यह विषय धम्म और धर्म पर है| मैंने इसे अंग्रेजी में धम्म (Dhamma)
एवं धर्म (Dharma) लिखा है, रिलिजन (Religion) या मजहब (Majhab) या सम्प्रदाय (Sampraday, Community) लिखा है
क्योंकि पाँचों का अलग –अलग अर्थ है|
“धम्म मानव के स्वभाव एवं व्यवहार से सम्बंधित है,
रिलिजन उस रीजन (region) के संस्कार से सम्बंधित है,
मजहब किसी मजलिश के मान्यताओं से
सम्बधित है,
सम्प्रदाय एक सामाजिक समूह का किसी
पंथ या दर्शन से सम्बंधित है|”
भारत में धर्म पदानुक्रमण, आस्था एवं कर्मकांड लिए एक संप्रदाय है;
इसे रिलिजन, मजहब, संप्रदाय
एवं धम्म से मिलकर भ्रमित कर दिया गया है|
ध्यान रहे कि मेरा विषय मूल
भारतीय संस्कृति के सच को बताना है और मूल भारतीय संस्कृति को
समझना है; तथाकथित बौद्ध धर्म की स्थापना नहीं है|
“क्या बुद्ध दर्शन और बौद्ध धर्म अलग अलग है?”
क्या बुद्ध ने वैसे धर्म की स्थापना की थी जिस संदर्भ में आज धर्म परिभाषित है? क्या बुद्ध की शिक्षाओं को मात्र जीवन दर्शन माना जाय और इसे अन्यथा नहीं माना जाय?
बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं और दर्शन को धम्म कहा| उनके अनुसार हर मानव, हर जीव एवं हर पदार्थ का एक धम्म है अर्थात उसके प्राकृतिक बनाबट एवं गुणों के अनुसार उनमें एक निश्चित स्वभाव या गुण है जिसे वह धारण करता है| जिन गुणों को वह धारण होता है, वही उसका धम्म है| पुरातन भारत में ‘धारेती ति धम्मों’ – ‘जो
धारण करे सो धम्म’, था; पर अब अर्थ बदल दिया गया| पालि के धम्म को संस्कृत
एवं हिन्दी में अनुवाद कर धर्म बनाना और इसे नया परन्तु सर्वथा भिन्न अर्थ एवं
अवधारणा में स्थापित कर देना ही भ्रम है| भारत में संप्रदाय को धर्म बना दिया है| इसी कारण धम्म को धर्म नहीं
मान कर धम्म ही रहने दिया गया| पानी का एक स्वभाव है - बिना अवरोध में बहना, बर्तन के आकार के अनुरुप अपना आकार ग्रहण करना, सामान्य आग को बुझा देना, शीतलता
प्रदान करना आदि; यही पानी का धम्म है| धातु का धम्म है कि वह विद्युत एवं ऊष्मा को अपने से होकर संचरित होने देना| आग का धम्म है कि वह गर्मी पैदा करे और प्रकाश फैलाए| इसी तरह सभी प्राकृतिक एवं कृत्रिम पदार्थो का एक निश्चित स्वभाव है जिसे उस पदार्थ का धम्म कहा जाता है|
एक आदमी का धम्म (धर्म) क्या हो सकता है? एक आदमी अपने समाज एवं मानवता को बेहतर बनाने में यथासंभव योगदान दे और अपने को व्यथित नहीं करे - यही आदमी का नैसर्गिक धम्म है|
“इस तरह धम्म विश्व के सभी मानव के लिए एक
ही होगा,
यह धम्म
यानि मानव का स्वभाव
क्षेत्र एवं संस्कृति के अनुसार बदल नहीं सकता| “
इस नैसर्गिक स्वभाव को पालि में धम्म तथा संस्कृत में धर्म कहा गया| वैसे सभी स्थापित धर्मो के मूल में यही भावना समाहित होने का दावा रहता है| सभी धर्मो की उत्पत्ति ही संस्थापक की समझ के अनुसार समाज एवं मानवता को और बेहतर बनाने के लिए होता है, भले
बाद के अनुयायी गुरु इसके स्वरुप को बदल दे| आज वह पुरातन वातावरण एवं संस्कृति नहीं है जो उस समय था, विज्ञान एवं प्रगति के कारण वातावरण, संस्कृति और भौगोलिक परिदृश्य बदल रहा है और सभी सांदर्भिक धर्म का संद र्भ भी बदल रहा है और बदल गया है|
“बुद्ध का धम्म मानवीय स्वभाव पर आधारित होने के कारण
एवं वातावरण, संस्कृति और भौगोलिक परिदृश्य से परे
यानि मुक्त होने के कारण ही सर्वकालिक एवं सर्वव्यापक है|”
बुद्ध दर्शन मानवीय स्वभाव का वैज्ञानिक, तार्किक, व्यवहारिक एवं सरल विश्लेषण तथा
अध्ययन कर बौद्धिक उपस्थापन मात्र है| इनके धम्म में ईश्वर, आत्मा, ब्रह्म, यज्ञ, बलि, पूजा, जादू, भाग्य, चमत्कार आदि का कोर्इ स्थान नहीं है| इनके धम्म में ढोंग और अन्धविश्वास नही है| इनका धम्म न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व पर आधारित है| इसी को वैज्ञानिक मानसिकता कहा जाता है|
आज इसी वैज्ञानिक मानसिकता के प्रसार के लिए सभी उपाय एवं प्रयत्न
किए जा रहे हैं| बुद्ध ने संसार को सुखमय, शान्तिमय, एवं समृद्धमय बनाने के लिए मानव धम्म का सूक्ष्म विश्लेषण कर सरल एवं सहजग्राह्य स्वरुप
देकर व्यवहारिक बनाया है| इनके धम्म के दर्शन आधुनिकतम विज्ञान के सिद्धान्तों से समर्थित एवं संपोषित है|
“यह धम्म मात्र मानव और मानव के मधुर संबंधों पर आधारित है|
इनके धम्म में यह निर्धारित किया गया है कि
एक मानव को दूसरे मानव के प्रति क्या भावनाएँ एवं व्यवहार रखना चाहिए|”
बुद्ध ने अपने को न तो ईश्वर बताया और न ही ईश्वर का प्रतिनिधि| उन्होंने अपने को मात्र मार्गदर्शक माना| अन्य धर्मो में ईश्वर की स्थापना है या उनके प्रतिनिधि उपस्थित रहे| इसी कारण इसे धर्म नही माना जाता है| हाँ, कुछ लोग जो पारम्परिक धर्म के बिना नहीं रह सकते, इसे धर्म के रुप में अपनाया है| यह कम प्रबुद्ध एवं कम शिक्षित लोगो की आवश्यकता है या
उनकी समझ एवं आस्था है| अत: ऐसे कुछ लोगो की आवश्यकता और अज्ञानता के कारण बुद्ध के जीवन दर्शन को परम्परागत धर्म नहीं माना जा सकता|
बुद्ध ने अपने धम्म में अपने लिए कोई विशेष स्थान नहीं रखा| एक प्रश्न के उत्तर में
उन्होंने बताया कि धम्म
ही धम्म का उत्तराधिकारी है| धम्म को अपने ही तेज यानि ओजस्विता से जीवित
रहना चाहिए; किसी मानवीय या दैवीय अधिकार के शक्तियों पर निर्भर रह कर नहीं| यदि धम्म की प्रतिष्ठा के लिए हर बार इसके संस्थापक का नाम रटने आवश्यकता है तो वह धम्म नहीं है|
संस्थापक की नाम लेकर विश्वनीयता
बनाने की बात उस समय होती है जब उन सिद्धांतो की अपनी पहचान एम् विश्वसनीयता नहीं
रह गयी हो|
बुद्ध ने कभी किसी को मुक्त करने का आश्वासन नहीं दिया| वे स्वयं को सदैव मार्ग- दर्शक
बताया, मोक्षदाता नहीं| उन्होंने कहा
कि जिसको
भी मुक्ति या लक्ष्य पाना है,
उसे स्वयं ही उन पथो पर चलना है| उनके बदले कोई भी दूसरा
प्रयास नहीं कर सकता है और यदि कोई प्रयास करता हुआ बताता है तो वह निश्चित ही उसे
धोखे में रख रहा है| बुद्ध का धम्म इन अर्थों में एक आविष्कार है या एक खोज है
क्योंकि यह मानवीय जीवन के एक गंभीर अध्ययन का परिणाम है| यह मानवीय जीवन को उनकी सहज- प्रवृतियों को समझने एवं अध्ययन
करने का परिणाम था| बुद्ध ने मुक्ति का अर्थ निर्वाण को बताया है और निर्वाण का अर्थ मानव-
जीवन से राग-द्वेष का समाप्त हो जाना है| इस तरह यह मुक्ति
इसी जीवन में जीते जी प्राप्त होती है| इन्होंने अपनी बातों
या सिद्धांतों को मनमाने या स्वीकार्य करवाने के लिए कभी अलोकिक शक्तियों यानि
ईश्वर का सहारा नहीं लिया| अपनी बातों को मनमाने के लिए
उन्होंने सदैव तर्क क्षमता और मानवीय सहज बुद्धिमता का सहारा लिया|
बुद्ध ने धम्म को समझाते हुए जीवन की पवित्रता को बनाए हुए रखने को कहा| उनके अनुसार पवित्रता तीन
प्रकार की होती है- शारीरिक
पवित्रता,
वाणी की पवित्रता, तथा मन की पवित्रता| एक मानव जीव- हिंसा से विरत (विमुख यानि दूर
रहना) होता है, चोरी से विरत होता है तथा काम- मिथ्याचार से विरत होता है और इसे ही शारीरिक पवित्रता कहते हैं| एक मानव झूठ बोलने से विरत होता है एवं व्यर्थ की बातचीत से विरत रहता है,
उसे वाणी की पवित्रता कहते हैं| मन की पवित्रता में द्वेष एवं आलस्य के उत्पत्ति और उसके शमन एवं नाश की विधि को जानता
एवं उपयोग करता हो| जो मानव शरीर, वाणी,
और मन से पवित्र है, उसे निष्कलंक कहते हैं
यानि उस पर कोई कलंक या आरोप नहीं है| बुद्ध ने तृष्णा के
त्याग को धम्म बताया| आरोग्य यानि स्वास्थ्य से बढ़ कर कोई
लाभ नहीं और संतोष से बढ़ कर धन नहीं| बुद्ध ने यह नहीं कहा
कि भाग्यवान वे हैं जो गरीब हैं| इन्होंने सिर्फ लोभ के वश
से बचने को कहा| लोभ से ही तृष्णा होती है|
बुद्ध ने निर्वाण को प्राप्त करना धम्म बताया है| बुद्ध के निर्वाण में तीन विशेषताएं बताई गयी- इसमे आत्मा का अस्तित्व
नहीं होने से आत्मा को कोई सुख नहीं होता, बल्कि प्राणी को
सुख होता है| इसमे इसी जीवन में सुख मिलता है| आत्मा से मुक्ति एवं मरणांतर आत्मा से मुक्ति बुद्ध के दर्शन में नहीं है| बुद्ध के निर्वाण में राग- द्वेष को शांत करना या नष्ट करना ही निर्वाण है|
उन्होंने इसे समझाते हुए बताया कि ज्ञान यानि विद्या अर्जित करना ही
निर्वाण का मूलाधार है|
“अधिकतर लोग डिग्री यानि उपाधि को ही
ज्ञान या विद्या मान लेते
हैं जो सर्वथा सही नहीं होता है|
अधिकतर डिग्री या उपाधि “क्या” (What) जान लेने से मिल जाती है, परन्तु
ज्ञान या विद्या “क्या” (What) के साथ “क्यों” (Why) और “कैसे” (How) जानने से मिलती है|”
उनके अनुसार जिसको ज्ञान होता है, उसी के मन में उपेक्षा का भाव
उत्पन्न हो सकता है| उपेक्षा से ही रागाग्नि आदि शांत होती
है और रागाग्नि के शांत हो जाने से निर्वाण को प्राप्त होता है| सामान्यत: यह समझा जाता है कि अभाव के कारण ही मानव दुखी रहता है परन्तु
यह सही अवधारणा नहीं है| दुःख लोभ का परिणाम है और लोभ
अभावग्रस्त एवं समृद्ध दोनों को ही होता है| इसलिए उपेक्षा
ही दुःख का समाधान है| राग- द्वेष की अधीनता ही मानव को दुखी बनाती है| राग- द्वेष को संयोजन या बंधन कहा गया है और निर्वाण में बाधा पहुंचती है| राग एवं द्वेष मानव की भावनाएं है जिसका बुझ
जाना ही निर्वाण है| निर्वाण का शाब्दिक अर्थ होता है “बुझ जाना”| जब शरीर नष्ट हो जाती है,
जब तमाम वेदनाओं (अनुभूति – Sensation) का नाश
हो जाता है, जब तमाम संज्ञाएँ (Cognition) रुक जाती है, जब सभी प्रकार की प्रक्रिया बंद हो
जाती है और चेतना एकदम समाप्त हो जाती है तो “परिनिर्वाण” हो जाता है| परन्तु निर्वाण
में एक मानव अपने को इतना नियंत्रित कर लेता है कि उसकी प्रवृतियाँ उसके नियंत्रण
में होती है ताकि वह धम्म के मार्ग पर चल सके| इस तरह निर्दोष जीवन का दूसरा
नाम ही निर्वाण है| उन्होंने स्पष्ट किया कि
आष्टांगिक मार्ग का निर्वहन यानि पालन करना ही निर्वाण है|
यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य है, यह भी धम्म है| सभी चीजें किसी कारण के लिए उत्पन्न है| किसी का कोई स्वतंत्र अस्तित्व
नहीं है| जब हेतु- प्रत्ययों का अर्थात कार्य- कारण का
सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तो चीजों का भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है| मानव निरंतर परिवर्तनशील है, निरंतर संवर्धनशील
प्राणी है| आगे चलकर यही
अनित्यता का सिद्धांत शून्यवाद का आधार बना| इसका मतलब इस संसार में जो कुछ भी है, वह प्रति क्षण
बदलता रहता है| इसी परिवर्तनशीलता से ही जीवन में विकास संभव
है| इस सिद्धांत का सारांश यही है कि किसी वस्तु के प्रति आसक्त
मत बने क्योंकि कोई भी चीज नित्य नहीं है|
कर्म को मानव जीवन के नैतिक संस्थान का आधार मानना धम्म है| बुद्ध के अनुसार विश्व के
नैतिक- क्रम को बनाए रखने वाला कोई ईश्वर नहीं है| यह
मानव का कर्म है और आपसी कर्मो के आधार पर ही इस संसार की व्यवस्था बनी हुई है| इस संसार की वर्तमान व्यवस्था – अच्छा या बुरा, दोनों के लिए एकमात्र कारण मानव ही है| यदि
कोई मानव व्यक्तिगत तौर पर समाज के सदस्यों के प्रति न्याय का भाव रखता है तो समाज
में समानता एवं बंधुत्व आती है| इससे ही समाज में सुख,
शान्ति, संतुष्टि एवं समृद्धि स्थापित हो पाता
है| बुद्ध के धम्म में नैतिकता एवं कर्म को वही स्थान है जो
अन्य धर्मो में ईश्वर को दिया गया है|
बुद्ध ने बताया है कि क्या मानना अधम्म है? इसके अनुसार परा- प्राकृतिक (Un- Natural) में विश्वास
अधम्म है| सभी घटनाओं का कोई न कोई कारण होता है| स्थान या काल
किसी घटना का कारण हो सकता है- इसे मान लेना अधम्म है| वे प्रत्येक घटना के कारण को खोजने की प्रवृति को बढ़ाना चाहते थे ताकि
आदमी बुद्धिवादी बने| ईश्वर में विश्वास को भी अधम्म बताया है| आत्मा में विश्वास भी अधम्म
है| आत्मा नहीं होने के कारण पुनर्जन्म को भी मानना अधम्म है| किसी अलोकिक शक्ति को प्रसन्न करने या किसी
बीमारी को दूर करने या किसी भी अन्य लाभ के लिए मानव
या पशु का बलि देना भी अधम्म है| कल्पना पर आश्रित विश्वास भी अधम्म है अर्थात जिसका कोई
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रमाण ही नहीं हो तो उसको आधार बना कर कुछ भी मान लेना
अधम्म है|
किसी भी तथाकथित सम्मानित लेखक के पुस्तकों की बात को सिर्फ
इसलिए मान लेना कि ऐसा पुस्तकों में लिखी है या किसी विद्वान ने बताई है तो सिर्फ
ऐसे आधार पर उन बातों को मान लेना भी अधम्म है| धर्म या दर्शन के नाम पर भी किसी भी बात को
मान लेना अधम्म है| उनका आग्रह है कि इन बातों पर सभी को
सम्यक विचार एवं विमर्श कर अपना स्पष्ट मंतव्य रखना चाहिए| यह
बुद्ध दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है जिसे दर्शन के खंड में विस्तृत ढंग से
बताया गया है| उनका अनुरोध है कि ऐसा मानने यानि
“किसी कहे को सही मान लेने से पहले
उसे तथ्य एवं तर्क की कसौटी पर जांच लेना
आवश्यक है|
कोई ऐसी चीज हो ही नहीं सकती
जो गलत होने की संभावनाओं से सर्वथा परे हो|
इसलिए हर ज्ञान का परीक्षण और पुनर्परीक्षण
होना चाहिए
और इसी के आधार पर ज्ञान का विकास होता है
एवं
नई बातें सामने आती है|”
बुद्ध ने सद्धम्म को भी विस्तृत रूप में
समझाया है| सद्धम्म
वह है जो सभी का ज्ञान के द्वार खोल देता है यानि ज्ञान अर्जन को आमंत्रित करता है
एवं उसको बढ़ावा देता है| ज्ञानी को विद्वान भी कहा जाता है एवं माना
जाता है| लेकिन किसी
का सिर्फ विद्वान होना ही काफी नहीं है बल्कि वह समाज में मैत्री भी स्थापित करता
हो| कोई
धम्म सधम्म तभी कहलाता है जब वह न्याय पर आधारित होता है| सधम्म के कार्य में मन के
मैल को दूर करना बताया गया है| मन ही सभी व्यवहार, वाणी और कर्म को कराता है और इसी कारण मन का शुद्धिकरण आवश्यक है| सभी लोग इस
संसार को सुखमय, शांतिमय और समृद्धिमय बनाने में लगे और इस तरह यह सधम्म है| सधम्म यह बताता है कि लोग
प्रज्ञावान बने,
उनमे मैत्री भाव हो, और यह भाव करुणामयी हो|
सधम्म वह है जिसमे मानव का मूल्यांकन उसके कर्म एवं व्यवहार के आधार
पर हो, उसके मात्र जन्म के आधार पर यानि उसके वंश के आधार पर
नहीं किया जाए|
धम्म का साधारण एवं सीधा अर्थ है सदाचरण| यह एक सामाजिक अवधारणा है
ताकि समाज में सम्वृद्धि हो| यह प्रज्ञा, मैत्री और
करुणा का समिश्रण है| इसमे ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास
और कर्मकांड का कोई स्थान नहीं है|
इस तरह यह स्पष्ट है कि यह धम्म प्रचलित एवं
प्रचारित धर्म,
सम्प्रदाय , रिलिजन, मजहब
आदि से सर्वथा भिन्न है| मैं समझता हूँ कि धम्म एवं धर्म की अवधारणाओं
को स्पष्ट कर पाया हूँ|
निरंजन सिन्हा
व्यवस्था
–विश्लेषक एवं
चिन्तक
(प्रकाशनाधीन
पुस्तक- “बुद्ध : दर्शन एवं
रूपांतरण” से)
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