मंगलवार, 27 जुलाई 2021

शोषण कैसे किया जाता है? (How is Exploitation done?)

चलिए, आज जानते एवं समझते हैं कि किसी का शोषण (Exploitation) कैसे किया जाता है? अर्थात शोषण कैसे किया जा रहा है, यह समझना है| आप किसका शोषण करना चाहते हैं, यानि किस शोषण की प्रक्रिया को समझाना चाहते हैं किसी व्यक्ति (Person) का या किसी समाज (Society) का या किसी संसाधन (Resource) का? आप किसी का शोषण कब तक करना चाहते हैं किसी छोटे समय (Short Period) के लिए, या एक लम्बे अवधि (Long Period) के लिए, या सदैव (Forever) के लिए? शोषण करने का आधार क्या क्या हो सकता हैशोषण की प्रक्रिया किस अवधारणा (Concept) से यानि किस प्रक्रम (Process) से संचालित होती हैशोषण का आधार इतना जटिल एवं इतना गूढ़ हैकि इसको समझना बहुत महत्वपूर्ण है| ये सब आपसे इसलिए पूछ रहा हूँ कि शोषण किसका होना है और कितने अवधि के लिए होना है, इसी विशेषता (Traits) पर ही शोषण की क्रियाविधि (Mechanics) निर्भर करेगी? इसके लिए मैं आपको वैश्विक उदहारण देकर समझना चाहूँगा| मैंने किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया है, क्योंकि विषय वस्तु समझना महत्वपूर्ण है|

व्यक्ति विशेष का शोषण का स्वरुप समाज के शोषण से अलग होगा, क्योंकि व्यक्ति एक निश्चित समय के बाद समाप्त हो जाता है, यानि मृत्यु को प्राप्त हो जाता है| मतलब एक व्यक्ति विशेष एक निश्चित समय के बाद नहीं रहता है| इसलिए किसी व्यक्ति के शोषण के लिए ज्यादा तिकड़म (Gimmick) नहीं लगाना पड़ता है| शताब्दियों के सन्दर्भ में व्यक्ति जहाँ तुरंत समाप्त (Finish/ Cease) हो जाता है, परन्तु समाज में निरंतरता (Continuity) होती है| लेकिन एक समाज निरंतर होते हुए भी संरचना (Structure), प्रकृति (Nature), एवं संख्या (Numbers) में बदलती रहती है|

इसी तरह शोषण की अवधि के अनुरूप शोषण की क्रियाविधि (Mechanism) भी बदलती रहती है| समय काल की अवधि के अनुरूप शोषण की तकनीक (Technique), विधि (Process), एवं सिद्धांत (Principles) भी बदल जाता है| लम्बी समयावधि को मैं एक जीवन काल (One Life Period) से अधिक मान कर चल रहा हूँ| इसे आप कई जीवन काल भी कह सकते हैं, या सदियों की व्यवस्था (System of Centuries) भी कह सकते हैं| इसे सीधे शब्दों में वंशानुगत व्यवस्था” (Hereditary System) भी कहना अनुचित नहीं होगा|

सबसे पहले आपको सदियों तक चलने वाली शोषण को समझते हैं| ऐसा कैसे होता है? इसके बाद शोषण के अन्य स्वरुप को भी समझते हैं| यह समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि बहुत लोग इसे शोषण मानते ही नहीं है| इस शोषण का आधार सांस्कृतिक होता है|

यदि आपको व्यापक समाज का शोषण करना है और सदियों तक शोषण करना है, तो शोषण को सांस्कृतिक आधार देना ही होगा| इसे सामान्य जन धार्मिक आधार भी समझते हैं| इससे आप व्यापक समाज के भाग्य विधाता भी बन जाते हैं| इससे आप सदियों तक लाभ लेते रहते हैं| यह व्यवस्था वंशानुगत हो जाता है| इससे आपके भविष्य के वंश को लाभ मिलता रहेगा| लोग इसे अपनी संस्कृति मान कर शान से इसका अनुपालन करते रहेंगे| यह शोषण स्वसंचालित होता है| शोषित इसका विरोध भी नहीं करते हैं, क्योंकि शोषितों को इसका पता ही नहीं चलता है कि वह शोषित भी हो रहा है| वह तो शोषण का सहर्ष सहभागी बनता है| इसे आप मानसिक गुलामी भी कह सकते हैं|

आपको सिर्फ अपने शोषण के स्वरुप एवं प्रक्रियात्मक निर्धारण के लिए विमर्श, योजना एवं उसका कार्यान्वयन करना होगा| सांस्कृतिक शोषण का मुख्य उद्देश्य शोषण को वंशानुगत बनाना होता है| ये सामाजिक वर्ग वंश पर आधारित एवं निर्धारित होता है| यह आपको समूह में करना होगा, भले ही यह समूह छोटा हो| इसी के लिए आपको आव्यूह (Matrix) की रचना करनी होगी| यह इस तरह इतना व्यापक एवं आच्छादित होता है कि कोई इसके बाहर सोच को भी नहीं ले जाता है| इसमें बौद्धिकता भरपूर होना चाहिए| शक्ति किसी व्यक्ति या संस्थान में नहीं होता है, अपितु सिर्फ ज्ञान में ही होता है|

इसके लिए आपको ऐसी कहानियाँ बनानी एवं गढ़नी होगी, ताकि लोग उन कहानियों को अपनी संस्कृति मान लें| इन कहानियों को सभ्यता के शुरूआती दौर से शुरू कर आज तक निरंतरता जतानी होगी| अर्थात इन कहानियों से बनी संस्कृति को सनातन (शुरू से आज तक निरंतर) दिखाना होगा| इन कहानियों को अलौकिक बताना होगा, ताकि लोग इन संस्कृतियों का अनुपालन कर अपने को गौरान्वित महसूस कर सके| इन कहानियों को ऐतिहासिक बताने के लिए यदि कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है, तो इसे मौखिक परंपरा से सदियों तक ढोए जाने की कहानियां बताइए या बनाईये| फिर इसका लेखांकन किए जाने की कहानियाँ बनाइये| इससे इस संस्कृति में ऐतिहासिकता आ जाएगी, अन्यथा यह महज मिथक मान लिया जाएगा|

हाँ, यदि शासन व्यवस्था का आप सहयोग ले सकें, तो लोगो को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दें| अशिक्षा समाज में धुंध पैदा करती है, और इसे (अस्पष्टता) बनाये भी रखती है| इस अस्पष्टता से लोग कल्पनाओं में भी जीने लगते हैं या जी लेते हैं| इससे बनी अस्पष्टता से शोषण प्रक्रिया की समझ सामान्य जन को नहीं हो पाती है| सामान्य लोग इस शोषण को शोषण के किसी स्वरुप के रूप में भी मानने को तैयार नहीं होते| इसे फिर किसी धार्मिक स्वरुप के आवरण से ढक दें| अर्थात आप शोषण की क्रिया विधि को ईश्वर के नाम या आदेश बना कर उपस्थापित करें| लोग, जो सामान्यत: अशिक्षित हैं, शोषण को शोषण समझेंगे ही नहीं, और आप सदियों तक शोषण जारी रख सकते हैं|

इसके लिए मानव मनोविज्ञान एवं परिवर्तन का मनोविज्ञान समझना होगा| सिगमंड फ्रायड ने व्यक्ति का उसके स्वयं (Self)” से द्वन्द को समझाया है| लोग सैद्धांतिक रूप में (चेतनता में) परिवर्तन चाहते तो हैं, परन्तु अचेतन स्तर पर पुरातन से विलगाव भी नहीं चाहते हैं| मतलब कि आदमी आदत का गुलाम होता है| इसके लिए आपके विरोधी अवधारणाओं को नई परिभाषा से नई अवधारणा बनाना होगा| शब्द नाम स्वरुप में वही रहेंगे, परन्तु अर्थ स्वरुप में बदलने होंगे| इसी के लिए आधारहीन ही सही, आपको काल्पनिक एवं मनगढ़ंत कहानियाँ भी गढ़नी होगी| आपको पुरानी वस्तुओं, पुरानी परम्पराओं, पुराने मानको के प्रति सम्मान दिखाना होगा| इसमें परिवर्तन मामूली दिखना चाहिए, भले आप मौलिक परिवर्तन कर दें| लोग सिर्फ सतही परिवर्तन चाहते हैं, सामान्यत: सभी को आदत में परिवर्तन करना बुरा लगता है|

लोगों के जीवन मूल्यों एवं परंपराओं को अपने पक्ष में रखना होगा| इसके लिए जीवन मूल्यों एवं परंपराओं  में परिवर्तन के लिए नए जीवन मूल्य एवं परम्परा गढ़ना होगा, जो दिखे तो पुराने स्वरुप में, परन्तु वह हो नए मौलिक भाव में| आपका परिवर्तन ज्यादा क्रांतिकारी नहीं होना चाहिए| ज्यादा परिवर्तन से लोग अचेतन स्तर पर चिढ जाते हैं, और इसके विरोधी भी हो जाते हैं| इसमें अतीत के गंध के साथ साथ पुराने परिचय का गर्माहट भी होना चाहिए| पुराने स्वरुप के आवरण के लिए नए जीवन मूल्यों एवं परम्पराओं को काल्पनिक कहानियों से ही सही, पुरातन साबित कीजिए| इससे यह सब पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक एवं गौरवमयी साबित हो जाएगा| ऐसा करने से इस पर कोई प्रश्न भी खड़ा नहीं होगा| यह सब के लिए अनुकरणीय भी हो जायेगा| यह हमारी संस्कृति का अविभाज्य हिस्सा होगा, यानि माना जायेगा| संस्कृति के समर्थन में तो सरकार और व्यवस्था भी साथ रहता है|

इन कहानियों पर कोई प्रश्न नहीं करे, इसलिए इसे मानवीय कृति नहीं बता कर, इसे ईश्वरीय कृति घोषित करना होगा| ईश्वरीय कृति मान लिए जाने मात्र से स्वाभाविक प्रश्नों का उठना  भी संभव नहीं हो सकेगा| इसे धार्मिक ग्रन्थ का स्वरुप दे देना होगा| आप यदि बौद्धिक सामन्त हैं, या शक्ति सामन्त हैं, तो आप बताईए कि आपकी यह प्रभावशाली स्थिति इन धार्मिक ग्रंथो के अनुकरण करने मात्र से ही आई है| इससे अशिक्षित मुर्ख जल्दी आपकी बातो को सही मान इन संस्कारों एवं कृत्यों का अनुकरण करेंगे| इन शोषितों में ऐसे संस्कार विकसित करें, जिसके अनुकरण मात्र से उनका धन अनुत्पादक कार्यों में खर्च हो जाए| इससे आप उनको शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी मुलभुत एवं आवश्यक चीजों से उनका ध्यान हटा सकेंगे| आप तो समझदार हैं, इसलिए आप भी इन मूर्खतापूर्ण कार्यों को समाज में पूर्ण मनोयोग से करता हुआ दिखाए| इससे मुर्ख लोग बिना तर्क एवं विश्लेषण के ही इसका अनुपालन कर आपकी स्थिति को पाने का स्वप्न देखते रहेंगे| इससे आपके धूर्ततापूर्ण करवाई का वे लोग मूर्खतापूर्ण अनुकरण करने का एकमात्र एवं सरल तरीका मान लेंगे| इससे उन मूर्खों का धन, समय, संसाधन एवं विचार नष्ट होते रहेंगे| इस तरह आपकी शोषण की प्रक्रिया को तीव्र गति मिलती रहेगी| ईश्वर के नाम पर की गयी हर कार्य अनुकरणीय होगा और किसी प्रश्न के संशय से दूर भी होगा|

इस तरह आप सदियों तक के शोषण की अबाध व्यवस्था बना सकते हैं| इस व्यवस्था से आपकी भविष्य की पीढियां सदैव लाभ लेती रहेगी| शोषित लोग संस्कृति एवं धर्म के नाम पर काल्पनिक स्वर्ग जाने की तैयारियां करते रहेंगे और आप वास्तविक जीवन का आनंद लेते रहेंगे| इसका अनुपालन ये मुर्ख ख़ुशी ख़ुशी करते रहेंगे और आपको कोई विरोध भी नहीं झेलना पडेगा| ये अशिक्षित मुर्ख धनहीन भी रहेंगे और अपने समय, संसाधन एवं विचार को गलत दिशा में लगाये रहेंगे| लोगो का विचारना वहाँ की संस्कृति  से निर्धारित एवं संचालित होती है| संस्कृति को धर्म की चासनी में डूबा देने से इसमें अद्भुत मिठास आ जाता है| इन संस्कारों एवं कृत्यों पर कोई व्यक्ति कोई प्रश्न या कोई संशय नहीं करेगा| यदि कोई विरोध करेगा तो उस पर धर्म विरोध, संस्कृति विरोध एवं समाज विरोध का लेबल चिपका सकते हैं| यह संस्कृति की समझ आपके इतिहास बोध से पैदा होती है| शोषितों को अपना इतिहास लिखने से रोके रहे, चाहे आपको जो करना पड़े| आप ही उसका भी इतिहास लिखते रहें| उसके इतिहास को गौरवपूर्ण तो दिखाए, परन्तु उसे इसी संस्कृति को अनुकरण करता दिखाए| आपकी कल्पित कहानियों को ऐतिहासिक दिखाने के लिए साक्ष्य स्वरुप में किसी भी मिलता- जुलता प्राकृतिक बनावट को ही पेश कर दें| अशिक्षित एवं मूर्खों को इतना तार्किक एवं विश्लेषण क्षमता नहीं होती है, कि वे आपकी बातों को काट सके| कुछ साक्ष्यों को स्वाभाविक रूप से मिट जाना भी बता सकते हैं| आपकी कहानियाँ इतिहास मान ली जाएँगी, वशर्ते वैश्विक जगत आपसे तार्किक साक्ष्य नहीं माँग ले|

उपरोक्त सांस्कृतिक शोषण के अतिरिक्त सभी तरह के शोषण को गैर- सांस्कृतिक शोषण कह सकते हैं| इसमें वे सभी प्रकार के शोषण शामिल किए जाते हैं, जिनका कोई सामाजिक सांस्कृतिक आधार नहीं होता है| इसमें आप कोई वंशानुगत आधार नहीं पाते हैं| इसमें आपके पूर्व इतिहास का कोई महत्त्व नहीं है| इसमें आपके खानदान की कोई भूमिका नहीं होती है| इसमें सामान्यत: मजदूर, किसान, और कर्मियों के शोषण को शामिल करते हैं| सांस्कृतिक शोषण समझ लेने के बाद मैं आपको अब इससे सम्बंधित कुछ अवधारणाओं को समझना चाहता हूँ|

सामान्यत: शोषण का अर्थ क्या होता है? शोषण का शाब्दिक अर्थ सोखना  (Suction) होता है| इस तरह यह क्रिया (Verb) यानि प्रक्रिया (Process) हुआ| किसी भी वस्तु (Object), चाहे वह कोई पदार्थ हो या कोई सेवा या कोई अन्य स्वरुप, का अनुचित (Improper, Unfair) लाभ के लिए उपयोग (Use) या उपभोग (Consume) करना ही शोषण (Exploitation) है| इसमें अनुचित लाभमहत्वपूर्ण तत्व है| यदि इसमें अनुचित लाभका तत्व नहीं है, तो यह प्राकृतिक अवशोषण (Absorption) हो सकता है, परन्तु यह शोषण (Exploitation) नहीं कहा जा सकता है| जब लाभ का हित (Intrest) या उद्देश्य (Aim) सम्पूर्ण मानवता या व्यापक समाज (Univerasal Society) नहीं हो, तब ही वह अनुचित लाभशोषण होगा| इसके अभाव में यह शोषण नहीं कहा जा सकता| इसका यह अर्थ हुआ कि शोषण में अन्य सभी निजी स्वार्थगत (Selfishness) लाभ, किसी के व्यक्तिगत लाभ या किसी छोटे समूह के लाभ, के लिए है|

शोषण किस तरह किया जाता है? स्पष्ट है कि शोषण में जान बुझ कर (Intentionaly) किया गया क्रिया (Act)’ है| इसीलिए आपको इसे समझने के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ| अर्थात इसके लिए सजग (Alert) एवं सतर्क (Awake) विमर्श (Discussion), योजना (Planning), एवं उसका कार्यान्वयन (Implementation) होता है| चूँकि इसमें निजी स्वार्थ होता है, इसलिए इसे धूर्तता (Rascaldom /Cunning)” से पूर्ण करवाई मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए| यदि इसमें सजग एवं सतर्क विमर्श, योजना, एवं कार्यान्वयन नहीं होता, तो यह मूर्खता (Stupidity)” से युक्त करवाई मानी जाती| धूर्ततापूर्णगलत काम एवं गलत नियत होने के कारण “अपराध” की श्रेणी में आता है| जबकि मूर्खतापूर्णकाम गलत नियत के अभाव में अपराध की श्रेणी में नहीं आता है| इसलिए ही धूर्त शोषक अपने निजी स्वार्थको ढक कर शोषण के बाह्य स्वरुप को रंग यानि परिवर्तित कर देते हैं| इस तरह शोषित को भी यह पता नहीं चलता है, कि उसका कोई दूसरा शोषण भी कर रहा है|

संसाधन प्राकृतिक एवं कृत्रिम दोनों हो सकते हैं| संसाधन कोई वस्तु (Object) हो सकता है, कोई तरंग (Wave), उर्जा स्वरुप में, हो सकता है, या इनका मिश्रित स्वरुप भी हो सकता है| इसके अनुचित दोहन को भी शोषण कहा जाता है| संसाधनों के अनुचित दोहन से मानवता को खतरा है| इसलिए इस पर विश्वव्यापी चिंता होता है, चिंतन होता है, और विमर्श भी होता है| प्राकृतिक संसाधन का शोषण यहाँ विमर्श का विषय नहीं है| मैं मानव या समूह या समाज का शोषण किसी मानव या मानव- समूह के द्वारा विषय क्षेत्र तक सीमित रखता हूँ|

आपको किसी व्यक्ति के श्रम का शोषण करना है, या किसी के धन का, या किसी का शारीरिक शोषण करना है? व्यक्तिगत शोषण में किसी व्यक्ति के श्रम, धन एवं यौन का शोषण होता है| किसी व्यक्ति के श्रम का समुचित पारिश्रमिक नहीं देना यानि नहीं मिलना ही श्रम का शोषण है| ऐसा नियोक्ता द्वारा किया जाता है| यहाँ समुचित पारिश्रमिक की परिभाषा या अवधारणा स्पष्ट नहीं है, क्योंकि यह अर्थशास्त्र के माँग एवं पूर्ति के नियम (Law of Demand and Supply) से संचालित एवं निर्धारित होता है| यह सन्दर्भ के अनुसार, यानि मानक के अनुसार बदल भी जाता है| धन के शोषण में किसी व्यक्ति के अर्जित संपत्ति को अनुचित तरीके से ले लेना या लेते रहना भी शामिल है| यौन शोषण में किसी व्यक्ति के यौनिकता (Sexuality) का शोषण होता है| शोषण के उपरोक्त सभी स्वरुप के बारे में अधिसंख्यकों को समुचित जानकारी है| ऐसा शोषण उस विशेष व्यक्ति तक ही सीमित होता है| इसी कारण यह शोषण के सीमित उद्देश्य के कारण या उस व्यक्ति विशेष के समाप्त हो जाने पर शोषण की प्रक्रिया उस व्यक्ति विशेष के लिए समाप्त हो जाती है| ऐसा शोषण छोटी अवधि के लिए ही होता है, अर्थात एक ही जीवन काल के लिए| इसे सदियों में नहीं देखा जा सकता| अर्थव्यवस्था यानि बाजार के माँग एवं पूर्ति के नियमों के अधीन यह व्यक्तियों का समूह भी हो सकता है|

परन्तु यदि आपको किसी समूह या समाज का शोषण करना है, और वह भी अनवरत जारी रखना भी है, तो उसे सांस्कृतिक आधार देना एकमात्र विकल्प है| इसे दुसरे शब्दों में इसे शहत्राब्दी अवधि तक का शोषण भी कह सकते हैं| इस तरह इसे आनुवंशिक बना देना एक विकल्पहीन बाध्यता हो जाती है| सांस्कृतिक आधार को साधारण भाषा में धार्मिक आधार भी कह दिया जाता है| हालाँकि सांस्कृतिक आधार एक व्यापक अवधारणा है, जिसमे धार्मिक अवधारणा भी समाहित हो जाता है| यदि शोषण को दशकों तक, या शताब्दियों तक ही लेना जाना है, तो पूंजी आधारित वित्तीय आधार देना भी सहज एवं सरल स्वरुप है| इसे पूंजी का निवेश कहा जाता है| शोषण के पूंजी (Capital) आधारित एवं संस्कृति (Culture) आधारित प्रक्रिया को सभी लोग सही ढंग से नहीं समझते हैं| सांस्कृतिक आधार पर मैंने ऊपर में ही समझाने की कोशिश की है|

अब पूंजी आधारित शोषण प्रक्रिया को समझते हैं| पूंजी आधारित शोषण पूंजी निवेश (Capital Investment) पर लिए जाने वाले लाभ (Profit) या लाभांश (Dividend) के रूप में दीखता है, या होता है| शोषण की यह प्रक्रिया इतना शांत होता है, कि किसी को यह आभास ही नहीं होता है, कि कोई शोषण की प्रक्रिया भी कार्यरत है| इसमें श्रम एवं धन का शोषण होता है| यह कृत्य सिर्फ व्यावसायिक वर्ग ही करता है, ऐसी बात नहीं है| इसमें बहुत से देश की सार्वजानिक व्यवस्थाएं भी शामिल हो सकती हैं| इसमें सार्वजानिक उपक्रमों को शामिल मान लिया जा सकता है, क्योंकि कुछ सार्वजानिक उपक्रमों की प्रकृति भी व्यवसाय जैसा होता है|

कुछ देशों की व्यवस्था यानि विधिवत सरकारें भी ऐसे कार्य करती हैं, मानों वह व्यवस्था या सरकार भी किसी कम्पनी या कारपोरशन का अभिकर्ता (Agent) हो| बहुत से देशों में ऐसी कम्पनी स्वदेशी (Indigenous) होते हैं, बहुत से देशों में बहुदेशीय कम्पनी (Multi- National) भी होते हैं, और बहुत से देशों में दोनों की उपस्थिति रहती है| ऐसे आरोप सामान्यत: बहुत से देशों की सरकारों पर लगाई जाती है, इनमे कुछ में गलत भी होता है, कुछ आंशिक सही भी होता है, एवं कुछ में पूर्णतया सही भी होता है| कुछ देशों में कुछ सरकारें किसी खास कम्पनी या कम्पनी समूह के समर्थन में जरुरत से ज्यादा भी शामिल रहती है| कुछ देशों के इतिहास में ऐसी विशेष कृपा पात्र कम्पनी का बदलती सरकारों ने आगे सार्वजानिक हित में राष्ट्रीयकरण भी कर लिया है| शोषण की इस प्रक्रिया में सरकारों को इन कंपनियों के पक्ष में वित्तीय लाभ यानि निवेश एवं कराधान सम्बन्धी लाभ दिया जाता है| इसके साथ ही कम्पनी के स्थापना में, सञ्चालन में एवं विपणन में भी जरुरत से ज्यादा समर्थन मिलता है|

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादियों ने अनेको देशों को राजनितिक स्वतंत्रता दी, परन्तु क्या यह सार्वभौमिक संप्रभुता थी? इसे कुछ विद्वान पूंजी निवेश की सुरक्षा एवं संरक्षा की शर्त पर दी गयी स्वतंत्रता मानते हैं| इनके अनुसार स्वतंत्रता आन्दोलन से साम्राज्यवादियों को तो परेशानी हुई, परन्तु इन परेशानियों के कारण ही इन देशों को स्वतंत्रता नहीं मिली| व्यापार के प्रारम्भ से वणिक साम्राज्यवाद का उदय हुआ| यह जल्दी ही औद्योगिक आवश्यकताओं के कारण उपनिवेशीय साम्राज्यवाद में बदल गया| फिर अर्थव्यवस्था के बदलते स्वरुप के कारण औद्योगिक (उपनिवेशीय) साम्राज्यवाद एक ही शतक में वित्तीय साम्राज्यवाद में बदल गया| यह वित्तीय साम्राज्यवाद पूंजी आधारित साम्राज्यवाद से थोडा भिन्न है और पूंजी साम्राज्यवाद से व्यापक है| वणिक साम्राज्यवाद एवं औद्योगिक साम्राज्यवाद को पूंजी आधारित साम्राज्यवाद के रूप माना जा सकता है| वित्तीय साम्राज्यवाद अपने दृश्य रूप में नहीं दीखता है, परन्तु पूंजी आधारित साम्राज्यवाद अपने दृश्य रूप में दीखता है| यह शोषण का आधुनिक आधार है, परन्तु यह वंशानुगत आधार पर कार्य नहीं करता है|

अब आप शोषण की प्रकृति एवं व्यवस्था को अच्छी तरह समझ गए होंगे| आप शोषक बनें या नहीं बनें; परन्तु शोषण की प्रकृति, उसकी व्यवस्था, उसके आधार एवं उसकी क्रिया विधि को जरुर समझ गए होंगे| अपने आस पास में देखें, कि क्या ऐसी कोई व्यवस्था कार्यरत है? इसी समझ से समाज एवं राष्ट्र का नव निर्माण होता है, या हो सकता है| आप भी नए समाज एवं मानवता के नव निर्माण के भागीदार बनें| इसी समझ के साथ आप विश्व मानवता में सुख, शान्ति, संतुष्टि, एवं समृद्धि की स्थापना में सहायक बन सकते हैं|

(आपका सुझाव मेरे लिए बहुमूल्य होगा और मार्गदर्शक भी होगा, अत: अपना सारगर्भित टिपण्णी इस ब्लाग पर ही दें|)

निरंजन सिन्हा

मौलिक चिन्तक, व्यवस्था विश्लेषक एवं बौद्धिक उत्प्रेरक|

 

शनिवार, 17 जुलाई 2021

क्षुद्र या शुद्र : भ्रम या साजिश

                                               क्षुद्र या शुद्र : भ्रम या साजिश

                           (Kshudra or Shudra : Delusion or Conspiracy)

भारतीय समाज में “शुद्र” शब्द का अर्थ, भाव, मिथक, कहानी एवं इतिहास की एक अलग दास्ताँ है| अनेको विद्वानों ने इस विषय पर अनेकों ग्रन्थ एवं किताबें लिखी है| अब तो इसके समर्थन में यानि इसको व्यापक बनाने के लिए विधिवत एवं व्यापक पैमाने पर आन्दोलन ही चलायें जा रहे हैं| इन शुद्र समर्थक आन्दोलनों में तो व्यापक तौर पर भारत के ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का भी क्षुद्रिकरण किया जा रहा है यानि इन्हें निम्नतर बताया जा रहा है| इन महान व्यक्तित्वों के तथाकथित क्षुद्र  व्यक्तित्व के समर्थन में सामंतीकाल में ही कहानियाँ गढ़नी शुरू कर दिया गया था, जिसे फिर से तेज किया जा रहा है|

आपको क्षुद्रिकरण, और शुद्र के स्थान पर क्षुद्र शब्द से आपत्ति हो सकता है| ऐसा इसलिए हो रहा है, कि आपकी स्थापित एवं वर्षों से अर्जित ज्ञान को धक्का लग रहा है| सामान्यत: सभी लोग वही सुनना एवं जानना चाहते हैं, जो वे अब तक जान पायें हैं| यह सामान्य मानवीय मनोवैज्ञानिक स्वभाव है| लेकिन आप कुछ नया एवं क्रांतिकारी करना चाहते हैं, तो आपके सोच एवं अवधारणा को नया आधार एवं दृष्टिकोण देना होगा| आपके सोच में पैरेडाईम शिफ्ट करना होगा| इसीलिए महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने एक बार “पागलपन” की परिभाषा दिया – “प्रत्येक दिन एक ही तरह का काम करना और परिणाम नया खोजना|” मतलब नया परिणाम पाने के लिए कुछ नए ढंग से सोचना या देखना होगा|

तो चलिए, हमलोग शुद्र, क्षुद्र, शुद्रिकरण, एवं क्षुद्रिकरण की अवधारणा एवं प्रक्रिया को समझें| यह विशिष्ट एवं अजूबा अवधारणा सिर्फ भारतीय समाज की है| इसका कोई दूसरा उदहारण दुनियाँ के दुसरे क्षेत्रों में नहीं है| भारतीय बौद्धिक षड्यंत्रकारियों ने तो विश्व जगत को भ्रमित करने के लिए भारतीय विशिष्ट व्यवस्था “जाति” का अंग्रेजी अनुवाद एक पुतर्गाली शब्द के अनुरूप “Caste (कास्ट)” कर दिया| परिणाम यह हुआ कि विश्व जगत भारतीय जातीय व्यवस्था की मूल प्रकृति एवं प्रक्रिया को ही नहीं समझ पाए| इसी कारण इस अवधारणा में कोई पैरेडाईम शिफ्ट नहीं हुआ| बहुत से विशिष्ट भारतीय शब्दों का आजतक अंग्रेजी अनुवाद नहीं किया जा सका| इसके उदहारण साडी, धोती, योगी इत्यादि है| ऐसा इसलिए होता है, कि इसका कोई पश्चिमी संस्करण नहीं है| अत: जाति की अंग्रेजी “Jati” ही रहनी चाहिए, ताकि बाहरी विद्वान जन भी इस विशिष्ट व्यवस्था की प्रकृति एवं प्रक्रिया को सही ढंग से समझ सके| लेकिन इससे भारतीय समाज का विकृत सामंती वर्तमान स्वरुप सामने आ जाता, जो सामंती वर्गों को पसंद नहीं था| अभी तक शुद्र का अंग्रेजी नामकरण नहीं हुआ है, शायद इससे मिलता-जुलता कोई शब्द उन्हें नहीं दिखा होगा|

उपरोक्त दोनों शब्दों पर ध्यान दिया जाए| एक शब्द है – “क्षुद्र” यानि “Kshudra”, तो दूसरा शब्द – “शुद्र” यानि “Shudra” है| इन दोनों में अंतर मात्र रोमन लिपि में लिखे शब्दों के प्रारम्भ “K” अक्षर का है, एक में यह अक्षर है एवं दुसरे में नहीं है| क्षुद्र का अर्थ होता है – छोटा, तुच्छ, निम्न स्तरीय, नगण्य आदि| यह एक विशेषण (Adjective) है, जो संज्ञा की विशेषता बताता है जैसे क्षुद्र ग्रह, क्षुद्र भाव, क्षुद्र कृत्य आदि| शुद्र एक संज्ञा (Noun) है, जो एक सामाजिक वर्ग का नाम है| यह वर्ण व्यवस्था का चौथा श्रेणी है, जिसे सबसे निम्नतम माना जाता है| यही शब्द का खेल है, विवाद है, तमाशा है| मैं इसे रेखांकित कर यह बताना चाहता हूँ, कि आप भी इस समानता और अंग्रेजी शासन में सूत्र खोजें| क्या यह सामन्तीकाल यानि मध्य काल की उपज है और उसी समय से चला आ रहा है? भारत में सिर्फ चार वर्ण ही नहीं रहते थे| इसके अलावे यानि इसके बाहर भी कई लोग थे| इनमें भारतीय परम्परागत सम्प्रदायों से भिन्न कई संप्रदाय के लोग, बाहरी मूल संस्कृति के शासक वर्ग एवं परम्परागत भारतीय “अवर्ण” शामिल थे|

परम्परागत भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था में पाँच वर्ण थे| या आप कह सकते हैं कि इसमें चार वर्ण एवं एक अवर्ण थे| चार वर्ण प्रत्यक्ष सामन्ती व्यवस्था के भाग थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र अर्थात क्षुद्र| ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग था, जिसके पास अध्ययन एवं अध्यापन का सर्वाधिकार सुरक्षित था| सामन्तकाल के पहले बुद्धिजीवी वर्ग को “बम्हन” कहा जाता था, जो वंशानुगत नहीं होकर योग्यता आधारित होता था| सामन्तकाल में यह शब्द ब्राह्मण हो गया और वंशानुगत होकर वर्ण एवं जाति बन गया| क्षत्रिय सामन्तकाल की उत्पत्ति है, जो छोटे- बड़े शासक बने| सामन्तकाल के पहले ये शब्द खेतिय थे, जो खेत शब्द का व्युत्पन्न है| बाद में ‘खेत’ ‘क्षेत्र’ में एवं ‘खेतिय’ ‘क्षेत्रिय’ में बदला| सामंती व्यवस्था का उदय क्यों हुआ? यह एक अलग विषय है, जिसे “उत्पादन” (Production), “वितरण” (Distribution), एवं “विनिमय” (Exchange) की शक्तियों एवं उनके अंतरसंबंधों के आधार पर व्याख्यापित किया जाता है| तीसरा वर्ण – वैश्य वितरण एवं विनिमय तक सीमित थे और इसी कारण इनकी संख्या सामन्तकाल में नगण्य थी| चूँकि इनका कार्य क्षेत्र अंतर प्रांतीय एवं अंतर देशीय था, और इसी कारण ये उपरोक्त वर्णित सामंतों के नियंत्रणाधीन नहीं थे| चौथा वर्ण –शुद्र था, जो उपरोक्त दोनों सामंती वर्गों के व्यक्तिगत सेवक थे| उपरोक्त दोनों सामंती वर्गों से तात्पर्य बौद्धिक सामन्त एवं शक्ति सामन्त से है|

मैंने एक “अवर्ण” की चर्चा की है| इसमें मुख्यत: वे भारतीय विशाल समुदाय आते थे, जो उत्पादक (Producer) समुदाय रहे| ये अवर्ण वस्तुओं (Commodity) एवं सेवाओं (Services) के उत्पादक थे, चाहे ये अर्थव्यवस्था के प्राथमिक सेक्टर (Primary Sector) में हों या अर्थव्यवस्था के द्वितीयक सेक्टर (Secondary Sector) के हों| ये सामन्त काल के पूर्व भी थे, सामन्त काल में भी थे , और इस काल के बाद भी रहेंगे| अंतर इतना ही पड़ा, कि सामंत काल के पूर्व वंशानुगत की शास्त्रीय बाध्यता नहीं थी, जो सामन्त काल में शास्त्रों में निर्धारित किये जाने लगे| इन अवर्णों को शासकीय व्यवस्था या शासकों के बदलाव से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता था, और इसी कारण दोनों वर्ग – उत्पादक वर्ग एवं शासक वर्ग एक दुसरे के प्रति उपेक्षित (Neutral) भाव रखते थे| भारत में कहावत भी है – कोई नृप  (राजा) हो, हमें क्या मतलब| अब इन वर्गों (अवर्ण) का भी शुद्रिकरण यानि क्षुद्रिकरण के अभियान विभिन्न नामों से तेजी से उभरता जा रहा है| सामन्तवाद के अंत एवं पूँजीवाद तथा अन्य वाद के उदय के साथ व्यक्तिगत सेवकों के वंशानुगत अवधारणा अप्रसांगिक हो गया है| व्यक्तिगत सेवक के स्थान पर मजदुर एवं अन्य सेवा प्रदाता आ गए| शायद अब इन वंशानुगत सेवकों को वंशानुगत आधार पर खोजना संभव नहीं है| पर अब भी जो अपने को वंशानुगत सेवक रहने की अभी भी घोषणा कर रहे रहे है, वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं| शूद्रों के व्यक्तिगत सेवक होने के कारण ही इन्हें क्षुद्र माना जाता रहा| इसी कारण इसी के अनुरूप इनके कृत्य एवं अधिकार निर्धारित किए गए थे| यह अलग बात है कि, अब इसी शुद्र अवधारणा में अवर्णों को शामिल करने की व्यापक अभियान चलाया जा रहा है| हद तो यह है कि ये तथाकथित शुद्र यानि क्षुद्र अपने को शुद्र यानि क्षुद्र घोषित करने के आन्दोलन भी चला रहे हैं| इसे विस्तार से आगे समझेगें|

मेरा मानना है कि इन वर्णों में उपरी तौर पर व्यापक परिवर्तन हो चुका है, पर बहुत कुछ मौलिकता अभी भी बनी हुई है| इसे समझना है| बौद्धिक वर्ग में बहुत से बुद्धिजीवी वर्ग आ गए हैं, जो वंशानुगत नहीं हैं| बुद्धिजीवी वर्ग सामन्तकाल में बौद्धिकता को एक धार्मिक एवं सांस्कृतिक आवरण दे दिया, जो अब एक संस्कृति के रूप में दीखता है| इस संस्कृति को पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक, गौरवमयी बनाने एवं बताने के लिए भी कई कहानियां एवं शास्त्र रच डाले गए| इसके तथाकथित काल को भी बहुत पीछे यानि भारत में सभ्यता के प्रारम्भ काल काल तक ले जाया गया| इसी सांस्कृतिक आवरण में उनके ज्ञान की परम्परा अभी भी निर्बाध स्थापित है| समाज के बहुसंख्यक में  व्याप्त सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक पिछड़ापन एवं असमानता के कारण भी शक्ति सामंतों की संरचना, प्रकृति एवं क्रियाविधि में कोई विशेष परिवर्तन नहीं है| बौद्धिक सामंतों ने अपनी बौद्धिकता का भरपूर उपयोग किया, और मनमाने ढंग से अपने हितों में नियम एवं विधान बनाएं| बाकि समाज को शिक्षा से दूर रखा गया, इसी कारण शेष समाज की कोई प्रतिक्रिया उस काल में नहीं हुई| इन नियमों एवं विधानों को सांस्कृतिक आवरण दे दिया गया|

तथाकथित क्षुद्र यानि शुद्र का अब कोई अस्तित्व नहीं रह गया है, क्योंकि व्यक्तिगत सेवकों की वंशानुगत पीढ़ी खोजना मैं मुश्किल समझता हूँ| अत: अब क्षुद्र यानि शुद्र की बात बेकार है| इसका मतलब यह नहीं है कि सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन समाप्त हो गया है| समाज में सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन होना और किसी वर्ग का क्षुद्रिकरण यानि शुद्रिकरण करना अलग अलग विषय है| विश्व के हर समाज के विशिष्ट वर्ग से सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन को दूर करने के उपाय किए जा रहे हैं| परन्तु इन सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन का क्षुद्रिकरण नहीं किया जा रहा है| इसे दुसरे शब्दों में, सांस्कृतिक आधार पर सदियों की निर्योग्यताओं एवं पिछड़ेपन को दूर कर सामान अवसर देना कह सकते हैं|

अब हमें इनमे भ्रम एवं साजिश को समझना है| इस क्षुद्र से शुद्र का होना भ्रम है या साजिश? भ्रम में उद्देश्य निष्पक्ष होता है, जबकि साजिश में उद्देश्य स्वार्थी एवं गलत होता है| भ्रम अनजाने में या अज्ञानतावश हो जाता है, जबकि साजिश पूरी योजना के साथ एवं पूरी तैयारी तथा समर्पण के साथ किया जाता है| भ्रम में बुद्धिमता नहीं होता है, जबकि साजिश बौद्धिक लोग ही कर सकते हैं| इसे भ्रम माना जाय या साजिश, इसके प्रकृति, पृष्ठभूमि, क्रियाविधि एवं आवश्यकता को जानना एवं समझना होगा|

उपरोक्त चारों – सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक भूमिकाओं एवं आधारों में स्थायित्व के लिए शैक्षणिक आधार पर ध्यान देना आवश्यक हो गया| एक मानव एवं एक अन्य स्तनपायी में शारीरिकी एवं चेतनता में कोई अंतर नहीं होता, सिवाय ज्ञान के| इसी ज्ञान को पाना शिक्षा के द्वारा संभव होता है| अत: यही शिक्षा यानि ज्ञान मानव एवं अन्य पशुओं में अंतर करता है| एक मानव में चेतनता के अतिरिक्त एक और गुण होता है जो पशुओं में नहीं होता है – अपनी चेतानता यानि “चिंतन पर भी चिंतन करना”| एक पशु एवं एक मानव में इसी ज्ञान का अंतर होता है| तत्कालीन समाज के बौद्धिक लोगों ने इसके महत्त्व को समझते हुए शिक्षा को नियंत्रित एवं निर्देशित किया| तत्कालीन बौद्धिक लोगों ने इस पर एकाधिकार  स्थापित कर लिया| सामंती व्यवस्था के राजनैतिक (शक्ति) एवं व्यावसायिक सामंतों को अक्षर ज्ञान एवं अंकगणितीय ज्ञान तक ही सीमित रहने दिया| इन्होंने चिंतन एवं मनन – मंथन करने और उसे व्यवस्थित – संगठित करने का एकाधिकार अपने पास ही रखा|

जिन वर्गों को वंशानुगत लाभ में कमी यानि समाप्ति दिख रहा था, उनका बेचैन होना स्वाभाविक है| व्यक्तिगत सेवक समाप्त हो गए या समाप्ति की ओर थे| किसी क्षेत्र का कोई सामाजिक वर्ग वैश्विक सामाजिक रूपांतरण की शक्तियों को बदल नहीं सकता| वे अर्थव्यवस्था की वैश्विक शक्तियों को रोक या स्थगित नहीं कर सकते थे| तब एक उपाय यह था, कि “अवर्ण” का ही शुद्रिकरण यानि क्षुद्रिकरण किया जाना बेहतर विकल्प था| इससे सामन्त द्वारा वर्ण व्यवस्था का लाभ निरंतर लिया जा सकता था| अवर्णों को शामिल करने से वर्ण व्यवस्था को व्यापक एवं विस्तृत किया जा सकता है| इसी कारण कालांतर में “क्षुद्र” यानि “शुद्र” को व्यापक एवं विस्तृत करने के लिए इसे बदलने की आवश्यकता हुई| शुद्र व्यक्तिगत सेवक थे| अत: इनकी संख्या न्यून थी| लेकिन शुद्र को व्यापक बनाने की आवश्यकता हुई| इसने “धूर्तता” (Cunning/ Rascaldom) की मांग की और इसके लिए साजिश किए गए| तब इसे “विशेषण” से “संज्ञा” बना दिया| क्षुद्र सामंतवाद की पूर्वकालिक अवस्था की माँग रही, तो शुद्र सामंतवाद की उत्तरकालिक अवस्था की आवश्यकता रही| इसमें अवर्णों को शामिल करने की आवश्यकता व्यक्तिगत सेवको की समाप्ति के कारण हुई|

शिक्षा पर एकाधिकार ने हर साजिश को सुगमता एवं सहजता से सफलता दिलाई| इसके पक्ष में तथाकथित शास्त्रीय ग्रन्थ रचे गए| इन शास्त्रीय प्रावधानों को संस्कारों में, रीति- रिवाजो में, कर्मकांडों में  स्थापित कर दिया गया| इसी के द्वारा तथाकथित “स्वर्ग” का स्वर्णिम स्वप्न एवं “नरक” का असहनीय दण्ड निर्धारित एवं स्थापित कर दिया गया| इसके लिए कर्म का सिद्धांत एवं पुनर्जन्म का सिद्धांत को स्थापित किया गया या मजबूत किया गया| इसी के लिए ‘आत्मा’ अवधारणा को पुनर्व्यख्यापित किया गया| इस तरह किसी भी संभावित विरोध या प्रतिरोध की ‘सम्भावना की सम्भावना’ को ही समाप्त कर दिया गया|

अब आप एक स्थापित अवधारणा को एक अलग दृष्टिकोण से और अलग सन्दर्भ में समझने के लिए तैयार हो गए होंगे| मैंने Out of Box देखने का प्रयास किया है| भारत को वैश्विक पहचान बनाने के लिए सभी नागरिकों को सशक्त, क्षमतावान एवं प्रभावशाली संसाधन में बदलना होगा| इसके लिए इसके समाधान को इसके सांस्कृतिक आधार में खोजना होगा| देशी एवं विदेशी विद्वान, चाहे जो कारण हो, सभी उपाय पर विमर्श करेंगे, परन्तु मुलभुत एवं आवश्यक आधार – सांस्कृतिक आधार पर विमर्श को छोड़ देंगे| इसी कारण भारत एक स्वर्णिम अतीत के होते हुए भी उसे अभी तक पुन: प्राप्त नहीं कर सका है|

आप भी इस दृष्टिकोण से और इस सन्दर्भ के आधार पर विचार करें| भारत की विकास की समस्या इसके सभी नागरिको के पूर्ण संभाव्य क्षमता के उपयोग में है| यह इसके संस्कृति के विकृति के निराकरण में है| मैंने एक व्यावहारिक विकल्प दिया है, अब आपको विमर्श आगे बढ़ाना है|

(आपके बहुमूल्य सुझाव, निदेश या टिपण्णी का इसी ब्लाग पर इन्तजार रहेगा|)

निरंजन सिन्हा

चिन्तक, व्यवस्था विश्लेषक, एवं बौद्धिक उत्प्ररक|

गुरुवार, 8 जुलाई 2021

परिवर्तन का रथ कहाँ रुका है?

हमलोग परिवर्तन चाहते हैं, परन्तु सवाल यह है कि परिवर्तन का रथ क्यों रुका हुआ है और कहाँ रुका हुआ है? कौन सा परिवर्तन? हमलोग यहाँ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तन की बात कर रहे हैं| आप इसे ऐसे कह सकते हैं कि परिवर्तन में सभी परिवर्तन के स्वरुप समाहित है। इस परिवर्तन में स्थायी और ‘अग्र दिशा में बढ़ते’ (Forwarding) परिवर्तन भी समाहित है, जिसे रूपांतरण (Transformation) भी कहते हैं|  हां, परिवर्तन का रथ स्त्रियों (Women) के पास रुका हुआ है| स्त्रियों ने ही परिवर्तन का रथ को रोक दिया है|

स्त्रियों ने क्यों परिवर्तन का रथ को रोक लिया है? उन्होंने रोक तो लिया है, यह सही है| परन्तु उन्हें यह पता ही नहीं है, कि उन्होंने किसी परिवर्तन के रथ को रोक दिया है| सामान्य स्त्रियों के बहुमत को तो यह भी पता नहीं, कि परिवर्तन एवं रूपांतरण क्या है और क्यों जरुरी है? मैं यह बात वैश्विक स्तर पर कह रहा हूँ, अत: कोई विशेष समूह इसे अन्यथा नहीं लें| और यदि उन्हें (स्त्रियों को) यह पता है, कि परिवर्तन क्या है और क्यों जरुरी है, तो भी उन्हें यह पता नहीं है, कि उन्होंने किसी रथ को भी रोक रखा है, जो उन्हीं के  जीवन में ही एक सकारात्मक परिवर्तन करने वाला है? तो क्या सभी पुरुषों को यह पता है कि परिवर्तन का रथ क्यों रुका पडा है? शायद यदि सभी को पता ही रहता, तो मुझे इस आलेख को लिखने की जरुरत ही नहीं पड़ती|

स्त्री कौन है? एक स्त्री इंसान ही तो है| मानव के दो स्वरुप हैं स्त्री एवं पुरुष| दोनों ही एक दुसरे के पूरक| किसी एक के बिना दुसरे का अस्तित्व ही नहीं है| जीव वैज्ञानिकों के अनुसार स्त्रियाँ तो पुरुष के बिना भी स्त्रियों को जन/ पैदा कर (To give birth) सकती है| परन्तु एक पुरुष तो एक स्त्री के बिना अस्तित्व में आ ही नहीं सकता| ऐसा इसलिए है कि जनने का काम तो सिर्फ स्त्री ही कर सकती है, क्योंकि गर्भाशय (Womb) तो सिर्फ स्त्रियों में होती हैसीलिए ‘स्त्रियों’ को “गर्भाशय वाला मानव” (Womb Man) कहा जाता है| ‘पुरुष मानव’ को अंग्रेजी में ‘मैन’ (Man) कहा गया, तो “स्त्री मानव” को अंग्रेजी में “गर्भ (Womb) वाला मानव” (Womb +Man = Woman) कहा गया|

फिर एक स्त्री एवं एक पुरुष में क्या अन्तर है? एक स्त्री एवं एक पुरुष में तो मात्र पूरकता (Complementary) की आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पन्न जननीय अंगों (Genital Organ) में ही अंतर होता है| एक स्त्री भी जब साधारण पुरुष मानव की ही तरह पैदा लेती है, तो यह परिवर्तन का रथ कैसे रोके रखती है? एक समाज शारीरिक बनावट एवं एक समान संस्कृति के होते हुए भी एक स्त्री परिवर्तन का रथ रोक लेती हैवास्तव में एक स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि एक स्त्री बना दी जाती है| फ़्रांसिसी लेखिका सिमोन द वउआर (Simone de Beauvoir) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक द सेकेंड सेक्स (The Second Sex) में यही भाव लिखी हैइसका हिन्दी अनुवाद "स्त्री उपेक्षिता" नाम से हुआ, जिसे प्रभा खेतान ने अनुदित किया है|  मैं इन दोनों को सादर नमन करता हूँ| सिमोन के द्वारा फ्रेंच में लिखी गई इस पुस्तक में इन्होंने स्त्री संबंधी धारणाओं और विमर्शों को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। स्त्री अधिकारवादी विचारधारा वाली सिमोन की यह पुस्तक ‘नारी अस्तित्ववाद’ (Existentialist) को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। यह स्थापित करती है कि स्त्री जन्म नहीं लेती है, बल्कि जीवन में बढ़ने के साथ बनाई जाती है।

ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वर्तमान समाज में पुरुषों की मानसिकता स्त्रियों के प्रति समुचित यानि उपयुक्त नहीं हैजब स्त्रियों को ‘भोग्य वस्तु’ मान लिया जाता है, तब ही स्त्रियों पर संकट आता है| वस्तु’ (Object/ Material) मान लेने से ये भी वस्तुओं की श्रेणी में आ जाती है| फिर इसे बेचा – ख़रीदा जा सकता है, इसे दान (कन्यादान) में भी दिया जा सकता है, इसे जुएँ में दांव पर भी लगाया जा सकता है, या बड़े सामंतों को (सामंती काल में)  अपनी परम भक्ति साबित करने के लिए महँगी वस्तुओं की तरह उपहार स्वरुप भेंट भी किया जाता था, जैसा मध्य काल में दुनियां सहित भारत में भी खूब प्रचलित रहादरअसल ऐसी भावना सामंती काल में आई, या यदि यह पहले से ही थी, फिर भी इस काल में और ज्यादा मजबूत हुई| वस्तुओं की तरह ऐसी भावना आ जाने से स्त्रियों के प्रति पुरुषों का सोच, व्यवहार, प्रतिक्रिया एवं अपेक्षाएं बदल गयी| सामन्ती मानसिकता वाले समाज में स्त्रियों को वही करना पड़ता है, जिसे करने की अपेक्षा उनसे की जाती है|

स्त्रियों की शारीरिक बनावट ऐसी है, जो पुरुष के यानि एक दुसरे के पूरक हो| शारीरिक असमानता  असल में प्रकृति की क्रिया है, या प्रकृति को बचाए रखने की व्यवस्था है| इसी से प्रकृति की निरंतरता है| इसमें पुरुषो का कोई हाथ नहीं है। अतः शारीरिक असमानता को पुरुषो ओर नारी में सामाजिक असमानता करने का कारण बनाना व्यर्थ एवं मूर्खता हैं। किसी व्यक्ति का लिंग (Gender) एक जैवकीय निर्धारण की घटना है, जिसपर उस व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता हैं। इस प्राकृतिक विभेद को “यौन विभेद” (Sex Discrimination) कहा गया है, और समाज द्वारा उत्पन्न विभेद को “लैंगिक विभेद” (Gender Discrimination) कहा गया है| इसलिएपुरुषो और नारियो में कोई सांस्कारिक भेद भाव नहीं करना चाहिए।

लेकिन वस्तु (Commodity, Item) समझने से इसे भी अन्य वस्तुओं की तरह सुरक्षित रखने, संरक्षित रखने, उपयोग करने या उपभोग करने, या अन्य आवश्यकताओं में प्रयुक्त किया जाने लगा| नजीता यह हुआ कि इनकी दुनिया घर की चाहरदीवारी तक सीमित कर दी गयी| इनके अतिरिक्त समय को व्यस्त करने के लिए अनेक व्रत, कर्मकांड, त्यौहार आदि का ईजाद भी कर दिया गया| आप देखेंगे कि ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जिनमे पुरुषों की सहभागिता नहीं के बराबर है| उनके लिए अलग मूल्य (Value) एवं प्रतिमान (Norm) स्थापित कर दिए गए| इनको सामान्य शिक्षा से भी वंचित कर दिया गया| इनको बाहरी गतिविधियों में शामिल होने से भी प्रतिबंधित कर दिया गया| इससे उनकी तर्क क्षमता, विश्लेषण क्षमता, मूल्याङ्कन क्षमता, और वैज्ञानिक मानसिकता पर्याप्त विकसित नहीं हो पायी|

लेकिन एक स्त्री अपने परिवार का धुरी (Axis) होती है। एक स्त्री को परिवार की दुनिया में सीमित कर दिया जाता है एक सीमित क्षेत्र में रहने के कारण एक स्त्री अपने ऐसे गुण एवं स्वभाव विकसित कर लेती है, कि एक पुरुष को अपने बच्चों एवं अन्य सदस्यों के बीच उस स्त्री की हर वो बात माननी ही पड़ती है, जो सभी संस्कारों एवं संस्कृति से जुडी बातें हैं। उन सभी में स्त्रियों की प्रभावशीलता हावी रहती है| उस ‘अन्यथा प्रभावशीलता’ को निष्प्रभावी करने में अपेक्षा से ज्यादा समय, संसाधन, उर्जा एवं धन लगाना पड़ता है| ऐसा स्वाभाव एक स्त्री में स्वाभाविक तौर पर होता है, या विकसित हो जाता है, ऐसी बात नहीं होती हैवस्तुत: वर्तमान समाज एवं संस्कृति ही उस स्त्री को गढ़ता (Carve out ) है, बनाता है  या ढालता (Cast into) है| उनके सोच को नियंत्रित, नियमित, निर्धारित, संरक्षित, एवं संयोजित कर ही ऐसा करना संभव होता है| इससे एक स्त्री अज्ञानता एवं संकुचित विचार से घिर जाती है| इससे ये यथास्थितिवादी हो जाती है, अर्थात परिवर्तन विरोधी हो जाती है| यह सब संस्कार एवं संस्कृति के नाम पर, यानि परंपरा के नाम पर किया जाता है|

इतना ही नहीं, इन स्त्रियों के लिए एक नया शब्द का ईजाद किया गया – आबरू| आबरू एक ऐसा शब्द बनाया गया, जिसके साथ सिर्फ एक ही शब्द का इस्तेमाल यानि प्रयोग किया जा सकता है| यह एकमात्र शब्द है - लूटनाया समानार्थी भावार्थ का कोई दूसरा शब्द|  अर्थात किसी की आबरू लुटती है या लुटने से बच जाती हैकिसी की आबरू बन गयी, या बिगड़ गयी, या बढ़ गयी, या सम्हल गयी; ऐसा नहीं होता है| यह सामंती मानसिकता वाले पुरुषों के सोच एवं साजिश का परिणाम है| इस तरह एक स्त्री के लिए उसके अस्तित्व से यानि उसके जीवन से अधिक महत्वपूर्ण आबरूको बना दिया गया| एक स्त्री कहीं भी घर से बाहर जाए, उसे अपने आबरू के प्रति सजग रहना है और उसे लुट जाने से बचाना ही उसका जीवन है| अन्यथा उसका सब कुछ यानि जीवन ही व्यर्थ हैइस तरह एक स्त्री के लिए शिक्षा या कार्य या स्वास्थ्य या जीविकोपार्जन या मनोरंजन या यात्रा से महत्वपूर्ण हो गया, उसका आबरू का बचा रहना|

सांस्कृतिक रूप से यौन की पवित्रता की जिम्मेवारी सिर्फ स्त्रियों को ही दी गयी| इस यौन की पवित्रता की सामाजिक जिम्मेदारी पुरुषों की नहीं है। ऐसे संस्कृति के समाज में स्त्रियों का दायरा घर की चाहरदिवारी तक सीमित हो गया, उसी तरह से जैसे एक लम्बे सजायाफ्ता कैदी जेल में सीमित हो जाता है| यहाँ एक कैदी का उदहारण भी गलत है, क्योंकि वह अपने उम्र एवं विचारो के परिपक्व होने पर ही जेल जाता है| परन्तु एक स्त्री को तो अपने जन्म से ही उस स्त्री के ‘निर्धारित ढांचे’ (Fixed Frame) में ढाल दिया जाता है और उसी ढाँचे में बढ़ने दिया जाता है|

इन सबका समेकित परिणाम यह होता है, कि बहुसंख्यक महिलाओं में ऐसे संस्कार (Sacraments, Ordination, Impression) उनके अचेतन (Un conscious), अवचेतन (Sub conscious), चेतन (Conscious एवं अधिचेतन (Super conscious) में समाहित हो जाते हैं| इनके व्यवहार, इनकी सोच, इनकी बोली, इनके कार्य आदि इन्ही अन्तर्निहित (Implied) चेतना से संचालित, निर्धारित, नियमित, नियंत्रित एवं प्रभावित होने लगते हैं| इन पर इन स्त्रियों का नियंत्रण नहीं होता है, अपितु ये स्त्रियाँ ही इन संस्कारों के नियंत्रण में होते हैं| समाज का पुरुष वर्ग अपनी इस तथाकथित विद्वता एवं अपनी तथाकथित आधुनिक विचारों की अभिव्यक्ति का परिवार के बाहर तो खूब उपयोग करता है, परन्तु जब वह अपने परिवार में इसका उपयोग करता है, तो वह उन नए विचारों को जीवन में उतरने में अपने को असमर्थ पाता है| एक आधुनिक विचार का पुरुष सब कुछ सोच सकता है, परन्तु अपने संस्कार को परिवार में बदल कर नए संस्कार नहीं पा सकता है| वह पुरुष अपने परंपरागत संस्कारों में जड़ (Fix) होता है| मैं यह बात सामान्यकृत परिवार की कर रहा हूँकुछ अपने को अपवाद में मान लें|

आप देखते होंगे कि इस समाज को, इस संस्कृति को, इस व्यवस्था को, इस यथास्थितिवादी मानसिकता को बदलने के दावा करने वाले बहुत से तथाकथित क्रांतिकारी संगठन हैं| इन संगठनों का ढांचा देखिए, इनकी बैठकों को देखिए; इसमें पुरुषों की संख्या महत्तम होगी एवं स्त्रियों की संख्या नगण्य| इन क्रांतिकारी विचारों को जब जमीन पर उतारने की बात होगी, और यदि ये संस्कारों से सम्बन्धित होगी, तो यह पारिवारिक स्तर पर ही ध्वस्त (Collapse) हो जाती है, या ध्वस्त हो जाएगी

‘परिवर्तन का रथ’ यही रुक जायेगा या यह कहिये कि ‘परिवर्तन रथ’ का शानदार पहिया वही कीचड़ में ऐसा धंस जायेगा, कि किसी से निकल ही नहीं पायेगा| स्त्रियाँ वही करेगी, जो उसे जीवन भर में सिखाया गया है, जिसमे जीवन भर ढाला गया है| हम एक परिपक्व व्यक्ति के मानसिकता को यानि संस्कारों को आसानी से नहीं बदल सकते| इन संस्कारों की मनोवैज्ञानिक जड़ें बहुत गहरी होती हैं, क्योंकि इन जड़ों का पोषण जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है|

किसी भी समाज या संस्कृति में विकास (Development) के लिए परिवर्तन (Change) का होना जरुरी होता है| निश्चित है कि यह परिवर्तन सकारात्मक (Positive) एवं रचनात्मक (Constructive) दिशा में होना है| नकारात्मक (Negative) दिशा में परिवर्तन को ही विध्वंस (Destruction) कहा जाता है| लेकिन परिवर्तन ही विकास का आधार है| यह परिवर्तन ही वृद्धि (Growth) को भी आधार देता है| वृद्धि सामान्यत: एक देशीय (Uni Directional) सकारात्मक परिवर्तन है, जो सामान्यत: अंकगणितीय आधार (Arithmetical Basis) पर मापा जाता है| जबकि विकास स्पष्टतया बहु देशीय (Multi Directional) समेकित परिवर्तन (Integrated Change) है, जिसे साधारण अंकगणितीय आधार पर निर्धारित नहीं किया जा सकता है| इसे मापने में कई विशिष्ट एवं बहुआयामी (Multi Dimentional) अवधारणाओं (Concepts) का उपयोग किया जाता है| स्पष्ट है कि परिवर्तन के बिना विकास नहीं हो सकता|

क्या कोई ऐसा व्यक्ति या समाज भी है, जो परिवर्तन नहीं चाहता है? इसका स्पष्ट उत्तर हाँभी है और नाभी है| यह उस समाज के सन्दर्भ पर निर्भर करता है| कुछ व्यक्ति स्वयं में परिवर्तन तो चाहता है, परन्तु विस्तृत समाज में परिवर्तन नहीं चाहता है| कुछ व्यक्ति विस्तृत समाज में तो परिवर्तन नहीं चाहता है, परन्तु अपने तथाकथित समाज में ही परिवर्तन चाहता है| ऐसे ही व्यक्ति या समाज सामंतवादी होते हैं

सामंतवादी वे होते हैं, जो वंशानुगत आधार पर असमानता को यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं| वास्तव में “समानता का अन्त” यदि वंशानुगत आधार पर है, तो यही “सामंतवाद” है| इनको अपना स्वार्थ तो दीखता है, सम्पूर्ण समाज का हित नहीं दीखताये स्वार्थी लोग वैश्विक समाज की गतिविधियों की समझ की उपेक्षा करते हैं| इनको वैश्विक हलचलों का सही अनुमान नहीं होता है, वे इसे समझना ही नहीं चाहते है| ये सिर्फ साथ रहने वाले दुसरे समाज को पीछे करने में व्यस्त होते हैं| इस तरह ये विकास के तथाकथित सुखद भ्रम में जीते होते हैं| इन सामन्तवादियों को तो लगता है कि ये लोग अपने ही देश में अपने ही देश के सामने वाले को बुरी तरह से पछाड़ रहे हैं| इनको यह पता नहीं है कि इनकी नाव रूपी देश या समाज को ही किसी दुसरे संस्कृति के लोगों ने अपहृत (हाईजैक) कर लिया हैं| ये लोग दृश्य घटनाओं को तो आंखों से देख पाते हैं, पर अदृश्य घटनाओं की कोई समझ इनको नहीं होती| इसी कारण यह सम्पूर्ण समाज या सम्पूर्ण संस्कृति वैश्विक स्तर पर दुसरे के शिकार हो रहे हैं| ये लोग पूरे समाज की सांस्कृतिक हितों की उपेक्षा करते होते हैं|

इसका अर्थ यह हुआ कि समाज का बहुसंख्यक आबादी विकास चाहता हैं, और इसके लिए आवश्यक परिवर्तन के पक्ष में होता हैं| तो भी परिवर्तन का रथ अपेक्षित गति से बढ़ता हुआ नहीं होता है, या कहीं रुका हुआ होता है, या कहीं धँसा हुआ होता है| यह रथ कहाँ और किन परिस्थितियों में रुका हुआ है? इसके लिए हमें यथास्थितिवादी शक्तियों एवं कारको को समझना होगा| इसके लिए हमें स्त्रियों के प्रति किए जा रहे संस्कारों एवं व्यवहारों का अवलोकन, विश्लेषण, मूल्याङ्कन, एवं उसका मनन- मंथन करना होगा और उसे इस सन्दर्भ में व्यवस्थित करना होगा| इसके बिना विकास की बात बेमानी हैयथास्थितिवाद को बनाये रखने में संस्कृति की भूमिका ही महत्वपूर्ण होती है| संस्कृति सदियों तक यथास्थितिवाद बनाये रहती है और ऐसी क्षमता दुसरे किसी कारक में नहीं होती है| इसी संस्कृति एवं संस्कार को स्त्रियों के सन्दर्भ में समझना और विमर्श करना जरुरी है|

हमें नैतिकता को सकारात्मक दृष्टिकोण से, वैज्ञानिक दृष्टिकोण में, विकासवादी पृष्ठभूमि में और मानवतावादी सन्दर्भ में समझना होगा| इसे नए ‘पैरेडाइम शिफ्ट’ से भी देखने की कोशिश होनी चाहिएतथाकथित नैतिकता के मूल्य एवं प्रतिमान को फिर से परिभाषित किया जाना ही  चाहिए। सामंती मानसिकता को सभी विकसित समाज छोड़ चुके हैं, हमें भी इस मानसिकता को त्यागना होगा| इन स्त्रियों की संभाव्यता, क्षमता, उत्पादकता, एवं प्रभावशीलता को समझना होगा| इनके अनेक ऐसे गुण एवं विशेषता हैं, जिनकी संभाव्यता, क्षमता एवं उपयोगिता की पहचान बाकी है| इस दिशा में हमें अपनी सोच को ले जाने पर बहुत कुछ और स्पष्ट होने लगेगा|

मानव विज्ञान (Anthropology) में हम सरल (Simple) एवं साधारण  Ordinary) समाजों का अध्ययन करते हैं| मानव विज्ञान में हम लम्बे समय में उन समाजों में उत्पन्न सहज स्वाभाविक प्रवृतियों (Instinct) को जानते एवं समझते हैं, ताकि आधुनिक समाजों की कई समस्याओं के समाधान में इसका सदुपयोग किया जा सके| ऐसे ही सरल समाजों में महिलाओं की भूमिका अध्ययन योग्य है, जैसे केरल का नायर”, तमिलनाडु का टोडा”, मेघालय का खासीआदि जनजातीय| इससे महिलाओं की सरल एवं सहज प्रवृतियों को समझ कर आधुनिक युग में संस्कार एवं संस्कृति के सन्दर्भ में भूमिका समझी जा सकती हैइससे हम परिवर्तन रथ के रुके पहिये में स्त्रियों की भूमिका को समझ कर इन बाधाओं को दूर कर सकते हैं| यह विकास को अपेक्षित गति देने के लिए अनिवार्य होगा|

(यह एक विमर्श की शुरुआत है, जिसमे आपकी सक्रिय भागीदारी से उपयुक्त सुझाव मिलेगा, कमेन्ट बाक्स में इन्तजार रहेगा|)

निरंजन सिन्हा

चिन्तकबौद्धिक उत्प्रेरक एवं लेखक।

 

 

भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक सम...