मैं बुद्धिजीवियों की निष्ठा पर सवाल उठाना चाहता हूं। हमारी
व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है क्योंकि इतनी बड़ी संख्या बल के बावजूद हम आठ -
दस करोड़ की संख्या बल वाले देश से तुलना करने का प्रयास कर खुशफहमी पालते हैं।
हमें
कुछ सामंतवादी सोच के कुछ लोगों को छोड़ किसी भी भारतीय नागरिक या समूह की भारत के
प्रति सत्यनिष्ठा और शुभकामनाएं पर कोई संदेह नहीं है और करना भी नहीं चाहिए। हां, सोच
और लक्ष्य प्राप्ति के प्रकार एवं तरीके में अंतर पड़ सकता है। हां, यदि सोच और लक्ष्य प्राप्ति के प्रकार एवं तरीके में अंतर पड़ सकता है,
तो हम बुद्धिजीवियों की भी जबावदेही बनती है; हमलोग
क्या कर रहे हैं और कैसी सोच रखते हैं?
आज
के बुद्धिजीवी व्यवस्था के त्रुटियों पर विरोध करने में अपनी बुद्धिमत्ता का
महत्तम उपयोग करते हैं और करना भी चाहिए। पर इसके कार्यान्वयन के समय अपनी निष्ठा
बदल देते हैं। कार्यान्वयन के समय यानि मतदान के दिन हम व्यवस्था में गुणवत्ता का
आधार जाति,
समुदाय और धर्म को बनाते हैं एवं उसे ही सही बताते हैं। ऐसे तथाकथित
बुद्धिजीवियों की संख्या बहुत है। ऐसे बुद्धजीवी चिल्लाते भी खूब है, फिर भी अपना मत यानि अपना वोट यथास्थिति को ही बनाए रखने में मदद देते
हैं। व्यवस्था परिवर्तन के लिए व्यवस्थापक को समझाना भी पड़ता है और कभी कभी बदलना
भी पड़ता है। बदलने के लिए मतदान के दिन सजग और सचेत रहना पड़ता है।
हमारे
अधिकतर बुद्धजीवी विरोध और बदलाव में सूक्ष्म अन्तर नहीं करते। यही समस्या का जड़
है। व्यवस्था की बुराइयों का विरोध जरुरी है और ऐसे विरोधियों का संख्या भी अधिक
है, पर ये विरोध जाति, समुदाय
और धर्म के आधार पर बांट दिए जाते हैं। ये विरोध खंडित हो नहीं जाता, बल्कि उनके नेताओं द्वारा साजिश के अन्तर्गत खंडित करवा दिए जाते हैं। आम
बुद्धिजीवी अपनी जाति, समुदाय और धर्म में ही अपनी समझदारी
देखते हैं और बिके हुए नेताओं का स्वार्थ नहीं समझ पाते।
यदि
व्यवस्था में सुधार आवश्यक है तो बदलाव के लिए एकजुट होना होता है और वह दिन मतदान
का दिन होता है। आपका मत (वोट) या तो व्यवस्था के पक्ष में पड़े या उस व्यवस्था को
बदलने वाला के पक्ष में; तीसरे पक्ष को वोट देना आपकी सत्यनिष्ठा पर प्रश्न
चिन्ह लगा देता है। ऐसे में आपका विरोध एक बहुत बड़ा नाटक हो जाता है जिसमें आप
ठगे जाते हैं और आपके नेता आनंदित होते हैं। उन्हें उनके प्रयास का लाभांश मिलता
है जिसे आप समझना नहीं चाहते या समझकर आप भी लाभांश की उम्मीदों पर आस लगाएं रहते
हैं। यही बुद्धिजीवियों की सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और
राष्ट्रभक्ति पर सवाल खड़े करते हैं। विचार कीजियेगा कि मेरा कथन कितना गलत,
कितना सही है।
आप
कम से कम विरोध करने का नाटक बंद कर दीजिए। सिर्फ चिल्लाना और वोट को खंडित कर
देना कहां की राष्ट्र भक्ति है? इतिहास इसे भी लिखेगा और आप किस वर्ग में शामिल किए जाएंगे;
विचार कीजियेगा।
निरंजन
सिन्हा
स्वैच्छिक
सेवानिवृत्त राज्य कर संयुक्त आयुक्त,
बिहार, पटना।
व्यवस्था
विश्लेषक एवं चिन्तक।
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