सोमवार, 17 जनवरी 2022

किसका आन्दोलन, किसका प्रचार?

आज उमेश जी फिर मिल गएहालाँकि मैं उनसे मिलने नहीं गया थामैं तो चाय पीने के लोभ में बनवारी बाबू के यहाँ गया थाउमेश जी वही प्रवचन दे रहे थेवह भाषण था या प्रवचनइस पचड़े में मुझे नहीं पड़नाकुल चार जने बैठे थेमैं पाचवाँ हो गयामुद्दा था कि सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन कैसे आगे बढे? चूँकि विषय बड़ा रोचक और महत्वपूर्ण थामैं भी चुपचाप श्रोता बनकर एक किनारे बैठ गया|

बात सांस्कृतिक एवं धार्मिक ग्रंथो की बुराइयों एवं उसमे दर्ज आपतिजनक प्रसंगों पर चल रही थी| उन आपतिजनक बातों सम्बन्धी आन्दोलनों को चलाने बढ़ाने की बात चल रही थीमुझे बदलाव के तरीके और आन्दोलन चलाने के ढर्रे पर आपत्ति थीपर मैं चुपचाप सुनने के मूड में थाआपत्तिजनक स्वर में आलोचना करना और संघर्ष करना क्या एक मात्र तरीका हो सकता हैस्थापित विद्वानों के बात में बिना समझे खोट निकलना कहाँ की समझदारी हैज्ञानी लोग तो कहते हैं कि वे तुन्हें हथियार उठाने को बाध्य करेंगेपरन्तु तुम कलम को नहीं छोड़नामुझे बढ़िया से याद है|

मैंने पूछ ही दिया – “आपलोग समाज में क्रान्तिकारी सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव करना चाहते हैंतो क्या आपके आन्दोलन की दिशा और प्रक्रिया सही हैआपके आंदोलनों को किस दिशा में मोड़ दिया गया हैकभी आपने सोचा हैया आप भटक तो नहीं गए हैं?”

अटपटा और अप्रत्याशित सवाल पर सब ठिठक गए|

फिर बनवारी बाबू ने बात शुरू किया – ‘'आप कहना क्या चाहते हैंएक आन्दोलन में सम्बंधित लोगो की सहभागिता होती हैऔर वे समुचित बदलाव चाहते हैं|’'

आप सही कह रहे हैं’ - मैंने कहा – ‘लेकिन भटकाव का एक बहुत साधारण उदहारण बाबा साहेब का दे रहा हूँबाबा साहेब ने 1942 में नागपुर में एक सभा में एक नारा – Educate, Agitate, Organise  का दियापरन्तु धूर्त शातिरों ने इसे बदल कर – Educate, Organise, Struggle बना दियाक्या बाबा साहेब को इन दो शब्दों  Agitate और Struggle के भावों एवं अर्थों में अंतर नहीं पता थाऔर इन शातिरों को ज्यादा पता थाजिन्होंने इनके शब्दों को बदल कर अनर्थ कर दियाइसी तरह इनके शब्दों के क्रम को बदल दिया, Organise शब्द को तीसरे क्रम से दूसरे क्रम पर ले आए| नादानों और मूर्खों को तो इसमें कोई अंतर नहीं दिखताअंतर देखने के लिए बाबा साहेब के स्तर को समझना होगाइन आन्दोलनकारियों को सतही अर्थ और निहित अर्थ में कोई अंतर समझ में ही नहीं आताऐसे लोग आन्दोलन को कहाँ ले जा रहे हैंये लोग आन्दोलन चला रहे हैं या किसी  .....  को हांक के ले जा रहे हैंये तो वही तथाकथित नेता समझेंये भावपूर्ण जोशीले भाषण देकर पब्लिक से खूब तालियाँ बजवाते हैंऔर पब्लिक का समयधनउर्जा और जवानी बर्बाद करवाते हैं|’ मैं भी धाराप्रवाह बोलता गयामेरा मूड उखड़ गया था

बनवारी बाबु गौर से सुन रहे थेबोले –‘भई आप तो नई जानकारी दे रहे हैंइससे तो यह साफ दिखता है कि इन आन्दोलनों को इनके विरोधियों ने चुपके से आन्दोलन की दिशा ही में ही उलझा दिया हैये आन्दोलनकारी नेता लोगों को जोश दिखाकर और विरोधियों को गाली देकर आंदोलन को ही दिशाहीन किये हुए हैं|’

मैं तो जोश में थाउसी प्रवाह में अपनी बात को आगे बढाया – ‘आन्दोलन में रणनीति होती है और उसमें समझ होती हैंआन्दोलन में सबकी सहभागिता के लिए प्रचार भी होता हैप्रचार के कई तरीके होते हैंकुछ बातों को इस तरह बोला जाता हैमानो उसका आलोचना हो रहा हैपरन्तु होता उसी विरोधियों का प्रचार हैआपने भी देखा होगा कि कभी- कभी किसी फिल्म के निर्माता या निर्देशक पर उसी फिल्म की हिरोइन कोर्ट में केस करती है कि फिल्म की कहानी में मेरे हाथ छूने की बात थीऔर हीरो ने स्क्रिप्ट से हटकर फिल्म में मेरे गाल को छू दियाफिर इस मानहानि केस के मामले को जानबूझकर मीडिया में डाल दिया जाता हैऔर पब्लिक इस फिल्म को देखने के लिए उमड़ पड़ती हैयह सब इन लोगों की मिलीभगत से होता हैइसमें सामान्य लोगो के मनोविज्ञान की समझ का बारीक़ उपयोग किया जाता है| लोग समझते हैं कि तीखी आलोचना हो रही हैपरन्तु यहां होता है भयंकर प्रचार|’

प्रचार एक मनोवैज्ञानिक साधन है यानि एक सुविचारित प्रक्रिया हैजिसके द्वारा समाज की सोच पर प्रभाव डालकर जनमत को निर्धारित और नियंत्रित किया जाता हैचूँकि यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया हैइसलिए मन ज्यादा महत्वपूर्ण हैदिमाग सेअर्थात भावना (Emotion) ज्यादा महत्वपूर्ण है तर्क (Logic) सेमशीनो के सञ्चालन में तर्क यानि कार्य- कारण महत्वपूर्ण हैभावनाएं तो संचालक समझते हैइसी तरह समाज के सञ्चालन में भावनाएँ महत्वपूर्ण होती हैपरन्तु तर्क (दिमाग) तो उनके संचालक के पास रहते हैं| इसलिए समाज को चेतनअचेतन एवं अधिचेतन तीनों स्तरों पर प्रभाव डाल कर जनमत का नियंत्रण प्रचार का तरीका होता है|

सर मैं आपकी बात को आगे बढ़ाते हुए एक छोटा प्रसंग सुनाना चाहता हूँ’ – मनोहर दयाल बीच में टपक पड़ेये पालि भाषा के अच्छे ज्ञाता भी हैंऔर इसीलिए इनकी बातें सुनने लायक होती हैं| - ‘प्रसंग बहुत पुराना हैप्राचीन काल का हैएक गाँव में एक “एतवारी” नाम का व्यक्ति रहता थाउसे बड़ी इच्छा थी कि लोग उसे ‘बाम्हन’ या ‘बम्हन’ कह कर पुकारें या जानेउस समय प्राकृत एवं पालि ही प्रचलित भाषा थीपालि में ज्ञानीविद्वान को बाम्हन या बम्हन कहा जाता हैयही शब्द सामंत काल में ब्राह्मण हो गया यानि गुणसूचक संज्ञा से जातिसूचक यानि नामसूचक संज्ञा हो गया| उसने इस समस्या के समाधान के लिए अपने एक मित्र से सलाह लियाउस मित्र ने एक उपाय सुझाया कि मैं तुम्हे सबके सामने बाम्हन (ज्ञानीविद्वान) बोलूँगातुम इस बात को लेकर मुझ पर तुरन्त आपत्ति के साथ आपत्तिजनक शब्दों और गाली-गलौज का उपयोग करनाफिर क्या होगा कि लोग तुम्हारे इस व्यवहार पर मजे लेने के लिए तुम्हें इसी नाम से पुकारेंगे और तुम प्रचारित हो जाओगेयही हुआएतवारी अपने गाँव और आसपास के इलाके में बाम्हन यानि ज्ञानी के नाम से प्रसिद्ध हो गया|’ यह प्रचार का नकारात्मक तरीका हैजो चुपचाप और प्रभावी तरीके से काम करता हैइसमें प्रचारक का समयउर्जा और संसाधन भी बच जाता हैक्योंकि इसका प्रचार इसके विरोधी करते हैंप्रचारक तो समझदारी से अपना बात इस तरह से छोड़ देता है कि लोग आलोचना समझ कर इसका प्रचार और प्रसार करता रहता है|’ मनोहर दयाल बड़े पते की बात बता रहे थे और इसलिए सभी गंभीरता से सुन रहे थे|’

बाबूलाल ने कहा – ‘इस कहानी से आप किस आन्दोलन पर निशाना लगा रहे हैं?’

मनोहर दयाल ने स्पष्ट किया – ‘मैं आपको किस एक आन्दोलन का उदहारण दूँइतने बड़े भारत में बहुत सारे ऐसे आन्दोलन हैंवैसे आप कम शातिर नहीं हैंआप समझते सब हैंलेकिन मुझसे उगलवाना चाहते हैंतो मैं कुछ हिंट छोड़ ही देता हूँजरा बताइए कि आप अपना बुद्धि विवेक लगाइयेगा नहींऔर अपने विरोधियों के अध्ययन तथा फेंके गए बातों कोभावों को अपना आधार बना कर लड़ियेगातो वे कभी भी आपको आधारहीन बना देंगे| ई सिम्पल सा बात आप को समझ में आता है कि नहीं जी। आप उनकी आर्यों के आक्रमण की झूठी कहानी को सही मानकर आन्दोलन चला दिएऔर आगे बढ़ गएहुआ क्या? 'आई.आई. टी.खड़गपुर ने स्थापित कर दिया है कि आर्यों की कहानी झूठी हैअब तो इस आधार पर चल रहा आपका आन्दोलन उड़ गया| अपना कुछ विचार ही नहीं हैकोई चिंतन ही नहीं हैविरोधियों से उधार लेने का रिजल्ट यही होना हैयही हाल मूल निवासी का होगाइस अवैज्ञानिक कहानी का भी यही अन्त होगा| “दीपवंश” के नाटक के आधार पर आप पुष्यमित्र को ब्राह्मण बता रहे हैंऔर बौद्धों का हत्याराक्या आपके पास कोई प्रमाणिक साक्ष्य हैजो पुष्यमित्र की इस कहानी को सही साबित करेइस कहानी का भी यही अन्त होगाआप ही बताये कि इन काल्पनिक आधारों पर चल रहा आन्दोलन कब फेल हो जायेगाइनके नेताओं को भी पता नहीं? ऐसा इसलिए होना हैक्योंकि ये सब अवधारणा इनके अपने चिंतन के आधार पर नहीं हैतब आपको पता चलेगा कि इन नेताओं ने कैसे देश के बहुत बड़े मानव संसाधन कोउसकी उर्जा और धन को बर्बाद किया हैऔर अब भी कर रहे हैंकितनी जवानियाँ अपनी रोटी सेंकने में तबाह कर दिया गया?’ अचानक उसने अपने वाणी प्रवाह को रोक दियाहम सब उनकी इन बातों से सन्न रह गए|

लेकिन उमेश जी कुछ और स्पष्ट समझना चाह रहे थेउन्होंने कहा – ‘ये सब बात तो विचारणीय और अति गंभीर हैलेकिन आप बाम्हनबम्हनब्राह्मणज्ञानीविद्वान आदि समझा रहे हैंमैं समझा नहींयह सब आप कहाँ से बोल रहे है यह नई बात|’ सही बात यह थी कि मुझे भी यह सब समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु मैं अपनी प्रतिष्ठा में चुपचाप थाबेबाक उमेश जी ने ठीक ही सवाल दागा|`    

मनोहर दयाल बताने लगे – ‘आप राजीव पटेल की सम्यक प्रकाशननई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक – “भ्रम का पुलिंदा” को पढ़िएउसमे उन्होंने अशोक के चतुर्थ शिलालेख का फोटो देकर और बम्ही (तथाकथित ब्राह्मी) लिपि में लिखकर उस अभिलेख के लेखन को स्पष्ट किया हैकि यह ”बाम्हन और समणा” शब्द हैंनहीं कि ब्राह्मण और श्रमण शब्द थे|  पालि में “” अक्षर के संयुक्ताक्षर नहीं होते थेराजीव जी तथ्यों को तर्क के साथ समझाते हैं|’

मैंने टोका कि हमलोग “आन्दोलनप्रचार और भटकाव” के मुद्दे पर थेइसलिए ट्रैक पर रहिए|

चूँकि शुरू में बात हो रही थी कि वेदपुराण और मनुस्मृतिआदि में क्या-क्या आपतिजनक हैंइन विषयों पर विशद और विद्वतापूर्ण आख्यान चल रहे थेमैंने पूछा कि क्या आपको कुरान शरीफ और बाइबिल में आपत्तिजनक बाते नहीं दिखती हैं?

उन लोगों ने बताया – ‘वे लोग दूसरे धर्मों के ग्रन्थ पढ़ें ही नहीं हैंऔर इसीलिए उनमे क्या आपत्तिजनक हैनहीं जानते हैं|

कोई भी उन्हीं धर्म ग्रंथो को पढ़ता हैजिस धर्म में उसकी आस्था होती है|’

 मैंने कहा –

क्या इसका मतलब यह है कि

आप लोग इन वेदोंपुराणों और मनुस्मृति में आस्था रखते हैं,

और इसीलिए आपलोग इसे पढ़ते है?

आपलोग इसको पढ़ते हैं और इसमें कमियाँ निकलते हैंइसका अर्थ यह हुआ कि आप इन ग्रंथों को सही मानते हैंऔर इसमें गहरी आस्था रखते हैं। तभी इसकी कमियाँ निकलते हैंतभी इसके आधार पर आन्दोलन चलाते हैंऔर इसके नकारात्मक बातों को उभार कर इसका पूरा प्रचार करते हैं| क्या यह भी ऊपर वाली फ़िल्मी किस्से की तरह नकारात्मक प्रचार का उदहारण नहीं हैआप इसका विरोध कर इसके नकारात्मक प्रचार के द्वारा इसका ही पूरा प्रचार किए जा रहे हैंतो क्या ये ग्रंथ बदल जाएंगे?  जिन नीतियों मेंजिन आदर्शों में और जिन आस्थाओं में आपलोग विश्वास करते हैंउसको लेकर ही अपने आन्दोलन क्यों नहीं चलातेनकारात्मक मुद्दों पर आन्दोलन तो तमाशबीन चलाते हैंक्योंकि इस पर तालियाँ खूब बजती हैभले समाज का कोई प्रोग्रेस हो या नहीं होकोई भला हो या नहीं|’

जनता तमाशबीन होती हैइसीलिए तमाशा नौटंकी में खूब तालियाँ बजती हैंइसी कारण तो प्रचार तमाशा के रूप में ज्यादा प्रभावी होता हैइन प्रचारों में यानि तमाशों में अज्ञानता के अलावे डर और कमजोरियों का खूब दोहन किया जाता है|

अगला सवाल स्वाभाविक था कि तब हमें क्या करना चाहिए?

फिर मनोहर दयाल ने मोर्चा सम्हाला – हमें अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार खोजना चाहिए और उन तत्वों की सही बुनियाद जानना चाहिए जिस पर हमारी संस्कृति टिकी हुई है| भारत में संस्कृतियों को क्रमश: तीन चरणों में यथा बौद्धिक संस्कृतिसामन्ती संस्कृति और वर्तमान वैज्ञानिक संस्कृति में बांटा जाना चाहिएयह भारत की तीन सांस्कृतिक अवस्थाएं हैजिसे भारतीय संस्कृति कहना चाहिएप्रसिद्ध इतिहासकार आर्थर लेवेलिन बाशम ने तो अद्भुत भारत में संस्कृति की एक नई अवधारणा दिया और वैदिक संस्कृति तथा ब्राह्मणी संस्कृति को अलग अलग रखा हैयहां तो संस्कृतियों का भी एजेंडा के अनुसार अपहरण किया जा रहा है। अब हमें तय करना है कि हमारी मौलिकपुरातन और सनातन संस्कृति कौन है?’ हमें यह भी तय करना है कि हमलोग ऐतिहासिक रूप में वर्ण व्यवस्था में रहे हैं या वर्ण व्यवस्था से बाहरयदि हमलोग अवर्ण हैंतो जबरदस्ती वर्ण व्यवस्था में घुसने को बेताब क्यों हैं?

मैंने पूछ ही लिया कि संस्कृति में मौलिकतापुरातनता और सनातनता की खोज और पहचान कैसे होगी?

मनोहर दयाल का कहना हुआ कि हमें सभी के प्रमाणिक साक्ष्य चाहिएइसमें सबसे प्रमुख स्थान पुरातात्विक साक्ष्य का हैयदि पुरातात्विक प्रमाण पर्याप्त नहीं हैतो विदेशों में उपलब्ध साहित्य को भी समझना चाहिएभारत में अब कोई प्रमाणिक पुरातन साहित्यिक साक्ष्य नहीं हैभारत के पुरातन साहित्यिक प्रमाण को तो सामन्तों ने जलाकर नष्ट कर दियावर्तमान सभी भारतीय साहित्यिक साक्ष्य तो दसवीं शताब्दी के बाद एक निश्चित एजेंडा के तहत मनमाने ढंग से लिखा गया हैयह सब कागज के भारत आने के बाद देवनागरी लिपि में लिखे गए हैं और इसीलिए इनमे से कोई भी साहित्य प्रमाणिक और प्राचीन काल का नहीं हैइसके तथाकथित पुरातन साहित्यों के तो कोई प्रमाणिक पुरातात्विक साक्ष्य अब तक नहीं मिले हैं|

मैंने फिर टोका कि हम लोग “आन्दोलनप्रचार और भटकाव” के मुद्दे पर थेइसलिए ट्रैक पर रहिए|

बनवारी बाबू बार-बार घड़ी देख रहे थेसमय लम्बा खींच चुका थासबने इसे इशारों में समझाचाय भी समाप्त हो चुकी थीअगली बैठक में इसे और साफ़ करने पर मूक सहमति बनी|

मैं सोचने लगा कि कैसे नेता लोग अपने तथाकथित समाज के तथाकथित दुश्मनों को गाली देकर और खुले आम आलोचना करके अपने समाज के तथाकथित दुश्मनों के मुद्दे का प्रचार करते हैंये नेता अपने तथाकथित समाज को कुछ भी सकारात्मक नहीं करने देकर उसे नकारात्मक एवं अनुपयोगी मुद्दों में  उलझाये रखते हैं या रोके रखते हैंसाधारण लोग समझते हैं कि ये तथाकथित नेता इनके लिए कितना जुनूनी और जुझारू हैंलोग समझते हैं कि ये नेता अपना समय और अपना सर्वस्व लगा कर हमारे लिए लगे रहते हैंअब तक मैं भी यही सोच रहा था|

तो क्या ये नेता अपने तथाकथित समाज के तथाकथित दुश्मनों के ही एजेंट और उपकरण हैंजो हमारी बातों को मनगढ़ंत ढंग से बिना सोचे समझे आगे रख कर हमारी भावनाओं से ही खेलते हैं? ये नेता भारत के बहुसंख्यक आबादी को नीच वंश का और कार्य का बता कर इन लोगो का और समूचे देश का मनोबल तोड़ रहे हैंगिरा रहे हैं| पता नहीं ये नेता वास्तव में धूर्त हैं या मूर्ख?  शायद इसीलिए इनके तथाकथित समाज और यह देश आगे ढंग से बढ़ नहीं पाताशायद इसीलिए यह विशाल गौरवशाली देश अपने अतीत और अपने वर्तमान को देखकर उदास हो गया हैशायद जनता को इस भारत की उदासी समझ में आए और भारत का भाग्य करवट ले!

मैं सोचने लगा - दुनिया की तमाम यथास्थितिवादी व्यवस्था तो चाहती है कि लोगों का पेट खाली रहेक्योंकि खाली पेट का दिमाग ठप रहता हैआदमी का दिमाग कभी खाली नहीं बैठताइसलिए उसके समय कोउसके धन को और उसके दिमाग को सदैव उलझाये रखा जाता हैउलझाने की प्रक्रिया ऐसी होती है कि उसमे उसका समयधन और जवानी भी उलझी रहे और उनलोगों को कुछ समझ भी नहीं आए| इस तरह ये लोग समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच पाते हैं और यथास्थितिवादी व्यवस्था को यथास्थितिवाद बनाए रखने में सहूलिअत होती है|

शायद भारत का शक्तिशाली वर्ग

आज़  भारत को ही परास्त करने के मुहिम में लगा हुआ है|

क्योंकि सबको साथ लेकर चलने की कहीं कोई बात नहीं हो रही,

सब जगह सब अपने ही एक दूसरे को पछाड़ने में लगे हुए हैं|

पहले कोई चिंता की बात नहीं थीक्योंकि पहले विश्व एक वैश्विक गाँव नहीं थालेकिन अब  भारत  उसका एक टोला बन गया हैअब विश्व की शातिर बाज की निगाहें भारत पर झपट्टा मारने को आतुर और चौकन्नी हैं| भारत के बाद स्वतंत्र हुआ पड़ोसी देश चीन भारत की अर्थव्यवस्था से सात गुना बड़ा हो गया हैभारत भी अपनी इस अवस्था पर चिंतित हैसब को इस पर विचार करना चाहिए|

(आप मेरे अन्य आलेख  niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

 निरंजन सिन्हा

 

 

 

शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का छिपा हुआ इतिहास (The Hidden History Of SC & ST)

हमें तथाकथित अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के वास्तविक इतिहास को जानना और समझना चाहिए| तो यहां स्वाभाविक तौर पर आपके दिमाग में यह बात अवश्य उठेगी किक्या अब तक इनके बारे में लिखा हुआ इतिहास झूठा हैया अपूर्ण हैक्या आपको लगता है कि एक शिकारी कभी भी अपने शिकार का इतिहास सम्यक एवं सच्चा स्वरुप में लिख सकता है? तो इसका जवाब हैबिल्कुल नहीं। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को 'ऐतिहासिक काल' (Historical Period) में समाजसम्पत्तिसम्मानसमानताशिक्षातथा सत्ता इत्यादि कई आधारभूत मानवीय आयामों से जानबूझकर वंचित कर दिया गया| इसका नतीजा यह हुआ किये लोग अपने वास्तविक इतिहास को ही भूल गए हैं| शिकारियों (Poachers) ने इनके मानस पटल पर अपने हितों के अनुरूप झूठे और काल्पनिक इतिहास की एक मोटी परत स्थापित कर दी| और इस इतिहास बोध (Perception of History) के माध्यम से यह सुनिश्चित किया कि ये निरन्तर हीनता बोध से ग्रस्त रहेंताकि ये लोग कभी भी उनके या उनकी आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरा न बनने पायें। अब यदि ये लोग अपने इतिहास लेखन का कुछ प्रयास भी शुरू किये हैंतो विडंबना यह है कि ये लोग अपने शातिर शिकारियों द्वारा प्रतिपादित अप्रमाणिक एवं भ्रमपूर्ण अवधारणाओंविचारों एवं प्रक्रिया विधियों में ही उलझ कर दिशाहीन हो गए हैंकोई भी कभी भीखासकर आज के सूचनाओं के युग मेंअपने विरोधियों की अवधारणाओंविचारों एवं विधियों की सहायता या उपयोग से अपने विरोधियों को परास्त नहीं कर सकताजैसे कि आज किसी भी आधुनिक हथियार को हम उसके उत्पादनकर्ता एवं आपूर्तिकर्ता के विरुद्ध उपयोग नहीं कर सकतेक्योंकि कई सेंसरों (Sensors) के द्वारा उनका गोपनीय नियंत्रण उन हथियारों पर उन उत्पादकों का होता हैऔर वह काफी गोपनीय होता है|

जब अतीत व्यतीत होकर नष्ट नहीं होता और वर्तमान में अपने मौलिक स्वरूप को कई रूपों में स्पष्ट करता रहता हैतो किसी भी वर्त्तमान को सम्यक ढंग से समझने एवं विश्लेषण करने के लिए हमें उसका इतिहास यानि उसके अतीत को मूल रूप मेंगहराई से एवं सही तरह से जानना एवं समझना होगा| 'वर्तमानसदैव उसके अतीत के पूर्वजों के सचेत एवं अचेत विचारोंकर्मोएवं मान्यताओं का परिणाम होता है। परन्तु आज के यह लोग तो अपने अचेत को बिल्कुल जानते ही नहीं हैंऔर इनका सचेत भी गलत व्याख्याओं में झूल रहा है| समाज बोध और राष्ट्र बोध किसी समाज का यानि किसी हिस्से का उसके अतीत एवं वर्तमान की सामूहिक स्मृति है| इनके समाज बोध एवं राष्ट्र बोध को दुरुस्त करने के लिए हमें इन लोगों के अतीत और वर्तमान को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखना एवं समझना होगाकिसी का भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ही उसका इतिहास बोध बनता है, और वही इतिहास बोध उनमे और उनके राष्ट्र में उमंग पैदा करता हैयह वास्तविक इतिहास ही किसी समाज और उसके लोगों को गर्व करने लायक प्रेरणा देता हैऔर उस गर्व भरे उमंग से वह समाज एवं राष्ट्र मानव जीवन की बहुआयामी ऊंचाईयां छूता हैकिसी भी इतिहास का उद्देश्य समाज और राष्ट्र का विकास एवं संवर्धन होता हैपराजित एवं निम्न मानसिकता किसी भी समाज एवं राष्ट्र की सारी उर्जा एवं उमंग को नकारात्मक बनाती हैऔर उसका परिणाम बहुत भयावह होता है| इसीलिए भारत देश के वास्तविक व्यापक हित मेंमैं देश के एक चौथाई हिस्से (सम्पूर्ण आबादी का एक चौथाई) का वास्तविक इतिहास लिखने को प्रेरित हुआ हूंयह चौथा हिस्सा एक चार पहिये के संतुलित एवं सक्षम वाहन के एक पहिये के समान हैजिसकी उपेक्षा के कारण यह वाहन रूपी महान देश शताब्दियों से घिसटने को  मजबूर है|

मैं इनके संवैधानिक प्रावधान (Provision) एवं व्यवस्था (Implementation system), विभेद (Discrimination) एवं पूर्वाग्रह (Prejudice), भिन्नता (Difference) एवं असमानता (Un equality), और इनके प्रति रूढ़िबद्ध धारणाओं (Stereotype Images) के बारे में कुछ नहीं लिखना चाहता हूँक्योंकि इस संबंध में आप मुझसे ज्यादा एवं अपेक्षित जानकारी रखते हैंआप भी जानते हैं कि अनुसूचित जातियाँ वे सामाजिक समुदाय हैंजिसे भारतीय संविधान की धारा- 341 के अन्तर्गत सूचीबद्ध किया हुआ हैएवं अनुसूचित जनजातियाँ वे सामाजिक समुदाय हैं जिसे भारतीय संविधान की धारा- 342 के अन्तर्गत सूचीबद्ध किया हुआ हैश्रीमती रूजवेल्ट (Eleanor Rooseveltअमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट की पत्नी) कहती हैं कि अच्छे विचारक विचारों एवं नीतियों (Thought n Policy) की बात करते हैंजबकि निम्न एवं माध्यम सोच के लोग व्यक्तियों एवं घटनाओं का विशद वर्णन करते हैं| इसीलिए मैं किन्हीं घटनाओं एवं व्यक्तियों का वर्णन नहीं कर विषय संबंधी यथोचित एवं मौलिक बात तक ही  सीमित रहूँगा|

इन सामाजिक वर्गों के इतिहासकार इनका इतिहास” (History) लिखने की कोशिश तो करते हैं या लिख भी देते हैंपरन्तु इतिहास के विकास एवं क्रियाविधि के वैज्ञानिक लेखन” (Historiography) पर ध्यान ही नहीं देते हैंइन दोनों के गहरे अर्थ एवं भिन्नता को ध्यान से समझा जायइतिहास के विकास एवं क्रियाविधि के वैज्ञानिक लेखन” (Historiography) को नहीं समझने के कारण ही इन वर्गों के अधिकतर या कतिपय लेखक उन अवधारणाओंविचारों एवं मान्यताओं का ही उपयोग करने लगते हैंजो दिखते तो हैं इन वर्गों के हितों के अनुरूपपरन्तु परिणाम में इनके ही मौलिक हितों के विरुद्ध जाते हैंपरिणाम यह होता है कि ये शातिर शिकारियों के बौद्धिक जाल में उलझ जाते हैंऔर इनको भ्रम वश यह प्रतीत होता है कि ये अब मंजिल के बिल्कुल नजदीक हैंइस तरह दशक ही नहींसदियाँ बीत जाती हैंराजनीति के चेहरे बदलते जाते हैंलेकिन इनकी स्थिति में कोई बहुत परिवर्तन नही होता है|

 यह बात मुझे इसलिए लिखनी पड़ रही है क्योंकि मुझे स्विस (Swiss) भाषाविज्ञानी फर्डिनांड डी. सौसुरे (Ferdinand de Saussure) याद आ गएइन्होने लिखावट के शब्दों एवं वाक्यों को समझने के तरीकों को बदल दिएइनके अनुसार किसी भी शब्द के अर्थ का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, बल्कि उसका अर्थ उसके सन्दर्भ तथा अन्य शब्दों एवं वाक्यों के साथ उसके सम्बन्ध द्वारा निर्धारित होता हैइस तरह किसी भी शब्द एवं वाक्य का अर्थ उसके पारिस्थितिकी (समय,  स्थानकालक्रमपरिस्थिति) के सन्दर्भ में होता है| इसीलिए किसी भी शब्द को सही ढंग से समझने के लिए उस पूरे लिखावट कोउसके प्रतिरूप (Pattern) कोउस कालक्रम (Chronology) कोउसकी तत्कालीन परिस्थिति (Situation) कोऔर उसकी संपूर्ण पारिस्थितिकी (Ecology) को समझना होगाइस तरह किसी भी शब्द का सतही अर्थ (Superficial Meaning) भी हुआ और उसका अन्तर्निहित वास्तविक अर्थ (Underlying Meaning) भी हुआअत: हमें किसी भी शब्द के सतही और अन्तर्निहित अर्थ की भिन्नता को समझना होगा, अन्यथा लेखक के कुटिल उद्देश्यों में उलझ कर रह जायेंगेवैसे इतिहास लेखन को बेहतर ढंग से समझने के लिए एडवर्ड हैलेट कार की पुस्तक इतिहास क्या है (What is History)” भी अवश्य देखना चाहिए|

भारत में स्थापित संस्कृति के विदेशी शासकोके पक्ष में अपने को साबित करने के लिए आर्यों की कहानी गढ़ी गयी, जिसकी आज लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में कोई उपयोगिता नहीं होने के कारण आई.आई. टी.खड़गपुर की टीम द्वारा इसे गलत घोषित कर दिया गया है| भारत के प्राचीन इतिहास में अब यह पूर्णतया स्थापित हो चुका हैकि वैदिक संस्कृति का इतिहास (देखें - प्रो रामशरण शर्मा की पुस्तक – भारत का प्राचीन इतिहास) महज एक गढ़ा गया मिथक हैयानि कल्पित कहानी है| वैदिक संस्कृति के बहाने वर्ण व्यवस्था को पुरातन, सनातन एवं ऐतिहासिक साबित करने की कोशिश की गयी थी, जो अब गलत साबित हो चुकी है|  इन कहानियों में वर्णित बातों के पक्ष में यदि आप प्रमाणिक पुरातात्विक साक्ष्य खोजेंगे या समकालीन विदेशी साहित्यों में कोई प्रमाण खोजेंगेतो आपको कभी नहीं मिलेंगे| इसके साथ ही संस्कृत भाषा की तथाकथित महिमा मंडित पौराणिकता (प्राचीनता) का मिथ (Myth) भी अब स्पष्ट रूप से उजागर हो गया है। इस संबंध में एक ध्यान देने योग्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि "वर्ण एवं जाति" की उत्पत्ति एवं उसका संवर्धन काल मध्यकाल में स्पष्ट रूप से स्थापित हो चुका है। जब इतिहास की व्याख्या आधारभूत आर्थिक शक्तियों अर्थात उत्पादनवितरणविनिमय एवं उपभोग के कारकों के व्यापक संदर्भ में किया जाता हैतो सब कुछ स्वत: स्पष्ट हो जाता है| उपरोक्त के संदर्भ में यदि देखा जाए तो हम पाते हैं कि, 'प्राचीन भारतमें सभ्यता एवं संस्कृति का बौद्धिक विकास हो रहा थाजबकि 'मध्य कालसामन्तवाद के विकास एवं संवर्धन का काल रहा|

सामन्तकाल में समानता का अन्त होने लगाऔर सामन्ती वर्गों का उदय होने लगायह मध्य काल का प्रारंभ था'बौद्धिक संस्कृति का समाज न्यायसमानतास्वतंत्रता एवं बंधुत्व पर आधारित थाजबकि सामन्तीकाल में इन्ही तत्वों का ही विरोध था| ऐसी परिस्थितियों में भारत उस समय दो समूहों में बंट गयाएक समूह वर्ण व्यवस्था पर आधारित थावर्ण के साथ जो व्यवस्था बनीवह सवर्ण व्यवस्था कहलायीऔर यह व्यवस्था सामन्ती व्यवस्था के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रही| दूसरा समूह 'अवर्ण व्यवस्था' वाला कहलायाजो 'वर्ण व्यवस्थावाले ढांचे  से बाहर रहा| सवर्ण व्यवस्था पदानुक्रम (Hierarchy) पर आधारित थी और इसीलिए उसमें उर्घ्वाकार (Vertical) विभाजन हुआअवर्ण व्यवस्था में पदानुक्रम नहीं थाऔर इसीलिए यह क्षैतिज (Horizontal) विभाजन की व्यवस्था हुई| सवर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य एवं शूद्रऐसे चार सामाजिक समूह हुएशूद्र इस व्यवस्था में निजी यानि व्यक्तिगत सेवक रहेजो ब्रिटिश काल में सामन्ती व्यवस्था के ढहते ही लुप्त हो गएअवर्णों में भी चार समूह हुए -

पहला - जो वस्तुओं के उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता थे (किसानपशुपालक, शिल्पकार आदि एवं अन्य सेवा देने वाले लोग),

दूसरा – जो विदेशों में उत्पन्न धर्मों के अनुयायी थे (मुसलमानईसाईइत्यादि),

तीसरा – जो जंगलों एवं दूरस्थ क्षेत्रो के निवासी थे (जनजातीय लोग)एवं

चौथा – जिन्हें अछूत (अनुसूचित जाति यानि दलित) कहा जाता है|

वर्णवादी समुदाय में चौथे समूह में आने वाले शूद्रों की संख्या हमेशा ही बिल्कुल नगण्य रहीजो कि प्राकृतिक आर्थिक कसौटियों के अनुरूप ऐसा होना स्वाभाविक भी था। कुछ लोगों का ऐसा मानना है किआज तो लोकतंत्रीकरण के प्रभाव में निहित स्वार्थों द्वारा अवर्णों को भी शूद्र बनाया यानि कि बताया जा रहा हैताकि लोकतंत्रात्मिक व्यवस्था में सवर्ण समुदाय जो कि भारत में मूलतः एक अल्प संख्यक समुदाय हैराजनीतिक तौर पर अल्प संख्या में नहीं रह जाय,और अपना अर्जित किया हुआ सब कुछ वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक रूप से  अप्रासंगिक हो कर खो न बैठें।

इस तरह हम देखते हैं कि सामन्ती वर्ग के विरुद्ध भारत में अवर्णों की आबादी बहुत बड़ी थी| अब यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि सामन्ती व्यवस्था के प्रारंभ के समय लगभग सभी लोग 'बौद्धिक संस्कृतिके अनुयायी थेजब सामंतो ने समानता का अन्त करना चाहाऔर उसे जन्म के वंश से जोड़ना चाहातो उसका विरोध होने लगा| यह तय है कि किसी भी समाज में सब लड़ाके (Fighter or Warrior) नहीं होते या हो सकतेइन अवर्णों की सुरक्षा एवं संरक्षा में इनके ही परिवार के कुछ लड़ाके  ग्रामीण समाज के सीमांतों पर और सीमांतों के पार चले गए| यहां ध्यान देने की जरूरत है कि किसी क्षेत्र (Area) के सीमांत (Frontier) उसकी सीमा (Boundary) नहीं होते हैं। सीमांत वह प्राकृतिक भौगोलिक प्रदेश होते हैंजो एक राज्य की प्राकृतिक सीमा निर्धारित करते थेसीमांत एक पुरातन अवधारणा है| पहले आबादी महत्वपूर्ण होती थेन कि जंगलपहाड़ एवं पहाड़ी क्षेत्र। सीमा एक आधुनिक अवधारणा है। सीमांत प्रदेश अपनी भौगोलिक विविधता के कारण लड़ाकों को सामन्तों की नजरों से बचाए रखने में ज्यादा कारगर साबित हुए। बाद के कालों में ये लड़ाके गाँवों की सीमा पर भी आ गए या बस गए। कालांतर में सीमांतों पर रहने वाले ये योद्धा अछूत बनाये गए और सीमांतों के पार दूरस्थ इलाकों एवं जंगलों में रहने वाले ये योद्धा जनजाति कहलाए|

इन लड़ाकों को सामन्ती सैन्य शक्तियों से लड़ने और उन सैन्य शक्तियों पर गोरिल्ला आक्रमण करने के लिए सीमांतों पर एवं सीमान्तो के पार रहना पड़ता था। इस तरह अवर्ण समाज के यह "पवित्र योद्धा" (Sacred Warriors) यानि बृहत् सामाजिक हितों के लड़ाके सदैव सामन्ती शक्तियों के निशाने पर रहे। कालान्तर में इस तरह ये समाज के मुख्य धारा से दूर रहे और दूर होते गए। इन्हें समाज से कटना पड़ासम्मानसमतासत्तासम्पत्ति एवं शिक्षा से भी वंचित होना पड़ा। कालांतर में सामंतों के दबाव मेंकाल की परिस्थिति मेंऔर नहीं झुकने के हठ में इन लोगों ने सामन्ती व्यवस्था से दूरी बनाये रखा और अपने सामर्थ्य तक लड़ते रहे और निरंतर विरोध करते रहे। इन्हीं लड़ाकों में सबसे ज्यादा हठी स्वभाव वालों को दुसाध्य (जिसको साधना दुरूह था) यानि दुसाध कहा गयाजिसे आजकल जातीय व्यवस्था के खांचे में 'पासवानभी कहते हैं। इनका लड़ाकापन आज भी पहले के ही जैसा जीवंत है। वर्तमान भंगी जाति भी अक्सर सामन्ती नियमों एवं व्यवस्थाओं को भंग करता रहाजिसके कारण सामंतों ने उनके जीवित रहने की शर्त को घृणास्पद बना दिया। इसी प्रकार कुछ कट्टर बौद्ध अनुयायी मृत जानवारों को ही मांसाहार के लिए उपयुक्त मानते रहेसाथ ही चर्म उपयोग के लिए जानवरों के खाल भी उतार लेते थे। ये कट्टर बौद्ध अनुयायी तथा बहुजन अवर्ण समाज के हित में सामन्ती शक्तियों से अंत तक लड़ने वाले लोग चमार कहलाएइन अवर्ण समाज के कतिपय पवित्र योद्धाजो सामंतों के विरुद्ध जिद्दी एवं हठी रहे और उनसे कोई समझौता नहीं करने को तैयार हुएअपने जीवनयापन के लिए खाली खेतों में मुस (खेतों के चूहा को मुस यानि Rat तथा घरों के चूहा को चूहा यानि Mice,  Mouse कहते हैं) को पौष्टिक आहर के लिए भी खोजते थेआज मुसहर (मुस अर्थात चूहा को हरने वाला) कहलाते हैं। ये कभी न हार मानने वाले अवर्ण समाज के कुछ उन संघर्षशील समूहों के उदहारण हैंजो बहुसंख्यक अवर्ण समुदाय के सामूहिक हितों के 'पवित्र योद्धारहे। अभी इस संबंध में बहुत कुछ खोज होना बाकी हैये तो बस एक प्रदेश से शुरुआत है। कालांतर में ये संघर्षशील समूह वृहद् अवर्ण समुदाय से अपने वास्तविक संबंधों तथा अपने निर्वासन के कारणों एवं उद्देश्यों को धीरे-धीरे भूलते गए और बहुसंख्यक समाज (मुख्य धारा वाले समाज) से दूर भी होते गए।

"इतिहास का गुरुत्वीय ताल" (Gravitational Lensing of History) अवधारणा के उपयोग के बिना इतिहास के तत्कालीन सामाजिकसांस्कृतिकभौगोलिक एवं जनसांख्यिक परिदृश्य को नहीं समझा जा सकता है। यह अवधारणा भले ही भौतिकी की हैऔर भारी एवं बड़े आकाशीय पिंडों के गुरुत्व प्रभाव में कई चीजों को समझने एवं समझाने में सहायक होती हैलेकिन यह अवधारणा यहां इतिहास एवं मानव विकास संबंधी विज्ञानों में भी उतनी ही उपयोगी है। यदि आप इस अवधारणा कावर्तमान सभ्यता-संस्कृति के इकोसिस्टम में बैठकरप्राचीन कालीन इतिहास के व्याख्यापन में ध्यान में रखते हैंतो आपको उस समय कालभौगोलिक परिदृश्यतत्कालीन जनसांख्यिक स्थिति (कम आबादी)एवं तत्कालीन सामाजिक सांस्कृतिक राजनीतिक परिदृश्य को वास्तविक रूप में बिल्कुल नजदीक से समझने का अवसर मिलेगा और आप वास्तविक इतिहास के करीब पहुँच सकेंगे। यदि आप इस अवधारणा का ध्यान नहीं रखेंगे तो आपका दृष्टिकोण और आपकी समझ बड़ी ही आसानी से वर्तमान कालीन सुविकसित सभ्यता-संस्कृति के "ग्रेविटेशनल लेंसिंग" का शिकार होकर भूतकालीन वास्तविक स्थितियों के सही आकलन में सर्वथा असमर्थ होगी। इसके बिना आप बड़ी ही आसानी से गलत निष्कर्षों और काल्पनिक स्थापनाओं का सृजन कर बैठेंगे। इसी तरह इतिहास लेखकों की सामंतवादी मानसिकता की छाप समझने के लिए "इतिहास का जडत्वीय सांदर्भिक ढांचा" (Inertial Reference Frame of History) का अध्ययन कर सकते हैं। इतिहास के इन दोनों अवधारणाओं को लेखक (निरंजन सिन्हा) ने स्वयं दिया है।

जाति एवं वर्ण को पुरातनसनातन और ऐतिहासिक बनाने के लिए आर्यों की कहानी के साथ उन्होंने प्राचीन भारतीय "बौद्धिक संस्कृति" के ग्रंथों के आधार पर तथाकथित वैदिक संस्कृति की कहानी बनाईऔर उन प्राचीन ग्रंथों को शिक्षण संस्थानों एवं पुस्तकालयों के साथ-साथ नष्ट कर दिया गयाताकि कालान्तर में लोगों को सच्चाई का पता न चल सके। अवर्ण समुदाय के जो लोग गाँवों में वस्तुओं के उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता बने रहेउनकी दुर्दशा इन लड़ाको जैसी नहीं हुईअर्थात इन्हें सम्मान एवं सम्पत्ति का वैसा नुकसान नहीं हुआ। इसी तरह  उत्पादक समाज का एक वर्ग नादब” (नहीं दबने वाला - कालांतर में यादव या जादब) अपने पशुओं के साथ अलग रहने लगा, जिसका पुरुष वर्ग अपने पशुओं के साथ चरागाहोंवनों एवं खाली खेतों में अधिकतर समय व्यतीत करता था। सामन्ती शक्तियाँ भी इनके लड़ाकापन के कारणइनके संख्या बल के कारणऔर वीरान एवं दूरस्थ निर्जन क्षेत्रों में इनकी उपस्थिति के कारण इनसे उलझने से बचती रहींशायद उन्हें इनके साथ उलझने का अच्छा अनुभव नहीं रहा होगा। आज भी सामन्ती शक्तियां इनसे प्रत्यक्ष उलझना नहीं चाहतीबल्कि उलझने के लिए उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से साजिश रचनी पड़ती है।

यह ध्यान रखने की बात है किभारत में मुसलमानों एवं ईसाईयों की संख्या में अधिकांशतः मूल रूप से अन्य भारतीयों की तरह ही बौद्धिक संस्कृति के अनुयायी ही थे। इनकी अधिकतर आबादी भी भारत के नव-सामन्ती व्यवस्था की विरोधी रही। कहने का तात्पर्य यह है किबहुजन हितों के कतिपय जुझारू लड़ाकों ने अपना सब कुछ यानि समाजसमानतासम्मान सम्पति खो देने के बादमुस्लिम शासकों के समय अपनी धार्मिक आस्था बदलकर इन छोटे सामंतों के आतंक से बचने का रास्ता चुन लिया। यह दूसरी श्रेणी के लोग और कोई नहींबल्कि आज के बहुसंख्यक मुसलमान हैंइसी तरह सामन्ती वर्गों की सामाजिक उपेक्षाओं के कारण बहुत से लोग ब्रिटिश काल में ईसाई भी बन गए।

आज उपरोक्त वर्णित अवर्ण बहुजन समुदाय के ये हिस्से (अर्थात एस.सी.-एस.टी. और माइनारिटी)  अपना वास्तविक इतिहास भूल गए हैं। आज कुछ धूर्तों के कारण और कुछ नादानों के प्रयास में शब्दों के सतही अर्थ और निहित अर्थ में अन्तर नहीं समझने के कारण वृहद् अवर्ण समुदाय के ये विभिन्न समूह अपना धनसंसाधनसमयउर्जा एवं जवानी को गलत दिशा में जाया कर रहे हैं। आज आवश्यकता हैकि इनके ऐतिहासिकगौरवपूर्ण एवं परम त्यागमय "पवित्र उद्देश्य" को रेखांकित करते हुए इनका सही एवं सम्यक इतिहास लिखा जाय। यह वास्तव में भारतीय इतिहास में एक पैरेडाईम शिफ्ट होगाऔर तभी महान भारत राष्ट्र का सम्यक एवं उत्कृष्ट विकास सम्भव हो सकेगा। दुनिया के किसी भी राष्ट्र में किसी भी समुदाय की उपेक्षा एक नकारात्मक तथ्य होती है। अतः हमें भारतीय राष्ट्र के व्यापक हित में इसे सकारात्मक बनाने की जरूरत है। वैसे भारत के संविधान निर्माता डा. बाबा साहेब अंबेडकर का भारतीय संविधान के माध्यम से इस दिशा में किया गया योगदान अप्रतिम एवं अतुलनीय (Incredible) है।

अब आप हमसे पूछ सकते है कि हमारे पास ऊपर कही गयी तमाम सारी बातों का साक्ष्य क्या हैलेकिन विडंबना यह है कि आप उनसे प्रमाण नहीं मांगतेजो साक्ष्य भी नहीं देते और तर्कसंगत बात भी नहीं कहतेऔर उनकी बात आप के द्वारा बिना विरोध के मान ली जाती है। मैं तो यहां वैज्ञानिक तर्क भी दे रहा हूँजिसे कोई भी बौद्धिक व्यक्ति समझ सकता हैऔर तर्क भी कर सकता है। आप यदि महान वैज्ञानिक एवं दार्शनिक बुद्ध के और उनके अनुयायी यथा फुलेशाहूजी महाराजआम्बेडकर और पेरियार के समर्थक हैं या विरोधी हैंतो आपको तर्कसंगत बात समझनी पड़ेगी और माननी भी पड़ेगी। हाँसाक्ष्य के लिए आप सभी विद्वानों को अपने विचारों मेंअवधारणाओं मेंव्यवहारों मेंऔर कर्मों में पैराडाईम शिफ्ट यानि मौलिक बदलाव करना ही पड़ेगा। लेकिन आप इसमें बिल्कुल स्पष्ट रहें कि आप कभी भी अपने विरोधियों  द्वारा गढ़ी गयी उनकी अपनी अवधारणाओं एवं विचारों के सहारे उन्हें परास्त नहीं कर सकतेभले ही आपको जीत जाने का भ्रमपूर्ण झूठा एहसास समय- समय पर होता रहे। यदि आप को मेरी उपरोक्त कही गयी बातों को समझने में कोई कठिनाई हो रही होतो आप इस आलेख को बिना किसी संकोच के दुबारा और तिबारा भी पढ़ें।

(आप मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

निरंजन सिन्हा

 

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