भारत की परम्परागत, यानि
ऐतिहासिक समस्याओं, यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक
समस्याएँ’ ही उस समाज एवं राष्ट्र में ‘अन्य आर्थिक, राजनीतिक एवं अन्य सम्बन्धित समस्याएँ’
भी उत्पन्न करती है| ऐसा क्यों हो रहा है? यह एक बड़ा अहम् सवाल है, जिसका कोई
सम्यक एवं समुचित उत्तर नहीं मिल पाता है| शायद यदि इसका सम्यक एवं समुचित उत्तर
मिल जाता है, तो इन समस्याओं के समाधान का
रास्ता मिल जायगा| कुछ महान वैज्ञानिकों एवं दार्शनिकों ने भी कहा है कि
कुछ जिन समस्याओं के जड़ ‘अज्ञात’ में होती है, उसका समाधान “ज्ञात” से नहीं पाया
जा सकता है| इस पर ध्यान दिया जाय|
भारतीय तथाकथित महान विद्वान ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं’ के लिए उपलब्ध भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों एवं ग्रंथों में ही समाधान पाने की उम्मीद करते हैं, क्योंकि शायद ये लोग इसी को प्रमाणिक एवं सान्दर्भिक स्रोत मान लेते हैं| इन सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों एवं ग्रंथों को बिना किसी तार्किकता एवं तथ्य के, अर्थात बिना पुरातात्विक एवं ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’ (Primary Authentic Evidence) के ही इसे "प्रमाणिक” (Authentic/ Ultimate) मान लेते हैं, और इसीलिए इसे ऐतिहासिक विरासत भी मानते हैं| और इसीलिए ये उन्ही ग्रंथों एवं शास्त्रों में ही सभी सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान खोजना चाहते हैं, या खोजते रहते हैं, परन्तु वे सफल नहीं हो पा रहे हैं, और कोई सार्थक बदलाव नहीं होता है, तथा समस्या और भी विकराल होता जा रहा है| इसीलिए इस सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं से उत्पन्न भारत के कई राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं का भी कोई सार्थक समाधान नहीं मिल रहा है|
ये विद्वान “बाजार की शक्तियों” (Market Forces) के
तात्कालिक प्रभाव को अपने प्रयास का परिणाम मानकर ‘आत्ममुग्ध’ होते रहते हैं,
क्योंकि इन्हें ‘बाजार की शक्तियों’ की ‘क्रियाविधि’ (Mechanism) की समझ नहीं होती
है| ये भारतीय विद्वान, पता नहीं, ऐसा कर विश्व को मूर्ख बनाना चाहते
हैं, या भारत में ही अन्य सामाजिक समूहों को मूर्ख बनाना चाहते हैं, या ये स्वयं ही ‘अत्यधिक नादान’,
परन्तु ‘प्रभावशाली एवं पदधारी पहुँच के विद्वान’ होते हैं| लेकिन इन प्रभावशाली
एवं पदधारी पहुँच के विद्वानों का स्पष्ट विश्लेषण कर उनके बारे में कुछ भी लिखना
शायद उचित नहीं होगा| यही भारत की विडम्बना है| भारतीय विद्वान स्थापित फ्रेमवर्क से बाहर सोच भी नहीं सकते हैं, और इसीलिए भारतीय लोग समस्याओं में उलझे रह रहे है।
इसके लिए
हमें कुछ विश्व के उदाहरण देखने और समझने होंगे| मैं यहाँ भी कुछ और सवाल खड़ा करना चाहता हूँ| क्या गैलेलियों को पृथ्वी और सूर्य के चक्कर लगाने की
समस्या का समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में मिल गया था? इसका
समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में नहीं मिला था| इसी तरह क्या चार्ल्स डार्विन भी अपनी वैश्विक विविधताओं और
भिन्नताओं की व्याख्या का तार्किक आधार को तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में खोज
पाए? इन दोनों को अपनी उलझनों को
सुलझाने के लिए, यानि अपनी समस्याओं के
समाधान पाने के लिए उस समय के तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों से बाहर ही तलाशना
पड़ा, और तब वे समुचित समाधान खोज पाए| इन सभी तत्कालीन ग्रंथ एवं शास्त्र,
धार्मिक सहित, जब भी उस समय अंतिम संपादन हुआ होगा, उसे उस के समय में वर्तमान की
ऐतिहासिक शक्तियों की सभी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सभी बातों का समायोजन (Adjustment)
करना पड़ता है| इसीलिए इसमें ईश्वर के समर्थन और गुणगान में इतनी बातें कह दी जाती
है, कि कोई इन पर अविश्वास नहीं करे और इन तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों के बाहर
कोई समाधान खोजना एक गलती ही नहीं, अपितु एक महापाप मान लिया जाता था| इसी तरह उस
समय की किसी भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में
नहीं पाया जा सका|
वहां की सभी ‘सामाजिक
सांस्कृतिक समस्याओं’ का समाधान ‘कार्य – कारण सम्बन्ध’ की ‘तार्किकता’ के आधार पर,
यानि वैज्ञानिक आधार पर पाया जा सका| इनके सही समाधान के सभी तथ्य एवं आधार इन तत्कालीन
ग्रंथों एवं शास्त्रों के बाहर ही खोजे जा सके| ऐसा इसलिए करना पड़ता है,
क्योंकि इन तत्कालीन सभी ऐतिहासिक विरासत एवं प्रमाणिक माने जाने वाले तमाम
ग्रंथों एवं शास्त्रों का वर्तमान उपलब्ध स्वरुप ही अपेक्षित संशोधन, संवर्धन एवं
सम्पादन के बाद ही मिलता है, जिसमे सभी तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक
अनिवार्यताओं के अनुरूप आवश्यक संशोधन किया हुआ होता है| मतलब जिन्हें भी ऐतिहासिक एवं प्रमाणिक विरासत माना जाता
है, वे सभी हाल तक के राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के अनुरूप ही
संशोधित, संवर्धित एवं संपादित होते हैं| यहाँ ध्यान देने की बात है
कि इन सभी ऐतिहासिक विरासत एवं प्रमाणिक माने जाने
वाले तमाम ग्रंथों एवं शास्त्रों में वर्णित किसी भी तथाकथित तथ्यों का
पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों की मांग किये जाने पर कोई भी ऐसा
साक्ष्य उपलब्ध नहीं कराया जाता है, जिसे पर्याप्त संतोषजनक माना जा सके|
तब ये विद्वान् उन ग्रंथों एवं शास्त्रों में ही
उलझ कर रह जाते हैं, क्योंकि इन ग्रंथों एवं शास्त्रों में यथावश्यक संशोधन,
संवर्धन एवं सम्पादन ही काल्पनिक एवं मनगढ़ंत होता है और ऐसा इसी उलझन को पैदा करने
के लिए और उस में उन्हें उलझाने के लिए ही किया जाता है|
इसीलिए ऐसे भारतीय विद्वान इन्हीं “तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के ग्रंथों और शास्त्रों” में तैरते रहते हैं और डूबता उतरते हुए मरते भी रहते हैं, या मर मिट जाते हैं| ये तथाकथित महान एवं विद्वान व्यक्ति अपनी सारी उर्जा, धन, संसाधन, समय, जवानी और उत्साह इसी बेकार के ग्रंथो एवं शास्त्रों में लगा कर उलझे रहते हैं, और इससे इतर अन्य कोई वैज्ञानिक व्याख्याओं की ओर सोच एवं देख नहीं पाते हैं| चूँकि सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या ही इतिहास होता है, इसीलिए सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या के लिए वैज्ञानिक व्याख्या की ही अनिवार्यता होती है| इतिहास की, यानि सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या “तत्कालीन बाजार की शक्तियों” के आधार पर, यानि उत्पदान, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों के अंतर्संबंधों के ही आधार पर किया जा सकता है, अन्यथा कोई अन्य वैज्ञानिक व्याख्या हो ही नहीं सकती|
ऐसी वैज्ञानिक व्याख्या में राज्यों के नाम, शासकों के नाम,
युद्धों का विवरण एवं व्यवस्था का ब्यौरा स्वयं में इतिहास नहीं होता है, अपितु ये
सब इतिहास के उदाहरण होते हैं| ऐसी वैज्ञानिक व्याख्या से आप किसी भी भी क्षेत्र के किसी भी ऐतिहासिक काल
की समुचित एवं पर्याप्त व्याख्या कर पाते हैं| इसका आधार काफी तार्किक एवं संतोषप्रद
होता है| जो भी तथाकथित इतिहास इस व्याख्या में नहीं आ पाता है, वह निश्चितया
इतिहास नहीं है, अपितु वह मात्र एक मिथक है| स्पष्ट है कि ऐसी कहानियों का कोई
भी पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों की उपलब्धता नहीं होगी| स्पष्ट है
कि हमें तब उन “तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के ग्रंथों और शास्त्रों”
का विश्लेषण एवं मूल्यांकन करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है|
एक और उदाहरण पर गौर किया जाय| जो अवधारणा
अपनी अंतिम परिणाम नहीं दे पाया है, क्या उसे कभी सफल सिद्धांत माना जा सकता है? इसका
स्पष्ट उत्तर नहीं है| विज्ञान, यानि
विवेकपूर्ण व्यवस्थित ज्ञान उस असफल ‘अवधारणा’ (Concept) या ‘परिकल्पना’
(Hypothesis) को कभी भी ‘सिद्धांत’ (Theory) का सम्मान नहीं देता है|
जो वैज्ञानिक अपनी अवधाराणाओं का परिणाम नहीं दे पाए, अर्थात जो अवधारणा वास्तविक
परिणाम नहीं दे पाए, विज्ञान के द्वारा उन वैज्ञानिकों के सिद्धांतों को ख़ारिज कर
दिया जाता है| लेकिन भारत में ऐसे बहुत से ‘सामाजिक
एवं सांस्कृतिक वैज्ञानिक” अपनी “परिकल्पनाओं” का सफल परिणाम नहीं पा सके, और
परिणामस्वरूप वे सामाजिक एवं सासंकृतिक समस्याएँ आज भी जस का तस बनी हुई है, फिर
उन सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैज्ञानिकों को सफल एवं महान माना जाता है|
ऐसे व्यक्तियों को भारतीय जनमानस पूजने भी लगते
हैं| यह व्यक्ति -पूजन भारतीय सामन्ती मानसिकता की अभिव्यक्ति है, और इसीलिए भारत
में वंशवाद भी खूब प्रचलित है| ऐसे ऐतिहासिक व्यक्तियों के बहुत से परिणाम सफल भी रहे हैं, लेकिन इनके बहुत से परिणाम तत्कालीन बाजार की शक्तियों के परिणाम के प्रभाव में
ढक गए हैं, और इन्हों आधारों पर इनके सभी निर्णय एवं व्याख्याएं बिना समुचित प्रश्न
खड़ा किए ही सही मान लिए गए हैं| ये तथाकथित
विद्वान् अभी तक उन्ही व्यक्तियों के कृतत्वों से आगे और अलग नहीं बढ़ पाया है, और
वही ठहरा हुआ है| ऐसे विद्वान सिर्फ
सामज को कोसना जानते हैं, लेकिन सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्षों को प्रभावित करने
वाले मनोवैज्ञानिक शक्तियों को नहीं समझ पाते हैं|
चूँकि ऐसे कुछ महान तथाकथित विद्वान व्यक्ति अपने विचारों के समझ एवं क्रियान्वयन में सफल नहीं
रहे हैं, और इसीलिए हमलोगों को उन्ही समस्याओं पर अभी और आज भी विचार करना पड़ रहा है| स्पष्ट है कि हमें अपनी सफलता के लिए उन तथाकथित विद्वान
व्यक्तियों का अनुकरण करना एकदम बेकार है| स्पष्ट
है कि उनके उपागम (Approach) में कोई बहुत बड़ी त्रुटि रह गई थी, जिसके कारण उस समय
भी सफलता नहीं मिली थी, और आज भी सफलता निश्चितया नहीं ही मिलेगी| उन्हे इसलिए सफलता नहीं मिली थी, क्योंकि ये जिसके विरुद्ध
समाधान खोज रहे थे, ये विद्वान उन्ही के द्वारा सम्पादित, संशोधित एवं संवर्धित
ग्रंथों एवं शास्त्रों के ही ‘लौह ढांचे’ (Steel Frame Work) में फंसे हुए थे|
ये तथाकथित महान विद्वान व्यक्ति इन तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के
ग्रंथों और शास्त्रों को ही प्रमाणिक मान कर इसी के आलोचनात्मक विश्लेषण एवं
मूल्याङ्कन तक सीमित रह गये| परिणामस्वरूप
इनके विचारों एवं उपागमों में कोई ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) नहीं कर हो
पता है और सफलता पा लेने की ‘मृग मरीचिका’ (Mirage) में फंस कर दौड़ते हुए मर भी
जाते हैं| और आज के भी ;तथाकथित सामाजिक सांस्कृतिक विद्वान्; भी इसी भ्रम में
अपना दम तोड़ रहे हैं|
मैंने जो इतिहास की
वैज्ञानिक व्याख्या का आधार दिया है और इसी आधार पर जो वैज्ञानिक व्याख्या भी किया
है, उसे समझिये| यही भारत की सभी समस्याओं का वास्तविक समाधान देगा, और समाधान के अन्य प्रयास
महज एक तमाशा है, दिखावा है, जिसे आप मात्र एक उलझान कह सकते हैं| वैसे मदारी के तमाशे में
खूब तालियाँ बजती है, इसलिए आप भी तालियों की गडगडाहट से प्रभावित मत होइए| आप भी थोडा गंभीरता से विचार कीजिए, शायद भारत की तुलनात्मक दशा
पर आपकी भी ‘आह’ निकले| सादर|
आचार्य निरंजन सिन्हा
भारतीय संस्कृति के
ध्वजवाहक
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