(Indian
Muslim and Hamid Dalvai)
आज़ हमलोग वर्तमान भारत के एक राष्ट्र निर्माता हामिद दल्वई को
जानेंगे और इसी बहाने भारतीय मुसलमानों की वर्तमान स्थिति का आलोचनात्मक और
विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से सम्यक मूल्यांकन करना चाहेंगे। चूंकि सभी
समाज की वर्तमान स्थिति में आने या रहने का कारण और उसके भविष्य का प्रक्षेपण (Projection) उसके इतिहास में छुपा होता है, इसीलिए किसी भी समाज की वर्तमान स्थिति का कारण और
भविष्य का प्रक्षेपण जानने समझने के लिए उसके इतिहास
को वैज्ञानिक और आधुनिक विधि से समझना होता है। जो
कोई व्यक्ति या समाज आज जिस किसी भी स्थिति और अवस्था में है, वह अपने अब तक के सोच विचार के प्रतिरूपों (Pattern) के परिणाम है। और सोच विचार के इन्हीं स्थायी प्रतिरूपों
को ही उस व्यक्ति या समाज की संस्कृति (Culture) कहते हैं। और यह
संस्कृति उस व्यक्ति या समाज के अबतक के "इतिहास के बोध" (Perception of
History) का समेकित परिणाम होता है।
इसीलिए किसी भी समाज की 'सांस्कृतिक संरचना' (Cultural Structure), उसके बुनावट का विन्यास (Matrix) और समेकित प्रतिरूप
उसके "इतिहास बोध" में छिपा होता है। अतः हामिद दल्वई के इतिहास को
तलाशने के क्रम में 'इतिहास - लेखक' रामचन्द्र
गुहा की पुस्तक 'Makers of Modern
India' का अवलोकन किया। उन्होंने इस पुस्तक में आधुनिक भारत के निर्माण में
हामिद दल्वई के योगदान को गहराई से रेखांकित किया है। मैंने
रामचन्द्र गुहा को "इतिहास - लेखक" (History Writter) बताया
है, लेकिन इतिहासकार (Historian) नहीं
लिखा है। इन्होंने इतिहास की पूर्व लिखित सामग्री को पुनः व्यवस्थित कर इतिहास को
प्रस्तुत किया है, इसीलिए इन्हें "इतिहास - लेखक"
तो कहा, लेकिन इन्हें "इतिहासकार" नहीं कहा जाना
चाहिए। एक 'इतिहासकार' ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सामाजिक सांस्कृतिक रुपांतरण की विवेकपूर्ण
व्याख्या करता हैं। व्यक्तियों के नाम और घटनाओं का
विवरण - ब्यौरा तो इतिहास के उदाहरण होते हैं, स्वयं इतिहास
नहीं होता है। इस मंतव्य के संबंध में मुझे सर्व सहमति की अनिवार्यता भी नहीं है।
हामिद दल्वई (1932 - 1977) का जन्म महाराष्ट्र के उसी कोंकण
क्षेत्र में हुआं, जहां से गोपाल
कृष्ण गोखले और बाल
गंगाधर तिलक जैसे ऐतिहासिक व्यक्ति पैदा हुए। इन
दोनों (गोखले एवं तिलक) की राजनीतिक प्रगतिशीलता की पहचान के बावजूद भी इन पर 'सांस्कृतिक जड़ता' (Cultural Inertia) के आरोप लगा दिए जाते
हैं, लेकिन
हामिद दल्वई पर 'सांस्कृतिक जड़ता' का
आरोप नहीं लगाया जा सकता। इसके कई कारण व्याख्यापित
किए जा सकते हैं। इन्होंने "मुस्लिम सत्य शोधक समाज" की
स्थापना कर महात्मा ज्योतिबा फुले की सामाजिक सांस्कृतिक रुपांतरण की नयी धारा की परम्परा को आगे बढ़ाया,
जो हिन्दू संस्कृति की ही तरह मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों
के विरुद्ध था। वे भारतीय मुसलमानों की अभिवृति (Attitude)
को लोकतंत्र और आधुनिकता की ओर मोड़ना चाहते थे। चूंकि धार्मिक
मामले अतिसंवेदनशील होते हैं और बहुसंख्यक भारतीय समुदाय के हिन्दू धर्म में
लोकतांत्रिक एवं आधुनिक सुधार और संशोधन के लिए आन्दोलन तो चलाए जा रहे थे,
लेकिन भारत के बंटवारे में अधिकांश मुस्लिम बौद्धिको के पाकिस्तान
चले जाने से भारतीय मुसलमानों के बौद्धिक क्षेत्र में लगभग शून्यता पैदा हो गया था,
और इसीलिए हामिद दल्वई काफी संदर्भित हो गए।
दल्वई वैश्विक इतिहास में हो रहे बदलाव और प्रगति का सूक्ष्म अवलोकन कर
रहे थे, और उसने यूरोप के बदलाव और विकास को समझा। यूरोप के
विकास में लोकतांत्रिक मूल्यों की जागरूकता, एवं आधुनिकता और
वैज्ञानिकता के दृष्टिकोण होने की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी, इसलिए भारत को
भी समृद्ध,
विकसित और शक्तिशाली होने में सभी भारतवासियों में लोकतांत्रिक
मूल्यों की जागरूकता एवं आधुनिकता और वैज्ञानिकता के दृष्टिकोण पैदा करना अनिवार्य
था। बहुसंख्यक हिन्दुओं में तो इस दिशा में कई आन्दोलन चलाए जा रहे थे, लेकिन ऐसे में भारतीय मुसलमान उपेक्षित रह गया था। दल्वई ने आधी आबादी
यानि मुस्लिम महिलाओं के लिए "तीन तलाक़" प्रथा
और पर्दा प्रथा का सजगता और सतर्कता से विरोध किया। उन्होंने
धार्मिक नियमों (किताबों) को आधुनिकता, वैज्ञानिकता और
वर्तमान पारिस्थितिकी आवश्यकताओं के अनुरूप तार्किकता और विवेकशीलता पर परखने और
जांचने का जबरदस्त अपील और अनुरोध किया। वे भारत के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित
करने के लिए समान नागरिक संहिता के भी पक्षधर थे। भारतीय मुस्लिम समाज में अब सर
सैयद अहमद के व्यक्तित्व का अभाव हामीद दल्वई को प्रेरित कर रहा था। ये भी सर सैयद
अहमद की तरह ही आधुनिक शिक्षा पर जोर दे रहे थे, ताकि भारतीय मुसलमानों की
आलोचनात्मक चिंतन की अभिवृति बढ़े और चिंतन की दिशा में बदलाव आ सके।
हामिद दल्वई के लेखन के मराठी से अनुवाद उनके अभिन्न मित्र दिलीप
चित्रे ने किया था। रामचन्द्र गुहा अपनी पुस्तक में दिलीप चित्रे को उद्धृत करते
हुए लिखते हैं कि दल्वई ने हिन्दुओं की संकीर्णता को भी गहराई से समझ
कर उसमें भी सुधार के लिए आवाज दिया। मात्र 44 वर्ष की कम उम्र में दल्वई के गुजर जाने से उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के
मूल्यांकन में बाधा हो जाती है। इनका मानना था कि हिन्दुओं की आबादी पचासी प्रतिशत
तक है और इन हिन्दुओं के आधुनिक एवं शिक्षित बने बिना भारत एक आधुनिक, शक्तिशाली, समृद्ध और विकसित राष्ट्र नहीं हो सकता
है। इसके लिए हिन्दुओं और मुसलमानो के धार्मिक अंधविश्वासों को आधुनिक और वैज्ञानिक
दृष्टिकोण के अनुरूप बदलाव करना जरूरी है।
लेकिन भारतीय मुसलमानों की वर्तमान स्थिति और अवस्था का सम्यक
मूल्यांकन करने और उसकी मानसिकता की जड़ों तक पहुंचने के लिए उनके इतिहास को समझना
होगा। भारत की सांस्कृतिक एकापन के रहते हुए भी 'राजनीतिक कारणों को
धार्मिक आवरण' (Religious Veil of Political Reasons) देते
हुए भारत से पाकिस्तान को अलग होना पड़ा। धार्मिक आधार पर देश के विभाजन में
अधिकतर औकात और हैसियत वाले मुसलमान पूर्वी या पश्चिमी पाकिस्तान चले गए।, यानि अधिकतर सक्षम मुस्लिम बौद्धिक संपदा भारत से बाहर निकल गए। इस तरह भारत में किसान, मजदूर,
कारीगर और गरीब मुसलमान की बहुसंख्या के साथ साथ वे राष्ट्रवादी
विचारधारा के लोग भी रह गए, जो इस विभाजनकारी विचारधारा के
विरोधी थे, या अपनी जन्मभूमि यानि अपनी उस माटी को छोड़ना
नहीं चाहते थे जिसमें इनके पूर्वजों के इतिहास गहराई से जुड़ा हुआ था, या इन्हें भारतीय सामासिक (Composite) गौरवशाली
संस्कृति में विश्वास था। यह अलग बात है कि आज़ भारतीय सामासिक गौरवशाली इतिहास को
पुनर्व्याख्यायित या पुनर्व्यवस्थित किए जाने की भी चर्चा है। इनके भारत छोड़ने की
यह स्थिति उसी तरह थी, जैसे आज़ भी अधिकतर औकात और हैसियत वाले भारतीय
विदेशी नागरिकता प्राप्त करने के लिए लाखों की संख्या में भारत छोड़ रहे हैं। इस
तरह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध शताब्दी से भारतीय गरीब, अशिक्षित
और निम्न सांस्कृतिक अवस्था के मुसलमानों में अपेक्षित सुधार की अनिवार्यता ज्यादा
हो गई। ऐसे में हामिद दल्वई को याद किया जाना ही चाहिए।
भारतीय मुसलमानों की सांस्कृतिक जड़ता और वर्तमान स्थिति को समझने
में अधिकांश भारतीय इतिहासकारों की समस्या यह है कि वे इन समस्याओं की जड़ों के
इतिहास तक जाना नहीं चाहते हैं। इनकी सांस्कृतिक जड़ता और वर्तमान स्थिति भी
हिन्दू संस्कृति की सांस्कृतिक जड़ता और वर्तमान स्थिति ही तरह "सम्पूर्णता की आस्था" (Faith
in Completeness) का आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं करना है। इसका
तात्पर्य यह है कि हमारी आस्था जिसमें है, वह सम्पूर्णता की हद तक
सही है, और उसमें किसी भी संशोधन की आवश्यकता नहीं है। जहां
भी "सम्पूर्णता की आस्था" के भाव का मजबूत
होगा, वहां बदलते समय और आवश्यकता के अनुरूप भी उसका
मूल्यांकन भी नहीं किया जा सकता है और उस मूल्यांकन के अनुरूप संशोधन का विचार भी
नहीं आएगा। यूरोप में यानि पश्चिम में इसाई धर्म में राज्य को संस्कृति से यानि
राज्य को धर्म से अलग कर दिया गया, जबकि हिन्दू धर्म और मुस्लिम धर्म के नेतृत्व अभी भी
अपने धर्म को ही एक अलग "राज्य का प्रतिरूप" (A pattern of
State) मानते हैं। यहां ठहर कर विचार करना होगा। यह धर्म पर
सामंतवादी प्रभाव की विशेषता है, भले ही कोई बिना पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों के बिना भी इन
लक्षणों को स्वीकार करवाने के लिए इसे अति प्राचीनता की घोषणा करता रहे।
यह भी इतिहास है कि मुसलमानों के वैश्विक उदय के तुरंत बाद ही
वैश्विक सामंतवाद का उदय और विकास हुआ। भारत में भी
राजनीतिक सामंतवाद जल्दी ही आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और
सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी व्याप्त और प्रभावी हो गया। भारत के
अधिकांश प्रमुख भौगोलिक भू-भाग पर अधिकांश सर्वोच्च शासक मुसलमान ही थे, जो
राजनीतिक शासक ढांचे के सर्वोच्च शिखर थे। ध्यान रहे कि सामंतवाद में शासकों का एक पदानुक्रम (Hierarchy) होता
है। वर्तमान ऐतिहासिक व्याख्या के अनुसार भारत में
वैश्विक बदलाव के अनुरूप ही प्राचीन काल का समाप्त होना माना गया और इस सामंतवदी
युग की व्याख्या मध्य युग की तरह किया जाने लगा। सामंतवादी ढांचे का भी आर्थिक
आधार निम्नतर कृषक वर्ग ही था। इस काल में प्राचीन काल की अपेक्षा नगरों और नागरीय
कार्यों का पतन हुआ और भूमि पर यानि कृषि क्षेत्र पर दबाव भी बढ़ गया।
इस सामंतवदी ढांचे में जहां सर्वोच्च शिखर पर मुस्लिम धर्म के
अनुयाई थे, तो सामंतवाद के निम्न स्तर पर स्थानीय सामंत थे, जो
अधिकतर मुस्लिम धर्म के अनुयाई नहीं थे, बल्कि हिन्दू धर्म
के अनुयाई थे। सामंतवदी व्यवस्था ही किसानों के
अत्यधिक शोषण और आतंक पर आधारित होता है। भारतीय समाज में इस शोषण और अन्यायपूर्ण
व्यवहार को धार्मिक और सांस्कृतिक आवरण देकर इसका स्वरूप बदल दिया गया। निम्नतर
यानि स्थानीय सामंत हिन्दू धर्म से ही थे और सामान्य सभी आबादी भी हिन्दू ही
थी, जो जाति आधारित असमानता के भेदभाव पर टिकी हुई थी। ऐसी स्थिति
में बहुसंख्यक गरीब और सांस्कृतिक रूप में दबे हुए किसानों, मजदूरों
और कारीगरों ने स्थानीय स्वधर्म सामंतों के अत्यधिक शोषण और असमानतावादी व्यवहारों
से बचने के लिए अपनी धार्मिक आस्था ही सर्वोच्च सामंतों के धार्मिक आस्था के
अनुरूप बदल ली। यानि स्थानीय हिन्दू सामंतों के शोषण और
अत्याचार से बचने या कम होने की उम्मीद में हिन्दू धर्म को ही त्याग दिया। तय है
कि नयी आस्था स्थानीय एवं निम्न स्तरीय सामंतों की धार्मिक आस्था से अलग हो गयी। इन नव आस्था वाले लोगों ने पारिवारिक सम्पत्ति और सम्पदा की बंटवारे की तरह
ही अपने सामुदायिक सम्पत्ति और सम्पदा को भी बांट लिया, जिसमें
उनके "आस्था के भवन" (मंदिर आदि) भी
शामिल हैं, इसीलिए कहीं कहीं मंदिरों के साथ ही मस्जिद भी मिलते हैं।
धार्मिक आस्था बदल लेने से कोई सामाजिक सांस्कृतिक पीड़ा या
असमानता से मुक्ति पा लेने का दावा कर सकता है, लेकिन
मात्र धार्मिक आस्था में परिवर्तन कर लेने से उनमें कोई विशेष एवं विशिष्ट
शैक्षणिक, आर्थिक, जीवन शैली और
राजनीतिक बदलाव नहीं हो जाता। किसी के भी शैक्षणिक, आर्थिक,
जीवन शैली और राजनीतिक बदलाव के लिए सजगता एवं सतर्कता के साथ विशेष
एवं विशिष्ट प्रयास करने होते हैं। चूंकि इन अधिकांश
लोगों की हैसियत और औकात पहले भी यानि हिन्दू धर्म में भी शैक्षणिक, आर्थिक, जीवन शैली और राजनीतिक क्षेत्रों में
निम्नतर स्तर पर थी, और इसीलिए मात्र धर्म यानि आस्था बदलने
से भी इनकी शैक्षणिक, आर्थिक, जीवन
शैली और राजनीतिक हैसियत और औकात में कोई बदलाव नहीं हुआ। इनकी
सांस्कृतिक जड़ता पहले की ही तरह अंधविश्वास और कुरीतियों में डूबीं हुईं ही रह गई, यानि
इनकी मानसिकता यथावत रह गई। इसके लिए व्यवस्था की ओर से आजतक अपेक्षित प्रयास नहीं
हुए और स्थिति यथावत बनी हुई है। इतिहासकार इन पहलुओं
को छोड़ देता है और इनकी उत्पत्ति की प्रक्रिया की ओर नहीं जाता है। यह
सांस्कृतिक जड़ता आज भी निम्नतर और गरीब हिन्दूओं की ही तरह धर्म परिवर्तित
मुसलमानों में भी व्याप्त है, जो विभिन्न स्वरूपों और अवस्थाओं में अवलोकित होता
रहता है। ऐसे स्थिति में तो हामिद दल्वई की कृत्यों को
याद किया जाना जरूरी है।
सामंतवादी व्यवस्था में राजनीतिक भक्ति भी अनिवार्य है, और
इसके प्रभाव से सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक
और धार्मिक क्षेत्र में भी भक्ति व्याप्त हो गया। इससे विज्ञान
भी ठहर गया और लोगों की भक्ति भी अंधभक्ति में यानि अंध -आस्था में बदल गई। आस्था
के बढ़ने से विज्ञान विलुप्त होने लगता है, यानि तार्किकता और वस्तुनिष्टता समाप्त होने लगती
है। यह सभी समाज के सभी सांस्कृतिक क्षेत्रों में यानि हिन्दुओं और मुसलमानो में
व्याप्त हो गई। सभी पूर्वी संस्कृति की ही तरह मुस्लिम धर्म से जुड़ी भारत की
संस्कृति भी भारत भूमि की वृहत् संस्कृति की ही तरह ढोंग, पाखंड,
अन्धविश्वास, कर्मकांड की कुरीतियों में जड़
हो गया है। इसीलिए ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज और आम्बेडकर
के सामाजिक सांस्कृतिक सुधार आन्दोलन के साथ हामिद दल्वई भी खडे हैं।
हामिद दल्वई का यह भी मानना था कि हिन्दुओं और मुसलमानो के आपसी
द्वेष, शत्रुता और पूर्वाग्रह को मिटाने हटाने के लिए
इतिहास की आधुनिक और वैज्ञानिक व्याख्या किया ही जाना चाहिए। दरअसल लोग यह
समझते ही नहीं है कि इतिहास क्या होता है? इतिहास मात्र ऐतिहासिक काल का वर्णन ही नहीं होता है, बल्कि
मानवता के भविष्य को ध्यान में रखकर विवेकपूर्ण सामाजिक सांस्कृतिक रुपांतरण की
क्रियाविधि (Mechanism) को समझना होता है। ऐतिहासिक काल
की मूर्खतापूर्ण घटनाओं को मूर्खतापूर्ण बताना होता है। चूंकि यह "इतिहास का दर्शन"(Historiography) है,
इसलिए यह अलग विषय है, लेकिन दल्वई की निगाहें
यहां तक थी।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि व्यवस्था भी, यानि
शासन भी अपने से संबंधित संस्कृति और धर्म से जुड़ी सांस्कृतिक जड़ता को हटा कर
सम्पूर्ण समाज को गतिमान बनाने का सजग, सतर्क और समर्पित
प्रयास करता नहीं दिखता है।चूंकि हिन्दूओं और
मुसलमानो में एक ही तरह की सांस्कृतिक जड़ता है, और
प्रबुद्ध एवं समृद्ध हिन्दू समाज इस सांस्कृतिक जड़ता को दूर करना नहीं चाहता,
इसीलिए मुसलमानों की सांस्कृतिक जड़ता को हटाने की ओर ध्यान नहीं दे
सकता। मात्र एक दूसरे पर दोषारोपण और टिप्पणी से समाधान नहीं पाया जा
सकता। भारत को एक सशक्त, समृद्ध और विकसित राष्ट्र बनाने के लिए भारत के सभी
सामाजिक और सांस्कृतिक समाजों यानि वर्गों में व्याप्त सांस्कृतिक जड़ता को
वैज्ञानिकता और आधुनिकता के दृष्टिकोण से गतिशील करना ही होगा। अन्यथा भारत
के वैश्विक नेतृत्व का स्वप्न "दिवा स्वप्न" ही रह जाएगा। आप भी ठहरिये, ठहरने
से ही कोई गहराईयों में उतर सकता है।
आचार्य निरंजन सिन्हा
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