मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

धम्म चक्र वर्ती अशोक

अशोक यानि असोक मगध देश का सबसे महत्वपूर्ण शासक था। इनके साम्राज्य का भौगोलिक विस्तार प्रत्यक्षतः पूरब में आसाम और पश्चिम में अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। इसी असोक के कारण भारत को विश्व अध्ययन का विषय बनाया गया। इस असोक के सांस्कृतिक साम्राज्य के विस्तार में उस समय के ज्ञात विश्व को अपने में समाहित किए हुए था। इस तरह आधुनिक भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना का भौगोलिक और सांस्कृतिक आधार इनके द्वारा ही दिया गया। इसी विशेषता ने सम्राट अशोक को महान बनाया।

मगध को उस समय मग्ग देस भी कहा जाता था। पालि में 'र' अक्षर का संयुक्ताक्षर नहीं होता है और इसलिए  "मग्ग" शब्द 'मार्ग' शब्द के लिए प्रयुक्त होता है। इस तरह 'मगध' को "मार्गदर्शक" कहा जाता रहा। इस अशोककालीन मगध ही विश्व को प्रकाशित किया था। अशोक की राजधानी और मगध (उस समय का भारत) देस (देश) इस भावार्थ को चरितार्थ करता रहा। पूरे भारत में विद्या विहारों की स्थापना और व्यवस्था की श्रृंखला ही भारत को विश्व गुरु बना सका। उन्होंने उज्जैन, सांची, तक्षशिला, गंधार, नालन्दा, उदंतपुरी, वल्लभी, सारनाथ, मथुरा, नागरा, पवनी, एरागुंडा, गिरनार, जगदलपुर, गुंटूर, कोसांबी, विक्रमशिला आदि में विद्या पीठ यानि विश्वविद्यालय स्थापित कर शिक्षा की ऊंचाईयों को स्थापित किया। वे जानते थे कि अज्ञानता ही सब दुखों का कारण है और ज्ञान ही समाज एवं जीवन में सुख, शांति, संतुष्टि और समृद्धि स्थापित कर सकता है।

असोक बुद्ध के अनुयाई हुए। बुद्ध ने एक व्यक्ति के रूप में जन्म लिया और संस्था के रूप में विकसित हो गए। इनके दर्शन और शिक्षाओं को असोक ने पहली बार व्यापक शासकीय समर्थन दिया। बुद्ध का ज्ञान शुद्ध विज्ञान और सामाजिक विज्ञान है, जो जीवन में सफलता का आधार देता है और इसकी क्रियाविधि समझाता है। इसका इन्होंने तत्कालीन विश्व में व्यापक प्रसार किया। इसके लिए प्रतीक चिन्ह की स्थापना, शिला लेख की लिखाई, कल्याणकारी योजनाओं का कार्यान्वयन और प्रशासकीय व्यवस्था कर अभूतपूर्व योगदान दिया। इनका शासन न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर स्थापित था, जो प्रत्येक प्रगतिशील समाज और राष्ट्र का आदर्श है। विदेशों में पारिवारिक सदस्यों को दूत बनाकर भेजना ही भारत का सांस्कृतिक विस्तार कर सका। असोक ने मानवतावादी विचारों, मूल्यों, आदर्शों का पहली बार विश्व व्यापी सफल मार्केटिंग किया।

इन्होंने संसारिक व्यवस्था की व्यवहारिक आधारभूत व्यवस्था किया, जिसे धम्म पालन कहा जाता है। धम्म आधुनिक धर्म नहीं था, वरन संसार को सम्यक व्यवस्था देने का दर्शन एवं विज्ञान है। यह अलग बात है कि जो लोग धर्म के बिना जीवन में असहजता पाते हैं, वैसे लोगों  ने इस विज्ञान को धर्म बना दिया है। असोक ने अपने शासन व्यवस्था में इस धम्म का व्यापक व्यवहारिक अनुपालन का सफल प्रयोग किया, जिसके अध्ययन के लिए ही विश्व से विद्वानों का भारत आना रहा। इसी नीति पर व्यवस्था कर प्राचीन भारत समृद्ध, शक्तिशाली,  प्रभावशाली और गौरवशाली देस बना रहा। जब सामंतवाद का उदय हुआ और तत्कालीन विश्व को अपने प्रभाव में ले लिया, तो समतावादी समाज का रुपांतरण असमानतावादी समाज में हो गया। समानता के अंत के वाद को सामंत (समानता+अन्त) का वाद यानि सामंतवाद कहते हैं। 

इसी सामंतवादी रुपांतरण से ब्राह्मणवादी व्यवस्था का उदय एवं विकास हुआ। असोक का कल्याणकारी व्यवस्था का प्रभाव काफी लम्बे समय तक चला। बदलती ऐतिहासिक शक्तियों के कारण वैश्विक सामंतवाद का उदय हुआ। हां, सामंतवाद ने भारत में अपने स्वरुप को एक नए धार्मिक आवरण में रख लिया। इसी धार्मिक आवरण के कारण यथास्थितिवादी इतिहासकारों ने भारत में सामंतवाद के प्रभाव को नकार दिया है। इस सामंतवादी प्रभाव को हटाते ही भारत फिर से समृद्ध, शक्तिशाली, प्रभावशाली और गौरवशाली देस (देश) बन जाएगा। 

किसी भी काल में सामाजिक रुपांतरण की यानि इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या सिर्फ और सिर्फ उत्पादन , वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियों एवं साधनों और उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर किया जा सकता है। इसे समझिए।

विद्वजन विचार करें।

धम्म चक्र वर्ती शासक अशोक (असोक) को शत् शत् नमन।

आचार्य निरंजन सिन्हा

पटना।

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

बाबा साहब ने क्यों नहीं कहा : “संघर्ष करो”

"संघर्ष करो"

 शब्द बाबा साहेब के नहीं हैं।

दिनांक 18- 19 जुलाई 1942 को नागपुर में All India Conference of the Depressed Classes की सभा में डॉ भीम राव आम्बेडकर के अंतिम वाक्य थे –

My final words of advice to you are

Educate,  Agitate and  Organise;

have Faith in Yourself.”

इसमें Struggle शब्द नहीं थे।

यह बाबा साहब का सबसे ज्यादा गलत ढंग से उद्धृत (Most misquoted) किया जाने वाला नारा है| अब अक्सर लोग इसे Educate, Organise and Struggle लिखते, बोलते एवं उद्धृत करते हैं| इस नारा में एक नया शब्द – Struggle है और शब्दों की क्रमबद्धता (sequence) भी बदल दी गयी है| 

तो प्रश्न यह उठता है कि क्या बाबा साहेब को Agitate और   Struggle शब्द के अर्थ और भाव का पता नहीं था? , या आज के तथाकथित बुद्धिजीवी आन्दोलन करने वाले  लोगों को यह समझ नहीं है। 

पहले हम बाबा साहब के सही नारा का अर्थ हिन्दी भावार्थ के साथ समझते हैं | यदि “Educate, Agitate and Organise” का हिन्दी भावार्थ किया जाय, तो मेरे अनुसार “शिक्षित करो, मंथन (या मनन) करो, संगठित करो” होता है। नादान लोगों ने एक महान विचारक के एक शब्द बदल कर उनके सम्पूर्ण भावार्थ ही बदल दिया और इसकी क्रमबद्धता (Sequence) भी बिगाड़ दिया| वे Agitate को समझ नहीं पाए और इसलिए इसे हटा दिया| इसके बदले वे लोग एक नया शब्द लाये, जो उन लोगो को अच्छा लगता था और उनक समझ के स्वभाविक स्तर में आता था| शब्दों का अर्थ उनके संदर्भ में होता है और प्रत्येक शब्द का अपना एक सुनिश्चित संरचना होता है। यही 'भाषा का संरचनावद' (Structuralism of Language) भी कहता है।

दरअसल 'Struggle' (संघर्ष) शब्द से शारीरिक उद्वेलन, शारीरिक हलचल तथा शारीरिक उठा-पटक और शारीरिक हिंसा की गंध आती है। (द्वंदात्मक भौतिकवाद)। यह एक नकारात्मक शब्द है, जबकि मनन करना, मंथन करना एक सकारात्मक शब्द है। संघर्ष करना किसी के विरुद्ध होता है और मनन मंथन करना किसी का भी हो सकता है, लेकिन विरोध का भाव नहीं आता। 

साधारणतया या अक्सर लोग अपने व्यक्तित्व के अनुसार ही दूसरों के व्यक्तित्व को समझते हैं। साधारण लोग डा अम्बेडकर के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझ ही नहीं पाते है। ये लोग उनके सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक और वैज्ञानिक पहलु को कल्पना में भी देख नहीं पाते और अपने स्वभाव के अनुसार सिर्फ राजनीतिक पहलू तक सीमित रह जातें हैं। डाक्टर बाबा साहेब अंबेडकर के द्वारा  'Agitate' (मंथन, चिन्तन-मनन) शब्द विशुद्ध रूप से आत्मिक उन्नति के संदर्भ में प्रयुक्त किया गया है। .... और यह आध्यात्मिक क्षेत्र के प्रमुख लक्ष्यों जैसे- वास्तविक ज्ञान, परम संतोष, समस्त भयों से मुक्ति, स्थित-प्रज्ञता, समस्त सांसारिक दुखों से आत्यांतिक मुक्ति तथा अंततः निर्वाण की प्राप्ति हेतु किये जाने वाले उन कठिन मानसिक/ बौद्धिक पराक्रमों एवं पुरुषार्थों को इंगित करता है, जो मनुष्य अपने मन: क्षेत्र (Psychic Field) में सतत् सक्रिय रहकर इसे बुद्ध के अष्टांग मार्ग के संदर्भ में समझा जाय।

कोई शब्द अपने आप किसी अर्थ को जन्म नहीं देते, बल्कि वे एक मृत यांत्रिक ध्वनि संकेत मात्र हैं। वस्तुत: मनुष्य की 'समझ' (Power of Perception) ही किसी शब्द विशेष को कोई अर्थ प्रदान करती है। ..और यहां समझने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मानव की यह 'Perceptional Power' पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार बदलती रहती है।..... और इसी लिए भाषाविज्ञानी कहते हैं कि हमारी भाषा-बोली के तमाम सारे शब्द पीढ़ी दर पीढ़ी अपना अर्थ बदलते जाते हैं या फिर मृत होकर हमारे शब्दकोश से ही गायब हो जाते हैं।

दूसरी बात यह कि किसी शब्द के पर्यायवाची शब्दों के अर्थ कभी भी पूर्णतः समान नहीं होते, बल्कि उनमें संदर्भ भेद के अनुसार थोड़ी-बहुत  भिन्नता अवश्य रहता है। वैसे ही किसी शब्दकोष (डिक्शनरी) में किसी शब्द के जो अनेक अर्थ दिये हुए होते हैं, वे सर्वथा समान अर्थ  नहीं रखते, और न ही उस शब्द के सभी पर्यायवाची शब्द स्थान की सीमा की वजह से अंकित  हो पाते हैं। अतः मेरा निवेदन है कि 'Agitation' का एक अर्थ भारतीय अध्यात्मिक परंपरा के संदर्भ में समझने का प्रयास किया जाय, न कि उसका अर्थ केवल आधुनिक लोकतांत्रिक शासन प्रणालियों के जिन्दाबाद-मुर्दाबाद या साम्यवादी पृष्ठभूमि के शोषक- शोषित या मालिक- मजदूर के संदर्भ में ही समझा जाय।  

लेकिन लोग बाबा साहेब के राजनीतिक कैरियर से कंफ्यूज होकर इस शब्द का अर्थ साम्यवादी/ समाजवादी विचारधारा के संदर्भ में निकालने लगते हैं। बस सारी गड़बड़ी की जड़ यही है। और परिणाम यह होता है कि हम 'स्वतंत्रता आंदोलन' की परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में उपरोक्त शब्द के वास्तविक संदर्भ को ही बदल बैठते हैं।

वर्तमान क्रांतिकारी शूरवीर यह नहीं समझना चाहते हैं कि एक महान विद्वान एवं विचारक ने ये शब्द क्यों दिए और उनकी क्रमबद्धता के विशिष्ट अर्थ क्या थे? वे कम से कम डॉ आम्बेडकर के नाम पर तो ठहर जाते| कम से कम उन्हें (बाबा साहब को) को तो हम अपनों से बड़ा जानकार मान लेते, तो शायद यह गलती नहीं करते| यह संशोधन किसी दुसरे के कहने पर किया गया या नासमझी में किया गया, मुझे पता नहीं| इसमें परिवर्तन साजिश के अंतर्गत मानना गलत नहीं होगा| इस परिवर्तन का कितना बड़ा अंतर पड़ता है, शायद उनको इसका अंदाजा ही नहीं है| एक झटके में उस महान विचारक के शोधित (Refined) और गंभीर नारा को बरबाद कर दिया गया और मानवता का बहुत बड़ा अहित कर दिया|

पहले तो यह जाना जाय कि इस नारा के संकेत (Clue) या सूत्र बाबा साहब ने कहाँ से लाया? बाबा साहब मानवता के महान वैज्ञानिक तथागत बुद्ध के अनुयायी थे| इन्होंने उनके दर्शन एवं सिद्धांत का सम्यक अध्ययन किया और एक पुस्तक भी लिखी – “बुद्ध एवं उनका धम्म”| बुद्ध विश्व के महान विचारक एवं वैज्ञानिक थे| उनके दर्शन का मूल सिद्धांत था –

बुद्धम शरणम गच्छामि|

धम्म शरणम गच्छामि||

संघम शरणम गच्छामि|||

इनके क्रम पर भी ध्यान दिया जाय| 

बुद्धम शरणम गच्छामि” का अर्थ हुआ – बुद्धि के शरण में जाता हूँ| बुद्ध एक संस्था थे। और बुद्ध बुद्धि का एक उपाधि भी था| गोतम (बुद्ध इस परम्परा में 28 वे बुद्ध थे) एक व्यक्ति भी थे, परन्तु बुद्ध भारत में बुद्धिवादियों की एक परम्परा के क्रम में एक नाम भी है| बुद्धि अवलोकन एवं अध्ययन (शिक्षा) से आता है| अत: बुद्ध (यानि बुद्धि) के शरण में जाता हूँ| 

धम्म शरणम गच्छामि” का अर्थ हुआ – किसी भी चीज के अवलोकन एवं अध्ययन (शिक्षण) के उपरान्त उसमे जो धारण करने योग्य है, उसे धारण करता हूँ| धम्म क्या है? धारेति ति धम्मो| जो धारण करने योग्य है, वह धम्म है| अर्थात जो मानवता के कल्याण में मानवीय गुण है, वह धारण करने योग्य है| अर्थात अवलोकन एवं अध्ययन के उपरान्त जो मानव कल्याणार्थ है, उसे धारित करता हूँ| 

इसी तरह “संघम शरणम गच्छामि” का अर्थ हुआ – आपने जो अवलोकन एवं अध्ययन के उपरान्त जो धारण किया, उस पर आवश्यकता अनुसार सम्यक निष्कर्ष के लिए संघ के शरण में जाता हूँ, या उन धारित तथ्यों एवं बातों को संगठित करता हूं| किसी भी अध्ययन का सही निष्कर्ष तभी पा सकते हैं, जब आप उसे विद्वानों की मंडली में विमर्श के लिए उपस्थापित करते हैं | विद्वानों से विमर्श संघ, संगठन  में ही हो सकता है और इसीलिए संघ के शरण में जाता हूँ। ताकि अध्ययन का सही, सम्यक एवं मानवता के अनुरूप अर्थ पाया जा सके| शब्द Organise का एक अर्थ संगठित करना और व्यवस्थित (Systematic) करना भी है। अर्थात सीखे गए और मनन मंथन किए गए विचारों को आवश्यकता अनुसार व्यवस्थित करना भी है। इस पर ध्यान दिया जाए।

बाबा साहेब ने ज्ञान के इसी सिद्धांत को आज की परिस्थितियों के अनुरूप एक क्रम में रखा – अध्ययन करो अर्थात शिक्षित बनों यानि शिक्षा पाओ (शिक्षित करों या बनो); उस अध्ययन यानि शिक्षा का मनन- मंथन करो, ताकि उसमे धारण करने योग्य बनाया जा सके (मंथन करो); धारण किये गए विषय वस्तु पर सम्यक विमर्श के लिए संगठित हो, ताकि सही, सम्यक एवं उचित निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके (संगठित हो)| संगठित करने का एक अर्थ यह भी है कि अध्ययन किए गए और मनन मंथन के उपरान्त निकाले गए निष्कर्ष को अपनी आवश्यकता के अनुसार व्यवस्थित करना यानि संगठित करना भी है।

हमलोग उस महान विचारक का भाव एवं अर्थ समझे बिना उसमे संशोधन कर देते हैं, जो उस महान विचार के प्रति समुचित व्यवहार नहीं है| Agitate शब्द का सही अर्थ संदर्भवश मनन मंथन करना होता है ; नहीं कि संघर्ष करना| दही को मथ (मंथन) कर घी निकालने वाला यंत्र Agitator (घोटना) कहलाता है,  जो किसी भी ग्रामीण घर में होता है| इसे दाल घोंटना भी कहते हैं। अत: Agitate  शब्द को तथा उसके अर्थ को अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए, उसे सही संदर्भ में समझा जाना चाहिये|

बाबा साहब ने “संघर्ष करो” क्यों नहीं कहा? शब्दों का अर्थ, भाव, कल्पना और प्रभाव का बहुत अन्तर पड़ता है। हम जो शब्द बोलते हैं, बोलते ही उस शब्द की कल्पना में छायाचित्र बन जाता है| यह विज्ञान में स्थापित हो चुका है, कि जो शब्द हम कल्पना में लाते हैं, वे अपने से सम्बन्धित और विचारों को जोड़ते हैं, उसे समृद्ध करते है और उस पर हमारा केन्द्रण (Concentration) बढ़ जाता है, उसमें ऊर्जा का प्रवाह बढ़ जाता है| जिन शब्दों पर हमारा संकेंद्रण बढ़ता है और जो शब्द कल्पना में होते हैं, वहीं जीवन में भौतिक स्वरूप में बदल जाते हैं। ऐसे लोगों का जीवन सदैव संघर्षशील होता है और उन्हें शायद ही कोई सफलता मिलती हो। संघर्ष शब्द से हमारी सकारात्मकता एवं रचनात्मकता घटने लगती है| हम गलत दिशा में उलझने लगते हैं, भटकने लगते हैं। भारत के लोगों में सकारात्मकता एवं रचनात्मकता बढ़ाने के लिए ही बाबा साहेब ने "संघर्ष करो" नहीं कहा।

शब्दों के अर्थ क्या होते हैं और कितने महत्वपूर्ण होते है, यह समझने के लिए एक सही प्रसंग उद्धृत कर रहा हूँ| नोबल पुरस्कार से सम्मानित मदर टेरेसा कोलकाता में रहती थीं| एक बार एक सामाजिक कार्यकर्ता उनके पास एक “युद्ध विरोधी” रैली में शामिल होने के लिए अनुरोध करने आया| उन्होंने युद्ध विरोधी रैली में शामिल होने से मना कर दिया| उन्होंने कहा – “मैं युद्ध विरोधी रैली में शामिल नहीं हो सकती, परन्तु शान्ति के समर्थन में यदि कोई रैली निकलना तो मुझे जरुर बुलाना|” पहले दोनों शब्द (युद्ध एवं विरोधी) नकारात्मक थे - ये दोनों नकारात्मकता पैदा करता है, ऊर्जा का स्तर घटाता है और नकारात्मक चित्रण करता है, जो जीवन में ठोस स्वरुप लेने लगता है| जबकि “शान्ति के समर्थन“ में दोनों शब्द सकारात्मक हैं, सकारात्मक चित्रण करता है, और ऊर्जा का स्तर भी बढ़ता है| अब आप एक ही भावार्थ के दो विपरीत अर्थ के शब्दों को समझ गए होंगे| कितना अंतर पड़ गया और इसीलिए एक स्थापित हस्ती ने इसमें सावधानी बरतीं| हम भी सावधान हो जाएँ|

बाबा साहेब ने भारत में वह काम किया, जो शताब्दियों से कोई नहीं कर पाया| क्या उन्होंने संघर्ष किया? क्या कभी कोई उदहारण ,है जो लाठी से भी संघर्ष किया गया है और उस संघर्ष में बाबा साहब शामिल हुए है? बिना किसी हथियार या संघर्ष के उन्होंने वह कर दिया, जो कोई बड़े सेना का सेनापति नहीं कर सकता है| बाबा साहेब चाहते थे कि उनका यह कारवां मानवता के लिए अग्रसर होता रहे| उनके असामयिक देहांत होने और उनके अनुयायियों के द्वारा उनके मिशन को भटका दिए जाने से निश्चय ही भारत में मानवता को अभूतपूर्व नुकसान हुआ है|

विक्टर ह्यूगो कहते हैं – “जब एक उपयुक्त विचार के लिए उपयुक्त समय आता है, तो सारी सेनाओं की शक्तियाँ उनके सामने कुछ नहीं होता|” यह विचार की शक्तियों को रेखांकित करता है। इसीलिए किसी चतुर चालाक साजिशकर्ता ने एक महान विचारक के सबसे प्रमुख विचार में ही विरुपण (Distortion) यानि तोड़फोड़ (Break off) कर उसके प्रभाव को घटा दिया है, या निष्प्रभावी (Ineffective) बना दिया है। बाबा साहेब के सबसे प्रमुख विचार के साथ यही साजिश की गई, जिसे नादान अनुयायियों ने सही मान लिया। ये नादान आज भी स्वयं भटक रहे हैं और अपने लोगों को भी भटका रहे हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो वे बाबा साहेब आंबेडकर से भी ज्यादा ज्ञानी है और इसलिए बाबा साहेब के प्रमुख निचोड़ सूत्र में ही संशोधन कर दिया।

आज जब हम एक महान विचारक का प्रमुख सूत्र यानि नारा यानि उनके दर्शन यानि सिद्धांत के निचोड़ को ही बदल दिए हों; तब हम कैसे आगे बढ़ेंगे और उनके कारवाँ को कैसे बढ़ाएंगे? हमें सोचने समझने के लिए ठहरना होगा| हमें समझना होगा| हमें विमर्श करना होगा कि समुचित और सत्य क्या है?

यदि कोई बाबा साहेब के उक्त सूक्त को बदलना चाहता है, तो बदल सकते हैं, संशोधित कर सकते हैं, लेकिन अपने नाम पर ऐसा करे; लेकिन बाबा साहेब के नाम पर नहीं करे, यानि बाबा साहेब का बता कर प्रचारित, प्रसारित एवं प्रचालित कदापि नहीं करे। 

आइये, इस अवसर पर एक सम्यक विमर्श शुरू करें| तब ही 140 करोड़ का मानव संसाधन अपने संभाव्य क्षमता का महत्तम उपयोग कर सकेगा और मानवता का महाकल्याण हो सकेगा| इससे राष्ट्र और समाज में सुख, शान्ति एवं समृद्धि स्थापित होगा|

निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

बुद्ध का अध्यात्म

 हम पहले अध्यात्म को समझें, फिर बुद्ध का अध्यात्म समझेंगे| 

इस "अध्यात्म" को 'अध्ययन एवं आत्म' का संयुक्ताक्षर भी समझा जाना चाहिए | अत: इसे आत्म (Self) का अध्ययन समझा जाना चाहिए| अब प्रश्न है कि यह आत्म का अध्ययन किसके सन्दर्भ में और क्यों? "अध्यात्म" को 'अधि एवं आत्म' का संयुक्ताक्षर भावार्थ भी माना जाता है, जिसका अर्थ होता है आत्म से 'ऊपर' यानि 'परे' यानि 'अलग'| यही ऊपर या परे यह दर्शाता है, कि आत्म का सम्बन्ध किसी दुसरे सन्दर्भ में भी है| अध्यात्म को अंग्रेजी में SPIRIT कहते हैं, जिसका अर्थ "अधि प्राकृतिक वस्तु या भाव" (Super Natural Being or Essence) का होना है| इस अध्यात्म को मन (Mind - विचार, बुद्धि, मानस, मस्तिष्क, ध्यान, चित्त, स्मरण, रूचि) का विशेष अवस्था या ढांचा या अभिवृति (Attitude) भी कहते हैं| इसे मन का विशेष झुकाव (A mental disposition) भी समझा जाता है| इस मन या चित्त या आत्म को आत्मा (Soul) से नहीं जोडा जाए, जो विशिष्ट भारतीय अवधारणा है।  आत्म या मन, चित या मानस भारत में प्रचलित 'आत्मा' से सर्वथा भिन्न है| यह भी ध्यान रहे कि तथागत बुद्ध इस आत्मा अवधारणा को गलत, अवैज्ञानिक एवं साजिश भी मानते थे|

मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में या किसी विशेष उपलब्धियों को पाने वाले हरेक व्यक्ति आध्यात्मिक होता ही है| यह अलग बात है, कि वह सफल एवं विशेष व्यक्ति इसे अध्यात्म का नाम देता है या नहीं| शायद उसे उस प्रक्रिया का नाम अध्यात्म का पता ही नहीं हो| इसका अर्थ यह हुआ कि अध्यात्म एक प्रक्रिया है, जिससे हर सफल या विशिष्ट व्यक्ति गुजरता ही होता है| इसे विशेष पोशाक, व्यवहार, चाल- ढाल या निवास से इंगित नहीं किया जा सकता है| यह एक शुद्ध विज्ञान है, जो एक व्यक्ति को विशेष प्रक्रिया से अनन्त प्रज्ञा को जोडती है| इसे आगे समझते हैं|

अध्यात्म एक उत्सुकता पैदा करने वाला रोचक शब्द है| इसे मजाक में कुछ लोग आत्म से ऊपर गुजर जाने वाला अर्थ मानते हैं, अर्थात आत्म से जुडी वे सभी बातें जो समझ से परे हो| यानि आत्म से जुडी सभी ना समझ में आने वाली बातें अध्यात्म है| व्यावहारिक रूप में यह अर्थ गलत नहीं है, परन्तु समुचित भी नहीं है| सामान्य लोग इसे भक्ति या ईश्वर या अलौकिक सत्ता से जोड़ देते हैं, जो ग़लत है| ् इस तरह की इन गतिविधियों में लीन या लिप्त लोग ‘आध्यात्मिक’ कहा जाना गलत है|

तथाकथित बौद्धिक लोग इसे घिसा- पिटा शब्द या भाव मानते हैं| इसे भावहीन, अर्थहीन एवं पुराना होने के कारण ही घिस गया मानते हैं| इसकी कोई उपयोगिता नहीं माने जाने से इसे पिट गया भी बताया जाता है| मैं भी दो दशक पहले इसे ऐसा ही समझता था| लेकिन अब इसे घिसा और पिटा हुआ नहीं मानता हूँ| अब इसे विज्ञान की आधुनिकतम क्षेत्र क्वांटम भौतिकी एवं क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत (Quantam Field Theory) के आलोक में समझने एवं समझाने का प्रयास कर रहा हूँ| अध्यात्म का क्षेत्र जीवन में सफलता का सिद्धांत है|

वास्तव में अध्यात्म प्रकृति के कार्य- नियमों एवं उसकी क्रियाविधि को जानना है। इसे जान एवं समझ कर इसका जीवन में कल्याणकारी उपयोग करना ही अध्यात्म है| इसे आस्थावाद (परम्परागत भक्ति) से कोई लेना देना नहीं है| दरअसल इसके इतने महत्वपूर्ण पक्ष एवं महत्वपूर्ण उपयोग के कारण ही कुछ ढोंगी एवं स्वार्थी प्रवृति के लोग इसका दुरूपयोग कर रहे हैं, या यों कहें, इसका उपयोग नगण्य एवं दुरूपयोग अधिकतम हो रहा है|

स्पष्ट है कि अध्यात्म कोई ईश्वरीय ज्ञान या ईश्वरीय चर्चा का विषय या क्षेत्र नहीं है| यह अध्यात्म 'आत्म' को यानि 'आपको' "अनन्त प्रज्ञा" (Infinite Intelligence) यानि "अनन्त शक्ति" या "अनन्त व्यवस्था" से जोड़ने की विधा है, तकनीक है, कौशल है, विषय है, जिसे कोई भी सीख या प्राप्त कर सकता है| इसे आप ऐसा मानवीय स्वभाव कह सकते हैं, जिसके द्वारा कोई भी अनन्त प्रज्ञा अर्थात प्राकृतिक अदृश्य शक्तियों का उपयोग अपने एवं मानव कल्याण के लिए करता है| 

बुद्ध का अध्यात्म इसी आत्म का तटस्थ अवलोकन कर उसे नियंत्रित करना है। इस अवलोकन के लिए आपको अपने आत्म को अपने शरीर से अलग कर एवं तटस्थ कर अवलोकन करना होता है। इस विधि या प्रक्रिया को ही विपश्यना यानि विपस्सना कहा गया है। इसीलिए अल्बर्ट आईंस्टीन ने कहा है कि किसी भी समस्या का समाधान चेतना के उसी स्तर पर नहीं किया जा सकता है, जिस चेतना के स्तर पर उस समस्या का उत्पादन होता है। अतः किसी भी समस्या का समाधान उस चेतना के स्तर से भिन्न स्तर पर ही होगा।  उस 'आत्म' को अनन्त प्रज्ञा से जोड़ने एवं उसकी शक्तियों को प्राप्त कर मानव उपयोग में लाने की प्रविधि है, तकनीक है, अभियंत्रण है| विपश्यना आपके आत्म को अनन्त प्रज्ञा से जोड़ता है और अनन्त ज्ञान आपको उपलब्ध कराता है, जो आपको चाहिए।

अध्यात्म कोई पारलौकिक दर्शन या भक्ति का दर्शन या इसी प्रकार का कोई विश्लेषण भी नहीं है| यह किसी के शरीर से पृथक एक व्यापक सत्ता या व्यवस्था या प्रणाली से सम्बन्ध जोड़ने एवं उसका उपयोग करने की प्रक्रिया है, व्यवस्था है या प्रणाली है| यह शरीर से अलग कोई पृथक व्यक्तिगत सत्ता भी नहीं है; लोग आत्म (Self) को आत्मा (Soul) बनाकर शरीर से अलग एक सत्ता का भ्रम बनाते या पैदा करते देते हैं|

कुछ लोग प्रत्येक वस्तु के मूलभाव यानि मूल स्वाभाव को ही अध्यात्म कहते हैं, यह समुचित प्रतीत नहीं होता| किसी भी वस्तु के मूल भाव यानि मूल स्वभाव को ही बौद्ध दर्शन में 'धम्म' कहा गया है| “धारेती ति धम्मों”| जो ‘गुण’ धारण किए हुए है, वह (गुण) उसका धम्म है, यानि धर्म है, यानि उसका स्वभाव है| पानी का गुण शीतलता प्रदान करना, आग बुझाना, बह जाना, बर्तन में धारित किए जाने पर बर्तन का आकार ग्रहण करना, अपना तल (Level) स्वयं खोज लेना आदि पानी का धम्म है, धर्म है, स्वभाव है| परन्तु यह गुण धारण करना अध्यात्म नहीं है|

अध्यात्म का स्वभाव मानव में हो सकता है, किसी दुसरे जीवों एवं वस्तुओं में नहीं| वस्तुओ में चेतना नहीं होती है और इसीलिए वस्तु स्वयं का प्रयोग नहीं कर सकता| जीवों में चेतना होती है और वह किसी भी दिशा में या दशा में कोई या कुछ कार्य कर सकता है, परन्तु वह मानव की तरह सोच एवं विचार नहीं कर सकता है| मानव ही एक ऐसा जीव है जो अपने सोच एवं विचार पर भी विचार करता है, कर सकता है; किसी और जीव में अपने सोच एवं विचार पर भी विचार करने की क्षमता नहीं होती| इसीलिए मानव आध्यात्मिक हो सकता है, कोई और जीव या वस्तु आध्यात्मिक नहीं हो सकता है|

किसी मानव के स्वयं सत्ता (Self Authority) और अनन्त प्रज्ञा यानि प्राकृतिक शक्तियों की सत्ता के मध्य कोई संक्रमणशील (Transit) सत्ता की अवधारणा मानी जा सकती है| चूँकि यह संक्रमणशील है, अत: इसे स्वतंत्र स्वरुप नहीं दिया जाना चाहिए| यह तो सिर्फ स्वयं की सत्ता एवं अनन्त प्रज्ञा की सत्ता के मध्य जोड़ने वाली अवस्था है, कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं| अत: अदृश्य या मानसिक स्तर पर दो ही सत्ता हुई – एक स्वयं की सत्ता एवं दूसरी अनन्त प्रज्ञा की सत्ता|

स्वभाव किसी भी वस्तु या जीव का अपना (स्व का) भाव होता है| स्व एवं भाव| किसी भी वस्तु का स्वयं का भाव उसके अन्दर की व्यवस्था और बाह्य व्यवस्था के द्वारा संचालित, निर्देशित या नियंत्रित हो सकता है| स्वानुभूति किसी का स्व यानि स्वयं की अनुभूति होती है, अर्थात किसी के प्रति स्वयं की संवेदना या भाव होता है| किसी भी मानव का स्व का अस्तित्व उसके शारीरिक काया में ही रह सकता है, उसके शारीरिक  क्षेत्र से बाहर नहीं रह सकता| किसी के शरीर के अन्दर ही सुख है, दुःख है, विज्ञान है, दर्शन है, प्रश्न है, जिज्ञासा है, उत्सुकता है और शरीर के अन्दर ही बुद्धि, विवेक, विचार, दृष्टि, मन, चित्त आदि है| 'स्व' यानि 'स्वयं' यानि 'आत्म' को अभी तक तरंगीय या उर्जा या कण के मैट्रिक्स (Matrix – आव्यूह) की सता के रूप में परिभाषित या चिन्हित नहीं किया गया है| इस दिशा में विज्ञान को भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली हैं| CERN के वैज्ञानिक भी इस अवस्था के पूर्व की अवस्थाओं की स्थापना एवं सत्यापन में लगे हुए हैं| शायद वे इस अवस्था के बाद उस दिशा में आगे बढ़ें|

"स्व" (Self) के लिए 'अर्थ' (धन) निकलना ही 'स्वार्थ' है, तो 'स्व' पर 'अभिमान' करना 'स्वाभिमान' है| किसी भी विचार या वस्तु के प्रति अभिमान करना एक हद तक गतिविधियों के सञ्चालन के लिए प्रेरक होता है| यह अभिमान किसी भी चीज को पैदा करने के लिए प्रेरित करता है, संचालित करता है और नियंत्रित करता है| किसी भी सीमाओं का अतिक्रमण नकारात्मक प्रभाव पैदा करता है और इसीलिए स्वाभिमान का अति सीमाओं का अतिक्रमण है|  

"स्व" (Self) का एक निर्धारित क्षेत्र होता है, जिसे विमाओं (Dimensions) के दृष्टिकोण से भौगोलिक (आकाशीय) क्षेत्र कह सकते हैं| वैसे तो किसी भी वस्तु के भौगोलिक क्षेत्र में स्थान निर्धारण में सामान्यत: तीन विमायें (X, Y, Z – अक्ष) ही स्वीकार्य है, परन्तु अल्बर्ट आइंस्टीन के चौथे विमा – समय (Time) के साथ इसका क्षेत्र और विस्तारित एवं व्यापक हो जाता है| इस तरह 'स्व' की सीमा या दायरा यह भौतिक शरीर ही है| इसी स्व का विस्तार में परिवार, समुदाय, राष्ट्र एवं मानवता आता है| इस विस्तार में विविध वस्तुएं एवं जीव –जन्तु आ सकते हैं| इसके महत्तम विस्तार में आप ब्रह्माण्ड को शामिल कर सकते हैं| इस्रायली लेखक युवाल नोहा हरारी जिस “देव मानव” (Homo Deus) की कल्पना निकट भविष्य में की है, उसके कारण स्व में ब्रह्माण्ड भी शामिल होता दिखता है| जब स्व का चरम विस्तार हो जाता है, तो वह स्व परम हो जाता है| जब इस परम के लिए अर्थ जोड़ते हैं, तो आप परमार्थ करते हैं|

आपने देखा कि 'स्व' का सम्बन्ध 'भाव' से है और यह स्व एवं स्वभाव मिलकर संसार बनाता है और चलाता है| यही दोनों इस संसार को निर्देशित एवं नियंत्रित कर आपके लिए सफलताओं का द्वार खोलता है| तथागत बुद्ध कहते हैं कि स्व का भाव – स्वभाव उस व्यक्ति के मन यानि चित्त यानि स्व से निर्देशित, नियंत्रित एवं संचालित होता है| अत: सबसे प्रमुख मन का अध्ययन, अवलोकन, नियंत्रण एवं केन्द्रण है| इस दिशा में तथागत का योगदान अवश्य ही अप्रतिम है|इस विधा का आविष्कार सबसे पहले तथागत बुद्ध ने किया, जो मानवता को शानदार उपहार है। यही बुद्ध का अध्यात्म है।

आचार्य निरंजन सिन्हा 


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