बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

न्यायिक तंत्र में विश्वास और विकास (Faith in Judicial System and Development)

एक बड़ा प्रश्न है कि क्या न्यायिक तंत्र में विश्वास और उस प्रदेश या देश के विकास में कोई प्रत्यक्ष संबंध है? इसका उत्तर काफी स्पष्ट और सकारात्मक है। इतिहास गवाह है कि स्पेन और पुर्तगाल विश्व के कई भू भागों को पहले ख़ोज निकाला और सबसे पहले उपनिवेश भी बनाना शुरू किया; लेकिन इस मामले में पूंजी (Capital) निवेश की भारी आवश्यकता होती है। इन देशों में उस समय न्यायिक तंत्र पर लोगों का भरोसा उठ गया था; परिणामत: देशी पूंजी निवेश बाहर जाने लगा और बाहरी पूंजी निवेश इन देशों में आने से बचने लगा। वहीं ब्रिटेन और हालैंड की न्यायिक तंत्र में लोगों का बड़ा विश्वास रहा और इसी से वे हर मामले में आगे बढ़ते चले गए। क्या भारत के बारे में ऐसा कहना उचित रहेगा? क्या यह नियम सर्व व्यापी है और सर्व कालिक है? यदि "हां", तो भारत के बारे में आवश्यक विश्लेषण अवश्य किया जाना चाहिए। नकारात्मक आलोचना नहीं हो, परन्तु सकारात्मक, रचनात्मक, सुधारात्मक और सृजनात्मक आलोचना का स्वागत किया जाना चाहिए। न्यायिक तंत्र में सिर्फ वैधानिक विधि ही शामिल नहीं है, अपितु प्रशासनिक विधि सहित विधि के प्रचलित सभी स्वरुप शामिल हो जाते हैं जो वैधानिक नियमों, निर्देशों, आज्ञाओं, प्रतिषेधों सहित सभी रुपों को नियमित, नियंत्रित, संचालित, और प्रभावित करता है।

जब  किसी क्षेत्र या समाज के न्यायिक तंत्र में किसी व्यक्ति, समाज या संस्थान का विश्वास नहीं होता तो वह वहां पूंजी, समय और संसाधन में निवेश नहीं करता है और परिणाम पिछड़ापन होता है। न्यायिक तंत्र में विश्वास नहीं होने का कई कारण हो सकते हैं - लोगों का निम्न शैक्षणिक स्तर, निम्न बौद्धिक क्षमता, जटिल एवं लम्बी न्यायिक प्रक्रिया, जजों की अपर्याप्त संख्या बल, जजों की बहाली की अपारदर्शी प्रक्रिया, और कभी कभी न्यायिक तंत्र से जुड़े लोगों का विवादास्पद, तथा अवैज्ञानिक एवं मानवीय मूल्यों के विरुद्ध बयान। लोगों (वैश्विक एवं स्थानीय) के अविश्वास के लिए व्यवस्था भी दोषी है। इसे बनाए रखने एवं इसे और मजबूत करने की जबावदेही क्या व्यवस्था पर नहीं है?

आप चर्चा पर रोक लगा सकते हैं और पारदर्शिता को बाधित कर सकते हैं, परन्तु भरोसा (Faith) को नियंत्रित नहीं कर सकते। यह भरोसा अपना काम अपने ढंग से करता रहता है। इन्टरनेट संबद्धता (Connectivity) और पारदर्शिता (Transperity) - दोनों को बढ़ा रहा है। आज़ के समय में पहले से उपलब्ध डिजिटल तकनीकों का बेहतर एवं सूक्ष्म समन्वय (Integration) हो रहा है और परिणाम शक्तियों के बदलते प्रभाव एवं नए स्वरूप में दिखता है। शक्तियां ऊर्ध्व (Vertical) से क्षैतिज (Horizontal) हो रहा है, विशिष्ट (Exclusive) से समाविष्ट (Inclusive) हो रहा है और व्यक्तिगत (Individual) से सामाजिक (Social) हो रहा है। इसी कारण न्यायिक तंत्र में अविश्वास का परिणाम पहले की तुलना में अधिक तेज (Fast), व्यापक (Vast) और प्रभावकारी (Effective) होता जा रहा है जो पहले इतना नहीं था। इसलिए ही कहा है कि वर्तमान युग "सूचना का युग"" नहीं; अपितु "सूचनाओं के प्रसार" (Sharing of the Information) का युग है।

कहा जाता है कि न्याय से किसी को हानि नहीं होती; सही कहा गया है परन्तु समुचित न्याय समुचित समय में एवं समुचित व स्वस्थ प्रक्रिया से मिले, तब किसी को हानि नहीं होती। शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही तय करने के लिए ही "सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" लागू किया गया है जो व्यवस्था में प्रशासनिक न्याय के कार्यान्वयन को समुचित नहीं मानता और सुधार की अपेक्षा करता है। यह भी कहा जाता है कि न्यायिक तंत्र में अविश्वास ही भ्रष्टाचार कारण है। यह भी कहा जाता है कि न्याय में अत्यधिक विलम्ब न्याय नहीं है। यह भी कहा जाता है कि न्यायिक तंत्र में विश्वास बनाना और बनाए रखना न्यायिक तंत्र की प्राथमिकता होनी चाहिए। जब न्याय विकास में इतना महत्वपूर्ण है तो जनता के भ्रम और अविश्वास कितना घातक होगा, यह समझने की चीज है। आप प्रचार तंत्र से इस पर काबू पा सकते हैं, परन्तु जब प्रचार तंत्र ही अपनी विश्वसनीयता खो दे तो प्रचार तंत्र भी निष्प्रभावी होने लगता है या हो जाता है। भारत के अधिकांश प्रचार तंत्र के बारे में यह निश्चिंतता से कहा जा सकता है।

ऐसे में यदि न्यायिक तंत्र से जुड़े लोग प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं, और विपरीत बयान देते हैं, इससे न्यायिक तंत्र की विश्वसनीयता क्षरित होता है। इस पर सवाल से यह ज्यादा महत्वपूर्ण है है कि उनको इस स्थिति का सहारा क्यों लेना पड़ा;  वह भी बहुत ही जबावदेह और संवेदनशील उच्च पदस्थ प्राधिकारों को। पूर्व का कोई न्यायमूर्ति मोर - मोरनी के आंसुओं से उनके गर्भ धारण का वक्तव्य देता है या ऐसा ही कोई अन्य व्यक्ति ऐसा अटपटा अवैज्ञानिक, तथ्यहीन, अतार्किक बातें सार्वजनिक प्लेटफार्म पर कहता है तो स्वाभाविक है कि उसके तर्कक्षमता और विवेकशीलता पर प्रश्न चिह्न लगेगा। आज के वैज्ञानिक युग में यदि कोई, जो न्यायिक तंत्र से किसी तरह जुड़ा है; तर्क, तथ्य, और विवेक को छोड़ आस्था, रूढ़िवादिता, मानवीय मूल्यों के विरुद्ध बोलता है या व्यवहार करता है तो न्यायिक तंत्र के विश्वास को क्षति पहुंचती है।

न्यायिक तंत्र में विश्वास, राष्ट्र के निर्माण एवं विकास, और पूंजी निवेश के बीच के अन्तर्सम्बन्धों पर विशेष अध्ययन किया जाए और परिणाम का अवलोकन किया जाए। न्यायिक तंत्र में विश्वास ही पूंजी का निवेश कराता है, समृद्धि और विकास के लिए भावनात्मक आधार देता है। मानव भावनाओं से संचालित होता है और मशीन तर्क से प्रभावित होता है। कहा जाता है कि दिल (भावना - Emotions) हमेशा दिमाग (तर्क - Logic) पर हावी रहता है; खासकर कम शिक्षित एवं जागरूक लोगों के मामलों में। यदि यह महत्वपूर्ण है तो समाज और राष्ट्र इस पर विमर्श करें और खुले दिल एवं दिमाग से इस विमर्श को आगे बढाए। यह एक अति गंभीर विषय है।

आइए, एक नए मुद्दे पर विमर्श करें और नया सशक्त एवं समृद्ध समाज तथा राष्ट्र का निर्माण करें।

निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत्त,

राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

आर्य आक्रमणकारी क्यों हुए?

 आर्य आक्रमणकारी क्यों हुए?

------------------------------------

कहा जाता है कि आर्यों ने 1500  वर्ष ईसा पूर्व भारत में आक्रमण किया और भारत में रच बस गए। इस तथाकथित सत्य का कोई पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है अर्थात कोई भी पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं करा सका। फिर सवाल उठता है कि आर्यों को क्यों आक्रमणकारी होना पड़ा?

भारत के इतिहास की कुछ अलग विशिष्टताएं है। सौ साल पहले भारत का इतिहास पाषाण काल से सीधे वैदिक काल पर आ जाता था, परन्तु सिन्धु सभ्यता ने इस क्रमबद्धता को बिगाड़ दिया यानि वैदिक काल के आदि काल होने को झुठला दिया।

इसी तरह चालीस साल पहले तक भारत के इतिहास में महाकाव्य काल हुआ करता था अर्थात महाकाव्य काल को ऐतिहासिक होने का मान्यता थी, परन्तु अब इसे इतिहास के पन्नों से हटा दिया गया है। अर्थात यह काल आस्था का विषय मानते हुए गैर ऐतिहासिक स्थापित हो गया। ऐसा इतिहास के वैश्विक स्तर पर हुआ। अब बारी आर्यों के तथाकथित आक्रमणकारी होने के तथाकथित इतिहास की है।

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष एवं प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो रामशरण शर्मा जी ने भी अपने बाद के दिनों में लिखा है कि ॠगवेद काल में जो भौतिक साक्ष्य (मृदभांड इत्यादि) धरती पर मिली है, वह दूसरी कहानी कहती है। ॠगवेद का भौगोलिक क्षेत्र पंजाब तक सीमित बताया गया जबकि समकालीन भौतिक साक्ष्य पूरे गंगा- यमुना नदी घाटी सभ्यता क्षेत्र में विस्तारित था। ॠगवैदिक काल में चलन्त अर्थव्यवस्था वर्णित है जबकि भौतिक साक्ष्य स्थिर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के स्थापित साक्ष्य उपलब्ध कराता है। प्रो शर्मा यहां कहते हैं कि या तो ॠगवैदिक सभ्यता जमीन पर नहीं था; या जो जमीन पर था, वह ॠगवैदिक सभ्यता नहीं था। इसी तरह उत्तर वैदिक काल के बारे में भी प्रो शर्मा लिखते हैं कि उत्तर वैदिक सभ्यता पूरे उत्तर भारत में विस्तृत बताया गया है जबकि उस काल में उपलब्ध भौतिक साक्ष्य (मृदभांड इत्यादि) नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तारित था। उत्तर वैदिक काल की दो प्रमुख गतिविधियां - हवन (कुंड) एवं पशु बलि प्रचलित बताया गया जबकि इसके कोई भी भौतिक साक्ष्य जमीन में या सतह पर उपलब्ध नहीं मिले हैं। फिर प्रो शर्मा लिखते हैं कि उस काल में जमीन पर उपलब्ध सभ्यता या तो उत्तर वैदिक सभ्यता नहीं था या उत्तर वैदिक सभ्यता जमीन पर नहीं था।

अभी तक कोई भी ठोस साक्ष्य वैदिक सभ्यता के पक्ष में नहीं आया है। तो आर्यों को आक्रमणकारी क्यों होना पड़ा?

इतिहास का मध्य काल सामंतवाद के उदय के साथ शुरू होता है। इतिहास का सम्यक व्याख्या उत्पादन की शक्तियों और उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर किया जाना वैज्ञानिक दृष्टिकोण है और यह सब कुछ काफी संतोषजनक व्याख्या करता है। भारत का सामंतवाद पश्चिमी यूरोप या पूर्वी यूरोप के सामंतवाद से सर्वथा भिन्न था, फिर भी "समानता का अन्त होना" सभी सामंतवाद का मूलाधार है।

भारत में सामंतवाद के शुरुआती शताब्दियों में ही अन्य अरब एवं मुगल आक्रान्ताओ का आगमन हो गया। ये शासक वर्ग हुए। सामंतवाद की आवश्यकताओं ने "समानता के अन्त" के आधार पर ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग को पैदा किया। इनको प्राचीन, पुरातन, सनातन और सांस्कृतिक बताने की आवश्यकता हुई। इन गुणों के कारण यह गौरवशाली भी हुआ, परम्परा भी हुआ और हमारी संस्कृति भी हुई। हमें शासक वर्ग की तरह विदेशी घोषित करने की भी आवश्यकता हुई ताकि सामान्य जन, जो सामान्यत: शुद्र और अछूत थे, से अलग एक विशिष्ट, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च गुणों से युक्त सामान्य जन से भिन्न साबित हो सकें।  इनके सहयोग से भारत में शासन भी आसान हुआ। इसके लिए इनकी प्रकृति एवं उत्पत्ति की अलग अवधारणा की आवश्यकता हुई जो प्राकृतिक, तार्किक एवं स्वाभाविक लगें।

ऐसी स्थिति में एक कहानी बनाया गया कि भारत में सभ्यता की शुरुआत एक घुमन्तू आक्रमणकारियों द्वारा हुईं और उसने ही भारत में सभ्यता की शुरुआत किया। सभी आक्रमणकारियों की तरह इसे भी पश्चिमी दिशा से आया बताया गया। यह अलग बात है कि सिन्धु सभ्यता ने अपने अंदाज में इस अवधारणा पर पहली चोट किया। आर्य आक्रमणकारी एवं उनकी तथाकथित सभ्यता का पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है, अतः कथा बनाया गया कि उन लोगों को लिखना नहीं आता था, सिर्फ पढ़ना और रचना करना आता था। उनके समकालीन (पूर्व के सिन्धु सभ्यता और बाद के बौद्धिक सभ्यता) को लिखना आता था परन्तु इस तथाकथित सभ्यता और संस्कृति वाले को बारहवीं शताब्दी में लिखना आया, जब कागज़ का प्रचलन हो गया। बहुत कुछ साक्ष्य उपलब्ध है कि आर्यों की कहानी एक कथा है जिसकी कोई ऐतिहासिकता नहीं है। इसे जब विश्व की छियासी प्रतिशत जनता मान लेगा तो सत्रह प्रतिशत भारतीय भी मान लेगा ही होगा।

मैंने एक भिन्न अवधारणा प्रस्तुत कर दिया है, परन्तु यही सही है और उपरोक्त कारण ही वह कारण है जिसके कारण आर्यों को आक्रमणकारी बनना पड़ा। आप भी मनन मंथन करें। कम से कम इस नजरिए से इसे देखना शुरू कर दिया जाए, भारत के सभी समस्याओं का समाधान खुल जाएगा।

निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत्त राज्य कर संयुक्त आयुक्त,

 बिहार, पटना।

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक।

रविवार, 7 फ़रवरी 2021

भारत में विधि या व्यवस्था?

विधि - व्यवस्था किसी शासन प्रणाली की एक अवस्था है, जिसमें विधि को बनाया जाता है, ताकि उसके अनुरूप व्यवस्था बनी रहे। यह एक सामान्य प्रचलित शब्द है, जिसका अर्थ भी बड़ा सामान्य है। परन्तु ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें दो भिन्न भिन्न शब्द है - विधि एवं व्यवस्था। दोनों ने कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है और भारत में कौन ज्यादा अर्थवान है? प्रश्न असामान्य दिखता है, पर उत्तर गहरा और गंभीर है।

भारत में 'विधि' अधिक महत्वपूर्ण है, तो चीन में 'व्यवस्था'। अब आप इन दोनों के अंतर के प्रभाव को माप सकते हैं - चीन भारत से अर्थव्यवस्था में 1985 तक पीछे था और अब भारत की अर्थव्यवस्था से सात गुना से अधिक बड़ा है, यद्यपि दोनों की जनसंख्या लगभग समान है। यह 'विधि' और 'व्यवस्था' की प्राथमिकता का फर्क है।

कोई विधि मानवीय आचरण को नियमित, नियंत्रित, एवं निर्देशित करने के सामान्य नियम होते हैं, जो राज्य द्वारा स्वीकृत होते हैं तथा जिसका अनुपालन अनिवार्य होता है। किसी भी नियम की संहिता को विधि कहा जाता है। यह समाज को सम्यक ढंग से संचालित करने के लिए आवश्यक होता है, ताकि समाज की उत्पादकता में संवर्धन होता रहे।  कोई व्यवस्था किसी संरचना की एक संगठित अवस्था है, जिसमें प्रत्येक चीज उनके उपयुक्त स्थान पर रहे। या, दूसरे शब्दों में,  कोई व्यवस्था किसी संरचना की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति या वस्तुएं आवश्यकतानुसार एक दूसरे के संबंध में क्रमबद्ध तरीके से उपस्थित किए गए हों।

भारत में 'विधि' बनाने पर जोर दिया जाता है और चीन में 'व्यवस्था' बनाने पर। भारत में विधि को अव्यवहारिक रुप से अत्यधिक रुप से कठोर बनाया जाता है, जिसका शत प्रतिशत अनुपालन सार्वजनिक जीवन में संभव नहीं होता। एक उदाहरण - प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध। इसके व्यवहारिक एवं वैकल्पिक व्यवस्था किए बिना इसे लागू कर दिया जाता है, प्रशासन भी कुछ दिनों में इसका अनुपालन कराना छोड़ कर दूसरे तात्कालिक अनिवार्य आवश्यकता के विधि के अनुपालन में उलझ जाता है। इस तरह बना हुआ विधि कोई व्यवस्था नहीं कर पाता और विधि एक बड़ा तमाशा बन कर रह जाता है।  किसी विधि को अत्यधिक कडा बनाने से एक सिपाही को भी अथाह शक्ति देता है कि वह किसी भी सामान्य जन की औकात को नाप देता है। जेलों में बंद अधिकतर जनता विधि की प्रक्रिया झेल नहीं पाते हैं। ये व्यवस्था के कुप्रबंधन के शिकार होते हैं। 

भारत में 'स्थायी लेखा संख्या' (पैन) स्थायी माना जाता है, परन्तु भारत सरकार ही बैंकों में हर साल KYC को अनिवार्य बताता है। इसमें हर साल पैन कार्ड एवं आधार कार्ड को देना अनिवार्य बनाया; मानों यह दोनों कार्ड हर साल बदलने वाला है। यह विधि किस व्यवस्था के लिए आवश्यक है, पता नहीं। इसी तरह बैंकों में लोकपाल होता है और लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी भी, परन्तु इनको विधि की प्रक्रिया की ही जानकारी नहीं होती। ये विधि के प्राधिकार शिकायतकर्ता के वाद को बैंक का पक्ष जानकर ही मामले को समाप्त कर देते हैं और वादी से इस संबंध में बैंक के उत्तर के संबंध में अपने पक्ष रखने का कोई अवसर ही नहीं देता। यहां विधि है, लेकिन इसके अनुरूप कोई व्यवस्था ही नहीं है।

भारत में नौकरशाह ही विधि के प्रारुप को अत्यधिक कडा बनाते हैं और चूंकि विधायिका एवं कार्यपालिका एक ही तंत्र के हिस्से होते हैं, इसीलिए इनके हर प्रारुप की स्वीकृति विधायन के रुप में भी हो जाता है। अक्सर विधायिका के सदस्य शिक्षा की उपाधि के बारे में एक गलतफहमी पाल लेता है, कि रट्टू परिक्षा प्रणाली में ज्यादा अंक लाने वाले ज्यादा प्रतिभाशाली होते हैं। इसके अलावा अस्थाई व्यवस्थापक भी स्थायी व्यवस्थापक से संभल कर रहता है, या यों कहें कि अस्थाई सामान्यतः स्थायी से डरता है ।  यही सामान्य जन की मानसिक हार है। 

विधि अपने आप में एक जटिल अवधारणा है और एक जटिल प्रक्रिया भी है। हमें समझना चाहिए कि रट्टू ज्ञान और प्रतिभा किसी बुद्धिमता के भिन्न भिन्न आयाम है। किसी की बुद्धिमत्ता उसके अध्ययन के साथ साथ उसके चिंतन मनन से विकसित होता है। यह किसी में भी विकसित हो सकता है। बुद्धिमत्ता एक कौशल है और उसे कोई भी विकसित कर सकता है। इस समझ के अभाव में राजनेताओं का भी इस बौद्धिक (मानसिक) हीनता के बोध से संचालित होना असामान्य नहीं है और इसलिए कोई विधि भी अपने सम्यक रूप में नहीं आ पाती। कोई विधि उसके लिए अपेक्षित व्यवस्था को तैयार किए बिना नकारात्मक प्रभाव पैदा करता है और व्यवस्था में निराशा का माहौल बनाता है।

हर विधि को व्यवहारिक होना चाहिए और उसे अपेक्षित व्यवस्था के साथ होना चाहिए। 'नो पार्किंग' के जुर्माने के साथ साथ ही पार्किंग की व्यवस्था भी होना चाहिए या पार्किंग की आवश्यकता ही नहीं होना चाहिए। व्यवस्था के बिना विधि एक तमाशा ज्यादा बन जाता है। दोनों की आवश्यकता है और दोनों साथ साथ रहें।

भारत क्यों नहीं अपेक्षित परिणाम दे रहा? यह नौकरशाही का क्रीड़ा क्षेत्र बन गया है। नौकरशाही की पारदर्शिता और जवाबदेही तय करने के लिए सूचना का अधिकार अधिनियम लागू है, लेकिन कड़े विधानों के साथ वही नौकरशाही ही हावी है। इस विधान में किसी सामान्य जन को दंडित किया जा सकता है,। विशिष्ट जनों का तो एक काकटेल होता है, सारे विशिष्ट जन एक दूसरे से लिपटे एवं गुंथे हुए हैं।  भारत के विशिष्ट जनों के कुछ आधार विश्व में अद्वितीय भी है, जैसे कुछ जन्म आधारित है और इसलिए अपरिवर्तनीय भी है। इस आधार का काकटेल तो अप्रीतम है।

भारत में क्या नहीं है, सिवाय समुचित व्यवस्था के? ऐसी व्यवस्था जो न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित है, अभी भी सैद्धांतिक अवस्था में ही है। इतने संसाधन युक्त देश की यह स्थिति। आपको भी अफसोस होता होगा। और मुझे भी अफसोस होता है।

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक।

भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक सम...