कभी कभी मुझे चिंता हो जाती है कि कहीं
मेरी नेतागिरी समाप्त नहीं हो जाए? मैं ऐसा क्यों सोचता हूं? क्योंकि
यही नेतागिरी मेरी प्रतिष्ठा है, सम्मान है, रोजगार है, व्यवसाय है और मेरा सब कुछ है एवं मेरे
जीवन का आधार भी है। यदि मुझसे मेरी नेतागिरी समाप्त कर दिया जाए या छिन जाए तो
मैं यह सोचकर ही सिहर जाता हूं। चलिए, मैं आपके साथ यह
विश्लेषण करता हूं कि नेतागिरी करने का आधार क्या होता है?
नेतागिरी का आधार होता है - लोगों को जीवन में बेहतर प्रदर्शन और
परिणाम की आकांक्षा या प्रत्याशा। इसी कारण मुझे नेतागिरी का अवसर मिलता रहता है
यानि नेतागिरी का अवसर समाप्त नहीं होता है। वैसे हमारे समाज और राष्ट्र में
मानवीय मूलभूत सुविधाओं का ही घोर अभाव है और इसी कारण नेतागिरी समाप्त होने का
खतरा नहीं है। भारत सहित दुनिया के बहुत से भागों में बहुत से समस्याओं का नायाब
समाधान खोज लिया गया है और एक खास प्रकार का नेतागिरी पैदा कर सुरक्षित भी बना
लिया गया है। यदि लोगों को इस जीवन में मौलिक और जीवनदायिनी सुविधाएं उपलब्ध नहीं
है तो इन नेताओं ने अगले जनम में इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने की गारंटी ले लिया
है। यह सबसे आसान तरीका है क्योंकि अगला जन्म होता ही नहीं है; भले
यह विश्वास दिलाना कठिन है, पर आस्थावादियों के लिए तो कोई
समस्या ही नहीं है क्योंकि वे तो ऐसे ही विश्वास किए बैठे हैं। हालांकि मैं इस
श्रेणी का नेतागिरी नहीं करता, कर तो सकता हूं पर मेरी
नैतिकता कचोटती रहेगी। मैं तो अध्यात्म, क्वांटम भौतिकी और
जीवन दर्शन के सिद्धांतों को मिला कर सरल एवं सहज शब्दों में समझा भी सकता हूं पर
लोगों को ठगना नहीं चाहता और इसलिए ही रुक भी जाता हूं।
हां, तो मैं बात कर रहा था राजनीतिक नेतागिरी का। इन
नेताओं को इस बात का डर रहता है कि जनता की समस्याओं का यदि समाधान मिल गया तो वे
किन आधारों पर नेतागिरी करेंगे? आप भी गौर
करेंगे कि इन नेताओं में एक बड़ी खासियत होती है। ये नेता यह नहीं चाहते कि
समस्याओं का स्त्रोत सदा के लिए समाप्त हो जाए। इसलिए ये नेता इन समस्याओं पर
लम्बा विलाप वर्णन करते हैं और विरोधियों को कोसते भी है; पर
समस्याओं के स्त्रोत के दर्शन पर प्रहार नहीं करते हैं। यदि वे ईमानदार हैं तो
उनकी बुद्धिमत्ता उस ओर क्यों नहीं जाता? यह बहुत बड़ा
सवाल है।
क्या इन नेताओं को समस्याओं के मूलभूत सिद्धांत यानि दर्शन पर प्रहार
नहीं करना चाहिए? सिर्फ विलाप वर्णन यानि रोना- धोना और चिखना -
चिल्लाना ही काफी है? क्यों नहीं समस्याओं को उत्पन्न करने
वाले दर्शन को नष्ट कर दिया जाए? महान दार्शनिक थोरो
ने एक बार कहा था कि जहरीले पेड़ के हर पत्तियों एवं फलों का बार बार विश्लेषण
करना, उस पर विद्वतापूर्ण व्याख्यान देना, उस पर चिखना- चिल्लाना, और उस पर प्रहार करने से
बेहतर है कि उस जहरीले पेड़ को ही समाप्त कर दिया जाए। बहुत से जहरीले दर्शन
गलतफहमी में और गलत आधारों पर तैयार हो गए हैं एवं उन लोगों की नीयत भी खराब नहीं
है। सारे लोग अपने हैं। सिर्फ समझ का फेर है और उस समझ
का आधार अवैज्ञानिक, मनगढ़ंत एवं मनमानी है। इन अवैज्ञानिक,
मनगढ़ंत और मनमानी आधारों को सुधारने का काम भी बुद्धिजीवियों का है
और वे भी सिर्फ चिखने चिल्लाने में लगे हैं। वे इस तरीके से क्यों नहीं सोचते है?
क्या वे भी संस्थागत सुविधाएं पाने के लिए मेरी ही तरह अपने
नेतागिरी के लिए चिंतित हैं? एक बात है, ऐसे चिखने चिल्लाने से जनता भी जमीन से जुड़ा हुआ नेता मान लेते हैं और
मैं सरकारी सुविधाओं का हकदार बन सकता हूं। यह शार्टकट तरीको में सबसे बेहतरीन
तरीका है।
आपको मेरा विचार कैसा लगता है? क्या मैं सही हूं?
निरंजन
सिन्हा,
स्वैच्छिक
सेवानिवृत्त राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।
चिंतक
और व्यवस्था विश्लेषक।
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