्रमुख भौगोलिक भू-भाग पर अधिकांश सर्वोच्च शासक मुसलमान ही थे, जो राजनीतिक शासक ढांचे के सर्वोच्च शिखर थे। ध्यान रहे कि सामंतवाद में शासकों का एक पदानुक्रम (Hierarchy) होता है। वर्तमान ऐतिहासिक व्याख्या के अनुसार भारत में वैश्विक बदलाव के अनुरूप ही प्राचीन काल का समाप्त होना माना गया और इस सामंतवदी युग की व्याख्या मध्य युग की तरह किया जाने लगा। सामंतवादी ढांचे का भी आर्थिक आधार निम्नतर कृषक वर्ग ही था। इस काल में प्राचीन काल की अपेक्षा नगरों और नागरीय कार्यों का पतन हुआ और भूमि पर यानि कृषि क्षेत्र पर दबाव भी बढ़ गया। 

इस सामंतवदी ढांचे में जहां सर्वोच्च शिखर पर मुस्लिम धर्म के अनुयाई थे, तो सामंतवाद के निम्न स्तर पर स्थानीय सामंत थे, जो अधिकतर मुस्लिम धर्म के अनुयाई नहीं थे, बल्कि हिन्दू धर्म के अनुयाई थे।  सामंतवदी व्यवस्था ही किसानों के अत्यधिक शोषण और आतंक पर आधारित होता है। भारतीय समाज में इस शोषण और अन्यायपूर्ण व्यवहार को धार्मिक और सांस्कृतिक आवरण देकर इसका स्वरूप बदल दिया गया। निम्नतर यानि स्थानीय सामंत हिन्दू धर्म से ही थे और सामान्य सभी आबादी भी हिन्दू ही थीजो जाति आधारित असमानता के भेदभाव पर टिकी हुई थी। ऐसी स्थिति में बहुसंख्यक गरीब और सांस्कृतिक रूप में दबे हुए किसानों, मजदूरों और कारीगरों ने स्थानीय स्वधर्म सामंतों के अत्यधिक शोषण और असमानतावादी व्यवहारों से बचने के लिए अपनी धार्मिक आस्था ही सर्वोच्च सामंतों के धार्मिक आस्था के अनुरूप बदल ली। यानि स्थानीय हिन्दू सामंतों के शोषण और अत्याचार से बचने या कम होने की उम्मीद में हिन्दू धर्म को ही त्याग दिया। तय है कि नयी आस्था स्थानीय एवं निम्न स्तरीय सामंतों की धार्मिक आस्था से अलग हो गयी। इन नव आस्था वाले लोगों ने पारिवारिक सम्पत्ति और सम्पदा की बंटवारे की तरह ही अपने सामुदायिक सम्पत्ति और सम्पदा को भी बांट लिया, जिसमें उनके "आस्था के भवन" (मंदिर आदि) भी शामिल हैंइसीलिए कहीं कहीं मंदिरों के साथ ही मस्जिद भी मिलते हैं।

धार्मिक आस्था बदल लेने से कोई सामाजिक सांस्कृतिक पीड़ा या असमानता से मुक्ति पा लेने का दावा कर सकता है, लेकिन मात्र धार्मिक आस्था में परिवर्तन कर लेने से उनमें कोई विशेष एवं विशिष्ट शैक्षणिक, आर्थिक, जीवन शैली और राजनीतिक बदलाव नहीं हो जाता। किसी के भी शैक्षणिक, आर्थिक, जीवन शैली और राजनीतिक बदलाव के लिए सजगता एवं सतर्कता के साथ विशेष एवं विशिष्ट प्रयास करने होते हैं। चूंकि इन अधिकांश लोगों की हैसियत और औकात पहले भी यानि हिन्दू धर्म में भी शैक्षणिक, आर्थिक, जीवन शैली और राजनीतिक क्षेत्रों में निम्नतर स्तर पर थी, और इसीलिए मात्र धर्म यानि आस्था बदलने से भी इनकी शैक्षणिक, आर्थिक, जीवन शैली और राजनीतिक हैसियत और औकात में कोई बदलाव नहीं हुआ। इनकी सांस्कृतिक जड़ता पहले की ही तरह अंधविश्वास और कुरीतियों में डूबीं हुईं ही रह गई, यानि इनकी मानसिकता यथावत रह गई। इसके लिए व्यवस्था की ओर से आजतक अपेक्षित प्रयास नहीं हुए और स्थिति यथावत बनी हुई है। इतिहासकार इन पहलुओं को छोड़ देता है और इनकी उत्पत्ति की प्रक्रिया की ओर नहीं जाता है। यह सांस्कृतिक जड़ता आज भी निम्नतर और गरीब हिन्दूओं की ही तरह धर्म परिवर्तित मुसलमानों में भी व्याप्त है, जो विभिन्न स्वरूपों और अवस्थाओं में अवलोकित होता रहता है। ऐसे स्थिति में तो हामिद दल्वई की कृत्यों को याद किया जाना जरूरी है।

सामंतवादी व्यवस्था में राजनीतिक भक्ति भी अनिवार्य है, और इसके प्रभाव से सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी भक्ति व्याप्त हो गया। इससे विज्ञान भी ठहर गया और लोगों की भक्ति भी अंधभक्ति में यानि अंध -आस्था में बदल गई। आस्था के बढ़ने से विज्ञान विलुप्त होने लगता है, यानि तार्किकता और वस्तुनिष्टता समाप्त होने लगती है। यह सभी समाज के सभी सांस्कृतिक क्षेत्रों में यानि हिन्दुओं और मुसलमानो में व्याप्त हो गई। सभी पूर्वी संस्कृति की ही तरह मुस्लिम धर्म से जुड़ी भारत की संस्कृति भी भारत भूमि की वृहत् संस्कृति की ही तरह ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास, कर्मकांड की कुरीतियों में जड़ हो गया है। इसीलिए ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज और आम्बेडकर के सामाजिक सांस्कृतिक सुधार आन्दोलन के साथ हामिद दल्वई भी खडे हैं।

हामिद दल्वई का यह भी मानना था कि हिन्दुओं और मुसलमानो के आपसी द्वेष, शत्रुता और पूर्वाग्रह को मिटाने हटाने के लिए इतिहास की आधुनिक और वैज्ञानिक व्याख्या किया ही जाना चाहिए। दरअसल लोग यह समझते ही नहीं है कि इतिहास क्या होता हैइतिहास मात्र ऐतिहासिक काल का वर्णन ही नहीं होता है, बल्कि मानवता के भविष्य को ध्यान में रखकर विवेकपूर्ण सामाजिक सांस्कृतिक रुपांतरण की क्रियाविधि (Mechanism) को समझना होता है। ऐतिहासिक काल की मूर्खतापूर्ण घटनाओं को मूर्खतापूर्ण बताना होता है। चूंकि यह "इतिहास का दर्शन"(Historiography) है, इसलिए यह अलग विषय है, लेकिन दल्वई की निगाहें यहां तक थी।

 सबसे बड़ी समस्या यह है कि व्यवस्था भी, यानि शासन भी अपने से संबंधित संस्कृति और धर्म से जुड़ी सांस्कृतिक जड़ता को हटा कर सम्पूर्ण समाज को गतिमान बनाने का सजग, सतर्क और समर्पित प्रयास करता नहीं दिखता है। चूंकि हिन्दूओं और मुसलमानो में एक ही तरह की सांस्कृतिक जड़ता है, और प्रबुद्ध एवं समृद्ध हिन्दू समाज इस सांस्कृतिक जड़ता को दूर करना नहीं चाहता, इसीलिए मुसलमानों की सांस्कृतिक जड़ता को हटाने की ओर ध्यान नहीं दे सकता। मात्र एक दूसरे पर दोषारोपण और टिप्पणी से समाधान नहीं पाया जा सकता। भारत को एक सशक्त, समृद्ध और विकसित राष्ट्र बनाने के लिए भारत के सभी सामाजिक और सांस्कृतिक समाजों यानि वर्गों में व्याप्त सांस्कृतिक जड़ता को वैज्ञानिकता और आधुनिकता के दृष्टिकोण से गतिशील करना ही होगा। अन्यथा भारत के वैश्विक नेतृत्व का स्वप्न "दिवा स्वप्न" ही रह जाएगा। आप भी ठहरिये, ठहरने से ही कोई गहराईयों में उतर सकता है।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

 

 

 

रविवार, 24 दिसंबर 2023

डा आम्बेडकर की सांवैधानिक नैतिकता

 (The Constitutional Morality of Dr Ambedkar) 

डा भीमराव आंबेडकर भारतीय संविधान के प्रारुप समिति के अध्यक्ष रहे, जिन्होंने भारतीय संविधान की मौलिक और मूल संरचनात्मक ढांचा  (Structural Framework) को तैयार किया। इन्होंने संविधान सभा में भारतीय संदर्भ में "सांवैधानिक नैतिकता" (Constitutional Morality) की बात किया था। हम आज़ के संदर्भ में इसी ''सांवैधानिक नैतिकता"' की विवेचना करना चाहता हूं। 'सांवैधानिक नैतिकता' को किसी मूर्त अवस्था में आकलित नहीं किया जा सकता है, और इसे वैधानिक स्वरुप भी नहीं दिया जा सकता। लेकिन यह सांवैधानिक नैतिकता उसी तरह भारतीय संविधान और व्यवस्था में महत्वपूर्ण है, जैसे 'प्राकृतिक न्याय' (Natural Justice) बिना किसी लिखित अभिव्यक्ति के ही सभी लिखित 'वैधानिक न्याय' (Legal Justice) के निर्णयों पर प्रभावी रहता है, यानि सभी नियमों और निर्णयों को आच्छादित किए रहता है। 

यह 'सांवैधानिक नैतिकता' भी इसी तरह तरंगित अवस्था (Wave Form) में रहकर भी शासन के सभी अंगों पर वास्तविक रूप में छाए रहना चाहिए। अर्थात शासन के सभी अंगों यानि शासन के सभी चारों मौलिक एवं आवश्यक इकाईयों यथा विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और संवादपालिका (Media) पर प्रभावी रहना चाहिए। लेकिन इस 'सांवैधानिक नैतिकता' को संरचनात्मक ढांचा (Structural Framework) कौन देगा, जिसके अन्तर्गत इस 'सांवैधानिक नैतिकताको अपना दिशा और दशा निर्धारित करना है, या करता रहना चाहिए? अर्थात इस 'सांवैधानिक नैतिकता' के लिए वह कौन सा मौलिक और आधारभूत प्रेरणा होगा, जो उसे प्रेरित, या नियमित, या नियंत्रित करता रहेगा? यह भी एक मौलिक और महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस "सांवैधानिक नैतिकता" का प्रेरक कारक यानि संरचनात्मक ढांचा देने का का कार्य 'मानवता' (Humanity), 'न्याय (Justice)', 'समता' और समानता (Equality n Equity), 'मुक्ति' और 'स्वतंत्रता (Liberty n Freedom)', 'बंधुत्व (Fraternity)', 'वैज्ञानिकता' (Scientism), और 'आधुनिकता' (Modernity) ही करेगा इसे दूसरे शब्दों में संविधान की उद्देशिका (Preamble) में निहित कहा भी जा सकता है। 

जब संविधान की उद्देशिका में, या स्वयं संविधान में संशोधन किया जा सकता है, तो यह प्रश्न उठता है कि इनमें किस हद तक संशोधन किया जाना चाहिएक्या संविधान भी बदला (संशोधित) जा सकता है? तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा - हां, बदला (संशोधित) जा सकता है, परन्तु किस हद तक? जब संविधान में संशोधन का अधिकार भारतीय प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने वाली  संस्था - भारतीय संसद को दिया गया है, तो इसे कौन रोकेगा, कैसे रोकेगा और क्यों रोकेगा?  यह "क्यों" (Why)  भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। यहां भी सांवैधानिक नैतिकता ही एकमात्र विकल्प है, जो इसे किसी तार्किक सुनिश्चितता के साथ इसे रोक सकता है। 'आधुनिकता' एक व्यापक अवधारणा का शब्द हैजो अपने में मानवता, वैज्ञानिकता और न्याय की व्यापकता को समाहित किए रहता है। कोई भी इस आधुनिकता यानि आधुनिकीकरण को पश्चिमीकरण (Westernisation)" नहीं समझे।

इस तरह स्पष्ट है कि "सांवैधानिक नैतिकता" संविधान की मूल भावनाओं के क्रियान्वयन में निहित है।  निश्चिंतया सांवैधानिक नैतिकता भारत को समृद्ध, सशक्त, आधुनिक, वैज्ञानिक और अग्रणी बनाने के लिए नीति नियामकों को प्रेरित करता रहेगा। इससे इतर लक्ष्य या मनोदशा सांवैधानिक अनैतिकता" ही होगा। दरअसल Constitutional Morality (सांवैधानिक नैतिकता) का अर्थ Morality शब्द में अन्तर्निहित है, जिसके अवधारणात्मक अर्थ के लिए हिन्दी में कोई उपयुक्त शब्द शायद नहीं है। कुछ लोग इसके लिए सदाचार, सत्यनिष्ठा, तो कुछ लोग नैतिकता शब्द का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन ये शब्द भी इसकी अन्तर्निहित उद्देश्य और भावना को शामिल नहीं कर पाता है। यहां Morality शब्द का अर्थ होता है कि जो भारतीय समाज के सम्यक और समुचित विकास एवं व्यवस्था के लिए अपेक्षित विषय के मूल और मौलिक तत्वों को धरातल पर उतारने में ईमानदार हो। इस Morality में उस संविधान के अन्तर्निहित उद्देश्य और भावना की अभिव्यक्ति उसके भावना, विचार, अभिव्यक्ति और व्यवहार में अवश्य रहे।

इस तरह Constitutional Morality का अर्थ हुआ कि संविधान के निर्माण के समय संविधान का निर्माण जिस भावनाओं और उद्देश्यों की पूर्ति के साधन के रुप में आत्मार्पित, अंगीकृत और अधिनियमित किया गया है, उन उद्देश्यों और भावनाओं को धरातल पर उतारने के प्रयास में ईमानदार रहना। हमें  Morality में Integrity को भी निहित करना चाहिए और इसके बिना इन दोनों का कोई कार्यात्मक अर्थ नही होगा। तो स्पष्ट है कि बदलते संदर्भों और आवश्यकताओं के अनुरूप संविधान को बदलते रहना भी पड़ेगा, अर्थात किसी भी संविधान को निश्चित उद्देश्य और भावना में किसी मजबूत संरचनात्मक ढांचा में बांधते हुए भी समय के अनुकूल ढालने और आगे बढ़ते रहने की जीवंतता रहनी चाहिए। इसीलिए संविधान में समय के अनुकूल संशोधन किए जाते रहते हैं। यह बात तो सैद्धांतिक रूप में सही और सहमत होने योग्य है, लेकिन संविधान के अनुसार शासन संचालन करने वालों की Morality के बंधन में कैसे बांधा जाए? इसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता। 

इसी के साथ डा भीमराव आंबेडकर ने "राजनीति में भक्ति" (Hero Worship) के ख़तरों के प्रति आगाह भी किया। उन्होंने धार्मिक भक्ति पर निष्पक्ष ध्यान कर इस पर कोई सकारात्मक या नकारात्मक टिप्पणी नहीं कियालेकिन "राजनीति में भक्ति" को भारतीय लोकतंत्र पर खतरा बताया।  किसी भी भक्ति में पूर्ण आस्था और समर्पण निहित होता है और इसे मानसिक गुलाम भी मान लिया जाता है। 'आस्था' किसी भी संबंधित शंका को प्रथम दृष्टया ही खारिज कर देता है, अर्थात आप कोई प्रश्न नहीं कर सकते हैं। जबकि विज्ञान सभी आशंकाओं और विपरीत संभावनाओं को सदैव आमंत्रित करता रहता है, ताकि उसका विकास पूर्ण जीवंतता के साथ होता रहे, और होता भी रहता है। स्पष्ट है कि 'राजनीतिक भक्ति' "लोकतंत्र" को "प्रजातंत्र" की ओर ले जाती है। यहां सावधान रहें कि लोकतंत्र और प्रजातंत्र, दोनों का अंग्रेजी अनुवाद 'Democracy'  हीं है। लेकिन 'लोकतंत्र' वहां के लोगों का तंत्र है और 'प्रजातंत्र' वहां की प्रजा का तंत्र हुआ। स्पष्ट है कि लोक यानि लोग एक निरपेक्ष शब्द है, जबकि प्रजा एक सापेक्ष शब्द है। स्पष्ट है कि कोई नागरिक या लोग उसी समय किसी की प्रजा हो सकता है, जब वहां कोई राजा (King) होगा। बिना राजा के कोई प्रजा नहीं हो सकता, और इसीलिए भारतीय संविधान के उद्देशिका में लोकतंत्र शब्द है, प्रजातंत्र नहीं है।

दरअसल भक्ति का उदय ही इतिहास के मध्य काल में हुआ था, जो सामंती काल था।  सामंतवाद के काल में "भक्ति"  समाज के हर क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण और विशिष्ट पहचान बनी, जो उस क्षेत्र के सभी सामंतों के प्रति जनता से अपेक्षित था। इसी से यह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक के साथ साथ राजनीतिक भक्ति भी जन्म लिया और मजबूत भी हो गया। डा आम्बेडकर जैसे पारखी विद्वान यह देख रहे थे कि भक्ति का प्रभाव भारत में अभी भी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में मजबूत और प्रभावशाली है। इसीलिए इस राजनीतिक भक्ति के ख़तरों को अपने मानसिक दृष्टि से देख रहे थे। चूंकि राजनीतिक सत्ता ही सभी क्षेत्रों का नियामक, निर्धारक, नियंत्रक, और निर्माता होता हैइसीलिए राजनीतिक भक्ति के ख़तरों को नव स्थापित लोकतंत्र के संदर्भ में भांप लिया था। इसे हमलोगों को भी समझना चाहिए।

इसके ही साथ में, इन्होंने राजनीतिक लोकतंत्र (Political Democracy) की सीमाओं को भी गहराई से रेखांकित किया है। इन्होंने सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ और आवश्यकता को भी समझाया। तय है कि सामाजिक लोकतंत्र में सांस्कृतिक लोकतंत्र भी समाहित हैक्योंकि इन दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। लेकिन भारत का दुर्भाग्य यह है कि सांस्कृतिक लोकतंत्र की चर्चा यानि विमर्श भारत के तथाकथित आम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों की बुद्धि में प्रमुख स्थान नहीं ले सका है। आम्बेडकर ने अपने आलेखों में सामाजिक सांस्कृतिक क्रांति यानि कम समय में बहुत बड़े बदलाव को प्रमुखता से रेखांकित किया है और इसे राजनीतिक लोकतंत्र की पूर्व शर्त भी माना है। भारत के सभी प्रमुख तथाकथित आम्बेडकरवादी भी इसे नहीं समझ रहे हैं, या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में इससे विमुख रहते हैं। ऐसे सभी बुद्धजीवी सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र के नाम पर अपने स्वार्थ सिद्धि कर रहे हैं और इसीलिए व्यक्ति बदलने की, यानि सत्ता बदलने की राजनीति तक ही अपने को सीमित किए हुए हैं। व्यवस्था परिवर्तन यानि सामाजिक सांस्कृतिक लोकतंत्र की स्थापना की दृष्टि (Vision) अधिकांश आम्बेडकरवादी नेताओं में नहीं है। मैं तो यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि इस सामाजिक सांस्कृतिक लोकतंत्र की दृष्टि अधिकांश में ही नहीं, किसी भी तात्कालिक आम्बेडकरवादी नेताओं में नहीं है।

मैंने डा भीमराव आम्बेडकर के Constitutional Morality को समयाभाव में इतना ही समझा है, शाय़द इसे और विस्तारित और व्याख्यायित किए जाने की भी आवश्यकता है। आप भी विचार कीजिए।

आचार्य निरंजन सिन्हा

 

गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

वर्तमान राजनीतिक क्रियाविधि का आधुनिक विश्लेषण

 The Depth Psychology of Present Political System 

आज़ हमलोग वर्तमान भारतीय राजनीति के एक "गहरे मनोविज्ञान" (The Depth Psychology) को समझने की कोशिश करते हैं। यानि वर्तमान भारतीय राजनीति का आधुनिक विश्लेषण करते हैं, या दूसरे शब्दों में कहें तो वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य और उसकी क्रियाविधि (Mechanism) को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करते हैं। तय है कि किसी भी क्रियाविधि का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने में उसका आधार तार्किक होना चाहिए, उसे तथ्यात्मक होना चाहिए और उस विषय पर कुछ आधुनिक वैज्ञानिकों की भी मंतव्य की प्रस्तुति होनी चाहिए। स्पष्ट है कि उपरोक्त तथ्यों और प्रक्रियाओं के अभाव में यह विश्लेषण छिछला, छिछोरा और "बनने दिखाने" का एक भद्दा प्रयास होगा। तो हमलोग आगे बढ़ते हैं।

आप यह स्पष्ट रहें कि मैं एक गैर राजनीतिक व्यक्ति हूं, परन्तु अकादमिक पृष्ठभूमि के कारण अकादमिक ही रहना चाहता हूं। इसीलिए यहां किसी भी राजनीतिक विचारधारा, राजनीतिक दल और किसी राजनीतिक व्यक्ति या संगठन का नाम भी शामिल नहीं करुंगा। लेकिन गैर राजनीतिक होने मात्र से ही मैं अपने समाज, मानवता, प्रकृति और भविष्य की उपेक्षा ही कर दूं, यह समुचित भी नहीं होगा। भविष्य को सजगता से अज्ञानता में रखना अमानवीय भी होगा, गैर सामाजिक भी होगा और इसके लिए भविष्य भी क्षमा प्रदान नहीं करेगा। तो हमें इस विषय पर, यानि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर एक आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रकाश डालना ही चाहिए, ताकि भारतीय लोकतंत्र की गणतांत्रिक व्यवस्था में वह सशक्तता आ सकें, जिसके बदौलत भारत एक बार फिर से "आभा" से "रत"  (आभा + रत  = भारत) यानि आभा युक्त हो सके।

इसे आज़ हम 'गहरा मनोविज्ञान' (The Depth Psychology) से समझने की कोशिश करेंगे। वैसे इसे व्यापक रूप से समझने के लिए हमें सिग्मंड फ्रायड के "मनोविश्लेषणात्मक" (Psycho Analytical) अवधारणा और अब्राहम मैसलो की "मानवतावादी मनोविज्ञान" (Humanistic Psychology) की उपेक्षा भी नहीं कर सकते, लेकिन उन्हें बेहतर ढंग से समझने के लिए यहां फिर से विस्तार से नहीं जाना चाहूंगा। मैं आज फिर से संयुक्त राज्य अमेरिका की पूर्व संस्थान "The Institute of Propaganda Analysis"  के सातों तकनीक (प्रविधि) का स्थिर और शांतिपूर्ण अवलोकन एवं अध्ययन किए जाने की भी गहरी अनुशंसा तो सभी राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों - संस्थाओं से अवश्य करना चाहूंगा। इससे कोई भी अपने समाज में हो रहे या बदलते हुए परिदृश्यों को भी 'प्रचार तंत्र' (Media System) के संदर्भ में समझ सकता है और समझना भी चाहिए।

बात जब "गहरे मनोविज्ञान" (The Depth Psychology) पर जाती है, तो स्पष्ट है कि गहरे मनोविज्ञान की बातें मानव के अचेतन स्तर पर चली जाती है और स्वत: संचालन एवं नियंत्रण के मोड में चली जाती है। लेकिन यह बात किसी व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व के ही अचेतन तक सीमित नहीं रहती है, बल्कि यह बात उसके "सामूहिक अचेतन" (collective unconscious) यानि "सामाजिक अचेतन" (Social unconscious) तक चली जाती है। तब तो स्विट्जरलैंड के मनोविज्ञानी कार्ल जुंग (Carl Gustav Jung) के अध्ययन को समझना भी जरूरी हो जाता है। यह चेतन व्यवहार और अचेतन मन की संरचनात्मक ढांचा (Structural Framework) एवं परिवेशीय व्यवस्था के संबंध को अभिप्रेरक (Motivational) अवस्थाओं और बाह्य उद्दीपन (External Stimuli) की परिवेशीय व्यवस्थाओं के संदर्भ में समझाना चाहते हैं। यह मानवीय चेतना की चेतन अवस्था और अचेतन अवस्था के साथ साथ उसके अभिप्रेरणा और उसके मन के प्रतिरूपों (Pattern of Mind) और उसके गत्यात्मकता (Dynamism) के संबंधों पर आधारित है। यहां व्यवहार में भावना, अभिव्यक्ति और शारीरिक क्रियाविधि भी शामिल रहेगा। यहां 'सामूहिक अचेतन' यानि 'सामाजिक अचेतन' को ही उस समाज की "संस्कृति" (Culture) कहना उचित होगा। सामूहिक अचेतन ही सामासिक और समेकित स्वरुप में संस्कृति ही होती है, जो समाज को नियमित, नियंत्रित और संचालित करती रहती है।

बहुत से राजनीतिक संगठन अपने प्रभाव क्षेत्र के मतदाताओं में यह देखते हैं कि अधिकांश मतदाता अभिप्रेरणा के पिरामिड में किस स्तर पर है? जैसे भारत में अधिकतर मतदाता अपनी शारीरिक आवश्यकताओं और उनसे संबंधित सुरक्षाओं से अभिप्रेरित हैं। इसीलिए अधिकतर राजनीतिक रणनीतिकार की रणनीतियां उनकी शारीरिक आवश्यकताओं और उनसे संबंधित सुरक्षाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। इसके लिए अब्राहम मैसलो की आवश्यकताओं का सिद्धान्त यानि अभिप्रेरणा का सिद्धान्त का पिरामिड पर्याप्त सहायता करता है। आप भी अपने आसपास के परिदृश्य में इन मौलिक अभिप्रेरणाओं को संतुष्ट करने के सरकारी प्रयासों में मुफ़्त या अनुदान के साथ व्यवस्था देखते हैं।

लेकिन 'गहरा मनोविज्ञान' तो जीवन की और गहराईयों में उतरता चला जाता है। कार्ल जुंग मानते हैं कि सभी जीवन और सभी मन (चेतना) अन्ततः किसी थीम (विषयगत) के प्रकार में या किसी प्रतिरूप (आंतरिक बुनावट या बनाबट) में कथानक (Narrative) बनाने में, यानि मिथक बनाने में, या मिथकीय चित्रण में अचेतन स्तर पर लगे रहते हैं। कुछ समझदार राजनीतिक दल ही इस कथानक यानि मिथकीय चित्रण की प्रक्रिया को समझते है और इसीलिए कुछ ही राजनीतिक दल इसका अवलोकन और विश्लेषण कर पाते हैं। ऐसे ही समझदार राजनीतिक संगठन इसके अनुकूल अपने राजनीतिक रणनीतियों को क्रियान्वित कर पाते हैं। 

किसी के अचेतन स्तर पर किया गया प्रयास चुपचाप और सदैव कार्यरत रहता है और सदैव परिणाम देता रहता है। इसी मिथकीय चित्रण में सामान्य वर्ग अपने सामान्य बुद्धि-विवेक के अनुसार ही मन की विभिन्न तरंगों में उतरते-डूबते -तैरते रहते हैं। मिथकीय चित्रण, यानि कथानक, यानि मिथक मात्र पौराणिक कथाएं नहीं होती है, बल्कि किसी भी चीज या घटना या प्रक्रिया की पुरातनता के नाम पर काल्पनिक व्याख्याएं है। कोई चीज यदि पुरातन है, तो वह विरासत भी मानी जाएगी और सनातन भी मानी जाएगी । ऐसी अवस्था मे हर पुरातन हमारे लिए गौरवमयी भी हो जाती है और इसलिए अनुकरणीय भी हो जाती है। इसमें मानव के आश्चर्यजनक एवं अलौकिक घटनाओं के नाम पर चित्रात्मक, कल्पनात्मक, विषयगत, प्रायोजित, प्रारुपित कहानी का विवरण ही होता है। चूंकि व्याख्याएं पुरातन मानी जाती है या होती है, तो निश्चिंतया ऐसी व्याख्या अवैज्ञानिक भी होगी, अतार्किक भी होगी, गैर तथ्यात्मक भी होगी, अविवेकी भी होगी, और इसीलिए यह अलोकतांत्रिक भी होगी, अमानवीय भी होगी एवं ग़लत भी होगी।

तो हमारे मन में यह कौंधता है कि मिथक की क्या उपयोगिता है और इसकी क्यों आवश्यकता होती हैमिथक साधारण रूप में एक कथानक (Narrative) ही है, जो ऐतिहासिकता और तथ्यात्मकता के आड़ में जन सामान्य को अपनी बातों को मनवाने और सहमत कराने के लिए गढ़ा जाता है। एक मिथक यानि एक कथानक के द्वारा ही कोई किसी भी गूढ़ बात को सामान्य जन के बौद्धिक स्तर तक उतर कर उसे समझा सकता है। एक मिथक यानि एक कथानक के द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों को अपने पक्ष में तोड़ मरोड़ या उसे दिग्भ्रमित कर सकते हैं। एक मिथक यानि एक कथानक के माध्यम से ही इतिहास को बदला जाता है, जो अन्ततः संस्कृति को ही बदल डालता है। इसीलिए लेखक जार्ज आरवेल कहते हैं कि जो इतिहास (और इतिहास के नाम पर मिथक यानि कथानक) पर नियंत्रण रखता है, वह वर्तमान और भविष्य को भी नियंत्रित करता है।

इन्हीं मिथकों यानि कथानकों के माध्यम से ही लोगों के इस वर्तमान जीवन को तुच्छ और नगण्य बताया जाता है और 'इस जीवन के बाद के जीवन' यानि 'पुनर्जन्म' (जो जीवों में होता ही नहीं है) को महत्वपूर्ण बताया जाता है। इसीलिए आप एक राजनीतिक दल के रूप में अपने मतदाताओं को संतुष्टि के स्तर तक भविष्य के जन्म के या काल्पनिक स्वर्ग नर्क के बहाने बेहतरीन काल्पनिक जीवन की व्यवस्थाओं को उपलब्ध कराने का आश्वासन दे सकते हैं। कोई राजनीतिक दल वर्तमान को सुधारने का प्रयास दिखाना चाहता है, तो कोई इस जन्म के पार की जीवन की व्यवस्थाओं का आश्वासन देता है। 

कोई "व्यक्तिगत चेतन और अचेतन" को संतुष्ट करना चाहता है और कोई इसके अतिरिक्त "सामूहिक अचेतन" को संतुष्ट करना चाहता है। इस तरह कुछ राजनीतिक दल सत्ता में बैठे व्यक्ति को बदलने की, यानि सत्ता बदलने की राजनीतिक दृष्टि रखता है, तो कोई व्यवस्था यानि संस्कृति को ही बदलने का सुनियोजित और सुनिश्चित मजबूत दृष्टि रखता है। कुछ राजनीतिक दल संस्थागत हो कर प्रयास करते हैं और अधिकतर व्यक्तिवाद तक ही सीमित रह जाता है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो कुछ राजनीतिक दल सदियों की राजनीति की रणनीति पर काम करते हैं और अधिकतर कुछ वर्ष या वर्षों की राजनीति की ही दृष्टि रखते हैं। अपने आसपास नजर घुमाने से आपको बहुत कुछ स्वत: स्पष्ट हो जाएगा। इसीलिए मैंने पूर्व में अपने एक ब्लाग के आलेख में लिखा है कि 'कथानक ही शासन करता है'

आचार्य निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत्त

राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।

 

 

 

रविवार, 17 दिसंबर 2023

मानवीय उलझन का मनोविज्ञान

  (The Psychology of Human Entanglements)

आज़ हमलोग मानव मन की उलझनों का विश्लेषण और उसका भिन्न-भिन्न संदर्भों, पृष्टभूमियों, परिस्थितियों एवं पारिस्थितिकीय परिवेशों में मूल्यांकन करना चाहेंगे। मानव की हर उलझन मनोवैज्ञानिक होती है, इसीलिए जिसके पास "मन" (Mind) नहीं होता है, उसके पास सुलझाने के लिए कोई उलझन भी नहीं होता है। अतः हमें सबसे पहले मानव को, मन को, उलझन को और मनोविज्ञान को समझ लेना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें, तो हमें मानव के मनोविज्ञान की क्रियाविधि का आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking), यानि विश्लेषणात्मक मूल्यांकन (Analytical Evaluation) करना चाहिए। 

हम "मानव" (Man) उस स्तनपायी (Mammal) पशु (Animal) को कहते हैं, जो अपनी 'सोच' पर भी 'सोच' कर सकता है, और उसके 'सोच' में उसके निजी जीवन के अतिरिक्त अन्य का भी जीवन शामिल रहता है। इसी "सोच" के कारण एक होमो सेपियंस (Homo Sapiens) नामक दो पैरों वाला स्तनपायी पशु भी एक सामाजिक मानव (Homo Socius) और निर्माता मानव (Homo Faber) बन सका। यदि किसी मानव की सोच में यानि उसके जीवन में उसके अतिरिक्त कोई और परिवार, समाज, मानवता या प्रकृति शामिल नहीं है, तो वह महज़ एक पशु है, भले ही वह दो पैरों पर खड़ा है और कपड़े पहने हुए हैं। जो जीव बच्चे पैदा करता है, उसे पालता पोसता हुआ और उसे देखते हुए अपना जीवन व्यतीत कर लेता है, उसे ही पशु कहते हैं। एक मानव के जीवन मूल्य (Value of Life) में उसका समाज और मानवता के अतिरिक्त उसका प्राकृतिक पारिस्थितिकी भी शामिल होता है।

किसी का भी "मन" (Mind) उस जीवन इकाई का एक 'ऊर्जा का आव्यूह' (Matrix of Energy) होता है, जो उसके भौतकीय शरीर से सम्पोषित तो होता है, लेकिन उसके भौतकीय शरीर से बाहर होता है और उस व्यक्ति को संचालित, नियमित और नियंत्रित करता रहता है। किसी व्यक्ति का दिमाग (Brain) उसके 'मन' का मोड्यूलेटर (Modulator) होता है, जो उस व्यक्ति की भावनाओं, विचारों और व्यवहारों के लिए उसके मन और शरीर के मध्य एक अनुवादक की भूमिका अदा करता रहता है। मन को आप किसी का चेतना (Consciousness), या आत्म (Self) भी कह सकते हैं, लेकिन इसे भारतीय अवधारणा का आत्मा (Soul) कदापि नहीं कहा जाना चाहिए। किसी का आत्मा एक बार निर्मित तो होता है, परन्तु वह उसके जन्म मरण से परे होकर अपना अस्तित्व सदैव बनाए रखने का अवैज्ञानिक दावा करता है। मन किसी के जीवन में इतना महत्वपूर्ण है कि मन की अवस्था को बदल कर ही कोई अपना जीवन बदल सकता है। इसे ही कई विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तरह से वर्णित किया है, यानि अभिव्यक्त किया है।

'उलझन' (Entanglement/ Complications /Tangles) मन की उस अवस्था को कहते हैं, जब 'मन' किसी भी भावना (Emotion), विचार (Thought), व्यवहार (Behaviour) यानि उसकी क्रियाविधि (Mechanism) को अच्छी तरह समझना चाहता है, लेकिन उसे अपने महत्तम संतुष्टि तक नहीं समझ पाता है। इसी उलझन को ही कोई समस्या का स्वरूप समझता है। वैसे भी समस्या उसे कहते हैं, जिसका समाधान नहीं मिल पा रहा है। अतः किसी चीज को नहीं समझ पाना, यानि पूर्ण संतुष्टि तक नहीं जान पाना ही "उलझन" होता है। 

जब बात मनोविज्ञान की आती है, तब कोई भी इसे मन का विज्ञान समझता है, सही ही समझता है। अतः मनोविज्ञान मानव मन द्वारा संचालित, नियंत्रित और नियमित भावनाओं, विचारों और व्यवहारों का समुचित और सम्यक व्याख्या करता है। विवेकपूर्ण और व्यवस्थित ज्ञान ही विज्ञान है, अर्थात वैसा ज्ञान जो तार्किक भी हो, तथ्यात्मक भी हो, विवेकपूर्ण भी हो और व्यवस्थित भी हो, विज्ञान है। तार्किक अर्थात कार्य कारण पर आधारित हो। तथ्यात्मक अर्थात अवलोकन एवं परीक्षण योग्य हो और कल्पना आधारित नहीं हो। विवेकपूर्ण अर्थात उसमें वृहत् मानव कल्याण की भावना निहित हो, यह सब विज्ञान का एक अनिवार्य शर्त है। व्यवस्थित अर्थात क्रमानुसार एवं सरल, सहज और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुति भी हो। इसी समेकित सम्पूर्णता को ही विज्ञान कहते हैं। विज्ञान सदैव अपने स्थापनाओं के विरुद्ध विचार भी आमंत्रित करता रहता है, ताकि वह बदलते संदर्भों, पृष्टभूमियों, परिस्थितियों और पारिस्थितिकीय परिवेशों में भी वास्तविकताओं की समुचित और सम्यक व्याख्या कर सके। अतः विज्ञान आस्थाओं का विरोधी भी होता है।

मानव मन को समझने में यदि आपने महान मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड की "मनोविश्लेषणात्मक" (Psycho Analytical) अवधारणा को नहीं समझा, तो मानव मन को समझना अधूरा रह जाएगा। यहां हम संक्षेप में फ्रायड के "Id," "Ego" और "Super ego" की अवधारणा को और उसकी क्रियाविधि को ही समझेंगे। मैं इन तीनों शब्दावली के हिन्दी अनुवाद के फेर में नहीं पड़ने जा रहा, ताकि आपको कोई भ्रम नहीं हो। यहां हम उसकी "रक्षा क्रियाविधि" (Defence Mechanism) को भी नहीं समझने जा रहें हैं।

मानव मन की तीन अवस्थाएं होती है। पहली अवस्था Id की होती है, जो एक मानव मन में सहज, स्वाभाविक रूप में, यानि प्राकृतिक रूप में उत्पन्न होती है। इसे पाशविक प्रवृत्ति भी कह सकते हैं, क्योंकि यह सभी स्तनपायी पशुओं में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। यह शरीर के भौतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए अनिवार्य होता है। इसमें भोजन और यौन आनंद (Sex Pleasure) की सबसे प्रमुख भूमिका है। प्रकृति ने यौन आनंद के माध्यम से ही मानव की उत्तरजीविता (Survival) का सुनिश्चयन किया है। किसी व्यक्ति की Super Ego की अवस्था उस समाज की सांस्कृतिक मूल्यों एवं प्रतिमानों (Values n Norms) के अनुरूप उस व्यक्ति से उसके समाज को अपेक्षाएं (Expectations) होती है। इसे हम उस व्यक्ति के समाज की सामाजिक सांस्कृतिक भावनाओं, विचारों और व्यवहारों के उम्मीदों की अवस्था कह सकते हैं। एक मानव को अपने मन की पाशविक सहज प्रवृत्तियों  (Basic Instinct) और सामाजिक सांस्कृतिक आवश्यकताओं के बीच एक आवश्यक संतुलन बनाना होता है, जिसे ही Ego (अहम्) कहते हैं।

अर्थात एक मानव, जिसमें स्वाभाविक है कि इसमें महिला भी और इसके अन्य स्वरुप (Third Gender n Trans Gender) भी शामिल हैं, की भावनाओं, विचारों और व्यवहारों की व्याख्या इसी आधार पर किया जाना सम्यक, समुचित, वैज्ञानिक और आधुनिक होगा। इसीलिए यह व्याख्या संतोषप्रद भी होगा। बाकी अन्य व्याख्याएं भी इसी मूल अवधारणा की व्युत्पत्ति ही है। आप इस सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों एवं प्रतिमानों को समझने के लिए अब्राहम मैसलो का "अभिप्रेरणा सिद्धांत" (Theory of Motivation) को देख समझ सकते हैं, जो मानव मन को संचालित करने के लिए, यानि अभिप्रेरित करने के लिए प्रस्तुत है। लेकिन किसी व्यक्ति के जिद्द को यानि उसके बेवकूफी भरी हरकतों को समझने के लिए अब्राहम मैसलो का ही "हथौड़ा सिद्धांत" (Hammer Theory) को भी समझना चाहिए। यह जिद्द प्राधिकार प्राप्त व्यक्तियों के लिए लागू है, जिस पर हथौड़ा सिद्धांत स्पष्ट प्रकाश डालता है।

अब हम मानव मन की उलझनों को समझने के लिए एक सरलीकृत प्रस्तुति दे रहे हैं। आप भी अब्राहम मैसलो की पांचों अभिप्रेरक अवस्थाओं को जान समझ रहे हैं। तय है कि बच्चों की मानसिकता एवं व्यवहार संबंधी उलझनों को समझने के लिए यौन आनंद की अपेक्षा उसके भोजन और स्वास्थ्य सुरक्षा की आवश्यकता ज्यादा महत्वपूर्ण है। लेकिन जब कोई व्यक्ति युवा और प्रौढ़ावस्था में होता है, तो उसकी यौन आनंद की अनिवार्यता भी महत्वपूर्ण हो जाती है। हमें अब्राहम मैसलो की प्रेरक और बाध्यकारी अन्य अभिप्रेरक (Motive Drivers) आवश्यकताओं का ध्यान स्थिरता से रखना होता है। ध्यान रहे कि एक व्यक्ति अपने स्वीकरण (Self Actualization), आत्म संतुष्टि (Self Esteem), सुरक्षा, शारीरिक आवश्यकताओं और उसके सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों एवं प्रतिमानों के बीच संतुलित करने का प्रयास करता है। इसमें यौन आनंद यानि यौन संतुष्टि पर कई तरह के सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों एवं प्रतिमानों की कठोर संस्थागत ढांचा (Framework) और संरचना (Structure) का जाल (Web) बना हुआ होता है। परिणामस्वरूप लोगों को यौन आनंद की इच्छा या प्रवृत्ति को दबाना पड़ता है, या छिपाना पड़ता है। 

कभी कभी वैवाहिक जीवन में भी कार्य अधिकता, भौगोलिक दूरी, या अन्य कई कारणों से वैधानिक यौन साथी को पर्याप्त समय नहीं दिया जाता है। कभी कभी उच्च प्राधिकारों को बेहतर और सुविधाजनक यौन संतुष्टि का विकल्प भी मिल जाता है। तो ऐसी अवस्था मे किसी उच्चस्थ प्राधिकारों के Ego (अहम्) की क्रियाविधि की व्याख्याओं में इस महत्वपूर्ण कारक का ध्यान रखना होता है। अपराध अन्वेषण में भी जब कोई सूत्र स्वाभाविक रूप से और सहजता से स्थापित करना संभव नहीं होता है, तो अन्वेषक का ध्यान इस यौन आनंद के कारकों की ओर चला जाता है। जब कभी डिप्लोमेटिक संबंधों को भी समझने में उलझने आती है, तो यही सूत्र काम करता है।

अतः यदि आपके मानव मन को अपने आसपास या आपके किसी संज्ञान में आई किसी उलझन को समझने में कठिनाइयां हो रही है, तो आप उन उलझनों को समझने में महान मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड के मनोविश्लेषणात्मक अवधारणा को, अब्राहम मैसलो के अभिप्रेरणा सिद्धांत एवं हथौड़ा सिद्धांत, और इसमें यौन आनंद की प्रक्रिया को अवश्य ध्यान में रखिए, यह आपकी सारी उलझनों को सुलझा देगी। बशर्ते आपका विचाराधीन पात्र अपने यौवन की किस अवस्था में है। यहां यह भी ध्यान रहे कि यौन आनंद की अवस्था का शारीरिक उम्र की अपेक्षा मन की अवस्था यानि उमंग से ही है। 

अब आपकी किसी भी चीज को समझने की सभी उलझनों का समाधान मिल गया होगा।

आचार्य निरंजन सिन्हा

  स्वैच्छिक सेवानिवृत्त

राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।

  

 

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