शनिवार, 20 जनवरी 2024

अकड़ / ऐंठन कहां से आती है?

(Wherefrom does Snobbism come? ) 

स्थान था - नई दिल्ली का प्रसिद्ध सामाजिक केन्द्र, हरकिशन सिंह सुरजीत सभागार और दिन था - अप्रैल, 2023 का पहला सप्ताह। अवसर था 'बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर नेशनल एसोसिएशन ऑफ इंजीनियर्स' की राउंड टेबल दो दिवसीय संगोष्ठी| इसमें इनके राष्ट्रीय अध्यक्ष की भी उपस्थिति थी। सवाल यह उठा कि भारत के इतने लम्बे गणतांत्रिक सफर के बावजूद भारतीय समाज के वंचितों और उपेक्षितों पर क्रूरता (Atrocities) क्यों हो रहे हैं और यह क्यों रुक नहीं रहा है? इस संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष कोई पांच बार ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में इस विषय पर अपना अभिभाषण दे चुके है। वहां सभागार में उपस्थित लोगों को मैंने बताया कि “क्रूरता/ अत्याचार ‘अकड़’ से आती है”। मैंने इसे वैज्ञानिक एवं आधुनिक आधार पर संक्षेप में व्याख्यापित भी किया। मुझे भी इस संबंध में अपनी बात ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (UNO) में रखने के लिए तैयारी करने को कहा गया। यह आलेख उसी क्रम का संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण है।

भारतीय संविधान भी अपनी ‘उद्देशिका’ (Preamble) में स्पष्ट उल्लेखित करता है कि भारत के सभी लोगों में ‘न्याय’ (Justice) के सुनिश्चयन और स्थापन के लिए ‘मुक्ति’ (Liberty, not only Freedom), ‘समता’ (Equality, including Equity/ समानता सहित), और ‘बन्धुत्व’ की स्थापन और सुनिश्चयन करता है। इसके अतिरिक्त संविधान के “भाग तीन” (मूल अधिकार) और “भाग चार” (राज्यों के नीति निदेशक तत्व) में भी पारंपरिक सामाजिक सांस्कृतिक आधार पर होने वाले भेदभाव और उत्पीड़न/ अत्याचार/ क्रूरता के निवारण /समापन हेतु सांवैधानिक प्रावधान करता है। इसकी सीमाओं के अंतर्गत शासन द्वारा अनेकों व्यवस्थाएँ भी किया गया है| फिर भी भारतीय समाज के सदियों से वंचितों और उपेक्षितों पर क्रूरता (Atrocities) हो ही रहे हैं, जिसके उदहारण अक्सर मीडिया में आते रहते हैं| उपेक्षितों एवं वंचितों के प्रति इस भेदभाव और उत्पीड़न/ अत्याचार/ क्रूरता को सहस्त्राब्दियों से बताना महज एक मिथक है, और इसका कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं है; यही समझना है एवं इसके बारे में आगे विस्तारित करेंगे|

भारतीय संविधान सभा में ‘संविधान प्रारूप समिति’ के अध्यक्ष डा भीमराव आंबेडकर ने भी इसी सामाजिक सांस्कृतिक भेदभाव की संभाव्यता को भांपते हुए "सांवैधानिक नैतिकता" (Constitutional Morality) की बात कही थी। इस सांवैधानिक नैतिकता को वैधानिक बाध्यता बनाने के लिए शब्दों में परिभाषित या मर्यादित नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस सांवैधानिक नैतिकता के प्रेरक कारकों में या निर्देशित करने वाले तत्वों को चिह्नित किया जा सकता है| आज के वैज्ञानिक एवं आधुनिक युग में 'मानवता' (Humanity), 'न्याय' (Justice), 'समता' और समानता (Equality n Equity), 'मुक्ति' और 'स्वतंत्रता' (Liberty n Freedom), 'वैज्ञानिकता' (Scientism), एवं 'आधुनिकता' (Modernity) को अवश्य ही प्रमुख माना जाना चाहिए। लेकिन शायद ‘सांवैधानिक नैतिकता’ भारत की “सांस्कृतिक जड़ता” (Inertia of Culture) में ‘जड़’ (Fix) ही रह गया और कभी स्वत: स्फूर्त गतिमान नहीं हो सका।

‘अकड़’ वैसे भी ‘न्याय’ की अवधारणा का विरोध करता है। अतः अकड़ स्वतंत्रता, समता (और समानता) एवं बन्धुत्व का भी विरोधी हुआ। इसका तात्पर्य यह भी हुआ कि अकड़ वैज्ञानिकता और आधुनिकता का भी विरोधी हुआ। मतलब अकड़ ‘मानवीय गरिमा’ (Dignity of Human) का भी विरोधी हुआ, और यह किसी को समुचित अवसर देने का भी विरोधी हो गया| इस तरह अकड़ किसी के समुचित और सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास में बाधक भी बन जाता है। जब यह मानवीय गरिमा का विरोध करता है, या मज़ाक बनाता है, तो यह वंचितों और उपेक्षितों के लिए अवश्य ही दुखदाई भी होगा।

 ‘अकड़’ यानि विचार, भावना एवं व्यवहार में 'ऐंठन' एक वहम है, जो मन से आती है, उपजती है। यह कल्पना आधारित एक मानसिक प्रक्रिया है, लेकिन इसका प्रभाव वास्तविक होता है। इस तरह ‘अकड़’ एक ‘काल्पनिक वास्तविकता’ (Imaginary Realties) है। यह अकड़ व्यक्ति या समाज में एक घमण्ड पैदा करता है, उसके घमण्ड को मजबूत करता  यह व्यक्ति एवं समाज की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों में भी कडापन/ अकड़पन (लचीलापन का विरोधी) पैदा करता है| यही मताग्रह भी है, यही जिद्दीपन भी है, यही हठधर्मिता भी है, यही ऐंठन भी है, यही धृष्टता भी है, यही अहंकार भी है, यही ढिठाई भी है, और यही तनाव का कारण भी है| और यह भी संभव है कि उसके इस घमण्ड को ऐतिहासिकता भी प्रदान किया जाता भी हो|

यह अकड़ का वहम अपने वजूद के लिए किसी को भी बहाना यानि माध्यम बना लेता है, लेकिन इनमें कुछ प्रमुख हैं| इस सूचि में ‘धन’ से उपजा अकड़ भी है, ‘ज्ञान के भ्रम’ से भी अकड़ आता है, ‘पद के रुतबा’ से भी अकड़ आता है, ‘इतिहास के गलत बोध’ से भी अकड़ आता है, ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से भी अकड़ आता है और ‘मानसिक विभ्रम’ (Mental Delusion) से भी अकड़ आता है। इस सूचि के अकड़ को थोडा विस्तारित किए जाने की आवश्यकता है, ताकि कोई भी इसकी प्रकृति, क्रियाविधि, और प्रवृति को समझ सके| यह स्पष्ट रहे कि धन, ज्ञान, पद, मानसिक भ्रम से उपजा अकड़ अति सामान्य अवस्था का कद है, जो लगभग सभी वर्तमान समाजों में पाया जाता होगा| लेकिन इस आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग के ‘विकसित’ या ‘विकसित हो रहे’ समाज में धन, ज्ञान, पद, मानसिक भ्रम से उपजे अकड़ के अतिरिक्त ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ विशिष्ट एवं अलग है, जिसकी चर्चा इसके अन्त में किया जाना है| इसी ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ की चर्चा प्रमुख एवं सबसे महत्वपूर्ण है|

सबसे पहले ‘धन’ से उपजे अकड़ की चर्चा करते हैं| सब कोई जानता है कि धन स्वाभाव से चंचल होती है, यानि इसकी स्थिरता कभी स्थायी नहीं मानी जा सकती| फिर भी कुछ नादान की अकड़ धन के “अति” (Excess) संग्रहण या संचयन से भी हो जाती है, हालाँकि “अति” (Excess) की अवधारणा व्यक्ति विशेष की मनोदशा से निश्चित एवं निर्धारित होती है| अत: इस धन के अति संचयन से उत्पन्न अकड़ बहुत प्रभावशाली नहीं होती है, जब तक कि अकड़ के अन्य तत्व भी इसके साथ नहीं जुड़ जाएँ| धन से उत्पन्न अकड़ भी अन्य कारणों से उत्पन्न अकड़ से टकराकर कभी कभी हार ही नहीं जाता, या टकराकर चूर चूर ही नहीं हो जाता, बल्कि ऐसे अकड़ वाले को काफी मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक क्षति भी पंहुचा देता है| चूँकि धन किसी भी व्यक्ति या समाज को शासन या व्यवस्था तंत्र को अनेकों तरह से प्रभावित करने साधन, उपकरण, विधि आदि देता है, इसीलिए ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ का ‘धन के अकड़’ पर पड़ा ‘गुणक प्रभाव’ (Multiplier Effect) दरअसल “घातांक प्रभाव” (Exponent Impact) हो जाता है| आप यह भी समझ गए होंगे कि ऐसी अकड़ किनमे किनमे आती है, इसका क्या प्रभाव पड़ता है?

ज्ञान के भ्रम से भी आने वाली अकड़ का अपना कोई विशेष प्रभाव नहीं ही होता है, हालाँकि बहुत से लोग तथाकथित ज्ञानी की परम्पराओं के भी वंशज होने के आधार पर अकड़ रखते हैं| वैसे ज्ञानी होने का आधार उसे मिलने वाले पर्यवारण, उसकी शिक्षा, और उसके समझने, विश्लेषण करने, एवं मूल्याङ्कन करने की योग्यता से आती है| इस ‘ज्ञान के अतिविशिष्ट अवस्था’ वाले अकड़ रखने वाले को समाज एक ‘बेचारा’ की श्रेणी में रखता है, क्योंकि समाज ऐसे लोगों को “मानसिक विक्षिप्त” मानता या कहता है| ऐसे अकड़ वालों की कई कहानियां समाज में प्रचलित होती है, लेकिन लगभग सभी कहानिया मानसिक विक्षिप्तता से सम्बन्धित ही होती है| अत: ऐसे अकड़ की यहाँ विस्तृत चर्चा किए जाने का कोई औचित्य नहीं है|

‘पद के रुतबा’ से भी अकड़ आती है, लेकिन यह अकड़ उसी पद (Post) पर बने रहने की अवधि तक हो आती है| दरअसल धारित पद की कुछ संवैधानिक (Constitutional), या वैधानिक (Legal), या न्यायिक (Judicial), या प्रशासनिक  (Administrative) शक्तियाँ होती है, जो उस व्यक्ति में नहीं होकर उस पद में होती है| लेकिन कुछ व्यक्ति यह भूल जाता है कि यह शक्ति उसे यानि उस व्यक्ति को नहीं है, अपितु उस पद में निहित है| यह सूक्ष्म अंतर नहीं समझने वाले व्यक्ति को ही असामाजिक मान लिया है, जिसका समझ यानि अहसास उसे पद से सदा के लिए मुक्त हो जाने पर होता है| ऐसा ही अकड़ कुछ मीडिया कर्मी (Media Person) को भी सामान्यत: रहता है, परन्तु इनकी अकड़ की मात्रा उस मीडिया के सत्ता, यानि शासन, यानि तंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव की मात्रा तक रहता है| एक बात का ध्यान अवश्य ही रखना है कि अकड़ के दुसरे तत्व का प्रभाव “गुणक प्रभाव” (Multiplier Effect) होता है, लेकिन‘पद के रुतबा’ से अकड़ पर ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ का गुणक प्रभाव दरअसल “घातांक प्रभाव” (Exponent Impact) पड़ता है|

किसी के अकड़ में उनके ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ ही सबसे प्रमुख एवं महत्वपूर्ण है, जो भारत को सर्वाधिक नुकसान कर रहा है| लेकिन ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ तो ‘इतिहास के गलत बोध’ की वर्तमान स्थिति को ही अपनी अवस्था में बनाए रखना चाहती है, इसलिए अकड़ की उत्पत्ति में ‘इतिहास के गलत बोध’ एकमात्र महत्वपूर्ण है| ‘जड़ता’ (Inertia) भौतिकी की वह अवधारणा है, जिसमे कोई वस्तु अपनी अवस्था को स्थान (Space) के सापेक्ष यथास्थिति में ही बनाये रखना चाहती, भले ही गतिमान या स्थिर अवस्था में हो| इस तरह किसी व्यक्ति या समाज की ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ उसके ‘इतिहास के गलत बोध’ से उत्पन्न होती है और बनी रहती है| इसका कोई और भी अलग अर्थ नहीं है|

तो हमें यह समझना है कि ‘इतिहास के गलत बोध’ कैसे अकड़ पैदा करता है और उसमे संस्कृति की क्या भूमिका है? अत: संस्कृति की उत्पत्ति, क्रियाविधि, प्रकृति यानि स्वाभाव, एवं प्रभाव को जान लेना चाहिए| संस्कृति की उत्पत्ति उसके “इतिहास के बोध” से होती है| यह इतिहास का बोध उसमे ‘विरासत’ का सनातन गौरवशाली अहसास पैदा करता है| यही अहसास एवं समझ ही एक तरह से संस्कृति कहलाती है, जो एक सॉफ्टवेयर की तरह ‘सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र’ को संचालित एवं नियमित करता रहता है| और इसी को सुधारने के लिए इतिहास की आधुनिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या किया जाना अनिवार्य है| इसी से भारत को परेशान करने वाली अकड़ की मूल एवं मौलिक प्रवृति को समझा जा सकता है और उसे निर्मूल किया जा सकता है|

अतः ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ को समझने के लिए मनोविज्ञान और इतिहास को जानना समझना होगा। दरअसल भारत में लोग इतिहास और मिथक के अन्तर और इनके संबंध को नहीं समझते हैं। अधिकांशत: पढ़े लिखे डिग्रीधारी और पद अधिकारी भी इस अन्तर को नहीं समझते, और मिथक को ही इतिहास समझते और मानते हैं। दरअसल भारत के प्राचीन काल का सुस्पष्ट इतिहास रहा है| लेकिन भारत में सामन्त काल यानि मध्य काल के उद्भव एवं विकास काल में इन इतिहासों को नए ढंग से सम्पादित कर एवं लिख रच कर प्रस्तुत किया गया, और मूल इतिहास को सदा के लिए नष्ट कर दिया गया है| सामन्ती आवश्यकताओं के कारण ही इतिहास के इस काल में हुए संपादन में नए मिथक रचे गढ़े गए और इसे इतिहास में मिला दिया गया|

ध्यान रहे कि वर्तमान आदमी यानि होमो सेपियंस मानववैज्ञानिको (Anthropologist) के अनुसार कोई एक लाख साल पहले ही उत्पन्न हुआ और उनमे “संज्ञानात्मक समझ” (Cognitive Unerstanding) कोई साठ हजार साल पहले ही आया| लेकिन भारत के आदमियों के विशिष्ट करतबों की कहानियाँ इन आधुनिक मानवों की उत्पत्ति से बहुत पहले की बताई एवं मानी जाती है, जो स्पष्टतया मिथक है, यानि काल्पनिक कहानियाँ मात्र है| तो इन मिथकों के आधार पर उत्पन्न अकड़ को आसानी से समाप्त किया जा सकता है| इतना ही नहीं, इन मिथकीय कहानियों पर सांस्कृतिक धार्मिक आवरण भी चढ़ा दिया गया| इस सामन्ती काल में तैयार साहित्य में सामन्ती आवश्यकताओं एवं व्यवस्थाओं के अनुरूप ही विकसित सामाजिक सांस्कृतिक संरचना का विस्तृत वर्णन और ब्यौरा तैयार कर मिला दिया गया, जिसे सांस्कृतिक धार्मिक स्वरुप दे दिया गया है|

इस सामन्ती काल में विकसित सामन्ती कार्यपालिका में आज की ही तरह चार स्तरीय व्यवस्थापिका (क्लास वन से लेकर क्लास फोर तक) कार्यरत थी, जो सामान्य जनता से ही गुणवत्ता एवं क्षमता के अनुसार सामन्ती कार्यपालक व्यवस्थापिका के लिए चयनित होते थे| समय के साथ ही यह कार्यपालक व्यवस्था वर्ण व्यवस्था कहलाने लगी| मतलब यह है कि सामन्ती कार्यपालिका व्यवस्थापिका को ही वर्ण व्यवस्था कहा गया और शेष समाज तथाकथित वर्ण व्यवस्था से बाहर ही था| यानि इसके बाहर के लोग अवर्ण व्यवस्था के ही हिस्सा रहे| आज की ही तरह वर्ण व्यवस्था यानि सामन्ती कार्यपालिका व्यवस्थापिका के चयनित कर्मी सामान्य जनता से निकलते रहे| इतिहास की यही वैज्ञानिक व्याख्या ही भारत सामाजिक सांस्कृतिक “अकड़” को समाप्त कर सकता है, जिसकी समुचित एवं पर्याप्त व्याख्या यहाँ स्थानाभाव के कारण संभव नहीं है|

जब इतिहास की वैज्ञानिक एवं आधुनिक आधार पर व्याख्या किया जाता है, तो पूरा इतिहास स्पष्ट रूप से खुल जाता है और सारा मिथक इतिहास के पन्नों से थोथा वास्तु की तरह उड़ कर अलग निकल जाता है| काल्पनिक मनगढ़ंत कहानियों को ही मिथक कहा जाता है, जिसका कोई तथ्यात्मक, तार्किक, वैज्ञानिक एवं विवेकशील व्याख्या नहीं किया जा सकता| इतिहास की सही समुचित एवं पर्याप्त व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं उनके अंतर्संबंधों के आधार पर यानि आर्थिक साधनों एवं उनके अंतर्संबंधों के आधार पर किया जाना ही वैज्ञानिक एवं आधुनिक प्रविधि है| यह पुरे मानव इतिहास की सारी उलझनों को सुस्पष्ट तरीके से परत दर परत खोल देता है, जो पूरी तरह से तथ्यात्मक है, तार्किक है, वैज्ञानिक है और विवेकशील भी है| इतिहास की यही प्रविधि ही आधुनिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या भी प्रस्तुत करता है| जब इतिहास में मिथक को ही घुसेड़ना है, तो भारत के कई प्रभावी सामाजिक समूह को अपने जीवन उत्पत्ति इतिहास को किसी ग्रह, तारे, पहाड़, सागर, हवा, पानी, आग, पेड़, नदी से पैदा होना जोड़ना पड़ा है, जिसे आज के वैज्ञानिक और आधुनिक में इतिहास नहीं माना जा सकता है। ऐसे कई उदहारण ऐसे अकड़ पैदा करते हैं|

इस तरह स्पष्ट है कि

भारत में पैदा हुआ सामाजिक सांस्कृतिक अकड़ बैलून में भरे हवा की तरह ही मात्र काल्पनिक है,

जो एक ‘पिन’ मात्र से छेद कर दिए जाने से पिचक जायगा|

यह तथाकथित ‘पिन’ ही इतिहास की वैज्ञानिक एवं आधुनिक व्याख्या है|

भारत के विकास में सबसे बड़ी बाधा काल्पनिक है,

जो काल्पनिक इतिहास पर खड़ा होकर सामाजिक सांस्कृतिक अकड़ भी बनाए हुए है|

इस तरह भारतीय समाज के वंचितों और उपेक्षितों पर हो रही क्रूरता (Atrocities)/ अत्याचार/ असमानता/ भेदभाव को एक ही झटके से समाप्त किया जा सकता है|

इसी निवारण से ही भारत फिर से वैश्विक गुरु बन सकेगा, और भारत एक सशक्त, समृद्ध एवं गौरवशाली राष्ट्र बन सकेगा| यह सिर्फ और सिर्फ इतिहास की आधुनिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या से ही संभव है| और यह वैज्ञानिक और आधुनिक व्याख्या वर्तमान में सिर्फ निरंजन सिन्हा ही कर सकता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

बुधवार, 17 जनवरी 2024

लोगों को नियंत्रित कैसे करें

लोगो (सामान्य जनता) को नियंत्रित कैसे करें, या लोगो को कैसे नियंत्रित किया जाता है, को समझने के लिए वैश्विक परिदृश्य में यह आलेख है| इस आलेख से आप अपने पड़ोसी से लेकर अपने या किसी और देश के शासनाध्यक्ष या राष्ट्राध्यक्ष को ही नियंत्रण में करने की क्रियाविधि (Mechanism) को समझ सकते हैं| इसी कड़ी में आप आम आदमी को भी समझ सकते हैं| लोगों को नियंत्रित करना एक शुद्ध मनोविज्ञान है, कोई अर्थशास्त्र या क्वांटम भौतिकी समझना नहीं है। जब लोगों को नियंत्रित करना एक शुद्ध मनोविज्ञान है, तो निश्चिंतया यह पशुओं पर लागू नहीं होगा| पशुओं के लिए अन्य दंडात्मक विधि है, जो यहाँ का विषय नहीं है| वैसे पशुओं की श्रेणी में दो पैरों वाला  होमो सेपियंस भी आता है। मतलब यह मनोविज्ञान दो पैरों वाले पशुओं के लिए नहीं है बल्कि सिर्फ इंसान के लिए ही है। इंसान के लिए इसीलिए होमो सोशियस (Homo Socius – सामाजिक मानव) और होमो फेबर (Homo Febar – निर्माता मानव ) शब्दावली का उपयोग किया जाता है।

लोग यानि मनुष्य में दिमाग (Brain) भी होता है और मन (Mind) भी होता है। चिकित्सा विज्ञान के विद्वान बताते हैं कि मानव की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को नियांत्रित करने मे मानव के मन और दिमाग के अतिरिक्त उनका ‘रिफ्लेक्स एक्सन’ (Reflex Action) यानि “स्वत: स्फूर्त अनुक्रिया” भी होता है। दरअसल ‘रिफ्लेक्स एक्सन’ एक ‘अनुक्रिया’ (Action) नहीं होकर एक ‘प्रतिक्रिया’ (Reaction) है, जो किसी शारीरिक संवेग का “रक्षात्मक क्रियाविधि” (Defence Mechanism) है और यह स्वत: स्फूर्त होता है। इस अनुक्रिया में ‘दिल’ (मन) और ‘दिमाग’ (मस्तिष्क) की कोई भूमिका नहीं होती। मन को ही दिल कहा जाता है, और यह भावनाओं की अभिव्यक्ति मानी जाती है। दिमाग को तर्क शक्ति का केंद्र माना जाता है, जो तार्किक आधार खोजता है| किसी भी क्रिया पर यदि कोई तुरंत प्रतिक्रिया देता है, और दिमाग नहीं लगाता है, तो इसे ही सामान्यता पाशविक प्रवृत्ति (Reflex Action) माना जाता है, क्योंकि यह सभी पशुओं में पाया जाता है।

ऐसे पाशविक प्रवृत्ति के दो पैरों वाले लोगों को उनसे प्रतिक्रिया लेकर ही उन्हें नियंत्रित करना सरल, सहज एवं आसान है| इसीलिए चतुर यानि बुद्धिमान लोगों का समूह या संस्था ऐसे प्रवृति यानि स्तर के लोगों को नियंत्रित करने के लिए इन्हें कुछ कुछ मुद्दे नियमित रूप से व्यवस्थित ढंग से देते रहते हैं| ऐसे प्रवृति के लोगो से इन व्यवस्थित एवं नियमित मुद्दों पर प्रतिक्रिया लेते रहते हैं। ऐसे लोगों को प्रतिक्रिया देने के बहाने अपनी सतही विद्वता दिखाने का मौका मिलता रहता है, और ये सतही लोग सामान्यजन के नायक बने रहते हैं| मैंने इन्हें सतही विद्वता इसलिए कहा, क्योंकि इन सामान्य जनों की मूल एवं मौलिक समस्याओं की स्थिति एवं स्वरुप यथावत बनी रहती है, इसमें कोई विशेष बदलाव नहीं होता है। ऐसे सतही विद्वान अपनी तथाकथित विद्वता लिए उन्ही उलझनों में उलझे रहते हैं, तब फिर उन्हें नए मुद्दे दे दिए जाते हैं| ऐसे में अधिकतर मुद्दों को विवादास्पद प्रकृति का स्वरूप भी दे दिया जाता है, ताकि इन सतही नेताओं में “स्वत: स्फूर्त प्रतिक्रिया” तुरंत उत्पन्न हो जाय।

प्रतिक्रिया देने में इन लोगों को अपना बहुमूल्य समय, संसाधन, धन, ऊर्जा, जवानी का उत्साह और बौद्धिक संपदा को व्यय करना होता है। यदि इन कारकों का उपयोग सकारात्मक और सृजनात्मक किया जाता, तो शायद इनका उपयोग जनता के उत्थान में हो जाता| और शायद ये लोग बौद्धिकता या समृद्धि के स्तर पर कुछ आगे आ जाते, या आगे निकल जाते। ऐसे प्रतिक्रिया देने वाले पाशविक प्रवृत्ति के लोगों के पास अपनी कोई कार्य योजना नहीं होता, जिसका क्रियान्वयन वे कर सके। ये बेरोजगार बेचारे लोग मात्र प्रतिक्रिया देने को ही अभिशप्त हैं। प्रतिक्रिया देना ही इनकी बौद्धिकता है, और इनकी बौद्धिक क्षमता की पराकाष्ठा भी है। प्रतिक्रिया देने से आगे देखने की इनका अपना कोई विज़न (Vision) ही नहीं होता। इसीलिए जब आप अपने आसपास देखते हैं, तो ऐसे लोग मात्र प्रतिक्रिया देने में व्यस्त दिखते हैं। ऐसे ही प्रतिक्रिया देने वाले पाशविक प्रवृत्ति के लोग “सोशल डिजिटल मीडिया” में ‘कन्टेंट’ (Content) को मात्र फारवर्ड करना ही जानते हैं, और इसके आगे उन्हें कुछ नहीं आता। ऐसे लोगों को नियंत्रित करने का सबसे आसान तरीका है कि उनसे प्रतिक्रिया लेते रह कर उन्हें उलझाए रखना|

व्यक्ति को संचालित, नियंत्रित और नियमित करने में “मन” की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। ध्यान रहे कि दिमाग (Brain) का आकार सीमित होता है और मन (Mind) का आकार असीमित होता है। दिमाग व्यक्ति के ‘मन’ का “मोड्यूलेटर” (Modulator) होता है, जो मन की भावनाओं और विचारों को मानवीय संवेगों (Impulse) में अनुवादित करता है। मन के कार्य स्तर का कई सोपान है, यथा अचेतन, चेतन एवं अधिचेतन। व्यक्ति के अचेतन स्तर पर मन की जो स्थिति होती है, वह व्यक्ति को अचेतन स्तर से ही मानव को संचालित और नियंत्रित करती है, और इसीलिए इसकी क्रियाविधि को वह व्यक्ति भी नहीं समझ पाता है। किसी व्यक्ति के अचेतन स्तर पर वही भावना या विचार मजबूत होता है, जो उस व्यक्ति के लिए किसी कारण से अतिमहत्वपूर्ण होता है। व्यक्ति की संस्कृति भी ऐतिहासिक रूप से उस व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि तथाकथित संस्कृति से उसका ऐतिहासिक लगाव होता है, या ऐसा माना जाता है। ऐतिहासिक का मतलब ही होता है कि किसी लम्बे काल का सम्बन्ध| भले ही कोई संस्कृति काल्पनिक भी होता है, लेकिन इसका प्रभाव वास्तविक ही होता है, क्योंकि उससे लम्बे सम्बन्ध की मान्यता के कारण एक विशेष अपनापन पैदा हो जाता है। इस तरह संस्कृति भी अचेतन अवस्था से ही सक्रिय रहता है। इसीलिए संस्कृति के नाम पर भी लोगों को नियंत्रित और संचालित किया जाता है। ध्यान रहे कि धर्म और सम्प्रदाय भी किसी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ही होता है। धर्म और संस्कृति इतनी महत्वपूर्ण होती है कि इनके नाम मात्र के आधार पर ही किसी को भी किसी भी दिशा में हांक लिया जाता है। इसके लिए आपको जो करना है, कीजिए; आप अपनी मंशा को सिर्फ उनके आस्था की संस्कृति और धर्म से जोड़ दीजिए। यदि सामने वाले लोगों की विश्लेषणात्मक मूल्यांकन की क्षमता सतही है, या नहीं है (जैसा सामान्यत: होता है), तो आप वहाँ धुन्ध पैदा कर अपने मनोनुकूल व्याख्या से उन्हें संतुष्ट कर सकते हैं और उसे भावनाओं में बहा ले जा सकते हैं।

कभी कभी या अक्सर, आप अपने ‘विरोध आन्दोलन’ या ‘विरोधी विचारधारा’ का नेतृत्व कर भी ऐसे लोगो को नियंत्रित किया जाता है। इसे दूसरे शब्दों में कहें, तो जो जन समूह या लोग किसी नीति, या योजना, या विचारधारा का विरोध करते हैं, तो ऐसे लोगों को नियंत्रित करने के लिए आप उनके विरोध के नेतृत्व को अपने नेतृत्व में ले लेते हैं। आपको सिर्फ इतना करना है कि उनके विरोध करने के तरीके से आपका विरोध ज्यादा उग्र दिखे, या असंयमित दिखे, यानि सामान्य लोगों के सामने आपकी बेचैनी ज्यादा दिखे| ऐसा लगे कि आप ही वास्तविक मानवता के पुजारी हैं, आप ही गहरे समाजवादी या साम्यवादी दिखें। इससे वह विरोध आन्दोलन आपके नियंत्रण में होगा, और इसीलिए उनके अनुगामी भी आपके नियंत्रण में होगा। भारत में ऐसे कई आन्दोलन है, जो कभी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहे थे, और आज हाशिए पर भी नहीं बचें है; ऐसे आन्दोलन ऐसे ही हादसे के शिकार है, और आज भी हो रहे हैं। आप नजर उठाकर देखिए, आपको कई उदाहरण मिलेंगे। कभी कभी अपने ही विरोधी दुसरे संगठनों को फण्ड देकर भी, अन्य सहायता देकर भी खड़ा किया किया जाता है, जो आपका ही विरोध करता दिखता है, लेकिन वह आपके प्रमुख विरोधी के विरोध में ही प्रतिफलित होता है| कहने का तात्पर्य यह है कि आपके द्वारा खड़ा किया गया संगठन आपके विरोध में होता है और आपके प्रमुख विरोधी के समर्थन में जाता होता है। ऐसे जन समूह को आपके प्रमुख विरोधी के समर्थन से हटाता है, और वस्तुत: आपको लाभ पहुंचाता है| यह भी अपने विरोधियों को नियंत्रित करने का ही तरीका है|

कुछ लोग जीवन जीने का, यानि अपनी शारीरिक अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में ही जूझ रहे हैं, उनके लिए शारीरिक अस्तित्व बचाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है। ऐसे जीवों की चिन्तन क्षमता और चिन्तन शक्ति समाप्त हो जाती है। कहा भी गया है कि पेट की आग सबसे भयानक विपदा है और वह सब कुछ नष्ट कर सकता है। ऐसे लोगों को नियंत्रित करने का साधन कुछ राशन पानी भी बन जाता है। किसी यूरोपीय तानाशाह की कहानी है, जो अपनी जनता की मानसिकता को दर्शाने के लिए एक मुर्गी का उदाहरण पेश किया था। उसने मुर्गी के सारे पंख उखाड़ दिए और ठंड में मरने के लिए छोड़ दिया, लेकिन जब उसे खानें के लिए दाना दिया गया, तो वह मुर्गी उस तानाशाह का अनुयाई बन गया। यह ऐसे सभी जीवों के लिए मान्य है, जो अपने शारीरिक वजूद बचाने की संघर्ष में लगे हुए हैं। मतलब उन्हे सिर्फ जिन्दा रखने की व्यवस्था कर दीजिए, उससे ज्यादा नहीं, वे आपके अनुयायी बने रहेंगे। 

यदि आपको मध्यम वर्गीय लोगों को नियंत्रित करना है, तो आप इन्हें ‘धर्म’, ‘राजनीति’ और ‘चारित्रिक नैतिकता’ के नाम पर किसी भी दिशा में बहा ले जा सकते हैं। ये मध्यम वर्गीय लोग अपने धन, वेशभूषा, पद, डिग्री या अन्य विशिष्ट अवस्था के कारण किसी भी दशा में हो, इन मध्यम वर्गीय लोग की सटीक पहचान यह है कि ये ‘धर्म’, ‘राजनीति’ और ‘चारित्रिक नैतिकता’ के मामले में निर्णय दिल से लेते हैं, दिमाग से नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि ये मध्यम वर्गीय लोग ‘धर्म’, ‘राजनीति’, और ‘चारित्रिक नैतिकता’ के मामले में भावनात्मक होते हैं, तार्किक नहीं होते। ये हमेशा धर्म, राजनीति और चारित्रिक नैतिकता की बात करते रहेंगे, यानि ये अपने को इन मामलों के विशेषज्ञ ज्ञानी समझते हैं। इसीलिए ऐसे लोगों को नियंत्रित करने के लिए आपको उनके आस्था के अनुरूप यानि विश्वास के अनुरूप ही धर्म, राजनीति और चारित्रिक नैतिकता का समर्थन करता दिखना चाहिए, भले ही आप उनसे पूरी तरह असहमत हो।

यदि आपको लोगों को नहीं, अपितु किसी खास व्यक्तित्व को नियंत्रित करना है और वह युवा पीढ़ी का है, तो उसकी जवानी का ध्यान रख सकते हैं। जवानी यानि उस उम्र की यौनिकता काफी प्रभावशाली होती है। इसीलिए अपराध अनुसंधान में जब पुलिस को कोई सूत्र नहीं मिलता, तो वह अपराध अनुसंधान को यौन आनंद की ओर मोड़ कर सफलता प्राप्त करता है। अतः युवा उम्र में इस आधार पर भी नियंत्रण का विचार बहुतों की रणनीति में भी होती है।

बाकी दिमाग वाले लोगों को वास्तविक लाभ दे कर या वास्तविक लाभ दिलाने का विश्वास दिलाकर पक्ष में किया जाता है, लेकिन इनके लिए ‘नियंत्रण’ शब्द उचित नहीं होगा। दरअसल यही बुद्धिमान लोग राजनीतिक लोगों को नियंत्रित कर सामान्य वर्ग को नियंत्रित करता है। ये राजनीतिक लोग अपने विभिन्न स्वरूपों में व्यवस्था के नियामक मात्र होते हैं, लेकिन मूल रूप में ये राजनीतिक लोग इन बौद्धिक लोगों के ही साधन यानि‘उपकरण’ (Tools) होते हैं। वित्तीय साम्राज्यवाद के इस वर्तमान युग में सभी देशों के शासनाध्यक्ष और राष्ट्राध्यक्ष अपने अपने देशों की राष्ट्रीय सीमाओं के अन्दर व्यवस्था बनाए रखने के “प्रबंधक” (Manager) मात्र है। आप इन शासनाध्यक्षों और राष्ट्राध्यक्षों को ‘अपने अपने राज्यों के प्रबंधक’ (State Manager) भी कह सकते हैं| इस आधुनिक वर्तमान युग में ‘सम्प्रभुता” की अवधारणा मात्र सैद्धांतिक रूप में किताबों में रह गयी है| यह ‘संप्रभुता” की अवधारणा अब  वित्तीय साम्राज्यवादियों के नियंत्रण में चली गई है। वैश्विक सन्धियाँ, समझौते, करार, सहयोग अनुबंध, और वित्तीय अनुदान, सहयोग, कर्ज आदि ने व्यावहारिक रूप में संप्रभुता को ही दफ़न कर दिया है|

अपने नजरों को, शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टि को, दौड़ाइए और देखिए कि कौन किसको कैसे नियंत्रित कर रहा है। आपको बहुत बेहतरीन नजारे दिखेंगे।

आचार्य निरंजन सिन्हा

मंगलवार, 16 जनवरी 2024

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जबरदस्त शक्तियाँ

(Tremendous Power of Cultural Nationalism)

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की शक्तियां जबरदस्त होती है और इसीलिए राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर जबरदस्त नाटक किया जाता है, या किया जा सकता है। आप जानते हैं कि राष्ट्रवाद का धमाका स्वयं शक्तिशाली होता है, और उसने कई राष्ट्रीय राज्यों को उदित किया है और कई साम्राज्यों को विघटित भी किया है। इस शक्तिशाली राष्ट्रवाद में संस्कृति को मिलाने पर वह बहुत समृद्ध एवं प्रभावशाली हो जाता है। अतः सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एक ऐसा सख्त और प्रभावशाली ढाल है, जिसके आड़ में कोई उसी देश की मूल संस्कृति को और उसी राष्ट्रीय समाज, यानि उसी राष्ट्र को भी बर्बाद कर सकता है और उस राष्ट्रीय राज्य का कोई सदस्य उफ़ भी नहीं करेगा। ‘संस्कृति’ ‘राष्ट्रवाद’ का सबसे महत्वपूर्ण शर्त है। और स्वयं यह संस्कृति सबसे व्यापक एवं विस्तृत अवधारणा है, कि कोई भी इसे अपने सुविधा और आवश्यकता के अनुरूप ही इसे व्याख्यापित और अवधारित कर सकते हैं, या करते हैं।

संस्कृति और राष्ट्रवाद, दो ऐसा प्रभावशाली और लुभावना अवधारणा (Concept) है, कि इसके नाम पर आप कुछ भी धृष्टता या दुष्टता आसानी से, आराम से और सहजता से कर सकते हैं। संस्कृति और राष्ट्रवाद समाज के अनन्त अचेतन की गहराईयों तक सम्पर्क में रहती है, हालांकि राष्ट्रवाद की अवधारणा कोई दो-तीन शताब्दी ही पुरानी है और यह एक कल्पित वास्तविकता मात्र है। जब संस्कृति और राष्ट्रवाद इतने प्रभावशाली और लुभावना अवधारणा है, तो आपको मात्र संस्कृति और राष्ट्रवाद की अवधारणा को अपनी सुविधानुसार व्याख्यापित कर देना है, या अपनी सुविधानुसार अवधारित (Conceptualization) कर देना है और उसमें अपने लाभ या स्वार्थ के तत्वों को सावधानीपूर्वक चुपचाप शामिल कर लेना है। हमें इसकी उपादेयता को इतिहास के उदाहरण से समझना चाहिए और इसकी संभाव्य गत्यात्मकता (Feasible Dynamism) को भी समझना चाहिए।

कुछ लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से दक्षिणपंथ और वामपंथ को भी जोड़ कर यानि दक्षिणपंथ और वामपंथ के संदर्भ में अपनी विद्वता को रेखांकित करने का प्रयास करते हैं। लेकिन दक्षिणपंथ और वामपंथ में कोई विभाजन रेखा नहीं होती है, सिवाय इसके 'क्रियान्वयन की गति' में अन्तर के। दोनों ही पंथों का अंतिम लक्ष्य मानवता की समृद्धि और सम्यक विकास बताया जाता है। दरअसल दक्षिणपंथ और वामपंथ की अवधारणा फ्रांस की क्रांति के बाद वहां के विधायी सदन में बैठने वाले विधायक समूह के स्थल दिशा की सापेक्षता से उपजा था। अध्यक्ष के आसन के बाएं हाथ की ओर जो विधायक समूह बैठ रहे थे, वे क्रांतिकारी बदलाव के समर्थक थे और इसलिए ये वामपंथी हुए| शेष अन्य सामान्य सदस्य कार्यक्रमों और योजनाओं को क्रियान्वित करने  में उतावलापन के पक्ष में नहीं थे, दक्षिणपंथी हुए। क्रांतिकारी बदलाव कुछ और अलग नहीं होता है, सिवाय क्रियान्वयन की गति की तीव्रता के। क्रांति का अर्थ होता है, बहुत कम समय में बहुत अधिक परिवर्तन, यानि बदलाव की तेज़ गति। इस बदलाव की गति को प्रभावित करने वाले कारकों में उनकी सहभागिता, तरीके, या नजरिया में अन्तर हो सकता है।

यदि हम राष्ट्र की अवधारणा और संस्कृति की अवधारणा को समुचित ढंग से नहीं समझा है, तो “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” को भी समुचित ढंग से नहीं समझ पाएंगे। इसीलिए सबसे पहले सरल, साधारण और सहज तरीके से इन अवधारणाओं को समझ लेते हैं। राष्ट्र की अवधारणा समझने के लिए जोसेफ स्टालिन के द्वारा दिया गया अवधारणा या परिभाषा ही पर्याप्त है, जो सरल भी है, सहज भी है, आधुनिक भी है और वैज्ञानिक भी है। "मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न' (पुस्तक) में जोसेफ स्टालिन ने राष्ट्र को एक ऐतिहासिक एकापन का स्थिर समुदाय बताया है, जिसका एक सामान्य चरित्र होता है। स्पष्ट है कि एक राष्ट्र किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में आर्थिक जीवन और मनोवैज्ञानिक संरचना में एक स्थिर समुदाय है, और अपने ऐतिहासिक एकापन (भले ही काल्पनिक हो) को मानता है।

भारत के संदर्भ में राष्ट्र की भौगोलिक स्थिति एवं संरचना विशिष्ट है तथा अन्य से अलग भी है। उत्तर में हिमालय एवं संबंधित पर्वत श्रेणियां और दक्षिण में सागर से घिरा प्रायद्वीप, इसे शेष विश्व से अलग पहचान देती है। इसकी उष्णकटिबंधीय एवं मानसूनी जलवायु भी सम्पूर्ण भारतीय जीवन को एक सामूहिक लय और प्रतिबद्धता भी देती है। भारत की सभी मुख्य भाषाओं का उद्विकास भी प्राकृत और पालि से हुई है, और इसकी ही संस्कारित स्वरुप संस्कृत (संस्कृत का अर्थ ही संस्कारित हुआ) आज़ भी भारत के व्यापक क्षेत्र में मौजूद है। इस तरह इनमें भाषाई एक्य भी है। भारत की बौद्धिक विकास और बौद्धिक संपदा के ऐतिहासिक अस्तित्व के कारण ही यह भौगोलिक क्षेत्र 'आभा रत' (आभा से रत, इससे 'आ' विलुप्त हो गया और शेष "भा रत" रह गया) मानी जाती रही है। ये सब भारतीय राष्ट्र के मौलिक तत्व हैं, जो भारत को एक राष्ट्र निर्माण के लिए ऐतिहासिक एकापन स्थापित कर प्रेरित करता रहा है। और इसी राष्ट्र को सशक्त, समृद्ध, विकसित और अग्रणी बनाने के लिए आवश्यक संबंधित विचारधारा को ही राष्ट्रवाद कहते हैं। राष्ट्रवाद और राष्ट्र एक "कल्पित वास्तविकता" (Imaginary Realties) है, जो मानसिक दृष्टि से काल्पनिक होते हुए भी वास्तविकताओं का निर्माण करता है। यह भावनात्मक रूप से उन लोगों में अपनत्व पैदा कर देता है, जो कभी मिले भी नहीं हो। इस तरह राष्ट्रवाद एक गौरवशाली और आदर्श प्रेरणा बन जाता है।

अब हमें संस्कृति को भी समझ लेना चाहिए कि यह इतना महत्वपूर्ण और प्रेरक क्यों होता है? यदि किसी समाज की संस्कृति उस समाज में व्याप्त ऐतिहासिक गहराईयों की भावनाओं , विचारों, व्यवहारों और कार्यों की समेकित एवं संचित अभिव्यक्ति होती है, या ऐसा मानी जाती है, तो संस्कृति ही उस समाज को चेतन एवं अचेतन स्तर से संचालित, नियंत्रित, और नियमित करता रहता है। किसी भी समाज की संस्कृति उसके अबतक के इतिहास की समझ का समेकित परिणाम होता है। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो यह उस समाज का ऐतिहासिक बोध होता है, जिसे वह समझता है। इसे आप "इतिहास बोध" (Perception of History) की उपज भी कह सकते हैं। संस्कृति के अनुरूप व्यवहार, विचार और भावना को व्यक्त करना या अभिव्यक्त करना ही संस्कार माना जाता है। लेकिन जब किसी का इतिहास बोध ही उसके संस्कृति को निर्देशित और नियमित करता है, तो हम इतिहास को नियंत्रित या बदल कर उसके सांस्कृतिक बोध को ही नियंत्रित कर सकते हैं। इस तरह संस्कृति भी बदल जाता है। वैसे इतिहास इतिहासकार की आवश्यकता के अनुसार सदैव बदलता रहता है और इसलिए सांस्कृतिक अवबोध को भी बदल जाना पड़ता है। इस तरह संस्कृति के उद्भव को समझा जा सकता है, लेकिन इसकी क्रियाविधि और उपयोगिता को भी समझना जरूरी है।

स्पष्ट है कि संस्कृति समाज जनित समाज का मानसिक पर्यावरण है, जो समाज के साफ्टवेयर की तरह अदृश्य क्रियाविधि द्वारा समाज को संचालित, नियंत्रित, नियमित  और शासित करता रहता है। इस तरह संस्कृति हमारे जीवन को, हमारी अभिवृति को, हमारे विचार करने की बौद्धिकता को, और हमारी प्रतिबद्धता को संचालित करने की हमारी अन्त:स्थ प्रकृति है। संस्कृति की भौतकीय अभिव्यक्ति ही कला कहलाती है, जो विभिन्न स्वरूपों और अवस्थाओं में अवलोकित किया जाता है। अतः संस्कृति किसी भी समाज को एक ऐतिहासिक विरासत के रूप में प्राप्त होता है। इसीलिए किसी भी समाज की संस्कृति उसकी भौगोलिक परिस्थितियों के सापेक्ष होती है, उसकी बौद्धिक संपदा एवं स्तर के अनुरूप होती है, उसकी वैज्ञानिकता और आधुनिकता की स्थिति के अनुसार विशिष्ट होती है| और संस्कृति इन्हीं बदलते परिप्रेक्ष्य के अनुकूलन के अनुरूप संशोधित एवं सम्वर्धित भी होती रहती है। इस तरह संस्कृति अपनी परिस्थितियों और अभिव्यक्ति के कारकों के बदलने से बदलती भी रहती है।

एक राष्ट्र भी अपनी संस्कृति को विरासत को रुप में देखता है, और इसलिए किसी देश की सांस्कृतिक विन्यास और स्वरुप उस देश की राष्ट्रीय विरासत माना जाता है। इस संस्कृति में उस राष्ट्र को अब तक प्राप्त, विकसित एवं सम्वर्धित सभी सांस्कृतिक सामाजिक पक्ष एवं स्वरूप समाहित हो जाता है। संस्कृति के संचयी प्रवृत्ति के होने के बावजूद इसमें गत्यात्मकता होती है और इसीलिए संस्कृति हमेशा नवाचारी बनी रहती है। अर्थात संस्कृति अपनी जड़ों के वजूद को स्थिर रखते हुए भी बदलते पारितंत्र के अनुकूल अनुकूलित होकर लहराती रहती है, और वही संस्कृति जीवन्त भी रहती है। मतलब आप किसी संस्कृति को जड़, यानि अचल,  यानि गतिहीन नहीं रख सकते। गत्यात्मकता और अनुकूलनशीलता संस्कृति की मौलिक प्रकृति और प्रवृत्ति होती है। इस तरह संस्कृति एक बहती जलधारा है, ठहरे हुए जल में तो सड़ांध पैदा हो जाता है। इसीलिए संस्कृति को सम्वर्धित, संशोधित और विकसित होते भी रहना चाहिए।

वैसे यह स्पष्ट है कि राष्ट्रवाद का सबसे मजबूत आधार, या एकमात्र आधार संस्कृति ही होता है, लेकिन राष्ट्रवाद में  विशेषण 'सांस्कृतिक' लगा देने मात्र से इसका भावनात्मक अर्थ बदल जाता है। अब आप राष्ट्र और राष्ट्रवाद को परिभाषित करने में संस्कृति पर ही केन्द्रित रह सकते हैं। राष्ट्रवाद वैसे ही मध्यम वर्गीय लोगों के लिए आकर्षक और लुभावना अवधारणा है, और इसमें सांस्कृतिक विशेषण लगा देने से इसका महत्व और बढ़ जाता है। तब हमें सिर्फ अपने आवश्यक संस्कृति को पुरातन और ऐतिहासिक साबित करना होता है। कोई भी वर्तमान संस्कृति यथास्थितिवादी होता है, क्योंकि संस्कृति में एक जबरदस्त आवेग (Momentum) होता है, जिसे हम सांस्कृतिक आवेग (Cultural Momentum) भी कह सकते हैं। यानि कोई समाज सांस्कृतिक जड़ता (Cultural Inertia) में जड़ (Fix) होता है। तब वर्तमान संस्कृति को पुरातन और ऐतिहासिक के साथ साथ सनातन यानि इसकी निरन्तरता साबित करना होता है। इसी आधार पर कोई संस्कृति गौरवशाली होता है, या हो जाता है और इसीलिए ऐसी संस्कृति सभी के लिए अनुकरणीय भी हो जाता है। तब इस संस्कृति का अनुकरण करना ही संस्कार होता है, या हो जाता है। यदि यह संस्कृति राष्ट्रीय साबित किया गया है, या राष्ट्रीय स्वरूप में प्रदर्शित किया गया है, तो उसका अनुसरण नहीं करना राष्ट्रवाद का और राष्ट्र का विरोध समझा जाएगा।

इसीलिए प्रचलित संस्कृति के कुछ लाभार्थी समूह ने अपनी सामंती संस्कृति को ही प्राचीनतम एवं सनातन साबित करने के लिए पुराने ग्रंथों को ही पुनर्व्याख्यायित कर दिया है, अपने लाभों के अनुरूप सम्पादित कर दिया है, भाषा भी बदल दिया है और उन प्राचीन मूल ग्रंथों को नष्ट भी कर दिया है। ध्यान रहे कि सभी सामंती संस्कृति की उत्पत्ति ही मध्य काल में हुआ, भले ही कोई प्राचीनता का दावा बिना पुरातात्विक आधार के ही करता रहे। मतलब यह है कि बहुत से प्राचीनतम संस्कृति का दावा करने वाली संस्कृति, यदि असमानतावादी है तो, निश्चिंतया वह मध्य युगीन उत्पन्न है। प्राचीनतम संस्कृति का "प्राथमिक प्रामाणिक साक्ष्य" यदि उपलब्ध नहीं है, तो वह संस्कृति मध्य युगीन उत्पन्न है, चाहे कोई कैसा भी दावा करें। लगभग सभी साहित्यिक साक्ष्य' प्राथमिक प्रामाणिक साक्ष्य' नहीं है। ये साहित्यिक साक्ष्य 'द्वितीयक प्रामाणिक साक्ष्य' भी नहीं है, क्योंकि वे किसी पुरातात्विक या ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित नहीं होकर मात्र मिथकीय कहानियां ही है।

इसीलिए किसी राष्ट्रीय संस्कृति को किसी अन्य नाम ( इतिहास के नवबोल संरचना – New Speak Structure of History के अनुसार) की संस्कृति का पर्याय बना दिया जाता है और फिर उस काल्पनिक संस्कृति को ही राष्ट्रीय संस्कृति बता दिया जाता है, या साबित कर दिया जाता है। फिर इस काल्पनिक संस्कृति का ही गुणगान ऐतिहासिक, पुरातन और सनातन के रूप में किया जाता है। इस तरह एक काल्पनिक संस्कृति को ही स्थापित कर दिया जाता है और यह काल्पनिक संस्कृति ही राष्ट्रवादी साबित हो जाती है। ऐसी स्थिति में अब इस काल्पनिक संस्कृति में कोई भी संशोधन या विमर्श या कोई प्रश्न करना भी ऐतिहासिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर सवाल खड़ा करना मान लिया जाएगा, या मान लिया जाता है।

यहां काल्पनिक संस्कृति कहना भी एक आपत्तिजनक हरकत मान लिया जा सकता है, लेकिन यदि आप इस तथाकथित ऐतिहासिक संस्कृति की ऐतिहासिकता और पुरातनता के समर्थन में कोई समकालीन पुरातात्विक साक्ष्य खोजना चाहेंगे, तो आपको मनोवैज्ञानिक साक्ष्य के अलावा कोई तार्किक एवं सुनिश्चित साक्ष्य नहीं मिलेंगे। यदि आप इसके समर्थन में कोई साहित्यिक साक्ष्य को देखना चाहेंगे, तो आपको उस काल का कोई समकालीन साहित्यिक साक्ष्य नहीं मिलेंगे, और कोई समकालीन उपलब्ध विदेशी साहित्य में भी उदाहरण या प्रसंग नहीं मिलेंगे। इन तथाकथित ऐतिहासिक विरासत की संस्कृति के समर्थन में जो भी साहित्यिक साक्ष्य मिलेंगे, वे सभी मध्ययुगीन सम्पादित या रचित साहित्य ही होंगे। इसका सबसे प्रमुख प्रमाण उनका मात्र कागजों पर ही मिलना है, जो निश्चितया कागज़ के आविष्कार होने और उस क्षेत्र में आयातित होने और उसके प्रचलित होने के बाद के समय का ही हो सकता है, उसके पहले के समय का नहीं।

जब आप किसी मिथकीय कहानियों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़ देते हैं, वे मिथकीय कहानियां भी संस्कृति की तरह पुरातन एवं सनातन हो जाती है और ये मिथकीय कहानियां हमारी विरासत भी हो जाती है। जब इन मिथकीय कहानियों के पात्र आदमी ही है, यानि होमो सेपियंस सेपियंस ही है, तो स्पष्ट है ऐसी कहानियां होमो सेपियंस की उत्पत्ति के बाद के ही होने चाहिए। अन्यथा इसकी उत्पत्ति के पूर्व की ऐसी कहानियां वास्तविक हो ही नहीं सकती, यानि ऐतिहासिक मानी ही नहीं जा सकती है। जो जीवन वृत्त यानि जो कहानियां किसी व्यक्ति पर आधारित है और वह वास्तविक मानी जाती है, तो उन कहानियों को किसी भी इतिहास की पुस्तकों में दर्ज होना चाहिए, अन्यथा वे मात्र कोरी कहानियां ही है। ध्यान रहे कि आधुनिक मानवों का अस्तित्व ही, मानववैज्ञानिकों के अनुसार, कोई एक लाख वर्ष पूर्व ही आया है, उसके पहले की किसी भी ‘संस्कृति का इतिहास’ ‘इतिहास की पुस्तकों’ में दर्ज नहीं है|

राष्ट्रवाद का दुरुपयोग भी किया जा सकता है, या किया जाता है। इसीलिए राष्ट्रवाद के विवादास्पद स्थिति के कारण प्रत्येक देश/ राष्ट्र को मानवतावादी दृष्टिकोण की ओर बढ़ना चाहिए। राष्ट्रवाद एक हथौड़े की तरह एक उपकरण है, जिसका उपयोग निर्माण में भी किया जा सकता है और किसी विध्वंस में भी किया जा सकता है। मानवतावाद सदैव सृजनात्मक ही होगा। अब तो आधुनिकीकरण भी राष्ट्रवाद को उसकी पहचान से वंचित कर रहा है। राष्ट्रवाद का दायरा सबसे विशाल होता है, जो जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, आदि से भी ऊपर होता है, लेकिन इससे उपर मानवतावाद है, जिसके उपर और कोई वाद नहीं हो सकता है। प्रकृतिवाद या भविष्यवाद का भी केन्द्रीय विंदु भी मानव ही है, कोई जाति, प्रजाति, धर्म, क्षेत्र या भाषा नहीं हो सकता है। यदि वैश्वीकरण की प्रक्रिया राष्ट्रवाद को जबरदस्त चुनौती दे रही है, तो राष्ट्रवाद का इस युग में उपयोग और प्रयोग करना एक प्रतिगामी क़दम कहा जाएगा। कुछ व्यक्तिगत (सीमित छोटे समुदाय सहित) स्वार्थों के लिए राष्ट्रवाद का उत्साहवर्धक समर्थन देना भी उस समाज या राष्ट्र के समुचित विकास के लिए घातक हो सकता है।

जब आप संस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद की जबरदस्त शक्तियों को समझ गए, तो आप संस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद के मूल और मौलिक तत्वों की ओर नजर घुमाइए, इनकी क्रियाविधि को समझिए। फिर "इतिहास की नवबोल संरचना" (New Speak Structure of History) को समझते हुए अपनी सुविधानुसार अपने अवधारणाओं और परिभाषाओं को इस संस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद की स्थापित अवधारणाओं और परिभाषाओं के अनुरूप व्याख्यापित कर प्रतिस्थापित कर दीजीए। आप निश्चिंत रहिए, कि सामान्य जनता या डिग्रीधारी तथाकथित बौद्धिक लोग आपके इस बारीक बौद्धिक विस्थापन या प्रतिस्थापन को नहीं समझ पाएंगे| सतहों पर फिसलने वाले इन लोगों को गहराईयों में उतरना नहीं आता है। और आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जबरदस्त शक्तियों का सफल उपयोग या प्रयोग (या दुरूपयोग) करते रहिए।

आप इस आलेख को अच्छी तरह से समझने के लिए अंतिम पारा को स्थिर होकर अवलोकन करें और फिर इसके मनन मंथन के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचे।

आचार्य निरंजन सिन्हा

 

बुद्ध और बुद्धि

  विशिष्ट बुद्धि वाले व्यक्ति को बुद्ध कहा जाता रहा है| बुद्ध और बुद्धि में बहुत गहरा संबंध है और यह संबंध भी प्रत्यक्ष है| दरअसल बुद्ध एक ...