रविवार, 29 नवंबर 2020

न्याय का तमाशा (DRAMA of JUSTICE)

सड़क के किनारे मजमा लगा हुआ थामैं भी माजरा समझने वहां चला गया। वहां तमाशा हो रहा था और लोग उसे देख आनंदित हो रहे थे। मैंने विचार किया। समझा कि लोगों को आनंदित करने के लिए तमाशा करना जरुरी होता है। तमाशा सिर्फ सड़क किनारे नहीं होताशासन व्यवस्था में भी आवश्यक हो जाता है। शासन व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण खम्भा है- विधायिकाकार्यपालिकान्यायपालिका और सम्वाद्पालिका। 

सम्वाद्पालिका (संवाद करने का तंत्र) को ही सामान्य जन परम्परागत मीडिया कहते हैं। सम्वाद्पालिका के तमाशे इतने विवादास्पद होते हैं कि उनके बारे में चर्चा करना भी अनावश्यक होगा| वैसे भी संवाद एवं संचार पर जिनका नियंत्रण होता है, वे किसी दुसरे की सुनते भी नहीं हैं|उनमें एक बहुत खास विशेषता होती है कि वे अपने को सर्व ज्ञानी और सर्वोच्च ज्ञानी भी समझते हैं।

विधायिका एक भवन तक ही सीमित होता है। यह विधान यानि नियम बनाने तक ही सीमित होता है और इसमें जनता की प्रत्यक्ष की भागीदारी भी नहीं होती है। और इसलिए विधायिका के तमाशे, यदि होता है भी तो उसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता है

मेरा आज़ का विषय है- न्याय का तमाशा। पहले न्याय के प्रकार को समझा जाय। न्याय को कितने स्वरुपों में वर्गीकृत किया जा सकता हैमैंने न्याय को चार स्वरुपों में वर्गीकृत किया है - नैतिक न्यायप्राकृतिक न्यायधार्मिक न्यायऔर वैधानिक न्याय, जो क्रमश नैतिक विधि, प्राकृतिक विधि, धार्मिक (साम्प्रदायिक) विधि एवं वैधानिक विधि पर आधारित है| प्रशासनिक न्याय को वैधानिक न्याय में समाहित किया जाता है, क्योंकि इसका स्वरुपचरित्र और आधार सामान्यत एक ही होता है, यानि एक समान होता है। कोई भी न्याय किसी विधि या विधान पर निर्भर करता है| अर्थात न्याय का आधार विधान होता है| यह एक अलग विषय है कि नैतिक विधान कब धार्मिक विधान बन जाता है, या वैधानिक विधान कब धार्मिक विधान बन जाता है

प्राकृतिक विधान ही सहज, सरल एवं वैज्ञानिक होता है और इसीलिए सभी वैधानिक विधान की स्वाभाविक प्रवृति होती है कि वह प्राकृतिक विधान के निकट हो, या प्राकृतिक विधान के समकक्ष ही हो| जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्राकृतिक विधान वह विधान है, जो किसी व्यक्ति, समाज या क्षेत्र के संतुलित और महत्तम हितों के सम्यक विकास के लिए इनके प्राकृतिक एवं स्वाभाविक गुणों के आधार पर समुचित अवसर देता है| अर्थात प्राकृतिक विधान सम्पूर्ण मानवता के व्यापक हितों के लिए सभी सदस्यों के प्राकृतिक एवं स्वाभाविक क्षमताओं एवं दक्षताओं का व्यापक उपयोग करता है| इस तरह प्राकृतिक विधान किसी व्यक्ति के जन्म, वंश, लिंग, आस्था, क्षेत्र, समुदाय या अन्य सामाजिक विभाजनकारी मान्यताओं के आधार पर भेदभाव नहीं करता है|

मैं यहाँ प्रशासनिक न्याय एवं वैधानिक न्याय के तमाशों पर केन्द्रित करना चाहता हूँ| प्रशासन वाले भी खूब तमाशा करते हैं| डमरू से शब्द निकलते हैं भ्रष्टाचार बर्दास्त नहीं, हर हाल में बर्दास्त नहीं| कुछ लोग इसे "जीरो टोलरेंस" भी कह देते हैं, जो डमरू के डुगडुगी में बांसुरी के मधुर स्वर के समान एक विशेष और अलग आकर्षण पैदा कर देता है| इस जीरो टॉलरेंस नीति के अन्तर्गत भ्रष्टाचार के विरुद्ध सुनवाई भी भ्रष्ट एवं निरंकुश अधिकारी ही करेंगे| जो प्रताड़ित हैं, प्राकृतिक न्याय की प्रक्रिया में उनको भ्रष्टाचार जांचने में शामिल नहीं किया जाता है| जो भ्रष्टाचार करेगा, वही भ्रष्टाचार के लगे आरोपों की जाँच भी करेगा; सिर्फ व्यक्ति बदलेगा या व्यक्ति भी वही रहेगा, पर तंत्र तो निश्चित ही वही रहेगा। जांच तंत्र प्रशासनिक ही रहेगा इस प्रक्रिया को, या इस तंत्र को, या इस विधि को यदि तमाशा कहा जाय, तो गलत कैसे है? क्यों नहीं इसे स्थापित प्राकृतिक न्यायिक प्रक्रियाओं के विरुद्ध नहीं माना जाय?

एक साधारण उदहारण से समझा जाय| यदि किसी को इंदिरा आवास से सम्बंधित भ्रष्टाचार की शिकायत है| बात कार्यपालिका के सर्वोच्च सरकार के दरबार तक जाती है| इसे लोकतांत्रिक भाषा में जनता का दरबार यानि जनता दरबार भी कहा जाता है| सर्वोच्च दरबार तक बात जाने से पहले कई स्तर के दरबार हैं, पर निदान नीचे नहीं मिलने पर ही लोग ऊपर के दरबार तक जाते हैं| ऐसी घटनाएं बार बार घटती रहती है, जिसका एक मात्र और एकमात्र कारण है कि सर्वोच्च दरबार के ठीक नीचे वाले दरबार की उदासीनता और लापरवाही के विरुद्ध कभी भी समुचित एवं ठोस करवाई नहीं की जाती है| सीधे शब्दों में कहें, तो विभागीय अध्यक्ष के नीचे के जनपदों या जिलों के प्रमुखों पर कभी जवाबदेही नहीं निभाने पर भी कोई करवाई नहीं होती| ये उच्चस्थ लोग अपनी नाकामियों की जवाबदेही को नीचे फेंक देते हैं और उपलब्धियों को ऊपर ही लोक (ले लेना) लेते हैं| एक बार इन नाकामियों के लिए जवाबदेह वरीय अधिकारी दण्डित हो जाए, तो वे न्यायिक प्रक्रियाओं के लम्बे उलझन में खुद को सुधार लेंगे और अपने के नीचे तंत्र को दुरुस्त भी रखने का सबक लेंगे| ऐसा नहीं होना यानि उच्चस्थ पदाधिकारियों को दंडित नहीं करना भी एक तमाशा या नौटंकी ही है। ऐसा बार बार दुहराया जाता है और अपने में अपेक्षित सुधार किए बिना कारवाई नीचे वाले पर करके न्याय करने का तमाशा समाप्त कर दिया जाता है| फिर दूसरा तमाशा शुरू हो जाता है| कभी कभी नीचे वाला नाकाम कर्मी भी वरीय के इतने नजदीकी होते हैं कि इन भ्रष्टाचार के तथाकथित उन्मूलन के तमाशे के शिकार किसी और कमजोर को बना दिया जाता है| एक बार भी वरीय अधिकारी को दण्डित करने का निर्णय हो जाए, तो सुधार की प्रक्रिया स्वभावत प्रारंभ हो जाए|

इसी तरह का तमाशा न्यायिक प्रशासन में होता है| क्यों एक ही तरह के मामलें न्यायालयों में बार बार आते हैं? एक ही व्यक्ति, संस्था, या एक ही विभाग के विरुद्ध एक ही तरह के मामले में न्याय निर्णय के लिए बार बार क्यों एक ही न्यायलय में आते रहते हैं? इसका स्पष्ट अर्थ होता है कि उस व्यक्ति, संस्था या विभाग ने पूर्व के न्याय निर्णयों से कोई सबक नहीं लिया है| ऐसा इसलिए होता है कि संस्थान प्रमुख को छोड़ कर अन्य नीचे के कर्मी पर जवाबदेही तय कर दी जाती है, जो वास्तविक दोषी नहीं होता है| एक ही तरह के एवं एक ही व्यक्ति या संस्थान के विरुद्ध मामलों का बार बार न्यायालय में आना न्यायपालिका का बहुमूल्य समय की बर्बादी ही है| एक बार भी उच्च स्तरीय अधिकारी के विरुद्ध दंडात्मक निर्णय लिया जाय, तो कोई कारण नहीं होगा कि वे अपने आप को नहीं सुधार लेंगे| चूँकि वरीय अधिकारी दण्डित नहीं होते हैं, इसीलिए न्याय का तमाशा जारी रहता है|

भारत में सभी प्रशासनिक प्रमुख अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी होते हैं और इनमें सबसे प्रमुख भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होते हैं, जो आई ए एस कहलाते हैं| कभी भी प्रशासनिक न्याय या वैधानिक न्याय में इन अधिकारियों को दण्डित करते हुए नहीं देखा जाता है, कुछ विशेष अपवादों को छोड़ कर| इसलिए सामान्य लोग कहते रहते हैं कि अस्थायी हमेशा स्थायी से डरता रहता है और स्थायी को दण्डित करने से सभी बचते रहते हैं| न्यायपालिका के उच्चतर या उच्चतम स्तर के भी संस्थान भी इन भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को दण्डित करने से बचते रहते हैं; निम्न न्यायालय तो कभी भी प्रशासनिक मामलों में इन अधिकारियों को दण्डित नहीं ही करते हैं| इसका एक प्रमुख कारण यह होता है कि इन मामलों को निम्न कर्मी के ही विरुद्ध बनाते हैं और ये वरीय पदाधिकारी अपने को बचाते रहते हैं| इस तरह न्याय का तमाशा बदस्तूर जारी रहता है| सरकार की वाहवाही बरक़रार रहती है और लोग तमाशा से अनादित होते रहते हैं| न्याय का तमाशा जारी रहेगा और हमलोग मजा लेने का अहसास से आनंदित होते रहेंगे| धन्यवाद|

 निरंजन सिन्हा 

मंगलवार, 24 नवंबर 2020

मेरी नेतागिरी कहीं खतम नहीं हो जाए?

 मेरी नेतागिरी कहीं खतम नहीं हो जाए?

-----------------------------------------------

कभी कभी मुझे चिंता हो जाती है कि कहीं मेरी नेतागिरी समाप्त नहीं हो जाए? मैं ऐसा क्यों सोचता हूं? क्योंकि यही नेतागिरी मेरी प्रतिष्ठा है, सम्मान है, रोजगार है, व्यवसाय है और मेरा सब कुछ है एवं मेरे जीवन का आधार भी है। यदि मुझसे मेरी नेतागिरी समाप्त कर दिया जाए या छिन जाए तो मैं यह सोचकर ही सिहर जाता हूं। चलिए, मैं आपके साथ यह विश्लेषण करता हूं कि नेतागिरी करने का आधार क्या होता है?

नेतागिरी का आधार होता है - लोगों को जीवन में बेहतर प्रदर्शन और परिणाम की आकांक्षा या प्रत्याशा। इसी कारण मुझे नेतागिरी का अवसर मिलता रहता है यानि नेतागिरी का अवसर समाप्त नहीं होता है। वैसे हमारे समाज और राष्ट्र में मानवीय मूलभूत सुविधाओं का ही घोर अभाव है और इसी कारण नेतागिरी समाप्त होने का खतरा नहीं है। भारत सहित दुनिया के बहुत से भागों में बहुत से समस्याओं का नायाब समाधान खोज लिया गया है और एक खास प्रकार का नेतागिरी पैदा कर सुरक्षित भी बना लिया गया है। यदि लोगों को इस जीवन में मौलिक और जीवनदायिनी सुविधाएं उपलब्ध नहीं है तो इन नेताओं ने अगले जनम में इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने की गारंटी ले लिया है। यह सबसे आसान तरीका है क्योंकि अगला जन्म होता ही नहीं है; भले यह विश्वास दिलाना कठिन है, पर आस्थावादियों के लिए तो कोई समस्या ही नहीं है क्योंकि वे तो ऐसे ही विश्वास किए बैठे हैं। हालांकि मैं इस श्रेणी का नेतागिरी नहीं करता, कर तो सकता हूं पर मेरी नैतिकता कचोटती रहेगी। मैं तो अध्यात्म, क्वांटम भौतिकी और जीवन दर्शन के सिद्धांतों को मिला कर सरल एवं सहज शब्दों में समझा भी सकता हूं पर लोगों को ठगना नहीं चाहता और इसलिए ही रुक भी जाता हूं।

हां, तो मैं बात कर रहा था राजनीतिक नेतागिरी का। इन नेताओं को इस बात का डर रहता है कि जनता की समस्याओं का यदि समाधान मिल गया तो वे किन आधारों पर नेतागिरी करेंगे?   आप भी गौर करेंगे कि इन नेताओं में एक बड़ी खासियत होती है। ये नेता यह नहीं चाहते कि समस्याओं का स्त्रोत सदा के लिए समाप्त हो जाए। इसलिए ये नेता इन समस्याओं पर लम्बा विलाप वर्णन करते हैं और विरोधियों को कोसते भी है; पर समस्याओं के स्त्रोत के दर्शन पर प्रहार नहीं करते हैं। यदि वे ईमानदार हैं तो उनकी बुद्धिमत्ता उस ओर क्यों नहीं जाता?  यह बहुत बड़ा सवाल है।

क्या इन नेताओं को समस्याओं के मूलभूत सिद्धांत यानि दर्शन पर प्रहार नहीं करना चाहिए? सिर्फ विलाप वर्णन यानि रोना- धोना और चिखना - चिल्लाना ही काफी है? क्यों नहीं समस्याओं को उत्पन्न करने वाले दर्शन को नष्ट कर दिया जाए?  महान दार्शनिक थोरो ने एक बार कहा था कि जहरीले पेड़ के हर पत्तियों एवं फलों का बार बार विश्लेषण करना, उस पर विद्वतापूर्ण व्याख्यान देना, उस पर चिखना- चिल्लाना, और उस पर प्रहार करने से बेहतर है कि उस जहरीले पेड़ को ही समाप्त कर दिया जाए। बहुत से जहरीले दर्शन गलतफहमी में और गलत आधारों पर तैयार हो गए हैं एवं उन लोगों की नीयत भी खराब नहीं है। सारे लोग अपने हैं। सिर्फ समझ का फेर है और उस  समझ का आधार अवैज्ञानिक, मनगढ़ंत एवं मनमानी है। इन अवैज्ञानिक, मनगढ़ंत और मनमानी आधारों को सुधारने का काम भी बुद्धिजीवियों का है और वे भी सिर्फ चिखने चिल्लाने में लगे हैं। वे इस तरीके से क्यों नहीं सोचते है? क्या वे भी संस्थागत सुविधाएं पाने के लिए मेरी ही तरह अपने नेतागिरी के लिए चिंतित हैं? एक बात है, ऐसे चिखने चिल्लाने से जनता भी जमीन से जुड़ा हुआ नेता मान लेते हैं और मैं सरकारी सुविधाओं का हकदार बन सकता हूं। यह शार्टकट तरीको में सबसे बेहतरीन तरीका है।

आपको मेरा विचार कैसा लगता है? क्या मैं सही हूं?

निरंजन सिन्हा,

स्वैच्छिक सेवानिवृत्त राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।

चिंतक और व्यवस्था विश्लेषक।

बुधवार, 18 नवंबर 2020

छठ व्रत का इतिहास

भारतीय संस्कृति में छत व्रत का एक खास महत्त्व है| यह मूल रूप में उत्तर भारत के एक खास हिस्से में मनाया जाता है| यह क्षेत्र वर्तमान बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, समीपवर्ती नेपाल के तराई क्षेत्र और अन्य निकटवर्ती भारतीय क्षेत्र शामिल है| इसी क्षेत्र को छठ व्रत का प्राथमिक एवं मौलिक क्षेत्र माना जाता है| भले ही यहीं के लोग भारत में एवं विश्व के विभिन्न भागों एवं कोनों में बस जाने या रहने के कारण इस छठ को इस प्राथमिक एवं मौलिक क्षेत्र के बाहर भी मनाते हैं|

यह एक आभार प्रक्रिया या सम्मान विधि है, जिसमे सूर्य, जल एवं प्रकृति को सादर आभार व्यक्त किया जाता है एवं समर्पित भाव से नमन किया जाता है| इस व्रत में जो सम्मान प्रक्रिया है, उसमें कोई भी मध्यस्थ नहीं होता है, अर्थात कोई भी पुरोहित या पुजारी नहीं होता है| इसमें व्रती बिना किसी मध्यस्थ के सूर्य (ऊर्जा), जल एवं प्रकृति को श्रद्धा भाव का समर्पण करते हैं| इस श्रद्धा समर्पण में उस समय प्रकृति में उपलब्ध नए कृषि उपज एवं उससे बने पकवान, जल एवं दुग्ध आदि को शामिल किया जाता है| यह सम्मान प्रक्रिया इतनी शुद्धता के साथ मनाया जाता है कि यह शुद्धता यानि पवित्रता का भाव भी देखने एवं समझने योग्य है| इसमें कोई मूर्ति का या किसी अन्य सांसारिक चित्रण या आकृति का कोई स्थान नहीं है| यह एक पंथ निरपेक्ष पर्व है, जिसे सभी स्थानीय भी पूरी निष्ठा के साथ मनाते हैं| इसे इस क्षेत्र के कई पन्थो यथा इस्लाम के अनुयायी भी श्रद्धा के साथ मनाते हैं| यह इस क्षेत्र का मौलिक संस्कृति है और इसी कारण इसकी तैयारी में उस क्षेत्र के सभी धर्मों के अनुयायी लग जाते हैं| बिहार की राजधानी पटना में गंगा नदी के घाटों (तटों) पर इसकी तैयारी में हिन्दू, मुस्लिम, सिख एवं इसाई पन्थो के उत्साही युवक लगे हुए मिल जायेंगे, क्योंकि पटना में तटीय आबादी में इनकी ही आबादी प्रमुख हैं| अत: इस ‘व्रत’ को किसी धर्म या पंथ से जोड़ने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए| इसे इस क्षेत्र की मौलिक संस्कृति मानी जाय, जो प्रकृति यानि प्राकृतिक शक्तियों का सम्मान की परम्परा है|

इस परम्परा की ऐतिहासिकता पर विचार किया जाय। इसकी शुरुआत ही मानव की सभ्यता एवं संस्कृति से हुई है| जब मानव के जीवन विकास के क्रम में लोग पाषाण की निर्भरता से मुक्त होकर यानि पहाड़ो से उतर कर नदी घाटी के समतल उपजाऊ मैदानों में बस रहे थे, तब मानव जीवन के इस क्रांतिकारी एवं महत्वपूर्ण बदलाव का सम्मान किया ही जाना चाहिए| यह परम्परा कृषि क्रान्ति के महत्त्व को रेखांकित करता है, जब मानव खाद्य संग्राहक की विवशता से मुक्त होने लगा| इसने आवासन को स्थायी बनाया यानि स्थायी बस्तियों का निर्माण शुरू हुआ और उत्पादक पशुओं का पालना प्रारम्भ हुआ। 

यह काल ताम्बा एवं कांसा के प्रारंभिक उपयोग का रहा था| लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में सूर्य, जल एवं प्रकृति की सम्मान परम्परा मिलते हैं, भले ही उनके स्वरुप भिन्न भिन्न रहे हो| नदी घाटी में उर्वर मिट्टी एवं जल की प्रचुरता थी, जो सूर्य की किरणों में कृषि एवं पशुपालन को काफी सहारा दे रहा था| इस कृषि क्रान्ति ने अस्थिर, असुरक्षित एवं घुमन्तु जीवन तथा अनिश्चित आहार की संभावना को न्यूनतम कर दिया या समाप्त कर दिया| खाद्य पदार्थों का उत्पादन कृषि कार्य में लगी हुई आबादी की आवश्यकता से अधिक होने लगी, इससे नगरों एवं राज्यों का उदय हुआ| इससे मानव जीवन में एक मौलिक एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ| इसी कारण इन लोगों ने जल के प्राकृतिक स्रोतों में नवीनतम कृषि उत्पादों के साथ सूर्य को साक्षी मानते हुए प्रकृति को अर्घ्य देते हैं यानि उसे समर्पित करते हैं| जब लोगों की पत्थर की उपयोगिता और पहाड़ों पर रहने की बाध्यता समाप्त हो गई तथा लोग अब नदी घाटी मैदानों में आ गए और बिल्कुल नए जीवन का शुरुआत कर चुके, यह पर्व उसी स्मृति का पर्व है। साक्षात् सूर्य को देव मानकर, जल का जीवनदायिनी शक्ति एवं उपलब्धता को, और सम्पूर्ण प्रकृति के समतल उपजाऊ हरा भरा मैदान के संगम के प्रति संवेदनशील आभार का पर्व है - छठ व्रत।

कृषि और पशुपालन शुरुआती समय से ही एक दुसरे का पूरक रहा| इसे मशीनी युग में ही एक दुसरे से अलग किया जा सका| इतिहास में यह माना जाता है कि कृषि क्रान्ति कोई दस हजार साल पहले हुई| अर्थात इस प्रकृति पूजन यानि सम्मान समारोह को कोई दस हजार साल से अधिक पुराना माना जा सकता है| कृषि क्रान्ति ने उत्पादकों को अपने खपत से अतिरिक्त खाद्य उत्पादन दिया और इस अतिरिक्त खाद्य उत्पादन ने समाज में सोचने, विचारने, मनन करने वाले बुद्धिवादियों को भी भोजन का संरक्षण एवं समर्थन दिया| इससे बुद्धिवादियों की परम्परा का विकास कियाकृषि क्रान्ति के आधार पर अर्थव्यवस्था में द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक एवं पंचक क्षेत्र का उदय संभव हो सका| लोहे के उपयोग से कृषि का अत्यधिक उत्पादन हुआ और कई नए संस्थानों यथा नागरीय समाज, राज्य, मुद्रा एवं वाणिज्य- व्यापार का उदय हुआ| अब पत्थरों और पहाड़ों की अनिवार्य निर्भरता समाप्त हो चुकी थी। अब लोग वन्य एवं पहाड़ी जीवन से निकल कर सभ्यता की स्थापना कर रहे थे और नई संस्कृति की शुरुआत कर रहे थे। कोई भी सभ्य समाज इस परम्परा का सजग समर्थक रह सकता है| इसी कारण इस ऐतिहासिक क्षेत्र में, जो बुद्धिवादियों का परंपरागत सक्रिय क्षेत्र भी रहा, इस प्रकृति सम्मान यानि पूजन की परम्परा सजग एवं सहज निरंतरता बनाये रखी|  

सिन्धु घाटी सभ्यता के “विशाल स्नानागार” भी इसी परम्परा के अवशेष हैं| नदियों से दूर ग्रामों में आबादी के निकट तालाब इसी उद्देश्य को भी पूरा करते रहे। ऐसे नदियों एवं सागरों के अतिरिक्त तालाब (Tank),  पोखर (Pond), छिलका (Check Dam), बाँध (Dam), जलाशय (Reservoir) आदि छठ पूजन के क्षेत्रों में सामान्य स्थल है| अब तो लोग घरो के हाते (Campus) में पोखर (Pond) तैयार करने लगे हैं| कुछ घनी आबादी में छतों पर भी पानी के हौदे (Cistern) में व्रत किया जाता है| इसमें मूल बात यह है कि इसमें जल हो, साक्षात् सूर्य दर्शन हो और प्रकृति का खाद्य उत्पाद हो| इन्हीं सजग एवं सतर्क लोगों का पश्चिम से पूर्व की ओर आव्रजन (Migration) से यह परम्परा भी उनके साथ में चली आई| आज भले ही मूर्ति एवं अन्य कथा वाचन के लिए मध्यस्थ का प्रवेश हो रहा है| समय के साथ और मध्य कालीन सामंती व्यवस्था ने इसके साथ की मिथक भी शामिल हो गया।

छठ व्रत में उस समय के ज्ञात ब्रह्माण्ड (वर्त्तमान सौर मंडल) का मूलाधार सूर्य, जन जीवन का मूलाधार “जल स्रोत” एवं समस्त प्रकृति को सम्मान प्रदर्शन किया जाता था, जो अब भी निरन्तरता बनाए हुए है।यह प्रकृति का सम्मान है, पूजन है, कृतज्ञता है, आभार है, और इसकी महत्ता का रेखांकण है| सूर्य इस विशाल पारितंत्र (Eco System) का उर्जा स्रोत है, जो इस तंत्र को सहज एवं समुचित सञ्चालन के लिए उर्जा का सतत प्रवाह करता है| इसी सौर शक्ति एवं जल के संगम ने मैदानी क्षेत्रों में कृषि को संभव बनाया| ऐसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक शक्ति को ही देवता तुल्य भी सम्मान दिया गया है| ऐसा सम्मान सूर्य को मिश्र देश में एवं अन्य सभ्यतायों तथा संस्कृतियों में भी दिया जाता है|

यह सभ्यता के प्रारम्भ में प्रकृति एवं सूर्य का सम्मान है| आप भी इस दृष्टि से मनन कीजिये और इसमें संयोजन एवं संशोधन कीजिये|

कुछ लोग इसे “मठ” पूजा या व्रत कहते हैं| ऐसा इस आधार पर कहते हैं कि छत व्रत में लोग घाट पर ‘मठ का स्वरुप’ या ‘स्तूप’ की संरचना बनाते हैं| यह स्तूप मिट्टी का बनाते हैं| उत्तर बिहार में ईख से भी इसको आकार (Shape) देते हैं| सभ्यता समाप्त हो सकता है, लेकिन संस्कृति समाप्त नहीं होती है, और समय के प्रभाव में बदलता रहता है। कहने का तात्पर्य है कि समय के प्रभाव के कारण लोग इसमें बुद्धि की परंपरा खोजते हैं| समय के साथ इस परंपरा में परिवर्तन, सम्वर्धन, संशोधन, परिमार्जन, रूपांतरण और विरूपण (Distortion) होता गया| ऐसा कुछ बुद्धि के विकास यानि बौद्धिक परम्परा में हुई। इसी तरह कुछ परिवर्तन एवं मान्यता में नयापन सामन्तवाद के काल में भी हुई| सांस्कृतिक सामन्तवाद के काल में यह “छठी माई” के रूप में अवतरित हुई| इसके प्रभाव में इन्हें व्यक्ति स्वरुप मानकर मनौती भी मांगी जाने लगी, जो एक अलग विषय है। यदि कोई इसमें मनौती मांगता है, तो गलती मनौती मांगने वाले की होगी, परम्परा की नहीं।

कुछ तथाकथित प्रगतिशील एवं तथाकथित बुद्धिवादी लोग इसे पुरातन अन्धविश्वास भी मानते हैं|यदि ऐसा कुछ हैं तो यह समय का प्रभाव है और वर्तमान लोगों का विश्वास है, इसकी मौलिकता में गड़बड़ी नहीं है। ये लोग इनकी मौलिकता, प्राचीनता, ऐतिहासिकता का तथ्यात्मक, विश्लेषणात्मक, तार्किक एवं विवेकपूर्ण तथ्यों का ध्यान दिए बिना ही ऐसे निष्कर्ष निकाल लेते हैं| ये तथाकथित बुद्धिजीवी इस व्रत एवं परम्परा में सामन्तकाल और बाद के कालों में हुए विरूपण, संशोधन एवं संयोजनात्मक प्रभाव का अध्ययन किए बिना ही ऐसे निष्कर्ष निकाल लेते हैं| ये मानवीय मनोविज्ञान की आवश्यकता को जाने समझे बिना ही इसे खंडित करने की कोशिश करते हैं|  फिर इस पर अन्धविश्वास का लेबल लगा कर आत्ममुग्ध हो जाते हैं| कुछ लोग मान्यतावादी इतिहासकारों द्वारा वर्णित तथ्यों यानि मिथकों को ही देखते और सही मानते हैं| वे लोग प्रो० एडवर्ड हैलेट कार (‘What is History’ के लेखक) की इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि उस इतिहासकार की मंशा और सन्दर्भ क्या है? इसे भी समझना जरुरी है|

आइए, अब हमलोग तथ्य, तर्क, साक्ष्य और विवेक के आधार पर इसकी मौलिकता, प्राचीनता और ऐतिहासिकता पर समय काल के प्रभाव को समझने की कोशिश करते हैं| आज छठ उतने ही क्षेत्र में मौलिक एवं प्राथमिक रूप में मनाये जाते हैं, जिन क्षेत्रों में महान तथागत बुद्ध के चरण पड़े हैं| यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप में मगध, अंग, काशी, मल्ल, वज्जी, एवं कोशल का जनपद है और इन्हीं क्षेत्रों  में बुद्ध के भ्रमण एवं विश्राम हुए थे| छठ से जुडी अन्य बातें सिर्फ कहानियां हैं यानि मिथक हैं, जिसका कोई पुरातात्विक आधार नहीं है, यानि जिसका कोई प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है| इसी कारण ऐसी अन्य कहानियों को ऐतिहासिक भी नहीं माना जा सकता है|

इस पर्व में नए कृषि उपज का पकवान बनता है, जो क्षेत्र विशेष के अनुसार भिन्नता भी रखता है| मगध क्षेत्र में यदि चावल का भात, दाल एवं पिठ्ठा (चावल का पकवान) बनता है, तो बज्जी क्षेत्र में ईख के रस में खीर बनता है| यह पर्व कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के चतुर्थी से प्रारम्भ होकर सप्तमी के सुबह  समाप्त होता है|यह दिन दीपावली के चौथा दिन होता है| दीपावली के छठवें दिन डूबते सूर्य को तथा अगले दिन अर्थात सातवें दिन को उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है| इस अवधि में व्रती उपवास में रहकर प्रकृति के उपहारों का अहसास करते हैं, जो प्रकृति ने उन्हें उपलब्ध कराया है

इस व्रत में गेहूं के आटे से जो पकवान बनाया जाता है, उसे प्राकृत भाषा में अर्थात पालि भाषा में ठेकुआ कहा जाता है| इस पकवान को कुछ चिन्हों से ‘ठोक’ (Impress) कर बनाया जाता है| इस पर ‘पीपल पत्ते’ का छाप और ‘प्रगति का चक्र’ का छाप (Impression) लगाया जाता है| इस चक्र को कुछ लोग बौद्धिक परम्परा के चक्र से जोड़ते हैं| इसी तरह कुछ लोग पीपल के पत्ते के छाप को बुद्ध के ज्ञान वृक्ष पीपल से, तो कुछ लोग पवित्र एवं छायादार पीपल के पेड़ से जोड़ते हैं| भारत में पीपल कई कारणों से सम्मानित, पवित्र एवं पूजनीय वृक्ष है| प्राचीनतम साक्ष्य में साँची के स्तूप का वह चित्र बताया जाता है, जिसमें छठ का एक स्पष्ट रूप मिलता है| इसमें दऊरा (सूप), ईख, केला इत्यादि के साथ परिवार एवं बच्चों के उपस्थिति में नदी तट पर मौजूद हैं| यह किसान एवं पशुपालक समाज का प्रकृति पूजन है|

निरंजन सिन्हा,

मौलिक चिन्तक, बौद्धिक उत्प्रेरक एवं लेखक

स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना|

मुक्ति किससे और कैसे पायी जानी है?

मुक्ति पाने के प्रयास में हम सब करते कुछ हैं, और पाते कुछ और ही है| ऐसा क्यों और कैसे होता है? इसी को समझने के लिए ही यह आलेख है| क्या हमें ...