बुधवार, 30 दिसंबर 2020

संघ, संगठन, एवं संस्थान की प्रकृति और क्रियाविधि (Nature n Mechanism of Association, Organisation, and Institution)

संघ, संगठन, एवं संस्थान की प्रकृति और क्रियाविधि

(Nature n Mechanism of Association, Organisation, and Institution)

आप संघ (Association) चलाते हैं, संगठन (Organisation) चलाते हैं, संस्था (Institution) एवं संस्थान (Institute) चलाते हैं; क्या आपने कभी इसकी प्रकृति और इसकी क्रियाविधि को समझाने का प्रयास किया है?  आज हम आपके सहयोग से इसे समझने का एक प्रयास करेंगे| ऐसा इसलिए जरुरी है क्योंकि आप इसे सफलतापूर्वक एवं दक्षतापूर्वक चलाकर यथाशीघ्र लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं| आप अपने प्रतिद्वन्दी संघ, संगठन, संस्था, एवं संस्थान को परास्त करना या समाप्त होते भी देखना चाहते हैं| आप अपने संघ, संगठन, संस्था एवं संस्थान का प्रभाव फैलाना चाहते हैं तो इस आलेख को पूरा अवश्य पढ़ें| इससे आपको इनकी प्रकृति एवं इसकी क्रियाविधि समझने में सहूलियत होगी और आप अपने उद्देश्य में सफल होंगे|

एक संघ व्यवस्थित संगठन के साथ समय काल में एक संस्थान भी बन जाता है| इन संज्ञा नामों के व्यक्तिवाचक (Proper Noun) या समूहवाचक (Collective Noun) शब्दों को इनके भाववाचक (Abstract Noun) प्रभाव समझ लेना भी एक बड़ी त्रुटि होगी जैसे यदि किसी संस्थान का नाम ‘संघ’ है तो इस ‘संस्थान’ को ‘संघ’ समझ लेने की भूल नहीं किया जाय या यदि किसी संगठन का नाम संस्था या संस्थान है तो इसे संस्थान समझने की भूल भी नहीं किया जाय| इसे समझना इसलिए जरुरी है कि आप अपनी रणनीति या क्रियाविधि को अपेक्षित ढंग से संचालित कर उद्देश्य को प्राप्त कर सकें|

कुछ लोग या कुछ संगठन या संघ किसी दुसरे संघ, या संगठन, या संस्थान का प्रभाव कम करना चाहता है या उस प्रभाव को ही समाप्त करना चाहता है, पर प्रयास का कोई अन्तर नहीं पड़ता| अन्तर पडेगा भी नहीं| क्योंकि वे संघ, समाज, अंग, संगठन, संस्था, एवं संस्थान को समझ ही नहीं पाते और अपनी उर्जा, समय, एवं संसाधन बरबाद करते रहते हैं और कोई गंभीर परिणाम नहीं निकलता| यदि आप समाज या अंग या संगठन पर प्रहार करते रहते हैं तो कोई परिणाम नहीं निकलेगा और संघर्ष एवं विद्वेष ही बढेगा| इन समाजों की, इन अंगों की, इन संघों की या इन संगठनों की नियंत्रण या सञ्चालन प्रणाली इनमें नहीं होता, अपितु इसके बाहर इनसे जुडी संस्थानों में होता है जो इसको नियंत्रित एवं संचालित करता है| इस तरह ये अंग या संघ या संगठन कभी नष्ट नहीं होते, भले ही आपको नष्ट होता हुआ या लगता हुआ दिखे| फिर ऐसी कोशिश क्यों? ऐसी कोशिश इसलिए की जाती है क्योंकि आप इसे समझते नहीं हैं| लेकिन सदैव ऐसा नहीं होता, कुछ लोग जानबूझ कर भी ऐसा करते रहते है| उन्हें ऐसा करने के लिए भी दुसरे विपरीत संगठनों एवं संघो से धन एवं लाभ मिलता रहता है| ये विरोध करते दीखते संघ, संगठन या संस्थान सही उद्देश्य वाले संघों, संगठनों, एवं संस्थाओं के उद्देश्य पूर्ति में मानव सम्पदा, धन सम्पदा एवं समय सम्पदा को दुसरे दिशा में मोड़ कर बरबाद करते हैं और धन देने वालें संघो एवं संस्थाओं को आगे बढ़ने देते हैं| मैं एक गंभीर बात कर रहा हूँ, कृपया आप थोडा ठहर कर समझें|

आपको अन्य किसी भी संघ, समाज, अंग, संस्था, संगठन, एवं संस्थान को  प्रभावहीन करना है तो उसके नियंत्री  संस्थान के उद्देश्य समझें| संस्थान का दिखावटी उद्देश्य और वास्तविक उद्देश्य यदि अलग अलग होता है (जो अक्सर होता ही है) तो उसका अन्तर समझें; अन्यथा चालाक एवं पुरातन संस्थान के प्रकृति एवं स्वरुप को आप सरलता से समझ नहीं पायेंगे| उसका उद्देश्य ही उसका आदर्श है| इन संस्थाओं की व्यावहारिक क्रिया कलापों के सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण अवलोकन से आप इन संस्थाओं के वास्तविक आदर्श को देख या समझ सकते हैं|  जब आप आदर्श समझ जाते हैं ती इस दिशा में आप अपने मंजिल के पास पहुँच जाते हैं| यदि इन संस्थानों का आदर्श, जिन्हें ये प्राप्त करना चाहते हैं, तथ्यहीन, काल्पनिक, अमानवीय, अवैज्ञानिक एवं साक्ष्यहीन है तो इन आदर्शों को समाप्त करना या इनके प्रभाव को न्यून करना संभव है| चूँकि आप सत्य के साथ है, तो विश्व आपके साथ है| दुनिया कोई देश, चीन या भारत, भी विश्व आबादी का पंद्रह प्रतिशत ही होता है और शेष विश्व पचासी प्रतिशत है| यदि आप दुनिया को सही बात समझा देंगे और दुनिया आपकी बात को सही, साक्ष्य सहित, वैज्ञानिक एवं मानवीय मान लेती है तो आप जीत गए| अत: आप संस्थानों का आदर्श समझिये और उन गलत आदर्शों के जड़ पर प्रहार कर नष्ट कर दीजिये| दूसरा कोई उपाय समाज का समय, संसाधन एवं मानव का दुरूपयोग है (वैसे मैं आपको किसी भी काम से रोक नहीं रहा हूँ) और अपने गतिविधियों से विरोधियों का ही समर्थन दे रहे हैं; भले आपको लगता है कि आप विरोधियों को कबाड़ या उखाड़ रहे हैं, यह आपका भ्रम है| इसे भी आप दुबारा पढ़ें| इस देश को , इस समाज को, एवं इस मानवता को जो नुकसान हो रहा है; उसका मुख्य कारण अज्ञानता का स्तर है जो समाज के, संघ के, अंग के, संगठन के, संस्था के या संस्थान के शीर्ष पर बैठे लोगों में व्याप्त भी है,  जो हो सकता है इनके जीवन काल में नहीं दिखे, पर इसे इतिहास जरुर लिखेगा| ये शीर्ष पर बैठे लोग यदि समझना चाहे तो समझ सकते हैं और मानव एवं समाज का बृहत्तर कल्याण कर इतिहास के सुखद अध्याय में अपना नाम लिखवा सकते हैं|

चूँकि संस्थान एक नियमों या विधानों का एक जटिल संरचना या स्वरुप (Complex Structure or Pattern) है और इसीलिए विधान निर्माताओं (Legislature) का मुख्य विषय या केद्र यही संस्थान है यानि यही मूल्य या आदर्श होता है जिसे बदलना (Change) या संशोधित (Correction) या परिवर्धित (Modification) या रूपांतरित (Transformation) किए जाने की आवश्यकता होता है| इसी कारण राजनितिक संगठन या नियम बनाने वाली संस्था या संगठन या संघ या प्रवर्तन संगठन (Enforcement Organ) संस्थाओं में ही हस्तक्षेप करती हैं|

ब्रिटिश विद्वान् प्रोफेसर ज्यॉफ्री मार्टिन होड्गसन (Geoffrey Martin Hodgson) संस्थानवाद (Institutionalism) के स्थापित प्राध्यापक हैं| इन्होंने कहा कि संस्थानें सामाजिक जीवन का उपकरण, सामग्री,या दक्षता (Institutions are the stuff of social life) है| संस्थान सामाजिक प्रचलित नियमों एवं स्थापनाओं का एक तंत्र है जो सामाजिक अन्तर्क्रियाओं का संरचना बनाता है जैसे भाषा, मुद्रा या धन, कानून आदि| संस्थान को एक तरीका कहा जा सकता है जो सामाजिक जीवन का संरचना बनाता है और हमारी प्राथमिकताओं, आशाओं (Expectations) एवं अवधारणाओं (Concepts) को निर्धारित करता है| ये स्थायी उम्मीदों का सृजन करते हैं| सामान्यत: संस्थान लगातार अपने विचारों, आशाओं, एवं क्रियाओं के द्वारा समाज पर प्रभाव पैदा कर मानवीय गतिविधियों को निर्धारित एवं नियंत्रित करता है| इस तरह संस्थान हमें किसी कार्य को करने या किसी कार्य को नहीं करने के लिए प्रेरित करती है| इस तरह संस्थान नियमों एवं नीतियों का एक प्रभावशाली तंत्र है|

अब मैं आपको इन संगठनों के स्वरुप (Form), बनावट (Structure), प्रकृति (Nature), उद्देश्य (Aim), प्रकार्य (Functions) एवं आदर्श (Ideals) और इसकी क्रियाविधि (Mechanics) को थोडा विस्तार से समझाने का प्रयास करता हूँ|

समाज (Society) किसे कहते हैं? यह लोगो का एक संगठन है जिनका एक समान उदेश्य (Aim) या एक समान रूचि (Interest) होता है| इस तरह समाज एक संगठन है और इसे संघ, संस्था या संस्थान का प्रतिस्थानी नहीं समझा जाना चाहिए| यह मानव प्रकृति का स्वाभाविक उदविकास (Evolution) की अवस्था है और यह बिना प्रयास के ही स्थापित है क्योंकि यह होमो सेपियंस सेपियंस की एक अनिवार्य शर्त रही है| संघ या संगति (Association) लोगो का एक अधिकारिक जुडाव या समूह है जिनका समान पेशा (Profession) या उद्देश्य या रूचि हो| संस्था एक संगठन या परिसर (Campus) या भवन है जो किसी खास तरह के काम के लिए स्थापित है जैसे अनुसन्धान या शैक्षणिक संस्था| संस्थान या संस्थापन या प्रतिस्थापन (Institution) एक सामाजिक सांस्कृतिक स्थायित्व का किसी खास उद्देश्य या विचारधारा का स्वरुप है जिसमे अपरिवर्तित स्थायित्व (Unchangeable Stable) होता है| इस कारण संस्थान समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका रखती है जैसे परिवार, विवाह, संसद, धार्मिक संस्थान आदि|

संघ यदि एक संगठित समूह है तो संस्थान किसी चीज को किसी खास विचारधारा से करने या देखने का संगठित तरीका है| किसी खास उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए लोगो का कोई खास समूह जब संगठित होता है तो संघ अस्तित्व में आता है लेकिन संस्थान किसी विचार या व्यवहार को नियंत्रित या संचालित करने के उद्देश्य से स्थापित होता है या स्थायित्व में आता है| किसी संगठन के नाम में यदि ‘संघ’ लिखा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह संघ (Association) ही होगा, वह संस्थान भी हो सकता है| आदमी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए संघ बनाता है और जब उसके लिए विधान, नियमन, नियम एवं प्रक्रिया के साथ दीर्घकालीन आदर्श तय कर देता है तो वह समय के साथ स्वाभाविक रूप से संस्थान बन जाता है| संघ में स्थायित्व एवं निरंतरता का अभाव होता है जबकि संस्थान में स्थायित्व (Stability) एवं निरंतरता (Continuity) होता है| संघ जहाँ संगठन का मानवीय एवं जनांकीय (Demographic) पक्ष है, वहीं संस्थान सामाजिक व्यवहार का निश्चित प्रतिमान (pattern, mode) है या सामाजिक विचार का कोई आदर्श है| संघ संगठन का मूर्त स्वरुप है और संस्थान संगठन का अमूर्त स्वरुप रखता है| संस्थान का कोई निश्चित प्रतिरूप या आकृति या स्वरुप नहीं होता है, सिर्फ किसी खास कार्य या व्यवहार या विचार या आदर्श का प्रक्रिया होता है| संघ यदि लोगो की सदस्यता से सम्बंधित है तो संस्थान आदर्श को स्थापित करने का प्रतिमान या रीति या विधि (Mode) या तरीका है| आदमी संघ का निर्माण करता है परन्तु कार्य संस्थान के द्वारा करता है और इस तरह संस्थान ही संघ को जीवन्त बनाता है या संघ को जीवन देता है| संघ एक तरह से यानि औपचारिक तरीके से संस्थान को नियंत्रित करता है परन्तु संस्थान अनौपचारिक रूप से संघ को नियंत्रित करता है| संघ का वैधानिक अस्तित्व (Legal Status) होता है जबकि संस्थान का कोई वैधानिक अस्तित्व नहीं होता है| बुद्ध का संघ’ (Sangh) एक संघ (Association) का उदहारण है जबकि बुद्ध का दर्शन (Teaching / Philosophy) एक संस्थान (Institution) है जो एक आदर्श को संचालित करता है और आज तक निरंतरता (Continuity) बनाए हुए है|

संगठन लोगो का एक व्यवस्थित एवं संगठित संकलन (Collection) यानि संग्रह है जिसका एक समान लक्ष्य या पहचान (Identity) हो और किसी बाहरी व्यवस्था या तंत्र (System) से जुड़ा हुआ हो| जबकि संस्थान किसी समाज या समुदाय का एक उच्च स्तरीय एवं अभिन्न सत्व (Entity) या सत्ता को निरुपित करता है| एक संगठन किसी एक समान लक्ष्य के लिए लोगो का जुडाव या जमावड़ा या संयोजन (Assemblage) है जबकि एक संस्थान  एक ग्रहणशील (Receptive) संगठन है जो सामाजिक आवश्यकताओं एवं दबावों (Needs n Pressure) के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है| एक संस्थान एक बड़े जनसमूह में मूल्य वर्धन (Value Addition) के लिए कई प्रकार्य (Functions) एवं गतिविधियाँ करता रहता है| इस तरह एक संस्थान समाज में परिवर्तन को उत्साहित (Induce) करता है या शुरुआत (Initiate) करता है या प्रतिबंधित (Resist) करता है या निरुत्साहित (Inhibits) करता है जैसा वह संस्थान समुचित (Appropriate) समझता है; यह अलग बात है कि एक शिकारी (Hunter) का आदर्श एक शिकार (Prey) के आदर्श से अलग होता है और इसीलिए उनकी क्रिया विधि भी भिन्न भिन्न हो जाती है| इस तरह एक शिकारी या एक शिकार को लगता है कि उनका सोच यानि विचार समाज के लिए सकारात्मक एवं रचनात्मक ही है और वह सही में मानवतावादी एवं राष्ट्रवादी समझता है (जो सही नहीं है)| एक मानव समाज में शिकारी या शिकार का भाव सामन्त काल में आया जो भी दुनिया के कई समाजों में आज जीवित ही नहीं; अत्यन्त प्रभावी भी है| भारत की स्थिति का आकलन कोई भी बुद्धिजीवी अपने सम्यक विवेक से कर सकता है|

ऐसा कहा जा सकता है कि सभी संस्थान एक संगठन ही होता है परन्तु कुछ ही संगठन बढ़ते है, फैलते हैं, और अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं तथा संस्थान का स्तर (status) भी पा लेते हैं| संगठन का मूल (Basic) एवं स्वाभाविक (Natural) उद्देश्य संगृहीत लोगो (Associated or Collected People) में एक आतंरिक व्यवस्था (Internal Order) बनाये रखना है ताकि संगठन का लक्ष्य प्राप्त हो सके| लेकिन इसके (संगठन के) संस्थान के स्तर पर परिवर्तित होते ही यह संगठन से ऊँचा एवं विशिष्ट स्तर पा लेता है और एक संस्थान संगठन से बड़ा बन जाता है| जहाँ एक संगठन किसी विशेष इच्छित लक्ष्य (Desired aim) को प्राप्त करने के लिए लोगो का एक व्यवस्थित एवं संकलित कार्यशील समूह है, वही एक संस्थान एक स्थापना (Establishment) है जो किसी विशिष्ट आदर्श को बढाने या प्राप्त करने के लिए समर्पित (Dedicated) है| एक संगठन का संरचना केन्द्रीकृत या विकेन्द्रितकृत हो सकता है परन्तु एक संस्थान का संरचना सदैव विकेंद्रीकृत ही होता है और इनकी शक्तियाँ प्रबंधन के विभिन्न स्तरों पर संचालित होता है| एक संगठन जहाँ विधानों (Legislation), नियमनों (Regulation), नियमों (Rules) एवं नीतियों (Policies) से संचालित एवं नियंत्रित होता है, वही एक संस्थान कुछ पूर्व निर्धारित मूल्यों (Values) एवं आदर्शों (Ideals)से संचालित एवं नियंत्रित होता है|

एक संगठन का एक निश्चित जीवन चक्र (Life Cycle) होता है| एक जीवन चक्र में जीवन का उदय या जन्म होता है, उसका वृद्धि होता है, उसमे परिपक्वता आता है, और एक समय के बाद समाप्त भी हो जाता है| यही एक सगठन का भी जीवन वृति है| लेकिन एक संस्थान अपने जीवन काल में एक विकासशील प्राणी (Developing Organism) की भांति बदलती हुई परिस्थिति के अनुकूल अनुकूलन (Adaptation) भी करती है, संवर्धन (Growth) भी करती है, रूपांतरण (Modification) भी करती है और अपनी मूल्यों एवं आदर्शों को बनाए रखने में सफल भी होती है| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक संगठन का प्राथमिक उद्देश्य अपने सदस्यों को सेवा या लाभ देना होता है जबकि एक संस्थान अपने ज्ञान या मूल्यों या आदर्शों को पाने या फैलाने के लिए होता है|

हम और आप किसी भी तरह के लोगो का एक समूह किसी खास उद्देश्य के लिए स्थापित करते हैं पर हमें यह पता ही नहीं होता कि यह समूह संघ, संगठन, संस्था एवं संस्थान के किस स्तर में किस स्तर पर है? यह नहीं जानने से हमें अपनी भावी नीतियों एवं रणनीतियों को समझने, संचालित करने एवं बनाने में कठिनाई होती है| इनका स्थापना लाभ के लिए होता है, भले वह लाभ व्यकिगत हो, सामाजिक हो, या मानवीय हो| भले ही यह शारीरिक तुष्टि दे या मानसिक या आध्यात्मिक तुष्टि दे| लगभग सभी संस्थाओं का उद्देश्य समाज तथा  मानव को सुख, शान्ति, संतुष्टि, एवं समृद्धि पहुंचाना होता है तो इतने स्थापना की संख्या क्यों? शायद प्रक्रियात्मक या संचालात्मक भिन्नताओ के कारण| लेकिन अधिकतर भिन्नता इनके स्वरूपों, आदर्शों एवं संचालानात्मक प्रक्रियाओं के समझ के अभाव में है जिसे सुलझाने के लिए कोई बैठना नहीं चाहता| इस तरह की समझ से कई संघ, संगठन एवं संस्थान एक साथ मिल कर काम कर सकते हैं, भले ही उसे कई अंगो में बाँट कर कार्य विभाजन किया जा सकता है|

समाज एवं मानवता के सुनहरे दिनों की बहुत नजदीक आ जाने की सुखद आशा में हूँ ; क्योंकि कोई भी इन्सान मूलत; दुष्ट नही होता, भले ही उसने अज्ञानता के कारण (जिसकी जानकारी उसे नहीं है) उसकी अवधारणाएँ एवं प्रत्याशायें समाज एवं मानवता के व्यापक कल्याण के विपरीत हो गया है| यहाँ बुद्धिजीवियों के बुद्धि से युक्त होने पर प्रश्न खड़ा किया जा सकता है| आप तो इसे समझें, विश्व समझेगा और बाकि तथाकथित अज्ञानी भी समझ जायेंगे|

 निरंजन सिन्हा                                                                    

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक|

 


शनिवार, 19 दिसंबर 2020

छद्म धर्मनिरपेक्षता : एक विश्लेषण

 

छद्म धर्मनिरपेक्षता : एक विश्लेषण

आज मैं बहुचर्चित शब्द ‘धर्मनिरपेक्षता’ (Secular) को जानने और समझने का प्रयास कर रहा हूँ एवं एक नया विशेषण “छद्म” (Disguised) के साथ उसके बदलते रंग पर भी प्रकाश डालने का कोशिश करूँगा| जब सापेक्षता (Relativity) शून्य (Nil) हो जाती है तो उसे निरपेक्ष (Neutral) कह दिया जाता है| इसे तटस्थता या निष्पक्षता भी कहा जाता है| कहने का तात्पर्य यह है कि जब आप किसी भी भाव (Emotion) या प्रभाव (Effect) या झुकाव (Inclination) के बिना किसी विषय या घटना पर विचार या निर्णय करते हैं तो आपको निरपेक्ष कहा जाता है| इसी भाव या प्रभाव या झुकाव के निपेक्षता को विज्ञान का मूल (Original) एवं मौलिक (Fundamental) आधार भी माना जाता है| लेकिन आप यदि सोचते हैं कि आप एक मानव के होते हुए भी पूरी तरह तटस्थ हो सकते हैं तो शायद आप गलत भी हो सकते हैं| अल्बर्ट आइंस्टीन ने 1905 में अपने “सापेक्षता के विशेष सिद्धांत” और  1915 में अपने “सापेक्षता के साधारण सिद्धांत” में ‘समय’ (Time), ‘द्रव्यमान’ (Mass) एवं ‘उर्जा’ (Energy) को भी सापेक्ष बता दिया| जब विज्ञान जैसे विषय पूर्णतया निरपेक्ष नहीं हो सकते तो आप भी पूर्णतया निरपेक्ष नहीं हो सकते| परन्तु इसका यह भी मतलब नहीं हो सकता कि भारतीयता या मानवीयता का कोई मतलब नहीं होता| आप भारतीय गणतंत्र के नागरिक हैं और प्राणी जगत में आप होमो सेपिएन्स सेपिएन्स हैं| और इसीलिए हर भारतीय को भारतीयता का और हर मानव को मानवीयता का सम्मान करना चाहिए|

धर्मनिरपेक्षता में धर्म एवं निरपेक्षता दो शब्द होता है| हिन्दी में धर्म (Dharma) संस्कृत के धर्म – दोनों एक ही है पर पालि का धम्म (Dhamma) संस्कृत के धर्म से बहुत भिन्न है, पालि के धम्म का अर्थ लोक आचार है जो समाज के सम्यक विकास एवं समृद्धि के लिए आवश्यक है| पालि में धम्म को इस तरह परिभाषित किया गया है- धारेति ति धम्मो| जो धारण करने योग्य हो वह धम्म है अर्थात जो किसी भी वस्तु का स्वाभाविक गुण या स्वभाव है वह उसका धम्म है जैसे पानी का धम्म शीतलता प्रदान करने एवं अग्नि को बुझा देना है| उसी तरह एक आदमी का धम्म दुसरे आदमी के सम्यक विकास एवं समृद्धि में सहायक बनना ही है| अरब के मजलिश के आचार- व्यवहार- संस्कृति को मजहब कहा गया| यूरोप के रीजन (Region) की संस्कृति को रिलिजन (Religion) कहा गया| इस तरह उत्पत्ति एवं क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं, आचार, व्यवहार, संस्कृति के अनुरूप अलग अलग क्षेत्रों में आस्था के अलग अलग प्रतिमान (Pattern) स्थापित किए गए| इन्हें वर्गीकरण के ख्याल में एक ही शब्द में सबको शामिल कर दिया जाता है जो कुछ अर्थों में अनर्थ भी होता है| क्या साडी, धोती का उपयुक्त अंग्रेजी शब्द दिया जा सकता है या अंग्रेजी के ब्रेड (Bred) का उपयुक्त हिन्दी अनुवाद रोटी में किया जा सकता है? शायद नहीं या जबरदस्ती हाँ| आस्था के कारोबारियों को भी तो अपना कारोबार चलाना होता है| ऐसी स्थिति में आस्था के सभी कारोबारी मिलजुल कर सामान्य लोगों पर अपना अपना प्रभाव क्षेत्र बना लेते हैं और एक दुसरे को भरपूर सहयोग भी करते हैं| देखने में ऐसा लगता है कि ये सभी एक दुसरे के खून के प्यासे हैं और मौका मिलने पर दुसरे को समाप्त कर ही देंगे तो आप पूरी तरह से भ्रम में हैं| आस्था के सभी कारोबारियों में मूल एवं मौलिक सहमति एवं समानता है| आपने भी देखा होगा कि किसी भी क्षेत्र में जब एक ही दर्शन या आस्था का प्रभाव बढ़ जाता है तो आपस में प्रतिद्वंदी पक्ष बना लिया जाता है जैसे रोमन एवं कैथोलिक, शिया एवं सुन्नी, महायान एवं हीनयान, शैव एवं वैष्णव इत्यादि इत्यादि|

जब कोई तथाकथित धर्म भी एक ही सर्वकालिक एवं सर्वशक्तिमान आस्था के प्रति आसक्त होते हुए भी एक नहीं है तो उसमे निरपेक्षता खोजना कितनी समझदारी होगा? हमलोग जितने पढ़े लिखे हैं और जितना समृद्ध हैं, उतना ही धूर्त एवं लोभी भी हैं| हमलोग अपने स्वार्थ में अपने समाज एवं अपने राष्ट्र की हर गतिविधियों को धर्म सापेक्षता के दृष्टिकोण से हर चीज को देखने के आदि हो चुके हैं| समाज के दो व्यक्तियों या दो अपराधियों या दो गिरोहों के लड़ाई में धर्म खोजना हमारी धूर्तता एवं दुष्टता ही हो सकता है, समझदारी नहीं| वाराणसी में हिन्दू विश्वविद्यालय या अलिगढ में मुस्लिम विश्वविद्यालय खुलने को धर्म के नजरिये से देखना कितना उचित होगा जब हम उसके खुलने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना नहीं चाहते| ब्रिटिश शासन भारतीय सभ्यता संस्कृति को हेय दृष्टि से देखता था और उस समय भारतीय राष्ट्रवाद का उभार इसी रूप में हो रहा था – पुरातन भारतीय संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में एवं मध्यकालीन संस्कृति को मुस्लिम संस्कृति के रूप में ब्रिटिश सोच के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में उपस्थापित किया गया| यह भारतीय राष्ट्रवाद का ब्रिटिश नजरिया का प्रतिउत्तर था| ‘हिन्दू’ अखबार या हिन्दू कालेज भी इसी का उदहारण है| बादशाह अकबर के हरम में हिन्दू महिलाओं की अधिकता को धर्म सापेक्षता में देखना हमारी अज्ञानता है क्योंकि हम समकालीन सामंतवाद के स्वाभाव एवं अनिवार्यताओं को नहीं समझ रहें है – सामंतवाद में हर छोटा सामन्त बादशाह के समक्ष अपनी निष्ठा दिखने के लिए अपने प्रिय एवं बहुमूल्य सामानों को बादशाह को अर्पित करता रहा और घर की महिलाए भी दान देने योग्य वस्तु ही थी जैसे कन्यादान| शायद इसी कारण दक्षिण के मंदिरों में अपनी बच्चियों को दान देने की ‘देवदासी प्रथा’ भी थी और वह काल भी सामंतवाद का ही काल और प्रभाव रहा| मैं किसी भी स्थिति को न्यायिक या न्यायोचित साबित नहीं करना चाहता; मैं सिर्फ सापेक्षता की स्थिति समझना चाहता हूँ|

यदि आप धर्म, धम्म, मजहब, रिलिजन, पंथ एवं दर्शन को समझते हैं तो सापेक्षता एवं निरपेक्षता भी समझ गए होंगे| जब आप यह सब समझ गये होंगे तो आपको छद्म निरपेक्षता समझाने की आवश्यकता नहीं है, वह छद्म शब्द तो ओस (Dew) है जो सूर्य की पहली किरणों के प्रभाव में ही उड़ (Disappear) जाता है यानि अस्तित्वहीन हो जाता है|

यदि हम किसी के गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन, जाहिलपन, धूर्तता, मुर्खता, दुष्टता आदि को किसी के आस्था से जोड़ देते हैं तो यह हमारी बौद्धिकता पर ही बड़ा प्रश्न है; मैं क्षमा चाहता हूँ क्यांकि मेरा उद्देश्य किसी की बड़े नाजुक भावनाओं को आहत करना नहीं  है और आप भी नाहक आहत नहीं हों| यदि आप व्यवस्था के संचालक सदियों से रहे हैं तो दोष इन्हें क्यों देते है; आपने इसे बदलने के लिए सक्रिय एवं सार्थक रूप में क्या किया? सभी समस्यायों की जड़े शिक्षा पर जाती है और इसीलिए कहा गया है कि अविद्या ही सभी समस्यायों की मूल है| शिक्षा को डिग्री समझने के ही विरुद्ध भारत सरकार की नयी शिक्षा नीति है जो “राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020” (National Education Policy 2020) के नाम से आयी है जिसमे वैज्ञानिक मानसिकता (Scientific Temper) एवं विश्लेषणात्मक मौलिक चिंतन (Critical Thinking) को प्रमुखता दिया गया है जो तथ्य (Fact), तर्क (Logic), विश्लेषण (Analysis), परीक्षण (Experiment) एवं विवेक (Rational) पर आधारित व्यस्थित ज्ञान (Systematic Knowledge) है| आप इसी के आधार पर समाज में न्याय, समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व स्थापित कर सकते है जो समाज में सुख, शान्ति, समृद्धि एवं संतुष्टि स्थायी बना सकता है| यही मानवतावाद है और यही भारतीयवाद है| यही भारत को एक उन्नत, सशक्त एवं संपन्न राष्ट्र बना सकता है| आइए, हम हम भी गंभीरता से विचार करें|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक|                  

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

सावधान! किससे?

 

सावधान! किससे?

-----------------------

सावधान, पर किससे? मेरा सन्दर्भ अपने समाज के लोग, निर्वाचन, विचारधारा, राष्ट्र प्रेम, समाज की समृद्धि और समाज के विकास में कतिपय बुद्धिजीविओं के बात एवं व्यवहार के प्रतिरूप के सम्बन्ध में है| समाज में सावधानी बरतनी है पर किससे, किस परिस्थिति से तथा कैसे विचारों से? किससे मतलब कैसे लोगों से? एक सामान्य आदमी को मूर्ख, धूर्त, समझदार और नादान की श्रेणी में विभाजित किया जा सकता है| मूर्ख उसको कहा जाता है जो बिना तर्क और विश्लेषण किये बिना किसी भी बात को तथ्य एवं सत्य मान ले और उस तथाकथित सत्य पर मर मिटने को उतारू भी हो जाए| ऐसे आस्थावानों को क्या कहा जाय जो किसी भी भावनात्मक सुचना को सही मान कर ही मगन हो जाते हैं| धूर्त उनको कहा जाता है जिनके पास विश्लेषण एवं तर्क क्षमता दोनों होता है और सारी बातो को समझते हुए भी जो अपने परिवार तथा संकुचित समुदाय के हितलाभ के कारण राष्ट्र एवं बृहत् समाज के विरुद्ध चला जाना सामान्य बात है| और जो इन दोनों श्रेणी में नहीं होता है उसको नादान कह सकते हैं| समझदार उसको कहेंगे जो वैज्ञानिक मानसिकता रखता है और तार्किक विश्लेषण भी करता है एवं सम्पूर्ण मानवता तथा शान्ति- समृद्धि की समझ भी रखता है|

मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ? सभी लोग राष्ट्र (Nation) प्रेम की बात करते हैं, सभी लोग देश (Country) एवं समाज (Society) की समृद्धि चाहते हैं, सभी लोग समाज का समन्वित विकास (Integrated Development) भी चाहते हैं| सामान्य लोग किन्ही विशेष अवधारणाओं (Concept) को नहीं जानते हैं ; कोई गलत बात नहीं है| पर यदि कोई बुद्धिजीवी इसे समझना भी नहीं चाहता है तो यह समाज के लिए दुखदायी बात हो जाती है| सरकार भी शिक्षा में वैज्ञानिक मानसिकता (Scientific Temper) और विश्लेषणात्मक चिंतन (Critical Thinking) पर जोर दे रही है| कुछ बुद्धिजीवी राष्ट्र एवं देश में अंतर नहीं करते, समाज एवं सामाजिक समुदाय (जाति) में अंतर नहीं करते, और विकास एवं वृद्धि (Growth) में अंतर नहीं करते| जो भावनाओं में आसानी से बह जाएँ और संकीर्ण दायरों में बंध जाए ; वैसे व्यक्ति दूर तक देख भी नहीं पाते हैं|

सावधानी उन बुद्धिजीविओं से रखना पड़ेगा जो सालों भर राष्ट्र, देश, समाज, विकास, समृद्धि के समर्थन में और  शोषण के विरुद्ध  एवं फांसीवाद के विरुद्ध लम्बी - लम्बी  बाते कहते मिलेंगे परन्तु चयन के निर्णायक दिन (चुनाव के दिन) ये सारी बातें बदल जाती है| ये तथाकथित बुद्धिजीवी अपनी जातियों एवं धर्मों में ही राष्ट्रवाद, विकासवाद एवं मानवतावाद देखने लग जाते और व्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन भी खोजने लग जाते हैं| सालों भर वे चीन से, अमेरिका से, जर्मनी से आगे निकलने की बातें करेंगे और चुनाव के एक दिन वे विश्लेषणात्मक एवं तार्किक क्षमता ताखे पर रख देते हैं| मैं ऐसे भावुक बुद्धिजीविओ के विरोध में नहीं हूँ, मैं सिर्फ इतना बताना चाहता हूँ कि इनकी स्वाभाविक प्रवृतियों को किसी निष्कर्ष पर जाने से पहले इन बातों को समझें| इनके बातों और इनके निर्णायक दिनों के व्यवहारों को समझ कर आप भी निर्णय लें| मेरा मकसद इतना ही है आपको अपने भावी योजनाओं में शुद्धता के साथ सफलता मिले|

मैं सोचता हूँ कि मैं आपको खुश कर दूँ| आपको खुश करना बहुत ही साधारण बात है – आप जो जानते हैं, उसी में दस प्रतिशत और जोड़ देना ही आपको खुश करने के लिए काफी है| इसी से आप मुझे जानकर मान लेंगे और आप भी सही साबित हो जायेंगे| पर समाज के कुछ खट खट लोग  इस व्यवहार को चाटुकारिता या चापलूसी कह कह कर मन को ही ख़राब कर देते हैं| पर ऐसे लोग गलत नहीं कहते, सिर्फ मेरे मन के उल्टा कह देते हैं| आपके मन में बैठी अवधारणाओं को सिर्फ खंडित नहीं किया जाना ही आपको खुश करने के लिए काफी है यानि आप अपने बने हुए अवधारणाओं को ही बचाना चाहते हैं और कोई अप्रत्याशित संशोधन या बदलाव भी नहीं चाहते| ऐसे तो आपको कोई भी कर खुश देगा तो फिर मुझे लिखने का क्या औचित्य है? मैं आपको खुश नहीं करना चाहता; मैं तो आपको ठिठका देना चाहता हूँ| थोडा तो आप भी ठिठक जाइये क्योंकि आप भी मेरे ही तरह भारत को चीन एवं अमेरिका से भी आगे ले जाना चाहतें हैं|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक| 

सोमवार, 7 दिसंबर 2020

व्यक्ति और संस्था का अन्त: कैसे?

 

व्यक्ति और संस्था का अन्त: कैसे?

एक व्यक्ति का अन्त कैसे होता है और उसका हमारे एवं उसके जीवन का क्या प्रभाव पड़ता है? एक संस्था का अन्त कैसे होता है और उसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसके सम्यक मूल्यांकन के बहुआयामी प्रभाव है और इसलिए ही बहुत महत्वपूर्ण भी है। एक भारतीय उदाहरण: गौतम बुद्ध एक व्यक्ति के रूप में पैदा हुए और एक संस्था के रूप में रुपांतरित हो अपने शरीर का त्याग किया। एक व्यक्ति का एक संस्था में रुपांतरण का सफर कैसे संभव होता है और कैसे तय होता है; इसे जानना और समझना एक रोचक विषय है। इस रुपांतरण के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण आपके सहयोग से करने का प्रयास करुंगा।

व्यक्ति और संस्था क्या होता है? दोनों में अन्तर क्या है? व्यक्ति पृथ्वी का एक जैविक शारीरिक स्वरुप में बुद्धिमता में सबसे समझदार जीव है। व्यक्ति को एक समाज के एक इकाई के रूप में भी परिभाषित किया जाता है। जबकि संस्था एक काल्पनिक वास्तविकता है जो किसी ख़ास एवं विशिष्ट उद्देश्य के लिए ही लोगों का भावनात्मक एकत्व है। एक संस्था के खास एवं विशिष्ट उद्देश्य को ही उस संस्था का दर्शन कहा जाता है। अतः एक संस्था का दर्शन यह बताता है कि उस संस्था का उद्देश्य क्या है और उसकी प्राप्ति की क्रियाविधि क्या होगा अर्थात उसे कैसे संभव बनाया जाएगा। यही दर्शन बुद्ध को एक व्यक्तिगत जीवन और एक संस्था  में अन्तर कर देता है। यही दर्शन एक शारीरिक जीवन को अमरत्व प्रदान करता है। इस तरह एक दर्शन में संस्था का लक्ष्य या उद्देश्य के साथ साथ उसे प्राप्त करने की क्रिया विधि भी समाहित हो जाता है।

कुछ दर्शन पुरातन, स्थायी और स्पष्ट होते हैं और इसीलिए उसकी समझ भी सामान्यतः सभी को होती है परन्तु कुछ दर्शन लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध भी होता है और इसीलिए उसके मूल स्वरुप को प्रारंभिक अवस्था में छुपाने की अनिवार्य आवश्यकता भी हो जाती है। मूल उद्देश्य को छिपाने के लिए सबसे आसान और सहज तरीका धर्म का आवरण या स्वरुप होता है क्योंकि एक मध्यमवर्गीय समाज धर्म, राजनीति एवं नैतिकता के मामलों में निर्णय दिमाग से नहीं लेकर दिल से लेता है। अर्थात एक मध्यमवर्गीय समाज इन मामलों में अपना निर्णय भावनात्मक रूप से लेता है और सामान्यत तथ्यात्मक, तार्किक एवं विश्लेषणात्मक नहीं हो पाता है। निम्नवर्गीय लोगों को इस स्तर पर नहीं तो सोचने का समझ होता है और न ही समय होता है। ये लोग अपने दिशानिर्देश के लिए मध्यमवर्ग पर ही आश्रित रहते हैं। मध्यमवर्गीय समाज लोक प्रचलित संवादपालिकाओं पर ही स्वभावत: निर्भर करता है और इसिलिए इन संवादपालिकाओं के मूल एवं धूर्त मंशा को नहीं समझ पाता है। ऐसे लोग सूचना के स्रोत, मूल उद्देश्य एवं निष्कर्ष को नहीं समझ पाते हैं। इस तरह ये लोग अपने ही हितों के विरुद्ध भी सक्रिय और तत्पर रहते हैं और समाज एवं राष्ट्र के विरुद्ध कार्य कर जाते हैं। ऐसा नहीं है कि उस तंत्र के सभी लोग सारे उद्देश्य को जानते और समझते ही हैं; वे भी उस भेडतंत्र का एक हिस्सा बन कर ही कार्य करते रहते हैं। उन्हें दिखाया और समझाया कुछ और जाता है तथा मूल उद्देश्य की ओर ध्यान जाने ही नहीं दिया जाता है| कार्यक्रम और प्रक्रिया इस तरह संयोजित होता है कि मूल उद्देश्य ही कुछ और दीखता है और कुछ ख़ास हितों को छुपा जाता है| अधिकतर डिग्रीधारी अपने डिग्री के कारण अपने को शिक्षित और समझदार भी समझे बैठे रहते हैं| इसलिए ही शिक्षा में वैज्ञानिक मानसिकता एवं तर्क, विवेक,और विश्लेषण की महत्ता स्थापित है|

एक व्यक्ति को लगता है कि अमुक व्यक्ति ही उसके कष्ट का दोषी है और इसलिए ही उसकी समझ वहीं तक सीमित हो जाती है और वह उसके पीछे के दर्शन को नहीं समझ पाता है। बहुत बार या अक्सर ऐसा होता है कि किसी कष्ट के पीछे कोई दर्शन नहीं होता और उसका निर्देशित कष्ट उसी सत्तासीन व्यक्ति के जीवन के साथ समाप्त भी हो जाता है। बहुत बार उस दर्शन के मुख्य कार्यकर्त्ता को भी मूल उद्देश्य का भी पता नहीं होता (क्योंकि मूल उद्देश्य को ढक दिया गया होता है) और वह मुख्य उपकरण की भूमिका मात्र में ही रहता है।

एक संस्था के कई अंग होता है, कई शाखाएं होती है, व्यापक प्रसार एवं कार्य क्षेत्र होता है, और समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज रहता है। परन्तु यदि उसका दर्शन शून्य हो जाए या दर्शन में बदलाव आ जाए तो सबकुछ बदल जाता है। एक संस्था और उसके अंग एवं संगठन इसी तरह तरह समाप्त हो सकता है; दूसरा कोई विकल्प नहीं है। एक विचारधारा को  दूसरा विचारधारा ही समाप्त कर सकता है, दूसरा कोई फौज या तंत्र नहीं। बाकी सभी तरीके मानवीय संसाधनों, भौतिक संसाधनों एवं समय की बरबादी के सिवा कुछ नहीं है।

यदि एक दर्शन सर्व कल्याणकारी नहीं है तो उसका हश्र हिटलर के नाज़ीवाद की तरह ही राष्ट्र के लिए अहितकर ही होगा| किसी व्यक्ति के जीवन के बाद भी यदि किसी दर्शन को जीवित रहना और सम्मानित स्थान पाना है तो उसे सर्व कल्याणकारी एवं मानवतावादी अवश्य होना होगा| जो दर्शन समाज के या किसी राष्ट्र के कुछ ख़ास वर्गों के हित तक ही यदि सीमित है तो वह सम्पूर्ण मानवतावाद के विरुद्ध है और वह आधुनिक युग में सनातन हो ही नहीं सकता है; भले ही कुछ अवधि तक विस्तारित हो जाए| यदि कोई दर्शन मानवतावादी नहीं है और उस राष्ट्र या किसी कौम का सैन्यीकरण का कोई सार्थक महत्त्व नहीं है| यदि किसी प्रसिद्ध व्यक्ति को लगता है कि उसकी कृतियाँ उसे अमरतत्व प्रदान कर देगी तो उसे यह अवश्य देखना चाहिए कि क्या उसने कोई दर्शन स्थापित किया है और क्या वह दर्शन सर्वकल्याणकारी और मानवतावादी है?  यदि दोनों तत्व नहीं है तो उसकी कृति उसी के साथ ख़त्म होगी| इसी कारण बड़े- बड़े अमीरों को याद नहीं किया जाता है|

अब इतिहास की परिभाषा में प्रकृति, मानव एवं संस्थाओं के सन्दर्भ में सामाजिक रूपांतरण के क्रमबद्ध ब्यौरा को ही शामिल किया जाता है| अब इतिहास की परिभाषा एवं भूमिका भी बदल रहा है| लोगों को अपनी सोच पर भी सोच रखना होगा|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक |

भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक सम...