शनिवार, 20 जनवरी 2024

अकड़ / ऐंठन कहां से आती है?

(Wherefrom does Snobbism come? ) 

स्थान था - नई दिल्ली का प्रसिद्ध सामाजिक केन्द्र, हरकिशन सिंह सुरजीत सभागार और दिन था - अप्रैल, 2023 का पहला सप्ताह। अवसर था 'बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर नेशनल एसोसिएशन ऑफ इंजीनियर्स' की राउंड टेबल दो दिवसीय संगोष्ठी| इसमें इनके राष्ट्रीय अध्यक्ष की भी उपस्थिति थी। सवाल यह उठा कि भारत के इतने लम्बे गणतांत्रिक सफर के बावजूद भारतीय समाज के वंचितों और उपेक्षितों पर क्रूरता (Atrocities) क्यों हो रहे हैं और यह क्यों रुक नहीं रहा है? इस संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष कोई पांच बार ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में इस विषय पर अपना अभिभाषण दे चुके है। वहां सभागार में उपस्थित लोगों को मैंने बताया कि “क्रूरता/ अत्याचार ‘अकड़’ से आती है”। मैंने इसे वैज्ञानिक एवं आधुनिक आधार पर संक्षेप में व्याख्यापित भी किया। मुझे भी इस संबंध में अपनी बात ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (UNO) में रखने के लिए तैयारी करने को कहा गया। यह आलेख उसी क्रम का संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण है।

भारतीय संविधान भी अपनी ‘उद्देशिका’ (Preamble) में स्पष्ट उल्लेखित करता है कि भारत के सभी लोगों में ‘न्याय’ (Justice) के सुनिश्चयन और स्थापन के लिए ‘मुक्ति’ (Liberty, not only Freedom), ‘समता’ (Equality, including Equity/ समानता सहित), और ‘बन्धुत्व’ की स्थापन और सुनिश्चयन करता है। इसके अतिरिक्त संविधान के “भाग तीन” (मूल अधिकार) और “भाग चार” (राज्यों के नीति निदेशक तत्व) में भी पारंपरिक सामाजिक सांस्कृतिक आधार पर होने वाले भेदभाव और उत्पीड़न/ अत्याचार/ क्रूरता के निवारण /समापन हेतु सांवैधानिक प्रावधान करता है। इसकी सीमाओं के अंतर्गत शासन द्वारा अनेकों व्यवस्थाएँ भी किया गया है| फिर भी भारतीय समाज के सदियों से वंचितों और उपेक्षितों पर क्रूरता (Atrocities) हो ही रहे हैं, जिसके उदहारण अक्सर मीडिया में आते रहते हैं| उपेक्षितों एवं वंचितों के प्रति इस भेदभाव और उत्पीड़न/ अत्याचार/ क्रूरता को सहस्त्राब्दियों से बताना महज एक मिथक है, और इसका कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं है; यही समझना है एवं इसके बारे में आगे विस्तारित करेंगे|

भारतीय संविधान सभा में ‘संविधान प्रारूप समिति’ के अध्यक्ष डा भीमराव आंबेडकर ने भी इसी सामाजिक सांस्कृतिक भेदभाव की संभाव्यता को भांपते हुए "सांवैधानिक नैतिकता" (Constitutional Morality) की बात कही थी। इस सांवैधानिक नैतिकता को वैधानिक बाध्यता बनाने के लिए शब्दों में परिभाषित या मर्यादित नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस सांवैधानिक नैतिकता के प्रेरक कारकों में या निर्देशित करने वाले तत्वों को चिह्नित किया जा सकता है| आज के वैज्ञानिक एवं आधुनिक युग में 'मानवता' (Humanity), 'न्याय' (Justice), 'समता' और समानता (Equality n Equity), 'मुक्ति' और 'स्वतंत्रता' (Liberty n Freedom), 'वैज्ञानिकता' (Scientism), एवं 'आधुनिकता' (Modernity) को अवश्य ही प्रमुख माना जाना चाहिए। लेकिन शायद ‘सांवैधानिक नैतिकता’ भारत की “सांस्कृतिक जड़ता” (Inertia of Culture) में ‘जड़’ (Fix) ही रह गया और कभी स्वत: स्फूर्त गतिमान नहीं हो सका।

‘अकड़’ वैसे भी ‘न्याय’ की अवधारणा का विरोध करता है। अतः अकड़ स्वतंत्रता, समता (और समानता) एवं बन्धुत्व का भी विरोधी हुआ। इसका तात्पर्य यह भी हुआ कि अकड़ वैज्ञानिकता और आधुनिकता का भी विरोधी हुआ। मतलब अकड़ ‘मानवीय गरिमा’ (Dignity of Human) का भी विरोधी हुआ, और यह किसी को समुचित अवसर देने का भी विरोधी हो गया| इस तरह अकड़ किसी के समुचित और सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास में बाधक भी बन जाता है। जब यह मानवीय गरिमा का विरोध करता है, या मज़ाक बनाता है, तो यह वंचितों और उपेक्षितों के लिए अवश्य ही दुखदाई भी होगा।

 ‘अकड़’ यानि विचार, भावना एवं व्यवहार में 'ऐंठन' एक वहम है, जो मन से आती है, उपजती है। यह कल्पना आधारित एक मानसिक प्रक्रिया है, लेकिन इसका प्रभाव वास्तविक होता है। इस तरह ‘अकड़’ एक ‘काल्पनिक वास्तविकता’ (Imaginary Realties) है। यह अकड़ व्यक्ति या समाज में एक घमण्ड पैदा करता है, उसके घमण्ड को मजबूत करता  यह व्यक्ति एवं समाज की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों में भी कडापन/ अकड़पन (लचीलापन का विरोधी) पैदा करता है| यही मताग्रह भी है, यही जिद्दीपन भी है, यही हठधर्मिता भी है, यही ऐंठन भी है, यही धृष्टता भी है, यही अहंकार भी है, यही ढिठाई भी है, और यही तनाव का कारण भी है| और यह भी संभव है कि उसके इस घमण्ड को ऐतिहासिकता भी प्रदान किया जाता भी हो|

यह अकड़ का वहम अपने वजूद के लिए किसी को भी बहाना यानि माध्यम बना लेता है, लेकिन इनमें कुछ प्रमुख हैं| इस सूचि में ‘धन’ से उपजा अकड़ भी है, ‘ज्ञान के भ्रम’ से भी अकड़ आता है, ‘पद के रुतबा’ से भी अकड़ आता है, ‘इतिहास के गलत बोध’ से भी अकड़ आता है, ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से भी अकड़ आता है और ‘मानसिक विभ्रम’ (Mental Delusion) से भी अकड़ आता है। इस सूचि के अकड़ को थोडा विस्तारित किए जाने की आवश्यकता है, ताकि कोई भी इसकी प्रकृति, क्रियाविधि, और प्रवृति को समझ सके| यह स्पष्ट रहे कि धन, ज्ञान, पद, मानसिक भ्रम से उपजा अकड़ अति सामान्य अवस्था का कद है, जो लगभग सभी वर्तमान समाजों में पाया जाता होगा| लेकिन इस आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग के ‘विकसित’ या ‘विकसित हो रहे’ समाज में धन, ज्ञान, पद, मानसिक भ्रम से उपजे अकड़ के अतिरिक्त ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ विशिष्ट एवं अलग है, जिसकी चर्चा इसके अन्त में किया जाना है| इसी ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ की चर्चा प्रमुख एवं सबसे महत्वपूर्ण है|

सबसे पहले ‘धन’ से उपजे अकड़ की चर्चा करते हैं| सब कोई जानता है कि धन स्वाभाव से चंचल होती है, यानि इसकी स्थिरता कभी स्थायी नहीं मानी जा सकती| फिर भी कुछ नादान की अकड़ धन के “अति” (Excess) संग्रहण या संचयन से भी हो जाती है, हालाँकि “अति” (Excess) की अवधारणा व्यक्ति विशेष की मनोदशा से निश्चित एवं निर्धारित होती है| अत: इस धन के अति संचयन से उत्पन्न अकड़ बहुत प्रभावशाली नहीं होती है, जब तक कि अकड़ के अन्य तत्व भी इसके साथ नहीं जुड़ जाएँ| धन से उत्पन्न अकड़ भी अन्य कारणों से उत्पन्न अकड़ से टकराकर कभी कभी हार ही नहीं जाता, या टकराकर चूर चूर ही नहीं हो जाता, बल्कि ऐसे अकड़ वाले को काफी मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक क्षति भी पंहुचा देता है| चूँकि धन किसी भी व्यक्ति या समाज को शासन या व्यवस्था तंत्र को अनेकों तरह से प्रभावित करने साधन, उपकरण, विधि आदि देता है, इसीलिए ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ का ‘धन के अकड़’ पर पड़ा ‘गुणक प्रभाव’ (Multiplier Effect) दरअसल “घातांक प्रभाव” (Exponent Impact) हो जाता है| आप यह भी समझ गए होंगे कि ऐसी अकड़ किनमे किनमे आती है, इसका क्या प्रभाव पड़ता है?

ज्ञान के भ्रम से भी आने वाली अकड़ का अपना कोई विशेष प्रभाव नहीं ही होता है, हालाँकि बहुत से लोग तथाकथित ज्ञानी की परम्पराओं के भी वंशज होने के आधार पर अकड़ रखते हैं| वैसे ज्ञानी होने का आधार उसे मिलने वाले पर्यवारण, उसकी शिक्षा, और उसके समझने, विश्लेषण करने, एवं मूल्याङ्कन करने की योग्यता से आती है| इस ‘ज्ञान के अतिविशिष्ट अवस्था’ वाले अकड़ रखने वाले को समाज एक ‘बेचारा’ की श्रेणी में रखता है, क्योंकि समाज ऐसे लोगों को “मानसिक विक्षिप्त” मानता या कहता है| ऐसे अकड़ वालों की कई कहानियां समाज में प्रचलित होती है, लेकिन लगभग सभी कहानिया मानसिक विक्षिप्तता से सम्बन्धित ही होती है| अत: ऐसे अकड़ की यहाँ विस्तृत चर्चा किए जाने का कोई औचित्य नहीं है|

‘पद के रुतबा’ से भी अकड़ आती है, लेकिन यह अकड़ उसी पद (Post) पर बने रहने की अवधि तक हो आती है| दरअसल धारित पद की कुछ संवैधानिक (Constitutional), या वैधानिक (Legal), या न्यायिक (Judicial), या प्रशासनिक  (Administrative) शक्तियाँ होती है, जो उस व्यक्ति में नहीं होकर उस पद में होती है| लेकिन कुछ व्यक्ति यह भूल जाता है कि यह शक्ति उसे यानि उस व्यक्ति को नहीं है, अपितु उस पद में निहित है| यह सूक्ष्म अंतर नहीं समझने वाले व्यक्ति को ही असामाजिक मान लिया है, जिसका समझ यानि अहसास उसे पद से सदा के लिए मुक्त हो जाने पर होता है| ऐसा ही अकड़ कुछ मीडिया कर्मी (Media Person) को भी सामान्यत: रहता है, परन्तु इनकी अकड़ की मात्रा उस मीडिया के सत्ता, यानि शासन, यानि तंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव की मात्रा तक रहता है| एक बात का ध्यान अवश्य ही रखना है कि अकड़ के दुसरे तत्व का प्रभाव “गुणक प्रभाव” (Multiplier Effect) होता है, लेकिन‘पद के रुतबा’ से अकड़ पर ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ का गुणक प्रभाव दरअसल “घातांक प्रभाव” (Exponent Impact) पड़ता है|

किसी के अकड़ में उनके ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ ही सबसे प्रमुख एवं महत्वपूर्ण है, जो भारत को सर्वाधिक नुकसान कर रहा है| लेकिन ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ तो ‘इतिहास के गलत बोध’ की वर्तमान स्थिति को ही अपनी अवस्था में बनाए रखना चाहती है, इसलिए अकड़ की उत्पत्ति में ‘इतिहास के गलत बोध’ एकमात्र महत्वपूर्ण है| ‘जड़ता’ (Inertia) भौतिकी की वह अवधारणा है, जिसमे कोई वस्तु अपनी अवस्था को स्थान (Space) के सापेक्ष यथास्थिति में ही बनाये रखना चाहती, भले ही गतिमान या स्थिर अवस्था में हो| इस तरह किसी व्यक्ति या समाज की ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ उसके ‘इतिहास के गलत बोध’ से उत्पन्न होती है और बनी रहती है| इसका कोई और भी अलग अर्थ नहीं है|

तो हमें यह समझना है कि ‘इतिहास के गलत बोध’ कैसे अकड़ पैदा करता है और उसमे संस्कृति की क्या भूमिका है? अत: संस्कृति की उत्पत्ति, क्रियाविधि, प्रकृति यानि स्वाभाव, एवं प्रभाव को जान लेना चाहिए| संस्कृति की उत्पत्ति उसके “इतिहास के बोध” से होती है| यह इतिहास का बोध उसमे ‘विरासत’ का सनातन गौरवशाली अहसास पैदा करता है| यही अहसास एवं समझ ही एक तरह से संस्कृति कहलाती है, जो एक सॉफ्टवेयर की तरह ‘सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र’ को संचालित एवं नियमित करता रहता है| और इसी को सुधारने के लिए इतिहास की आधुनिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या किया जाना अनिवार्य है| इसी से भारत को परेशान करने वाली अकड़ की मूल एवं मौलिक प्रवृति को समझा जा सकता है और उसे निर्मूल किया जा सकता है|

अतः ‘इतिहास के गलत बोध’ एवं ‘सांस्कृतिक सामाजिक जड़ता’ से उत्पन्न अकड़ को समझने के लिए मनोविज्ञान और इतिहास को जानना समझना होगा। दरअसल भारत में लोग इतिहास और मिथक के अन्तर और इनके संबंध को नहीं समझते हैं। अधिकांशत: पढ़े लिखे डिग्रीधारी और पद अधिकारी भी इस अन्तर को नहीं समझते, और मिथक को ही इतिहास समझते और मानते हैं। दरअसल भारत के प्राचीन काल का सुस्पष्ट इतिहास रहा है| लेकिन भारत में सामन्त काल यानि मध्य काल के उद्भव एवं विकास काल में इन इतिहासों को नए ढंग से सम्पादित कर एवं लिख रच कर प्रस्तुत किया गया, और मूल इतिहास को सदा के लिए नष्ट कर दिया गया है| सामन्ती आवश्यकताओं के कारण ही इतिहास के इस काल में हुए संपादन में नए मिथक रचे गढ़े गए और इसे इतिहास में मिला दिया गया|

ध्यान रहे कि वर्तमान आदमी यानि होमो सेपियंस मानववैज्ञानिको (Anthropologist) के अनुसार कोई एक लाख साल पहले ही उत्पन्न हुआ और उनमे “संज्ञानात्मक समझ” (Cognitive Unerstanding) कोई साठ हजार साल पहले ही आया| लेकिन भारत के आदमियों के विशिष्ट करतबों की कहानियाँ इन आधुनिक मानवों की उत्पत्ति से बहुत पहले की बताई एवं मानी जाती है, जो स्पष्टतया मिथक है, यानि काल्पनिक कहानियाँ मात्र है| तो इन मिथकों के आधार पर उत्पन्न अकड़ को आसानी से समाप्त किया जा सकता है| इतना ही नहीं, इन मिथकीय कहानियों पर सांस्कृतिक धार्मिक आवरण भी चढ़ा दिया गया| इस सामन्ती काल में तैयार साहित्य में सामन्ती आवश्यकताओं एवं व्यवस्थाओं के अनुरूप ही विकसित सामाजिक सांस्कृतिक संरचना का विस्तृत वर्णन और ब्यौरा तैयार कर मिला दिया गया, जिसे सांस्कृतिक धार्मिक स्वरुप दे दिया गया है|

इस सामन्ती काल में विकसित सामन्ती कार्यपालिका में आज की ही तरह चार स्तरीय व्यवस्थापिका (क्लास वन से लेकर क्लास फोर तक) कार्यरत थी, जो सामान्य जनता से ही गुणवत्ता एवं क्षमता के अनुसार सामन्ती कार्यपालक व्यवस्थापिका के लिए चयनित होते थे| समय के साथ ही यह कार्यपालक व्यवस्था वर्ण व्यवस्था कहलाने लगी| मतलब यह है कि सामन्ती कार्यपालिका व्यवस्थापिका को ही वर्ण व्यवस्था कहा गया और शेष समाज तथाकथित वर्ण व्यवस्था से बाहर ही था| यानि इसके बाहर के लोग अवर्ण व्यवस्था के ही हिस्सा रहे| आज की ही तरह वर्ण व्यवस्था यानि सामन्ती कार्यपालिका व्यवस्थापिका के चयनित कर्मी सामान्य जनता से निकलते रहे| इतिहास की यही वैज्ञानिक व्याख्या ही भारत सामाजिक सांस्कृतिक “अकड़” को समाप्त कर सकता है, जिसकी समुचित एवं पर्याप्त व्याख्या यहाँ स्थानाभाव के कारण संभव नहीं है|

जब इतिहास की वैज्ञानिक एवं आधुनिक आधार पर व्याख्या किया जाता है, तो पूरा इतिहास स्पष्ट रूप से खुल जाता है और सारा मिथक इतिहास के पन्नों से थोथा वास्तु की तरह उड़ कर अलग निकल जाता है| काल्पनिक मनगढ़ंत कहानियों को ही मिथक कहा जाता है, जिसका कोई तथ्यात्मक, तार्किक, वैज्ञानिक एवं विवेकशील व्याख्या नहीं किया जा सकता| इतिहास की सही समुचित एवं पर्याप्त व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं उनके अंतर्संबंधों के आधार पर यानि आर्थिक साधनों एवं उनके अंतर्संबंधों के आधार पर किया जाना ही वैज्ञानिक एवं आधुनिक प्रविधि है| यह पुरे मानव इतिहास की सारी उलझनों को सुस्पष्ट तरीके से परत दर परत खोल देता है, जो पूरी तरह से तथ्यात्मक है, तार्किक है, वैज्ञानिक है और विवेकशील भी है| इतिहास की यही प्रविधि ही आधुनिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या भी प्रस्तुत करता है| जब इतिहास में मिथक को ही घुसेड़ना है, तो भारत के कई प्रभावी सामाजिक समूह को अपने जीवन उत्पत्ति इतिहास को किसी ग्रह, तारे, पहाड़, सागर, हवा, पानी, आग, पेड़, नदी से पैदा होना जोड़ना पड़ा है, जिसे आज के वैज्ञानिक और आधुनिक में इतिहास नहीं माना जा सकता है। ऐसे कई उदहारण ऐसे अकड़ पैदा करते हैं|

इस तरह स्पष्ट है कि

भारत में पैदा हुआ सामाजिक सांस्कृतिक अकड़ बैलून में भरे हवा की तरह ही मात्र काल्पनिक है,

जो एक ‘पिन’ मात्र से छेद कर दिए जाने से पिचक जायगा|

यह तथाकथित ‘पिन’ ही इतिहास की वैज्ञानिक एवं आधुनिक व्याख्या है|

भारत के विकास में सबसे बड़ी बाधा काल्पनिक है,

जो काल्पनिक इतिहास पर खड़ा होकर सामाजिक सांस्कृतिक अकड़ भी बनाए हुए है|

इस तरह भारतीय समाज के वंचितों और उपेक्षितों पर हो रही क्रूरता (Atrocities)/ अत्याचार/ असमानता/ भेदभाव को एक ही झटके से समाप्त किया जा सकता है|

इसी निवारण से ही भारत फिर से वैश्विक गुरु बन सकेगा, और भारत एक सशक्त, समृद्ध एवं गौरवशाली राष्ट्र बन सकेगा| यह सिर्फ और सिर्फ इतिहास की आधुनिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या से ही संभव है| और यह वैज्ञानिक और आधुनिक व्याख्या वर्तमान में सिर्फ निरंजन सिन्हा ही कर सकता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

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