रविवार, 7 फ़रवरी 2021

भारत में विधि या व्यवस्था?

विधि - व्यवस्था किसी शासन प्रणाली की एक अवस्था है, जिसमें विधि को बनाया जाता है, ताकि उसके अनुरूप व्यवस्था बनी रहे। यह एक सामान्य प्रचलित शब्द है, जिसका अर्थ भी बड़ा सामान्य है। परन्तु ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें दो भिन्न भिन्न शब्द है - विधि एवं व्यवस्था। दोनों ने कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है और भारत में कौन ज्यादा अर्थवान है? प्रश्न असामान्य दिखता है, पर उत्तर गहरा और गंभीर है।

भारत में 'विधि' अधिक महत्वपूर्ण है, तो चीन में 'व्यवस्था' अब आप इन दोनों के अंतर के प्रभाव को माप सकते हैं - चीन भारत से अर्थव्यवस्था में 1985 तक पीछे था और अब भारत की अर्थव्यवस्था से सात गुना से अधिक बड़ा है, यद्यपि दोनों की जनसंख्या लगभग समान है। यह 'विधि' और 'व्यवस्था' की प्राथमिकता का फर्क है।

कोई विधि मानवीय आचरण को नियमित, नियंत्रित, एवं निर्देशित करने के सामान्य नियम होते हैं, जो राज्य द्वारा स्वीकृत होते हैं तथा जिसका अनुपालन अनिवार्य होता है। किसी भी नियम की संहिता को विधि कहा जाता है। यह समाज को सम्यक ढंग से संचालित करने के लिए आवश्यक होता है, ताकि समाज की उत्पादकता में संवर्धन होता रहे।  कोई व्यवस्था किसी संरचना की एक संगठित अवस्था है, जिसमें प्रत्येक चीज उनके उपयुक्त स्थान पर रहे। या, दूसरे शब्दों में,  कोई व्यवस्था किसी संरचना की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति या वस्तुएं आवश्यकतानुसार एक दूसरे के संबंध में क्रमबद्ध तरीके से उपस्थित किए गए हों।

भारत में 'विधि' बनाने पर जोर दिया जाता है और चीन में 'व्यवस्था' बनाने पर। भारत में विधि को अव्यवहारिक रुप से अत्यधिक रुप से कठोर बनाया जाता है, जिसका शत प्रतिशत अनुपालन सार्वजनिक जीवन में संभव नहीं होता। एक उदाहरण - प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध। इसके व्यवहारिक एवं वैकल्पिक व्यवस्था किए बिना इसे लागू कर दिया जाता है, प्रशासन भी कुछ दिनों में इसका अनुपालन कराना छोड़ कर दूसरे तात्कालिक अनिवार्य आवश्यकता के विधि के अनुपालन में उलझ जाता है। इस तरह बना हुआ विधि कोई व्यवस्था नहीं कर पाता और विधि एक बड़ा तमाशा बन कर रह जाता है।  किसी विधि को अत्यधिक कडा बनाने से एक सिपाही को भी अथाह शक्ति देता है कि वह किसी भी सामान्य जन की औकात को नाप देता है। जेलों में बंद अधिकतर जनता विधि की प्रक्रिया झेल नहीं पाते हैं। ये व्यवस्था के कुप्रबंधन के शिकार होते हैं। 

भारत में 'स्थायी लेखा संख्या' (पैन) स्थायी माना जाता है, परन्तु भारत सरकार ही बैंकों में हर साल KYC को अनिवार्य बताता है। इसमें हर साल पैन कार्ड एवं आधार कार्ड को देना अनिवार्य बनाया; मानों यह दोनों कार्ड हर साल बदलने वाला है। यह विधि किस व्यवस्था के लिए आवश्यक है, पता नहीं। इसी तरह बैंकों में लोकपाल होता है और लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी भी, परन्तु इनको विधि की प्रक्रिया की ही जानकारी नहीं होती। ये विधि के प्राधिकार शिकायतकर्ता के वाद को बैंक का पक्ष जानकर ही मामले को समाप्त कर देते हैं और वादी से इस संबंध में बैंक के उत्तर के संबंध में अपने पक्ष रखने का कोई अवसर ही नहीं देता। यहां विधि है, लेकिन इसके अनुरूप कोई व्यवस्था ही नहीं है।

भारत में नौकरशाह ही विधि के प्रारुप को अत्यधिक कडा बनाते हैं और चूंकि विधायिका एवं कार्यपालिका एक ही तंत्र के हिस्से होते हैं, इसीलिए इनके हर प्रारुप की स्वीकृति विधायन के रुप में भी हो जाता है। अक्सर विधायिका के सदस्य शिक्षा की उपाधि के बारे में एक गलतफहमी पाल लेता है, कि रट्टू परिक्षा प्रणाली में ज्यादा अंक लाने वाले ज्यादा प्रतिभाशाली होते हैं। इसके अलावा अस्थाई व्यवस्थापक भी स्थायी व्यवस्थापक से संभल कर रहता है, या यों कहें कि अस्थाई सामान्यतः स्थायी से डरता है ।  यही सामान्य जन की मानसिक हार है। 

विधि अपने आप में एक जटिल अवधारणा है और एक जटिल प्रक्रिया भी है। हमें समझना चाहिए कि रट्टू ज्ञान और प्रतिभा किसी बुद्धिमता के भिन्न भिन्न आयाम है। किसी की बुद्धिमत्ता उसके अध्ययन के साथ साथ उसके चिंतन मनन से विकसित होता है। यह किसी में भी विकसित हो सकता है। बुद्धिमत्ता एक कौशल है और उसे कोई भी विकसित कर सकता है। इस समझ के अभाव में राजनेताओं का भी इस बौद्धिक (मानसिक) हीनता के बोध से संचालित होना असामान्य नहीं है और इसलिए कोई विधि भी अपने सम्यक रूप में नहीं आ पाती। कोई विधि उसके लिए अपेक्षित व्यवस्था को तैयार किए बिना नकारात्मक प्रभाव पैदा करता है और व्यवस्था में निराशा का माहौल बनाता है।

हर विधि को व्यवहारिक होना चाहिए और उसे अपेक्षित व्यवस्था के साथ होना चाहिए। 'नो पार्किंग' के जुर्माने के साथ साथ ही पार्किंग की व्यवस्था भी होना चाहिए या पार्किंग की आवश्यकता ही नहीं होना चाहिए। व्यवस्था के बिना विधि एक तमाशा ज्यादा बन जाता है। दोनों की आवश्यकता है और दोनों साथ साथ रहें।

भारत क्यों नहीं अपेक्षित परिणाम दे रहा? यह नौकरशाही का क्रीड़ा क्षेत्र बन गया है। नौकरशाही की पारदर्शिता और जवाबदेही तय करने के लिए सूचना का अधिकार अधिनियम लागू है, लेकिन कड़े विधानों के साथ वही नौकरशाही ही हावी है। इस विधान में किसी सामान्य जन को दंडित किया जा सकता है,। विशिष्ट जनों का तो एक काकटेल होता है, सारे विशिष्ट जन एक दूसरे से लिपटे एवं गुंथे हुए हैं।  भारत के विशिष्ट जनों के कुछ आधार विश्व में अद्वितीय भी है, जैसे कुछ जन्म आधारित है और इसलिए अपरिवर्तनीय भी है। इस आधार का काकटेल तो अप्रीतम है।

भारत में क्या नहीं है, सिवाय समुचित व्यवस्था के? ऐसी व्यवस्था जो न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित है, अभी भी सैद्धांतिक अवस्था में ही है। इतने संसाधन युक्त देश की यह स्थिति। आपको भी अफसोस होता होगा। और मुझे भी अफसोस होता है।

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक।

3 टिप्‍पणियां:

  1. सर के प्रत्येक पोस्ट में समान्य समझ रखने वाले व्यक्ति को भी विषय के गहराई में उतर कर समझे का अवसर मिलता है इसके लिए सर को धन्यवाद। सदैव सर के पोस्ट का इंतजार रहता है ....

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  2. बहुत जबर्दस्त एवं pragmatic लेख लिखा है सरजी जो भारत मे highly relevant है।

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