रविवार, 28 अप्रैल 2024

बुद्ध और बुद्धि

 

विशिष्ट बुद्धि वाले व्यक्ति को बुद्ध कहा जाता रहा है| बुद्ध और बुद्धि में बहुत गहरा संबंध है और यह संबंध भी प्रत्यक्ष है| दरअसल बुद्ध एक संस्था का नाम भी था, और उस संस्था के सदस्य के रूप में कई बुद्ध हुए, जिन्हें “बुद्धत्व” की प्राप्ति हुई थी| इनमे सबसे महत्वपूर्ण बुद्ध गोतम (पालि में गोतम, एवं संस्कृत तथा हिंदी में गौतम) हुए, जो इस “बुद्ध” की परम्परा की कड़ी में सबसे अंतिम हुए, और जिन्होंने अपने प्राप्त विशिष्ट “वैज्ञानिक प्रज्ञा” के साथ साथ अपने पूर्व के सभी बुद्धों द्वारा प्राप्त ज्ञान-विज्ञान को सकलित किता, सम्पादित किया एवं अंतिम स्वरुप भी दिया| दरअसल ‘बुद्धत्व’ को प्राप्त करने वाले को “बुद्ध” कहा जाता रहा, और इसीलिए ‘बुद्धत्व’ “बुद्धि” की एक विशिष्ट एवं सर्वोच्च उपाधि हो गयी| इस तरह,‘गोतम बुद्ध’ ‘बुद्धत्व’ की परम्परा में 28 वें ‘बुद्ध’ हुए|  ‘बुद्धत्व’ किसी व्यक्ति विशेष को प्राप्त बुद्धि की एक विशिष्ट अवस्था है, एक सम्मान है, और यह सर्वोच्च स्तरीय विशिष्ट बुद्धि की उपाधि हो गई| इसीलिए ‘बुद्धि’ के अनुयाई को बौद्ध कहा जाता रहा और आज भी कहा जा सकता है।

यह अलग बात है कि आजकल लोग इसे परम्परागत धर्म के रूप में समझते और मानते हैं| परम्परागत धर्म के रूप में मान लेने से ही इसमें अन्य परम्परागत धर्म के अनिवार्य तत्वों को स्थापित कर देना पड़ता है, यानि अन्य परम्परागत धर्म के अनिवार्य तत्वों को इसमें मान लेना पड़ता है| और इसीलिए इसमें भी किसी भी अन्य परम्परागत धर्म की ही तरह बुद्धि का स्थान या भूमिका महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है, या नहीं ही रह गया है| अब कोई भी गोतम बुद्ध का चित्र या मूर्ति लगाकर और उसी एक खास तरह का वस्त्र धारण कर बौद्ध बनने की कोशिश करता है| अन्य परम्परागत धर्म के अनिवार्य तत्वों को भी जान लेना चाहिए| अन्य परम्परागत धर्म के अनिवार्य तत्वों में दो ही तत्व – “ईश्वर” (God) एवं “आत्मा” (Soul) महत्वपूर्ण होते हैं, और इसके अन्य सभी तत्व – पुनर्जन्म, कर्म का सिद्धांत एवं स्वर्ग- नर्क तो सिर्फ इन्हीं दोनों के ही सहायक या सह- उत्पाद होते हैं| इसीलिए कुछ लोगों द्वारा अन्य परम्परागत धर्म की ही तरह भगवान बुद्ध से भी एक ईश्वर की ही तरह कुछ प्राप्त करने की कामना की जाती है, जबकि बुद्ध मात्र एक पथ- प्रदर्शक ही थे| बुद्ध एक मात्र गुरु थे, और इसीलिए वे ईश्वर के अस्तित्व के ही विरोधी थे| बाद के काल में इसी तरह बुद्ध के “आत्म” (Self) को “आत्मा” (Soul) बना कर सब घालमेल कर दिया गया है|

लोग ‘बुद्धि’ यानि ‘समुचित ज्ञान’ की अवधारणा को समझे बिना ही बौद्ध होने यानि बुद्ध के अनुयायी होने की घोषणा करते हैं। इस ‘बुद्धि’ के उदय को समझने के लिए आपको ऐतिहासिक काल में पीछे जाना होगा, यानि बुद्धों का उदय क्यों हुआ?| ध्यान रहे कि गोतम बुद्ध के काल से कोई साढ़े सात हजार साल से पहले पाषाण युग था, अर्थात ‘पत्थर’ पर ही जीवन आधारित था| आप भी जानते हैं कि आज से कोई दस हजार साल पहले के काल को नवपाषाण काल बताया जाता है, मतलब कि उस काल तक सभ्यता एवं संस्कृति का उदय ही नहीं हुआ था|| इसी पाषाण यानि पत्थरों के युग के बाद ही धातु युग आया, जिसमे पत्थरों की निर्भरता समाप्त हो गई| अर्थात धातु के प्रयोग एवं उपयोग के साथ ही लोग पहाड़ों से उतर कर नदी घाटियों में बसना शुरू कर दिया था| धातुओं के उपकरण, औजार, हथियार आदि पत्थरों की तुलना में ज्यादा परिष्कृत हुए और जीवन ज्यादा सुगम एवं सरल हो गया|इसी धातुओं के साथ ही पशुओं एवं पौधों का ‘घरेलुकरण’ (पालतू बनाने का कार्य – Domestication) का काम तेजी से शुरू हो गया| कृषि एवं पशुपालन के साथ ही ‘खाद्य पदार्थो’ का अत्यधिक (Surplus)  उत्पादन होना संभव हो सका| इससे उसमे, यानि कृषि कार्य एवं पशुपालन में जितने आदमी लगे हुए थे, उनके खपत से ज्यादा खाद्य सामग्री का उत्पादन एवं भण्डारण होने लगा| ऐसी स्थिति में वैसे लोगों के लिए भी खाद्य पदार्थ समुचित एवं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो गया, जो कृषि एवं पशुपालन से भिन्न कार्य कर सकते थे|

इसी खाद्य पदार्थों की सुनिश्चितता के साथ ही अर्थव्यवस्था के द्वितीयक प्रक्षेत्र (Secondary Sector) एवं तृतीयक प्रक्षेत्रों (Tertiary Sector) का उदय होने लगा| लोग अब अन्य वस्तुओं का उत्पादन करने लगे, जो कृषि एवं पशुपालन से उत्पादन, भंडारण के अतिरिक्त जीवन के अन्य पहलुओं को सुगम और सरल बना रहा था| अर्थव्यवस्था के तीसरे प्रक्षेत्र में कृषि, पशुपालन एवं खनन के लिए सेवा प्रदाताओं का भी उदय होने लगा, यानि इसके ही साथ परिवहन, व्यापार एवं वाणिज्य का उदय हुआ| इसी के साथ कई संस्थाओं – विवाह, परिवार, शासन, सत्ता, मुद्रा, आदि का भी क्रमश: उदय होने लगा| इसी के साथ ही चतुर्थक प्रक्षेत्र (Quaternary Sector) एवं पंचक प्रक्षेत्र (Quinary Sector) का भी उदय संभव हो सका, जो क्रमशः "बुद्धि के विकास" और "नीति निर्धारण" से संबंधित था। बुद्ध इन्हीं दोनों प्रक्षेत्रों में कार्य कर रहे थे। इस सब के लिए जो समझ यानि ज्ञान (Knowledge) चाहिए था, उसे ही भारत में बुद्धि (Intelligence) कहा गया| इसी बुद्धि के उदय से सभ्यता (Civilisation) और संस्कृति (Culture) का उदय और विकास हुआ। इसीलिए प्राचीन काल को बौद्धिक काल भी कहा जाता है।

यदि एक बुद्ध का सामान्य औसत काल पचास साल होता है, तो बुद्धि की यह परम्परा, यानि बुद्धों की यह परम्परा गोतम बुद्ध से 28 * 50 = 1400 साल पहले चला जाता है| चूँकि बुद्धत्व की परम्परा कोई वंशगत नहीं था, और यह बुद्धि की सर्वोच्च एवं विशिष्ट अवस्था पाने की उपाधि था, इसलिए यह माना जा सकता है, कि एक बुद्ध कोई एक सौ साल में कोई एक ही होता रहा| इस तरह बुद्धि की व्यवस्थित परम्परा ही बुद्ध से पहले कोई 28 * 100 = 2800 साल पुरानी हो जाती है| स्पष्ट है कि इन्ही बुद्धों की परम्परा ने “मेहरगढ़ सभ्यता” को विश्व प्रसिद्ध “सिन्धु घाटी सभ्यता’ यानि “मोहनजोदड़ो की नगरीय सभ्यता” में बदल दिया| यह इतिहास है कि इन नगरीय सभ्यताओं में “बुद्धि के विहार” यानि “बौद्ध विहार” का ही उत्खनन शुरू किया गया था| यदि आप मानव इतिहास की व्याख्या वैज्ञानिक तरीके से करना कहते हैं, तो आपको सब कुछ स्वत: स्पष्ट हो जायगा| “इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या” उस समय और उस क्रियाविधि के साधनों एवं शक्तियों के उपयोग से किया जाता है, यानि जब इतिहास की व्याख्या में उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों तथा इनके अंतर्संबंधों के आधार पर किया जाता है| इसे ही ‘आर्थिक शक्तियाँ’ (Economic Forces) भी कहते हैं, जिसे ‘बाजार की शक्तियाँ’ (Market Forces) भी कह सकते हैं|इन्ही शक्तियों को “समकालिक शक्तियाँ” (Contemporary Forces) या “समकालीन शक्तियाँ” भी कहा जाता है| इतिहास के काल में इन्हें ही “ऐतिहासिक शक्तियाँ” (Historical Forces) भी कही जाती है, जो इतिहास को बदलता रहता है|

इस भौगोलिक उपमहाद्वीप का नाम इस क्षेत्र की विशिष्ट बुद्धि की पहचान के कारण ही इस उपमहाद्वीप का नाम “भारत” पड़ा| बुद्धि के इस आभा से युक्त प्रदेश को ही “आभा से रत” माना जाने लगा| इसी “आभा से रत” से “आ (भारत)” शब्द बना| विश्व की समकालीन अन्य नदी घाटी सभ्यताओं में भी बुद्धि के विविध उपयोग एवं प्रयोग पर मंथन चल रहा था, जो नव उदित समाज, राज्य एवं अन्य संस्थाओं के विकास के लिए अनिवार्य था| भारत बुद्धों की परम्परा के कारण ही विश्व में उत्कृष्ट कोटि के सामाजिक विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान एवं आध्यात्मिक ज्ञान का विशिष्ट स्तर पा सका, जिसे ही प्राप्त करने के लिए तत्कालीन सम्पूर्ण विश्व से विद्वान भारत आते रहे| इसी कारण भारत विश्व गुरु बन सका| यह अलग बात है कि सामन्त काल में सामन्ती शक्तियों ने इन ज्ञान के भण्डार को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधित, संवर्धित एवं संपादित कर प्रस्तुत किया और शेष ग्रंथो को नष्ट कर दिया|

आज भी बुद्धों के ज्ञान में ‘सामान्य बुद्धिमत्ता (General Intelligence)’, ‘भावनात्मक बुद्धिमत्ता’ (Emotional Intelligence), ‘सामाजिक बुद्धिमत्ता (Social Intelligence)’ को अपने में समेटे हुए “बौद्धिक बुद्धिमत्ता” (Wisdom Intelligence) का सिद्धांत दिया, जो उनके प्रसिद्ध “आष्टांग मार्ग” के रूप में वर्णित है| बुद्ध को ‘मार्केटिंग प्रबंधन’ का पितामह माना जाना चाहिए, जिन्होंने अपने ज्ञान की उस समय ऐसी मार्केटिंग किया, कि आज भी उस पर विमर्श हो रहा है| बुद्ध वह पहला वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने मानव समाज को ‘संज्ञानात्मक क्रान्ति’ (Cognitive Revolution) का सूत्र दिया, जिसके कारण ही आज मानव सभ्यता और संस्कृति इस अवस्था तक आ पाई| इन्होने व्यक्ति, समाज, राज्य और मानवता के संवर्धन एवं विकास के लिए वह स्थायी सिद्धांत दिया, जिससे व्यक्ति, समाज, राज्य और मानवता का उद्विकास तेजी से संभव हो सका| इनके पारिस्थिकी न्याय (Ecilogical Justice) की अवधारणा में मानव एवं पशुओं सहित प्रकृति भी समाहित हो जाती है| ज्ञान एवं विज्ञान में कई ऐसे मौलिक एवं मुलभुत तत्व दिए, जिस पर आज का आधुनिक क्वांटम भौतिकी भी चकित है|

इसलिए ध्यान रहे कि बुद्धि के अनुयायी ही बौद्ध है, नहीं कि किसी मूर्ति के अनुयायी या किसी ख़ास परिधान वाले या किसी कर्मकांड करने वाले ही बोद्ध हैं| बाकी सब बुद्ध के नाम पर ढकोसले करते हैं|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

सामाजिक नेतागिरी और हथौड़ा सिद्धांत

 Social Leadership and the Hammer Theory

भारतीय समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक नेतागिरी की धूम मची हुई है, लेकिन भारतीय समाज में जो सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनात्मक बदलाव दिखनी चाहिए, वह दिख नहीं रहा है। कहने का स्पष्ट तात्पर्य यह है कि ये तथाकथित नेतागण जिस सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव के लिए आंदोलित हैं, उसमे कुछ भी बदलाव नहीं दिखता है| यदि आपको भारतीय समाज में कुछ सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव दिखता है, तो वह बदलाव “बाजार की शक्तियों” के कारण ही है, जिसकी क्रियाविधि इन तथाकथित क्रान्तिकारी नेताओं के समझ के परे है|

इस सामाजिक एवं सांस्कृतिक नेतागिरी की असफलता के जितने भी कारण बताया जा रहा है, इन सभी कारणों को कुछ विद्वान बचकाना हरकतें बताते है, तो कुछ बेवकूफी से भरी हुई मानते है। ऐसे सभी असफल नेतागण यह कहते हैं कि इस सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव में लगे हुए सभी नेताओं और संगठनों को एक हो जाना चाहिए| परन्तु उन्हें एक करने के प्रक्रम से कोई रोक तो नहीं रहा है। यह सब एक आदर्शात्मक बातें हैं, जो सुनने एवं कहने में बहुत अच्छी लगती है, परन्तु व्यावहारिक होती ही नहीं है| ऐसा कह कर वे अपनी असफलता को आसानी से छिपा सकते हैं, और अपनी नेतागिरी के प्रयास को सही मान सकते हैं| इससे यह स्पष्ट है कि दरअसल उन नेताओं को न तो इतिहास और संस्कृति की समझ होती है, न दर्शन का कोई ज्ञान होता है, और न ही मानवीय मनोविज्ञान की कोई जानकारी होती| इतिहास से हमें अपनी संस्कृति को समझने में मदद मिलती है, और यही संस्कृति समाज को संचालित एवं नियमित करने वाला अदृश्य साफ्टवेयर होता है| दर्शन का ज्ञान हमें अपने अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव की दृष्टि देता है,और उसके सार यानि मूल तत्वों को बताता है| इसी तरह मानवीय मनोविज्ञान हमें व्यक्ति एवं समाज की भावना, अनुभव, विचार एवं व्यवहार के विज्ञान को समझाता है| ऐसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक नेतागण बनते तो ऐसे हैं जैसे कि वे सब कुछ जानते एवं समझते होते हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति इससे बहुत कुछ अलग यानि विपरीत होती है|।

सामाजिक नेताओं के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक संरचनाओं में रचनात्मक, सकारात्मक एवं स्थायी बदलाव यानि रुपांतरण करने के इनके अथक प्रयास के बावजूद कोई अपेक्षित प्रभावकारी परिणाम समाज को प्राप्त नहीं हो पा रहा है, भले ही इसमें लगे कुछ नेताओं की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार होता दिख सकता है|। ऐसा क्यों हो रहा है? यह एक गंभीर, तीक्ष्ण एवं गहरा विश्लेषण और मूल्यांकन का विषय है। दरअसल हर सामाजिक सांस्कृतिक समस्या का कोई स्पष्ट दर्शन होता है, कोई सम्यक इतिहास होता है, कोई सुलझा हुआ मनोविज्ञान होता है, और उस सामाजिक सांस्कृतिक संरचना का कोई निहित अर्थशास्त्र भी होता है। ऐसे सामाजिक नेता सत्ता के शीर्ष पर बैठे कुछ व्यक्तियों के बदलाव को ही व्यवस्था में परिवर्तन समझते हैं और इसीलिए ऐसे सामाजिक नेताओं के सत्ता में आने के बाद भी सम्पूर्ण सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था (System) यानि तंत्र की व्यवस्था (Arrangement) यानि संरचना (Structure) यानि सामाजिक सांस्कृतिक तानाबाना में कोई परिवर्तन नहीं होता है

तब सामान्य जन या सामान्य भौगोलिक क्षेत्र में सामान्य वृद्धि या विकास तो दिख सकता है, परन्तु सामाजिक सांस्कृतिक संरचना,  प्रतिरुप और आव्यूह (Matrix) में कोई बदलाव नहीं आता है। सामान्य जन, प्रशासनिक अधिकारी, नेतागण और अधिकतर अर्थशास्त्री भी वृद्धि को ही विकास समझने की भूल कर देते हैं| दरअसल ऐसे सामाजिक नेताओं को “सामाजिक सांस्कृतिक संरचना” की नहीं तो कोई समझ होती है और नहीं तो कोई इस दिशा में समाधानात्मक दृष्टि (Vision) होती है| ऐसे नेताओं को समाज में ‘वृद्धि’ (Growth) और ‘विकास’ (Development) की अवधारणा में कोई अंतर समझ में नहीं आता है| दरअसल ये नेता इन दोनों के अन्तर को ही नहीं जानते समझते| यदि समाज में कोई सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव दिखता भी है, तो वह “बाजार की शक्तियों” से संचालित, नियंत्रित और नियमित होता है| बाजार की इन शक्तियों को ही आर्थिक शक्तियां या समकालीन शक्तियां भी कहते हैं। ऐसे सामाजिक नेताओं को बाजार की शक्तियों के परिणाम स्वरुप समाज में हो रहे सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव भी उन्हीं के आन्दोलन के प्रयास के परिणाम बताने में कोई संकोच नहीं होता है।

तो हमलोग अब “हथौड़ा सिद्धांत” (The Hammer Theory) की ओर चलते हैं| पहले इस अवधारणा यानि इस सिद्धांत को समझते हैं| तब इनका भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेतागिरी से संबंध समझते है| यह सिद्धांत क्या है? इसके बारे में वैश्विक विद्वानों की राय भी जानना समझना जरूरी हो जाता है। ‘अभिप्रेरणा के सिद्धांत’ (Theory of Motivation) के प्रवर्तक अब्राहम मैसलो (Abraham Maslow) ने 1966 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – The Psychology of Science में एक सिद्धांत दिया, जिसे “हथौड़ा का सिद्धांत” (The Theory of Hammer) कहा गया| इसमें किसी सर्व परिचित उपकरण/ यन्त्र (Tool) के लोकप्रय उपयोग के प्रति अत्यधिक झुकाव की समझ को रेखांकित किया गया है|

इसमें अब्राहम मैसलो द्वरा कहा गया कि "If the only tool you have is a hammer, it is tempting to treat everything as if it were a nail", अर्थात यदि आपके पास एकमात्र उपकरण के रूप में हथौड़ा ही हो, तो वह हर सामने वाली चीज को काँटी मान कर ठोक देना चाहता है| इसे अब्राहम कापलान (Abraham Kaplan) ने 1964 में ही यन्त्र का नियम” (The Law of the Instrument) कहा, और जिसमे उसने कहा - Give a small boy a hammer, and he will find that everything he encounters needs pounding." अर्थात यदि एक छोटे बच्चे को एक हथौड़ा दे दिया जाय, तो वह जिसका भी सामना करेगा, वह उसे (काँटी समझ कर) ठोक देना ही चाहेगा| अत: ऐसे सामाजिक सांस्कृतिक नेताओं को अब्राहम कापलान एक “छोटा बच्चा” कहना चाहा है, यदि उनमे भी ऐसी ही प्रवृति है तो|

इसी तरह से 1984 में प्रसिद्ध निवेशक वारेन बुफे (Warren Buffett) ने ‘वित्तीय बाजार’ (शेयर बाजार) के विशेषज्ञ विश्लेषकों के सम्बन्ध में कहा| वित्तीय बाजार की प्रवृतियों और दिशा निष्कर्षों के विश्लेषणात्मक मूल्याङ्कन करने के लिए गणितीय विशेषज्ञों के सम्बन्ध में वारेन बुफे ने कहा कि चूँकि शेयर बाजार के ये तथाकथित गणितीय विशेषज्ञ हैं और इसीलिए इन्हें अपनी तथाकथित विशेषज्ञता दिखाने के लिए गणितीय आंकड़ो एवं ग्राफ के साथ अनावश्यक उठा पटक करनी पड़ती है या दिखानी पड़ती है| उनके अनुसार चूँकि ऐसे कौशल सीखे गए हैं, और इसीलिए इन विशेषज्ञता को समाज को नहीं दिखाना उन्हें एक अपराध बोध जैसा लगता है| हालाँकि इन गणितीय विश्लेषणों का कोई उपयोग नहीं है, या इनका नकारात्मक प्रतिफल ही होता है, फिर भी आलोचनात्मक चिंतन के नहीं रहने के कारण सामान्य जनों को यह करिश्मा की तरह दिखता है| इसे ही निचोड़ में कहा गया कि एक आदमी के पास यन्त्र या उपकरण के नाम पर सिर्फ एक हथौड़ा ही हो, तो उस आदमी को हर सामने का चीज एक कांटी सदृश्य ही दिखता है|

ऐसी ही स्थिति भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेताओं की है, जिन्हें सिर्फ विरोध करना आता है| इसके आलावा इन्हें अन्य कोई कार्य करना नहीं आता| इनके पास कोई भी रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्य योजना नहीं होता है| अर्थात ऐसे नेताओं के पास कोई दुसरा रचनात्मक एवं सकारात्मक समाधान आता ही नहीं है| ऐसे भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेता सिर्फ नारेबाजी, प्रदर्शन, धरना और अपशब्द बोलना ही जानते हैं, कोई दूसरा रचनात्मक सकारात्मक समाधान के बारे में सोच ही नहीं सकता है| ऐसे में सामाजिक और सांस्कृतिक नेतृत्व भी सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के लिए अपने हाथ पैर मारते रहते हैं और अपने समर्थकों को अपने अथक प्रयास को दिखाते रहते हैं| ऐसे नेता अपने समर्थकों को ऐसा ही करने के लिए आंदोलित करते रहते है। इसके लिए ऐसे नेतागण भावनात्मक अपील, जातीय और धार्मिक लगाव एवं नाटकीय कौशल का उपयोग कम और दुरुपयोग ही ज्यादा करते हैं। ऐसा कर वे अपने समर्थकों का समय, संसाधन, उर्जा और उत्साह सहित जवानी को बर्बाद करते रहते हैं। वे “व्यक्ति बदलाव” (Change in Person) को ही “व्यवस्था का बदलाव” (Change in System) समझते हैं और इसीलिए जनता को ऐसा ही समझाते बताते हैं।

इसी तरह सामाजिक सांस्कृतिक कार्यकर्ता और नेता, जो कुछ भी कहीं पढ़ लेते हैं, किसी से सुन लेते हैं, बिना मनन मंथन किए ही समस्याओं रुपी कांटी पर अपने हथौड़े चलाने लगते हैं। वे यह भी विश्लेषण और मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं कि वे हथौड़े उनके विरोधियों के द्वारा फैलाया गया व्यूह (Matrix) यानि रणनीति (Strategy) यानि  जाल  (Web) का एक अनिवार्य औजार, उपकरण या हथियार है। तब वे अपने विरोधियों के ढाँचे (Frame Work) यानि घेरे (Circle) में ही उलझे हुए होते हैं। वैसे यह विशेषता वैश्विक पिछड़े हुए संस्कृतियों यानि समाजों में व्याप्त  होती है| इस तरह समस्यायों के समाधान में इसे ही “लकीर का फ़क़ीर” होना भी कहा जाता है|

इसी सन्दर्भ में थामस सैम्युल कुहन (Thomas S Kuhn) ने “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) की अवधारणा 1962 में प्रकाशित पुस्तक – “The Structure of Scientific Revolutions” में दिया| किसी भी समस्या समाधान में जब कोई परंपरागत अवधारणा (Concept) या क्रियाविधि (Mechanism) काम नहीं करता है, तब उसमे मौलिक परिवर्तन ही समाधान है, और यही मौलिक परिवर्तन ही पैरेड़ाईम शिफ्ट है| इसी तरह अल्बर्ट आइन्स्टीन ने भी कहा कि किसी भी समस्या का समाधान समस्या के स्तर (Level) पर ही रहकर नहीं पाया जा सकता| अर्थात किसी भी समस्या के समाधान के लिए उसी ढाँचे (Framework) या संरचना या आव्यूह (Matrix) से बाहर निकलना ही होगा| जबकि भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेतागण  उस ढाँचे या संरचना या आव्यूह से बाहर निकलना ही नहीं चाहते|

इसीलिए ऐसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक नेताओं का प्रयास महज एक नौटंकी या तमाशा बन कर रह जाता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक समस्याएँ’ ही उस समाज एवं राष्ट्र में ‘अन्य आर्थिक, राजनीतिक एवं अन्य सम्बन्धित समस्याएँ’ भी उत्पन्न करती है| ऐसा क्यों हो रहा है? यह एक बड़ा अहम् सवाल है, जिसका कोई सम्यक एवं समुचित उत्तर नहीं मिल पाता है| शायद यदि इसका सम्यक एवं समुचित उत्तर मिल जाता है, तो इन समस्याओं  के समाधान का रास्ता मिल जायगा| कुछ महान वैज्ञानिकों ने भी कहा है कि कुछ जिन समस्याओं के जड़ ‘अज्ञात’ में होती है, उसका समाधान “ज्ञात” से नहीं पाया जा सकता है| इस पर ध्यान दिया जाय|

भारतीय तथाकथित महान विद्वान ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं’ के लिए उपलब्ध भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों एवं ग्रंथों में ही समाधान पाने की उम्मीद करते हैं, क्योंकि शायद ये लोग इसी को प्रमाणिक एवं सान्दर्भिक स्रोत मान लेते हैं| इन सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों एवं ग्रंथों को बिना किसी तार्किकता एवं तथ्य के, अर्थात बिना पुरातात्विक एवं ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’ (Primary Authentic Evidence) के ही इसे :प्रमाणिक” (Authentic/ Ultimate) मान लेते हैं, और इसीलिए इसे ऐतिहासिक विरासत भी मानते हैं| और इसीलिए ये उन्ही ग्रंथों एवं शास्त्रों में ही सभी सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान खोजना चाहते हैं, या खोजते रहते हैं, परन्तु वे सफल रहते हैं, और कोई सार्थक बदलाव नहीं होता है, तथा समस्या और भी विकराल होता जा रहा है| इसीलिए इस सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं से उत्पन्न भारत के कई राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं  का भी कोई सार्थक समाधान नहीं मिल रहा है| ये विद्वान “बाजार की शक्तियों” (Market Forces) के तात्कालिक प्रभाव को अपने प्रयास का परिणाम मानकर ‘आत्ममुग्ध’ होते रहते हैं, क्योंकि इन्हें ‘बाजार की शक्तियों’ की ‘क्रियाविधि’ (Mechanism) की समझ नहीं होती है| ये भारतीय विद्वान, पता नहीं, ऐसा कर विश्व को मूर्ख बनाना चाहते हैं, या भारत में ही अन्य सामाजिक समूहों को मूर्ख  बनाना चाहते हैं, या ये स्वयं ही ‘अत्यधिक नादान’, परन्तु ‘प्रभावशाली एवं पदधारी पहुँच के विद्वान’ होते हैं| लेकिन इन प्रभावशाली एवं पदधारी पहुँच के विद्वानों का स्पष्ट विश्लेषण कर उनके बारे में कुछ भी लिखना शायद उचित नहीं होगा| यही भारत की विडम्बना है|

इसके लिए हमें कुछ विश्व के उदाहरण देखने और समझने होंगे| मैं यहाँ भी कुछ और सवाल खड़ा करना चाहता हूँ| क्या गैलेलियों को पृथ्वी और सूर्य के चक्कर लगाने की समस्या का समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में मिल गया था? इसका समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में नहीं मिला था| इसी तरह क्या चार्ल्स डार्विन भी अपनी वैश्विक विविधताओं और भिन्नताओं की व्याख्या का तार्किक आधार को तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में खोज पाए? इन दोनों को अपनी उलझनों को सुलझाने के लिए, यानि अपनी समस्याओं  के समाधान पाने के लिए उस समय के तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों से बाहर ही तलाशना पड़ा, और तब वे समुचित समाधान खोज पाए| इन सभी तत्कालीन ग्रंथ एवं शास्त्र, धार्मिक सहित, जब भी उस समय अंतिम संपादन हुआ होगा, उसे उस के समय में वर्तमान की ऐतिहासिक शक्तियों की सभी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सभी बातों का समायोजन (Adjustment) करना पड़ता है| इसीलिए इसमें ईश्वर के समर्थन और गुणगान में इतनी बातें कह दी जाती है, कि कोई इन पर अविश्वास नहीं करे और इन तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों के बाहर कोई समाधान खोजना एक गलती ही नहीं, अपितु एक महापाप मान लिया जाता था| इसी तरह उस समय की किसी भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में नहीं पाया जा सका|

वहां की सभी ‘सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं ’ का समाधान ‘कार्य – कारण सम्बन्ध’ की ‘तार्किकता’ के आधार पर, यानि वैज्ञानिक आधार पर पाया जा सका| इनके सही समाधान के सभी तथ्य एवं आधार इन तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों के बाहर ही खोजे जा सके| ऐसा इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि इन तत्कालीन सभी ऐतिहासिक विरासत एवं प्रमाणिक माने जाने वाले तमाम ग्रंथों एवं शास्त्रों का वर्तमान उपलब्ध स्वरुप ही अपेक्षित संशोधन, संवर्धन एवं सम्पादन के बाद ही मिलता है, जिसमे सभी तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के अनुरूप आवश्यक संशोधन किया हुआ होता है| मतलब जिन्हें भी ऐतिहासिक एवं प्रमाणिक विरासत माना जाता है, वे सभी हाल तक के राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के अनुरूप ही संशोधित, संवर्धित एवं संपादित होते हैं| यहाँ ध्यान देने की बात है कि इन सभी ऐतिहासिक विरासत एवं प्रमाणिक माने जाने वाले तमाम ग्रंथों एवं शास्त्रों में वर्णित किसी भी तथाकथित तथ्यों का पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों की मांग किये जाने पर कोई भी ऐसा साक्ष्य उपलब्ध नहीं कराया जाता है, जिसे पर्याप्त संतोषजनक माना जा सके| तब ये विद्वान् उन ग्रंथों एवं शास्त्रों में ही उलझ कर रह जाते हैं, क्योंकि इन ग्रंथों एवं शास्त्रों में यथावश्यक संशोधन, संवर्धन एवं सम्पादन ही काल्पनिक एवं मनगढ़ंत होता है और ऐसा इसी उलझन को पैदा करने के लिए और उस में उन्हें उलझाने के लिए ही किया जाता है|

इसीलिए ऐसे भारतीय विद्वान इन्हीं “तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के ग्रंथों और शास्त्रों” में तैरते रहते हैं और डूबता उतरते हुए मरते भी रहते हैं, या मर मिट जाते हैं| ये तथाकथित महान एवं विद्वान व्यक्ति अपनी सारी उर्जा, धन, संसाधन, समय, जवानी और उत्साह इसी बेकार के ग्रंथो एवं शास्त्रों में लगा कर उलझे रहते हैं, और इससे इतर अन्य कोई वैज्ञानिक व्याख्याओं की ओर सोच एवं देख नहीं पाते हैं| चूँकि सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या ही इतिहास होता है, इसीलिए सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या के लिए वैज्ञानिक व्याख्या की ही अनिवार्यता होती है| इतिहास की, यानि सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या “तत्कालीन बाजार की शक्तियों” के आधार पर, यानि उत्पदान, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों के अंतर्संबंधों के ही आधार पर किया जा सकता है, अन्यथा कोई अन्य वैज्ञानिक व्याख्या हो ही नहीं सकती| ऐसी व्याख्या में राज्यों के नाम, शासकों के नाम, युद्धों का विवरण एवं व्यवस्था का ब्यौरा स्वयं में इतिहास नहीं होता है, अपितु ये सब इतिहास के उदाहरण होते हैं| ऐसी व्याख्या आप किसी भी ऐतिहासिक काल की समुचित एवं पर्याप्त व्याख्या पाते हैं| इसका आधार काफी तार्किक एवं संतोषप्रद होता है| जो भी तथाकथित इतिहास इस व्याख्या में नहीं आ पाता है, वह निश्चितया इतिहास नहीं है, अपितु वह मात्र एक मिथक है| स्पष्ट है कि ऐसी कहानियों का कोई भी पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों की उपलब्धता नहीं होगी| स्पष्ट है कि हमें तब उन “तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के ग्रंथों और शास्त्रों” का विश्लेषण एवं मूल्यांकन करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है|

एक और उदाहरण पर गौर किया जाय| जो अवधारणा अपनी अंतिम परिणाम नहीं दे पाया है, क्या उसे कभी सफल सिद्धांत माना जा सकता है? इसका स्पष्ट उत्तर नहीं है| विज्ञान, यानि विवेकपूर्ण व्यवस्थित ज्ञान उस असफल ‘अवधारणा’ (Concept) या ‘परिकल्पना’ (Hypothesis) को कभी भी ‘सिद्धांत’ (Theory) का सम्मान नहीं देता है| जो वैज्ञानिक अपनी अवधाराणाओं का परिणाम नहीं दे पाए, अर्थात जो अवधारणा वास्तविक परिणाम नहीं दे पाए, विज्ञान के द्वारा उन वैज्ञानिकों के सिद्धांतों को ख़ारिज कर दिया जाता है| लेकिन भारत में ऐसे बहुत से ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैज्ञानिक” अपनी “परिकल्पनाओं” का सफल परिणाम नहीं पा सके, और परिणामस्वरूप वे सामाजिक एवं सासंकृतिक समस्याएँ आज भी जस का तस बनी हुई है, फिर उन सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैज्ञानिकों को सफल एवं महान माना जाता है|

ऐसे व्यक्तियों को भारतीय जनमानस पूजने भी लगते हैं| यह व्यक्ति पूजन भारतीय सामन्ती मानसिकता की अभिव्यक्ति है, और इसीलिए भारत में वंशवाद भी खूब प्रचलित है| ऐसे ऐतिहासिक व्यक्तियों के बहुत से परिणाम सफल रहे हैं, इनके बहुत से परिणाम तत्कालीन बाजार की शक्तियों के परिणाम के प्रभाव में ढक गए, और इन्हों आधारों पर इनके सभी निर्णय एवं व्याख्याएं बिना समुचित प्रश्न खड़ा किए ही सही मान लिए गए| ये तथाकथित विद्वान् अभी तक उन्ही व्यक्तियों के कृतत्वों से आगे और अलग नहीं बढ़ पाया है, और वही ठहरा हुआ है| ऐसे विद्वान सिर्फ सामज को कोसना जानते हैं, लेकिन सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्षों को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक शक्तियों को नहीं समझ पाते हैं|

चूँकि ये महान तथाकथित विद्वान व्यक्ति अपने विचारों के समझ एवं क्रियान्वयन में सफल नहीं रहे हैं, और इसीलिए हमलोगों को उन्ही समस्याओं  पर अभी और आज भी विचार करना पड़ रहा है| स्पष्ट है कि हमें अपनी सफलता के लिए उन तथाकथित विद्वान व्यक्तियों का अनुकरण करना एकदम बेकार है| स्पष्ट है कि उनके उपागम (Approach) में कोई बहुत बड़ी त्रुटि रह गई थी, जिसके कारण उस समय भी सफलता नहीं मिली थी, और आज भी सफलता निश्चितया नहीं ही मिलेगी| उन्हे इसलिए सफलता नहीं मिली थी, क्योंकि ये जिसके विरुद्ध समाधान खोज रहे थे, ये विद्वान उन्ही के द्वारा सम्पादित, संशोधित एवं संवर्धित ग्रंथों एवं शास्त्रों के ही ‘लौह ढांचे’ (Steel Frame Work) में फंसे हुए थे| ये तथाकथित महान विद्वान व्यक्ति इन तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के ग्रंथों और शास्त्रों को ही प्रमाणिक मान कर इसी के आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन तक सीमित रह गये| परिणामस्वरूप इनके विचारों एवं उपागमों में कोई ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) नहीं कर हो पता है और सफलता पा लेने की ‘मृग मरीचिका’ (Mirage) में फंस कर दौड़ते हुए मर भी जाते हैं| और आज के भी ;तथाकथित सामाजिक सांस्कृतिक विद्वान्; भी इसी भ्रम में अपना दम तोड़ रहे हैं|

मैंने जो इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या का आधार दिया है और इसी आधार पर जो वैज्ञानिक व्याख्या भी किया है, उसे समझिये| यही भारत की सभी समस्याओं  का वास्तविक समाधान देगा, और समाधान के अन्य प्रयास महज एक तमाशा है, दिखावा है, जिसे आप मात्र एक उलझान कह सकते हैं| वैसे मदारी के तमाशे में खूब तालियाँ बजती है, इसलिए आप भी तालियों की गडगडाहट से प्रभावित मत होइए| आप भी थोडा गंभीरता से विचार कीजिए, शायद भारत की तुलनात्मक दशा पर आपकी भी ‘आह’ निकले| सादर|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक  

बुद्ध और बुद्धि

  विशिष्ट बुद्धि वाले व्यक्ति को बुद्ध कहा जाता रहा है| बुद्ध और बुद्धि में बहुत गहरा संबंध है और यह संबंध भी प्रत्यक्ष है| दरअसल बुद्ध एक ...