गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

सावधान! किससे?

 

सावधान! किससे?

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सावधान, पर किससे? मेरा सन्दर्भ अपने समाज के लोग, निर्वाचन, विचारधारा, राष्ट्र प्रेम, समाज की समृद्धि और समाज के विकास में कतिपय बुद्धिजीविओं के बात एवं व्यवहार के प्रतिरूप के सम्बन्ध में है| समाज में सावधानी बरतनी है पर किससे, किस परिस्थिति से तथा कैसे विचारों से? किससे मतलब कैसे लोगों से? एक सामान्य आदमी को मूर्ख, धूर्त, समझदार और नादान की श्रेणी में विभाजित किया जा सकता है| मूर्ख उसको कहा जाता है जो बिना तर्क और विश्लेषण किये बिना किसी भी बात को तथ्य एवं सत्य मान ले और उस तथाकथित सत्य पर मर मिटने को उतारू भी हो जाए| ऐसे आस्थावानों को क्या कहा जाय जो किसी भी भावनात्मक सुचना को सही मान कर ही मगन हो जाते हैं| धूर्त उनको कहा जाता है जिनके पास विश्लेषण एवं तर्क क्षमता दोनों होता है और सारी बातो को समझते हुए भी जो अपने परिवार तथा संकुचित समुदाय के हितलाभ के कारण राष्ट्र एवं बृहत् समाज के विरुद्ध चला जाना सामान्य बात है| और जो इन दोनों श्रेणी में नहीं होता है उसको नादान कह सकते हैं| समझदार उसको कहेंगे जो वैज्ञानिक मानसिकता रखता है और तार्किक विश्लेषण भी करता है एवं सम्पूर्ण मानवता तथा शान्ति- समृद्धि की समझ भी रखता है|

मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ? सभी लोग राष्ट्र (Nation) प्रेम की बात करते हैं, सभी लोग देश (Country) एवं समाज (Society) की समृद्धि चाहते हैं, सभी लोग समाज का समन्वित विकास (Integrated Development) भी चाहते हैं| सामान्य लोग किन्ही विशेष अवधारणाओं (Concept) को नहीं जानते हैं ; कोई गलत बात नहीं है| पर यदि कोई बुद्धिजीवी इसे समझना भी नहीं चाहता है तो यह समाज के लिए दुखदायी बात हो जाती है| सरकार भी शिक्षा में वैज्ञानिक मानसिकता (Scientific Temper) और विश्लेषणात्मक चिंतन (Critical Thinking) पर जोर दे रही है| कुछ बुद्धिजीवी राष्ट्र एवं देश में अंतर नहीं करते, समाज एवं सामाजिक समुदाय (जाति) में अंतर नहीं करते, और विकास एवं वृद्धि (Growth) में अंतर नहीं करते| जो भावनाओं में आसानी से बह जाएँ और संकीर्ण दायरों में बंध जाए ; वैसे व्यक्ति दूर तक देख भी नहीं पाते हैं|

सावधानी उन बुद्धिजीविओं से रखना पड़ेगा जो सालों भर राष्ट्र, देश, समाज, विकास, समृद्धि के समर्थन में और  शोषण के विरुद्ध  एवं फांसीवाद के विरुद्ध लम्बी - लम्बी  बाते कहते मिलेंगे परन्तु चयन के निर्णायक दिन (चुनाव के दिन) ये सारी बातें बदल जाती है| ये तथाकथित बुद्धिजीवी अपनी जातियों एवं धर्मों में ही राष्ट्रवाद, विकासवाद एवं मानवतावाद देखने लग जाते और व्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन भी खोजने लग जाते हैं| सालों भर वे चीन से, अमेरिका से, जर्मनी से आगे निकलने की बातें करेंगे और चुनाव के एक दिन वे विश्लेषणात्मक एवं तार्किक क्षमता ताखे पर रख देते हैं| मैं ऐसे भावुक बुद्धिजीविओ के विरोध में नहीं हूँ, मैं सिर्फ इतना बताना चाहता हूँ कि इनकी स्वाभाविक प्रवृतियों को किसी निष्कर्ष पर जाने से पहले इन बातों को समझें| इनके बातों और इनके निर्णायक दिनों के व्यवहारों को समझ कर आप भी निर्णय लें| मेरा मकसद इतना ही है आपको अपने भावी योजनाओं में शुद्धता के साथ सफलता मिले|

मैं सोचता हूँ कि मैं आपको खुश कर दूँ| आपको खुश करना बहुत ही साधारण बात है – आप जो जानते हैं, उसी में दस प्रतिशत और जोड़ देना ही आपको खुश करने के लिए काफी है| इसी से आप मुझे जानकर मान लेंगे और आप भी सही साबित हो जायेंगे| पर समाज के कुछ खट खट लोग  इस व्यवहार को चाटुकारिता या चापलूसी कह कह कर मन को ही ख़राब कर देते हैं| पर ऐसे लोग गलत नहीं कहते, सिर्फ मेरे मन के उल्टा कह देते हैं| आपके मन में बैठी अवधारणाओं को सिर्फ खंडित नहीं किया जाना ही आपको खुश करने के लिए काफी है यानि आप अपने बने हुए अवधारणाओं को ही बचाना चाहते हैं और कोई अप्रत्याशित संशोधन या बदलाव भी नहीं चाहते| ऐसे तो आपको कोई भी कर खुश देगा तो फिर मुझे लिखने का क्या औचित्य है? मैं आपको खुश नहीं करना चाहता; मैं तो आपको ठिठका देना चाहता हूँ| थोडा तो आप भी ठिठक जाइये क्योंकि आप भी मेरे ही तरह भारत को चीन एवं अमेरिका से भी आगे ले जाना चाहतें हैं|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक| 

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