शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

बुद्ध का अध्यात्म

 हम पहले अध्यात्म को समझें, फिर बुद्ध का अध्यात्म समझेंगे| 

इस "अध्यात्म" को 'अध्ययन एवं आत्म' का संयुक्ताक्षर भी समझा जाना चाहिए | अत: इसे आत्म (Self) का अध्ययन समझा जाना चाहिए| अब प्रश्न है कि यह आत्म का अध्ययन किसके सन्दर्भ में और क्यों? "अध्यात्म" को 'अधि एवं आत्म' का संयुक्ताक्षर भावार्थ भी माना जाता है, जिसका अर्थ होता है आत्म से 'ऊपर' यानि 'परे' यानि 'अलग'| यही ऊपर या परे यह दर्शाता है, कि आत्म का सम्बन्ध किसी दुसरे सन्दर्भ में भी है| अध्यात्म को अंग्रेजी में SPIRIT कहते हैं, जिसका अर्थ "अधि प्राकृतिक वस्तु या भाव" (Super Natural Being or Essence) का होना है| इस अध्यात्म को मन (Mind - विचार, बुद्धि, मानस, मस्तिष्क, ध्यान, चित्त, स्मरण, रूचि) का विशेष अवस्था या ढांचा या अभिवृति (Attitude) भी कहते हैं| इसे मन का विशेष झुकाव (A mental disposition) भी समझा जाता है| इस मन या चित्त या आत्म को आत्मा (Soul) से नहीं जोडा जाए, जो विशिष्ट भारतीय अवधारणा है।  आत्म या मन, चित या मानस भारत में प्रचलित 'आत्मा' से सर्वथा भिन्न है| यह भी ध्यान रहे कि तथागत बुद्ध इस आत्मा अवधारणा को गलत, अवैज्ञानिक एवं साजिश भी मानते थे|

मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में या किसी विशेष उपलब्धियों को पाने वाले हरेक व्यक्ति आध्यात्मिक होता ही है| यह अलग बात है, कि वह सफल एवं विशेष व्यक्ति इसे अध्यात्म का नाम देता है या नहीं| शायद उसे उस प्रक्रिया का नाम अध्यात्म का पता ही नहीं हो| इसका अर्थ यह हुआ कि अध्यात्म एक प्रक्रिया है, जिससे हर सफल या विशिष्ट व्यक्ति गुजरता ही होता है| इसे विशेष पोशाक, व्यवहार, चाल- ढाल या निवास से इंगित नहीं किया जा सकता है| यह एक शुद्ध विज्ञान है, जो एक व्यक्ति को विशेष प्रक्रिया से अनन्त प्रज्ञा को जोडती है| इसे आगे समझते हैं|

अध्यात्म एक उत्सुकता पैदा करने वाला रोचक शब्द है| इसे मजाक में कुछ लोग आत्म से ऊपर गुजर जाने वाला अर्थ मानते हैं, अर्थात आत्म से जुडी वे सभी बातें जो समझ से परे हो| यानि आत्म से जुडी सभी ना समझ में आने वाली बातें अध्यात्म है| व्यावहारिक रूप में यह अर्थ गलत नहीं है, परन्तु समुचित भी नहीं है| सामान्य लोग इसे भक्ति या ईश्वर या अलौकिक सत्ता से जोड़ देते हैं, जो ग़लत है| ् इस तरह की इन गतिविधियों में लीन या लिप्त लोग ‘आध्यात्मिक’ कहा जाना गलत है|

तथाकथित बौद्धिक लोग इसे घिसा- पिटा शब्द या भाव मानते हैं| इसे भावहीन, अर्थहीन एवं पुराना होने के कारण ही घिस गया मानते हैं| इसकी कोई उपयोगिता नहीं माने जाने से इसे पिट गया भी बताया जाता है| मैं भी दो दशक पहले इसे ऐसा ही समझता था| लेकिन अब इसे घिसा और पिटा हुआ नहीं मानता हूँ| अब इसे विज्ञान की आधुनिकतम क्षेत्र क्वांटम भौतिकी एवं क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत (Quantam Field Theory) के आलोक में समझने एवं समझाने का प्रयास कर रहा हूँ| अध्यात्म का क्षेत्र जीवन में सफलता का सिद्धांत है|

वास्तव में अध्यात्म प्रकृति के कार्य- नियमों एवं उसकी क्रियाविधि को जानना है। इसे जान एवं समझ कर इसका जीवन में कल्याणकारी उपयोग करना ही अध्यात्म है| इसे आस्थावाद (परम्परागत भक्ति) से कोई लेना देना नहीं है| दरअसल इसके इतने महत्वपूर्ण पक्ष एवं महत्वपूर्ण उपयोग के कारण ही कुछ ढोंगी एवं स्वार्थी प्रवृति के लोग इसका दुरूपयोग कर रहे हैं, या यों कहें, इसका उपयोग नगण्य एवं दुरूपयोग अधिकतम हो रहा है|

स्पष्ट है कि अध्यात्म कोई ईश्वरीय ज्ञान या ईश्वरीय चर्चा का विषय या क्षेत्र नहीं है| यह अध्यात्म 'आत्म' को यानि 'आपको' "अनन्त प्रज्ञा" (Infinite Intelligence) यानि "अनन्त शक्ति" या "अनन्त व्यवस्था" से जोड़ने की विधा है, तकनीक है, कौशल है, विषय है, जिसे कोई भी सीख या प्राप्त कर सकता है| इसे आप ऐसा मानवीय स्वभाव कह सकते हैं, जिसके द्वारा कोई भी अनन्त प्रज्ञा अर्थात प्राकृतिक अदृश्य शक्तियों का उपयोग अपने एवं मानव कल्याण के लिए करता है| 

बुद्ध का अध्यात्म इसी आत्म का तटस्थ अवलोकन कर उसे नियंत्रित करना है। इस अवलोकन के लिए आपको अपने आत्म को अपने शरीर से अलग कर एवं तटस्थ कर अवलोकन करना होता है। इस विधि या प्रक्रिया को ही विपश्यना यानि विपस्सना कहा गया है। इसीलिए अल्बर्ट आईंस्टीन ने कहा है कि किसी भी समस्या का समाधान चेतना के उसी स्तर पर नहीं किया जा सकता है, जिस चेतना के स्तर पर उस समस्या का उत्पादन होता है। अतः किसी भी समस्या का समाधान उस चेतना के स्तर से भिन्न स्तर पर ही होगा।  उस 'आत्म' को अनन्त प्रज्ञा से जोड़ने एवं उसकी शक्तियों को प्राप्त कर मानव उपयोग में लाने की प्रविधि है, तकनीक है, अभियंत्रण है| विपश्यना आपके आत्म को अनन्त प्रज्ञा से जोड़ता है और अनन्त ज्ञान आपको उपलब्ध कराता है, जो आपको चाहिए।

अध्यात्म कोई पारलौकिक दर्शन या भक्ति का दर्शन या इसी प्रकार का कोई विश्लेषण भी नहीं है| यह किसी के शरीर से पृथक एक व्यापक सत्ता या व्यवस्था या प्रणाली से सम्बन्ध जोड़ने एवं उसका उपयोग करने की प्रक्रिया है, व्यवस्था है या प्रणाली है| यह शरीर से अलग कोई पृथक व्यक्तिगत सत्ता भी नहीं है; लोग आत्म (Self) को आत्मा (Soul) बनाकर शरीर से अलग एक सत्ता का भ्रम बनाते या पैदा करते देते हैं|

कुछ लोग प्रत्येक वस्तु के मूलभाव यानि मूल स्वाभाव को ही अध्यात्म कहते हैं, यह समुचित प्रतीत नहीं होता| किसी भी वस्तु के मूल भाव यानि मूल स्वभाव को ही बौद्ध दर्शन में 'धम्म' कहा गया है| “धारेती ति धम्मों”| जो ‘गुण’ धारण किए हुए है, वह (गुण) उसका धम्म है, यानि धर्म है, यानि उसका स्वभाव है| पानी का गुण शीतलता प्रदान करना, आग बुझाना, बह जाना, बर्तन में धारित किए जाने पर बर्तन का आकार ग्रहण करना, अपना तल (Level) स्वयं खोज लेना आदि पानी का धम्म है, धर्म है, स्वभाव है| परन्तु यह गुण धारण करना अध्यात्म नहीं है|

अध्यात्म का स्वभाव मानव में हो सकता है, किसी दुसरे जीवों एवं वस्तुओं में नहीं| वस्तुओ में चेतना नहीं होती है और इसीलिए वस्तु स्वयं का प्रयोग नहीं कर सकता| जीवों में चेतना होती है और वह किसी भी दिशा में या दशा में कोई या कुछ कार्य कर सकता है, परन्तु वह मानव की तरह सोच एवं विचार नहीं कर सकता है| मानव ही एक ऐसा जीव है जो अपने सोच एवं विचार पर भी विचार करता है, कर सकता है; किसी और जीव में अपने सोच एवं विचार पर भी विचार करने की क्षमता नहीं होती| इसीलिए मानव आध्यात्मिक हो सकता है, कोई और जीव या वस्तु आध्यात्मिक नहीं हो सकता है|

किसी मानव के स्वयं सत्ता (Self Authority) और अनन्त प्रज्ञा यानि प्राकृतिक शक्तियों की सत्ता के मध्य कोई संक्रमणशील (Transit) सत्ता की अवधारणा मानी जा सकती है| चूँकि यह संक्रमणशील है, अत: इसे स्वतंत्र स्वरुप नहीं दिया जाना चाहिए| यह तो सिर्फ स्वयं की सत्ता एवं अनन्त प्रज्ञा की सत्ता के मध्य जोड़ने वाली अवस्था है, कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं| अत: अदृश्य या मानसिक स्तर पर दो ही सत्ता हुई – एक स्वयं की सत्ता एवं दूसरी अनन्त प्रज्ञा की सत्ता|

स्वभाव किसी भी वस्तु या जीव का अपना (स्व का) भाव होता है| स्व एवं भाव| किसी भी वस्तु का स्वयं का भाव उसके अन्दर की व्यवस्था और बाह्य व्यवस्था के द्वारा संचालित, निर्देशित या नियंत्रित हो सकता है| स्वानुभूति किसी का स्व यानि स्वयं की अनुभूति होती है, अर्थात किसी के प्रति स्वयं की संवेदना या भाव होता है| किसी भी मानव का स्व का अस्तित्व उसके शारीरिक काया में ही रह सकता है, उसके शारीरिक  क्षेत्र से बाहर नहीं रह सकता| किसी के शरीर के अन्दर ही सुख है, दुःख है, विज्ञान है, दर्शन है, प्रश्न है, जिज्ञासा है, उत्सुकता है और शरीर के अन्दर ही बुद्धि, विवेक, विचार, दृष्टि, मन, चित्त आदि है| 'स्व' यानि 'स्वयं' यानि 'आत्म' को अभी तक तरंगीय या उर्जा या कण के मैट्रिक्स (Matrix – आव्यूह) की सता के रूप में परिभाषित या चिन्हित नहीं किया गया है| इस दिशा में विज्ञान को भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली हैं| CERN के वैज्ञानिक भी इस अवस्था के पूर्व की अवस्थाओं की स्थापना एवं सत्यापन में लगे हुए हैं| शायद वे इस अवस्था के बाद उस दिशा में आगे बढ़ें|

"स्व" (Self) के लिए 'अर्थ' (धन) निकलना ही 'स्वार्थ' है, तो 'स्व' पर 'अभिमान' करना 'स्वाभिमान' है| किसी भी विचार या वस्तु के प्रति अभिमान करना एक हद तक गतिविधियों के सञ्चालन के लिए प्रेरक होता है| यह अभिमान किसी भी चीज को पैदा करने के लिए प्रेरित करता है, संचालित करता है और नियंत्रित करता है| किसी भी सीमाओं का अतिक्रमण नकारात्मक प्रभाव पैदा करता है और इसीलिए स्वाभिमान का अति सीमाओं का अतिक्रमण है|  

"स्व" (Self) का एक निर्धारित क्षेत्र होता है, जिसे विमाओं (Dimensions) के दृष्टिकोण से भौगोलिक (आकाशीय) क्षेत्र कह सकते हैं| वैसे तो किसी भी वस्तु के भौगोलिक क्षेत्र में स्थान निर्धारण में सामान्यत: तीन विमायें (X, Y, Z – अक्ष) ही स्वीकार्य है, परन्तु अल्बर्ट आइंस्टीन के चौथे विमा – समय (Time) के साथ इसका क्षेत्र और विस्तारित एवं व्यापक हो जाता है| इस तरह 'स्व' की सीमा या दायरा यह भौतिक शरीर ही है| इसी स्व का विस्तार में परिवार, समुदाय, राष्ट्र एवं मानवता आता है| इस विस्तार में विविध वस्तुएं एवं जीव –जन्तु आ सकते हैं| इसके महत्तम विस्तार में आप ब्रह्माण्ड को शामिल कर सकते हैं| इस्रायली लेखक युवाल नोहा हरारी जिस “देव मानव” (Homo Deus) की कल्पना निकट भविष्य में की है, उसके कारण स्व में ब्रह्माण्ड भी शामिल होता दिखता है| जब स्व का चरम विस्तार हो जाता है, तो वह स्व परम हो जाता है| जब इस परम के लिए अर्थ जोड़ते हैं, तो आप परमार्थ करते हैं|

आपने देखा कि 'स्व' का सम्बन्ध 'भाव' से है और यह स्व एवं स्वभाव मिलकर संसार बनाता है और चलाता है| यही दोनों इस संसार को निर्देशित एवं नियंत्रित कर आपके लिए सफलताओं का द्वार खोलता है| तथागत बुद्ध कहते हैं कि स्व का भाव – स्वभाव उस व्यक्ति के मन यानि चित्त यानि स्व से निर्देशित, नियंत्रित एवं संचालित होता है| अत: सबसे प्रमुख मन का अध्ययन, अवलोकन, नियंत्रण एवं केन्द्रण है| इस दिशा में तथागत का योगदान अवश्य ही अप्रतिम है|इस विधा का आविष्कार सबसे पहले तथागत बुद्ध ने किया, जो मानवता को शानदार उपहार है। यही बुद्ध का अध्यात्म है।

आचार्य निरंजन सिन्हा 


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