शनिवार, 29 अगस्त 2020

बुद्ध से सम्बन्धित भ्रांतियाँ (Fallacy related to Buddha)

 

 

बुद्ध से सम्बन्धित भ्रांतियाँ

(Fallacy related to Buddha)

बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित कई भ्रांतियां हैं जिसके बारे में एक संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है जो निम्न है ......

ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आन्दोलन ?

अधिकतर इतिहासकार बुद्ध के उदय को ही ब्राह्मणवाद के विरुद्ध और ब्राह्मणवाद के कारण ही मानते हैं| अब नए शोधों से यह स्थापित हो गया है कि उस समय ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद नहीं था क्योंकि उसकी उत्पत्ति ही नहीं हुई थी| कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने इस संदर्भित काल में ब्राह्मणवाद के समर्थन में पुरातात्विक साक्ष्यों के अभाव को जबरदस्त ढंग से रेखांकित किया है| वास्तव में ब्राह्मणवाद की उत्पति ही नौवीं शताब्दी के बाद सामंतवाद के कारण हुई है| ब्राह्मणवाद को ऐतिहासिक और पुरातन  बताना धार्मिक सामंतवाद की नितांत आवश्यकता थी| बौद्ध दर्शन समानता के समर्थक होने के कारण धार्मिक सामंतवाद का विरोधी दर्शन है| धार्मिक सामंतवादियों की यह अनिवार्यता थी कि ब्राह्मणवाद को सभ्यता के उदय के साथ या उससे पहले से ही उत्पन्न बताया जाय ताकि इसे गौरवपूर्ण बताया जा सके| इसीलिए इसे पशुचारण अवस्था तक ले जाया गया क्योंकि पशुचारियों की कोई स्थापित सभ्यता नहीं होती है| इससे पहले का बताया जाना ज्यादा तार्किक नहीं लगता बल्कि हास्यास्पद लगता और इसीलिए इस सामंती इतिहासकारों ने इसको पशुचारण काल तक ही रखा| यह सिद्धांत सिन्धु घाटी सभ्यता के आकस्मिक खोज के पहले तक ठीक चल रहा था पर इसने ब्राह्मणवादी इतिहास के स्थापित सुव्यस्थित  क्रम को बिगाड़ दिया| ,

दरअसल बुद्ध की महानता जीवन और सफलता के कई क्षेत्रों में नए वैज्ञानिक अवधारणाओं और सिद्धांतों की प्रस्तुति रही| उन्होंने नव उदित नागरीय समाजों के लिए और नव उदित राजनीतिक संस्था - राज्य के सम्यक विकास एवं संचालन  के लिए एक समुचित दर्शन तैयार किया| इसे तत्कालीन दुनिया में सराहा गया और आज भी कई देशों के संविधान के मूल में उपस्थित हैं|

इन्होंने संज्ञानात्मक क्रान्ति का प्रथम सैद्धान्तिकरण किया|

इन्हें सामाजिक बुद्धिमता और भावनात्मक बुद्धिमता का भी प्रथम सूत्रधार कहा जाना चाहिए|

इन्होंने विचारों अर्थात आईडिया का ऐसा विश्वव्यापी प्रसार कियाअर्थात ऐसा विश्वव्यापी सफल मार्केटिंग किया; जिसके पहले ऐसा करने का कोई उदाहरण ज्ञात इतिहास में नहीं है| इस रूप  में इन्हें मार्केटिंग प्रबंधन के प्रथम प्रवर्तक कहा जाना चाहिए|

इन्होंने जीवन में कष्ट के अनुभूति नहीं होने के लिए भी आष्टांगिक मार्ग सहित कई सूत्र दिए|

मन (स्व, आत्म - Self) को नियंत्रित करना,

 आत्म- अवलोकन, आत्म- निरिक्षण, आत्म- केन्द्रण की प्रविधि- विपश्यना का आविष्कार किया|

 इन्होंने ईश्वर के अस्तित्व, और आत्मा एवं पुनर्जन्म को अस्वीकार किया|

इन्होंने कार्य- कारण संबंधों का प्रतिपादन किया जो विज्ञान का आधार बना|

ऐसी अनेक अद्वितीय उपलब्धियों को गौण करने के लिए ही यथास्थितिवादी धार्मिक सामंत यह प्रचारित करते रहते हैं कि बौद्ध दर्शन का उदय ही ब्राह्मणवाद के विरुद्ध रहा और उनका दायरा भी वही तक सीमित करने का प्रयास भी किया|  यह एक गहरी साजिश है जिसे बुद्धिजीवी एवं युवा वर्ग समझने की कोशिश करें|

आप यह स्पष्ट कर ले कि बौद्ध दर्शन का ब्राह्मणवाद से कोई लेना- देना नहीं है| ब्राह्मणवाद सामंतवाद का धार्मिक स्वरुप है| यह अलग बात है कि ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मवाद, बलि (नर एवं पशु), जादू, भाग्य आदि अपने आद्य अवधारणाओं एवं आद्य स्वरूपों में प्रयोग एवं उपयोग में थे| यह आद्य काल से ही चला आ रहा था और बुद्ध के समय में भी समाज में प्रचलित रहे थे| आपको वैज्ञानिक तथ्यों पर अर्थात साक्ष्यों एवं तार्किकता के आधार स्वयं मनन एवं मंथन करना होगा|  बौद्ध दर्शन उन क्षेत्रों में भी फैला, जहाँ ब्राह्मणवाद नहीं था जैसे चीन, जापान, कोरिया आदि| यदि ब्राह्मणवाद बौद्ध दर्शन की उत्पत्ति का प्रमुख कारण होता तो इन क्षेत्रों में बौद्ध दर्शन को पल्लवित होने की आवश्यकता नहीं होती|

 

वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध आन्दोलन ?

बुद्ध को वैदिक कर्मकांडों एवं ब्राह्मणवाद के विरुद्ध बताया गया है| मैंने वैदिक काल एवं ब्राहमणवाद को अलग अलग दिखाया और बताया है| प्रो० आर्थर लेवेलिन (ए० एल०) बाशम (Arthur Llewellyn Basham) ने  “अद्भुत भारत” (The Wonder that was India) में वैदिक धर्म एवं ब्राह्मण धर्म को अलग अलग स्थान दिया है| इनके प्रमुख भारतीय शिष्य प्रो० रामशरण शर्मा ने अपने बाद के कालों में वैदिक काल को  ऐतिहासिक  साक्ष्यों के अभाव में वैदिक काल के ऐतिहासिक अस्तित्व पर ही प्रश्न कर दिया है (देखिए- ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस का इनके द्वारा रचित पुस्तक- “भारत का प्राचीन इतिहास”)|

वैदिक (उत्तर वैदिक काल) कर्मकांड का एक प्रमुख तथ्य “हवन कुंड” वर्णित है| उस वर्णित काल के इतिहास काल में ऐसा कोई पुरातात्विक साक्ष्य इतिहासकारों और पुरातत्ववेताओं को नहीं मिला है| वैदिक काल का इतिहास एक ऐसा इतिहास है जिसका कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है, सिवाय कागजी प्रस्तुति के| ध्यान रहे कि कागजों का साक्ष्य भी कागजों के आविष्कार के बाद के कालों का ही हो सकता है| इसका कोई साक्ष्य समकालीन अभिलेख, किसी धातु- पत्र, या समकालीन विदेशी सन्दर्भों में नहीं है| बुद्ध के द्वारा वैदिक कर्मकांडों के विरोध को मात्र इसलिए दिखाया एवं बताया जाता है ताकि वैदिक कर्मकांडों की प्राचीनता और पौराणिकता को सही साबित किया जा सके जिसका भेद अब खुलता जा रहा है| इसी कारण धार्मिक एवं राजनीतिक सामंतवादियों ने भारत के बौद्ध दर्शन के साहित्य, पुस्तकालय, एवं शिक्षण संस्थानों को नष्ट कर दिया ताकि इन साहित्यों को नए ढंग से सम्पादित और रचना किया जा सके|

यह सही माना जा सकता है कि उन्होंने समाज की कई बुराइयों को समाप्त करना चाहा,परन्तु उनका दर्शन  व्यापक था| उनका ध्यान मात्र वैदिक एवं ब्राह्मणवाद की बुराइयों तक सीमित बताया जाना, वास्तव में उनके विरुद्ध और उनकी बौद्धिकता के विरुद्ध एक गहरी साजिश है| जो वास्तविकताएं उनके समय या उनके निकट समय में थी ही नहीं, उसका विरोध करने का तर्क ही अवैज्ञानिक है|     

 

वृद्ध और शव देखने के बाद विरक्ति ?

प्रवज्या के कारण के सम्बन्ध में डा० आम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “बुद्ध और उनका धम्म” के परिचयात्मक भाग में लिखा है कि बुद्ध को जिस स्वरुप में और जिस चरित्र में पेश किया जा रहा है, उसमे कितनी विसंगति है? इन समस्याओं पर चर्चा इसलिए किया गया है ताकि एक स्वस्थ्य विमर्श हो सके? उनके अनुसार पहली समस्या भगवान बुद्ध के जीवन की प्रधान घटना प्रव्रज्या के सम्बन्ध में है| बुद्ध ने प्रव्रज्या क्यों ग्रहण की? परम्परागत उत्तर है कि उन्होंने प्रव्रज्या इसलिए ग्रहण की, क्योंकि उन्होंने एक वृद्ध पुरुष, एक रोगी व्यक्ति, तथा एक शव को अन्तेयष्टि के लिए ले जाते देखा था| स्पष्ट ही यह उत्तर गले के नीचे उतरने वाला नहीं लगता| जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी, उस समय उनकी उम्र 29 वर्ष की थी| एक छोटे गणतंत्र का 29 वर्षीय राजकुमार जो ग्रामीण आबादी में रहता है और उस उम्र तक कभी किसी बुढा को नहीं देखा हो, कभी किसी बीमार को नहीं देखा हो, कभी किसी शव को नहीं देखा हो; अतार्किक और अकल्पनीय प्रतीत होता है| जीवन परिवर्तन की घटनाओं को इन अतार्किक बातों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए और मुझे डा० आम्बेडकर की विचारों से सहमति है|   

दरअसल यह प्रव्रज्या उनके उच्चतर शिक्षण का महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य आवश्यकता एवं हिस्सा था| यदि यह मात्र जीवन से विरक्ति का परिणाम होता तो बुद्ध अध्ययन और शिक्षण केन्द्रों की ओर नहीं जाकर दूरस्थ दक्षिण के या निकटवर्ती उत्तर के हिमालयी वनों में भी जा सकते थे| उन्होंने राजगीर और वैशाली जाना पसंद किया क्योंकि तत्कालीन ज्ञात दुनिया और भारत के लगभग सभी प्रसिद्ध शिक्षण और अध्ययन संस्थान राजगीर और वैशाली में और उसके आस- पास ही मौजूद थे| उन्हें दुखों का निवारण मात्र का उपाय नहीं खोजना था अपितु उन्हें नव उदित नागरीय समाजो और नव उदित राजनीतिक संस्थान  - राज्यों का उदय होने के परिणामस्वरूप उनके सम्यक विकास के लिए एक सम्यक दर्शन को परिष्कृत करना था जिसको पाने के लिए तत्कालीन दुनिया के कई विद्वान् और दार्शनिक लगे हुए थे|  

 

चुपके से गृह त्याग ?

गोतम बुद्ध के चारित्रिक हनन एवं व्यक्तित्व धूमिल करने के प्रयास में इनके विरोधियों ने इस कहानी को गढ़ा| डा० आम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “बुद्ध और उनका धम्म” में इस पर सम्यक प्रकाश डाला है| शाक्य गणतंत्र और इनके पड़ोसी गणतंत्र के मध्य बहने वाली रोहिणी नदी के जल- उपयोग के बंटवारे से सम्बन्धित विवाद के गहरा हो गया था| इसके कारण उत्पन्न राजनीतिक संकट और कोशल नरेश के कतिपय शासनात्मक शर्तों के अधीन इन्हें सर्व सम्मति से राज्य से बाहर निकलने का निर्णय करना पड़ा| व्यस्क राजकुमार होने के नाते इन्हें अपने नानी के और ससुराल के परिवार के विरुद्ध युद्ध का नेतृत्व करना था क्योंकि गणतंत्र के संघ का यही निर्णय था और यह निर्णय भी बाध्यकारी था|

मेरा स्पष्ट मानना है कि उस समय के प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षणोंपरांत इन्हें उच्चतर शिक्षण की आवश्यकता रही, रोहिणी नदी के जल विवाद ने समाज एवं राज्यों के सम्यक संचालन के लिए नए समुचित दर्शन की आवश्यकता और उसकी खोज, कोसल राज्य का अधिनायकात्मक शर्त और उनके गणतंत्र के सामान्य हितों के दृष्टिकोण से इन्हें राज्य से निकलने का निर्णय लेना पड़ा| मेरे कहने का अर्थ यह है कि इनकी उच्चतर शैक्षणिक आवश्यकता सबसे प्रमुख थी| ये अपने प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के उपरान्त उच्चतर शिक्षा पर विचार कर ही रहे थे| यह आकस्मिक संयोग ही था कि इसी मनन- मंथन के क्रम में ये घटनाएँ भी हो चली| यदि ये उच्चतर शिक्षण पर विचार नहीं कर रहे होते और चुपके से रात्रि में भागते तो बिना कही भटके ही उच्चतर शिक्षा के केन्द्रों में नहीं पहुँच पाते|  यही तर्क एवं स्थिति यह स्पष्ट करता है कि इन्होंने चुपके से और रात्रि में भागे नहीं थे, अपितु सम्यक विचारों उपरान्त सबके सहमति  एवं आज्ञा लेकर ही पूर्व निर्धारित शिक्षा के निश्चित स्थान के लिए प्रस्थान किया था|  

 

चार आर्य सत्य मूल आविष्कार है ?

अधिकांश विद्वान और बौद्ध मतावलम्बी मानते हैं कि चार आर्य सत्य का सिद्धांत ही बुद्ध का मूल और सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है| ऐसा मानना अधिकतर वैसे विद्वानों का है जो सिर्फ परम्परागत  लिखित साक्ष्यों तक अपने को सीमित रखते हैं और उनमे कोई विश्लेषणात्मक एवं तार्किक दक्षता का नहीं होना प्रतीत होता है| उन्हें इस बात तथा तथ्य का भान ही नहीं है कि जिस उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों का अवलोकन वे कर रहे हैं, वे सामंतवादियों के द्वारा नष्ट और जला देने के बाद सामंतवादी शक्तियों की आवश्यकताओं के अनुरूप पुन: रचित एवं उपलब्ध साहित्य के आधार पर मात्र है|

सामंतवादियों ने वैसे अंशों और साक्ष्यों को प्रमुखता देने से मना कर दिया जो उनके सामंतवादी दर्शनों और आवश्यकताओ के विपरीत एवं विरुद्ध थे जैसे ईश्वर नहीं है, आत्मा एक साजिश का परिणाम है, पुनर्जन्म यथास्थितिवाद को बनाए रखने के लिए एक आवश्यक अवधारणा है, हर घटना का कोई निश्चित कारण अवश्य है, कर्म का सिद्धांत का अगले जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है, आदि आदि| ये सिद्धांत सामंतवादियो के मूल एवं मौलिक अवधारणाओ के लिए “पोटैसियम साईनामाईड” की तरह मारक (Fatal) जहर है और इसी कारण यह सामंतवादी मानसिकताओं की उपेक्षाओं की शिकार हुई|

डा० भीमराव आम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “बुद्ध और उनका धम्म” के परिचय में प्रश्न किया है कि दुःख एक आर्य सत्य है तो क्या ये चारों सत्य भगवान बुद्ध की मूल शिक्षाओं में समाविष्ट होते हैं? जीवन स्वभावत: दुःख है, यह सिद्धांत जैसे बुद्ध- धम्म की जड़ पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है| यदि जीवन ही दुःख है, मरण भी दुःख है, पुनरुत्पत्ति भी दुःख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है| न धर्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही| यदि दुःख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धर्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुःख से मुक्ति दिलाने के लिए क्या कर सकता है, क्योंकि जन्म ही स्वभावत: दुखमय है| यह चारों आर्य सत्य – जिनमे प्रथम दुःख ही आर्य- सत्य है- अबौद्धो द्वारा बौद्ध धम्म ग्रहण किए जाने के मार्ग में बड़ी बाधा है| ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते| ऐसा लगता है कि ये सत्य मानव को निराशावाद के गढ़े में धकेल देते हैं| ये ‘सत्य’ बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धम्म के रूप में उपस्थित करते हैं| ये शिक्षाएं बुद्ध के मूल सिद्धांत नहीं हैं या ये बाद के भिक्षुओं द्वारा किया गया प्रशिप्तांश है? उपरोक्त विचार डा० आम्बेडकर के हैं और मैं भी उनसे सहमत हूँ|      

 

धर्म (बौद्ध) की स्थापना ?

कहा जाता है कि गोतम बुद्ध ने  बौद्ध धर्म की स्थापना की थी| वास्तव में धर्म की अवधारणा ही मध्य काल की अवधारणा है| यह अलग बात है कि सामंतकाल में बुद्ध के धम्म को धर्म का पर्यायवाची बना दिया गया| कोई भी धर्म ईश्वर की स्थापित अवधारणा के साथ होता है और बुद्ध की शिक्षाओं में ईश्वर या उनके प्रतिनिधि को कोई स्थान ही नहीं दिया गया|

मध्य काल के पहले जिन दर्शनों की स्थापना हुई है, उनके संस्थापकों ने कोई  धर्म की स्थापना नहीं की; अपितु उस अव्यवस्थित समाज को उनके सांस्कृतिक, शैक्षणिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं राजनीतिक आवश्यकतानुसार एक सम्यक दृष्टिकोण और दर्शन देने का सफल प्रयास किया| ईसा मसीह और मोहम्मद पैगम्बर साहब भी इसी श्रेणी में आते हैं| ईसा मसीह ने प्रत्येक रीजन (Region) में उत्पन्न क्रिया – विधियों को रिलिजन (Religion) कहा तो मोहम्मद पैगम्बर साहब ने प्रत्येक मजलिश की क्रिया- विधियों को मजहब कहा|  इसी तरह गोतम बुद्ध ने भी उस समय के आवश्यकतानुसार समाज और राज्य के लिए एक सम्यक दर्शन – धम्म  दिया जिसे जीवन का दर्शन कहा जाना चाहिए| सामंत काल में सामंती आवश्यकताओं के अनुरूप इन्हें धार्मिक स्वरुप देते हुए संप्रदाय (समूह के विश्वास एवं मान्यता) को धर्म का नाम दिया गया| बाद के अनुगामियों ने अपने निजी स्वार्थों के कारण इन सम्यक दर्शनों को सामंत काल में समकालीन व्याख्या के नाम पर उसे धर्म का रूप दे दिया और उन संवाद वाहकों को ही ईश्वर या समतुल्य बना दिया गया|

धर्म का वर्तमान स्वरुप की उत्पत्ति ही सामंत काल की अनिवार्यता रही| सामंत काल में पहले स्थापित आध्यात्मिक एवं धार्मिक तंत्र को ही विरूपित कर उसे सामंतवाद की व्यवस्था के अनुरूप ढाल दिया गया|

धर्म की आवश्यकता उनको होती है

जिनका शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक स्तर विश्लेषणात्मक, विवेचनात्मक एवं तर्कपूर्ण नहीं होती|

 

ऐसा व्यक्ति प्राकृतिक शक्तियों और उनके व्यक्ति स्वरुप

यानि व्यक्तिकरण (Personification) के अंतर को नहीं समझ पाता है,

दोनों को ही एक दुसरे का पर्यायवाची समझ लेता है|

 ऐसे कम विश्लेषणात्मक क्षमता के लोगों को धम्म और धर्म का अंतर संक्षेप में नहीं समझाया जा सकता है| उनके लिए आगे के खण्डों में समझाने का प्रयास किया गया है|

धर्म किसी के जीवन का निजी मामला है

और इसमे बदलाव का बाहरी प्रयास भी नहीं होना चाहिए|

 

लेकिन एक सफल जीवन के लिए  

वैज्ञानिक एवं तार्किक दर्शन एवं शिक्षाओं को समझने को धार्मिक नहीं माना जाना चाहिए |

जैसे एक बीमार व्यक्ति को दवा की आवश्यकता होती है और एक अज्ञानी को शिक्षा की आवश्यकता होती है, वैसे ही एक व्यक्ति को जीवन में सुख, शान्ति, सफलता और समृद्धि के लिए इस दर्शन की आवश्यकता  होती है, चाहे उसका नाम जो दिया जाए|

 

क्या बुद्ध महात्मा थे?

बुद्ध को अक्सर लोग महात्मा बुद्ध कहते हैं| क्या यह कहना गलत है तो क्यों? महात्मा का अर्थ होता है- महान आत्मा| जब बुद्ध ने आत्मा के अवधारणा को एक साजिश का परिणाम बताया और इसे विकास का विरोधी अवधारणा बताया हो तो ऐसे व्यक्तित्व को महान आत्मा अर्थात महात्मा कहना अपनी अज्ञानता का परिचय देना होगा| जब आत्मा नहीं है तो महात्मा (महान +आत्मा)  एवं परमात्मा (परम + आत्मा ) भी नहीं होगा| परमात्मा परम आत्मा अर्थात सर्वोच्च आत्मा है जिसे ईश्वर भी कहा जाता है| इसी तरह ब्रह्मात्मा (ब्रह्म + आत्मा) एवं देवात्मा (देव + आत्मा) भी नहीं होगा| ब्रह्मात्मा में आत्मा का ब्रह्म से मिलन या आत्मा का ब्रह्म में विलीनीकरण होता है| ब्रह्म को ब्रह्माण्ड के अर्थ में लिया जाता है| देवात्मा का अर्थ देव अर्थात देवताओं का आत्मा से है| देवात्मा का उपयोग सामंत काल में राजाओं में दैवीय शक्ति के पुनर्स्थापन करने में होता रहा| देवात्मा की अवधारणा के द्वारा देवताओं की शक्ति को कहीं भी नियोजित या स्थापित किया जाता था या है| देवात्मा की अवधारणाओं से पुरोहित भी देवता स्वरुप या देवता बनते थे| स्पष्ट है कि बुद्ध को अज्ञानी लोग ही महात्मा कहते हैं या सजिशतन महात्मा कहा जाता है| कृपया आप तो सावधान रहें| आप उन्हें गौतम बुद्ध, सिद्धार्थ गौतम, तथागत बुद्ध या गोतम कह सकते हैं|

 

क्या बुद्ध भगवान है?

सामान्यत: भगवान का अर्थ ईश्वर (God) से लिया जाता है जिसको सामान्य अर्थ में यह माना जाता है कि  इस संसार के रचियता वह ईश्वर है और इसी के ईच्छा से संसार का संचालन होता है| यह प्राकृतिक शक्तियों से अलग होता है| प्राकृतिक शक्तियाँ प्राकृतिक नियमों से संचालित होता है, किसी के ईच्छा से संचालित नहीं होता| ईश्वर व्यक्ति स्वरुप में होता है और इसी कारण (आदमी के स्वरुप होने के कारण ही) वह हमारी प्रार्थना  एवं आवाज सुनता है, समझता है| चूँकि ईश्वर आदमी स्वरूप में होता है और इसीलिए कुछ आदमी के विशेष वर्ग (पुरोहित) ईश्वर एवं सामान्य आदमी के बीच मध्यस्थता करने लगता है| चूँकि ईश्वर भी आदमी स्वरुप में, पुरोहित भी आदमी, और सामान्य जन भी आदमी और इसी कारण ये  तीनों एक दुसरे की बातों एवं भावनाओं को समझते हैं| साधारण शब्दों में कह सकते हैं कि ईश्वर प्राकृतिक शक्तियों का व्यक्तिकरण (Personification) या व्यक्ति स्वरुप है| इस तरह सामान्य आदमी अपनी विश्लेषणात्मक एवं तार्किक क्षमता के अभाव में प्राकृतिक शक्तियों को ही ईश्वर और ईश्वर को ही प्राकृतिक शक्तियाँ समझ लेता है तथा पुरोहितों का काम चलता रहता है|

पालि भाषा जो बौद्ध दर्शन की मूल भाषा थी, में भगवान उस व्यक्तित्व को कहते हैं जिसने अपने रागों (अनुराग, आसक्ति) और द्वेषों (इर्ष्या, घृणा) को भग्न (नष्ट) कर लिया है| आज के हिन्दी और संस्कृत के भगवान और पालि के भगवान में कोई तारतम्यता नहीं है| यह रूपांतरण के मनोविज्ञान की तात्कालिक आवश्यकता थी कि उस भगवान को विरूपित कर आस्था वाला भगवान बना दिया जाए| यह परिवर्तन (Change) के विभिन्न स्वरुप परावर्तन (Reflection), अनुवाद (Translation), और विरूपण (Distortion) के प्रकार का उत्तम उदहारण है| संस्कृत और हिन्दी में भगवान को ईश्वर का पर्यायवाची बना दिया गया है ताकि बौद्धों द्वारा प्रयुक्त भगवान के स्थिति में भ्रम पैदा किया जा सके| इस तरह यह परावर्तन और अनुवादित परिवर्तन के साथ साथ विरूपण का स्पष्ट परिणाम है| बुद्ध ने ईश्वर  के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया है और उसी शब्द को संस्कृत में विपरीतार्थी अर्थ में लाया जाना स्पष्टतया पालि के भगवान का विरूपण है|

इसलिए बौद्ध दर्शन या बौद्ध धम्म में भगवान के प्रयोग में सावधानी बरतनी है और इसे ईश्वर का पर्यायवाची के रूप में नहीं लिया जाना है| अर्थात बौद्ध दर्शन में बुद्ध भगवान थे परन्तु ईश्वर नहीं थे| इस अर्थ में वह सभी जीवों के प्रति उपेक्षित भाव रखते थे, किसी से घृणा नहीं और किसी आसक्ति नहीं| वह इस संसार के रचियता या संचालक नहीं थे| सामान्य जनों के बीच भगवान शब्द के प्रयोग में ही सावधानी बरतनी चाहिए|

ये बुद्ध के सम्बन्ध में प्रचलित, सामान्य एवं व्यापक भ्रांतियाँ हैं जिन्हें हर सामान्य बुद्धिमान व्यक्तियों को जानना चाहिए| आशा करता हूँ कि मैं युवाओं एवं बुद्धिमान व्यक्तियों को समझाने में सफल रहा|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था- विश्लेषक एवं चिन्तक

(प्रकाशनाधीन पुस्तक – “बुद्ध : दर्शन एवं रूपांतरण” से )

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

धम्म और धर्म (Dhamma and Dharma)

धम्म और धर्म

(Dhamma and Dharma)

यह विषय धम्म और धर्म पर है| मैंने इसे अंग्रेजी में धम्म (Dhamma) एवं धर्म (Dharma) लिखा है, रिलिजन (Religion) या मजहब (Majhab) या सम्प्रदाय (Sampraday, Community) लिखा है क्योंकि पाँचों का अलग –अलग अर्थ है|

 

“धम्म मानव के स्वभाव एवं व्यवहार से सम्बंधित है,

रिलिजन उस रीजन (region) के संस्कार से सम्बंधित है,

मजहब  किसी मजलिश के मान्यताओं से सम्बधित है,

सम्प्रदाय एक सामाजिक समूह का किसी पंथ या दर्शन से सम्बंधित है|”

 

भारत में धर्म पदानुक्रमण, आस्था एवं कर्मकांड लिए एक संप्रदाय है;

इसे रिलिजन, मजहब, संप्रदाय एवं धम्म से मिलकर भ्रमित कर दिया गया है|

 

ध्यान रहे कि मेरा विषय मूल भारतीय संस्कृति के सच को बताना है और मूल भारतीय संस्कृति को समझना है; तथाकथित बौद्ध धर्म की स्थापना नहीं है|

 

तो क्या बुद्ध दर्शन और बौद्ध धर्म अलग अलग है?

 

 क्या बुद्ध ने वैसे धर्म की स्थापना की थी जिस संदर्भ में आज धर्म परिभाषित है? क्या बुद्ध की शिक्षाओं को मात्र जीवन दर्शन माना जाय और इसे अन्यथा नहीं माना जाय?

 

बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं और दर्शन को धम्म कहा| उनके अनुसार हर मानव, हर जीव एवं हर पदार्थ का एक धम्म है अर्थात उसके प्राकृतिक बनाबट एवं गुणों के अनुसार उनमें एक निश्चित स्वभाव या गुण है जिसे वह धारण करता है| जिन गुणों को वह धारण होता है, वही उसका धम्म है| पुरातन भारत में ‘धारेती ति धम्मों’ ‘जो धारण करे सो धम्म’, था; पर अब अर्थ बदल दिया गया| पालि के धम्म को संस्कृत एवं हिन्दी में अनुवाद कर धर्म बनाना और इसे नया परन्तु सर्वथा भिन्न अर्थ एवं अवधारणा में स्थापित कर देना ही भ्रम है| भारत में संप्रदाय को धर्म बना दिया है| इसी कारण धम्म को धर्म नहीं मान कर धम्म ही रहने दिया गया| पानी का एक स्वभाव है - बिना अवरोध में बहना, बर्तन के आकार के अनुरुप अपना आकार ग्रहण करना, सामान्य आग को बुझा देना, शीतलता प्रदान करना आदि; यही पानी का धम्म है| धातु का धम्म है कि वह विद्युत एवं ऊष्मा को अपने से होकर संचरित होने देना| आग का धम्म है कि वह गर्मी पैदा करे और प्रकाश फैलाए| इसी तरह सभी प्राकृतिक एवं कृत्रिम पदार्थो का एक निश्चित स्वभाव है जिसे उस पदार्थ का धम्म कहा जाता है|

 

एक आदमी का धम्म (धर्म) क्या हो सकता है? एक आदमी अपने समाज एवं मानवता को बेहतर बनाने में यथासंभव योगदान दे और अपने को व्यथित नहीं करे - यही आदमी का नैसर्गिक धम्म है|

इस तरह धम्म विश्व के सभी मानव के लिए एक ही होगा, यह धम्म

यानि मानव का स्वभाव क्षेत्र एवं संस्कृति के अनुसार बदल नहीं सकता|

 इस नैसर्गिक स्वभाव को पालि में धम्म तथा संस्कृत में धर्म कहा गया| वैसे सभी स्थापित धर्मो के मूल में यही भावना समाहित होने का दावा रहता है| सभी धर्मो की उत्पत्ति ही संस्थापक की समझ के अनुसार समाज एवं मानवता को और बेहतर बनाने के लिए होता है, भले बाद के अनुयायी गुरु इसके स्वरुप को बदल दे| आज वह पुरातन वातावरण एवं संस्कृति नहीं है जो उस समय था, विज्ञान एवं प्रगति के कारण वातावरण, संस्कृति और भौगोलिक परिदृश्य बदल रहा है और सभी सांदर्भिक धर्म का संदर्भ भी बदल रहा है और बदल गया है|

 

“बुद्ध का धम्म मानवीय स्वभाव पर आधारित होने के कारण

एवं वातावरण, संस्कृति और भौगोलिक परिदृश्य से परे

यानि मुक्त होने के कारण ही सर्वकालिक एवं सर्वव्यापक है|

 

बुद्ध दर्शन मानवीय स्वभाव का वैज्ञानिक, तार्किक, व्यवहारिक एवं सरल विश्लेषण तथा अध्ययन कर बौद्धिक उपस्थापन मात्र है| इनके धम्म में ईश्वर, आत्मा, ब्रह्म, यज्ञ, बलि, पूजा, जादू, भाग्य, चमत्कार आदि का कोर्इ स्थान नहीं है| इनके धम्म में ढोंग और अन्धविश्वास नही है| इनका धम्म न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व पर आधारित है| इसी को वैज्ञानिक मानसिकता कहा जाता है| आज इसी वैज्ञानिक मानसिकता के प्रसार के लिए सभी उपाय एवं प्रयत्न किए जा रहे हैं| बुद्ध ने संसार को सुखमय, शान्तिमय, एवं समृद्धमय बनाने के लिए मानव धम्म का सूक्ष्म विश्लेषण कर सरल एवं सहजग्राह्य स्वरुप देकर व्यवहारिक बनाया है| इनके धम्म के दर्शन आधुनिकतम विज्ञान के सिद्धान्तों से समर्थित एवं संपोषित है|

 

“यह धम्म मात्र मानव और मानव के मधुर संबंधों पर आधारित है|

इनके धम्म में यह निर्धारित किया गया है कि

एक मानव को दूसरे मानव के प्रति क्या भावनाएँ एवं व्यवहार रखना चाहिए|


बुद्ध ने अपने को तो ईश्वर बताया और ही ईश्वर का प्रतिनिधि| उन्होंने अपने को मात्र  मार्गदर्शक माना| अन्य धर्मो में ईश्वर की स्थापना है या उनके प्रतिनिधि उपस्थित रहे| इसी कारण इसे धर्म नही माना जाता है| हाँ, कुछ लोग जो पारम्परिक धर्म के बिना नहीं रह सकते, इसे धर्म के रुप में अपनाया है| यह कम प्रबुद्ध एवं कम शिक्षित लोगो की आवश्यकता है या उनकी समझ एवं आस्था है| अत: ऐसे कुछ लोगो की आवश्यकता और अज्ञानता के कारण बुद्ध के जीवन दर्शन को परम्परागत धर्म नहीं माना जा सकता|

 

बुद्ध ने अपने धम्म में अपने लिए कोई विशेष स्थान नहीं रखा| एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि धम्म ही धम्म का उत्तराधिकारी है| धम्म को अपने ही तेज यानि ओजस्विता से जीवित रहना चाहिए; किसी मानवीय या दैवीय अधिकार के शक्तियों पर निर्भर रह कर नहीं| यदि धम्म की प्रतिष्ठा  के लिए हर बार इसके संस्थापक का नाम रटने आवश्यकता है तो वह धम्म नहीं है| संस्थापक  की नाम लेकर विश्वनीयता बनाने की बात उस समय होती है जब उन सिद्धांतो की अपनी पहचान एम् विश्वसनीयता नहीं रह गयी हो|

 

बुद्ध ने कभी किसी को मुक्त करने का आश्वासन नहीं दिया| वे स्वयं को सदैव मार्ग- दर्शक बताया, मोक्षदाता नहीं| उन्होंने कहा कि जिसको भी मुक्ति या लक्ष्य पाना है, उसे स्वयं ही उन पथो पर चलना है| उनके बदले कोई भी दूसरा प्रयास नहीं कर सकता है और यदि कोई प्रयास करता हुआ बताता है तो वह निश्चित ही उसे धोखे में रख रहा है| बुद्ध का धम्म इन अर्थों में एक आविष्कार है या एक खोज है क्योंकि यह मानवीय जीवन के एक गंभीर अध्ययन का परिणाम है| यह मानवीय जीवन को उनकी सहज- प्रवृतियों  को समझने एवं अध्ययन करने का परिणाम था| बुद्ध ने मुक्ति का अर्थ निर्वाण को बताया है और निर्वाण का अर्थ मानव- जीवन से राग-द्वेष का समाप्त हो जाना है| इस तरह यह मुक्ति इसी जीवन में जीते जी प्राप्त होती है| इन्होंने अपनी बातों या सिद्धांतों को मनमाने या स्वीकार्य करवाने के लिए कभी अलोकिक शक्तियों यानि ईश्वर का सहारा नहीं लिया| अपनी बातों को मनमाने के लिए उन्होंने सदैव तर्क क्षमता और मानवीय सहज बुद्धिमता का सहारा लिया|

 

बुद्ध ने धम्म को समझाते हुए जीवन की पवित्रता को बनाए हुए रखने को कहा| उनके अनुसार पवित्रता तीन प्रकार की होती है- शारीरिक पवित्रता, वाणी की पवित्रता, तथा मन की पवित्रता| एक मानव जीव- हिंसा से विरत (विमुख यानि दूर रहना) होता है, चोरी से विरत होता है तथा काम- मिथ्याचार से विरत होता है और इसे ही शारीरिक पवित्रता कहते हैं| एक मानव झूठ बोलने से विरत होता है एवं व्यर्थ की बातचीत से विरत रहता है, उसे वाणी की पवित्रता कहते हैं| मन की पवित्रता में द्वेष एवं आलस्य के उत्पत्ति और उसके शमन एवं नाश की विधि को जानता एवं उपयोग करता हो| जो मानव शरीर, वाणी, और मन से पवित्र है, उसे निष्कलंक कहते हैं यानि उस पर कोई कलंक या आरोप नहीं है| बुद्ध ने तृष्णा के त्याग को धम्म बताया| आरोग्य यानि स्वास्थ्य से बढ़ कर कोई लाभ नहीं और संतोष से बढ़ कर धन नहीं| बुद्ध ने यह नहीं कहा कि भाग्यवान वे हैं जो गरीब हैं| इन्होंने सिर्फ लोभ के वश से बचने को कहा| लोभ से ही तृष्णा होती है|

 

 बुद्ध ने निर्वाण को प्राप्त करना धम्म बताया है| बुद्ध के निर्वाण में तीन विशेषताएं बताई गयी- इसमे आत्मा का अस्तित्व नहीं होने से आत्मा को कोई सुख नहीं होता, बल्कि प्राणी को सुख होता है| इसमे इसी जीवन में सुख मिलता है| आत्मा से मुक्ति एवं मरणांतर आत्मा से मुक्ति बुद्ध के दर्शन में नहीं है| बुद्ध के निर्वाण में राग- द्वेष को शांत करना या नष्ट करना ही निर्वाण है| उन्होंने इसे समझाते हुए बताया कि ज्ञान यानि विद्या  अर्जित करना ही निर्वाण का मूलाधार है|

 

अधिकतर लोग डिग्री यानि उपाधि को ही

ज्ञान या विद्या मान लेते हैं जो सर्वथा सही नहीं होता है|

अधिकतर डिग्री या उपाधि “क्या” (What) जान लेने से मिल जाती है, परन्तु

ज्ञान या विद्या “क्या” (What) के साथ “क्यों” (Why) और “कैसे” (How) जानने से मिलती है|”

 

उनके अनुसार जिसको ज्ञान होता है, उसी के मन में उपेक्षा का भाव उत्पन्न हो सकता है| उपेक्षा से ही रागाग्नि आदि शांत होती है और रागाग्नि के शांत हो जाने से निर्वाण को प्राप्त होता है| सामान्यत: यह समझा जाता है कि अभाव के कारण ही मानव दुखी रहता है परन्तु यह सही अवधारणा नहीं है| दुःख लोभ का परिणाम है और लोभ अभावग्रस्त एवं समृद्ध दोनों को ही होता है| इसलिए उपेक्षा ही दुःख का समाधान है| राग- द्वेष की अधीनता ही मानव को दुखी बनाती है| राग- द्वेष को संयोजन या बंधन कहा गया है और निर्वाण में बाधा पहुंचती है|  राग एवं द्वेष मानव की भावनाएं है जिसका  बुझ जाना ही निर्वाण है| निर्वाण का शाब्दिक अर्थ होता है “बुझ जाना”| जब शरीर नष्ट हो जाती है, जब तमाम वेदनाओं (अनुभूति – Sensation) का नाश हो जाता है, जब तमाम संज्ञाएँ (Cognition) रुक जाती है, जब सभी प्रकार की प्रक्रिया बंद हो जाती है और चेतना एकदम समाप्त हो जाती है तो “परिनिर्वाण  हो जाता है| परन्तु निर्वाण में एक मानव अपने को इतना नियंत्रित कर लेता है कि उसकी प्रवृतियाँ उसके नियंत्रण में होती है ताकि वह धम्म के मार्ग पर चल सके| इस तरह निर्दोष जीवन का दूसरा नाम ही निर्वाण है| उन्होंने स्पष्ट किया कि आष्टांगिक मार्ग का निर्वहन यानि पालन करना ही निर्वाण है|

 

यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य है, यह भी धम्म है| सभी चीजें किसी कारण के लिए उत्पन्न है| किसी का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है| जब हेतु- प्रत्ययों का अर्थात कार्य- कारण का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तो चीजों का भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है| मानव निरंतर परिवर्तनशील है, निरंतर संवर्धनशील प्राणी है| आगे चलकर यही अनित्यता का सिद्धांत शून्यवाद  का आधार बना| इसका मतलब इस संसार में जो कुछ भी है, वह प्रति क्षण बदलता रहता है| इसी परिवर्तनशीलता से ही जीवन में विकास संभव है| इस सिद्धांत का सारांश यही है कि किसी वस्तु के प्रति आसक्त मत बने क्योंकि कोई भी चीज नित्य नहीं है| 

 

कर्म को मानव जीवन के नैतिक संस्थान का आधार मानना धम्म है| बुद्ध के अनुसार विश्व के नैतिक- क्रम को बनाए रखने वाला कोई ईश्वर नहीं है| यह मानव का कर्म है और आपसी कर्मो के आधार पर ही इस संसार की व्यवस्था बनी हुई है| इस संसार की वर्तमान व्यवस्था – अच्छा या बुरा, दोनों के लिए एकमात्र कारण मानव ही है| यदि कोई मानव व्यक्तिगत तौर पर समाज के सदस्यों के प्रति न्याय का भाव रखता है तो समाज में समानता एवं बंधुत्व आती है| इससे ही समाज में सुख, शान्ति, संतुष्टि एवं समृद्धि स्थापित हो पाता है| बुद्ध के धम्म में नैतिकता एवं कर्म को वही स्थान है जो अन्य धर्मो में ईश्वर को दिया गया है|  

 

बुद्ध ने बताया है कि क्या मानना अधम्म है? इसके अनुसार परा- प्राकृतिक (Un- Natural) में विश्वास अधम्म है| सभी घटनाओं का कोई न कोई कारण होता है| स्थान या काल किसी घटना का कारण हो सकता है- इसे मान लेना अधम्म है| वे प्रत्येक घटना के कारण को खोजने की प्रवृति को बढ़ाना चाहते थे ताकि आदमी बुद्धिवादी बने| ईश्वर में विश्वास को भी अधम्म बताया है| आत्मा में विश्वास भी अधम्म है| आत्मा नहीं होने के कारण पुनर्जन्म को भी मानना अधम्म है| किसी अलोकिक शक्ति को प्रसन्न करने या किसी बीमारी को दूर करने या किसी भी अन्य लाभ के लिए मानव या पशु का बलि देना भी अधम्म है|  कल्पना पर आश्रित विश्वास भी अधम्म है अर्थात जिसका कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रमाण ही नहीं हो तो उसको आधार बना कर कुछ भी मान लेना अधम्म है|

 

किसी भी तथाकथित सम्मानित लेखक के पुस्तकों की बात को सिर्फ इसलिए मान लेना कि ऐसा पुस्तकों में लिखी है या किसी विद्वान ने बताई है तो सिर्फ ऐसे आधार पर उन बातों को मान लेना भी अधम्म है| धर्म या दर्शन के नाम पर भी किसी भी बात को मान लेना अधम्म है| उनका आग्रह है कि इन बातों पर सभी को सम्यक विचार एवं विमर्श कर अपना स्पष्ट मंतव्य रखना चाहिए| यह बुद्ध दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है जिसे दर्शन के खंड में विस्तृत ढंग से बताया गया है| उनका अनुरोध है कि ऐसा मानने यानि

किसी कहे को सही मान लेने से पहले

उसे तथ्य एवं तर्क की कसौटी पर जांच लेना आवश्यक है|

कोई ऐसी चीज हो ही नहीं सकती

जो गलत होने की संभावनाओं से सर्वथा परे हो|

इसलिए हर ज्ञान का परीक्षण और पुनर्परीक्षण होना चाहिए

और इसी के आधार पर ज्ञान का विकास होता है एवं

नई बातें सामने आती है|”

 

बुद्ध ने सद्धम्म को भी विस्तृत रूप में समझाया है| सद्धम्म वह है जो सभी का ज्ञान के द्वार खोल देता है यानि ज्ञान अर्जन को आमंत्रित करता है एवं उसको बढ़ावा देता है| ज्ञानी को विद्वान भी कहा जाता है एवं माना जाता है| लेकिन किसी का सिर्फ विद्वान होना ही काफी नहीं है बल्कि वह समाज में मैत्री भी स्थापित करता हो| कोई धम्म सधम्म तभी कहलाता है जब वह न्याय पर आधारित होता है| सधम्म के कार्य में मन के मैल को दूर करना बताया गया है|  मन ही सभी व्यवहार, वाणी और कर्म को कराता है  और इसी कारण मन का शुद्धिकरण आवश्यक है| सभी लोग इस संसार को सुखमय, शांतिमय और समृद्धिमय  बनाने में लगे और इस तरह यह सधम्म  है| सधम्म यह बताता है कि लोग प्रज्ञावान बने, उनमे मैत्री भाव हो, और यह भाव करुणामयी हो| सधम्म वह है जिसमे मानव का मूल्यांकन उसके कर्म एवं व्यवहार के आधार पर हो, उसके मात्र जन्म के आधार पर यानि उसके वंश के आधार पर नहीं किया जाए|

 

धम्म का साधारण एवं सीधा अर्थ है सदाचरण| यह एक सामाजिक अवधारणा है ताकि समाज में सम्वृद्धि  हो| यह प्रज्ञा, मैत्री और करुणा का समिश्रण है| इसमे ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास और कर्मकांड का कोई स्थान नहीं है|

 

इस तरह यह स्पष्ट है कि यह धम्म प्रचलित एवं प्रचारित धर्म, सम्प्रदाय , रिलिजन, मजहब आदि से सर्वथा भिन्न है| मैं समझता हूँ कि धम्म एवं धर्म की अवधारणाओं को स्पष्ट कर पाया हूँ|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था –विश्लेषक एवं चिन्तक

(प्रकाशनाधीन पुस्तक- बुद्ध : दर्शन एवं रूपांतरण से)


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