सोमवार, 31 मई 2021

मिथक या इतिहास : क्या, क्यों और कैसे?

 

(Myth- पौराणिक) और इतिहास (History) – दोनों ही बड़े विवादास्पद शब्द हैं अर्थात बड़ी ही  विवादास्पद अवधारणाएँ  है| आज के विश्व -समाज को यदि विकास के पैमाने पर वर्गीकृत किया जाए तो मेरे अनुसार समाज को विकसित (Developed) और अविकसित (Undeveloped) केवल दो ही अवस्था में होना चाहिए| हाँ, कुछ देश अविकसित हैं और संस्कार भी अविकसित है, परन्तु अविकसित कहलाने में शर्म महसूस होती है तो एक आत्ममुग्धता के लिए यानि झेंप मिटाने के लिए एक नया शब्द गढ़ लिया है जिसे विकासशील (Developing) समाज या देश कहा जाता है| क्या विकास का प्रत्यक्ष सम्बन्ध पौराणिकता एवं ऐतिहासिकता से है? इसका स्पष्ट उत्तर है – हाँ| ‘मिथक’ गलत उद्देश्य को स्थापित करने एवं उसे बनाए रखने के लिए काल्पनिक कहानियाँ होता है और इतिहास सामाजिक विकास एवं रूपांतरण का क्रमिक दस्तावेज होता है| इसी इतिहास  बोध (Perception of History) से ही विकास के संस्कार (Mentality / Outlook of Development) पैदा होते हैं| इसीलिए मैं अभी ‘पौराणिकता एवं ऐतिहासिकता’ के सन्दर्भ में विकास की अवस्था पर विमर्श कर रहा हूँ| वैसे कुछ समाज, वृद्धि (Growth) को भी विकास (Development)  समझने की गलती कर बैठते है, हालाँकि सामान्यत: वृद्धि विकास का ही हिस्सा होता है परन्तु बिना वृद्धि का भी विकास होता है| इसी वृद्धि को लेकर कुछ अविकसित देश अपने को विकासशील समझते हैं और अपने देश को एक ही काल में ठहराए हुए रहते हैं| इसे वर्तमान के प्रति, भविष्य के प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति एक गंभीर अपराध माना जाना चाहिए|

‘मिथ’ (Myth) को हिन्दी में मिथक, कल्पित कथा, पुराण कथा, या पौराणिक कथा कहा जाता है जिसे अंग्रेजी में Illusion, Delusion, Hallucination, Fallacy और Misbelief के रूप में भी समझा जाता है| यह लोकप्रिय विश्वास या परम्परा है, जिसे समय काल में गढ़ा या रचा गया है| इसे दुसरे शब्दों में “इतिहास” के आवरण में कल्पित कथाएं कह सकते हैं| यानि इतिहास के नाम पर यह पुरातन काल्पनिक कथाएं होती है जिसका कोई पुरातात्विक आधार या साक्ष्य नहीं होता| इसे अपने असमानतावादी सामाजिक आदर्श को स्थापित करने के लिए मनगढ़ंत कथाओं के रूप में गढ़ दिया जाता है| वैसे ‘इतिहास’ और ‘मिथक’ में कोई ज्यादा फर्क नहीं होता है, और यह समाज के सन्दर्भ पर निर्भर करता है| आज जो इतिहास है, कल मिथक साबित हो सकता है, जैसे कल तक महाकाव्य युग (Epic Age- महाभारत काल एवं रामायण काल) इतिहास था (और इतिहास के किताबों में था) परन्तु आज उसे इतिहास के किताबों से बाहर कर दिया गया है; अब यह मिथक की श्रेणी में आ गया है, और यह आज आस्था के रूप में ही मान्य है|

जिस मिथक को समाज सही मानता है, सामान्यत: कुछ समाज उसे ही इतिहास कहते हैं अर्थात मिथक को ही इतिहास माना जाता है| ऐसा पिछड़ी हुई संस्कृति एवं समाज में ही होता है| मिथक को इतिहास मानने वाला  समाज, सन्दर्भ (काल एवं देश) के अनुसार बदलता रहता है| जब समाज छोटा होता है, और शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक रूप से निम्नतर होता है तो मिथक आसानी से इतिहास माना जाता है, जैसे अंग्रेजो के आने से पहले भारत में मिथक को ही इतिहास समझा जाता था; अभी भी बहुत परिवर्तन होना बाकी है| परन्तु जब समाज व्यापक होता है और शैक्षणिक- सांस्कृतिक स्तर उच्चतर होता है तो मिथक को इतिहास साबित होने में कठिनाई होती है, जैसे पश्चिमी समाज, बहुत से मिथकों को इतिहास से अलग कर विकास के पथ पर अग्रसर है|

इतिहास क्या होता है? इसे प्रसिद्ध इतिहासकार एडवर्ड हैलेट कार ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – “इतिहास क्या है” (What is History) में अच्छी तरह से बताया है| वे समझाते हैं कि इतिहास दो तत्वों से बना होता है – पुरातात्विक साक्ष्य (Archaeological Evidences) एवं इतिहासकार (Historian) से| पुरातात्विक साक्ष्य तो स्वयं में निरपेक्ष रहते हैं, परन्तु इतिहासकार अपनी मानसिकता एवं परिस्थितियों से संचालित एवं नियंत्रित होकर इसकी व्याख्या करते होते हैं| यदि शासक एवं शासित का समबन्ध शोषक एवं शोषित का होता है (खासकर सामंती व्यवस्था में) और इतिहासकार शासक के नियंत्रण में होता है तो इतिहास को यथास्थितिवादी होना ही होता है, और शोषक के पक्ष में ही होना होता है| प्रोफ़० कार यहाँ तक कहते हैं कि इतिहास को समझने के लिए इतिहासकार की मंशा (Intention) को समझना जरुरी है| इतिहासकार की मंशा समझने के क्या उपकरण यानि वैचारिक अवधारणायें होंगे, इसकी आगे चर्चा करेंगे|

मिथक की आवश्यकता क्यों होती है? जब इतिहास निष्पक्ष रूप में इतिहासकार की मंशा या शोषक वर्ग की मंशा के अनुरूप नहीं होता है, तो इतिहास के स्थान पर सत्ता या व्यवस्था को मिथक गढ़ने की आवश्यकता हो जाती है| और इसीलिए मिथक को इतिहास के आवरण में पेश किया जाता है| मध्य काल के तत्कालीन विश्व (एशिया, यूरोप एवं उत्तरी तटवर्ती अफ्रीका) का पूरब या पश्चिम या मध्यवर्ती क्षेत्र (देश), सभी जगह सामंतवाद के पक्ष में इतिहास को मोड़ना था, और इसीलिए सामंतवाद की आवश्यकताओं के अनुरूप इतिहास के नाम पर मिथक बनाने की आवश्यकता हुई| पश्चिम, पूरब एवं मध्यवर्ती क्षेत्र (देश) में मिथक को इतिहास के आवरण से आवृत (Encircle, Cover) कर दिया गया| मुझे तो यहाँ तक कहना कि, मिथक ने सिर्फ इतिहास का ही नहीं, धर्म एवं संस्कृति का भी आवरण ओढ़ लिया है, और जन जीवन में समाहित होकर व्याप्त हो गया|

यूरोप में पुनर्जागरण के आन्दोलन ने इतिहास को मिथक के आवरण से मुक्त कराया और वहाँ एक विकसित समाज बन गया| परन्तु अपने सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के कारण पूरब एवं मध्यवर्ती क्षेत्र (देश) अपने इतिहास को मिथक के आवरण से मुक्त नहीं करा पाये है, और परिणाम यह है कि अपने ऐतिहासिक अतीत के गौरव के बावजूद भी ये क्षेत्र अभी भी अविकसित क्षेत्र हैं; भले आप चाहे अपने आप को तथाकथित विकासशील या कोई दूसरा आत्ममुग्धता भरा नाम दे दें|

मिथक से इतिहास को अलग करना क्यों जरुरी है? किसी भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का “इतिहास बोध” (Perception of History) ही उस व्यक्ति या समाज या राष्ट्र की संस्कृति  (Culture) का निर्माण करता है| किसी समाज या राष्ट्र की संस्कृति ही उस समाज या राष्ट्र की मानसिक निधि (Mental Treasure) है जो अचेतन (Un Conscious), अवचेतन (Sub Conscious), चेतन (Conscious) एवं अधिचेतन (Super Conscious) स्तर पर विचार (Thought), व्यवहार (Behaviour), एवं आदर्श (Ideal) को संचालित, नियंत्रित, निदेशित एवं निर्मित करती है| यह संस्कार ही समाज एवं राष्ट्र के सम्पूर्ण तंत्र का सॉफ्टवेयर है, जैसे हार्डवेयर कंप्यूटर के सञ्चालन में सॉफ्टवेयर महत्वपूर्ण होता है| यही संस्कृति उस समाज एवं राष्ट्र के संस्कार बनाते हैं जो उसकी सकारात्मकता, रचनात्मकता एवं उत्पादकता को निर्धारित करता है| यही मानसिकता या मानसिकता में परिवर्तन ही विकास की नीव (Foundation) है| इसीलिए मिथक को इतिहास से अलग करना जरुरी है| सिर्फ तथाकथित “आस्था” के  नाम पर नकारात्मक, विध्वंसात्मक, एवं अनुत्पादक मिथक को बर्दाश्त नहीं किया जाना किया जाना चाहिए है, यानि सिर्फ आस्था के नाम पर कुछ परम्परावादी शोषकों के पक्ष में बहुसंख्यक शोषितों एवं वंचितों को यथास्थिति में रखने के बहाने, राष्ट्र को बरबाद नहीं किया जाना चाहिए| हर एक समूह की आबादी ही, किसी राष्ट्र का बहुमूल्य मानव संसाधन हैं, जो अपनी संभावनाओं से संसाधनविहीन जापान जैसे देश को एक समृद्ध एवं शक्तिशाली (आर्थिक रूप में) राष्ट्र बना देते हैं| भारत का प्राचीन गौरव क्या है, और उसमे क्या, क्यों एवं कैसे परिवर्तन आया? यह तो इतिहास से मिथक को निकालने के बाद ही स्पष्ट होगा

पश्चिम ने क्या किया, जिससे वहाँ पुनर्जागरण आया, फिर विकास हुआ, और काफी मजबूत होकर उभरा? उन्नीसवीं सदी में और उसके आसपास वहाँ पाँच विचारक आये, और इनके विचारों के कारण सब कुछ बदल गया| इन पांचो ने मिथकों पर कई दृष्टिकोणों से प्रहार किया और हर किसी चीज को देखने एवं समझने का नजरिया बदल दिया| हर चीज को वैज्ञानिक एवं एक नया नजरिया देकर उसके वर्त्तमान स्वरुप को निखार  दिया| ये पाँच विचारक - चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin), कार्ल मार्क्स (Karl Marx), सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud), अल्बर्ट आइन्स्टीन (Albert Einstein), और फर्डीनांड डी सौसुरे (Ferdinand de Saussure) हैं| यही पाँचों विचारक ही आधुनिकता यानि वैज्ञानिकता के जनक हैं और विकास के आधार हैं| हमें इतिहास को फिर से लिखना होगा, उसमें से मिथक को अलग करना होगा, ताकि वैज्ञानिकता एवं आधुनिकता आ सके| यही विकास को गति देगा और मानव संसाधन अपनी पूरी संभावनाओं (Full Potential) को प्राप्त कर सकेगा| इतिहास को मिथक से अलग करने में इन विचारकों की भूमिका की चर्चा मेरे समक्ष सर्वप्रथम प्रोफ़० शिव कुमार यादव ने किया, जो पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं; मैं उनका आभारी हूँ|   

अब हमें यह समझना है कि इन पाँचों विचारकों ने क्या दिया और कैसे इसे प्रभावित किया? मानव समाज ‘प्रकृति’ (Nature) का अभिन्न भाग है तथा ‘प्रकृति’ सदैव बदलती रहती है और इसीलिए मानव समाज भी सदैव बदलता रहता है| डार्विन ने ‘मानव समाज’ का ‘प्रकृति’ से संघर्ष को, मार्क्स ने मानव समाजों के आपसी संघर्ष को और फ्रायड ने मानव के ‘आंतरिक संघर्ष’ को रेखांकित किया तो आइंस्टीन ने आपके समय- स्थान (Time – Space)  के सन्दर्भ को एवं सौसुरे ने शब्द एवं वाक्य को उसके सम्पूर्ण सन्दर्भ (Full Context) में उसको रेखांकित किया|

डार्विन ने बताया कि सभी जीवों का क्रमिक विकास अर्थात उद्विकास (Evolution) हुआ है और कोई भी जीव, मानव सहित, किसी सर्वोच्च रचियता के विशिष्ट निर्माण का परिणाम नहीं है| ‘सर्वोच्च रचियता’ के द्वारा किसी ‘व्यक्ति विशेष’ की रचना किए जाने के विचार का खण्डन हुआ अर्थात तथाकथित ईश्वर होने का खण्डन हुआ|  इन्होंने अपनी पुस्तकों  “On the Origin of Species by Means of Natural Selection” (1859) एवं “The Descent of Man” (1871) में उद्विकास के प्राकृतिक चयन  (Natural Selection), अनुकूलन (Adoption) एवं योग्यतम की उत्तरजीविता (Suvival of the Fittest) के सिद्धांत दिए| इसी से यह स्थापित हुआ कि सभी जीवों का उद्विकास एक कोशिकीय प्राणी से हुआ तथा इनके प्रजातीय भिन्नता में प्राकृतिक चयन एवं अनुकूलन की भूमिका है| इसने आदमी के ईश्वरीय रचना की अवधारणा को ध्वस्त कर दिया| उस समय यह एक क्रन्तिकारी अवधारणा थी, भले आज भी बहुत से समाजों में तथाकथित ईश्वर और उनकी लीलाओं की मान्यता व्याप्त है; तय है ये सभी अविकसित समाज एवं देश में ही होंगे|

मार्क्स ने समाजो के विकास (Development) एवं रूपांतरण (Transformation) की प्रक्रिया की वैज्ञानिक व्याख्या किया| इनका तर्क था, कि संस्था (Institution) ही विचारो (Ideas, Thoughts) को निरुपित करती है अर्थात उसको आकार (Shape) देती है, और यही इतिहास को परिभाषित करता है| इन्होंने समाज के विकास एवं रूपांतरण को आर्थिक शक्तियों के प्रभाव से निर्मित, संचालित, नियमित तथा नियंत्रित बताया| आर्थिक शक्तियों से इनका तात्पर्य मानव समाज के उत्पादन (Production), वितरण (Distribution) एवं विनिमय (Exchange) की शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों से है| यह आज भी इतिहास के किसी समाज या किसी काल खंड की वैज्ञानिक व्याख्या करने में सक्षम है| इसके पहले समाज में पौराणिक कल्पित कथाओं का ही चलन व्याप्त था| आज भी जिस समाज ने अपने इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं की है, वहाँ मिथक ही प्रचलित है, जो उस समाज की एक बड़ी आबादी को निकम्मा बनाए हुए है|

फ्रायड ने सामाजिक विकास एवं रूपांतरण की व्याख्या में पहली बार मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को आधार दिया| इसमें मानवीय सहज प्रवृति (Instincts या Drives) को मानवीय विचार, व्यवहार एवं आदर्श को निर्धारित एवं नियंत्रित करने वाला पाया| इन्होंने आत्म (Self) को इड (Id), इगो (Ego), एवं सुपरइगो (Superego) के आधार पर समझया| जहाँ इड जैवकीय अचेतन की प्रेरणा (Biological Unconscious Drives) है (और सभी जीवों में है, और यह प्राकृतिक प्रवृति है), वही सुपरइगो समाज द्वारा नियंत्रित आलोचनात्मक चेतना (Critical Conscious) है, जो इड की भावनाओं को संस्थाओं (विवाह, परिवार, समाज, विद्यालय, राज्य, मुद्रा, कम्पनी इत्यादि) द्वारा प्रतिबंधित  करता है (जो निम्नतर पशुओ में नहीं होता है)| इगो शेष दोनों इड एवं सुपरइगो के बीच वास्तविक संतुलन बनाता है| किसी भी मानवीय विचार, व्यवहार एवं आदर्श को समझने के लिए मनोविज्ञान का होना महत्वपूर्ण हो गया| आज मनोविज्ञान बहुत ही विकसित अवस्था में है| अविकसित समाजो एवं देशों में किसी भी कार्य के क्रियान्वयन में सचेत मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं रखा जाता है|

आइन्स्टीन ने विज्ञान में पूरा पैरेडाइम शिफ्ट कर दिया| उन्होंने पृथ्वी की हर वस्तु एवं घटना को सापेक्षिक (Relative) बताया, समय (Time) और स्थान एवं आकार (Space) को भी| उन्होंने सापेक्षिता के विशेष नियम (1905) एवं साधारण नियम (1915) के द्वारा परम्परागत भौतिकी में क्रान्ति ला दिया| इन्होंने फोटोइलेक्ट्रिक प्रभाव (आइन्स्टीन को नोबल पुरस्कार इसी के लिए मिला, सापेक्षिता के सिद्धांत के लिए नहीं) की व्याख्या कर पदार्थ एवं उर्जा के अंतर्संबंधों को समझाया| इन नए अवधारणाओं पर बुद्ध के कई दर्शन आधुनिक भौतिकी में सही साबित हो गए| आज के भौतिक विज्ञानी भी बौद्ध दर्शन को जादू, धर्म एवं विज्ञान से ऊपर की चीज मानते हैं| भौतिकी के नोबल पुरस्कार विजेता सर रोजर पेनरोज भी बुद्ध के दर्शन को इसी नजरिये से देखते हैं| यह सब मिथक की कहानियों से ऊपर स्थापित हुआ है जो पहले संभव नहीं था|

फर्डीनांड डी सौसुरे ने लिखावट के शब्दों एवं वाक्यों को समझने के तरीको को बदल डाला| इन्होंने अर्थो के मकडजाल (The Web of Meaning) का अवधारणा को जन्म दिया एवं संरचनावाद (Structuralism) का सिद्धांत दिया| इनका कहना है, कि किसी भी शब्द के अर्थ का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, बल्कि उसका अर्थ  अपने सन्दर्भ, अन्य शब्द एवं वाक्य के सम्बन्ध में होता है| इससे भाषाओं के अध्ययन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ| इन्होंने कहा कि शब्द किसी लिखावट में संकेतों (Sign, Charactars) का समूह है, जो किसी ध्वनी को, किसी विचार, या अवधारणा को प्रतिबिंबित (Reflect) करता है, सम्बन्धित (Corelate) करता है| इस तरह शब्द का स्वयं कोई अर्थ नहीं होता, और वह उस पुरे लिखावट के सन्दर्भ में तथा पुरी पारिस्थितिकी (Whole Ecosystem) (समय, स्थान, कालक्रम, परिस्थिति) के सन्दर्भ में होता है| इसीलिए किसी भी शब्द के अर्थ को सही ढंग से समझने के लिए उस पुरे लिखावट को, उसके प्रतिरूप (Pattern) को, उस समय के काल क्रम को, उस समय की परिस्थिति (Situation) को, उस स्थान की पारिस्थितिकी (Ecology) को सम्यक (Proper) रूप में समझना होगा| इस तरह किसी शब्द का सतही अर्थ (Surface Meaning) भी हुआ और उसका अन्तर्निहित अर्थ (Underlying Meaning) भी| इसलिए किसी भी लिखावट के प्राधिकृत व्याख्या पर संशय किया जाने लगा| अत: हमें भी किसी शब्द के ‘सतही अर्थ’ एवं ‘अन्तर्निहित अर्थ’ को समझना है|

उपरोक्त पाँचों विचारको के कारण मिथक मरणासन्न हो गया है| अब ये मिथक कुछ दिनों के मेहमान हैं| आज मिथकों को यूनेस्को (UNESCO) के प्रजाति सम्बन्धी घोषणा पत्रों (Declaration relating Race), जीवविज्ञान (Biology), आणविक जीवविज्ञान (Molecular Biology), अनुवांशिकी (Genetics), मानव विज्ञान (Anthropology), पुरातत्व विज्ञान (Archaeology), मनोविज्ञान (Psychology), अर्थशास्त्र (Economics), भाषाविज्ञान (Linguistics), आधुनिक भौतिकी (Modern Physics) (क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत – Quantam Field Theory) के आधार पर देखा एवं कसा जाने लगा है| आज विश्व एक सीमित गाँव हो गया है| जिस भी चीज को विश्व यदि मिथक मान लेता है, तब विश्व के किसी भी अन्य हिस्से को उसे कल्पना मान लेने की बाध्यता हो जाती है| आप अपनी बात को विश्व जनमत तक पहुचायिए, आपकी विजय निश्चित है|

तब ही मिथकों का सही, तार्किक, तथ्यात्मक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है और सत्य के करीब पहुंचा जा सकता है| जब इस गंदगी को हटाया जाएगा, तब ही समाज एवं राष्ट्र का सम्यक विकास शुरू हो सकता है| इसी पथ पर चल कर ही कोई अविकसित समाज एवं राष्ट्र कल विकसित एवं समृद्ध हो सकता है| इसी तरह हमारा भारत भी कल विकसित एवं समृद्ध समाज एवं राष्ट्र बनेगा| हमारा सुनहरा भविष्य निकट है और निश्चित भी|

निरंजन सिन्हा

चिन्तक, व्यवस्था विश्लेषक, एवं बौद्धिक उत्प्रेरक|

 

    

गुरुवार, 27 मई 2021

वर्ण व्यवस्था: एक नया दृष्टिकोण

वर्ण व्यवस्था: एक नया दृष्टिकोण

आज मैं आपके सहयोग से एक नया विमर्श शुरू कर रहा हूँ, परंपरा से थोडा हट कर है; इसलिए थोडा अटपटा लग सकता है| परन्तु जब आप इसे पूरा पढेंगे तो यह निश्चित है कि आपके विचारों को समझने और अपने उलझनों को सुलझाने में एक नया दृष्टिकोण मिलेगा| आपके दृष्टिकोण में एक पैरेडाइम शिफ्ट (Paradigm Shift) हो जायेगा|

वर्ण का अर्थ होता है – रंग (Colour), अर्थात चेहरे एवं शरीर के त्वचा का रंग| इस आधार पर विश्वव्यापी प्रतिरूप (Pattern) या बनावट (Composition) में समानता नहीं है| भारत एवं शेष विश्व का नजरिया अलग अलग है| मानव में रंगों की श्रेणी श्वेत (White) से काला (Black) तक होती है| जो श्वेत (सफ़ेद) नहीं होते है, उन्हें अश्वेत (Non- White) कहते हैं और बहुत लोग इसमें काला रंग यानि वर्ण को भी अलग से शामिल कर लेते हैं| जो रंग सभी तीनो प्राथमिक (Primary) रंगों से मिलकर बनता है अर्थात जो रंग अन्य रंगों को परावर्तित (Reflect) कर देता है; श्वेत रंग कहलाते हैं| जो रंग अन्य रंगों को परावर्तित नहीं कर सभी आपतित (Incidence) रंगों को अवशोषित (Absorbed) कर लेता है, काला रंग कहलाता है| इस तरह पीला रंग, गेंहूआ रंग, सावंला रंग को अश्वेत कहते हैं, कुछ लोग इसमें काला रंग को भी रखते हैं और कुछ इसे अश्वेत से बाहर भी रखते हैं|

आप भी जानते हैं कि त्वचा (Skin) के रंग का निर्धारण कैसे होता है? जो व्यक्ति ठंढे स्थानों में लम्बे समय से रह रहा हो या लम्बे समय से कड़ी धुप (Sun Rays) एवं शारीरिक श्रम से बचता रहा हो, तो ऐसे लोगो का अनुकूलन (Adoptation) इसी तरह श्वेत रंग में विकसित होकर होता है| लेकिन जो लोग उष्ण एवं आद्र प्रदेशों में लम्बे समय से रहते हैं या तीखी धुप एवं आद्र खुली वातावरण में लगातार काम करते हैं, तो ऐसे लोगों का अनुकूलन इसी तरह काला या अश्वेत रंग में विकसित होकर होता है| काला रंग के अतिरिक्त बाकि के अश्वेत रंग इन दोनों रंगों के मध्यवर्ती रंग होते हैं, जो इनके रहने या काम करने  के वातावरण के मध्यवर्ती कारको के कारण निर्धारित होते हैं| यही तार्किक आधार होता है, जिससे शारीरिक रंगों का निर्धारण होता है, और जिसे वर्ण भी कहा जाता है| आपको भी ज्ञात होगा कि सभी वर्तमान मानव एक ही व्यक्ति के संतान हैं, जिन्हें होमो सेपियन्स सपियन्स कहा जाता है| अपनी उत्पत्ति के बाद आज से कोई लगभग पचास हजार वर्ष पूर्व वे अफ्रिका से बाहर निकले और पुरे विश्व में फ़ैल गए| इतने लम्बे कालों में विभिन्न प्रदेशों की भौगोलिक एवं पारिस्थितिकीय परिस्थितियों में अनुकूलन के कारण वे विभिन्न प्रजाति – नीग्रो, काकेशियन, मंगोलोइड में, एवं इनके अंतरवर्ती मिश्रित प्रजाति में विकसित हुए| इसी तरह भारत में भी सामान्य भारतीयों में काम की परिस्थितियों एवं रहने के क्षेत्र के आधार पर शारीरिक रंग विकसित हुई, जिसमे आज भी परिवर्तन देखा जा सकता है| भारत में इन्ही शारीरिक रंगों को वर्ण का आधार बनाया गया| श्वेत के समानार्थी ब्राह्मण, काला के समानार्थी शुद्र, अन्य अ- श्वेत (गेहूंआ एवं सावंला क्रमश:) के समानार्थी में क्षत्रिय एवं वैश्य हुए| अवर्ण में उत्पादक जातियां थी, जिनको सामंती साहित्यकारों के वर्ण व्यवस्था से बाहर ही रखा या इस ओर ध्यान ही नहीं दिया|

प्राचीन भारत में इस रंग यानि तथाकथित वर्ण की कोई आवश्यकता या कोई उपादेयता नहीं थी, और इसीलिए प्राचीन भारत में वर्ण की कोई भी चर्चा या कोई भी सन्दर्भ इतिहास के प्रमाणिक साक्ष्य के साथ नहीं है| प्राचीन भारत के कई शासको ने अपने बारे में, अपने वंश एवं परिवार के बारे में, तथा अपने कृत्यों या अन्य आधारों पर कोई विशेष उपाधि की चर्चा किया है, परन्तु वर्ण जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक प्रस्थिति (यदि उस समय समाज में प्रचलित एवं महत्वपूर्ण थी तो) की चर्चा नहीं की है| यह चर्चा इसलिए नहीं की, क्योंकि उस समय समाज में यह किसी भी रूप में प्रचलित नहीं थी| यह तो सामंतवाद की अनिवार्य आवश्यकताएं थी, जिसने जाति व्यवस्था को बनाया एवं उसे वंशानुगत भी बनाया| ऐसी सामाजिक व्यवस्था की निरंतरता ही ने वर्ण की अवधारणा को जन्म दिया, विकसित किया, संवर्धित किया, संरक्षित किया, समर्थन दिया एवं पुष्ट किया| यदि ऐसी सामाजिक व्यवस्था की निरंतरता के लिए इसे वंशानुगत नहीं बनाया जाता, तो यह वर्ण व्यवस्था ही विकसित नहीं होता और इस वर्ण व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं होती|

आप यह कह सकते हैं कि यह वर्ण व्यवस्था भारत में प्राचीन काल से है अर्थात हजारों वर्ष पुरानी है| मैं तो यह कह रहा हूँ कि यह एक हजार वर्ष भी पुरानी नहीं है, और यह सामन्तवाद के अनिवार्यताओं से उत्पन्न हुई| आप भी जानते हैं कि सामंतवाद एक विश्वव्यापी (उस समय के विश्व में एशिया, यूरोप एवं अफ्रीका के भूमध्यसागरीय क्षेत्र ही शामिल थे) घटना थी, जिसने इतिहास को प्राचीन काल से मध्य काल में विभाजित किया है| यदि आप सही है यानि वर्ण के पुरातनता के समर्थक हैं, तो अपने पक्ष में कोई ठोस पुरातात्विक एवं तर्कसंगत साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं| यदि आप साहित्यिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, तो आपको भी मालूम है कि यह कागजी कहानियां कागज के अविष्कार के होने और भारत में कागज के उपयोग में लाये जाने के बाद की ही संभव हो सकती है| आप कह सकते हैं कि यह ऐतिहासिक साहित्य मौखिक रूप में याद किए एवं स्मृति में रखे जाते रहें थे| तो लिखित क्यों नहीं थे, जबकि समकालीन भारतीय समाज लिखता भी था| यदि ये साहित्य की रचना करने के लिए उत्कृष्ट विद्वान रहे तो लिखने की सरल एवं सहज शैली क्यों नहीं अपना पाए? क्योंकि बीत गए समय को निरंतरता की कड़ी में सजाना था, ताकि इन साहित्यों को पुरातन, सनातन और ऐतिहासिक साबित करना था जिससे इनकी मान्यताओं पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया जा सके| यह सब कहानियाँ हैं, जिन्हें पौराणिक, प्राचीनतम, ऐतिहासिक बताने एवं निरंतरता बनाए रखने के लिए साहित्य रची या बनायीं गयी है। इससे आप भी अपने को गौरवशाली महसूस कर सकें। वैसे भारत के प्राचीनतम संस्कृति – बौद्धिक संस्कृति भी गौरव के लिए काफी है|

भारत में वर्ण का विभाजन स्पष्ट रूप में रंग के आधार पर नहीं बनाया गया, और इसीलिए वर्ण का नाम रंग आधारित नहीं होकर भिन्न नामावली में है| शास्त्रों एवं साहित्यों के अनुसार भारत में वर्ण का विभाजन चार की संख्या – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र में किया गया है| अमेरिका में सामाजिक व्यवस्था में वर्ण विभाजन श्वेत और अश्वेत में किया जाता है| अश्वेत में काले वर्ण एवं अन्य अ – श्वेत (Non – White) में आ जाते हैं, हालाँकि इसके समर्थन में कोई साहित्य या शास्त्र नहीं है| ऐसी ही सोच आज भी कुछ यूरोपियनों में गैर यूरोपियनों एवं गैर अमरीकी के प्रति भी है, जो सामंतवादी (Feudalism) एवं साम्राज्यवादी (Imperialism) मानसिकता के अवशेष का परिचायक है| इन समाजों में इसे अब सामाजिक आदर्श के रूप में कोई महत्त्व या समर्थन नहीं है| लेकिन भारत में यह व्यवस्था अर्थात यह सामंती व्यवस्था अपने आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरुप में यानि आवरण में आज भी मौजूद है| इसे भारत में आज भी सामाजिक मान्यता प्राप्त है और यह हमारे लिए गौरवशाली भी है| यही सामंती मानसिकता भारत के तीव्र विकास को बाधित किए हुए हैं|

भारत में इन वर्णों के निर्धारित क्रिया कलाप स्पष्ट रूप में वर्णित किए हुए हैं| ब्राह्मण देव या देवपुत्र माने जाते थे और इसीलिए सर्व ज्ञानी माने जाते रहे| यह शब्द प्राचीन भारत के पालि एवं प्राकृत के बम्हन या बाभन से बना है, जो प्राचीन भारत में ज्ञानी व्यक्ति के लिए पदनाम होता था और यह वंशानुगत नहीं था| इन्होंने अध्ययन एवं चिंतन का कार्य अपने जिम्मे रखा| यह ब्राह्मण शब्द पूर्व के बम्हन से मिलता जुलता शब्द सामंतवाद के समय में सबसे पहले आया और “र” का संयुक्ताक्षर के साथ बना| “र” का संयुक्ताक्षर पालि एवं प्राकृत में नहीं होता है| इसी पालि एवं प्राकृत को संस्कारित कर “संस्कृत” बनाया गया”| इस काल के पहले संस्कृत के अस्तित्व का कोई अधिकृत स्पष्ट पुरातात्विक ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है| क्षत्रिय शब्द क्षेत्रिय से बना, जो बड़े सामंतो के स्थानीय (क्षेत्रिय या क्षेत्रीय) राजस्व संग्रहणकर्ता तथा व्यवस्थापक थे| कालांतर में ब्राह्मण इनको राजा की उपाधि राजतिलक कर (तिलकोत्सव) करते थे, तब वे देवता के अंश से युक्त हो पाते थे| मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है| इन्हें वर्ण व्यवस्था में दूसरा  स्थान दिया गया| सामंतवाद में तीसरा स्थान वैश्य को दिया गया जो व्यापार (उत्पादन कर्ता नहीं) करते थे| इन्हें वणिक भी कहा गया और वणिको की संख्या नगण्य थी, परन्तु महत्वपूर्ण थी| ये वणिक व्यापार करते थे और इसीलिए सामंतों के प्रत्यक्ष नियंत्रण से बाहर ही थे, ये कही भी जा सकते थे, कहीं भी बस सकते थे| ये सामंतों को ऋण भी देते थे और हथियारों सहित अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति भी करते थे| ये उत्पादक अर्थात शिल्पी नहीं होते थे| अंतिम वर्ण शूद्रों की है जो अन्य उपरी तीन वर्णों की सेवा करते थे यानि व्यक्तिगत सेवा देते थे| इन शूद्रों को आप इन सामंतों के व्यक्तिगत सेवक मान सकते हैं, जिन्हें अब के वर्तमान व्यवस्था में खोजना संभव नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन शूद्रों की उपयोगिता वर्तमान काल में कतिपय कारणों से नहीं रह गयो थी। इन शुद्रो के कार्य की प्रकृति के गन्दगी से सम्बन्ध के आधार पर कुछेक शूद्रों को अछूत भी माना गया, हालांकि इनकी संख्या या नाम की कोई स्पष्ट एवं तार्किक संतोषप्रद व्याख्या नहीं मिलती है| संभवत: बाद में आवश्यकता के अनुसार शूद्रों की सूचि विस्तृत की जाती रही| समय के साथ साथ सामंतवादियों और इनके विरुद्ध आन्दोलनकारियों की आवश्यकता के अनुरूप शुद्रो की परिभाषा एवं अवधारणा को बदलता जाता रहा है| पर शूद्र व्यक्तिगत सेवक थे जिनका अस्तित्व अब नहीं है, परन्तु अब भी सामंती सोच वाले लोग इसी श्रेणी में अवर्णों और जनजातियों को शामिल करने को बेकरार हैं। इसे समझना होगा।

तो क्या भारतीय सामाजिक व्यवस्था में इन चार वर्णों के अतिरिक्त भी कोई अन्य वर्ण है? एक बार पटना के एक बुद्धिजीवी डॉ सुनील राय ने बताया, जिनकी शैक्षणिक योग्यता पशु चिकित्सक की है, कि पशुओं या गायों के ज्ञात एवं प्रचलित वर्गीकरण के अलावे एक अन्य अलग वर्ग होता | इसमें वैसा वर्ग आता है  जो किसी अन्य वर्गीकृत वर्ग में नहीं आता, उन्हें अन्य (Others) वर्ग कहा जाता है| ऐसा ही वर्गीकरण के कई सन्दर्भ हैं, जिसमे अन्य श्रेणी में बड़ी संख्या होने के बावजूद इसे वर्गीकरण के वर्ग से बाहर रखा गया है| भारतीय सामाजिक व्यवस्था में भी ऐसी ही व्यवस्था है, जिसमे एक बड़ा वर्ग अवर्गीकृत (अवर्ण) श्रेणी में छोड़ दिया गया है| इसमें वे लोग आते हैं जो ब्राह्मण नहीं हैं, जो क्षत्रिय नहीं है, जो वणिक नहीं हैं, और जो शुद्र भी नहीं हैं अर्थात किसी की भी व्यक्तिगत सेवा में नहीं थे| ऐसे लोग अवर्ण की श्रेणी में आते हैं|

इस अवर्ण श्रेणी में वे लोग है जो सामंती व्यवस्था की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण तो थे, परन्तु इनका अस्तित्व सामंतवाद के पहले भी था, सामंतवाद के समय में था, और सामंतवाद के बाद भी रहेगा| ये वर्ण सदैव महत्वपूर्ण रहें, क्योंकि ये ही उत्पादक होने के कारण आधार थे। इनकी भूमिका एवं सामाजिक प्रस्थिति में सामंतवादी ढांचा में कोई परिवर्तन नहीं आया और इसी कारण शास्त्र रचियताओं ने इनको वर्ण के लिए रेखांकित नहीं किया, अर्थात इस पर ध्यान ही नहीं दिया| ये अवर्ण के लोग उत्पादक थे और इसीलिए राज्य, समाज एवं अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण थे| समाज के विकास एवं रूपांतरण के लिए उत्पादन (Production), वितरण (Distribution) एवं विनिमय (Exchange) की शक्तियाँ एवं उनके अंतर सम्बन्ध (Forces and its interrelations) प्रभावित एवं निर्धारित करते हैं| सामंती काल में वितरण एवं विनिमय महत्वपूर्ण तथा सर्व व्यापक नहीं रह गया था| इस वितरण एवं विनिमय को वणिक वर्ग यानि वैश्य देखते थे| उत्पादक वर्ग खाद्य उत्पादक एवं अन्य श्रम उत्पादक थे| ये उत्पादक समूह या समाज अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण तो थे, परन्तु अपने प्रकृति एवं स्वरुप में अपरिवर्तित थे| ये उत्पादन में व्यस्त रहे और सत्ता से परम्परागत रूप में निरपेक्ष यानि तटस्थ रहते आये| प्राचीन काल में चूँकि जाति व्यवस्था नहीं थी, इसीलिए कोई भी व्यक्ति या परिवार अपनी आवश्यकता एवं सहुलिअत के अनुसार उत्पादक बनता था यानि उत्पादन के कार्यों में लगता था| भारत से सम्बंधित प्राचीन विदेशी साहित्य (इसलिए कि विदेशी साहित्य सामंतवादियों के द्वारा नष्ट होने एवं विकृत होने से बचे हुए थे) में पेशेगत समूह की चर्चा ही है, जातिगत समूह की चर्चा नहीं है|

सामान्यत: वर्तमान की मध्यवर्ती जातियां ही अवर्ण थे और वर्ण के वर्गीकरण से बाहर थे| ये उत्पादक समूह या समाज अनाज एवं सब्जियों का उत्पादन करते थे, दूध एवं दूध के विभिन्न उत्पादों को तैयार करते थे| ये अवर्ण तेलहन, दलहन, रेशा (पटुआ, एवं कपास), ईख, पेय (ताड़ी या नीर), तम्बाकू, फूल, फल, औषधि इत्यादि के उत्पादनकर्ता थे| इसी तरह मिठाई बनाने वाले, शराब बनाने वाले, तेल पेरने वाले, पान के उत्पादक, मिट्टी एवं धातु के बर्तन एवं अन्य वस्तुएं बनाने वाले, कृषि उपकरण एवं हथियार बनाने वाले अवर्ण उत्पादक थे| ये सभी समूह या समाज किसी व्यक्ति के सेवक नहीं थे, अपितु समाज एवं राज्य के सेवक थे| ये अवर्ण लोग उसी तरह के सेवा प्रदाता थे जैसे ब्राह्मण धार्मिक सेवा देकर, क्षत्रिय सुरक्षा की सेवा देकर, वैश्य व्यावसायिक सेवा देकर समाज एवं राज्य की सेवा करते थे| इस तरह व्यक्तिगत सेवाओं के सीमित दायरों के अतिरिक्त राज्य एवं समाज को सेवा देने का आधार विस्तृत था और इसमें काफी समूह शामिल थे| कई सेवाएँ तो सामयिक एवं बहुत छोटे अवधि की होती थी (जैसे बाजा बजाना, या नाचना) और मुख्य पेशा अन्य उत्पादन होता था; मानों उत्पादन ही प्रमुख रहा है जिसमे निरंतरता रहती थी| उत्पादन ही पूर्णकालिक व्यस्तता रहती थी| ये सभी वर्ग या सामाजिक समूह वर्ण व्यवस्था से बाहर के अवर्णीकृत वर्ण हैं यानि अवर्ण हैं जो न तो ब्राह्मण हैं, जो न तो क्षत्रिय हैं, न तो वैश्य हैं, और न ही शुद्र हैं|

यह अवधारणा आपको असमानतावादी व्यवस्था से सांस्कृतिक आधार पर अलग होने में सहायता करता है। इस तरह आप अपने सामाजिक समूह को सामंतवादी धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था से बाहर निकाल सकते हैं। मैंने एक सूत्र मात्र दिया है जिस पर काम करने की आवश्यकता है।

इन उत्पादक जातियों को सेवक की श्रेणी में लाने और शुद्र वर्ण में समाहित किए जाने का कतिपय विरोध किया जाने लगा है| यह दावा एवं प्रतिदावा कितना सही है या कितना गलत है; मुझे नहीं पता है| इसीलिए मैंने शुरु में ही आपको भी इस विमर्श में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है| मुझे यह भी नहीं पता है कि यह अवर्ण की अवधारणा कैसे वर्तमान सामंती ढांचा, जो आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक आवरण में छुपा हुआ है, ध्वस्त करने में सहायक होगा? अर्थात यह अवधारणा भारत के विकास में कैसे सहायक होगा, इस सम्बन्ध में मुझे कोई विचार नहीं आया है| पर यह है तो तर्क आधारित नयी धारणा जिसके लिए मैं डॉ सुनील राय का आभारी हूँ जिन्होंने इसका प्रथम संकेत दिया था| आप भी इस पर विचार करें और इसे यदि उपयोगी बनाया जा सकता है, तो इसे समाज एवं राष्ट्र हित में उपयोगी एवं सार्थक बनाएं|

सादर|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक, बौद्धिक उत्प्रेरक एवं चिन्तक|


शनिवार, 15 मई 2021

आज बुद्ध महत्वपूर्ण क्यों?

 

आज बुद्ध महत्वपूर्ण क्यों?


वस्तुत: यह विषय उन लोगों के लिए है जिनको

बुद्ध में विज्ञान, वैज्ञानिकता एवं सफल जीवन की समझ

खोजना है|

 

आज विज्ञान का युग है| विज्ञान का युग का एकमात्र अर्थ होता है कि हर बात तथ्य, तर्क, साक्ष्य एवं विश्लेषण पर आधारित हो; अन्यथा इसके किसी भी एक तत्व के अभाव में हर बात बकवास मानी जाती है| आज हर कोई हर बात में, हर विषय में, हर सन्दर्भ में, और हर प्रसंग में विज्ञान एवं वैज्ञानिकता खोजता है, तलाशता है, देखता है| दरअसल यह विषय (यह पुस्तक) उन्हीं लोगो के लिए है जिनको अपने जीवन में, समाज में, हर क्षेत्र में विज्ञान एवं वैज्ञानिकता की जरुरत है| यह पुस्तक बुद्ध की शिक्षाओं एवं दर्शन में विज्ञान एवं वैज्ञानिकता का अवलोकन कराता है, गंभीर वैज्ञानिक सिद्धांत को रेखांकित करता है| यह सब बुद्ध की शिक्षाओं में है|

 

आज हमें जीवन के हर क्षेत्र में वृद्धि (Grwoth) तो दिखती है परन्तु क्या हम उसे विकास (Development) या प्रगति (Progress) कह सकते हैं? जीवन में वृद्धि तो है परन्तु उतना ही अशांति, असंतोष, तनाव, परेशानी एवं अवसाद भी है| इन सबों के साथ कलह (आन्तरिक एवं बाह्य संघर्ष) व्यक्तिगत जीवन में, पारिवारिक जीवन में, सामूहिक जीवन में, सामाजिक जीवन में एवं वैश्विक जीवन में व्याप्त एवं गंभीर है| लोगो को जीवन की सार्थकता एवं मकसद की तलाश है| पर यह समझ भी सभी लोगों में अवचेतन (Sub Conscious) एवं अचेतन (Un Conscious) स्तर पर ही है, चेतन (Conscious) अवस्था में इसे समझने वाले तो नगण्य ही हैं| लोग अपने जीवन मूल्यों को समझना चाह रहे है और उसे स्थापित भी करना चाह रहे हैं, पर उन्हें यह समझ में नहीं आता है कि उन्हें क्या और कैसे करना चाहिए? ऐसे ही तलाश कर रहे भोले भाले लोगों को पाखंडी तथाकथित धर्म गुरुओं के झांसे में आना एवं बरबाद होना पड़ता है| ऐसी कहानियां विश्व में भरी पड़ी है और आप अपने आस पास भी आसानी से देख सकते हैं| ऐसी स्थिति में समाज के प्रबुद्ध जनों को बुद्ध से ही एकमात्र आशा है जो पाखंड, अंधविश्वास एवं ढोंग से मुक्त हो, और विज्ञान पर आधारित हो|

 

समाज में, और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय मूल्यों का पतन, मानवीय गरिमा का खुलेआम खण्डन, सामाजिक असामनता आदि को देख कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति व्यथित हो जाता है| जीवन में दुःख, अवसाद, अशांति, तनाव और कष्ट का समाधान नहीं दीखता है| लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि इन सबो का क्या निदान है? कैसे इन सबों पर आसानी से विजय यानि फतह पाया जा सकता है? बुद्ध ने उपाय तो बताया था, परन्तु वह भी आज एक परंपरागत धर्म के रूप में प्रस्तुत है| आज के लोग विज्ञान में समाधान चाहते हैं, तथाकथित पाखंडियों के द्वारा दिए गए समाधान से बचना चाहते है| कोई भी समाधान समझने में सरल हो, करने में सहज हो, जीवन में व्यावहारिक हो, और निश्चितया तर्क, साक्ष्य, विश्लेषण एवं विज्ञान से समर्थित हो| सामन्तवादियों ने जाने में या अनजाने में इनकी शिक्षाओं एवं दर्शन को ऐसे विरूपित कर दिया है कि आज यह भी अन्धविश्वास एवं पाखण्ड से अछूता नहीं रह गया है| इनकी शिक्षाओं को आज भी ऐसे प्रस्तुत किया जाता है, मानो यह बुद्ध की वैज्ञानिक एवं सामाजिक शिक्षा नहीं होकर बुद्ध द्वारा स्थापित कोई धार्मिक शिक्षा हो| इनकी शिक्षाओं को धर्म एवं बुद्ध को ईश्वर बना कर इसे अन्य धर्मों की श्रेणी में ला दिया है| समाज के प्रबुद्ध जानना चाहते हैं कि बुद्ध क्यों एक वैश्विक व्यक्ति बन सके? समाज के प्रत्येक समझदार व्यक्ति बुद्ध की वैज्ञानिक एवं सामाजिक शिक्षाओं को जानना चाहता है| मैनें इसी सम्बन्ध एक प्रयास किया है|

 

आज तथाकथित बुद्ध के अनुयायी इस प्रचार से बहुत खुश हो जाते हैं कि बौद्ध धर्म को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म मान लिया गया है; मैं नहीं जानता कि इस दावे में कितनी सच्चाई है? यदि यह दावा सही है अर्थात इसे विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म मान ही लिया गया है तो यह बौद्ध दर्शन एवं शिक्षा के विरुद्ध एक गहरा एवं गंभीर षड़यंत्र है| बुद्ध की शिक्षाएँ एवं दर्शन तो शुद्ध विज्ञान है, सफल सामाजिक जीवन का प्रबंधन तकनीक है, यह तो धम्म है, धर्म नहीं| किसी के द्वारा धम्म को धर्म के भावार्थ में अनुवाद कर और दोनों को एक दुसरे का पर्यायवाची बनाकर एक गहरा एवं खतरनाक बौद्धिक षड़यंत्र किया गया| बुद्ध की शिक्षाओं एवं दर्शन को सर्वश्रेष्ठ धर्म बता कर इसे पहले तथाकथित धर्म के श्रेणी में लाया गया है यानि इसे विज्ञान के सर्वोच्च स्तर से उतार कर धर्म के निम्न एवं काल्पनिक स्तर पर लाया गया| वही धर्म जिसे महान दार्शनिक एवं सामाजिक वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने अफीम से तुलना कर समाज के लिए घातक बताया था| एक बार जब इसे सर्वश्रेष्ठ धर्म बना दिया गया, मतलब यह भी विज्ञान के स्तर यानि श्रेणी में नहीं रहा और यह धर्म के श्रेणी में आ गया| अब यह वैसा ही धर्म हो गया जैसा अन्य अंधविश्वास, पाखण्ड एवं कर्मकांड से भरा दूसरा धर्म है| अब इसमें भी पुरोहितवाद अपने विशिष्ट तरीकों से प्रभाव फैलाने के लिए पाखंड स्थापित कर सकता है| ऐसे लोग को तो इस पर धर्म का ठप्पा लगने से खुश होना स्वाभाविक ही है|

 

कोई अपना धर्म नहीं बदलना चाहता, और बदलना भी नहीं चाहिए क्योंकि धर्म किसी की आस्था का विषय होता है| और इसीलिए किसी के आस्था एवं धार्मिक विश्वास में किसी भी प्रकार का कोई भी अतिक्रमण यानि हस्तक्षेप होना भी नहीं चाहिए| इसी कारण किसी दुसरे धर्मावलम्बी के धर्म को बदलने की कोशिश एक घृणात्मक कार्य या नीच कार्य कार्य की श्रेणी में माना जाता है| इसे धर्म की श्रेणी में लाने का एक दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि चूँकि यह भी एक धर्म ही है और इसीलिए इसे भी एक धर्म की ही तरह अपने व्यवहार एवं कर्तव्य नियंत्रित करने चाहिए एवं इस मर्यादा का उल्लंघन भी नहीं होना चाहिए| सभी धर्म वाले अपने – अपने धर्म को देखें और किसी भी दुसरे के धर्म में हस्तक्षेप नहीं करें अर्थात सभी मठाधीशों का धार्मिक साम्राज्य अखंड बना रहे| मैं फिर स्पष्ट करूँ कि यह धर्म है ही नहीं, और इसीलिए यह किसी धर्म में कोई हस्तक्षेप करता ही नहीं है| इसे अज्ञानी एवं नादान लोग ही धर्म का स्वरुप देते हैं और मानते हैं| हाँ, कुछ लोगों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवस्था इतनी दयनीय हों और वे धर्म के बिना जीवित नहीं रह सकते यानि कोई समाज कतिपय छोटे अवधि में बदल नहीं सकते और उनका बदलना बहुत से कारणों से जरुरी हो तो इसे धर्म के रूप में उपयोग कर समाज के कल्याण किए जाने के ऐतिहासिक उदाहरण भी प्रेरणादायक है| बुद्ध की शिक्षाओं को किसी भी अन्य धर्म से कोई आपत्ति भी नहीं है| वास्तव में जब बुद्ध का आगमन हुआ, उस समय ऐसा कोई तथाकथित दूसरा धर्म (वर्तमान स्वरुप में) अस्तित्व में था ही नहीं कि जिस पर यह किसी भी प्रकार कोई प्रतिक्रिया दे सकता|

 

यह स्वयं  (Self) का अवलोकन, स्वयं का नियंत्रण, स्वयं पर केन्द्रण

की निष्पक्ष, सरल, सहज, व्यक्तिगत, एवं वैज्ञानिक विधि बताते हैं

जिसे सभी को जानना चाहिए|

जब आपको स्वयं का अवलोकन करना आ गया तो आपकी लगभग सारी समस्याएं समाप्त हो गयी| तब आप स्वयं का प्रबंधन भी करते हैं|

सामाजिक एवं भावनात्मक बुद्धिमता (Social and Emotional Intelligence) के बिना

साधारण यानि संज्ञानात्मक बुद्धिमता (General or Cognitive Intelligence)

भी प्रभावोत्पादक नहीं माना जाता है|

आज सामाजिक बुद्धिमता को ही सफलता का सही विज्ञान बताया जा रहा है| बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग यही है|

आप अपने कोई भी वैचारिक उत्पाद,

चाहे उसका स्वरुप वस्तु हों, सेवा हो, संपत्ति हो, व्यक्ति हो,

स्थान हो, नीति हो, कार्यक्रम हो, विचार हो या आदर्श हो,

बिना मार्केटिंग समझ के आप इस संसार में स्थापित नहीं हो सकते|

बुद्ध का मार्केटिंग सिद्धांत विश्व का पहला विपणन सिद्धांत था और आज भी पूरा प्रासंगिक है, जिसे सभी सफल व्यक्ति या समाज जानना चाहेगा|

आप विज्ञान एवं वैज्ञानिकता समझे बिना इस विज्ञान के युग में ढंग से एक कदम भी नहीं चल सकते| बुद्ध विज्ञान एवं वैज्ञानिकता के मूल (Fundamental), मौलिक (Original), आधारभूत (Basic) एवं तर्कसंगत (Logical) अवधारणा समझाते हैं जिससे सभी की वैज्ञानिक समझ बढ़ जाती है|

 ये हर बात तर्क, विश्लेषण एवं शंका पर आधारित करते रहे ताकि विज्ञान का विकास एवं मानवता का कल्याण होता रहे|

बुद्ध अपने अध्यात्म में

आत्म (स्वयं) को अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) से जोड़ने एवं

उसकी शक्तियों को प्राप्त करने की समझ पैदा करते है|

यह बहुत ही विशिष्ट विषय है कि कैसे कोई व्यक्ति इन शक्तियों का प्रयोग कर महान एवं असंभव कार्य कर पाता है|

बुद्ध प्रकृति की क्रिया विधि (Mechanics of Nature) समझाते हैं|

इनकी इस सम्बन्ध में शिक्षाएँ आज क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत (आधुनिक भौतिकी) के अनुरूप है और सटीक भी है| इसीलिए इसे जादू, धर्म और विज्ञान से भी ऊपर का चौथा अवस्था बताया जाता है|

बुद्ध यह भी समझाते हैं कि समुचित न्याय (Proper Justice)

कैसे विकास एवं समृद्धि को सहारा एवं समर्थन देता है|

स्पष्ट है कि यह विज्ञान के कई प्रत्यक्ष जीवन उपयोगी लाभप्रद सिद्धांत एवं अवधारणा समझाता है जो हर सफल व्यक्ति या संस्थान का मूल आधार है, चाहे वह इसे किसी भी नाम से जाने या नहीं जाने| अब आप ही बताए कि यह सब जानना कैसे किसी धर्म में हस्तक्षेप है या किसी धर्म का हिस्सा है? क्या हम बीमार (चाहे वह मानसिक ही हो) होने पर उचित दवा नहीं लेते या समुचित व्यायाम नहीं करते? यह सत्य है कि इसे धर्म या आस्था या विश्वास से कोई लेना देना नहीं है, यह तो शुद्ध विज्ञान है| बुद्ध के शिक्षाएँ भी तो शुद्ध विज्ञान है|

 

सभी वर्तमान धर्मों (जिसमे तथाकथित बौद्ध धर्म भी शामिल है, यदि यह धर्म है तो) का तथाकथित स्वरुप मध्य काल में आया| मध्य काल, जो सामंतवाद के उदय के साथ अस्तित्व में आया, एक बड़े आर्थिक उथल- पुथल यानि बड़े आर्थिक परिवर्तन के साथ आया| उत्पादन की शक्तियों और उनके अंतर संबंधों में परिवर्तन से सामाजिक विकास एवं उसके रूपांतरण की प्रक्रिया प्रभावित एवं निर्धारित होती है| यह आधार इतिहास के सभी समयों एवं क्षेत्रो की सटीक व्याख्या करती है| यह इसी आधार पर बुद्ध के उदय, विकास, रूपांतरण  एवं तथाकथित अंत की व्याख्या कर देती है|

 

आइए, ऐसे महान बुद्ध की शिक्षाओं को जाने ताकि आधुनिक सन्दर्भ में इसका लाभ लिया जा सके|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक

(प्रकाश्य पुस्तक – “बुद्ध महान क्यों?” से)

 

मंगलवार, 11 मई 2021

संस्कृति को पुरातन एवं सनातन क्यों साबित करना होता है?

 

                      संस्कृति को पुरातन एवं सनातन क्यों साबित करना होता है?              

 

व्यवस्था अर्थात शासन

हर प्रचलित संस्कृति को

पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक, सर्वव्यापी एवं गौरवशाली

साबित करना चाहती है|

क्यों?

यह एक बहुत महत्वपूर्ण और विचारणीय विषय है| व्यवस्था को ही शासन कहना अनुचित नहीं होना चाहिए| व्यवस्था में हम, आप और सब कोई शामिल होते हैं, लेकिन शासन में विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका पर ही ध्यान जाता है| सामान्यत: शासन प्रचलित संस्कृति का ही उत्पाद होता है और इसीलिए दोनों का स्वार्थ एक ही होता है| दोनों ही एक दुसरे के अस्तित्व का संरक्षक होता है| एक संस्कृति को पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक एवं गौरवशाली क्यों होना होता है?

डॉ आम्बेडकर भी हर सकरात्मत्क एकं सृजनात्मक राजनितिक व्यवस्था के निर्माण की पूर्व शर्त सांस्कृतिक व्यवस्था में परिवर्तन के होने को स्थापित करते रहे हैं| यह सांस्कृतिक व्यवस्था के महत्त्व को रेखांकित करता है| मैं संस्कृति पर इतना जोर क्यों देता हूँ? संस्कृति क्या है? संस्कृति किसी जनसमूह या समुदाय की किसी खास समय पर उनके जीवन जीने का तरीका है और इसमें उस जनसमूह की सामान्य परम्परा एवं विश्वास समाहित है। किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं और किसी समाज में गहरार्इ तक व्याप्त गुणों की समग्रता है जो उस समाज के सोचने, विचारने, एवं कार्य करने से बना है। संस्कृति जीवन जीने की विधि है। संस्कृति मानव द्वारा उत्त्पन्न एक मानसिक पर्यावरण है। यह संस्कृति सामाजिक तंत्र चलाने वाला महत्वपूर्ण साफ्टवेयर है। इसका निर्माण उस समुदाय के इतिहास बोध (Perception of History) से होता है| संस्कृति का निवास उसके मानस में होता है। इसलिए संस्कृति को बदलने के लिए इतिहास को बदलना होता है| हम कह सकते हैं कि संस्कृति मानवीय समाजों में पाए जाने वाले सामाजिक व्यवहार और सामाजिक प्रतिमान है।

हम लेखक जार्ज ओरवेल को याद करते हैं| उनके शब्दों में-

“जो इतिहास को नियंत्रण में रखता है,

वह भविष्य को भी नियंत्रण में रखता है|”

उन्होंने यह भी बताया कि हर शासक वर्ग को शासितों के वर्ग पर शारीरिक एवं आर्थिक नियंत्रण के अतिरिक्त मानसिक तौर पर भी नियंत्रण करना पड़ता है| शासित वर्ग पर नियंत्रण करने के लिए उसके इतिहास बोध को बदलना होता है और इसे बदल कर ही संस्कृति को बदला जाता है| बदले संस्कृति का प्रभाव सदियों तक बना रहता है| संस्कृति को बदल देने से सब नियंत्रण स्वचालित हो जाता है| शासित वर्गों को यह धर्म एवं धार्मिक कर्तव्य लगता है| इसे बचाए रखना उनका धार्मिक उत्तरदायित्व हो जाता है| उसे बदलने के लिए पुराने इतिहास को नष्ट करना होता है| इसके लिए वह बुद्धिजीवियों का सहारा लेता है और तकनीकी समर्थन के साथ मीडिया को नियंत्रित भी करना होता है| सामाजिक वर्ग की व्याख्या देश एवं काल के अनुसार अलग अलग होता है, परंपरागत भारत में वर्ग का आधार वर्ण एवं जाति ही रहा है|

प्राचीन काल और मध्य काल का विश्वव्यापी विभाजन सामंतवाद का उदय होना माना जाता है|

इसने एक कल्पित वास्तविकता (Imaginary Realty)

“मुद्रा” (Currency) को नष्ट कर दिया|

इसी ने पुरानी सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था को बदल डाला| या यों कहे कि इससे पुरानी व्यवस्था का, पुरानी संस्कृति के नए स्वरुप में रूपांतरण (Transformation) या विरूपण (Distortion) हो गया| इसी काल में धर्म के तथाकथित वर्तमान स्वरुप (वर्तमान भावार्थ) की उत्पत्ति हुई| इसी समय यूरोप के रीजन में यूरोप में पहले से स्थापित समाज सुधारक के वचनों, व्यवहारों, रीति- रिवाजों की पुनर्व्याख्या कर सामंतवाद के अनुरूप नया धर्म का स्वरुप दिया गया जो रिलिजन (ईसाई) के नाम से स्थापित हो गया| इसी तरह अरब के मजलिश में स्थापित समाज सुधारक के वचनों, व्यवहारों, रीति- रिवाजों की पुनर्व्याख्या कर सामंतवाद के अनुरूप नया धर्म का स्वरुप दिया गे जो मजहब (इस्लाम) के नाम से स्थापित हो गया| इन सम्प्रदायों के प्रणेता एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक सुधारक के रूप में स्थापित हुए और सामंत काल में इसे एक अलग सम्प्रदाय का रूप दिया गया| उसी समय भारत में सामंतवाद के अनुरूप एक नया सम्प्रदाय चाहिए था जो सामंतवाद का समर्थन करता हो| इसके लिए पालि के धम्म का संस्कृत एवं हिन्दी में अनुवाद “धर्म” के रूप में किया गया| इसे हिंदुस्तान का धर्म बताया गया| भारत में इसके पहले समृद्ध एवं विकसित बौद्धिक संस्कृति थी जो बुद्धि की संस्कृति थी|

ऐसे सामंतवाद समर्थित नव संस्कृति को पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक एवं गौरवशाली साबित करने की बाध्यता होती है| कोई संस्कृति पुरातन है का अर्थ है जो सबसे पुराना है यानि आदि काल में स्थापित इतिहास या संस्कृति है | कोई संस्कृति सनातन है का अर्थ है जो प्राचीन काल में स्थापित हुआ एवं आज तक अपनी निरंतरता बनाए हुए है, अर्थात आज तक निरंतरता बाधित नहीं हुई है| कोई संस्कृति ऐतिहासिक है का अर्थ है जो इतिहास के पन्नों में दर्ज है| अर्थात जो ठोस तथ्य, साक्ष्य, तर्क एवं विज्ञान पर आधारित है| कोई संस्कृति जब पुरातन हो, सनातन हो, सर्व व्यापी हो और ऐतिहासिक हो तो वह सबके लिए निश्चितया गौरवशाली होगा ही| गौरवशाली होना इतने सन्दर्भ में निहित है| जब आप किसी को गौरवशाली स्थापित कर देते हैं तो इसके कई निहितार्थ स्वत: कार्यरत हो जाते है, आपको बहुत नहीं सोचना है, आपको बहुत प्रयास नहीं करना है| यह स्वतस्फूर्त होता रहेगा| इसी कारण इसे गौरवशाली स्थापित करना जरुरी हो जाता है| अब आप समझ गए होंगे कि किसी संस्कृति को क्यों पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक एवं गौरवशाली होना होता है?

इसके लिए पहले से स्थापित पुरातन संस्कृति को नष्ट होना पड़ता है या करना पड़ता है| इसके लिए कई शिक्षण संस्थानों, शोध शालाओं एवं पुस्तकालयों को नष्ट होना पड़ा| पुरे भारत में शिक्षण संस्थान एवं पुस्तकालय नष्ट हुए| बिहार में पालि (एक रेलवे स्टेशन जो पटना और आरा के बीच है) एवं पालीगंज (पटना जिला का एक अनुमंडल मुख्यालय) इन्ही के अवशेष को याद दिलाते हैं| संस्कृति को सनातन बनाने के लिए इतिहास को सभ्यता के शुरुआत तक ले जाना सबसे उत्तम विचार एवं उपाय है| भारत में इसके इतिहास को पशुचारी अवस्था (पूर्व वैदिक काल) तक खिंचा गया और सबसे पुरातन भी बताया गया| सन 1921 में यदि सिन्धु घाटी सभ्यता का उदघाटन नहीं होता तो यह पशुचारी अवस्था की कहानी की सटीकता पर कोई प्रश्न नहीं उठता| इस नव स्थापित संस्कृति की ऐतिहासिकता को स्थापित करने के लिए कई साहित्य रचे गए| तथाकथित सबसे पुरातन साहित्य के बारे में बताया गया कि उनलोगों को पढ़ना एवं समझना तो आता था लेकिन उन्हें लिखना नहीं आता था| ऐसे कोई ग्रन्थ ग्यारहवीं शताब्दी से पहले के नहीं हैं| मुझे अपने बचपन का याद है, जब इतिहास में महाकाव्य युग का वर्णन होता था परन्तु इसे अब इतिहास के पन्नों से हटा दिया गया| विश्व जनमत को ऐतिहासिक साक्ष्य चाहिए था जो नहीं था; और इसीलिए उसे इतिहास के पन्नो से हटाना पड़ा| अब महाकाव्य काल का वर्णन इतिहास के रूप में नहीं, अब सिर्फ आस्था के विषय के रूप में रह गया है| भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष प्रो राम शरण शर्मा ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक – “भारत का प्राचीन इतिहास” में स्पष्टतया यह रेखांकित करते है कि वैदिक काल एवं साहित्य का कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है| इसलिए यह स्पष्ट है कि जिस संस्कृति को भारत में पुरातन, सनातन एवं ऐतिहासिक बताया जा रहा है, उसके सभी साक्ष्य सिर्फ साहित्यिक है औए इनका कोई पुरातात्विक साक्ष्य ग्यारहवी शताब्दी के पहले का नहीं है| यह सुस्थापित है|

इस वर्तमान संस्कृति के पहले भारत में बौद्धिक संस्कृति थी जिसका उदय, विकास एवं समृद्धि भारत में ही हुआ| इसके समर्थन में पाषाण काल, मेहरगढ़ एवं सिन्धु सभ्यता और उसकी निरंतरता का पुरातात्विक साक्ष्य पुरे भारत में विखरे पड़े हैं| सामन्त काल में इसी बौद्धिक संस्कृति का विरूपण हुआ और वर्तमान स्वरुप में आया| यह आज भी भारत में अपनी पुरातनता, सनातनता एवं ऐतिहासिकता का खोखला दावा कर रहा है| यही संस्कृति आज भारत को विश्व के सबसे बड़े मानव संसाधन के देश होने के बावजूद विकास के पथ पर आगे बढ़ने नहीं दे रहा| इसका विशेष एवं सबसे प्रमुख तत्व – जाति व्यवस्था है जो प्रतिभा को वंशानुगत मानता है| यह व्यक्तित्व विकास और कौशल विकास को हतोत्साहित करता है| इसे किसी अर्जित योग्यता से बदला नहीं जा सकता|

वर्त्तमान संस्कृति को ही गौरवशाली बताने का पुन: प्रयास किया जा रहा है जो मध्यकाल में उत्पन्न हुआ और बाद के काल में विकसित हुआ| आप इसके पुरातनता, सनातनता और ऐतिहासिकता के पुरातात्विक साक्ष्य खोजेंगे तो सामन्तवाद के काल के पहले का कोई भी पुरातात्विक साक्ष्य या तार्किक कुछ भी नहीं मिलेगा| जब आप सामाजिक विकास एवं रूपांतरण (इतिहास) की व्याख्या उत्पादन की शक्तियों एवं उनके आपसी अंतरसंबंधों के आधार पर करेंगे तो परत डर परत सभी खुलते एवं स्पष्ट होते जायेंगे| गौरवशाली भारत के पुनरोद्धार इसी अवधारणा में है, इसी तथ्य में है, इसी इतिहास में है|  यही सत्य है, यही साक्ष्य समर्थित है, यही तर्कसंगत है, यही विश्लेषण पर आधारित है, और विज्ञान समर्थित है|

आपको और हमको सिर्फ इतिहास एवं संस्कृति को देखने के लिए

सन्दर्भ बदलना होगा, दृष्टिकोण बदलना होगा, नजरिया बदलना होगा,

अभिवृति बदलना होगा एवं पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) करना होगा|

सब कुछ स्वत: स्पष्ट हो जायेगा| एक बार प्रयास तो कीजिये| भारत बदल जायेगा| भारत एक बार फिर से नम्बर एक हो जायेगा|

मैं तो आशान्वित हूँ|

और आप?

   

निरंजन सिन्हा|

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक|

   

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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