मंगलवार, 29 अगस्त 2023

सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन का मनोविज्ञान

(Psychology of Socio Cultural Change)

यह तय है कि किसी भी 'सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन का मनोविज्ञान’ (Psychology of Socio Cultural Change) या किसी भी 'सामाजिक सांस्कृतिक रूपान्तरण का मनोविज्ञान’ (Psychology of Socio Cultural Transformation) किसी वस्तु का, यानि किसी निर्जीव अस्तित्व का नहीं ही होगा, क्योंकि उसमें मन (Mind) नहीं होता और इसलिए उसकी संस्कृति भी नहीं होगी और विज्ञान भी नहीं होगा| यह ‘परिवर्तन का मनोविज्ञान’ अवश्य ही किसी सामाजिक सांस्कृतिक चेतनशील प्राणी का ही हो सकता है| पशु जगत के अन्य जीव भी चेतनशील होते हैं, लेकिन वे ‘सामाजिक सांस्कृतिक’ प्राणी नहीं होते हैं।

यहाँ हमें समुदाय (Community) और समाज (Society) में अंतर समझना होगा| ‘समाज’ ‘सामाजिक संबंधों’ का जाल (Network/ Web) है, जो सिर्फ मानवों में ही होता है, जबकि 'समुदाय' एक ‘सामुदायिक भावना’ पर आधारित एक ‘समूह’ (Group) होता है| संस्कृति उसी समाज में होती है, जहां परम्पराओं का सजग, सतर्क एवं सक्रिय निरंतरता बनाए हुए रखी जाती है। एक ‘समुदाय’ सामान्य जीवन के सञ्चालन के लिए होता है, जबकि एक ‘समाज’ इससे बहुत अधिक व्यापक होता है| एक ‘समुदाय’ में ‘सहयोग’ (Co-operation) अवश्य होता है, लेकिन एक ‘समाज’ में इसके अतिरिक्त और बहुत कुछ होता है| एक ‘समुदाय’ सीमित उद्देश्य पर आधारित होता है, जबकि एक ‘समाज’ एक व्यापक उद्देश्य की पूर्ति करता है| इसी कारण मानव पशुवत ‘होमो सेपियंस’ (Homo Sapiens) से ‘होमो सोसिअस’ (Homo Socius)  और ‘होमो फेबर’ (Homo Faber) भी बन सका|

तो हम एक ऐसे जीव और उसके समूह के सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन की बात कर रहे हैं, जिसका एक निश्चित ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक’ स्वरुप और संरचना होता है| यह जीव एक ‘पशुवत मानव’ (Homo Sapiens) है, जो एक ‘सामाजिक’ मानव (Homo Socius) भी है, एक ‘निर्माता’ मानव (Homo Faber) भी है, और इसीलिए यह सामाजिक सांस्कृतिक प्राणी है| इस मानव का ‘समुदाय’ भी होता है, ‘समाज’ भी होता है, और संस्कृति भी होता है| इसीलिए एक ही व्यक्ति एक ही ‘समाज’ में एक ही साथ किसी का पुत्र/ पुत्री हो सकता है, और उसी के साथ वह किसी पिता/ माता, दामाद/ बहु, पोता/ पोती, भतीजा/ भतीजी, मामा/ मामी इत्यादि इत्यादि कई अनगिनत संबंधों का पद धारित किये हुए हो सकता है| इसीलिए एक व्यक्ति पुरे गाँव या क्षेत्र का दामाद/ बहु मान लिया जाता है| स्पष्ट है कि एक व्यक्ति ‘समाज’ में एक ही साथ कई भूमिकाओं में कई उत्तरदायित्वों के साथ बंधा हुआ होता है, या जकड़ा हुआ होता है| यही सामाजिक सम्बन्धों का जाल है, जो सिर्फ मानवों में होता है, पशुओं या पशुवत समुदायों में ऐसा नहीं होता है| और इसी कारण मानव का ‘सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन का मनोविज्ञान’ होता है, जिसे समझे बिना समाज में और संस्कृति में ‘परिवर्तन’ चाहना हवा हवाई है|

जब कोई भी स्थिर होकर सामाजिक सांस्कृतिक सम्बन्धों के जाल में अपनी भूमिका, कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व का मूल्यांकन करता है, तो उसे ‘सामाजिक सम्बन्धों’ के जाल में सामाजिक स्थिति में अपनी ‘सांस्कृतिक जड़ता’ (Cultural Inertia) एवं ‘सामाजिक जड़ता’ (Social Inertia) का अहसास होता है| जैसे वस्तुओं की जड़ता (Inertia of Objects) को समाप्त करने के लिए अतिरिक्त ‘ऊर्जा’ (प्रयास) की जरुरत होती है, उसी तरह इन जड़ताओं को मिटाने के लिए भी अतिरिक्त ‘ऊर्जा’ (प्रयास) के साथ साथ ‘सजगता’ (Carefulness), ‘सतर्कता’ (Vigilance), सक्रियता एवं ‘मनोवैज्ञानिक समझ’ की अनिवार्यता होती है| इसीलिए मैं अक्सर कहता हूँ कि किसी भी नीति निर्धारण में, चाहे बदलाव का हो, या विकास का हो, आपको ‘इतिहास’ (History), ‘मनोविज्ञान’ (Psychology) एवं ‘दर्शन’ (Philosophy) की गहरी समझ होनी ही चाहिए|

इस तरह समाज में एक व्यक्ति एक पद के साथ कुछ अधिकार पाता है और उसके साथ कुछ अनिवार्य  उत्तरदायित्व का भी निर्वहन करता है, या करना होता है| इसीलिए ‘सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन’ की मुहिम चलाने वाले अधिकतर ‘क्रान्तिकारी’ नेतृत्व यानि नेतागण इस समझ के अभाव में कुछ नहीं कर पाते हैं, यानि ‘हवाई’ ही रह जाते हैं, और अपने ‘लक्षित समाज’ (Target Society) पर मूढ़ता (Foolishness) और जड़ता (Inertia/ Inertness) का आरोप लगाकर ‘आत्ममुग्धता’ में सराबोर रहते हैं| वे ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिशीलता’ (Socio Cultural Dynamism) और ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिहीनता’ (Socio Cultural Immobility) की संरचना और ‘सांस्कृतिक' संरचना एवं ढांचा की अनिवार्य क्रियाविधि (Mechanism) और संरचनात्मक (Structural) एवं ढाँचागत (Framework) समझ की ओर ध्यान ही नहीं देते, या उनको इसे समझने का स्तर ही नहीं होता| यहीं सामाजिक सांस्कृतिक ‘परिवर्तन का मनोविज्ञान’ समझना है| एक व्यक्ति का मनोविज्ञान कई दशाओं एवं अवस्थाओं के साथ ही उसका वर्तमान समाज और उसकी संस्कृति भी निर्धारित करता है, या नियंत्रित करता है, या हस्तक्षेप करता है, या नियमित करता है|

अब इतनी लम्बी भूमिका, जो इस ‘सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के मनोविज्ञान’ की अवधारणा को समझने के लिए आवश्यक भी था, को समझने के बाद इस ‘परिवर्तन के मनोविज्ञान’ को बड़ी स्थिरता से समझा जाय| कोई भी व्यक्ति किसी भी सामाजिक और सांस्कृतिक निर्णय में, चाहे वह व्यवहार हो, या विचार हो, या भावना से सम्बन्धित हो, अपने ‘दिल’ (Mind/ मन) और ‘दिमाग’ (Brain) दोनों का उपयोग करता है| ‘दिल’ से तात्पर्य ‘भावनात्मक’ (Emotional) अनुक्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं से है, और ‘दिमाग’ से तात्पर्य उसके ज्ञान (Wisdom) एवं तर्कशीलता (Logic) से है| ‘विवेकशीलता’ (Rationality) का उपयोग या प्रयोग ‘दिल’ एवं ‘दिमाग’ दोनों से होता है, यानि उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर निर्भर करता है| यह भी एक स्थापित सत्य है कि ‘दिमाग’ हमेशा ‘दिल’ से हार जाता है, यानि ‘भावना’ सदैव ‘बुद्धि’ यानि ‘ज्ञान’ एवं विवेक पर जीत हासिल करता है|

जिस समाज के बहुसंख्यक में ‘आलोचनात्मक चिंतन’ (Critical Thinking) की समझ, स्तर एवं क्षमता ही नहीं होती, उस बहुसंख्यक को कोई भी चतुर उड़ा ले जाता है, या बहा ले जाता है| लेकिन उस बहुसंख्यक को इस उड़ने की गतिशीलता में भी अपनी बौद्धिक समझदारी की गतिकी (Dynamics) का ही अहसास होता है| ‘आलोचनात्मक चिंतन’ में अनिवार्य रूप से विश्लेषण करना, मूल्यांकन करना, शंका करना, और उसका सामान्य निष्कर्ष निकलना शामिल होता है|

इसमें दूसरों के व्यक्तिगत मनोविज्ञान को समझकर उसकी कमजोरियों, डरों एवं लोभों से फायदा उठाना होता है| उसके सामाजिक एवं सांस्कृतिक जड़ता या विरोध को मुलायम (Soft) करने के लिए उसकी भावनाओं पर काम करना होता है| उनकी प्रिय चीजों को बने रहने का या उसकी आपूर्ति का आश्वासन दिया जाता है, और जिनसे वे डरते हैं, या जिनके खो जाने यानि नष्ट हो जाने से सशंकित हैं, उनकी निश्चितता की गारन्टी दिया जाता है| अगर कोई दूसरों (लक्ष्य) की भावनाओं की उपेक्षा करता है, तो ऐसे नेतृत्व नकार दिए जाएंगे, और उनसे वे बहुसंख्यक उस नेतृत्व यानि बदलाव के कर्ता से नफरत करने लगेंगे| इसीलिए राज्य को व्यक्ति के मन में यानि दिल में शासन करना होता है, उसके ‘समूह’ या ‘समुदाय’ या ‘समाज’ पर तो ऐसे ही सामाजिक और सांस्कृतिक नियंत्रण हो जाता है| यही  सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन का मनोविज्ञान है|

यदि कोई सामाजिक या सांस्कृतिक बदलाव करने वाला उपरोक्त मनोभावों का ध्यान नहीं रखता है, तो वैसे बहुसंख्यक (लक्षित वर्ग) आपको उनका ‘समय बर्बाद’ करने वाला मानते हैं ,और आपको ‘शत्रु’ मान लेते हैं एवं आपसे घृणा भी करते हैं| उनके दिल का दरवाजा खोलना ही पड़ेगा| पहले आपको उनका प्यारा बनना होगा| आप भी जानते हैं कि एक ‘सेल्समैन’ के ‘वस्तु’ के बिकने से पहले ‘सेल्समैन’ को ही बिकना होता है, यानि ग्राहक का प्रियपात्र बनना होता है| हमें हर सामने वाले को ‘महत्वपूर्ण’ एवं ‘सम्मानित’ महसूस कराना होता है| उनको समझने के मनोविज्ञान में इसका ध्यान रखा जाता है कि उनकी भावनाओं को, उनके संस्कृति को, उनके ज्ञान को नजरअंदाज नहीं किया गया है| उनके ‘प्रेम’, ‘नफरत’ एवं ‘ईर्ष्या’ के भाव को जगा देने से यानि उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया तीव्र कर देने उनका ‘आत्म नियंत्रण’ कमजोर हो जाता है| इसे ‘दिल’ को झकझोरना भी कह सकते हैं| इससे उनकी बौद्धिक तर्कशीलता, यदि कुछ है तो भी वह, उड़ जाती है और आसानी से नियंत्रित हो जाते हैं|

हर व्यक्ति ‘बदलाव’ की जरुरत समझता है, लेकिन वह आदतों एवं परम्पराओं में जकड़ा हुआ होता है| इसीलिए बहुत ज्यादा सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव उन्हें आदतन अटपटा लगता है, और इसीलिए ज्यादा बदलाव का विरोध किया जाता है, यानि स्वीकार नहीं किया जाता है| हमें परम्परा के प्रति सम्मान दिखाते हुए मामूली सतही बदलाव दिखाना चाहिए, भले यह एक क्रान्तिकारी बदलाव की आधारशिला साबित हो| यानि क्रान्तिकारी सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव को भी मामूली और सतही बदलाव दिखना चाहिए, ताकि परम्परा स्थिर और अपरिवर्तनीय दिखे| ‘बुद्ध’ को कल्याणकारी ‘शीव’ यानि ‘शिव; में बदलने की गत्यात्मकता (Dynamism) को सावधानी से समझा जा सकता है|

यह सामान्य मनोविज्ञान है कि लोग समाज के और संस्कृति के कुछ परम्परागत ‘संस्थाओं’ में और ‘व्यक्तियों’ में नवीनीकरण चाहते हैं, लेकिन इसके साथ जुड़े वैसे परिणामों से वे चिढ जाते हैं, जो उनकी परम्परागत व्यक्तिगत आदतों को बदलती है या बदलने का प्रयास करती है| वे जानते हैं और मानते भी हैं कि नवीनता बौद्धिक रूप से सही है, वैज्ञानिक है और समुचित भी है, लेकिन मन की गहराइयों में वे सांस्कृतिक जड़ता से जड़े हुए होते हैं| चूँकि बदलाव एक शून्यता यानि खालीपन पैदा कर देता है, और इसीलिए बड़ा बदलाव आदमी को परेशान और विचलित कर देता है| इसीलिए वे समाज में और संस्कृति में सतही परिवर्तन चाहते हैं, और मूलभूत आदतों को बदलना नहीं चाहते हैं| इसके लिए पुराने जीवन मूल्यों एवं परम्पराओं को उनके स्थान पर नए जीवन मूल्यों एवं परम्पराओं से प्रतिस्थापित करना होता है, ताकि बदलाव की शून्यता नहीं रहे| इससे परिवर्तन से सशंकित लोगों की चिंताएँ शान्त यानि क्षान्त रहेगी| इस मनोविज्ञान को समझ कर और ध्यान में रख ही पहले भी इतिहास में सांस्कृतिक बदलाव किया गया है, और आगे भी बदला जायगा|इसी से सामाजिक और राजनीतिक बदलाव भी हो जाता है। यह सब बाजार की शक्तियां करती है, जिसे इतिहास में ऐतिहासिक शक्तियां कही जाती है।

इस सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के मनोविज्ञान में बदलाव में पुराने पदनाम, स्वरुप, दिखावा, प्रक्रिया, संख्या, सामग्री के नाम, स्वरुप एवं संख्या को स्थिर रखा जाता है| इससे सामान्य जन अपने को सांस्कृतिक परम्पराओं से जुड़े रहने का अहसास कम नहीं होता है, और इसे इतिहास यानि सांस्कृतिक जड़ता का समर्थन मिलता रहता है| अर्थात उसका बाह्य ढांचा स्थिर रखते हुए उसकी आंतरिक संरचना बदली जाती है। इसीलिए इन तरीको के साथ हुए बदलाव का विरोध नहीं होता है| सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तनों को गुप्त रखने यानि छिपाने का एक तरीका यह है कि अतीत के सांस्कृतिक जीवन मूल्यों का जबरदस्त और सार्वजानिक समर्थन किया जाता है| ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्परा का भक्त दिखना आपके क्रान्तिकारी बदलाव के विचारों को आच्छादित कर छुपा देता है| पुराने स्वरुप के आवरण से पुरानी संस्कृति की उष्णता बनी रहती है, और लोगों की शंकाओं एवं बेचैनी को मुलायम, कम या समाप्त करती है| लोगो की निहित रुढिवादिता को उनकी गौरवशाली सांस्कृतिक परम्परा मान कर उसके प्रति अटूट निष्ठा दिखाना पड़ता है| इसे ही युग बोध का ध्यान रखना समझा जाता है| लोगों को ‘अतीत’, ‘सुख’ और ‘परम्परा’ को उपलब्ध करने या वापस दिलाने का आश्वासन बहुत अच्छा लगता है|

इस सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन या रुपांतरण में एक बात का और ध्यान रखना होता है कि जिन्हें सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव से लाभ नहीं होता है, या बदलाव से हानि होता है, वे बदलाव नहीं होने देना चाहते हैं| अत: संस्थाओं में मात्रात्मक स्थिरता (बाह्य दिखावटी स्वरुप) बनाए रखते हुए ही गुणात्मक (मौलिक) बदलाव किये जाते हैं| इस परिवर्तन के मनोविज्ञान को ही समझ कर कोई सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव कर सकता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

(मेरे अन्य आलेख, जो विविध विषयों पर है, को आप niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं)

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

एक पत्र पत्नी के नाम

बात उन दिनों (वर्ष 2005) की है, जब मेरी पदस्थापना कोषागार पदाधिकारी के रूप में प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु के शहर फारबिसगंज में हुई थी| फारबिसगंज भारत नेपाल सीमा पर सीमांचल के अररिया जिला का एक व्यावसायिक नगर है| रेणु जी का गाँव ‘औराही हिंगना’ इसी प्रखंड में है| योगदान देने के अगले रविवार को ही मैं औराही हिंगना में था| उनके घर पर काफी समय दिया, उस समय उनके बड़े और मंझले लड़के गाँव पर ही रहते थे| शाम में मैं वापस अपने आवास पर आया और उसी रात मैंने ‘रेणु’ जी के प्रेरणा से अपने जीवन का पहला आलेख “मैं क्या लिखूँ” लिखा| और इस तरह मेरे लिखने की शुरुआत हुई|

उन दिनों फारबिसगंज में मोबाइल सेवा बंद रहता था| मेरी पत्नी बच्चे के साथ पटना में रहती थी| एक रात मेरी नींद टूट गई| मैंने एक कार्ड बोर्ड पर पत्नी के नाम एक पत्र लिखा| इस पत्र को मेरे कम्पूटर आपरेटर मृत्युंजय ने लिख कर प्रिंट निकाल दिया| उसी समय एक सांस्कृतिक साहित्यिक पत्रिका – “परती पलार” के सम्पादक मेरे पास आए हुए थे, जिन्होंने इसे देखा| और इसकी एक प्रति ले ली और इसे अपनी पत्रिका में प्रकाशित भी कर दिया| ‘परती पलार’ का नाम रेणु जी की ऐतिहासिक कृति ‘परती परिकथा’ से लिया गया था| मेरे इस प्रकाशित पत्र की काफी प्रशंसा हुई|

पुन: आपके अवलोकनार्थ इस पत्र को प्रस्तुत कर रहा हूँ| शायद यह सबके लिए पठनीय है|

एक पत्र पत्नी के नाम

मेरी प्यारी रानी, नीलम,

     मैं समझता हूँ, मैं स्वीकारता हूँ कि मैं दुनिया का शायद सबसे सौभाग्यशाली व्यक्ति हूँ, जिसे तुम जैसी पत्नी मिली है|

    तुम प्यारी हो, सुन्दर हो - मन से, शरीर से, भावनाओं की अभिव्यक्ति में, व्यवहार में|

     तुम बेहतरीन सहयोगी हो| तुम दयालु हो, तुम्हारा मानव के प्रति जो प्रेम है, उस सन्दर्भ में भी महान हो| तुम उदार हो, समझदार हो, तार्किक हो| और मैं ऐसा सौभाग्यशाली हूँ कि तुम मेरी पत्नी हो|

     मैं तुम्हारी वित्तीय समझदारी एवं प्रबन्धकीय दुनियादारी का दिवाना हूँ| मैं ही नहीं, समाज के अनेक लोग, जो इस क्षेत्र के हस्ती हैं और तुम्हे जानते हैं; का भी ऐसा ही मानना है|

     तुम मेरे लिए मुस्कुराती हो| तुम्हारा मुस्कुराना, तुम्हारी हँसी, तुम्हारा खुशनुमा चेहरा मुझे बहुत अच्छा लगता है; चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो, चाहे समाज के स्थापित नियमावली से ही विचलित क्यों न होना पड़े| तुम जानती हो कि तुम्हारे मुस्कुराते रहने से मेरे भाग्य का विस्तार होता है| तुम्हारी मुस्कराहट से ही तो मुझे सुख, शांति और संतुष्टि मिलती है| तुम्हारी मुस्कुराहट के लिए मैं तुम्हे वह सब कुछ उपलब्ध कराने के लिए सदैव तत्पर हूँ, जो तुम्हारी मुस्कराहट के लिए जरुरी है| समय के अनुकूल चलना एवं दूर- दृष्टि रखना बेहतरीन नियम है| अर्धांगिनी की मुस्कराहट के बिना शायद ही किसी का सर्वोत्तम विकास होता है|

     मैं यह सोचकर ही बहुत खुश रहता हूँ कि तुम समझती हो, स्वीकार करती हो कि तुम्हारी मुस्कुराहट से ही हमें सुख, शांति, संतुष्टि मिलती है और इसे दिलाने के लिए तुम तत्पर रहती हो| ऐसी भावनाएं दुनिया में अनेक पत्नियाँ अपने पति के लिए रखती हैं, परन्तु व्यवहारिक परिणाम विपरीत होते हैं| चूँकि उनमे तार्किकता नहीं होती, इस स्तर का विचार नहीं होता, इस स्तर का व्यवहार नहीं होता, व्यवहार में लचीलापन नहीं होता, इसीलिए उनमे इच्छा के बावजूद स्थितियाँ विपरीत और भयावह होती है| इस सन्दर्भ में भी मैं धन्य हूँ कि तुम जैसी विचारवान, तार्किकता से परिपूर्ण, दयालुता के सागर सम, सहनशील, उदार, शिष्ट पत्नी मिली|

     तुमने बड़ी सहजता के साथ अपने को बेहतरीन बनाया है, परन्तु तुम्हारी मौलिकता के लिए मैं तुम्हारे (स्व०) पिता के साथ ही, तुम्हारी माता का और अपने (सम्पूर्ण) परिवार का भी आजन्म आभारी हूँ, कि तुम्हें ढालने में पूरा सहयोग दिया है|

     दुनिया में तुम्हारी जैसी ही पत्नी की संख्या करोडो- अरबों में हो .,,.. यही मेरी कामना है|

     पुन: तुमको पाकर मैं धन्य हूँ|

       तुम्हारा जीवनसाथी

            निरंजन 

सोमवार, 21 अगस्त 2023

आधुनिक इतिहास लेखन कैसा हो ?

यदि आप इतिहास लिखने चले हैं, या कोई इतिहास लिखने वाले हैं, या पढ़ने वाले हैं, तो आपको सबसे पहले यह जानना समझना होगा कि इतिहास क्या है? इतिहास क्यों आवश्यक होता है? इतिहास लेखन कैसे किया जाय? आधुनिक यानि वैज्ञानिक इतिहास लेखन क्या है? चाहे आप इतिहास किसी व्यक्ति का, किसी वर्ग का, किसी जाति का, किसी संस्कृति का, किसी राष्ट्र का, किसी अर्थव्यवस्था का, या किसी विज्ञान इत्यादि का लिख रहे हैं, आपको उपरोक्त बिन्दुओ एवं अवधारणाओं को अच्छी तरह से जानना और समझना चाहिए|

वर्तमान एवं भविष्य की नींव इतिहास में है, इसलिए इतिहास पढ़ें, इतिहास जानें, इतिहास समझें, और इतिहास को सुधारें, ताकि आप का, समाज का, राष्ट्र का एवं मानवता का वर्तमान एवं भविष्य को सँवारा जा सके| लेकिन इतिहास को आधुनिक और वैज्ञानिक होना चाहिए| आइए, इतिहास को आधुनिक, वैज्ञानिक और पुरातात्विक दृष्टिकोण से समझें|

यहाँ महान लेखक जार्ज ऑरवेल को एक बार याद कर लें| उन्होंने कहा था - “जो इतिहास पर नियंत्रण रखता है, वह वर्तमान और भविष्य पर भी नियंत्रण रखता है|”                                                              

इतिहास क्या है? (What is History?)

‘इतिहास मानव समाज का सामाजिक सांस्कृतिक रूपान्तरण का क्रमानुसार व्यवस्थित ब्यौरा है, जो तथ्यों, तर्कों एवं साक्ष्यों पर आधारित होता है’| यानि किसी भी काल एवं किसी भी क्षेत्र में मानव का सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण का कालबद्ध एवं क्रमबद्ध ब्यौरा ही ‘इतिहास’ है| इसे दुसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि “इतिहास मानव का सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण का क्रमानुसार विश्लेष्णात्मक मूल्याङ्कन का विवरण है”|  अर्थात इसमें मानव समाज का सामाजिक रूपांतरण भी शामिल है, और सांस्कृतिक रूपांतरण भी शामिल है| लेकिन इस रूपांतरण का विवरण या ब्यौरा विश्लेष्णात्मक (Analytical) भी होना चाहिए, और प्रकृति एवं मानवता के सापेक्ष यानि भविष्य के सापेक्ष इसका मूल्याङ्कन (Evaluation) भी होना चाहिए| इस पक्ष को शामिल किए बिना कभी भी एक सम्यक इतिहास रचा नहीं जा सकता है|

इस रूपांतरण को तत्कालीन ‘बाजार की शक्तियां’ (Market Forces) निर्धारित करती है, जो इतिहास के सन्दर्भ में ‘ऐतिहासिक शक्तियां’ (Historical Forces) कहलाती है| इसे ही वर्तमान में तत्कालीन यानि तात्कालिक शक्तियाँ भी कहते हैं| इन बाजार की शक्तियों यानि ऐतिहासिक शक्तियों में उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange) एवं उपभोग (Consumption) के साधनों एवं शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों की ही भूमिका प्रमुख है| इसी के कारण मानवीय संस्था, मूल्य, विचार, प्रतिमान, दृष्टिकोण, संस्कार, संस्कृति एवं इससे सम्बन्धित भौतिक स्वरुप भी बदल जाते हैं| मानवीय (मानव निर्मित) संस्था में विवाह, परिवार, समुदाय, राज्य, राष्ट्र, मुद्रा, बाजार, व्यापार, आस्था, आदि में परिवर्तन होता है, जिसे इतिहास के रूप में याद किया जाता है| समाज में इन ‘संस्थाओं के द्वारा किए गए क्रिया कलापों एवं उनके अंतर्संबंधों की शक्तियों एवं प्रभावों के कारण समाज में हुए परिवर्तन का क्रमबद्ध ब्यौरा ही इतिहास है’|

इस तरह, “मानव एवं उसके द्वारा निर्मित संस्थाओं (Institutions) के द्वारा प्रकृति में हस्तक्षेप से हुए सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण (Social Cultural Transformation) के क्रमबद्ध ब्यौरा (Chronological Details) को ही इतिहास” कहा जाता है| ये सब संस्था मिलकर इतिहास को प्रभावित करते हैं, और स्वयं भी इनसे प्रभावित होते हैं| इस तरह इतिहास में मानव समाज के समुदाय’, ‘समूह’, ‘परिवार’, ‘संगठन’, ‘संघ’, ‘वर्ग’, ‘जाति’ आदि के मूल्य, विचार, प्रतिमान, दृष्टिकोण, संस्कार, संस्कृति में परिवर्तन होता है, और इससे विवाह, परिवार, समुदाय, राज्य, राष्ट्र, मुद्रा, बाजार, व्यापार, आस्था, आदि में रूपांतरण भी होता है| इन्ही सब का विस्तृत एवं व्यवस्थित क्रमबद्ध विवरण ही इतिहास होता है| जब परिवर्तन अपेक्षाकृत स्थायी होता है, तो वह रूपांतरण कहलाता है|

दुसरे शब्दों में, ‘विचारों’ (Thoughts) एवं ‘चेतनाओं’ (Consciousnesses) के ‘उद्विकास’ (Evolution) की व्याख्या ही ‘इतिहास’ है| पुरे इतिहास में मानवीय विचारों एवं चेतनाओं का ही क्रमिक विकास का व्यवस्थित विवरण है, जो विचारों एवं चेतनाओं का ही प्रातिफल है| मानव की सभी गतिविधियाँ विचार एवं चेतना की अवधारणाओं की सीमाओं में समाहित हो जाती है, और इस तरह यह इतिहास को समेकित रूप में व्याख्यापित कर लेता है|

इतिहास में व्यक्तियों, शासकों, राज्यों आदि के नाम, तथ्य (Facts), तिथियाँ, और विवरण तो इतिहास के उदाहरण होते हैं, स्वयं इतिहास नहीं होता है| कोई विशेष राजा, उसका राज्य, उसकी शासन प्रणाली, युद्ध, तिथियाँ इत्यादि इतिहास के तथ्य हैं, इतिहास के उदाहरण मात्र हैं| ये तथ्य किसी बदलाव का, बदलाव की प्रक्रिया का एवं बदलाव के परिणाम का उदाहरण होता हैं| इसीलिए इतिहास के व्यक्तियों के नाम एवं घटनाओं के ब्यौरे तथा तिथियों की बारीकियां इतिहास में महत्वपूर्ण नहीं होती है| इसे स्थिरता से एवं गंभीरता से समझा जाय| इसी कारण इतिहास की आधुनिक पुस्तकों में सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण, उसके कारक शक्तियां, उनके क्रिया कलाप एवं प्रभाव तथा परिणाम का अध्याय होता है, शासकों के नाम का अध्याय नहीं होता है|

किसी का ‘इतिहास का बोध’ (Perception of History) ही उसकी संस्कृति के स्वरुप को निर्धारित करता है, यानि कोई अपने इतिहास को कैसे अपनाता है, यानि अपने इतिहास को कैसे समझता और स्वीकार करता है, और यही ‘समझ’ उसके संस्कृति के स्वरुप को निर्धारित करता है| इसके लिए इतिहास की प्रस्तुतिकरण भी महत्वपूर्ण है| यही संस्कृति 'मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों, एवं व्यवहारों' यानि “सोचने एवं क्रियान्वयन के सॉफ्टवेयर” के रूप में व्यक्ति को, परिवार को,  समाज को, राष्ट्र को, और मानवता को तथा अन्य संस्थाओं को संचालित एवं नियंत्रित करता रहता है| ‘इतिहास का बोध’ संस्कृति के रूप में इन सबों को यानि विचारों, भावनाओं एवं व्यवहारों को चेतनता (Consciousness), अचेतनता (Un Consciousness), अवचेतनता (Sub Consciousness) और अधिचेतनता (Super Consciousness) के स्तर पर संचालित और प्रभावित करता है| इस तरह, ‘इतिहास का बोध’ किसी के वर्तमान की नींव है और भविष्य को स्वरुप देता है| अर्थात इतिहास की समझ ही वर्तमान एवं भविष्य को निर्धारित एवं निश्चित करता है यानि वर्तमान स्वरुप देता है|

प्रो० एडवर्ड हैलेट कार ने ऐक्टन को उद्धृत करते हुए कहा है कि – “हम अपने जीवन में ‘अंतिम इतिहास’ नहीं लिख सकते, लेकिन हम ‘परम्परागत इतिहास’ को रद्द कर सकते हैं|” मतलब कि कोई भी इतिहास अन्तिम रूप में लिखा नहीं जा सकता है, परन्तु इतिहास के वर्तमान स्वरुप में सदैव परिवर्तन किया जा सकता है, या सदैव परिवर्तन किया ही जाना चाहिए| ऐसा इसलिए कि समाज का सन्दर्भ बदलते परिस्थिति एवं आवश्यकता के अनुरूप सदैव बदलता रहता है, यानि समाज की आवश्यकताएं सदैव बदलती रहती है, और इसीलिए इतिहास के वर्तमान स्वरुप को भी सदैव बदलते रहना चाहिए| चूँकि इतिहास भी एक सापेक्षिक विषय है, और इतिहास भी एक जैविक जीव की तरह ही है, इसीलिए एक इतिहास को भी सन्दर्भ एवं परिस्थितियों के अनुरूप बदलती रहनी चाहिए|

'ऐतिहासिक तथ्य' स्वयं 'इतिहास' के लिए कच्चा माल (Raw Material) नहीं होता, बल्कि  'इतिहासकार' के लिए कच्चा माल होता है| इन ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या एवं निर्धारण उन इतिहासकारों के पूर्वग्रहों एवं मान्यताओं से सुनिश्चित होता है| एक इतिहासकार को अपनी रचना के द्वारा जनता यानि समाज की सोच, विचार, संस्कार, आदर्श, मूल्य, मंतव्य, आशय (Intention), प्रयोजन (Purpose), लक्ष्य (Target), राय (Opinion), अवधारणा और दृष्टिकोण आदि को प्रभावित करना होता है| इसे प्रभावित करने का सबसे असरदार तरीका यह है कि वह इतिहासकार जो प्रभाव उत्पन्न करना चाहता है, उसी उद्देश्य एवं लक्ष्य के ही अनुरूप ही उपलब्ध तथ्यों एवं प्रक्रियाओं का उपस्थापन (Presentation) और व्याख्या (Explanation) करें| ध्यान रहे, तथ्य वही बोलता है, जो वह इतिहासकार उन तथ्यों से बोलवाना चाहता है|

जब तक आप एक इतिहासकार की मंशा (Intention) नहीं समझ लेते हैं, तब तक आप उस इतिहास को नहीं समझ सकते हैं| यह इतिहासकार कौन है और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि क्या है? किसी तथ्य या प्रस्तुतीकरण अपने आप में तबतक इतिहास नहीं बन जाता है, जब तक कि ये मानव के सामाजिक, संस्कृतिक एवं आर्थिक विकास यानि उन्नयन की गाथा में प्रासंगिक नहीं बन जाता| इतिहास का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि वह तथ्यों की व्याख्या करें, जो उसने समझा है या जो वह बताना या समझाना चाहता है, बल्कि वह समग्र समाज को मानवता एवं प्रकृति के भविष्य का भी ध्यान रखें| एक इतिहासकार अपने युग के साथ अपने मानवीय अस्तित्व के सुनहरे भविष्य की शर्तों पर जुड़ा  होता है| एक इतिहास में विश्लेषण (Analysis) भी होता है, मूल्याङ्कन (Evaluation) भी होता है, सभी संभाव्य प्रश्नों यानि शंकाओं (Inquiry) का समाधान भी होता है, इन सभी का एक सामान्यीकृत एवं सर्वव्यापक (Openness) स्वरुप भी होता है, और उपरोक्त सभी कुछ एक में संयोजित या संगठित (Unite) होता है| किसी इतिहासकार को वर्तमान की सर्वव्यापक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उसे अतीत के सन्दर्भ में लिखना होता है|

इतिहास महत्वपूर्ण क्यों? (Why History is Important?)

इतिहास क्यों महत्वपूर्ण है अर्थात इसका अध्ययन क्यों किया जाता है, या क्यों किया जाना चाहिए? इतिहास वह विषय है, जो मानव को और ज्यादा बुद्धिमान बनाता है| और यदि कोई ‘इतिहास लेखन’ मानव को और ज्यादा बुद्धिमान नहीं बनाता है, तो निश्चितया वह ‘लेखन’ इतिहास नहीं है, अपितु एक कथा वर्णन है| अर्थात इतिहास हमें विश्लेषण करना सीखाता है, तर्क करना भी समझाता है, विवेकशीलता भी बढाता है और वैज्ञानिक समझ भी विकसित करता है| किसी भी समाज की वर्तमान सोच, समझ, व्यवहार, मूल्य, प्रतिमान, आदर्श, संस्कार, संस्कृति, एवं गतिविधियों को अच्छी तरह समझने के लिए हमें उसके इतिहास को समझना होता है|

 “विचारों का जड़त्व” यानि ‘सांस्कृतिक जड़ता’ किसी को वही देखने या समझने को बाध्य करता है, जो वह आदतन अभी तक देख या समझ रहा होता है, या वह देखना एवं समझना चाहता है| एक अध्येता का उद्देश्य उसे उसी समय समझ में आता है, जब वह सावधान एवं सजग होता है| यानि इतिहास के अध्ययन में तीक्ष्ण, गहन, गहरा, सूक्ष्म एवं व्यापक विश्लेषण क्षमता के साथ साथ उसमे कार्य कारण सम्बन्ध और उपने सम्यक उद्देश्य की समझ के लिए आवश्यक विवेक भी होनी चाहिए| यह पाया गया है कि बहुत से क्रान्तिकारी व्यक्ति या समूह सामाजिक, या सांस्कृतिक, या आर्थिक, या शैक्षणिक क्रान्ति करना तो चाहते हैं और उसके लिए समर्पित भी हैं, परन्तु इसके लिए उन्हें कैसा इतिहास चाहिए, उसकी समझ ही नहीं है| वे इसके लिए किसी का विरोध करना ही क्रान्ति की कार्य विधि यानि प्रक्रिया का पर्यार्य समझ लेते हैं| ‘इतिहास’ की भूमिका किसी भी व्यक्ति एवं समाज में सृजनात्मक सोच एवं कार्य कैसे पैदा करता है? इस विषय पर कभी स्थिरता एवं गंभीरता से विचार एवं विमर्श किया ही नहीं जाता| जबकि यह सब अनिवार्य है|

कहा जाता है कि ‘कथानक (Narrative) ही जन समुदाय पर शासन करते हैं’| ‘कथानक’ क्या है? किसी भी विषय या सन्दर्भ में एक विश्वास करने योग्य कहानी ही कथानक है| चूँकि एक कथानक को विश्वास करने योग्य होना चाहिए, इसलिए यह विश्वास कथानक बनाने वाले की योग्यता एवं सुनने यानि मानने वाले की योग्यता के स्तर पर निर्भर करता है| यानि एक कथानक निर्माता को चतुर एवं श्रोता को नादा यानि नासमझ होना चाहिए, इससे एक कथानक की विश्वसनीयता अच्छी तरह से स्थापित होती है| एक कथानक एक मिथक के रूप में एक काल्पनिक कहानी हो सकता है, एक कथानक एक इतिहास के रूप में सत्य के निकट हो सकता है, या एक कथानक इतिहास एवं विज्ञान का आवरण ओढ़े एक महज कल्पना हो सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी कहानी में 'इतिहास का सुगंध' यानि 'इतिहास का छौंक' ही उस कहानी यानि कथानक को विश्वसनीय बनाता है|

अक्सर एक कथानक इतिहास बन कर समाज को प्रभावित करता रहता है, और इसीलिए एक कथानक को इतिहास के रूप में प्रस्तुत होना होता है| कथानक काल्पनिक हो, या ऐतिहासिक हो, उसे इतिहास के प्रसंग के रूप में ही आना होता है, या उसे इसी रूप में मान लिया जाता है| मतलब एक कथानक को इतिहास के रूप में प्रस्तुत किया जाता है| इतिहास के एक हिस्से या प्रसंग के रूप में प्रस्तुत होने से इसके प्रवाह में अच्छे अच्छे बुद्धिजीवी की ‘तथाकथित’ वैज्ञानिकता, प्रज्ञाशीलता एवं विद्बता बह जाता है| यह कथानक उनको बहा ले जाने या उड़ा ले जाने का बहुत ही आसान तरीका है|

किसी भी समय में किसी व्यक्ति, समाज एवं व्यवस्था की अवस्था उसकी सभ्यता एवं संस्कृति का समेकित (Integrated) परिणाम होता है| किसी भी समाज या व्यवस्था की संस्कृति उस समाज या व्यवस्था की वह मानसिक अवस्था (Mental Status) होती है, जो उसके विचारों (Thoughts), आदर्शों, संस्कारों (Rituals/ Impressions), मूल्यों, प्रतिमानों (Norms) एवं व्यवहारों (Behaviors) के समुच्चय (Set) से निर्मित होती है| और किसी भी संस्कृति की अवस्था या स्तर उस समाज एवं व्यवस्था के बारे में उन समाज के ‘इतिहास के बोध’ (Perception of History) से निर्मित एवं निर्धारित होता है| इस तरह किसी भी समाज एवं व्यवस्था का वर्तमान एवं भविष्य का विकास, समृद्धि, सफलता आदि भी उसके ‘इतिहास बोध’ से निर्मित एवं निर्धारित होता है|

इससे स्पष्ट है कि किसी भी समाज के विकास एवं समृद्धि के स्तर की जड़े उसकी इतिहास की व्याख्या पर निर्भर करती है| अपने वर्तमान संस्कृति में यानि लोगों के वर्तमान सोचने एवं विचारने के प्रतिरूप (Pattern) में अपने दृष्टिकोण के पक्ष में ‘पैरेडाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) करना पड़ता है| ‘पैरेडाईम शिफ्ट’ किसी भी अवधारणा, विचार, दृष्टिकोण एवं अभिवृति में बहुत बड़ा परिवर्तन है| इसे आप नए आधार यानि नए अवधारणा यानि नए सन्दर्भ पर आधारित होना भी कह सकते हैं| किसी भी वर्तमान को समझने के लिए उसके इतिहास को समझना होता है, क्योंकि किसी भी वर्तमान का स्वरुप या प्रतिरुप उसकी इतिहास की जड़ों से ही सिंचित एवं निर्मित होता है| कोई भी वर्तमान उनकी इतिहास की जड़ों (Roots) पर टिका होता है| इस तरह हम वर्तमान की जड़ों को समझ कर ही वर्तमान को सही, आवश्यक एवं समुचित ढंग से समझ सकते हैं| इसे समझ कर ही कोई भी वर्तमान की समस्यायों को सुलझा सकता है| इसी तरह हमें अपने भविष्य को बदलने के लिए भी वर्तमान में अपने इतिहास बोध को बदलना होगा| इसके लिए हमें नीव की क्षमता एवं संरचना को जानना एवं समझना होता है| इसी कारण अपने सुनहरे भविष्य के लिए हमें अपने इतिहास बोध को मानवीय, वैज्ञानिक, समुचित ,सम्यक, समेकित, न्यायपूर्ण एवं विस्तृत बनाना पड़ता है|

क्रोशे ने घोषणा की कि “सभी इतिहास ‘समसामयिक इतिहास’ होते हैं”| इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि इतिहास का लेखन ही वर्तमान की समस्यायों को सुलझाने के लिए होता है| इस तरह कोई अपने अतीत को यानि अपनी जड़ों को देख कर और समझ कर ही अपने वर्तमान को समझता है| अर्थात जैसे वर्तमान बदलता रहता है, उसी तरह इतिहास भी समय के साथ बदलता रहता है| एक इतिहासकार का मुख्य कार्य किसी घटना या व्यक्ति का ब्यौरा या विवरण (Details/ Description) देना ही नहीं है, अपितु उस समय के उस क्षेत्र विशेष की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पहलुओं एवं प्रतिफलों का मूल्याङ्कन (Evaluation) करना होता है और जनता को अपनी मनोवांछित इच्छा या व्याख्या से सहमत कराना होता है|

इतिहास वही है, जो एक इतिहासकार इतिहास के रूप में रचता है या बनाता है| एक इतिहासकार अतीत में जाकर वर्तमान और भविष्य को बनाता है और निर्धारित करता है| इस तरह एक इतिहास यानि अतीत सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना का वह आधार (Foundation/ Base) होता है, जिस पर समाज का वर्तमान एवं भविष्य की अधिसंरचना (Infrastructure) खड़ा किया जाता है| इतिहास को तर्क एवं तथ्यों की व्याख्या का संयुक्त स्वरुप माना जाता है| एक इतिहासकार भी उस इतिहास की जड़ता का शिकार होता है, यानि उस 'ऐतिहासिक जडत्व' (Historical Inertia) से बंधा हुआ होता है| लेकिन वह इस बन्धन को महसूस भी कर सकता है या नहीं भी कर सकता है|

इतिहास स्पष्टतया एक विज्ञान है| इसमें पहले तथ्यों की जांच होती है, फिर निष्कर्ष निकाले जाते है और इसे कुछ ऐतिहासिक सिद्धांतों पर कसा जाता है| लेकिन यहाँ इतिहासकार उन तथ्यों को वैसा ही समझता है, जिसे वह अपनी पृष्ठभूमि, अपनी पसंद, अपने दृष्टिकोण से देखता एवं समझता है| एक व्यक्ति, एक समुदाय, एक समाज, एवं एक राष्ट्र जैसा सोचता और समझता है, उसी के अनुरूप उसकी वास्तविकता एवं उसकी भौतिकता रूपांतरित होकर अपना भौतिक स्वरुप लेता होता है| इनकी सोच एवं समझ इनकी ऐतिहासिक संस्कृति से निर्धारित होता है, जिसका निर्माण उसके अपने इतिहास बोध (Perception of History) से होता है| संस्कृति किसी व्यक्ति, समाज, एवं राष्ट्र का समेकित एवं सम्पूर्ण मानसिक निधि है, जो उसे उसके परम्परा एवं पर्यावरण से प्राप्त होता है| यह परम्पराओं एवं संस्कारों के निर्धारित एवं निश्चित प्रतिरूपों से समाज में सीखा जाता है| कोई भी संस्कृति किसी समाज को संचालित, प्रभावित, नियंत्रित करने वाला एक साफ्टवेयर है| किसी भी सांस्कृतिक बोध की जड़ें उसकी ऐतिहासिक बोध में होती है| इसलिए संस्कृति रूपी साफ्टवेयर को बदलने एवं समझने के लिए इतिहास का अध्ययन किया जाता है| यह सब ही इतिहास का वैज्ञानिक दृष्टिकोण है| इसी दृष्टिकोण से किसी भी समाज, संस्कृति, क्षेत्र या राष्ट्र का इतिहास - लेखन होना चाहिए, ताकि वह अपने मानवीय एवं प्राकृतिक संसाधनों का महत्तम एवं समुचित विकास कर सके|

संक्षेप में, हमारी संस्कृति ही हमारे विचारों, संस्कारों एवं व्यवहारों को नियमित एवं संचालित करती है, और यही संस्कृति हमारे इतिहास बोध से उत्पन्न एवं निर्मित होती है| और हमारा इतिहास बोध हमारे इतिहास के अध्ययन एवं हमारी समझ से बनती है| इसीलिए हमें इतिहास के लेखन एवं अध्ययन को जानना एवं समझना चाहिए| इस तरह ‘इतिहास’ किसी भी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं मानवता के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है|

यदि कोई भी उपरोक्त विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन को समझता है, तो वह अवश्य ही आधुनिक एवं वैज्ञानिक इतिहास लिख सकता है, जो पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों एवं तथ्यों पर आधारित तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक एवं विवेकशील होगा| जहां पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों एवं तथ्यों को शोधों एवं अनुसंधानों में शामिल नहीं किया जाता है, वहाँ कथानक यानि मिथक ही शासन करता है| इसी सब के आधार पर इससे सम्बन्धित शोध एवं अनुसंधान किए जा सकते हैं|

जातीय इतिहास क्यों?

जाति एक भारतीय जमीनी वास्तविकता है, जिसके सामानांतर विश्व में कोई दुसरा उदाहरण नहीं है| इसीलिए बहुत से समाजशास्त्री ‘जाति’ का अंग्रेजी अनुवाद पुर्तगाली अवधारणा पर आधारित अंग्रेजी ‘Caste’ को सही नहीं मानते हैं, और ‘जाति’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘Jaati’ (Jati) ही रखने के पक्ष में हैं| जाति को भारतीय समाज में परिवार नामक संस्था का विस्तारित स्वरुप माने जाने के कारण ही एक जाति को ‘विस्तारित परिवार’ (Extended Family) भी माना जाता है| जाति समाज को विभाजित करने वाली जन्माधारित एक स्तरीकृत (Stratified) एवं पदानुक्रमण (Hierarchy) व्यवस्था है, जिसे एक जन्म काल में कभी बदली नहीं जा सकती है| यह जाति की मौलिक प्रकृति है|

जाति एवं वर्ण का कोई भी पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य प्राचीन काल से सम्बन्धित नहीं है, अर्थात किसी भी तथाकथित जाति एवं वर्ण का कोई भी अस्तित्व प्राचीन काल में नहीं था| यानि जाति एवं वर्ण की उत्पत्ति ही मध्ययुगीन है, जिसे ऐतिहासिक सामन्ती शक्तियों ने मध्य काल में जन्म दिया है| मध्य काल में जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था एक दुसरे के पूरक और एक दुसरे पर आधारित सामानांतर व्यवस्था थी| वर्ण व्यवस्था सामन्ती शासन की कार्यपालिका व्यवस्था थी, जो अपने अस्तित्व के लिए सर्वव्याप्त ‘गतिशील जाति व्यवस्था’ में कार्यरत भारतीय समाज पर आधारित थी|

प्रथम विश्व युद्ध की आहट ने प्रत्येक राष्ट्रों में जन समर्थन पाने के लिए ‘वयस्क मताधिकार’ की आवश्यकता को गहराई एवं गंभीरता से रेखांकित कर दिया| ब्रिटेन की संसद में उसी समय इसके सम्बन्ध में घोषणा की गयी| समाज के यथास्थितिवादी प्रबुद्ध लोगों को इस आहट एवं सुग्बुगाहट की समझ सबसे पहले हुई, जैसे पेड़ की फुनगी को हवा का रुख सबसे पहले पता चल जाता है| संभावित लोकतंत्र में वयस्क मताधिकार की शक्ति एवं आवश्यकता ने भारतीय विभाजित समुदायों को भावनात्मक रूप में गोलबंद करने की अनिवार्यता को स्पष्ट कर दिया| अब नए स्वरुप में इतिहास लेखन कर प्रथम तीन वर्ण को जाति बना कर और विलुप्त हो चुकी ‘शुद्र’ वर्ण को पुनर्स्थापित कर जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था का सम्मिश्रण तैयार किया गया| 'शुद्र' सामन्ती व्यवस्था में सेवक थे, जो अपनी क्षुद्र भूमिका एवं क्षुद्र (नगण्य) संख्या के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के काल में लुप्त हो गए थे| इस नए एवं सम्मिलित  सम्मिश्रित स्वरुप को इतिहास के अप्रचलित हो चुके अवधारणा “हिन्दू” का बहुप्रसारित उपयोग एवं प्रयोग किया गया| ध्यान दिया जाय कि जो सल्तनत काल में "वैदिक संस्कृति" हो गयी, मुग़ल काल में "ब्राह्मणी संस्कृति" हो गयी, फिर वही संस्कृति ब्रिटिश साम्राज्यवाद में "आर्य संस्कृति" हो गयी, प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर "हिन्दू संस्कृति" हो गयी, और वही अब "सनातनी संस्कृति" कहला रही है| सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण की इस क्रियाविधि  की गत्यात्मकता (Dynamism of Mechanics) को समझे बिना इसे नहीं समझा जा सकता है|  

हिन्दू व्यवस्था को मजबूत करने के लिए ‘जाति व्यवस्था’ को मजबूत करना, और जाति व्यवस्था को ऐतिहासिक साबित करना जरुरी हो जाता है| यही जाति व्यवस्था ही इस तथाकथित हिन्दू संस्कृति की निर्माण ब्लाक (Building Block) है| इसीलिए इस हिन्दू संस्कृति को गौरवशाली बनाना और सनातन स्थापित करना आवश्यक हो गया है| इसके लिए इतिहास को मिथक से मिलना आवश्यक हो जाता है। यदि यह सब नहीं किया गया, तो हिन्दू व्यवस्था का संरचनात्मक ढाँचा ही ध्वस्त हो जायगा| हिन्दू व्यवस्था का आधारभूत संरचनात्मक ढाँचा ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, 'करमवाद', ‘जाति एवं वर्ण’ पर आधारित है, और जाति एवं वर्ण व्यवस्था इसका महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है| इसीलिए व्यवस्था भी जाति को गौरवमयी बनाने का, इसके लौकिक व्यक्तित्व को अलौकिक बनाने का, जाति को सभ्यता एवं संस्कृति के उदय से सनातन, पुरातन एवं स्थायी साबित करने के अभियान का समर्थन करता है, और सहयोग भी करता है| इसे ही और इसे ही समझना जरूरी होगा|

इस अभियान में हम और हमारा समाज कहाँ है, इसका विश्लेष्णात्मक मूल्यांकन आपको करना होगा| सभी तथाकथित प्रगतिशील एवं क्रान्तिकारी वैचारिक्ताएं अपने विरोधियों द्वारा उपलब्ध कराये गए ढाँचे में ही और उन्ही के द्वारा परोसे गये सामग्रियों में विकल्प तलाश रही है| यानि उसी के मकडजाल में उलझी हुई और मृगतृष्णा में दौड़ दौड़ कर मंजिल पाने का विभ्रम पाले हुए है| इसका समाधान नवाचार और नवाविष्कार में ही है, जिसे प्रो० थामस सम्युल कुहन ने ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ कहा है|

अन्त तक बने रहने के लिए आपको सादर धन्यवाद |

आचार्य निरंजन सिन्हा 

रविवार, 20 अगस्त 2023

सत्य सदैव सही क्यों नहीं होता?

सत्य (Truth) सदैव सही नहीं होता है| 'सही' का अर्थ यहाँ ‘Correct’ भी है, समुचित (Proper) भी है, और उपयुक्त (Appropriate) भी है, क्योंकि ‘शब्दों का अपना कोई अर्थ नहीं होता है’| ‘शब्दों का अर्थ पाठक का होता हैं’, जो उनकी संस्कृति, उनके पारितंत्र (Ecosystem) एवं उनके इतिहास बोध (Perception of History) से अक्सर निर्धारित होता है| प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी फर्डीनांड डी सौसुरे तो शब्दों के ‘सतही’ (Superficial) अर्थ, ‘निहित’ (Implied) अर्थ, ‘भावात्मक’ (Emotional) अर्थ और ‘संरचनात्मक’ (Structural) अर्थ की ओर स्पष्ट रूप से ले जाते हैं| अर्थात प्रत्येक ‘सत्य’ का सतही अर्थ भी होता है, कुछ विशिष्ट लक्षित (Targeted) निहित अर्थ भी होता है, कुछ किसी की भावना को उकेरता हुआ या किसी गहराई से उखाड़ता हुआ और अपने बहाव में ‘उड़ा’ ले जाता हुआ अर्थ रखता है, या अपने संरचनात्मक बनावट के ढाँचे (Frame – Work) में डुबाता हुआ या उलझता हुआ अर्थ भी देता है|

अर्थात सत्य कभी भी एक स्थान और एक समय पर स्थिर नहीं होता है, लेकिन यह भी वस्तुओं की प्रकृति के अनुसार बदल भी जाता है| कहने का तात्पर्य यह है कि ‘भौतकीय’ सत्य एक स्थान और एक समय पर स्थिर हो सकता है, लेकिन ‘चेतनता’ युक्त वस्तुओं अर्थात जीवों का सत्य एक स्थान और एक समय पर स्थिर नहीं होगा| आप चेतनता को किसी के ‘मन’ (Mind) के रूप में समझ सकते हैं| आप भी जानते हैं कि किसी का मन उसके दिमाग (Brain) से अलग होता है, लेकिन किसी का दिमाग ही किसी के मन यानि आत्म (Self) का Modulator (मौडूलेटर – समझने योग्य अर्थ देने वाला) का काम करता है, और इसीलिए मन का दिमाग से अलग होते हुए भी एक दुसरे से पूरी तरह सम्बद्ध है|

अल्बर्ट आइन्स्टीन ने तो ‘सापेक्षवाद’ (Relativity) का सिद्धांत दे कर सभी कुछ को सापेक्षिक बना दिया| यानि परिस्थितियाँ (Situation) बदल दीजिए, सन्दर्भ (Reference) बदल दीजिए, पृष्ठभूमि (Background) बदल दीजिए, पारितंत्र (Ecosystem) यानि पर्यावरण बदल दीजिए, नजरिया (Attitude) बदल दीजिए, परिप्रेक्ष्य (Perspective) बदल दीजिए, किसी का सभी अर्थ ही बदल जाता है| जब एक ही सत्य के इतने रूप या स्वरुप उपलब्ध हैं, तो यह भी स्पष्ट है कि इसकी उपयोगिया, इसकी ग्राह्यता, इसकी स्वीकार्यता का स्तर भी भिन्न भिन्न होगा ही| तो सत्य के स्वरुप या प्रकार इतने क्यों हो जाते हैं, यह अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है|

क्योंकि किसी भी सत्य को व्यक्ति, वर्ग, समाज और संस्कृति की अनुमोदन (Approval) की आवश्यकता होती है और उसके बाद ही वह सही साबित हो सकता है| इसीलिए सत्य सदैव सही नहीं हो पाता है, यानि सत्य सदैव कारगर यानि असरदार नहीं हो पाता है| सत्य अक्सर सामान्य लोगों के लिए कठोर, निष्ठुर और विचलित करने वाला भी होता है, क्योंकि यह परम्परागत मान्यता यानि सोच यानि अवधारणा से भिन्न होता है, और इसीलिए सामन्य जनों की सामान्य आदत से भिन्न या विपरीत भी हो जाता है| इसी कारण एक सत्य हर व्यक्ति, हर वर्ग, हर समाज और हर संस्कृति को सहजता से, सरलता से और स्वभाव से स्वीकार्य भी नहीं होता है। एक अलग और भिन्न सत्य को जानने एवं समझने के लिए उसमे विश्लेष्णात्मक मूल्याङ्कन की क्षमता एवं स्तर चाहिए, जो सामान्यत: सामान्य लोगों मे होता ही नहीं है| इसी आवश्यक विशेषता को आजकल आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking) भी कहते हैं|

यह धारणा एक महज मिथक है, एक महाझूठ है कि सत्य हमेशा  कारगर होता है और इससे सदैव हर समस्या का समाधान पाया जा सकता है। लेकिन यह धारणा सदैव ग़लत भी नहीं है। यह भौतिक वस्तुओं के संदर्भों में है, यानि यह भौतिकीय वस्तुओं एवं इंजीनियरिंग के लिए पूर्णतया सही ही है| यह सत्य निश्चित ही है और इसी कारण इस पर आज विज्ञान, इंजीनियरिंग (अभियंत्रण) एवं तकनीक (Technology) का इतना विकास हो चुका है। सत्य सदैव भौतिक वस्तुओं के संदर्भ में पूर्णतया सही होता हैं, लेकिन जहाँ मन है, चेतना है, वहाँ भावना है और इसीलिए वहाँ स्थिति बदल जाती है।

इसीलिए यह भी कहा जाता है कि लोकतंत्र (Democracy) के भविष्य का निर्णय इस बदलते समय में लोकतंत्र के मतदाता वास्तव में नही करते हैं, बल्कि इस बदलते तकनिकी युग में मतदाता के मत का निर्णय उसकी संस्कृति (सम्प्रदाय/ पंथ), बाजार (Market), सत्ता (राज्य/ Authority), एवं तकनीक (डिजीटल तकनीक सहित) के ध्वजवाहकों का संयुक्त गठबंधन या ‘महासत्ता’ करता है| यानि यह महासत्ता मतदाता के मन को ही उड़ा ले जाता है, या बहा ले जाता है| अर्थात इस बदलते युग में मतदाता अब गणतंत्र (Republic) एवं लोकतंत्र का वास्तविक नियामक नहीं रह गया है, वैसे सभी कोई अपने अपने भ्रम (Illusion) या विभ्रम (Delusion) में जीने के लिए या मानने के लिए स्वतंत्र हैं|

‘विचारों के उपनिवेशीकरण’ के लिए यानि लोगों को ‘मानसिक गुलाम’ यानि दास बनाने के लिए यानि ‘अंधभक्त अनुयायी’ बनाने के लिए इतिहास, मनोविज्ञान एवं संस्थान का सक्रिय एवं उत्साही समर्थन की आवश्यकता होती है| संस्थान में सरकार सहित व्यवस्था एवं संस्कृति भी समाहित होता है| हमारी संस्कृति ही हमारे विचारों, संस्कारों, आदर्शों एवं व्यवहारों का नियामक एवं सञ्चालन कर्ता है, और हमारी संस्कृति हमारे इतिहास के बोध (Perception of History) से निर्मित होता है| यह मानवीय मनोविज्ञान की अनिवार्यता है कि अज्ञानी (डिग्रीधारी भी इसमें शामिल हैं) समाज में एवं अवैज्ञानिक संस्कृति में इतिहास का मिथकीकरण करना पड़ता है| किसी को भी नई या अलग सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवधारणाओं या प्रस्थापनाओं के स्वीकार्यता के लिए इतिहास को ढाल यानि बंकर यानि छत के रूप में सहारा लेना पड़ता है, और इसीलिए मिथक को एक इतिहास के रूप में प्रस्तुत होना होता है| इतिहास को सनातन, पुरातन, और गौरवमयी बनाया जाता है, या बताया जाता है, लेकिन इतिहास के आड़ में मिथक ही इतिहास बन जाता है|

इतिहास को मानव मन के अनुकूल या मतदाता के मन के अनुकूल ढालने में या ‘अंधभक्त’ बनाने में ही मिथक काम आता है| मिथक अपने लक्षित मानव मन या मतदाता मन या अनुयायियों के ज्ञात सोच, संस्कार एवं संस्कृति के इतिहास के अनुरूप तैयार कर उसे सहज, सरल एवं स्वीकार्य बनाता है| यह सब उन लोगों पर लागू होता है, जिनमे आलोचनात्मक चिंतन का स्तर एवं क्षमता नहीं होता है| अर्थात जो लोग साक्षर एवं डिग्रीधारी तो होते हैं, परन्तु वे तार्किक, तथ्यपरक, विवेकशील एवं वैज्ञानिक मानसिकता के नहीं होते हैं, और इसीलिए उनमे आलोचनात्मक चिंतन नहीं ही होता है| अर्थात उनमे विश्लेष्णात्मक क्षमता, मूल्यांकन क्षमता और शंका करने की या प्रश्न- प्रतिप्रश्न करने की क्षमता एवं स्तर नहीं होता है, तब उनके लिए मिथक ही वास्तविक इतिहास का काम करता है| मिथक को समझना सरल होता है और सत्य को समझना कठिन होता है। सत्य तार्किक एवं तथ्यात्मक होता है| मिथक के बेसिर पैर का होने के बावजूद मिथक को समझना मानना आसान होता है, क्योंकि मिथक वाचक समाज के प्रतिष्ठित, सम्मानित एवं आदरणीय होते हैं|

इसलिए सिर्फ सत्य के सहारे आप सदैव विजयी नहीं हो सकते। सत्य सर्वव्यापक हो सकता है, परन्तु स्थानीयता और इसलिए उसकी भौगोलिकता, संस्कृति, मान्यता, परम्परा, आदर्श, मूल्य एवं प्रतिमान आदि को महत्वपूर्ण बनाने के लिए ही इतिहास के स्थान पर मिथक को आना पड़ता है| मिथक इतिहास को मानने एवं समझने में सरल, साधारण एवं सहज बना देता है, और इस तरह मिथक की स्वीकार्यता एवं मान्यता बढ़ जाती है| इसीलिए मानव मन या मतदाता मन या अंधभक्त अनुयायियों के लिए सत्य प्रभावी नहीं हो पाता है| आपसे अनुरोध है कि इसके अग्रेतर चिंतन आप स्वयं करे, और मुझे भी अपनी टिपण्णी से लाभान्वित करें|

आचार्य निरंजन सिन्हा

(मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं)

शनिवार, 12 अगस्त 2023

आधुनिकता की उलझनें

(Entanglements of Modernity)

यदि कोई व्यक्ति डार्विन के उद्विकास के सिद्धांत (Theory of Evolution) को

जानता है और समझता भी है, फिर भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है,

और तदनुसार व्यवहार भी करता है, तो वह आधुनिकता की उलझनों में उलझा हुआ है|

यदि कोई व्यक्ति जानता है कि विश्व के सभी वर्तमान मानव एक ही व्यक्ति (होमो सेपियन्स) की संताने हैं, और यह भी जानता है कि सभी विभिन्नता उस समय के तत्कालीन पारितंत्र यानि पर्यावरण में बचे रहने के लिए प्राकृतिक अनुकूलन का ही परिणाम है, और फिर भी वह जाति एवं प्रजाति की भिन्नताओं में विश्वास करता है, तो वह अवश्य ही आधुनिकता की उलझनों में उलझा हुआ है|

यदि कोई व्यक्ति विज्ञान के मूल तत्वों को जानता है और

फिर भी आत्मा (आत्म नहीं) एवं पुनर्जन्म में विश्वास रखता है और

सम्बन्धित पाखण्ड, ढोंग, अंधविश्वास को अपनाता भी है,

तो वह अवश्य ही आधुनिकता की उलझनों में 

फंसा हुआ है|

और सबसे बड़ी बात यह है कि, 

यदि किसी व्यक्ति को आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking) करना नहीं आता है, यानि इसकी समझ नहीं है, तो वह व्यक्ति अवश्य ही आधुनिकता की ओर नहीं चल रहा है, और वह अभी आधुनिकता की उलझनों में उलझा हुआ है| ऐसा व्यक्ति इसीलिए किसी भी शब्द, वाक्य या सन्दर्भ के सतही (Superficial) अर्थ और उसका निहित (Implied) अर्थ की भिन्नता को नहीं समझ पाता है| अर्थात उसे अभिव्यक्ति के शब्दों, वाक्यों एवं सन्दर्भों की संरचनात्मक बनावट (Sructural Construct) की समझ नहीं है, और इसीलिए वह आधुनिक होने की समझ रख कर भी उसमे उलझा हुआ है|

तो आधुनिकता (Modernity) क्या है और उसकी उलझने (Entanglement) क्या है? क्या यह पश्चिमीकरण (Westernisation) ही है, या कोई भिन्न अवधारणा है?

आधुनिकता एक ऐसी अवधारणा है, जिसे अधिकतर लोग जाने समझे बिना ही आधुनिक होने का दावा करते हैं, या आधुनिक होना समझ लेते हैं| दरअसल पश्चिमीकरण यानि पश्चिम का नक़ल यानि अनुकरण को ही आधुनिकीकरण समझने का भ्रम पाल लेते हैं| आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण की अपेक्षा ज्यादा निरपेक्ष अवधारणा है, यानि पश्चिमीकरण एक सापेक्षिक अवधारणा है| इस गोलानुमा (Spherical) पृथ्वी पर पश्चिम का होना एक सन्दर्भ बिंदु के सापेक्ष होगा, जो सन्दर्भ बिंदु के सापेक्ष बदलता हुआ हो सकता है| हालाँकि पश्चिमीकरण अवधारणा पश्चिम जगत के अनुकरण करने के लिए प्रयुक्त है, जिसमे यूरोप एवं अमेरिका की संस्कृति का अनुकरण शामिल माने जाते हैं| और इसीलिए आधुनिकीकरण अवधारणा किसी क्षेत्र विशेष से बंधा हुआ नहीं है| अर्थात सभी आधुनिक व्यक्ति सिर्फ पश्चिम का ही हो, या सभी पश्चिमी व्यक्ति ही आधुनिक हो, ऐसा पूर्ण रुपेण संभव नहीं है|

इस तरह पश्चिमीकरण पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण है, जबकि आधुनिकीकरण अपनी संस्कृति को वैज्ञानिकता के अनुरूप ढालना है| ये दोनों यानि पश्चिमीकरण एवं आधुनिकीकरण किसी समाज की गत्यात्मकता (Dynamism) को समझने का उपकरण है, या अवधारणा है| समाज की गत्यात्मकता ही स्वाभाविक रूप में संस्कृति में बदलाव या रूपांतरण है| पश्चिमीकरण की अवधारणा प्रोफेसर मैसूर नरसिंघाचार श्रीनिवास ने और आधुनिकीकरण की अवधारणा डैनियल लर्नर ने दिया है| किसी को पश्चिमी बनने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता है, परन्तु किसी को आधुनिक बनने के लिए उसे सजग, सतर्क एवं निश्चित वैज्ञानिक प्रयास करना ही होगा| मतलब आधुनिक बनने के लिए ज्ञान यानि बुद्धिमत्ता की जरुरत होती है, और इसीलिए बहुत से डिग्रीधारी एवं पदधारी कोट पेंट पहनकर ही आधुनिक हो जाना समझ लेते हैं, जबकि उनके पास इसका ज्ञान एवं समझ ही नहीं होता है|

आधुनिकीकरण जहां समाज के लोगों का जीवन, संस्कार, मूल्य, आदर्श, संस्कृति, शिक्षा आदि को वैज्ञानिक बनाकर बेहतर बनाता है, वही पश्चिमीकरण मात्र पश्चिमी समाज एवं जीवन शैली का अनुकरण मात्र है| उदाहरण स्वरुप पश्चिम में ठण्ड के कारण भोजन करने में काँटा चम्मच का प्रयोग किया जाता है, और उसका गर्म देशों में भी उपयोग करना पश्चिमीकरण है, आधुनिकीकरण नहीं है| यह एक अलग बात है कि अधिकतर पश्चिमी देश विकसित हैं, और इसीलिए वहां आधुनिकीकरण भी बहुत हद तक सामानांतर क्रियान्वित है| इसी कारण बहुत से लोगों को पश्चिम का अनुकरण करना ही आधुनिकीकरण लग जाता है| दरअसल उनमे आलोचनात्मक चिंतन की कमी होती है| आधुनिकीकरण में विरासत की बहुत से अंधविश्वास, ढोंग एवं पाखंड को छोड़ना होता है, जबकि पश्चिमीकरण में पश्चिम के नक़ल करने से शुरू होता है|

इस तरह, आधुनिकता एक संस्कृति है, यानि जीवन जीने की शैली है, जिसमे मानवता, वैज्ञानिकता, प्रकृति यानि सम्पूर्ण परितंत्र, न्याय, शांति, विकास और स्थिरता को लक्षित कर जीवन अग्रसर होता है| आधुनिकता की उलझनें इसलिए अपने वजूद में हैं, क्योंकि हम पश्चिम का नक़ल कर अपने को आधुनिक समझ लेते हैं| जहाँ आधुनिकता होगी, वहाँ मानवता होगी| अर्थात वहाँ सभी मानवों में कोई नकारात्मक विभाजनकारी आधार नहीं होगा, चूँकि सभी एक ही होमो सेपियंस की संतान हैं| वैज्ञानिकता से तात्पर्य सभी विचारों, आदर्शो एवं व्यवहारों में कार्य- कारण सम्बन्ध होगा, तार्किकता होगी, तथ्यशीलता होगा और विवेकशीलता होगी| आधुनिक होने का एक आधुनिक शर्त यह है कि उसे अवश्य ही प्रकृति से प्रेम होगा, यानि पारितंत्र के संरक्षण एवं स्थिरता के लिए समर्पित भी होगा| वह अवश्य ही न्यायवादी होगा, यानि उसे समानता, समता, स्वतन्त्रता एवं बंधुत्व में विश्वास भी होगा| वह शांति प्रेमी होगा, यानि सहअस्तित्व उसके जीवन का आधार होगा| वह स्थिरता के साथ विकास का समर्थक भी होगा| वैसे वैज्ञानिकता एक व्यापक अवधारणा है, जो परंपरागत अंधविश्वास, ढोंग, पाखण्ड, भेदभाव से दूर प्रगतिशील विचारों, व्यवहारों एवं आदर्शों का व्यक्ति होगा|

अब तक स्पष्ट हो गया कि आधुनिकीकरण क्या है? आधुनिकीकरण की उलझने क्या है? समझ गए हैं| मैं किसी को भी यह भी नहीं कह रहा हूँ, कि कोई या आप भी आधुनिक ही हो जाइए| आप यथावत भी बने रह सकते हैं, लेकिन अपने भविष्य को यानि अगली पीढ़ी को तो आगे बढ़ने देने में सहयोग कीजिए, यानि आगे बढ़ने दीजिए| हमारी अगली पीढ़ी ही हमारे समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण मानवता का भविष्य हैं, जिन्हें वैश्विक स्तर पर बहुत कुछ समझना है, बदलना  है, और कई चुनौतियों को स्वीकार भी करना है| आधुनिकता सभी समस्याओं का समाधान है, क्योंकि इसमें ज्ञान है, विज्ञान है, मानवता है, न्याय है, तर्क है, प्रगति है, समृद्धि है, शांति है, स्थायित्व है|

आइए, हम आधुनिक बने, लेकिन पश्चिम का नक़ल नहीं करें|

आचार्य निरंजन सिन्हा

(मेरे अन्य आलेख आप niranjan2020. blogspot.com पर देख सकते हैं|)

 

गुरुवार, 10 अगस्त 2023

शासन करने का ‘डार्क’ मनोविज्ञान”

 (The ‘Dark’ Psychology to Rule)

आज मैं आपको शासन करने के “डार्क  मनोविज्ञान” (The Dark Psychology to Rule)’ को बताना समझाना चाहता हूँ| मैंने यहाँ अंग्रेजी शब्द ‘डार्क’ (Dark) का कोई हिंदी समानार्थी शब्द नहीं दिया है, क्योंकि कोई हिंदी शब्द यहाँ इसके लिए और उपयुक्त नहीं लगता है| किसी शब्दों के सही और सम्यक अर्थ वही होते हैं, जिसे सामान्य बहुसंख्यक जिस भावार्थ में उस शब्द से जो अर्थ संप्रेषित करते हैं| अंग्रेजी के डार्क (Dark) का अर्थ ‘गहरा रंग’, ‘साँवला’, ‘अँधेरा’, या ऐसा ही कुछ और हो सकता है, लेकिन यह सब सही होते हुए भी इस सन्दर्भ में हिंदी का कोई भी शब्द यहाँ सही एवं सम्यक नहीं है| इसीलिए ‘डार्क’ शब्द का वही भावार्थ रखने के लिए इसे हिंदी भाषा में भी ‘डार्क’ ही रहने दिया गया है| दरअसल यह ‘डार्क’ इसलिए है, क्योंकि इसकी यह क्रियाविधि (Mechanism) या प्रणाली व्यवस्था (Action System) ‘लक्षित सन्दर्भ’ के लिए गुप्त रहता है, यानि यह सब उसको अँधेरे में रख कर किया जाता है, यानि ‘डार्क’ जैसा होता है|

किसी भी शासन में मनोविज्ञान का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है| लेकिन यहाँ शासन करने के अर्थ में सिर्फ राजनीतिक शासन को ही शामिल नहीं समझा जाय| यहाँ शासन का विस्तृत एवं व्यापक अर्थ में इसकी संरचना एवं निहित आशय समझा जाय| इसमें पारिवारिक शासन, सामाजिक शासन, सांस्कृतिक शासन, राजनीतिक शासन, सहित अन्य शासन के स्वरुप समाहित किए जा सकते हैं| मैं नहीं जानता कि भारत में इस शासन विधा को कितने लोग या कितने समूह समुचित ढंग से जानते हैं| परन्तु यह तो निश्चित है कि यह “डार्क मनोविज्ञान” शासन करने का मूल, प्राथमिक, मौलिक एवं आवश्यक आवश्यकता है, यानि इसे हरेक शासक जानता है| हालाँकि यह ‘डार्क  मनोविज्ञान’ मानवीय मनोविज्ञान का नकारात्मक पक्ष है, अर्थात यह सामन्ती स्वरुप, यानि असमानता के व्यवस्था में, यानि अमानवीय शासन तंत्र के लिए अनिवार्य होता है|

आप भी जानते होंगे कि शासन करने के लिए ज्ञान के तीन ही अनिवार्य आधार स्तम्भ - दर्शन शास्त्र (Philosophy), इतिहास (History), और मनोविज्ञान (Psychology) होते हैं| अर्थात जो समाज या वर्ग इन तीन विषयों में मौलिक (Fundamental) एवं प्राथमिक (Primary) चिंतन एवं मनन मंथन कर नवाचारी (Innovative) निष्कर्ष नहीं निकाल सकता, वह शासन कर ही नहीं सकता, चाहे वह कितना भी संगठित और क्रान्तिकारी हो| यह एक वैश्विक एवं सर्वकालिक सत्य है| अर्थात हर शासक वर्ग इसे बखूबी जनता है, समझता है, और इसका सदुपयोग या दुरूपयोग करता है|

दर्शन शास्त्र (Philosophy) एक ऐसा विषय है, जो मानव के अस्तित्व, ज्ञान, तर्क, मूल्य, चेतना, आत्म, नैतिकता, नीति एवं अभिव्यक्ति जैसे विषयों से सम्बन्धित मौलिक प्रश्नों को दृष्टि देता है| यह इस विषयों का आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन कर सर्वव्यापक एवं सर्वकालिक निष्कर्ष निकाल कर शासन एवं समाज को दृष्टि देता है| यह शास्त्र उस काल में, उस समाज में, और उस परिस्थिति में समाज एवं शासन को वह तर्कसंगत एवं आलोचनात्मक दृष्टि (Vision) देता है, कि वह समय एवं समाज के पार यानि बहुत आगे का भविष्य देख सकता है, या देखता है| ‘दर्शन’ का सरल एवं साधारण अर्थ ‘देखना’ ही होता है|

इतिहास (History) हमारी संस्कृति (Culture) का निर्माण करती है, और हमारी संस्कृति हमें चेतन, अचेतन एवं अधिचेतन स्तर पर सदैव संचालित, नियंत्रित, नियमित, निर्धारित एवं प्रभावित करती रहती है| इस तरह इतिहास वर्तमान को समझने में सहायता करती है, और भविष्य को भी नियंत्रित करती है| स्पष्ट है कि हमारा इतिहास बोध (Perception of History) ही हमारी संस्कृति का निर्माण करती है| इतिहास सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण का क्रमानुसार विश्लेष्णात्मक मूल्यांकन विवरण होता है|

और मनोविज्ञान (Psychology)  वह विषय है, जो मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों, एवं विभिन्न संदर्भो में व्यवहारों का अध्ययन करता है| मनोवज्ञान मानव के विकास सहित जगत के उद्दीपक (Stimulus) एवं अवाधानिक प्रक्रियाओं (Attentional Procedures) तथा प्रत्याक्षिक प्रक्रियाओं (Perceptual Procedures) को समझाता है| इसमें मानव में अधिगम (Learning), स्मृति (Memory), चिंतन (Thinking), अभिप्रेरणा एवं संवेग (Motivation n Emotion) और अभिवृति एवं सामाजिक संज्ञान (Attitude n Social Cognition) आदि की प्रक्रियाओं को बताता एवं समझाता है| इससे हमें मानव एवं उसके समूह समाज को समझने में सहायता करती है|

स्पष्ट है कि उपरोक्त तीनों विषय में पारंगत और चिन्तनशील हुए बिना कोई भी स्थायी शासक नहीं बन सकता है| हाँ, एक बात याद रखिएगा कि रट्टू डिग्रीधारी तथाकथित हवाई बुद्धिजीविओं से कोई उम्मीद भी नहीं रखियेगा, क्योंकि ये रट्टू बुद्धिजीवी कदापि चिन्तनशील नहीं होते हैं| और इसीलिए एक रट्टू सृजनात्मक एवं सकारात्मक नहीं होते हैं|

लेकिन जहाँ और जिस सामाजिक तंत्र में या सामाजिक पारितंत्र (Social Ecosystem) में वास्तविक लोकतान्त्रिक व्यवस्था नहीं होती है, यानि मात्र दिखावटी राजनीतिक लोकतंत्र होता है, वहीं शासन करने के लिए मनोविज्ञान का नकारात्मक उपयोग की आवश्यकता होती है| मनोविज्ञान के नकारात्मक उपयोग को ही “डार्क  मनोविज्ञान” (Dark Psychology) कहते हैं| इसका ही उपयोग कर इतिहास, और इसीलिए संस्कृति को भी मनमाना स्वरुप दिया जाता है| इसमें मानवीय मनोविज्ञान का वह हिस्सा शामिल है, जिसके द्वारा कोई भी दूसरों के विचार, अनुभव एवं व्यवहार को अपने अनुसार बहा ले जाता है, या बहते रहते देना चाहता है| इसे नकारात्मक दिशा में चेतना यानि मन (Mind) को नियंत्रित करने का विज्ञान एवं कला का संयुक्त या समन्वित विधा (Mode) कह सकते हैं| यह ‘शक्ति की गत्यात्मकता’ (Power Dynamics) को समझ कर अपने लक्षित व्यक्ति या वर्ग को क्षति पहुंचा कर अपना लक्ष्य प्राप्त करता है, अर्थात इसके द्वारा किसी ख़ास समूह या वर्ग के तुच्छ लाभ को अन्य वर्ग को हनी पहुंचा कर प्राप्त किया जाता है| जब किसी सामाजिक सांस्कृतिक परितंत्र में लोकतान्त्रिक व्यवस्था किसी यथास्थितिवादी लाभार्थी समूह या वर्ग की अनुचित लाभ की निरन्तरता को नहीं रहने देता है, तो ऐसी स्थिति में यथास्थितिवादी लाभार्थी समूह या वर्ग ही मनोविज्ञान का नकारात्मक उपयोग करता है, जिसे ही “डार्क  मनोविज्ञान” कहते हैं|

“डार्क मनोविज्ञान” (Dark Psychology) के उपयोग में हेरफेर (Manipulation) एवं समझाने (Persuasion) के तकनीकों एवं रहस्यों पर आपको बाजार में कई पुस्तकें मिल जायगी, जो इस विषय को समझने में आपकी सहायता करेगी| इसे आप भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) और सामाजिक बुद्धिमत्ता (Social Intelligence) का दुरूपयोग या नकारात्मक क्षेत्र भी समझ सकते हैं| इस मनोवैज्ञानिक हेरफेर एवं मानाने तथा दबाब बनाने में एक मिथकीय यानि काल्पनिक या अर्ध काल्पनिक प्रसंग या कथानक गढ़ा जाता है, जिसका उद्देश्य गुप्त या भ्रामक रणनीति के द्वारा दूसरों के व्यवहार या धारणा को बदल देना या यथास्थिति में बनाये रखना या और मजबूत करना होता है| यह विचार, अनुभव एवं व्यवहार बदल देता है और इसमें अप्रत्यक्ष, धोखा या अन्य युक्ति लगाया जाता है| इसके द्वारा लोगो के उस विचार, अनुभव एवं व्यवहार में वह बदलाव किया जाता है, जो सामान्यत: उनमे अपने आप नहीं होता| इसमें व्यक्ति के तथाकथित अहम् (Ego) की रक्षा करने का प्रयास दिखाया जाता है, जिसे आप सिगमंड फ्रायड का “रक्षात्मक क्रियाविधि” (Defence Mechanism) समझ सकते हैं| 

अब  डार्क मनोविज्ञान के उपयोग करने के तरीके उदाहरण के साथ देखें, तो इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है| इसे सत्ता पाने में, या इसे यथावत बनाये रखने में किया गया उपयोग ज्यादा चर्चित होता है| इसके सामान्य तकनीकों को निम्न रूप एवं व्यापकता में व्यक्त किया जा सकता है -

अपनापन की बरसात (Rain of Affinity/ Closeness) –

इसमें सबसे पहले लक्षित समूह (Targeted Group), यानि जिन पर 'डार्क मनोविज्ञान' का प्रयोग किया जाना है, पर ‘अपनेपन की बरसात’ की जाती है| इसमें प्रयोगकर्ता यानि शासक वर्ग लक्षित समूह से अपनापन दिखाता है| किसी के भी प्रति अपनापन दिखाने या अहसास कराने के लिए क्षेत्रीयता, भाषाई, नस्लीय, जातीय (भारत में), धार्मिक या अन्य आधार को भावनात्मक बनाया जाता है| इस सभी में अपनापन का भावनात्मक अपील रहता है|दिमाग’ हमेशा ही ‘दिल’ से हार जाता है, यानि तर्क बुद्धि सदैव भावना से परास्त होता है| यदि इनमे कोई भी आधार उपयुक्त नहीं भी रहता है, तो किसी और को प्रतिद्वंद्वी बनाकर या बताकर अपनापन जताया जाता है| जैसे जहाँ ‘जाति’ एक प्रमुख एवं वास्तविक विभाजनकारी आधार है, और यदि यह बड़े समूह (तथाकथित हिन्दू) को एकत्रित करने के लिए उपयुक्त नहीं है, तो वहां ‘धर्म’ को अपनापन का आधार बताया जाता है| इसके लिए अपेक्षाकृत कम आबादी के अन्य धर्म (इस्लाम या ईसाई) का काल्पनिक हौवा खड़ा कर लक्षित समूह को अपना बनाया जाता है| इसके लिए इतिहास के नाम पर अनगिनत मिथक एवं कथानक रचे या गढ़े जाते हैं, या विरूपित (बिगाड़ना/ Distortion) किए जाते हैं| चूँकि ऐसे समूहों को बुद्धिजीवियों, मीडिया एवं व्यवस्था का समर्थन होता है, इसलिए इनका ‘डार्क मनोविज्ञान’ बहुत कम प्रयास में भी काफी प्रभावकारी हो जाता है|

अज्ञानता का साम्राज्य (Empire of Fools)  -

अज्ञानता को ही मुर्खता कहा जाता है, यानि एक अज्ञानी ही मुर्ख है| जब व्यवस्था ही ‘डार्क मनोविज्ञान’ का उपयोग करने लगती है, तो शासन अपने व्यवस्था के द्वारा अज्ञानता का प्रसार करता है, यानि उसमे स्थायित्व देता है| इसीलिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं सञ्चालन के अलावे शासन अन्य गैर शैक्षणिक कार्यों को ही प्रमुखता देता रहता है| किसी भी धुंध (Mist) में किसी को भी मनचाही यानि कल्पित चीज वास्तविक दिखने लगती है| अज्ञानता भी एक ऐसा ही धुंध होता है, जो लोगों की आलोचनात्मक, विश्लेषणात्मक एवं मूल्याङ्कन कम करता है, या उसे समाप्त कर देता है| शिक्षा को महंगा बना देने से यथास्थितिवादियों के बच्चे तो पढ़ लेते हैं, क्योंकि वे पहले से ही समृद्ध होते हैं| परन्तु सामान्य एवं गरीब के बच्चे अज्ञानी ही रह जाते हैं| इसी अज्ञानता के कारण उन्हें अपने हित एवं अहित का अंतर नहीं समझ पाते हैं और धूर्त की कोई भी बात आसानी से मान लेते हैं| स्पष्ट है कि ‘साक्षरता’ (Literacy) और ज्ञान (Wisdom) अलग अलग चीज है| ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग- नरक, आदि अवधारणा एवं उपयोग इसी अज्ञानता के उपकरण हैं|  

निष्क्रिय आक्रामक व्यवहार (Inert Aggressive Action) –

इसमें शासन या व्यवस्था अपने विरोधियों के बीच ऐसे ऐसे मुद्दे फेंकता रहता है, जिस पर तथाकथित हवाई बुद्धिजीवी अपनी बुद्धिमत्ता निकालते रहते हैं| यानि उसी मुद्दों के बीच तैरते रहते हैं, परन्तु शासन या व्यवस्था के मूल, मौलिक एवं प्राथमिक गलती या कमजोरी की ओर ध्यान नहीं दे पाते हैं, जिस पर प्रहार किये जाने से वह ध्वस्त हो सकता है| ये सभी तथाकथित हवाई बुद्धिजीवी तालियों की गडगडाहट सुनकर मस्त रहते हैं और सामान्य जन को भी एक हवाई क्रान्तिकारी नेता मिल जाता है| गंभीर चिंतन में तो सन्नाटा छा जाता है| इसीलिए समस्या जस का तस रहता है, और समय गुजरता रहता है| विरोधी एवं सामान्य शक्तियां ऐसे ही बकवास आन्दोलन में अपने समर्थकों के समय, संसाधन, उर्जा, ध्यान एवं उत्साह खींचे रखते हैं, जो अन्यथा उनका विकास करता| वैसे हर समाज में पके हुए, थके हुए, एवं बिके हुए लोग होते हैं, जिनकी बात मैं नहीं कर रहा हूँ|

इसका एक सुस्पष्ट उदाहरण “मूल निवासी” का आन्दोलन है| मूलत: यह आन्दोलन बहुसंख्यक आबादी के विरुद्ध नियोजित ‘डार्क’ मनोविज्ञान का उदाहरण है| इन आन्दोलन कर्ताओं का मानना है कि इनकी जीनिय शुद्धता हजारो वर्षों से यथावत बनी हुई है, और इसीलिए ये मूल निवासी हैं| अर्थात इनकी जातीय कार्यों की कुशलता एवं विशेषज्ञता की जीनिय संरचना एवं गुण हजारों वर्षों से यथावत बनी हुई है| इसीलिए ये जातियां अपने समाज और राष्ट्र को उसी क्षेत्र में महत्तम दे सकते हैं, जिनमें उनकी जीनीय विशेषज्ञता है, और हजारों वर्षों का अनुभव हो। कुछ शासन इनके हजारों वर्षों की जातीय कुशलता एवं विशेषज्ञता में और निखार लाने के लिए संस्थागत प्रयास भी कर रही है| बाद में जो ‘जाति’ ‘शिक्षा एवं शासन’ की विशेषज्ञता एवं कुशलता की जीनिय शुद्धता हजारो वर्षो से यथावत रखे हुए हैं,  उनके लिए ही शिक्षा एवं शासन आरक्षित किया जाना ‘मूल निवासी’ आन्दोलन का अंतिम लक्ष्य होगा| यह अंतिम लक्ष्य इनके समर्थकों को नहीं दिखता है, क्योंकि इनको शारीरिक आँखे तो हैं, परन्तु इनकी मानसिक आँखों (Vision) का अहसास शायद इन्हें नहीं हो| यह भी डार्क मनोविज्ञान का उपयोग है|इस पैरा को दुबारा पढ़ा जाय।

तथ्यों में छेडछाड (Manipulation in Facts) –

आज सूचनाओं और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का युग है, एवं लोगों की व्यस्तता भी बहुत बढ़ गयी है| ऐसी स्थिति में सूचनाओं में हेरफेर करना यानि छेडछाड करना या बिगाड़ना बहुत आसान है| ऐसी सूचनाओं में विडिओ, फोटो, आवाज, टेक्स्ट आदि मूल स्वरुप को बिगाड़ कर मनमानी स्वरुप दिया जा रहा है| इसकी सत्यता को जानने के लिए सामान्य लोगों में विश्लेष्णात्मक मूल्याङ्कन का स्तर नहीं है, और यदि यह स्तर है तो उनके लिए समय नहीं है, और यदि यह दोनों है भी तो उनके सत्य उदघाटन को सर्वव्यापक करने को मीडिया का समर्थन नहीं है| ऐसे में तथ्यों में जो छेड़छाड़ व्यवस्था के समर्थन में होता है, उसे व्यवस्था का यानि उस नागरिक समाज वर्ग का समर्थन भी मिलता है और उसके विरुद्ध कुछ नहीं होता है| ऐसे तत्वों द्वारा प्रिंट, डिजीटल एवं अन्य मीडिया में भ्रामक, या त्रुटिपूर्ण, या गलत, या विरूपित तथ्य प्रस्तुत किया जाता है| किसी स्थापित व्यक्ति या सन्दर्भ या घटना को आधार बनाकर गलत तथ्य प्रस्तुत किया जाता है, जिसके उदाहरण भरे पड़े हैं| ऐसे बिगडे स्वरुप पर सामान्य साधारण जन आसानी से सहमत होकर ‘डार्क’ मनोविज्ञान के शिकार हो जाते हैं| यदि मीडिया तंत्र समर्थन में होता है, तो कई गलत, भ्रामक, विरूपित किया गया काल्पनिक बातें भी बार बार कई माध्यमों से और कई भिन्न भिन्न तरीकों से प्रस्तुत कर ‘सत्य’ साबित करा दिया जाता है| इसके द्वारा लोगों को ‘डर’ एवं ‘लाभ’ जैसे मनोवैज्ञानिक तत्वों या कारकों का उपयोग कर समाज को भ्रमित किया जाता है|

इन सभी से कुछ छोटे समूहों को तो लाभ होता है, परन्तु 'डार्क मनोविज्ञान' से सम्पूर्ण राष्ट्र एवं मानवता का बहुत बड़ा नुकसान होता है| इसे इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा, और आगामी पीढ़ी ऐसे तत्वों से अपना सम्बन्ध बताने से भी बचना चाहेगा| मनोविज्ञान का सकारात्मक उपयोग किया जाना चाहिए, ताकि समाज, राष्ट्र और मानवता सशक्त एवं समृद्ध हो सके| लेकिन सत्ता की जड़ता (Inertia of Power) अपनी गति जारी रखेगी, जबतक कि लोग जागरूक होकर सावधान नहीं हो जाते|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

बुद्ध और बुद्धि

  विशिष्ट बुद्धि वाले व्यक्ति को बुद्ध कहा जाता रहा है| बुद्ध और बुद्धि में बहुत गहरा संबंध है और यह संबंध भी प्रत्यक्ष है| दरअसल बुद्ध एक ...