शनिवार, 20 अगस्त 2022

खतरनाक राष्ट्रवाद (Dangerous Nationalism)

जी हाँ, आप सही पढ़ रहे हैं| राष्ट्रवाद का भी खतरनाक उपयोग होता है या राष्ट्रवाद का खतरनाक उपयोग ही होता है, दोनों ही सही है| इसका अर्थ यह नहीं है कि राष्ट्रवाद का सकारात्मक एवं रचनात्मक  उपयोग नहीं होता है|

राष्ट्रवाद एक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक उपयोग की एक ऐतिहासिक अवधारणा है| इसमे किसी व्यक्ति, समाज या समुदाय का व्यवहार, विचार एवं आदर्श उस ‘राष्ट्र’ के हित की ओर अभिमुख (Oriented) होता है| अर्थात किसी भी व्यक्ति, समाज, या समुदाय के किसी भी हित को उस ‘राष्ट्र’ के हित के सामने तुच्छ बना देना ही ‘राष्ट्रवाद’ है| मतलब उस राष्ट्र के लिए ‘घोषित हितों’ के सामने कोई भी व्यक्ति, कोई भी समाज या कोई भी समुदाय अपनी छोटी या बड़ी आवश्यकताओं, समस्याओं एवं मांगों को नहीं रखे, नहीं उठाये| यदि किसी व्यक्ति, समाज, या समुदाय को इसके लिए अपना जीवन ही दे देना पड़े, तो यह उसके लिए सौभाग्य की बात होनी चाहिए, यह राष्ट्र की अवधारणा है| यह सैद्धांतिक रूप में राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए होता है, परन्तु व्यवहारिक रूप में इसमें सामान्य जनता ही आते हैं| यह सब सही भी है, गलत भी है, नैतिक भी है, और अनैतिक भी है| 

ऐसा क्यों? एक साथ सब कुछ? ध्यान दें| ऐसा इसलिए कि राष्ट्र के “हित” को कौन परिभाषित करेगा? और उस “राष्ट्र हित” में कौन कौन से तत्व शामिल होंगे? सारा खेल इसी में है| इन तत्वों को ‘पूंजीपति व्यवसायिक समूह’ निर्धारित करेगा| इसको ‘संचार माध्यम’ व्यापक अभिव्यक्ति देगा| ‘राजनीतिक शासन’ इसको संरचनात्मक आधार एवं फिजा (रौनक/ बहार) देगा| और ‘अज्ञानी, मूढ़ एवं नादान समर्थक’ इसको क्रियान्वित करेगा| तभी तो “देशी दंतमंजन का उपयोग” राष्ट्रवाद हो जाता है, और पहले से बनता आ रहा भारतीय “दंतमंजन” का उपयोग राष्ट्रवाद का विरोध हो जाता है| यह भारतीय बाबा का एक राष्ट्रवादी उदाहरण मात्र है| अन्य उदाहरण के लिए आपको इधर उधर नजरें घुमानी होगी| इन तत्वों का सम्यक विश्लेषण आगे करेंगे|

लेकिन राष्ट्रवाद का राजनीतिक उपयोग सबसे ज्यादा धारदार होता है, इसकी नैतिकता और अनैतिकता पर मैं अभी नहीं जाना चाहता हूँ| किसी राज्य या क्षेत्र या देश की जनता किसी को भी चुनती है या बहुमत देती है, तो उनसे एक बड़ी उम्मीद होती है| यह उम्मीद इसलिए होती है, क्योंकि जनता उसकी मंशा को सही मानती है और उसे नैतिक भी मानती है| जनता को उनमें पूरी आस्था होती है और उन पर पूरा विश्वास भी होता है| परन्तु जब राजनीतिक शासन सिर्फ हवाबाजी करती है, या काम कम और बातें ज्यादा करती हो और शासन को भी लंबा चलाना चाहता हो, तो यह “राष्ट्रवाद की दवा” बहुत असरदार होती है| चूंकि जनता को अपने निर्वाचित शासन या शासक की मंशा सही एवं नैतिक लगती है, इसलिए राष्ट्रवाद उस राजनीतिक शासन में उनकी आस्था एवं उनके विश्वास को और बढ़ा देता है तथा और मजबूत कर देता है| लेकिन यह राष्ट्रवादी “दवा” या “टानिक” किसी के “भोजन” का यानि किसी की भौतिक मूलभुत आवश्यकताओं का विकल्प नहीं हो पाता| इसका परिणाम यह होता है, जो कमोबेश हिटलर का हुआ था| हिटलर ने राष्ट्रवाद का उपयोग ऐसा ही किया| वह खुद एक साधारण सिपाही जैसे निम्न स्तर से निर्वाचित होकर ऊपर तक पहुंचा| लेकिन उसके समर्थक अंधभक्त भी जल्दी ही या कुछ समय में उस राष्ट्रवाद के खोल को पहने उस “जीव” को पहचान और समझ जाता है|

राष्ट्रवाद को समझने के लिए हमें ‘राजनिष्ठा’ यानि ‘राजभक्ति’, ‘देशनिष्ठा’ यानि ‘देशभक्ति’, और ‘राष्ट्रनिष्ठा’ यानि ‘राष्ट्रभक्ति’ समझना चाहिए| सामान्यत: लोग इन तीनों में अंतर नहीं करते, और शासन भी यही चाहता है कि लोग ‘राजभक्ति’ को ही ‘देशभक्ति’ और ‘राष्ट्रभक्ति’ समझ ले| किसी व्यक्ति की राजनिष्ठा/ राजभक्ति (Royalism) उस राज्य, क्षेत्र या देश की ‘शासन व्यवस्था’ (Administrative System) या ‘शासक व्यक्ति’ (Ruler Person) में होती है| इस निष्ठा या भक्ति में उन लोगों की उनके प्रति श्रद्धा एवं आस्था होती है, विश्वास की शायद जरुरत ही नहीं होती है| आप भी जानते होंगें कि श्रद्धा एवं आस्था के लिए ‘तर्कसंगतता’ की जरुरत नहीं होती, परन्तु विश्वास ‘तर्क’ यानि ‘वैज्ञानिकता’ खोजता है| भारत में ‘राजभक्ति’ का आधार बहुत से लोगों के के लिए उस ‘राजव्यक्ति’ (Ruler) की ‘जाति’ के कारण होता है, अधिकतर के लिए उस ‘राजव्यक्ति’ का ‘धर्म’ होता है, और बहुत कम के लिए ‘राजव्यक्ति’ की शासन व्यवस्था की गुणवत्ता होता है|

किसी व्यक्ति की देशनिष्ठा/ देशभक्ति (Patriotism) उस देश के प्रति होती है, उस देश की जनता के प्रति होती है, उस देश की सम्पत्ति एवं सम्पदा के प्रति होती है, उस देश की सामासिक (Composite) संस्कृति के प्रति होती है, उस देश की अधिसंरचना एवं संरचना के प्रति होती है और ‘संभाव्य’ विकास के प्रति भी होती है| इसके लिए ‘तर्कसंगतता’ प्रमुख होती है, जबकि ‘राष्ट्रभक्ति’ में ‘भावना’ प्रमुख होता है| एक ‘देशभक्त’ अपने देश के सभी लोगों से प्यार करता हैं, जबकि एक ‘राष्ट्रभक्त’ अपने ही देश में “अपने लोगों’ की परिभाषा ही बदल देता है, क्योंकि राष्ट्र की अवधारणा में कुछ ऐसे ही तत्व होते हैं| एक ‘देशभक्त’ अपने देश में प्रतिक्रियावादी नही होता, जबकि एक ‘राष्ट्रभक्त’ अपने ही देश के किसी की संस्कृति, या भाषा, या परम्परा, या रिवाज, या पोशाक, या खानपान, या वेशभूषा, या आचार व्यवहार आदि के प्रति ‘प्रतिक्रियावादी’ हो सकता है या होता है|

राष्ट्रनिष्ठा/ राष्ट्रभक्ति (Nationalism) में ‘तर्कसंगतता’ के स्थान पर ‘भावनात्मकता’ प्रमुख होता है| वैसे भी ‘तर्क’ और ‘भावना’ में भावना ही तर्क पर हावी होता है, क्योंकि तर्क ‘बौद्धिकता’ से या ‘मस्तिष्क’ के निकट है और भावना उसके ‘दिल’ से निकलता है| राष्ट्रभक्ति में अपने लोगों से प्यार होता है, परन्तु दुसरे लोगों से घृणा भी होता है| अर्थात राष्ट्रभक्ति में अपने देश के “कुछ अपने लोगों” से प्यार होता है, लेकिन अपने ही देश के कुछ लोगों से घृणा भी होता है| यहाँ “अपने लोगों” की परिभाषा यानि अवधारणा अपने ही देश में अलग अलग भाषा/ संस्कृति/ धर्म या किसी अन्य के आधार पर अलग अलग हो सकता है और उसी ‘अपने’ और ‘पराये’ के अनुसार भयंकर प्रतिक्रिया के लिए भी तत्पर रहते हैं| 

इसे ही आधुनिक युग में कुछ आधुनिक विचारक तथाकथित ‘राष्ट्रभक्ति’ के नाम पर देश को ही खंडित करने की साजिश समझते हैं, तो कुछ मात्र देश को ही ‘नुकसान’ करने को मानने तक सीमित रहते हैं| वास्तव में उस विशिष्ट ‘राष्ट्र’ को तो फायदा हो सकता है, परन्तु उस देश को तो निश्चित ही नुकसान होता है| यहाँ उस ‘राष्ट्रभक्त’ के ‘राष्ट्र’ की परिभाषा का आधार को समझना होगा कि उसका ‘राष्ट्र’ उसके ‘धर्म’ पर आधारित है, या उसके ‘भाषा’ पर आधारित है, या और किसी अन्य आधार (जाति या अन्य) पर आधारित है यानि वही तक सीमित है।

‘राष्ट्र’ (Nation) एक ‘काल्पनिक वास्तविकता’ (Imaginary Reality) है, जो एक ‘राष्ट्र राज्य’ (Nation State) के रूप में ही मूर्त होता है| एक ‘देश’ (Country) एक भौगोलिक सीमाओं में एक क्षेत्र होता है, जिसकी आबादी अपने में ऐतिहासिक अपनापन (Historical Affinity) महसूस करता हैं| ‘राष्ट्र’ के ‘राष्ट्र- राज्य’ में नहीं आने तक यह ‘राष्ट्र’ एक महज कल्पनाओं का विचार होता है| इस तरह एक ‘राष्ट्र’ एक ‘परिप्रेक्ष्य’ (Perspective) है, एक ‘अनुभव’ (Experience) है, और एक ‘अनुभूति’ (Feeling) है| इस ‘राष्ट्र’ यानि ‘राष्ट्रवाद’ में सामूहिक विश्वास होता है, सामूहिक आकांक्षा होता है, और कल्पनाओं पर आधारित ‘उड़ान’ होता है| इसमें कुछ ख़ास मान्यता बनाई जाती है| किसी ने इसका उपयोग ‘समाजवाद’ को स्थापित करने के लिए किया, तो किसी ने पूंजीवाद को और मजबूत करने के लिए इस ‘राष्ट्रवाद’ को अपनाया| 

जोसेफ स्टालिन की परिभाषा के अनुसार एक राष्ट्र एक ‘ऐतिहासिक ऐक्य’ (Historical Oneness) की भावना है, जो एक लम्बे इतिहास में एक साथ रहने, भोगने और झेलने से आता है| अधिकतर यूरोपियन इसे धर्म, भाषा, या संस्कृति के आधार तक सीमित मानते हैं, जबकि इन परिभाषाओं को सर्व स्वीकार्य नहीं माना जाता| राष्ट्रवाद का इतिहास कोई तीन सौ साल भी पुराना नहीं है, परन्तु राष्ट्रवाद एक बेहद शक्तिशाली उपकरण (Tool) है, हथियार (Weapon) है, विचार (Thought) है, और मशीन (Machine) है| मशीन वह युक्ति (Device) होता है, जो बल (Force) एवं शक्ति (Power) की मात्रा (Quantity) एवं दिशा (Direction) ही बदल देता है|

विक्टर ह्यूगो ने एकबार विचारों की शक्ति को रेखांकित किया था| राष्ट्रवाद भी एक विचार है। एक विचार का जब ‘उपयुक्त समय’ आता है, तो वह विश्व की सबसे शक्तिशाली सैन्य शक्ति से भी शक्तिशाली हो जाता है, अर्थात  एक ‘उपयुक्त विचार’ विश्व की सबसे शक्तिशाली सैन्य शक्ति से भी शक्तिशाली हो जाता है| एक ‘राष्ट्र’ एक ‘भूराजनीतिक’ (Geo Political) अवधारणा हो सकता है, जबकि एक ‘देश’ एक ‘राजनीतिक भूगोल’ (Political Geography) की अवधारणा होती है|

राष्ट्रवाद के प्रतिपादक जॉन गॉटफ़्रेड हर्डर थे, जिन्होंने पहली बार इस शब्द का प्रयोग कर जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली| एक राष्ट्र कुछ संकेतों, प्रतीकों, विचारों, और आदर्शों के साथ व्यक्त होता है| यह एक विशाल अपरिचित आबादी को एक बंधन में बांधता है| यह एकता का  सबसे शानदार उपकरण है| जब राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा को जबरदस्ती लागू करवाया जाता है, तब यह ‘अतिराष्ट्रवाद’ या ‘अंधराष्ट्रवाद’ कहलाता है| राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा में अन्य के अलावा “तथाकथित धर्म” ही प्रमुख होता है, और यह “तथाकथित धर्म” राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा के कठोर आवरण में यही “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” ही “सही राष्ट्रवाद” हो जाता है| यहाँ यह ध्यान रहें कि किसी की ‘मूल संस्कृति’ से किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती है, परन्तु इस तथाकथित ‘मूल संस्कृति’ के आड़ में बौद्धिक षड्यंत्र कर साजिश कर दिए जाने में ही आपत्ति है| 

और यह ‘राष्ट्रवाद’ एक ऐसी ‘दवा’ है, जिसे 'सूंघने' मात्र से ‘अच्छे अच्छे बुद्धिमान’ भी ‘पालतू’ (Domestic) की तरह ‘हांक’ (Drive) लिए जाते हैं| इस तरह यह ‘अतिराष्ट्रवाद’ या ‘अंधराष्ट्रवाद’ की चरम अवस्था को पाता है| राष्ट्रवाद के धार्मिक संस्करण के दो उदाहरण ईरान का इस्लामिक राष्ट्रवाद और भारत का हिन्दू राष्ट्रवाद है| इसके प्राप्त होने पर उस देश में सांस्कृतिक विविधता भी खत्म होने लगता है या सांस्कृतिक विविधता को मिटा दिया जाता है|

राष्ट्र एक संस्था (Institute) है| यह सबसे ‘सम्मोहक’ (Compelling/ Killing) राजनीतिक सिद्धांत है, जो बिना कोई काम किये ही जनता को ‘मोह’ (Fascinate) लेती है| इसी लिए चतुर राजनेता और राजनीतिक दल इसका उपयोग करते हैं, हालाँकि इसके दुरूपयोग के भी बहुत उदाहरण उपलब्ध हैं| एक हथोड़े से किसी की हत्या भी किया जा सकता है, और उसी से निर्माण भी किया जा सकता है| इस ‘राष्ट्र की अवधारणा’ ने इतिहास के रूपांतरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है| इसने राज्यों के भूगोल को बदला है, शासन के इतिहास को बदला है, और शासन व्यवस्था को नियंत्रित भी किया है| राष्ट्रवाद के आधार पर बने कार्यक्रम, आयोजना एवं राजनीतिक परियोजना में उस राष्ट्र के सदस्यों से अपेक्षा की जाती है, कि वे अपनी विभिन्न अस्मिताओं के ऊपर राष्ट्र के प्रति निष्ठा को ही प्राथमिकता देंगे और तथाकथित राष्ट्रीय हितों के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देंगे, अपने प्राणों को भी कुर्बान कर देंगे|

यह ‘राजभक्ति’, ‘देशभक्ति’, और ‘राष्ट्रभक्ति’ को समझने के लिए संक्षेप में व्याख्यापित किया गया है|

निरंजन सिन्हा

www.niranjan2020.blogspot.com

शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

आज की राजनीति इतिहास के झरोखे में (Today’s Politics in Historical Perspective)

 वैसे मैं राजनीति पर नहीं लिखता हूँ, लेकिन पिछली बार “शासन का क्वांटम सिद्धांत” (Quantum Theory of Governance) लिखा था| आज मै राजनीति को इतिहास के झरोखों से समझना और समझाना चाहूंगा| इसे किसी भी काल एवं किसी भी क्षेत्र की राजनीति को समझने और समझाने में उपयोग किया जा सकता है, चाहे वह कोई प्रांतीय मामला हो, या कोई राष्ट्रीय मामला हो या कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर का सम्बन्ध या घटना हो| ऐसी घटना या सम्बन्ध किसी भी ऐतिहासिक काल की घटना हो सकती है या किसी भी वर्तमान काल की हाल की ही घटना हो सकती है| अत: राजनीति की क्रियाविधि (Methodology) को इतिहास के झरोखों से समझने की कोशिश करते हैं|

जब बात इतिहास की आती है, तो इतिहास को नियमित (Regulate), निर्धारित (Determine), नियंत्रित (Control) एवं प्रभावित (Affect) करने वाली शक्तियों को समझते हैं| ये शक्तियां अर्थव्यवस्था की होती है, और इसे उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange) एवं संचार (Communication) की शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों के आधार पर समझा जा सकता है| वैसे मैं किसी नियतिवाद (Determinism) की बात नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि राजनीति क्वांटम सिद्धांत की तरह अनिश्चितता (Uncertainty) एवं संभावना प्रदर्शित करती है, परन्तु यह सब इन आर्थिक शक्तियों से ही संचालित एवं प्रभावित होती रहती है| इतिहास के बौद्धिक काल के उदय में उत्पादन, सामन्ती काल के उदय में विनिमय, वैज्ञानिक काल के उदय में वितरण एवं वर्तमान काल के उदय में संचार की शक्तियां ही अपनी प्रमुख भूमिका में रही है| इन्हें क्रमश: प्राचीन काल, मध्य काल, आधुनिक काल एवं वर्तमान काल भी कहते हैं|

आज विश्व के अनेक क्षेत्रों में और अनेक संस्कृतियों में इतिहास का कोई एक ही काल स्थापित एवं संचालित नहीं है अर्थात अलग अलग क्षेत्रों में और अलग अलग संस्कृतियों में इतिहास की भिन्न भिन्न काल वर्तमान समय में ही एक साथ संचालित है| मतलब एक ही समय कहीं प्राचीन काल, कहीं मध्य काल, कहीं आधुनिक काल और कहीं वर्तमान काल मौजूद है, या इनके विभिन्न स्वरुप के विभिन्न मिश्रित स्वरुप भी मौजूद है|

हिटलर ने जाति/ प्रजाति की शुद्धता या श्रेष्टता को सही माना| और इसे स्थापित करने के लिए युद्ध का विगुल फूंका, पहले अपने देश के अन्दर और फिर देश के बाहर| दरअसल जीनीय शुद्धता की अवधारणा पर आधारित दृष्टिकोण ही अमानवीय एवं अवैज्ञानिक है| इसी हिटलर के साथ जीनीय शुद्धता की जाति/ प्रजाति की उसकी अवधारणा ही समाप्त ही गई, इस शुद्धता के सम्बन्ध में यूनेस्को (UNESCO) की घोषनाओं को देखा जा सकता है| लेकिन वर्त्तमान समय में यदि कोई शासक या व्यवस्था इस पर आधारित किसी व्यवस्था को अनन्त काल तक विस्तारित करना चाहता है, तो यह निश्चितया हिटलर की गति को पायेगा| तकनिकी की वर्त्तमान अवस्था रुपांतरण की गति को तीव्रतर करती जा रही है| इस रूपांतरण की क्रियाविधि (Methodology) समान तो होगी, पर गति तेज होगी यानि यह पहले की अपेक्षा कम समय में ही घटित हो जायगी| इसे ही इतिहास का दुहराना कहते हैं| अब आप वर्तमान की किसी अवस्था, प्रक्रिया और परिणाम का पूर्वानुमान भी कर सकते हैं|

चीन का उदाहरण भी समझने लायक है| माओ त्से तुंग ने ‘जनवादी चीन’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भविष्य में साम्यवाद स्थापित करना था| लोग साम्यवाद के लक्ष्य के आधार पर भविष्य में चीन की दुर्दशा का अनुमान कर रहे थे, परन्तु एक समझदार शासक का लक्ष्य, प्राथमिकता एवं क्रियाविधि भी क्वांटम सिद्धांत की तरह कब बदल जाएगा, उसके निकट के सहयोगी भी जान नहीं पाते हैं| आज चीन की कोई आलोचना कर भी रहा है, तो अपनी अज्ञानता में या अपनी खींसे मिटा रहा है| चीन आज विश्व का एक आर्थिक एवं सामरिक शक्ति बन गया है, लेकिन किसी बाजारू हथियार या मशीन खरीद कर नहीं, बल्कि स्वयं विकसित कर| यदि चीनी शासन किसी व्यक्ति या किसी छोटे समूह के पक्ष में ही रहता, या उसके नेतृत्व अपने जीवन के आनन्द तक ही सीमित रहता और सामान्य जन समूह के पक्ष में नहीं रहता, तो चीन को यह गौरवमयी अवस्था नहीं मिलता| अब आप वर्तमान में समझ सकते हैं कि कौन सी संस्कृति अभी किस अवस्था में है? इतिहास किसको गर्व से एवं किसको अपमान से याद करेगा, आप समझ सकते हैं| इतिहास कभी भी किसी व्यक्ति या छोटे समूह के हित के पक्ष में रहने वाले को आदर से नाम नहीं लिया है| सबकी भागीदारी में कोई भी घालमेल जल्दी ही खुल जाता है| यह भी राजनीति के आयाम और परिणाम को समझने की क्रियाविधि (Methodology) है, जरा स्थिर से समझा जाय|

राजनीति में कौन किसका मित्र है, कौन किसका शत्रु है, या कौन किसका उपकरण है, इसे साधारणतया समझना बहुत मुश्किल होता है| मगध साम्राज्य की ऐतिहासिक कहानी है, मगध को अजेय वैशाली पर विजय पाना था| मगध ने अपने एक सबसे समझदार एवं चतुर मंत्री को तैयार किया| तैयारी के अनुसार निश्चित भूमिका के साथ उस मंत्री महोदय को भारी अपमान के साथ देश निकाला दिया गया| मगध के अपमानित मंत्री को यानि मगध के राज्य दुश्मन को वैशाली में शरण मिलना था, कालांतर में मिल ही गया| आगे क्या हुआ, इतिहास गवाह है| वैशाली को मगध में मिल जाना पड़ा| यह वास्तविक कहानी भी राजनीति के घटना क्रम को समझने में सहायक है|

एक बार फिर हिटलर को याद किया जाय| जब समय खराब होता है, तो कुत्ता  बिल्ली भी शक्तिशाली शासक के विरुद्ध उसके ऊपर टूट पड़ता है| हिटलर ने पोलैंड को और फ़्रांस को रौंद दिया| अपनी बारी आती देख इनके समर्थन में ब्रिटेन भी आ गया| हिटलर ने रूस पर भी आक्रमण कर दिया| अब तटस्थ बैठा अमेरिका भी सहम गया| हिटलर जैसे शक्तिशाली शासक ने एक साथ कई फ्रंट खोल दिए, अर्थात उसने एक साथ सभी को अपना दुश्मन बना लिया| उसने यही सोचा कि विश्व में उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं रहे| उसकी यही अहम या यही भावना इसके सभी दुश्मनों एवं तटस्थों को एक घेरे में ठेल (Push) दिया| तब सभी को अपने अस्तित्व की चिंता हो गई| सभी प्रत्यक्षत: या चुपचाप एक हो गए| परिणाम यह हुआ कि हिटलर को आत्महत्या करना पड़ा, और बाकी इतिहास आप जानते ही हैं|

वैसे मैंने एक कुशल रणनीति (Strategy) की चर्चा “शासन के क्वांटम सिद्धांत” में किया है, जो www.niranjansinha.com पर भी उपलब्ध है| चूँकि राजनीति सभी की जीवन को निर्धारित करने का महत्वपूर्ण उपकरण है, इसलिए विश्व की सभी आगे बढ़ते देशों की क्रियाविधि (Methodology) को वैज्ञानिकता (Scientism), आधुनिकता (Modernism) एवं संस्कृति के रूपांतरण (Transformation) के सन्दर्भ में समझना होगा| सभी जनों को समाहित (Integrate) कर और सभी की सहभागिता (Participation) सुनिश्चित कर ही कोई अपने समाज और देश को आगे ले जा सकता है; बाकी सब दिवास्वप्न (Daydream) है|

निरंजन सिन्हा 

भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक सम...