बुधवार, 18 नवंबर 2020

छठ व्रत का इतिहास

भारतीय संस्कृति में छत व्रत का एक खास महत्त्व है| यह मूल रूप में उत्तर भारत के एक खास हिस्से में मनाया जाता हैयह क्षेत्र वर्तमान बिहारपूर्वी उत्तर प्रदेशसमीपवर्ती नेपाल के तराई क्षेत्र और अन्य निकटवर्ती भारतीय क्षेत्र शामिल हैइसी क्षेत्र को छठ व्रत का प्राथमिक एवं मौलिक क्षेत्र माना जाता है| भले ही यहीं के लोग भारत में एवं विश्व के विभिन्न भागों एवं कोनों में बस जाने या रहने के कारण इस छठ को इस प्राथमिक एवं मौलिक क्षेत्र के बाहर भी मनाते हैं|

यह एक आभार प्रक्रिया या सम्मान विधि है, जिसमे सूर्य, जल एवं प्रकृति को सादर आभार व्यक्त किया जाता है एवं समर्पित भाव से नमन किया जाता है| इस व्रत में जो सम्मान प्रक्रिया हैउसमें कोई भी मध्यस्थ नहीं होता है, अर्थात कोई भी पुरोहित या पुजारी नहीं होता हैइसमें व्रती बिना किसी मध्यस्थ के सूर्य (ऊर्जा), जल एवं प्रकृति को श्रद्धा भाव का समर्पण करते हैंइस श्रद्धा समर्पण में उस समय प्रकृति में उपलब्ध नए कृषि उपज एवं उससे बने पकवानजल एवं दुग्ध आदि को शामिल किया जाता हैयह सम्मान प्रक्रिया इतनी शुद्धता के साथ मनाया जाता है कि यह शुद्धता यानि पवित्रता का भाव भी देखने एवं समझने योग्य हैइसमें कोई मूर्ति का या किसी अन्य सांसारिक चित्रण या आकृति का कोई स्थान नहीं हैयह एक पंथ निरपेक्ष पर्व है, जिसे सभी स्थानीय भी पूरी निष्ठा के साथ मनाते हैंइसे इस क्षेत्र के कई पन्थो यथा इस्लाम के अनुयायी भी श्रद्धा के साथ मनाते हैं| यह इस क्षेत्र का मौलिक संस्कृति है और इसी कारण इसकी तैयारी में उस क्षेत्र के सभी धर्मों के अनुयायी लग जाते हैंबिहार की राजधानी पटना में गंगा नदी के घाटों (तटों) पर इसकी तैयारी में हिन्दूमुस्लिमसिख एवं इसाई पन्थो के उत्साही युवक लगे हुए मिल जायेंगे, क्योंकि पुराने पटना में तटीय आबादी में इनकी ही आबादी प्रमुख हैंअत: इस व्रतको किसी धर्म या पंथ से जोड़ने की कोशिश नहीं की जानी चाहिएइसे इस क्षेत्र की मौलिक संस्कृति मानी जाय, जो प्रकृति यानि प्राकृतिक शक्तियों का सम्मान की परम्परा है|

इस परम्परा की ऐतिहासिकता पर विचार किया जाय। इसकी शुरुआत ही मानव की सभ्यता एवं संस्कृति की शुरुआत से ही से हुई हैजब मानव के जीवन विकास के क्रम में लोग पाषाण की निर्भरता से मुक्त होकर यानि पहाड़ो से उतर कर नदी घाटी के समतल उपजाऊ मैदानों में बस रहे थे और कृषि का प्रारंभ कर रहे थे। तब मानव जीवन के इस क्रांतिकारी एवं महत्वपूर्ण बदलाव का सम्मान किया ही जाना चाहिएयह परम्परा कृषि क्रान्ति के महत्त्व को रेखांकित करता है, जब मानव खाद्य संग्राहक की विवशता से मुक्त होने लगा| इसने आवासन को स्थायी बनाया यानि स्थायी बस्तियों का निर्माण शुरू हुआ और उत्पादक पशुओं का पालना प्रारम्भ हुआ। 

यह काल ताम्बा एवं कांसा के प्रारंभिक उपयोग का रहा थालगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में सूर्य, जल एवं प्रकृति की सम्मान परम्परा मिलते हैं, भले ही उनके स्वरुप भिन्न भिन्न रहे हो| नदी घाटी में उर्वर मिट्टी एवं जल की प्रचुरता थी, जो सूर्य की किरणों में कृषि एवं पशुपालन को काफी सहारा दे रहा थाइस कृषि क्रान्ति ने अस्थिर, असुरक्षित एवं घुमन्तु जीवन तथा अनिश्चित आहार की संभावना को न्यूनतम कर दिया या समाप्त कर दिया| खाद्य पदार्थों का उत्पादन कृषि कार्य में लगी हुई आबादी की आवश्यकता से अधिक होने लगी, इससे नगरों एवं राज्यों का उदय हुआ| इससे मानव जीवन में एक मौलिक एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ| इसी कारण इन लोगों ने जल के प्राकृतिक स्रोतों में नवीनतम कृषि उत्पादों के साथ सूर्य को साक्षी मानते हुए प्रकृति को अर्घ्य देते हैं यानि उसे समर्पित करते हैं| जब लोगों की पत्थर की उपयोगिता और पहाड़ों पर रहने की बाध्यता समाप्त हो गई तथा लोग अब नदी घाटी मैदानों में आ गए और बिल्कुल नए जीवन का शुरुआत कर चुके, यह पर्व उसी स्मृति का पर्व है। साक्षात् सूर्य को देव मानकर, जल का जीवनदायिनी शक्ति एवं उपलब्धता को, और सम्पूर्ण प्रकृति के समतल उपजाऊ हरा भरा मैदान के संगम के प्रति संवेदनशील आभार का पर्व है - छठ व्रत।

कृषि और पशुपालन शुरुआती समय से ही एक दुसरे का पूरक रहाइसे मशीनी युग में ही एक दुसरे से अलग किया जा सकाइतिहास में यह माना जाता है कि कृषि क्रान्ति कोई दस हजार साल पहले हुईअर्थात इस प्रकृति पूजन यानि सम्मान समारोह को कोई दस हजार साल से अधिक पुराना माना जा सकता हैकृषि क्रान्ति ने उत्पादकों को अपने खपत से अतिरिक्त खाद्य उत्पादन दिया और इस अतिरिक्त खाद्य उत्पादन ने समाज में सोचनेविचारनेमनन करने वाले बुद्धिवादियों को भी भोजन का संरक्षण एवं समर्थन दियाइससे बुद्धिवादियों की परम्परा का विकास किया

कृषि क्रान्ति के आधार पर अर्थव्यवस्था में द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक एवं पंचक क्षेत्र का उदय संभव हो सकालोहे के उपयोग से कृषि का अत्यधिक उत्पादन हुआ और कई नए संस्थानों यथा नागरीय समाजराज्य, मुद्रा एवं वाणिज्य- व्यापार का उदय हुआ| अब पत्थरों और पहाड़ों की अनिवार्य निर्भरता समाप्त हो चुकी थी। अब लोग वन्य एवं पहाड़ी जीवन से निकल कर सभ्यता की स्थापना कर रहे थे और नई संस्कृति की शुरुआत कर रहे थे। कोई भी सभ्य समाज इस परम्परा का सजग समर्थक रह सकता हैइसी कारण इस ऐतिहासिक क्षेत्र मेंजो बुद्धिवादियों का परंपरागत सक्रिय क्षेत्र भी रहाइस प्रकृति सम्मान यानि पूजन की परम्परा सजग एवं सहज निरंतरता बनाये रखी|  

सिन्धु घाटी सभ्यता के विशाल स्नानागारभी इसी परम्परा के अवशेष हैं| नदियों से दूर ग्रामों में आबादी के निकट तालाब इसी उद्देश्य को भी पूरा करते रहे। ऐसे नदियों एवं सागरों के अतिरिक्त तालाब (Tank),  पोखर (Pond), छिलका (Check Dam), बाँध (Dam), जलाशय (Reservoir) आदि छठ पूजन के क्षेत्रों में सामान्य स्थल है| अब तो लोग घरो के हाते (Campus) में पोखर (Pond) तैयार करने लगे हैं| कुछ घनी आबादी में छतों पर भी पानी के हौदे (Cistern) में व्रत किया जाता है| इसमें मूल बात यह है कि इसमें जल हो, साक्षात् सूर्य दर्शन हो और प्रकृति का खाद्य उत्पाद हो| इन्हीं सजग एवं सतर्क लोगों का पश्चिम से पूर्व की ओर आव्रजन (Migration) से यह परम्परा भी उनके साथ में चली आई| आज भले ही मूर्ति एवं अन्य कथा वाचन के लिए मध्यस्थ का प्रवेश हो रहा है| समय के साथ और मध्य कालीन सामंती व्यवस्था ने इसके साथ की मिथक भी शामिल हो गया।

छठ व्रत में उस समय के ज्ञात ब्रह्माण्ड (वर्त्तमान सौर मंडल) का मूलाधार “सूर्य”, जन जीवन का मूलाधार जल स्रोतएवं समस्त प्रकृति को सम्मान प्रदर्शन किया जाता था, जो अब भी निरन्तरता बनाए हुए है।यह प्रकृति का सम्मान हैपूजन हैकृतज्ञता हैआभार हैऔर इसकी महत्ता का रेखांकण हैसूर्य इस विशाल पारितंत्र (Eco System) का उर्जा स्रोत है, जो इस तंत्र को सहज एवं समुचित सञ्चालन के लिए उर्जा का सतत प्रवाह करता हैइसी सौर शक्ति एवं जल के संगम ने मैदानी क्षेत्रों में कृषि को संभव बनाया| ऐसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक शक्ति को ही देवता तुल्य भी सम्मान दिया गया हैऐसा सम्मान सूर्य को मिश्र देश में एवं अन्य सभ्यतायों तथा संस्कृतियों में भी दिया जाता है|

यह सभ्यता के प्रारम्भ में प्रकृति एवं सूर्य का सम्मान हैआप भी इस दृष्टि से मनन कीजिये और इसमें संयोजन एवं संशोधन कीजिये|

कुछ लोग इसे मठपूजा या व्रत कहते हैं| ऐसा इस आधार पर कहते हैं कि छत व्रत में लोग घाट पर मठ का स्वरुपया स्तूपकी संरचना बनाते हैं| यह स्तूप मिट्टी का बनाते हैं| उत्तर बिहार में ईख से भी इसको आकार (Shape) देते हैं| सभ्यता समाप्त हो सकता है, लेकिन संस्कृति समाप्त नहीं होती है, और समय के प्रभाव में बदलता रहता है। कहने का तात्पर्य है कि समय के प्रभाव के कारण लोग इसमें बुद्धि की परंपरा खोजते हैं| समय के साथ इस परंपरा में परिवर्तन, सम्वर्धन, संशोधन, परिमार्जन, रूपांतरण और विरूपण (Distortion) होता गया| ऐसा कुछ बुद्धि के विकास यानि बौद्धिक परम्परा में हुई। इसी तरह कुछ परिवर्तन एवं मान्यता में नयापन सामन्तवाद के काल में भी हुई| सांस्कृतिक सामन्तवाद के काल में यह छठी माईके रूप में अवतरित हुई| इसके प्रभाव में इन्हें व्यक्ति स्वरुप मानकर मनौती भी मांगी जाने लगी, जो एक अलग विषय है। यदि कोई इसमें मनौती मांगता है, तो गलती मनौती मांगने वाले की होगी, परम्परा की नहीं।

कुछ तथाकथित प्रगतिशील एवं तथाकथित बुद्धिवादी लोग इसे पुरातन अन्धविश्वास भी मानते हैं|यदि ऐसा कुछ हैं तो यह समय का प्रभाव है और वर्तमान लोगों का विश्वास है, इसकी मौलिकता में गड़बड़ी नहीं है। ये लोग इनकी मौलिकताप्राचीनताऐतिहासिकता का तथ्यात्मकविश्लेषणात्मकतार्किक एवं विवेकपूर्ण तथ्यों का ध्यान दिए बिना ही ऐसे निष्कर्ष निकाल लेते हैंये तथाकथित बुद्धिजीवी इस व्रत एवं परम्परा में सामन्तकाल और बाद के कालों में हुए विरूपणसंशोधन एवं संयोजनात्मक प्रभाव का अध्ययन किए बिना ही ऐसे निष्कर्ष निकाल लेते हैं| ये मानवीय मनोविज्ञान की आवश्यकता को जाने समझे बिना ही इसे खंडित करने की कोशिश करते हैं|  फिर इस पर अन्धविश्वास का लेबल लगा कर आत्ममुग्ध हो जाते हैंकुछ लोग मान्यतावादी इतिहासकारों द्वारा वर्णित तथ्यों यानि मिथकों को ही देखते और सही मानते हैं| वे लोग प्रो० एडवर्ड हैलेट कार (‘What is History’ के लेखक) की इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि उस इतिहासकार की मंशा और सन्दर्भ क्या है? इसे भी समझना जरुरी है|

आइएअब हमलोग तथ्यतर्कसाक्ष्य और विवेक के आधार पर इसकी मौलिकताप्राचीनता और ऐतिहासिकता पर समय काल के प्रभाव को समझने की कोशिश करते हैंआज छठ उतने ही क्षेत्र में मौलिक एवं प्राथमिक रूप में मनाये जाते हैं, जिन क्षेत्रों में महान तथागत बुद्ध के चरण पड़े हैंयह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप में मगधअंगकाशीमल्लवज्जीएवं कोशल का जनपद है और इन्हीं क्षेत्रों  में बुद्ध के भ्रमण एवं विश्राम हुए थे| छठ से जुडी अन्य बातें सिर्फ कहानियां हैं यानि मिथक हैं, जिसका कोई पुरातात्विक आधार नहीं है, यानि जिसका कोई प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है| इसी कारण ऐसी अन्य कहानियों को ऐतिहासिक भी नहीं माना जा सकता है|

इस पर्व में नए कृषि उपज का पकवान बनता है, जो क्षेत्र विशेष के अनुसार भिन्नता भी रखता हैमगध क्षेत्र में यदि चावल का भातदाल एवं पिठ्ठा (चावल का पकवान) बनता है, तो बज्जी क्षेत्र में ईख के रस में खीर बनता हैयह पर्व कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के चतुर्थी से प्रारम्भ होकर सप्तमी के सुबह  समाप्त होता है|यह दिन दीपावली के चौथा दिन होता हैदीपावली के छठवें दिन डूबते सूर्य को तथा अगले दिन अर्थात सातवें दिन को उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता हैइस अवधि में व्रती उपवास में रहकर प्रकृति के उपहारों का अहसास करते हैं, जो प्रकृति ने उन्हें उपलब्ध कराया है

इस व्रत में गेहूं के आटे से जो पकवान बनाया जाता हैउसे प्राकृत भाषा में अर्थात पालि भाषा में ठेकुआ कहा जाता हैइस पकवान को कुछ चिन्हों से ठोक’ (Impress) कर बनाया जाता है| इस पर पीपल पत्तेका छाप और प्रगति का चक्रका छाप (Impression) लगाया जाता हैइस चक्र को कुछ लोग बौद्धिक परम्परा के चक्र से जोड़ते हैंइसी तरह कुछ लोग पीपल के पत्ते के छाप को बुद्ध के ज्ञान वृक्ष पीपल से, तो कुछ लोग पवित्र एवं छायादार पीपल के पेड़ से जोड़ते हैंभारत में पीपल कई कारणों से सम्मानितपवित्र एवं पूजनीय वृक्ष हैप्राचीनतम साक्ष्य में साँची के स्तूप का वह चित्र बताया जाता है, जिसमें छठ का एक स्पष्ट रूप मिलता हैइसमें दऊरा (सूप)ईखकेला इत्यादि के साथ परिवार एवं बच्चों के उपस्थिति में नदी तट पर मौजूद हैंयह किसान एवं पशुपालक समाज का प्रकृति पूजन है|

आचार्य प्रवर निरंजन,

मौलिक चिन्तक, बौद्धिक उत्प्रेरक एवं लेखक

स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना|

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सारगर्भित एवं शोधपूर्ण व्याख्या.आभार एवं साधुवाद ! 👌👌👍👍

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  2. You just misguiding the people. If this is related to Budhha then this should be national festival of China or Japan. Second thing this belong to solely Hindu please don't try to mix this with other religions.

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  3. बहुत ही शानदार विशलेषण सर

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