सोमवार, 17 जनवरी 2022

किसका आन्दोलन, किसका प्रचार?

आज उमेश जी फिर मिल गएहालाँकि मैं उनसे मिलने नहीं गया थामैं तो चाय पीने के लोभ में बनवारी बाबू के यहाँ गया थाउमेश जी वही प्रवचन दे रहे थेवह भाषण था या प्रवचनइस पचड़े में मुझे नहीं पड़नाकुल चार जने बैठे थेमैं पाचवाँ हो गयामुद्दा था कि सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन कैसे आगे बढे? चूँकि विषय बड़ा रोचक और महत्वपूर्ण थामैं भी चुपचाप श्रोता बनकर एक किनारे बैठ गया|

बात सांस्कृतिक एवं धार्मिक ग्रंथो की बुराइयों एवं उसमे दर्ज आपतिजनक प्रसंगों पर चल रही थी| उन आपतिजनक बातों सम्बन्धी आन्दोलनों को चलाने बढ़ाने की बात चल रही थीमुझे बदलाव के तरीके और आन्दोलन चलाने के ढर्रे पर आपत्ति थीपर मैं चुपचाप सुनने के मूड में थाआपत्तिजनक स्वर में आलोचना करना और संघर्ष करना क्या एक मात्र तरीका हो सकता हैस्थापित विद्वानों के बात में बिना समझे खोट निकलना कहाँ की समझदारी हैज्ञानी लोग तो कहते हैं कि वे तुन्हें हथियार उठाने को बाध्य करेंगेपरन्तु तुम कलम को नहीं छोड़नामुझे बढ़िया से याद है|

मैंने पूछ ही दिया – “आपलोग समाज में क्रान्तिकारी सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव करना चाहते हैंतो क्या आपके आन्दोलन की दिशा और प्रक्रिया सही हैआपके आंदोलनों को किस दिशा में मोड़ दिया गया हैकभी आपने सोचा हैया आप भटक तो नहीं गए हैं?”

अटपटा और अप्रत्याशित सवाल पर सब ठिठक गए|

फिर बनवारी बाबू ने बात शुरू किया – ‘'आप कहना क्या चाहते हैंएक आन्दोलन में सम्बंधित लोगो की सहभागिता होती हैऔर वे समुचित बदलाव चाहते हैं|’'

आप सही कह रहे हैं’ - मैंने कहा – ‘लेकिन भटकाव का एक बहुत साधारण उदहारण बाबा साहेब का दे रहा हूँबाबा साहेब ने 1942 में नागपुर में एक सभा में एक नारा – Educate, Agitate, Organise  का दियापरन्तु धूर्त शातिरों ने इसे बदल कर – Educate, Organise, Struggle बना दियाक्या बाबा साहेब को इन दो शब्दों  Agitate और Struggle के भावों एवं अर्थों में अंतर नहीं पता थाऔर इन शातिरों को ज्यादा पता थाजिन्होंने इनके शब्दों को बदल कर अनर्थ कर दियाइसी तरह इनके शब्दों के क्रम को बदल दिया, Organise शब्द को तीसरे क्रम से दूसरे क्रम पर ले आए| नादानों और मूर्खों को तो इसमें कोई अंतर नहीं दिखताअंतर देखने के लिए बाबा साहेब के स्तर को समझना होगाइन आन्दोलनकारियों को सतही अर्थ और निहित अर्थ में कोई अंतर समझ में ही नहीं आताऐसे लोग आन्दोलन को कहाँ ले जा रहे हैंये लोग आन्दोलन चला रहे हैं या किसी  .....  को हांक के ले जा रहे हैंये तो वही तथाकथित नेता समझेंये भावपूर्ण जोशीले भाषण देकर पब्लिक से खूब तालियाँ बजवाते हैंऔर पब्लिक का समयधनउर्जा और जवानी बर्बाद करवाते हैं|’ मैं भी धाराप्रवाह बोलता गयामेरा मूड उखड़ गया था

बनवारी बाबु गौर से सुन रहे थेबोले –‘भई आप तो नई जानकारी दे रहे हैंइससे तो यह साफ दिखता है कि इन आन्दोलनों को इनके विरोधियों ने चुपके से आन्दोलन की दिशा ही में ही उलझा दिया हैये आन्दोलनकारी नेता लोगों को जोश दिखाकर और विरोधियों को गाली देकर आंदोलन को ही दिशाहीन किये हुए हैं|’

मैं तो जोश में थाउसी प्रवाह में अपनी बात को आगे बढाया – ‘आन्दोलन में रणनीति होती है और उसमें समझ होती हैंआन्दोलन में सबकी सहभागिता के लिए प्रचार भी होता हैप्रचार के कई तरीके होते हैंकुछ बातों को इस तरह बोला जाता हैमानो उसका आलोचना हो रहा हैपरन्तु होता उसी विरोधियों का प्रचार हैआपने भी देखा होगा कि कभी- कभी किसी फिल्म के निर्माता या निर्देशक पर उसी फिल्म की हिरोइन कोर्ट में केस करती है कि फिल्म की कहानी में मेरे हाथ छूने की बात थीऔर हीरो ने स्क्रिप्ट से हटकर फिल्म में मेरे गाल को छू दियाफिर इस मानहानि केस के मामले को जानबूझकर मीडिया में डाल दिया जाता हैऔर पब्लिक इस फिल्म को देखने के लिए उमड़ पड़ती हैयह सब इन लोगों की मिलीभगत से होता हैइसमें सामान्य लोगो के मनोविज्ञान की समझ का बारीक़ उपयोग किया जाता है| लोग समझते हैं कि तीखी आलोचना हो रही हैपरन्तु यहां होता है भयंकर प्रचार|’

प्रचार एक मनोवैज्ञानिक साधन है यानि एक सुविचारित प्रक्रिया हैजिसके द्वारा समाज की सोच पर प्रभाव डालकर जनमत को निर्धारित और नियंत्रित किया जाता हैचूँकि यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया हैइसलिए मन ज्यादा महत्वपूर्ण हैदिमाग सेअर्थात भावना (Emotion) ज्यादा महत्वपूर्ण है तर्क (Logic) सेमशीनो के सञ्चालन में तर्क यानि कार्य- कारण महत्वपूर्ण हैभावनाएं तो संचालक समझते हैइसी तरह समाज के सञ्चालन में भावनाएँ महत्वपूर्ण होती हैपरन्तु तर्क (दिमाग) तो उनके संचालक के पास रहते हैं| इसलिए समाज को चेतनअचेतन एवं अधिचेतन तीनों स्तरों पर प्रभाव डाल कर जनमत का नियंत्रण प्रचार का तरीका होता है|

सर मैं आपकी बात को आगे बढ़ाते हुए एक छोटा प्रसंग सुनाना चाहता हूँ’ – मनोहर दयाल बीच में टपक पड़ेये पालि भाषा के अच्छे ज्ञाता भी हैंऔर इसीलिए इनकी बातें सुनने लायक होती हैं| - ‘प्रसंग बहुत पुराना हैप्राचीन काल का हैएक गाँव में एक “एतवारी” नाम का व्यक्ति रहता थाउसे बड़ी इच्छा थी कि लोग उसे ‘बाम्हन’ या ‘बम्हन’ कह कर पुकारें या जानेउस समय प्राकृत एवं पालि ही प्रचलित भाषा थीपालि में ज्ञानीविद्वान को बाम्हन या बम्हन कहा जाता हैयही शब्द सामंत काल में ब्राह्मण हो गया यानि गुणसूचक संज्ञा से जातिसूचक यानि नामसूचक संज्ञा हो गया| उसने इस समस्या के समाधान के लिए अपने एक मित्र से सलाह लियाउस मित्र ने एक उपाय सुझाया कि मैं तुम्हे सबके सामने बाम्हन (ज्ञानीविद्वान) बोलूँगातुम इस बात को लेकर मुझ पर तुरन्त आपत्ति के साथ आपत्तिजनक शब्दों और गाली-गलौज का उपयोग करनाफिर क्या होगा कि लोग तुम्हारे इस व्यवहार पर मजे लेने के लिए तुम्हें इसी नाम से पुकारेंगे और तुम प्रचारित हो जाओगेयही हुआएतवारी अपने गाँव और आसपास के इलाके में बाम्हन यानि ज्ञानी के नाम से प्रसिद्ध हो गया|’ यह प्रचार का नकारात्मक तरीका हैजो चुपचाप और प्रभावी तरीके से काम करता हैइसमें प्रचारक का समयउर्जा और संसाधन भी बच जाता हैक्योंकि इसका प्रचार इसके विरोधी करते हैंप्रचारक तो समझदारी से अपना बात इस तरह से छोड़ देता है कि लोग आलोचना समझ कर इसका प्रचार और प्रसार करता रहता है|’ मनोहर दयाल बड़े पते की बात बता रहे थे और इसलिए सभी गंभीरता से सुन रहे थे|’

बाबूलाल ने कहा – ‘इस कहानी से आप किस आन्दोलन पर निशाना लगा रहे हैं?’

मनोहर दयाल ने स्पष्ट किया – ‘मैं आपको किस एक आन्दोलन का उदहारण दूँइतने बड़े भारत में बहुत सारे ऐसे आन्दोलन हैंवैसे आप कम शातिर नहीं हैंआप समझते सब हैंलेकिन मुझसे उगलवाना चाहते हैंतो मैं कुछ हिंट छोड़ ही देता हूँजरा बताइए कि आप अपना बुद्धि विवेक लगाइयेगा नहींऔर अपने विरोधियों के अध्ययन तथा फेंके गए बातों कोभावों को अपना आधार बना कर लड़ियेगातो वे कभी भी आपको आधारहीन बना देंगे| ई सिम्पल सा बात आप को समझ में आता है कि नहीं जी। आप उनकी आर्यों के आक्रमण की झूठी कहानी को सही मानकर आन्दोलन चला दिएऔर आगे बढ़ गएहुआ क्या? 'आई.आई. टी.खड़गपुर ने स्थापित कर दिया है कि आर्यों की कहानी झूठी हैअब तो इस आधार पर चल रहा आपका आन्दोलन उड़ गया| अपना कुछ विचार ही नहीं हैकोई चिंतन ही नहीं हैविरोधियों से उधार लेने का रिजल्ट यही होना हैयही हाल मूल निवासी का होगाइस अवैज्ञानिक कहानी का भी यही अन्त होगा| “दीपवंश” के नाटक के आधार पर आप पुष्यमित्र को ब्राह्मण बता रहे हैंऔर बौद्धों का हत्याराक्या आपके पास कोई प्रमाणिक साक्ष्य हैजो पुष्यमित्र की इस कहानी को सही साबित करेइस कहानी का भी यही अन्त होगाआप ही बताये कि इन काल्पनिक आधारों पर चल रहा आन्दोलन कब फेल हो जायेगाइनके नेताओं को भी पता नहीं? ऐसा इसलिए होना हैक्योंकि ये सब अवधारणा इनके अपने चिंतन के आधार पर नहीं हैतब आपको पता चलेगा कि इन नेताओं ने कैसे देश के बहुत बड़े मानव संसाधन कोउसकी उर्जा और धन को बर्बाद किया हैऔर अब भी कर रहे हैंकितनी जवानियाँ अपनी रोटी सेंकने में तबाह कर दिया गया?’ अचानक उसने अपने वाणी प्रवाह को रोक दियाहम सब उनकी इन बातों से सन्न रह गए|

लेकिन उमेश जी कुछ और स्पष्ट समझना चाह रहे थेउन्होंने कहा – ‘ये सब बात तो विचारणीय और अति गंभीर हैलेकिन आप बाम्हनबम्हनब्राह्मणज्ञानीविद्वान आदि समझा रहे हैंमैं समझा नहींयह सब आप कहाँ से बोल रहे है यह नई बात|’ सही बात यह थी कि मुझे भी यह सब समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु मैं अपनी प्रतिष्ठा में चुपचाप थाबेबाक उमेश जी ने ठीक ही सवाल दागा|`    

मनोहर दयाल बताने लगे – ‘आप राजीव पटेल की सम्यक प्रकाशननई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक – “भ्रम का पुलिंदा” को पढ़िएउसमे उन्होंने अशोक के चतुर्थ शिलालेख का फोटो देकर और बम्ही (तथाकथित ब्राह्मी) लिपि में लिखकर उस अभिलेख के लेखन को स्पष्ट किया हैकि यह ”बाम्हन और समणा” शब्द हैंनहीं कि ब्राह्मण और श्रमण शब्द थे|  पालि में “” अक्षर के संयुक्ताक्षर नहीं होते थेराजीव जी तथ्यों को तर्क के साथ समझाते हैं|’

मैंने टोका कि हमलोग “आन्दोलनप्रचार और भटकाव” के मुद्दे पर थेइसलिए ट्रैक पर रहिए|

चूँकि शुरू में बात हो रही थी कि वेदपुराण और मनुस्मृतिआदि में क्या-क्या आपतिजनक हैंइन विषयों पर विशद और विद्वतापूर्ण आख्यान चल रहे थेमैंने पूछा कि क्या आपको कुरान शरीफ और बाइबिल में आपत्तिजनक बाते नहीं दिखती हैं?

उन लोगों ने बताया – ‘वे लोग दूसरे धर्मों के ग्रन्थ पढ़ें ही नहीं हैंऔर इसीलिए उनमे क्या आपत्तिजनक हैनहीं जानते हैं|

कोई भी उन्हीं धर्म ग्रंथो को पढ़ता हैजिस धर्म में उसकी आस्था होती है|’

 मैंने कहा –

क्या इसका मतलब यह है कि

आप लोग इन वेदोंपुराणों और मनुस्मृति में आस्था रखते हैं,

और इसीलिए आपलोग इसे पढ़ते है?

आपलोग इसको पढ़ते हैं और इसमें कमियाँ निकलते हैंइसका अर्थ यह हुआ कि आप इन ग्रंथों को सही मानते हैंऔर इसमें गहरी आस्था रखते हैं। तभी इसकी कमियाँ निकलते हैंतभी इसके आधार पर आन्दोलन चलाते हैंऔर इसके नकारात्मक बातों को उभार कर इसका पूरा प्रचार करते हैं| क्या यह भी ऊपर वाली फ़िल्मी किस्से की तरह नकारात्मक प्रचार का उदहारण नहीं हैआप इसका विरोध कर इसके नकारात्मक प्रचार के द्वारा इसका ही पूरा प्रचार किए जा रहे हैंतो क्या ये ग्रंथ बदल जाएंगे?  जिन नीतियों मेंजिन आदर्शों में और जिन आस्थाओं में आपलोग विश्वास करते हैंउसको लेकर ही अपने आन्दोलन क्यों नहीं चलातेनकारात्मक मुद्दों पर आन्दोलन तो तमाशबीन चलाते हैंक्योंकि इस पर तालियाँ खूब बजती हैभले समाज का कोई प्रोग्रेस हो या नहीं होकोई भला हो या नहीं|’

जनता तमाशबीन होती हैइसीलिए तमाशा नौटंकी में खूब तालियाँ बजती हैंइसी कारण तो प्रचार तमाशा के रूप में ज्यादा प्रभावी होता हैइन प्रचारों में यानि तमाशों में अज्ञानता के अलावे डर और कमजोरियों का खूब दोहन किया जाता है|

अगला सवाल स्वाभाविक था कि तब हमें क्या करना चाहिए?

फिर मनोहर दयाल ने मोर्चा सम्हाला – हमें अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार खोजना चाहिए और उन तत्वों की सही बुनियाद जानना चाहिए जिस पर हमारी संस्कृति टिकी हुई है| भारत में संस्कृतियों को क्रमश: तीन चरणों में यथा बौद्धिक संस्कृतिसामन्ती संस्कृति और वर्तमान वैज्ञानिक संस्कृति में बांटा जाना चाहिएयह भारत की तीन सांस्कृतिक अवस्थाएं हैजिसे भारतीय संस्कृति कहना चाहिएप्रसिद्ध इतिहासकार आर्थर लेवेलिन बाशम ने तो अद्भुत भारत में संस्कृति की एक नई अवधारणा दिया और वैदिक संस्कृति तथा ब्राह्मणी संस्कृति को अलग अलग रखा हैयहां तो संस्कृतियों का भी एजेंडा के अनुसार अपहरण किया जा रहा है। अब हमें तय करना है कि हमारी मौलिकपुरातन और सनातन संस्कृति कौन है?’ हमें यह भी तय करना है कि हमलोग ऐतिहासिक रूप में वर्ण व्यवस्था में रहे हैं या वर्ण व्यवस्था से बाहरयदि हमलोग अवर्ण हैंतो जबरदस्ती वर्ण व्यवस्था में घुसने को बेताब क्यों हैं?

मैंने पूछ ही लिया कि संस्कृति में मौलिकतापुरातनता और सनातनता की खोज और पहचान कैसे होगी?

मनोहर दयाल का कहना हुआ कि हमें सभी के प्रमाणिक साक्ष्य चाहिएइसमें सबसे प्रमुख स्थान पुरातात्विक साक्ष्य का हैयदि पुरातात्विक प्रमाण पर्याप्त नहीं हैतो विदेशों में उपलब्ध साहित्य को भी समझना चाहिएभारत में अब कोई प्रमाणिक पुरातन साहित्यिक साक्ष्य नहीं हैभारत के पुरातन साहित्यिक प्रमाण को तो सामन्तों ने जलाकर नष्ट कर दियावर्तमान सभी भारतीय साहित्यिक साक्ष्य तो दसवीं शताब्दी के बाद एक निश्चित एजेंडा के तहत मनमाने ढंग से लिखा गया हैयह सब कागज के भारत आने के बाद देवनागरी लिपि में लिखे गए हैं और इसीलिए इनमे से कोई भी साहित्य प्रमाणिक और प्राचीन काल का नहीं हैइसके तथाकथित पुरातन साहित्यों के तो कोई प्रमाणिक पुरातात्विक साक्ष्य अब तक नहीं मिले हैं|

मैंने फिर टोका कि हम लोग “आन्दोलनप्रचार और भटकाव” के मुद्दे पर थेइसलिए ट्रैक पर रहिए|

बनवारी बाबू बार-बार घड़ी देख रहे थेसमय लम्बा खींच चुका थासबने इसे इशारों में समझाचाय भी समाप्त हो चुकी थीअगली बैठक में इसे और साफ़ करने पर मूक सहमति बनी|

मैं सोचने लगा कि कैसे नेता लोग अपने तथाकथित समाज के तथाकथित दुश्मनों को गाली देकर और खुले आम आलोचना करके अपने समाज के तथाकथित दुश्मनों के मुद्दे का प्रचार करते हैंये नेता अपने तथाकथित समाज को कुछ भी सकारात्मक नहीं करने देकर उसे नकारात्मक एवं अनुपयोगी मुद्दों में  उलझाये रखते हैं या रोके रखते हैंसाधारण लोग समझते हैं कि ये तथाकथित नेता इनके लिए कितना जुनूनी और जुझारू हैंलोग समझते हैं कि ये नेता अपना समय और अपना सर्वस्व लगा कर हमारे लिए लगे रहते हैंअब तक मैं भी यही सोच रहा था|

तो क्या ये नेता अपने तथाकथित समाज के तथाकथित दुश्मनों के ही एजेंट और उपकरण हैंजो हमारी बातों को मनगढ़ंत ढंग से बिना सोचे समझे आगे रख कर हमारी भावनाओं से ही खेलते हैं? ये नेता भारत के बहुसंख्यक आबादी को नीच वंश का और कार्य का बता कर इन लोगो का और समूचे देश का मनोबल तोड़ रहे हैंगिरा रहे हैं| पता नहीं ये नेता वास्तव में धूर्त हैं या मूर्ख?  शायद इसीलिए इनके तथाकथित समाज और यह देश आगे ढंग से बढ़ नहीं पाताशायद इसीलिए यह विशाल गौरवशाली देश अपने अतीत और अपने वर्तमान को देखकर उदास हो गया हैशायद जनता को इस भारत की उदासी समझ में आए और भारत का भाग्य करवट ले!

मैं सोचने लगा - दुनिया की तमाम यथास्थितिवादी व्यवस्था तो चाहती है कि लोगों का पेट खाली रहेक्योंकि खाली पेट का दिमाग ठप रहता हैआदमी का दिमाग कभी खाली नहीं बैठताइसलिए उसके समय कोउसके धन को और उसके दिमाग को सदैव उलझाये रखा जाता हैउलझाने की प्रक्रिया ऐसी होती है कि उसमे उसका समयधन और जवानी भी उलझी रहे और उनलोगों को कुछ समझ भी नहीं आए| इस तरह ये लोग समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच पाते हैं और यथास्थितिवादी व्यवस्था को यथास्थितिवाद बनाए रखने में सहूलिअत होती है|

शायद भारत का शक्तिशाली वर्ग

आज़  भारत को ही परास्त करने के मुहिम में लगा हुआ है|

क्योंकि सबको साथ लेकर चलने की कहीं कोई बात नहीं हो रही,

सब जगह सब अपने ही एक दूसरे को पछाड़ने में लगे हुए हैं|

पहले कोई चिंता की बात नहीं थीक्योंकि पहले विश्व एक वैश्विक गाँव नहीं थालेकिन अब  भारत  उसका एक टोला बन गया हैअब विश्व की शातिर बाज की निगाहें भारत पर झपट्टा मारने को आतुर और चौकन्नी हैं| भारत के बाद स्वतंत्र हुआ पड़ोसी देश चीन भारत की अर्थव्यवस्था से सात गुना बड़ा हो गया हैभारत भी अपनी इस अवस्था पर चिंतित हैसब को इस पर विचार करना चाहिए|

(आप मेरे अन्य आलेख  niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

 निरंजन सिन्हा

 

 

 

5 टिप्‍पणियां:

  1. अपने को बहुजन समाज का हितैषी कहने वाले तमाम सारे बहुजन सामाजिक संगठनों के असली इरादे, छिपे हुए एजेंडे तथा उनकी वास्कीतविकता की पोल खोलता हुआ एक सारगर्भित एवं तर्कपूर्ण आलेख।

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  2. बहुत ही शानदार लेख। लेकिन मेरा मानना है है कि हम जिस समाज के काम करना चाहते हैं अगर हम उसके मनोविज्ञान को समझकर अपनी strategy बनाएगे तभी कामयाबी हासिल कर पाएगे और कामयाब होने पर शिक्षा की प्रणाली मे आवश्यक बदलाव करके उनके मनोविज्ञान पर काम कर सकते हैं

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  3. Very important and knowledgeable lekh h...aap n toh hidden fact ko open kr diya h..is lekh m.
    Keep enlighting us

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  4. Very good Analysis Sir.
    It’s very true.Where we are going ..Whoever became leader after any revolutions he himself trying to be separated from his owns words.We can check all facts from 1947 onwards.
    This type your excellent blog post should be published in Newspaper.


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