भारत
में हिन्दू संस्कृति का जन्म हुआ जो अपने में भारत के कई सम्प्रदाय को समाहित किए
हुए है| इस तथाकथित हिन्दू संस्कृति
का उदय कब हुआ? इस
संस्कृति के उदय के पहले भारत में जो संस्कृति रही, उसे बौद्धिक यानि बुद्धि की
संस्कृति कहते हैं? कुछ विद्वान इसे सम्यक संस्कृति भी कहते हैं| इसी पुरातन भारतीय
संस्कृति का रूपांतरण हिन्दू संस्कृति में हो गया| इस हिन्दू संस्कृति को समझने
के लिए सामंतवाद को समझना जरुरी है जिसे विश्व के माने हुए विद्वानों ने बताया है| इतिहास उत्पादन की शक्तियों के द्वारा
निर्धारित होता है और सामंतवाद भी उत्पादन की शक्तियों द्वारा ही निर्धारित एवं
उत्पादित है| इस सामंतवाद और हिन्दू संस्कृति में सम्बन्ध को
समझने के लिए ही यह आलेख है|
मानव
समाज विकास के ऐतिहासिक क्रम में तीसरा और दीर्घकालिक चरण सामंतवाद (Feudalism) को माना जाता है| इस ऐतिहासिक विकास क्रम में पहला चरण कृषिवाद (Agriculturism) कहा जा सकता है जब होमो सेपिएंस पाषाण पर
से निर्भरता कम करने लिए एवं कृषि कार्य के लिए नदी घाटियों में बसना शुरू किया था|
इसे ग्रामीणीकरण भी कह सकते है जब गाँवों का उदय एवं विकास होना
शुरू हुआ| यह लगभग दस हजार वर्ष ईसा पूर्व से शुरू हुआ| इसके दुसरे चरण को बौद्धिकवाद (Intellectualism) कह सकते हैं जब अतिरिक्त (Surplus)
कृषि उत्पादन के कारण नगरों एवं राज्यों का उदय होना शुरू हुआ और
बौद्धिक विकास को गति मिली| इसका काल लगभग एक हजार वर्ष ईसा
पूर्व से शुरू हुआ| तीसरा चरण सामंतवाद है जब नगरों का ह्रास
होना शुरू हुआ और सारी आबादी गाँव चली गयी और कृषि पर निर्भर हो गयी| इससे सामंतो का उदय एवं विकास हुआ| इसका शुरुआत
नौवीं शताब्दी के आसपास हुआ| इसे मध्य काल का शुरुआत भी कहते
हैं| इसे अवनागरीकरण (De- Urbanisation) भी कहा जा सकता है| इस काल में आर्थिक- सामाजिक
संरचना, राजनितिक ढांचा और सांस्कृतिक ढांचे में नकारात्मक
परिवर्तन हुआ| इस काल में समेकित उत्पादकता और उत्पादन घट
गयी| इसके बाद के चरण में औद्योगिकीकरण एवं पूँजीवाद आया और
फिर उपनिवेशवाद भी आया|
सामंतवाद
का सबसे पहले और सबसे अधिक अध्ययन यूरोप में किया गया है| यूरोप में सामंतवाद की व्याख्या
प्राक- पूंजीवादी समाज के रूप में किया जा रहा है| बाद में
भारतीय इतिहासकारों का एक तबका यूरोपीय अध्ययन से प्रभावित होकर भारत के आर्थिक-
सामाजिक विकास और उसपर आधारित राजनितिक व्यवस्था एवं सांस्कृतिक स्वरुप को पहचानने
में किया| भारत में प्रो० रामशरण शर्मा ने 1965 में “भारतीय सामन्तवाद” लिखा| भारत
में सबसे पहले डी० डी० कौशाम्बी ने 1954 में भारत में सामन्तवाद पर प्रकाश डाला| मानव समाज के विकास के
किसी भी ऐतिहासिक स्थिति या अवस्था को उसके आर्थिक – सामाजिक व्यवस्था और उस पर आधारित राज्य की
संरचना, शासन पद्धति एवं सांस्कृतिक विचारधारा को एक
सम्पूर्ण इकाई के रूप में समझने का दृष्टिकोण विकसित
हुआ| इस
दृष्टिकोण को सामंतवाद पर भी लागू कर उसकी व्याख्या को व्यापक रूप दिया गया है| इस दृष्टिकोण से सभी मध्यकालीन
समाजों का अध्ययन किया जाने लगा और इसमे उनकी क्षेत्रिय एवं सांस्कृतिक
पृष्ठभूमियों की भिन्नताओ का ध्यान रखा जाने लगा|
सामंती-
व्यवस्था प्राचीन काल के राज- व्यवस्था से भिन्न रूप में विकसित हुआ, जिसमे राजकर्मचारियों एवं
सैनिको को नगद वेतन की जगह उनकी हैसियत यानि प्रस्थिति के अनुसार छोटा- बड़ा भू-
क्षेत्र (Estate या जागीर) दिया जाने लगा| इसमे एक बड़ा हिस्सा पुरोहित वर्ग को भी मिलना शुरू हो गया जो उनके समाज पर
उनके प्रभाव के स्वाभाव एवं उनके सामंती हितों के अनुरूप होता था| इनका काम बदले हुए परिस्थिति में सामंतो के पक्ष में धार्मिक एवं दैवीय
व्याख्या करने और समर्थन करने की होती थी| ऐसे भू- क्षेत्र
जर्मन भाषा में “फिफ” या “फ्युड” कहलाता था और इसका स्वामी फ्यूडल (सामन्त)
कहलाता था| इन सामन्त योद्धाओ के नेतृत्वकर्ता महान योद्धा
को सम्राट कहा जाने लगा| भारत में छोटे सामंत राजा और बड़े
सामन्त महाराजाधिराज जैसे अलंकृत उपाधियों से अपने को सम्मानित करते थे| पहले सामंतों को मात्र भूमि का राजस्व वसूलने अधिकार दिया गया था| बाद में इन सामंतो ने दैवीय सिद्धांत स्थापित कर उनकी जमीनों पर स्वामित्व
बताने लगे| दैवीय सिद्धांतो के अनुसार सभी भूमि, क्षेत्र, तालाब, वन, चारागाह, पहाड़ – पठार आदि का
स्वामी ईश्वर यानि देवता है| ये सामन्त देव पुत्र घोषित किया
जाने के बाद देवताओं के तथाकथित उतराधिकारी होने के कारण ये स्वाभाविक रूप से इन
भूमि इत्यादि संपदाओं के भी स्वामी होने लगे| इसके
परिणामस्वरुप समाज छोटे- बड़े भुधारी योद्धा सामन्त और कमियाँ किसान (Surf) में विभक्त हो गया| इस तरह कृषको के श्रम का शोषण
सामंतो के विलास एवं वैभव का आधार बन गया| यह व्यवस्था जल्दी
ही जन्म आधारित यानि पुस्तैनी हो गया एवं स्थाई हो गया|
यूरोपियन
इतिहासकार हेनरी पेरिन ने यूरोप में सामंती व्यवस्था के उदय में
इस्लामी आक्रमण और इसके प्रसार को प्रमुख माना है| इनके अनुसार इस्लामी आक्रमण के कारण पश्चिम
का पूरब से चल रहे व्यापार क्रमश: कम होते हुए बंद हो गया और नगरो का पतन होने लगा|
इससे केन्द्रीकृत राजवंशो का पतन होने लगा और मध्यस्थ राजतन्त्र की
आवश्यकता होने लगी| चल- अचल सम्पति के स्थान पर कृषि योग्य
भूमि ही सम्पदा एवं हैसियत का आधार बन गया|
भूमि के बड़े- बड़े क्षेत्रो पर स्वामित्व बनाना ही सामाजिक और आर्थिक
पहचान बनने लगा| इस तरह भू स्वामित्व भी राजनितिक सत्ता का
आधार बनने लगा| व्यापार में ह्रास के कारण ही मुद्रा
की कमी होने लगी क्योंकि मुद्रा अपनी स्वीकार्यता एवं सर्वमान्यता पर
आधारित होता है|
उभरते, बनते एवं मिटते छोटे- बड़े देशों के
कारण मुद्रा के स्वीकार्यता एवं सर्वमान्यता पर विपरीत प्रभाव पड़ा| इससे मुद्रा का ही उपयोग
घटने यानि क़मतर होने लगा|
मुद्रा के कमी आने से सेवाओं का भुगतान स्थानीय कृषि उत्पादों से होने लगा
जो कृषि लगान यानि राजाओ के राजस्व संग्रहण का हिस्सा होता था| इसके मात्रा एवं आयतन के बड़े होने से इसके संग्रहण, परिवहन
एवं भण्डारण की समस्या होने लगा तो इसके संग्रहण करने और इसके सेवाओं के बदले
वितरण करने के लिए स्थानीय दबंगों की जरूरत पड़ने लगी जो स्थानीय सामन्त के रूप मे
उभरने लगे| अब कर्मचारियों तथा सैन्य कर्मियों को उनके सेवाओ
के लिए नगद भुगतान के बदले संगृहीत भू –राजस्व ही दिया जाने
लगा| यह व्यवस्था क्रमश: राजदरबारी, पुरोहित,
लेखक, संगीतज्ञ, चारण,
चिकित्सक एवं अन्य के लिए भी लागू हुआ| भू-
अनुदान के कारण ही दानग्रही को सेवा, आज्ञापालन और
स्वामिभक्ति की शर्तो से बंधना पडा| इस तरह हेनरी पेरिन ने व्यापार, बाज़ार, मुद्रा- ह्रास, और उसका वैकल्पिक व्यवस्था को ही
सामंतवाद के जन्म का कारण माना| सामंतवाद का
प्रारम्भिक लक्षण और आवश्यकताएं यही रही|
कार्ल
मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स ने भी इस सामंती व्यवस्था
की व्याख्या सामाजिक विकास के ऐतिहासिक भौतिकवादी
सिद्धांत के अंतर्गत किया| इसमे
सामंती समाज को दास समाज (प्राचीन समाज) के गर्भ से उत्पन्न एवं उत्पादन की एक नई
और गतिमान पद्धति के रूप में व्याख्यापित किया| पूरब से
व्यापार बाधित होने के कारण यूरोप के बाजारों में कतिपय सामानों की कमी पड़ने लगी|
इसके प्रतिपूर्ति के लिए दास स्वामियों के द्वारा कोई अतिरिक्त
प्रयास नहीं किया जा रहा था| ऐसी स्थिति में आवश्यक कृषि
उत्पादों की अभिवृद्धि और सैन्य शिल्पों सहित
दुसरे सामानों की वैकल्पिक व्यवस्था जरुरी हो गया था| सैन्य-
संभ्रांतों (War –Lords) ने कृषकों और शिल्पियों पर अपना
स्वामित्व स्थापित करने के लिए अपने अपने हैसियतों के अनुसार आपसी सम्बन्ध कायम
किया| इससे सामंती समाज का राजनीतिक ढाँचा और शोषण का दर्शन
उभरने लगा| इसमे धार्मिक संस्था (चर्च- मठ- मन्दिर) बड़ा –बड़ा जागीर पाने के लिए सैन्य- संभ्रांतों को बड़े योद्धायों के हैसियत से
देवत्व के हैसियत तक पहुंचाकर उसके समक्ष लोगों में आत्मसमर्पण की भावना भरने का
जबरदस्त कार्य किया था|
इतिहासकार मार्क ब्लाक ने सामंतवाद को एक ऐसी परिस्थिति माना जिसमे
भू- सम्पदा के अधिकार का विभाजन होना शुरू हुआ| भू- सम्पदा के अधिकतर क्षेत्र पर अधिकार
करने की होड़ ने राजनीतिक सत्ता का विस्तार किया| इस प्रवृति
से अर्थात युद्ध के माहौल में अधीनस्थों को सुरक्षा और ऊपर वालों की अधीनता का
सम्बन्ध विकसित हुआ| इस प्रक्रिया में अर्थात सामंती तंत्र
के विकास में कबीले तंत्र का परिवार तंत्र में विभाजन हुआ| इसके
कारण उनके बीच भूमि पर वर्चस्व के संघर्ष में क्षेत्रिय प्रभुत्व (Local
Chieftanship) या मुखिया तंत्र का विकास एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था|
विरोधियों से सुरक्षा पाने के लिए बड़े योद्धा के आश्रय में जाने की
बाध्यता ने सामंती व्यवस्था में पदानुक्रमण का विकास किया|
इस
तरह सम्राट (सबसे बड़ा योद्धा) के अधीन छोटे- बड़े सामंतों की जमात बन गया जिससे
माहौल अपेक्षाकृत शांतिमय एवं निश्चिन्त हो गया| परिणामस्वरुप छोटा परिवार तंत्र अपने से
बड़े योद्धा तंत्र को सैनिक सहयोग देने, अपनी कृषि उपज का एक
निश्चिन्त भाग पहुँचाने और समय- समय पर सशरीर (स्वयं या परिवार के अन्य सदस्य)
उपस्थित होकर अपनी ओर से नजराना पेश कर अपनी स्वामिभक्ति दिखाने का अभ्यस्त होने
लगे| इस तरह अधीनस्थों को सुरक्षा और इसके बदले में
आज्ञापालन एवं हर तरह से समर्पित रहना सामंतवाद का वैचारिक आधार बना|
इतिहासकार जॉर्ज डुवी ने सामन्तवाद को सिर्फ एक आर्थिक सामाजिक संरचना ही नहीं माना, बल्कि उसे मध्ययुगीन समाज का सम्पूर्ण सांस्कृतिक विचारधारा माना है| प्राचीन समाज में स्वामी के लिए कुछ ही व्यक्ति (दास, गुलाम) काम करता था जो व्यवस्था अब समाप्त हो गया| इससे आजाद लोग एवं
गुलाम के बीच का अंतर समाप्त हो गया| सभी कृषकों और
शिल्पियों को अब ज्यादा शुल्क चुकाना अनिवार्य हो गया| कृषको
को बेगार (बिना किसी पारिश्रमिक के काम करना) करना पड़ता था| सामन्ती व्यवस्था ने पूरे गाँव के सभी लोगों पर अपना बोझ डाल दिया था| तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग यानि पुरोहित एवं धार्मिक संस्था पहले इस नयी
व्यवस्था का विरोध कर सामंतों को अपना महत्व दिखाया और फिर सामंतों को समर्थन देकर करविहीन जागीर पा लिया| फिर ये
भी किसानों का उसी तरह शोषण करने लगे| इन उपादानों के बदले सामन्तों को पुरोहित वर्गो का नैतिक एवं वैचारिक समर्थन मिलने लगा तथा उन सामन्तों के पक्ष में साहित्य एवं शास्त्र की रचना होने लगी| पुरोहित वर्ग, जो
कई सम्प्रदायों के पहले से ही थे, सामन्ती शोषणतंत्र का वैचारिक उपकरण बन गए| इनके अनुसार सामंती समाज में समानता का तो
अंत हुआ ही, आराम (विलासता) एवं कठोर श्रम का वैषम्य के
परकाष्ठा पर पहुँच गया था|
इस
नयी व्यवस्था में समाज चार विभिन्न श्रेणियों में विभक्त हो गया-
1. पुरोहित
वर्ग जो
सामंतो के हित के लिए प्रार्थना करते एवं लोगों को धार्मिक व्याख्या कर उनके
विक्षोभों एवं विरोधों को शांत रखता था| इसके अतिरिक्त वे
अन्य कोई उत्पादक कार्य नहीं करते और आराम करते रहते| 2. सामन्त वर्ग जो कृषको एवं शिल्पियों के सुरक्षा एवं संरक्षण
के नाम पर युद्ध करते और उनके उत्पादों का हिस्सा प्राप्त करते| 3. वणिक वर्ग जो कृषको एवं शिल्पियों के उत्पादों को विनिमय
(Exchange) के
लिए उपलब्ध करता था, हालांकि गाँव आत्मनिर्भर हो गए थे और
इसीलिए इनकी आवश्यकता कतिपय कुछ ही चीजों के लिए ही थी| इसी
कारण कारण कई इतिहासकार इनकी संख्या कम होने के कारण इनके वर्ग की गिनती ही नहीं
करते हैं| 4. कृषक एवं श्रमिक (उत्पादक एवं सेवक) वर्ग जो अपने अतिरिक्त उपरोक्त तीनो
वर्गों को भोजन आदि की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए कृषि एवं पशुपालन करते थे|
सामंती
व्यवस्था ने परिवार का पितृसत्तात्मक स्वरुप को सख्त बना दिया था| संतान एवं पत्नी पिता
की संपत्ति और सेवक माना जाने लगा| इस तरह सारे
सामाजिक नियम, प्रतिरूप, प्रस्थिति और
रीति- रिवाज बदल दिए गए| अब कृषक किसी का स्वामी नहीं रह गया
था| इस
सामंती श्रृंखला में ऊपर वाले को नीचे वालों का शोषण करने का अधिकार एवं नीचे वाले
को ऊपर वालों से शोषित होने की मज़बूरी बन गयी|
सामंती व्यवस्था प्राचीन काल के राज व्यवस्था से भिन्न रूप में विकसित हुआ| पहले
राज व्यवस्था केंद्रित था और राजस्व वसूल कर केन्द्र में जमा होता था| इसके बाद यह राशि केन्द्रीय खजाने से राज्य के वेतन भोगिओ को जाता था| बाज़ार में नगदी के कमी के कारण ही राजस्व वसूली और वितरण की व्यवस्था बदली
जिससे सामंतवाद का जन्म और विकास हुआ| इसमें राजकर्मचारियों एवं सैन्य कर्मियों को वेतनादि देने के लिये बड़े और
प्रभावशाली लोगों को पहले दिए जाने वाले नगद वेतन के बदले हैसियत के अनुसार छोटा - बड़ा भूक्षेत्र (estate या जागीर) दिया जाने लगा| समय के साथ यह अधिकार वंशानुगत होता गया| मुख्य राजाओं को इसके बदले में यथानिर्धारित सेवाएँ मिलती रहती थी|
कालान्तर में ये भूधारी क्षेत्र के भूमि पर अपना स्वामित्व का दावा भी जताने लगे| भूमि के स्वामित्व के दावे को विवादित होने के कारण भू स्वामित्व का दैवीय सिद्धान्त स्थापित किया जिसमें सभी भू क्षेत्रों का स्वामित्व देवताओं का माना गया और यह विवाद समाप्त करने का कारगर उपाय साबित हुआ| ‘सभी भूमि देवताओं की है’ का सिद्धान्त स्थापित होने के बाद सामन्तों को देवपुत्र घोषित किया जाने लगा तथा राजतिलक समारोह में विधिवत देवत्व पाने को मान्यता दी जाने लगी| भारत में पुरोहित वर्ग अपने को देव यानि देवता
ही घोषित कर लिया| पुरोहित वर्ग सामंतों क़े दैवीय अधिकारों की मान्यता देने लगा| इसी के साथ सामंती संस्कृति का उदय हुआ|
ब्रिटिश इतिहासकार पेरी एन्डरसन (1978) ने बताया कि किसानों ने उत्पादन में वृद्धि भी की जिसे (अधिशेष को) सामंत और पुरोहित
कर्मकाण्डों को बढ़ाते हुए हड़पने लगे| किसानों के लिए स्वर्गिक सुख पाने के व्यवहारिक एवं सरल उपाय के सपने दिखाए जाने लगे| सम्पूर्ण राज्य का कार्य उपर से नीचे तक उर्ध्वाकार रूप में विभाजित हो गया| सामाजिक ढाँचा भी इसी के अनुरूप ढ़लता गया और मजबूत हो गया| भारत में जातीय व्यवस्था भी इसी का प्रतिरूप एवं प्रतिलिपि है जो एक उर्ध्वाकार सीढ़ीनुमा ढ़ाँचा बन गया|
इतिहासकार एलिजाबेथ ब्राउन (1974) के अनुसार ‘धर्म, धार्मिक विचार – विश्वास एवं संस्थाएँ’ सामन्तवाद की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता रही है| अधिकतर भारतीय इतिहासकार सामंतवाद के इन पहलुओं को जानबूझकर उपेक्षित कर जाते हैं क्योंकि इनका अध्ययन उनके
जातीय, जो जन्म के आधार पर प्राप्त विशेषाधिकार, हितों के विरूद्ध चला जाता है| इन सामंतवादी विचारों के खिलाफ यूरोपीय समाज धार्मिक संस्थाओं पर व्यवहारिक प्रतिबन्धों को लगाकर ही अपने समाज को विकसित और समृद्ध कर सका| भारत में शासन को सैद्धान्तिक रूप में इन सामंतवादी धार्मिक विचारों से निष्पक्ष बताया जाता है| यही धार्मिक
सामंतवाद कारण है जिससे भारत जैसा संसाधनपूर्ण देश अभी भी तुलनात्मक
विकास में बहुत पीछे है|
सामंतवाद एक साथ किसानों के श्रम पर आधारित उत्पादन की पद्धति, आर्थिक - सामाजिक संरचना, तथा अबाध गति से शासितों के शोषण का दर्शन भी था जो पूरी तरह धार्मिक व्यवस्था से सम्पोषित एवं सुरक्षित था| इसे प्राक् औद्योगिक या प्राक् पूँजीवादी समाज भी कहा जाता है| सामन्तवाद में सम्प्रभुता (Sovereignty) पूरी तरह
उर्ध्वाकार (Vertically) रूप में बँटा होता था| सामन्तों ने समाज के प्रबुद्ध वर्ग जो पुरोहित थे, के साथ समझौता कर लिया, या यों कहें कि गँठजोड़ बना लिया था| ये पुरोहित ही समाज को धार्मिक व्याख्या प्रस्तुत करते थे और इसलिए सारा समुदाय को अनपढ़ एवं गरीब बनाया गया ताकि इनकी धार्मिक व्याख्याओं को सही माना जाय|
यही पुरोहित सामन्तों को देवत्व प्रदान करते थे| यही पुरोहित जन समुदाय के लिए अगले जन्म (जो होता ही नहीं है) में बेहतर सुविधा एवं विशेषाधिकार प्राप्त कराने का आशा दिलाते थे| यही बैद्धिक वर्ग (अधिकतर पुरोहित) इन सामंतो के पक्ष में इस तरह की साहित्य की रचना करने लगे जिसमें सामन्तों में देवत्व की स्थापना की और सामंत को देवताओं का संतान बताया गया| सारी भूमि देवताओं की बतायी गयी और सामंत देवताओं के पुत्र होने के नाते सामंत धरती पर भूमि का वास्तविक मालिक माने जाने की धार्मिक स्वीकृति मिली| सामंत अब राजा भी कहलाने लगा| राजा अपने क्षेत्र के भूमि की ही नहीं, अपितु सभी वासियों एवं सभी संसाधनों का भी स्वामी स्वीकार्य हो गया| पुरोहित चूँकि देवत्व प्रदान करते थे, इसलिए सामाजिक संरचना में राजा से उपर माने गए| क्षेत्रों के स्वामी को क्षेत्रीय कहा गया जो कालान्तर में क्षत्रीय कहलाए| इस शोषण के खिलाफ विद्रोह करना तो दूर की बात थी, मंशा पालना भी पाप और अनिष्ठकारी बताया गया| सामंती व्यवस्था में इस शोषण को भी प्रभु की कृपा एवं परीक्षण का तरीका बताया गया| धर्मशास्त्र में इस शोषण को दैवीय स्वीकृति दे दी गयी|
यहाँ
सामंतवाद को समझाया गया है जो अन्य देशों के शोधों के कारण उपलब्ध है| भारत में इसके आधार पर
सामंतवाद के बौद्धिक संस्कृति के हिन्दू संस्कृति में रूपांतरण को समझने में आसानी
होगी| यह सामंतवाद इस रूपांतरण के हर पक्ष को पूर्णतया
स्पष्ट करता है|
निरंजन सिन्हा
व्यवस्था- विश्लेषक एवं चिन्तक
स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना|
(लेखक
की प्रकाशनाधीन पुस्तक – “
बुद्ध : दर्शन एवं रूपान्तरण ” से)
बहुत सारगर्भित।
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