शनिवार, 28 जनवरी 2023

ये कैसे बुद्धिजीवी हैं?

आजकल शूद्र और मूल निवासी आदि शब्दों का समाज में प्रचलन काफी बढ़ गया है। मुझे समाज में कुछ ख़ास एवं विशिष्ट बुद्धिजीवियों से भेंट हुई है, तो कुछ तथाकथित क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों से भी पाला पड़ा है| इनकी बातों को सुनकर मैं हैरत में पड़ गया, क्योंकि ये जो बोल और कर रहे हैं, वह उनके जीवन लक्ष्य के ही विरुद्ध जा रहा है| मतलब वे जिस लक्ष्य के लिए समर्पित हैं, उसी के विरुद्ध लगे हुए हैं और चीखते – चिल्लाते भिड़े हुए भी हैं| उन्हें इसकी समझ ही नहीं है, कि वे कैसे अपने ही विरुद्ध कार्यरत हैं? इसे गंभीरता एवं स्पष्टता से समझने के लिए कुछ वैज्ञानिक उपकरणों (Tools, not Instruments) एवं अवधारणाओं (Concepts) की चर्चा बाद में किया जाएगा, पहले कुछ उदाहरण को देख लिया जाय|

मेरे एक मित्र हैं, - तथाकथित एक राष्ट्रीय संगठन के प्रांतीय अध्यक्ष| अपने को बताते हैं कि वे ईश्वर और उनसे सम्बन्धित कथाओं में विश्वास नहीं करते| यानि एक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी हैं| मैंने उन्हें ‘रंगों के उत्सव’ ‘होली’ के अवसर पर शुभकामना सन्देश भेजा| उन्होंने तुरंत एक प्रतिउत्तर भेजा – “मैं एक महिला (होलिका) के दहन के वर्षगाँठ पर आपकी शुभकामना सन्देश को स्वीकार नहीं कर सकता|” मैं उनकी वैज्ञानिकता एवं तार्किकता को देख कर थोडा आश्चर्य में पड़ गया| मैंने उन्हें तत्काल लिखा- “मतलब आप होली उत्सव से जुड़े ‘होलिका’ की ऐतिहासिकता और उसकी दहन की कहानी की सत्यता को स्वीकार करते हैं, अर्थात आप उससे जुड़ी ‘नरसिंहावतार’ की घटना को भी ऐतिहासिक एवं सत्य मानते होंगें, अर्थात आप भगवान विष्णु एवं उनके अवतार को भी ऐतिहासिक एवं सत्य मानते हैं, तो फिर किस आधार पर ईश्वर का विरोध करते हैं और क्यों?” ध्यान रहे कि वे अपने को एक क्रान्तिकारी माने जाने वाले योद्धा के रूप में जताते रहते हैं, जो ईश्वर के किसी अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता| तब उन्होंने उत्तर दिया कि वे इस तरह से नहीं सोचे थे| एक और उदहारण देखें|

आजकल समाज में कुछ समूहों द्वारा “मूल निवासी” शब्द का प्रयोग बड़े गर्व के साथ किया जाता हैं, मानों यह एक क्रान्तिकारी और एक वैज्ञानिक अवधारणा है, जिसे उन्होंने अभी हाल ही में जाना है| इस कारण वे अपने को एक क्रान्तिकारी और पहुंचे हुए बुद्धिजीवी मानते हैं| उन्हें यह पता ही नहीं है कि यह शब्द और अवधारणा उन्हीं के विरुद्ध प्रयुक्त है, जिसका वे बड़े जोर -शोर से समर्थन कर रहे हैं| ‘मूल निवासी’ का अर्थ है – ऐसा मानव समूह जिसकी जीनीय शुद्धता शुरू से अभी तक यथावत बनी हुई है| ‘मूल निवासी’ की सापेक्षता (Relativity) के अनुसार “आर्यों की कहानी” भी उसी तरह सही, शुद्ध और ऐतिहासिक है, जिसके अनुसार वे भारत में सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत किये, और जो आज भी सनातन है| इस कहानी के अनुसार तथाकथित ‘आर्य’ आक्रमणकारी ही शासक एवं शासक वर्ग हुए, जिनकी जीनीय शुद्धता आज भी यथावत है| इस कथा के समर्थन का अर्थ है, कि यह सब कहानी सत्य और ऐतिहासिक है| मतलब कि तथाकथित आर्यों की जीनीय शुद्धता शासन करने के लिए और मूल निवासियों की जीनीय शुद्धता शासित होने के लिए अभी भी वैसे ही यथावत है| अब यह अर्थ यदि उन बुद्धिजीवियों को बताए/ दिखाए जाते हैं, तो उन्हें ख़राब लग जाता है| लेकिन उसका यही सही और एकमात्र अर्थ है| यही तो स्थापित करना किसी (उनके विरोधियों) का मुख्य एजेंडा भी है, जिसको भारत के एक राज्य में धीरे धीरे लागू भी किये जाने की चर्चा है| इस तथाकथित उपक्रम में, जैसे नाई को ऐतिहासिक मूलनिवासी मानते हुए समाज एवं राष्ट्र हित में उसकी ऐतिहासिक कौशल की जीनीय शुद्धता के विकास के लिए सरकारी बोर्ड/ निगम बनाये जा रहे हैं| इसी प्रकार फिर अन्त में शासन करने वालों की जीनीय शुद्धता के नाम पर उन्हें शासन करने के लिए उपयुक्त माना जायगा| तब ‘मूल निवासी’ आन्दोलन चलने वालों को इस आन्दोलन का वह परिणाम प्राप्त होगा, जो परिणाम वे नहीं चाहते हैं| तो यह है उनके बुद्धि का हाल|

इसी तरह ‘शूद्र’ शब्द का भी आजकल ‘चटक बौद्धिकता’ में बहुत उपयोग किया जाने लगा है| शूद्र एक वर्ग था, जो वर्ण व्यवस्था का निम्नतर (छोटी) भूमिका एवं नगण्य (क्षुद्र) संख्या के कारण एक निम्नतर स्तर का वर्ग रहा| ये सामन्ती शासन व्यवस्था में सामंतों के व्यक्तिगत सेवक थे, जो ब्रिटिश काल में अपनी पहचान खो दिए यानि विलुप्त हो गये| भारत की शेष वृहत आबादी, जो वस्तुओं के उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता रहे, पर सामन्तों की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था टिकी हुई थी| और इसी कारण ये समस्त वृहत आबादी वर्ण व्यवस्था से बाहर थी| अर्थात शासकों का वर्ण व्यवस्था था और शासितों का जाति व्यवस्था| इस तरह इस जाति व्यवस्था का वर्ण व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं था| अर्थात दोनों कभी नहीं मिलने वाली एक समानान्तर संगठित व्यवस्था थी| यह तो आधुनिक लोकतंत्र के चुनावी अंकगणित का खेल है, जिसमें ये तथाकथित ‘चटक बुद्धिजीवी’ पूरे समाज को उलझाए हुए हैं और खुद उसी में उलझे हुए हैं| कोई देश या समाज या संस्कृति अपने लोगों की उत्पादकता में संवृद्धि करने हेतु उनके मनोबल को बढाने में लगा हुआ रहता है, तो इसके विपरीत भारत में लोगों का मनोबल तोड़ने के लिए क्षुद्रीकरण यानि निम्नीकरण का अभियान चलाने में ये ‘चटक बुद्धिजीवी’ लगे हुए हैं| ध्यान रहे कि ‘हिन्दू’ शब्द का धर्म के सन्दर्भ में उपयोग का इतिहास दो शताब्दी से भी कम पुराना है| तो आइए, समझते हैं कि वास्तविक ‘बुद्धिजीवी’ कौन हैं?

बुद्धिजीवी वे होते हैं, जिनकी जीविका का मुख्य आधार बुद्धि का प्रयोग यानि उपयोग होता है, यानि जो बौद्धिक श्रम करते हैं| इस प्रकार का श्रम करने वालों को आप अर्थव्यवस्था के चौथे प्रक्षेत्र (Quaternary Sector) एवं पांचवे प्रक्षेत्र (Quinary Sector) में रख सकते हैं| आजकल के चटक श्रेणी के बुद्धिजीवियों की एक खास विशिष्टता यह होती है कि ये अन्य बुद्धिजीवियों को ‘परजीवी’ (Parasite) समझते हैं| ये शारीरिक श्रम को सम्मानीय मेहनत और बौद्धिक श्रम को परजीविता का पर्याय समझते हैं| इन्हें इसका ध्यान ही नहीं रहता कि ‘बौद्धिक श्रम’ तो ‘शारीरिक श्रम’ से भी कठिन होता है, और इसीलिए इस तरह के श्रम करने वालों की संख्या अति अल्प होती है| इसी प्रकार इन चटक श्रेणी के बुद्धिजीवियों को यह भी नहीं पता होता कि मानसिक श्रम शारीरिक श्रम की अपेक्षा कई गुण श्रेष्ट होता है| इसी कारण ‘बौद्धिक श्रम’ वाले ‘शारीरिक श्रम’ वालों पर सदैव शासन करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे, भले ही उनकी संख्या अति अल्प हो, और शासन प्रणाली लोकतान्त्रिक हो|

तो ‘बुद्धि’ क्या है? अपने ज्ञान एवं अनुभव का समझदारी के साथ प्रयोग या उपयोग करना ही ‘बुद्धि’ है| तो समझदारी क्या है? विवेक (Rationality) के साथ वैज्ञानिकता (कार्य- कारण सम्बन्ध) का प्रयोग करना ही समझदारी है| इसीलिए भारत में ‘बुद्धि’ के ‘विशिष्ट उच्चस्थ ज्ञाता’ को “बुद्ध” कहा जाता रहा| बुद्धों की इसी परम्परा में गोतम यानि गौतम बुद्ध 28वें बुद्ध हुए| बौद्धिक काल यानि प्राचीन काल में बुद्धि के “विशिष्ट स्थापित जानकार” को “बाह्मण” (ध्यान रहे कि उस काल में ब्राह्मण का उदय नहीं हुआ था), या ‘बमण’, या ‘बाभन’ कहा जाता रहा| ये सभी शब्द ‘बुद्धि’ के उपाधि थे, जो अर्जित योग्यता के आधार पर मिलते थे| ये शब्द उस समय पालि के थे, जो समय के साथ बाद में सामन्तकाल में संस्कारित होते हुए संस्कृत की शब्दावली में बदल गये| पालि भाषा का चरम संस्कार यानि सुसज्जिकरण यानि अलंकरण मध्य काल में हुआ और यह पालि भाषा ही बदल कर संस्कृत भाषा हो गई| यह समय मध्यकाल का था, जब सामन्तवाद पूर्णतया स्थापित हो चुका था| सामन्तवाद में यह पद अन्य समस्त पदों की तरह ही ‘अर्जित योग्यता’ के बदले ‘जन्म के वंश के आधार’ पर निर्धारित किये जाने लगे और योग्यता का पद ‘बाह्मण’, तब वंश के आधार पर ‘ब्राह्मण’ में बदल गया| स्पष्ट है कि बौद्धिक काल यानि प्राचीन काल में जन्म आधारित ब्राह्मण वर्ग था ही नहीं| ‘बुद्धू’ शब्द भी इसी बुद्धि यानि बुद्ध से चिढ़े हुए लोगों ने दिया| तय है कि यह शब्द भी मध्य काल में ही आया|  इसके बाद हमें यह समझना चाहिए कि किसी भी चीज की वैज्ञानिकता को समझने का क्या आधार होना चाहिए?

किसी भी चीज की वैज्ञानिकता को समझने के लिए हमें चार्ल्स डार्विन का विकासवाद (Evolutionism), सिगमंड फ्रायड का आत्मवाद (Selfism) यानि चेतनावाद (Consciousnessism), कार्ल मार्क्स का आर्थिकवाद (Economicism), अल्बर्ट आईन्स्टीन का सापेक्षवाद (Relativitism) एवं फर्डीनांड डी सौसुरे का संरचनावाद (Structuralism) समझना चाहिए| यदि कोई इन सभी को समझता है, तो वह किसी भी चीज का आलोचनात्मक विश्लेषण कर सकता है और इसीलिए वह उसे सम्यक ढंग से यानि पूरी वैज्ञानिकता से समझ भी सकता है| आइए, इसे अभी संक्षेप में ही समझें|

चार्ल्स डार्विन का विकासवाद समझाता है, कि सभी चीजों का क्रमिक विकास सरलतम अवस्था एवं संरचना से जटिलतम अवस्था एवं संरचना में होता है, जिसे उद्विकास (Evolution) भी कहा जाता है| यदि कोई आपको यह समझा रहा है कि किसी भी संरचना या चीज का उद्विकास जटिलतम अवस्था में  सरलतम अवस्था की ओर होता है, तो समझ लीजिए कि यह एक बौद्धिक षड़यंत्र है| ऐसी स्थिति में सावधान रहना होगा| संस्कृत भाषा के उद्विकास क्रम में यह समझाया जाता है कि ‘पहले संस्कृत भाषा जटिलतम अवस्था में अवतरित हुई, क्योंकि यह दैवीय शक्ति से उत्पन्न थी| फिर संस्कृत जटिलतम से सरल होकर प्राकृत एवं पालि भाषा बनी| इस प्रकार यह विश्व में स्थापित विकासवाद के विपरीत स्थापना है, और हमें ऐसी कपोल कल्पित एवं षड़यंत्रयुक्त कथाओं की मान्यताओं से सावधान हो जाना चाहिए|

सिगमंड फ्रायड का आत्मवाद यानि चेतनावाद समझाता है कि किसी का आत्म (Self, आत्मा नहीं) यानि चेतना (Consciousness) उसकी इड (Id), ईगो (Ego) और सुपर इगो (Super Ego) से क्रिया एवं प्रतिक्रिया कर अपना ज्ञान, अनुभव एवं व्यवहार निश्चित करता है| हम जानते हैं कि किसी का आत्म यानि चेतन का विकास उसके ज्ञान, अनुभव एवं समय के साथ - साथ होता है, अर्थात उसकी आवश्यकताओं की समझ के अनुरूप होता है| समय परिवर्तनशील है, और इसी के अनुरूप स्थितियाँ भी बदलती रहती है| कोई भी किसी अवस्था एवं स्थिति को अपनी चेतना यानि अपनी आवश्यकताओं की समझ के अनुसार समझता है, और इसीलिए कोई इतिहासकार या राजनेता या कार्यकर्ता आदि यदि कोई चीज कह रहा है, या कर रहा है, तो वह उसकी चेतन की आवश्यकता से निर्देशित एवं नियंत्रित होगा| इसलिए सदर्भ के व्यक्तियों की चेतन अवस्था को समझा जाना चाहिए|

कार्ल मार्क्स का आर्थिकवाद यह समझाता है कि हमारी मानसिक और आध्यात्मिक अवस्था भी हमारी भौतिक अवस्था यानि शारीरिक संरचना में ही निवास करती है और उसी शरीर से ही सभी कुछ क्रियान्वित एवं संचालित होता है| और इसीलिए किसी भी मानव या मानव समूह का समस्त अस्तित्व उसकी भौतिकता से ही संचालित एवं नियंत्रित होता है, जो उसकी आर्थिक शक्तियों से निर्देशित एवं नियंत्रित होता है| आर्थिक शक्तियों से तात्पर्य है – उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियाँ एवं साधन और उनके आपसी अंतर्संबंध| अत: किसी भी ऐतिहासिक अवस्था, घटना या प्रक्रिया को वैज्ञानिक ढंग से समझने का आधार यही उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियों एवं साधनों और उनके आपसी अंतर्संबंध होते हैं| यही इतिहास को सम्यक ढंग से समझाता है| इसे बड़े ध्यान से समझे एवं मनन मंथन करें|

अल्बर्ट आईन्स्टीन का सापेक्षवाद यह समझाता है कि कोई भी चीज निरपेक्ष (Absolute) नहीं है, अर्थात कोई भी चीज वस्तुनिष्ठ (Objective) नहीं है, अपितु हर चीज किसी के सापेक्ष (Relative) ही है| आपको किसी भी बात या स्थिति को समझने के लिए किसी भी बात या स्थिति का सन्दर्भ बिंदु (Point of Reference) तलाशना होगा| यदि कोई समाज शक्ति में यानि सता (Power) में आपसे ज्यादा समर्थवान एवं बुद्धिमान है, और वह किसी बात या प्रसंग को समाज में छोड़ (Circulate) रहा है या समर्थन कर रहा है या विरोध होने दे रहा है, तो निश्चितया इसे बड़े ही विवेकपूर्ण और सुविचारित तरीके से आयोजित किया गया होगा| ऊपर जो दो या तीन प्रसंग या उदाहरण  दिए गए हैं, वह अपने सापेक्ष क्या समझाना चाह रहे हैं, समझ गए होंगे| यदि आप किसी भी बात या स्थिति का सन्दर्भ नहीं तलाश पा रहे हैं, तो उसे तलाशना शुरू कीजिए| और यह एक प्रकार का बौद्धिक श्रम है|

फर्डीनांड डी सौसुरे का संरचनावाद यह समझाता है कि किसी के अभिव्यक्ति के हर शब्द एवं वाक्य का एक निश्चित संरचना (Structure) होता है| अर्थात अभिव्यक्ति का हर शब्द या वाक्य एक आइसबर्ग (Iceberg) का उपरी दिखता टिप (Tip) है, और बाकी आइसबर्ग का संरचना तो पानी में डूबे हुए होने के कारण अदृश्य रहता है| शब्द एवं वाक्य के इसी संरचना के कारण कोई इन शब्दों या वाक्यों का निहित (Implied) अर्थ समझ लेता है, तो कोई इसी संरचनावाद के कारण शब्दों या वाक्यों के बीच के विलुप्त शब्द या वाक्य को पढ़ लेता है, जिसे ‘Between the Lines’ पढ़ना भी कहा जाता हैं| आपको यह सब समझना होगा, अन्यथा आपको अपनी बौद्धिकता पर विचार करना चाहिए| मैंने ऊपर ‘मूल निवासी’ शब्द का संरचनात्मक भावार्थ समझाया है, वैसे ही यह और कई अन्य भावार्थो के सन्दर्भ में भी सही है|

अत: किसी को अपने ‘अंकपत्र’ (Marksheet) यानि उसके शैक्षणिक प्रमाणपत्र (Certificate) से या उसके द्वारा अधिग्रहित पद (Hold Post) से अपनी बुद्धि का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं जोड लेना चाहिए| यह तो अनुभव एवं सजग ज्ञान से किसी को भी उपलब्ध हो जाता है| इसीलिए किसी भी विकसित देश के संविधान में किन्ही भी सर्वोच्च सार्वजनिक पदों या मुख्य पदों के लिए परीक्षा आयोजित नहीं की जाती या कोई उपाधि या योग्यता सम्बन्धी प्रमाण पत्र की बाध्यता नहीं होती है| हाँ, उच्चस्थ एवं निम्नतम सेवकों के लिए परीक्षा या कोई उपाधि या योग्यता सम्बन्धी प्रमाण पत्र की बाध्यता होती है| कोई भी परीक्षा या कोई उपाधि या योग्यता सम्बन्धी प्रमाण पत्र की बाध्यता को बुद्धि का प्रमाण नहीं समझना चाहिए|

इसीलिए किसी को भी बुद्धि पाने के लिए “आलोचनात्मक चिन्तक” (Critical Thinkar) बनना ही होगा, अन्यथा कोई भी अपने सम्बन्ध में कोई भी भ्रम पालने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है| तो आलोचनात्मक चिंतन क्या होता है? किसी भी विषय का “A, E, I, O, U” (सभी Vowels) के अनुसार समझ विकसित करें| यह क्रमश: विश्लेषण (Analyse), मूल्याङ्कन (Evaluate), व्याख्या (Interpret), संगठित करना (Organise) और एक सूत्र में पिरोना (Unify) हुआ| किसी भी विषय का उसके घटक तत्वों (Components) में विश्लेषण (Analyse) करें| तब उपरोक्त पाँचों (चार्ल्स डार्विन का विकासवाद, सिगमंड फ्रायड का आत्मवाद यानि चेतनावाद, कार्ल मार्क्स का आर्थिकवाद, आइन्स्टीन का सापेक्षवाद  एवं फर्डीनांड डी सौसुरे का संरचनावाद, जो भी समुचित हो) के आधार पर किये गये विश्लेषण का मूल्याङ्कन (Evaluate) करें| तब सभी की व्याख्या (Interpret) दिए गए सन्दर्भ या परिस्थिति के अनुरूप करें| उसके बाद सभी को प्रश्नगत सन्दर्भ के अनुसार या प्रश्नगत पृष्ठभूमि के अनुरूप संगठित (Organise) कर एक विशिष्ट संरचना तैयार करें| अन्त में, सभी को एक सूत्र में पिरोकर (Unify) अपने उपयोग यानि अपने प्रयोजन के हित में समेकित करना ही किसी की बुद्धि है| मैं समझता हूँ कि कोई भी उपर्युक्त सभी आधारों पर किसी भी चीज यानि विषय को सम्यक और उपयुक्त तरीके से पूरी तरह से समझ सकता है| यही बुद्धि का उपागम (Approach) है|

मैं आप सबों से इस ब्लॉग पर ‘उपलब्ध टिप्पणी बाक्स’ में आपके सुझाव आमंत्रित करता हूँ, ताकि मैं उसका ध्यान रख सकूँ|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

बुधवार, 25 जनवरी 2023

भारतीय भारत क्यों छोड़ रहे?

यह एक कटु सत्य है कि भारतीय भारत छोड़ रहे है, परन्तु क्यों? क्या पहले नहीं छोड़ रहे थे? पहले भी छोड़ रहे थे, और आज भी छोड़ रहे हैं, छोड़ने की दर भले ही भिन्न भिन्न रही हों| मैं किसी काल विशेष पर दोषारोपण नहीं कर रहा, परन्तु स्थिति की भयावहता को रेखांकित करना जरुरी है| वर्तमान आंकड़ों के अनुसार प्रति दिन की दर से कोई 500 भारतीय दूसरे देशों की नागरिकता ले रहे हैं, यह आंकड़ा शायद भारत सरकार का ही है| वर्तमान में बताया जाता है कि ये "विदेशी भारतीय" कोई 8 लाख करोड़ रूपये से भी ज्यादा की धन राशि प्रत्येक वर्ष भारत भेज रहे हैं, जो भारतीय सकल घरेलू उत्पाद  (GDP) का तीन प्रतिशत होता है| वर्तमान में पुर्तगाल (एंटोनियो कोस्टा), आयरलैंड (लिओ वराडकर) और ब्रिटेन (ऋषि सुनक) के शासनाप्रमुख भी भारतीय मूल के हैं| कोई तीन करोड़ से भी ज्यादा (3.21 करोड़) भारतीय अन्य देशों में रह रहे हैं| कई प्रमुख वैश्विक कंपनियों के प्रमुख भी भारतीय ही हैं| ऐसे गुणवान लोग यदि भारत भूमि पर ही रहते, तो भारत को कई गुना और अधिक देते, जिसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता|  मतलब किसी भी एक देश के लोग, जो दुसरे देशों में जाकर बस गए हैं, - के मामले में भारत पहले नम्बर पर है| क्या ये सब भारत की नियोजन नीति के अंतर्गत शासकीय प्रयास से गए हैं?

क्या ये सब तथ्य भारतीय गौरव की बात है? या भारतीय दुर्भाग्य की बात है? क्यों?

ऐसे लोगों कोप्रवासी भारतीय’ (Indian Diaspora) कहते हैं, जिनकी जड़ें तो भारत में है, लेकिन ये अब भारतीय नागरिक नहीं हैं| इन्हें भारत एवं भारतीय संस्कृति से जोड़ने हेतु हर वर्ष 09 जनवरी को “प्रवासी भारतीय दिवस” मनाया जाता है, जिसका 17 वां आयोजन इसी वर्ष 2023 में इंदौर में किया गया| इन्हें अब “विदेशी भारतीय” (Overseas Indian) कहते हैं, जिनमे ‘अप्रवासी भारतीय’ (NRI – Non Resident Indian) और ‘भारतवंशी’ (PIO – Persons of Indian Origin) शामिल कर लिए गये हैं| ‘अप्रवासी भारतीय’ उन्हें कहते हैं, जो विदेशी भूमि पर 183 दिन या उससे अधिक दिन रहता है, और ‘भारतवंशी’ वह है, जिसके कोई पूर्वज भारतीय रहे हों|

इन घटनाओं एवं स्थितियों को कई व्यक्तियों, समूहों एवं तंत्रों द्वारा गौरान्वित किया जाता है, परन्तु इसे दुसरे नजरिये से देखने एवं विश्लेषण करने और समझने की भी जरुरत है| जब यह स्थिति गौरान्वित करने वाली है, तो हम क्यों ‘अप्रवासी भारतीयों’ को यह समझाने में लगे हैं कि उनकी अपने पूर्वजों के देश या अपने मूल देश के प्रति कुछ जिम्मेवारी बनती है, और उन्हें यह जिम्मेवारी निभानी चाहिए?  यह भावना पैदा किया जाना या यह अहसास दिलाया जाना गलत नहीं है, परन्तु ये स्थितियाँ क्यों आई? क्या भारत में ‘विदेशी अमेरिकी’, ‘विदेशी चीनी’, विदेशी जापानी’, ‘विदेशी ब्रिटिश’, ‘विदेशी जर्मन,’ या ‘विदेशी फ्रेंच’ रहते हैं? ये भारत भूमि पर नहीं रहते, क्योंकि उनका यहाँ रहना उनके लिए शर्म की बात है, तो यह हमारा राष्ट्रीय गौरव कैसे हो सकता है? ये अमेरिकी, चीनी, जापानी, ब्रिटिश या फ्रेंच आदि लोग अपने उपभोग से बचे राशि को अपने देश के सहायतार्थ भेजने में विश्वास नहीं करते हैं, अपितु अपने ही देश में रह कर उस भूमि के समुचित एवं सम्यक विकास को समर्पित हैं| जो भी अपनी जन्म भूमि को सदा के लिए छोड़ता है, तो एक भारी कसक के साथ बड़े बेमन से विकल्पहीनता की स्थिति में छोड़ता है| तो क्या भारतियों के साथ भी ऐसा ही है? भारतीय नागरिकों का भारत से बड़ी संख्या में बाहर जाना कोई प्रेम प्रसंग का मामला नहीं है, इसके कई निहितार्थ हैं, जिसे समझा जाना अनिवार्य है|

यह तो स्पष्ट है कि इनमे अधिकतर को विदेशी भूमि में इसलिए स्वीकार किया गया है, क्योंकि इनके पास विशिष्ट ज्ञान एवं/ या विशिष्ट कौशल की योग्यता या विशिष्ट धन रहा है| यानि ऐसी विशिष्टता से भारत को सिर्फ इसलिए वंचित होना पड़ रहा है, क्योंकि ऐसे लोगो को "समुचित अवसर" प्रदान करने के लिए भारत के पास कोई ठोस सोच और योजना नहीं है| यदि भारत के पास इनके लिए कोई सोच और योजना है भी, तो उन्हें भारत के नीति निर्माताओं / निर्धारकों की “मंशा” एवं “न्यायिक चरित्र” पर विश्वास नहीं है| कही भी “समुचित अवसर” क्या है? समुचित अवसर वही होगा, जहाँ “आधुनिकता” होगी यानि आधुनिकता के सभी तत्व एवं परिस्थितियाँ होगी| तो आधुनिकता क्या है? आइए, इसे विस्तार से समझते हैं?

कोई भी सामर्थ्यवान वहीं रहना चाहता है, जहाँ आधुनिकता होती है| “आधुनिकता” के तीन ही आधार स्तम्भ हैं – ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’, ‘फ़्रांसीसी क्रान्ति’ एवं ‘औद्योगिक क्रान्ति’ का प्रभाव एवं वास्तविक कार्यान्वयन|वैज्ञानिक क्रान्ति’ वैज्ञानिक सोच पर आधारित मानसिकता से होती है| तर्कपूर्ण, विवेकपूर्ण एवं आलोचनात्मक ढंग से सोचना एवं समझना और उसके अनुरूप व्यवहार करना ही वैज्ञानिकता है| वैज्ञानिक मानसिकता से तात्पर्य हर कार्य के पीछे कोई तार्किक आधार का होना, मानना है| इसे पश्चिम में जहाँ फ्रांसिस बेकन ने सत्रहवीं सदी में समाज को समझाया, उसे भारत में भारतीय बुद्धों ने ढाई हजार साल पहले ही समझा दिया था| वैज्ञानिक मानसिकता वैसे स्थान एवं समय में नहीं पनप सकती और नहीं रह सकती है, जहाँ “आस्था” ही सम्पूर्ण मानसिकता पर हावी या प्रभावी है| ऐसे स्थानों एवं कालों में जब कोई वैज्ञानिकता की बात करता है, अधिकतर “छुईमुई” प्रवृति के लोगों की आस्था पर आघात पहुँच जाता है| अर्थात आस्था का वर्चस्व वैज्ञानिकता को जीवित ही नहीं रहने देता| जहाँ भी एवं जिस भी संस्कृति में किसी की वैज्ञानिकता को दूसरों की “आस्था” पर आघात समझा जाता है, वहाँ वैसी संस्कृति में कुछ लोगों को समाज एवं व्यवस्था से ‘आस्था’ के नाम पर गुंडई करने की स्वीकृति मिल जाती है| ऐसी परिस्थिति में कोई भी सामर्थ्यवान व्यक्ति विकल्प के अनुसार निर्णय कर ही लेता है|

‘फ़्रांसीसी क्रान्ति’ ने समाज को क्या दिया? इसने व्यक्ति एवं राज्य की संप्रभुता (Sovereignty) को गहराई से रेखांकित किया| यानि किसी भी राज्य की यानि सत्ता की यानि शक्ति की संप्रभुता वहाँ के लोगों में निहित है, को प्रमुखता से उठाया| यानि शक्ति का स्रोत उस राज्य का लोग है, यानि उसका हर मानव है| तब सब को समानता मिलेगी, स्वतन्त्रता मिलेगी और उनमे बंधुता की भावना होगी| तब राज्य को पंथनिरपेक्ष होना ही होगा| राज्य सबको प्रतिष्ठा और अवसर की समानता उपलब्ध कराएगा, सबको विचार, अभिव्यक्ति, कार्य और धर्म की स्वतंत्रता होगी, और समाज में बंधुत्व मध्यकालीन बाध्यतापूर्ण न होकर गरिमामयी होगा| इसी से सभी के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय सुनिश्चित किया जा सकेगा| इस तरह समाज के महत्वपूर्ण होते हुए भी पहली बार एक मानव को भी प्रमुख माना गया, जो कि समाज का आधारभूत घटक होता है| ऐसे राज्य में व्यक्ति की निजता को सम्मान दिया जाने लगा| भारतीय संविधान के अनुसार भारत की संप्रभुता भारत के लोगों में निहित है, जो संविधान की उद्देशिका (Preamble) में स्पष्ट है| इस क्रान्ति ने जन्माधारित विशेषाधिकारों की वैधता पर प्रश्न उठाया, और उसे खंडित कर दिया| पर जिन देशों एवं संस्कृतियों में जन्माधारित विशेषाधिकारों की वैधता बनाए रखने के लिए सनातन एवं पुरातन संस्कृति की दुहाई दिया जाता है, वैसे देशों एवं संस्कृतियों में “ज्ञान एवं कौशल” कुंठित होने लगता है| जिस देश में समाज एवं आस्था के नाम पर ‘लोग’ यानि ‘मानव’ यानि ‘व्यक्ति’ की गरिमा ही सुनिश्चित नहीं रहेगी, और उसे समुचित न्याय पा लेने का व्यवस्था से वास्तविक भरोसा नहीं मिलेगा,  तब सामर्थ्यवान व्यक्ति अपने उपलब्ध विकल्प के अनुसार देश छोड़ने का निर्णय ले ही लेगा|

‘ओद्योगिक क्रान्ति’ ने उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं प्रक्रियाओं को ही नहीं बदला, अपितु लोगो को कई प्रकार की मानवीय सुविधाएँ भी उपलब्ध करायी| स्वभावत: सामर्थ्यवान लोग उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं प्रक्रियाओं पर अधिकार स्थापित किए जाने एवं मानवीय सुविधाएँ पाने की संभावना तलाशते है, और उसको पा लेने के विश्वास के अनुसार ही विकल्प पर विचार करता है|  

तो क्या आधुनिकता पाने की असली संभावना ही देश त्यागने का विकल्पता तय करती है? हालाँकि हर समझदार व्यक्ति आधुनिकता की ऐसी ही स्थिति पाना चाहता है, परन्तु वह अपनी योग्यता में, अपने कौशल में एवं अपनी सम्पदा या सम्पत्ति में इतना विशिष्ट नहीं होता है, कि वह अपना देशीय स्थान बदल सके| आज भारत वैसे देशों से तुलना करने में गर्व महसूस करता है, जिनकी सम्पूर्ण आबादी भी भारत की आबादी की कुल तीन  - चार प्रतिशत भी नहीं है| मतलब भारत की कुल आबादी का दो या तीन प्रतिशत आबादी भी वैसे देशों की सम्पूर्ण एवं समेकित आबादी की गुणवत्ता (Quality) का नहीं है| भारत अपनी प्राचीनता की गौरव गाथा के नाम पर कुछ भी आधुनिकता लाने पर गंभीरतापूर्वक विचार करता हुआ नजर नहीं आ रहा है|

 यदि आधुनिकता लाने पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाता,

तो भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप 

वैज्ञानिक मानसिकता पर जोर दिया जाता और आस्था पर प्रहार किया जाता दिखता,

व्यक्ति की निजता, स्वतन्त्रता एवं गरिमा की सुरक्षा में शासन एवं समाज तत्पर रहता और

शासन एवं समाज का ‘न्यायिक चरित्र’ स्पष्ट सन्देश देता हुआ रहता|


भारत के सजग एवं विचारवान लोगों से अनुरोध है, कि

भारत को बदतर होने से बचाने के लिए

एक गंभीर विमर्श शुरू करें एवं 

उससे निर्गत निष्कर्षों का देश के दूरगामी हित में क्रियान्वयन भी सुनिश्चित करें|

आचार्य निरंजन सिन्हा

 

सोमवार, 23 जनवरी 2023

भारतीय समाज को समझिए

मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता हूँ कि भारतीय विद्वान भारत की सामाजिक संरचना, सामाजिक स्तरीकरण एवं सामाजिक प्रक्रियाओं को ढंग से समझते हैं या नहीं समझते हैं या समझ कर भी नहीं समझना चाहते हैं, परन्तु यह तो स्पष्ट है कि वे इस सामाजिक संरचना, सामाजिक स्तरीकरण एवं सामाजिक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक एवं समुचित व्याख्या नहीं कर रहे हैं| जब हम सामाजिक परिवर्तन का सम्यक विश्लेषण कर इसकी सम्यक क्रियाविधि को समझेंगे, तो सामाजिक संरचना एवं स्तरीकरण के वास्तविक स्वरूप को साधारण ढंग से एवं सरलता से समझना संभव होगा| आज के परिदृश्य के अनुसार भारतीय समाज का स्तरीकरण चार वर्ण में है, और निम्न वर्ण – शुद्र में कई हजार स्तरीकरण बताए जाते हैं| यह वर्तमान प्रचलित अवधारणा पूर्णतया गलत, अवैज्ञानिक और हवा हवाई है| यह भारत में एक बहुत बड़ा बौद्धिक षड़यंत्र हैं, जिसे हमें और पश्चिम को भी समझना चाहिए|

प्रश्न यह है कि भारतीय समाज की जनजातीय आबादी, जो देश की मुख्य धारा से दूरस्थ एवं अगम्य क्षेत्रों में रहती हैं, इस चातुर्यवर्ण के किस वर्ण में आती हैं, और उसका क्या तार्किक आधार है? इसे समझने की जरुरत है| भारतीय समाज के धार्मिक अल्पसंख्यक समूह, जिनकी आस्था विदेशों में उत्पन्न धार्मिक स्वरूपों में है, इस चातुर्यवर्ण के किस वर्ण में आते हैं और ऐसा क्यों? भारतीय समाज के अनुसूचित जाति समूह के सदस्यों को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया, अर्थात उनको भारतीय समाज के तथाकथित वर्ण व्यवस्था से बाहर मान लिया गया, तो उनको अब वर्ण व्यवस्था में किस प्रयोजन से, यानि किस लाभ से लिया जा रहा है? मैं यह नहीं कहना चाहता हूँ कि इसे चुनाव की संख्या के खेल से ही जोड़ कर देखा जाय, परन्तु भारतीय जनजातीय आबादी और भारतीय धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में क्या कहना चाहिए? स्पष्ट है कि यह अवधारणा सामाजिक संरचना एवं स्तरीकरण को सही एवं समुचित ढंग से व्याख्यापित नहीं करती है, और इसीलिए ऐसी अवधारणा अवैज्ञानिक है एवं उपयुक्त नहीं है| इसे उपयुक्त ढंग से समझने से पहले सामाजिक प्रक्रियाओं को भी समझ लें, फिर समेकित रूप में इसकी समुचित व्याख्या की जायगी|

सामाजिक प्रक्रियाओं में सामाजिक सहयोग, प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के आपसी सम्बन्ध आते हैं| सरल (संरचना की प्राथमिक अवस्था) एवं साधारण (उद्विकास की निम्नतर अवस्था) समाजों का अध्ययन यह स्पष्ट करता है, कि मानव स्वभाव से ही प्रतियोगी और संघर्ष प्रवृति का नहीं होता है| वास्तव में समाज में अर्थात सामाजिक प्रक्रियाओं में व्यवस्था भी होती है और उसके अंतर्गत सामाजिक परिवर्तन भी होता रहता है| सामाजिक प्रक्रियाओं में सामाजिक व्यवस्था और उसके अंतर्गत परिवर्तन के कारण ही सामाजिक प्रक्रियाओं में संस्थागत (Institutitionalised) स्वभाव एवं प्रवृति आ जाती है, यानि रहती है| सामाजिक परिवर्तन क्या है? समाज में संरचनात्मक बदलाव तथा विचारों, मूल्यों, एवं मान्यताओं में बदलाव ही  सामाजिक परिवर्तन है|

भारतीय समाज को सही एवं सम्यक ढंग से समझना आसान नहीं है| भारत एक उपमहाद्वीप है, जो किसी भी प्रकार से विविधता, क्षेत्र एवं जनसंख्या की विशालता के मामले में यूरोप की विशालता एवं विविधता से किसी भी तरह कम नहीं है| भारत में विभिन्न मूल्यों (Values) एवं प्रतिमानों (Norms) के होते हुए भी एक अलग एवं विशिष्ट संस्कृति है, जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं, और यही संस्कृति भारत को विविधता में एकता प्रदान करती है| भारत का एक अलग सामाजिक विश्व होना, यह स्पष्ट करता है कि भारत और भारतीय समाज को वैसे नहीं समझा जा सकता है, जैसे यूरोप एवं यूरोपीय समाज को समझा गया है, या समझने का प्रयास किया जाता है| यह सही है कि सामाजिक परिवर्तन की गत्यात्मकता (Mobility) को समझने में हमें भी कार्ल मार्क्स, एमिल दुर्खाइम एवं मैक्स वेबर के सामाजिक उपकरणों (Tools) एवं सामाजिक अवधारणाओं (Concepts) का उपयोग करना चाहिए, क्योंकि सम्पूर्ण मानव एवं उसके द्वारा निर्मित संस्थाओं की मौलिक प्रकृति एक ही है|

ऐसा इसलिए है कि वर्तमान मानव होमो सेपिएन्स सेपिएन्स (Homo Sapiens Sapiens) है, जो आज से कोई एक लाख साल पहले अफ्रीका के वोत्सवाना के मैदान में होमो सेपिएन्स (Homo Sapiens) से विकसित हुआ और क्रमश: सारे विश्व में फ़ैल गया| सभ्यता एवं संस्कृति के उद्विकास के शुरूआती चरण, यानि बौद्धिक विकास के चरण एवं स्तर एक जैसे ही रहे, भले ही उन्नतता का स्तर भिन्न भिन्न रहा| लेकिन मध्यकाल ने भारत की स्थितियों  में अपने पर्यावरण (प्रकृति एवं पारिस्थितिकी), तकनीकी, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के अनुरूप, भारतीय समाज को इसकी संरचना एवं स्तरीकरण के मामले में उसे शेष विश्व जगत से अलग कर दिया। पश्चिम ने सजग प्रयास कर अपने समाज से मध्यकाल का सामन्ती प्रभाव, जो सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप में समाज को जकड़े हुए था,  को समाप्त कर दिया और इसीलिए वह विकास एवं समृद्धि में काफी अलग एवं आगे निकल गया| परन्तु भारत ने सजग प्रयास कर अपने समाज से मध्यकाल के सामन्ती प्रभाव को समाप्त नहीं किया है, और यह प्रभाव भारतीय समाज को आज भी सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से जकड़े हुए है| इसीलिए भारतीय समाज को भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही समझना चाहिए, अन्यथा इसके विकास एवं समृद्धि के लिए किया गया सारा प्रयास एक वृहत  नाटक ही साबित होकर रह जायेगा|

ध्यान दीजिए, भारत का अपेक्षित सामाजिक विकास अभी भी नहीं हो रहा है, और पहले भी नहीं हुआ है| आप भारतीय सामाजिक विकास को किन्हीं भी वैश्विक मानकों पर जाँच लीजिए, और उसका वैश्विक तुलनात्मक अध्ययन कर लीजिए, सच्चाई आपकी समझ में आ जायगी| मैं तथाकथित आर्थिक विकास और उनके आंकड़ों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो भारत की वृहत आबादी के “खाने एवं पचाने” की क्षमता से सम्बन्धित है, यानि भारत के बाजारू उपभोग क्षमता पर आधारित है| मैं सामाजिक विकास यानि सम्पूर्ण समाज के विकास की बात कर रहा हूँ| "सरकना" (अति मंद गति या स्वाभाविक गति से बदलना) को विकास नहीं माना जाना चाहिए| सरकना वैश्विक विकास दर से भी कम को कहा जाता है| वस्तुत: हम वैश्विक मानकों में तुलनात्मक रूप में नीचे की ओर सरकते जा रहे हैं|

यूरोप की सामाजिक व्याख्या में कई राष्ट्रीयताओं ने अपनी योग्यता आधारित अध्ययनों एवं शोधों के कारण अपनी सामाजिक संरचना, स्तरीकरण एवं प्रक्रियाओं को समझा, उसका विश्लेषण किया, उसकी बीमारी को पहचाना और उसका सम्यक ईलाज किया| परन्तु भारत में भारतीय समाज की सामाजिक संरचना, स्तरीकरण एवं प्रक्रियाओं को एक ही राष्ट्रीयता के एक ही समूह या वर्ग, जिसका योग्यता और  कौशल जन्म आधारित रहा, ने व्याख्यापित किया| यह वैश्विक मनोवैज्ञानिक कटु सत्य है कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्राप्त एवं सम्पूर्ण जन्म आधारित योग्यता पर आधारित सामाजिक समूह या वर्ग अपने विशेषाधिकार को अपनी अगली पीढ़ी को सौपना चाहता है| यही मनोवैज्ञानिक स्थिति यथास्थितिवाद को मजबूती देती हैं और सामाजिक बदलाव का मौलिक रूप में विरोध करती हैं, भले ही ऐसी मानसिकता वाले लोग चाहे कितनी भी बड़ी बड़ी बातें कर लें| यही सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्राप्त एवं सम्पूर्ण जन्म आधारित योग्यता वाले वर्ग या समूह सामाजिक एवं राजनैतिक शक्ति के केंद्र यानि सता पर काबिज हैं| अपनी इसी मानवीय स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक बाध्यता के कारण ये समूह अपने समूह या वर्ग को ही राष्ट्र समझ लेते हैं, और शेष वृहत समाज की व्यापक क्षमता का सदुपयोग नहीं होने देते हैं| परिणामत: देश को जहाँ पहुँचना चाहिए, आज वह उससे कोसों दूर रह गया है| इसीलिए हमारी पीड़ा एक राष्ट्रीय पीड़ा है, जो वृहत मानवता को लाभान्वित करने से वंचित किए जाने से सम्बन्धित है|

यही सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्राप्त एवं सम्पूर्ण जन्म आधारित योग्यता वाले भारतीय वर्ग या समूहों ने भारतीय समाज की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक व्याख्या की, जिसका आधार ग्रन्थ भी उन्होंने ही तैयार किया था| इन आधार ग्रंथो को भी उन्होने ही मध्य काल में लिखे, जो निश्चितया ही भारत में कागज के व्यापक प्रचलन होने पर ही किया, भले ही वे उसके रटते हुए निरंतरता का दावा कई हजार वर्ष पहले का बता दें| भारतीय समाज की व्याख्या का सारा आधार कागजी है, जो कागज के चीन में आविष्कार होने और उसके बाद अरब होते हुए भारत आगमन के बाद का ही है| इन कागजी ग्रंथों या संदर्भो के सम्बन्ध में यादाश्त (रटन्त निरन्तरता) की सारी कहानी फर्जी है, क्योंकि इसके समर्थन में कोई प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है| इस तरह कोई भी ऐसा कागजी सन्दर्भ या साक्ष्य प्राचीन काल का बताया जाना प्रमाणिक नहीं हो सकता है, और प्राथमिक भी नहीं हो सकता है|

तो हमलोग भारत की सामाजिक संरचना, सामाजिक स्तरीकरण एवं सामाजिक प्रक्रियाओं को समझें| सामाजिक संरचना व्यक्ति को अवसर देती है, लेकिन यह व्यक्ति को एक ख़ास भूमिका में भी बाँध देती है| इस तरह सामाजिक संरचना एक विशिष्ट प्रतिरूप (Pattern) लिए एक निश्चित नियमितता (Regularity) की व्यवस्था है| मतलब इसमें प्रतिरूप की यानि संरचना की ख़ास अभिविन्यास (Orientation) की नियमितता है| प्रतिरूप का यानि संरचना का ख़ास अभिविन्यास ही समाज के किसी खास व्यक्ति को कोई खास एवं निश्चित भूमिका देता है| संरचना की ख़ास अभिविन्यास की नियमितता का अर्थ हुआ कि, हर बार वैसे लोगों को ही वही भूमिका मिलती रहेगी, अर्थात उनकी भूमिकाओं में नियमितता (Regularity) बनी रहेगी| इस तरह सामाजिक संरचना मानवीय क्रियाओं और उनके आपसी सम्बन्धों से बनती है एवं संचालित होती है| स्पष्ट है कि एक समाज व्यक्तियों के संयुक्त स्वरुप से बहुत कुछ ज्यादा होता है, क्योंकि समाज में कार्यों को कठोरता से कराने की क्षमता होती है, अर्थात सामाजिक संरचना अपने सदस्यों की क्रियाओं की दिशा एवं दशा पर नियंत्रण रखती है|

सामाजिक स्तरीकरण का तात्पर्य समाज के समूहों के बीच उनकी संरचनात्मक असमानताओं के निर्धारण से है| यह स्तरीकरण जीवन के अवसर, सामाजिक प्रस्थिति, धन, शक्ति एवं राजनैतिक प्रभाव से अभिव्यक्त होता है| इस क्षेत्र में पश्चिम में जहाँ ‘वर्ग’  महत्वपूर्ण है, वहीं भारत में ‘वर्ण’ एवं ‘जाति’ महत्वपूर्ण हैं| पश्चिम में किसी की ‘वर्ग’ प्रस्थिति उसके वर्तमान जीवन में कभी भी बदल सकती है, परन्तु भारत का वर्ण एवं जाति किसी व्यक्ति के  इसी जीवन में कभी नहीं बदलता है| इसीलिए पश्चिम में वर्ग का आधार आर्थिक गतिविधियों का विस्तार, श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण है, यानि योग्यता एवं कौशल है| वहीं भारत में सामाजिक स्तरीकरण का आधार जन्म के सामाजिक समूह ही हैं और यहाँ वर्तमान जीवन में अर्जित योग्यता एवं कौशल को प्राथमिकता नहीं है| इस तरह भारत का सामाजिक स्तरीकरण पश्चिम के स्तरीकरण से सर्वथा भिन्न है| इसीलिए भारत के यथास्थितिवादी विद्वान इस स्तरीकरण का अपने समूह हित में व्याख्या करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं| आप ध्यान देंगे कि भारतीय ‘साड़ी’ एवं ‘धोती’ शब्द को अंग्रेजी में ऐसे ही रहने दिया गया, परन्तु भारतीय “जाति” को अंगेजी में पुर्तगाली शब्द “कास्ट” (Caste) कर दिया गया, जो एक ही जीवन में बदलता रहता है, जबकि भारत में किसी की “जाति” एक जीवन में कभी नहीं बदलती| अत: पश्चिम को भारतीय समाज की इस सच्चाई से अँधेरे में रखने के इस बौद्धिक षड़यंत्र को गंभीरता से समझने की जरुरत है|

भारतीय समाज में मध्य काल में सामन्ती व्यवस्था ने यानि ऐतिहासिक आर्थिक शक्तियों ने एक नयी राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था एवं तंत्र को जन्म दिया, जो समय के साथ विकसित होता गया और आज भी अपने कई स्वरूपों में मौजूद है| इस सामन्ती व्यवस्था से भारतीय समाज का दो भागों में विभाजन हो गया - एक शासक वर्ग और दूसरा शासित वर्ग| अर्थात एक शोषक वर्ग हुआ और दूसरा शोषित वर्ग हुआ| मतलब दोनों की अवस्था एवं विन्यास को एक दूसरे का सहयोगात्मक होते हुए भी संघर्षरत माना जा सकता है| इसे आप प्रकार्यवादी (Functionalist) नजिरिये से देखें या प्रकृतिवादी (Naturalist) नजरिये से देखें, मैं इसमें नहीं पड़ना चाहता हूँ| दोनों वृहत समूह एक दूसरे के पूरक थे, अर्थात दोनों ही संयुक्त रूप में देश एवं समाज का सञ्चालन कर रहे थे या सञ्चालन में सहयोग दे रहे थे|

शासक व्यवस्था “वर्ण” व्यवस्था कहलाया और शासित व्यवस्था “जाति” व्यवस्था हुआ| अर्थात एक “वर्ण” व्यवस्था हुआ और दूसरा उसके सामानांतर ही “अवर्ण” व्यवस्था हुआ| “वर्ण” व्यवस्था में एक पुरोहित यानि पुजारी वर्ग (ब्राह्मण) हुआ, दूसरा शासक (क्षत्रिय) वर्ग हुआ, तीसरे वर्ग में व्यापारी (वैश्य) वर्ग को मान लिया गया और चौथे वर्ग में उनके व्यक्तिगत सेवक यानि नौकर (क्षुद्र या शुद्र) थे| मध्यकाल में शासक वर्ग अपने सामन्ती संघर्षो एवं उलझनों में घिरा हुआ रहा और इसी कारण शासक वर्ग को अपने इतिहास एवं अन्य लेखनों के लिए समुचित समय नहीं मिला| इस लेखन कार्य को शिक्षित पुजारी वर्ग कर रहा था और इसी कारण शासक वर्ग की सर्वोच्चता के बावजूद लेखन में अपने वर्ग को चालाकी पूर्वक सर्वोच्च स्थान निर्धारित कर लिया| व्यापारी वर्ग अपनी गतिशीलता, अपने अंतर्देशीय संपर्क, धन की प्रचुरता एवं क्षेत्रीय शासकों को ऋण उपलब्ध करने के क्षमता के कारण समाज में विशिष्ट रहा, और इसी कारण उसे वर्ण व्यवस्था का भाग मान लिया गया| शुद्र दरअसल उनके व्यक्तिगत सेवक थे, जिनकी संख्या सदैव सम्पूर्ण आबादी की तुलना में नगण्य रही (आज भी 20 -25 सदस्यों के संयुक्त परिवार में 2 या 3 ही व्यक्तिगत सेवक होते हैं)| इसी नगण्यता को यानि संख्या के अति अल्प होने के कारण इन्हें “क्षुद्र” (KShudra) कहा गया, जो कालांतर में “शुद्र” (Shudra) के रूप में प्रचलित हुआ| अपनी नगण्य संख्या एवं नगण्य भूमिका के कारण ही इनका सामाजिक स्वरूप ब्रिटिश काल में विलुप्त हो गया, और इसीलिए आज यह उपलब्ध भी नहीं हैं| मैं इन “व्यक्तिगत सेवकों” के वंशजों के दावेदारों पर कुछ नहीं कहना चाहता|

अवर्ण” व्यवस्था में “जाति व्यवस्था” है| यह “जाति” व्यवस्था श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण के कारण हुई, जो क्षेत्रीय भाषाओ एवं समयकाल के अनुसार विभिन्न नामों से जानी जाती है| यही वस्तुओं के उत्पादक रहे और सेवाओं के प्रदाता भी रहे, जिन पर सम्पूर्ण समाज की अर्थव्यवस्था टिकी हुई थी| जहाँ वर्ण व्यवस्था में आपसी पदानुक्रम (Hierarchy) बताया जाता है, यानि एक दूसरे को ऊपर - नीचे बताने का एक झूठा प्रयास किया गया है, वहीं जाति व्यवस्था में ऐसा कोई ऊपर - नीचे का क्रम कभी नहीं पाया गया, भले ही बाद के काल में कार्य विशेष की प्रकृति, परिवेश एवं सफाई के सन्दर्भ में उसे कुछ अन्यथा मान लिया गया हो| जहां वर्ण व्यवस्था में हर एक वर्ण में एक ही पेशा रहां, जिसे आज जाति कहने का प्रयास किया जाता है, और इसी क्रम में “राजपुत्रों” को ‘राजपूत’ कहा जाने लगा| वहीं जाति व्यवस्था में एक जाति के लिए एक ही पेशा रहा| परन्तु यह निर्धारण कभी जकड़ा हुआ नहीं रहा, यानि सेवा प्रदाता भी वस्तु उत्पादक रहे और वस्तु उत्पादक भी सेवा प्रदाता रहे, भले प्रमुखता किसी एक ही पेशे की रही, जो उसकी विशेषज्ञता के कौशल से होती थी|

आज भले ही तथाकथित विद्वानों ने लोकतंत्र की निर्वाचन पद्धति की कुछ आवश्यकताओं के कारण सामाजिक संरचना, सामाजिक स्तरीकरण एवं सामाजिक प्रक्रियाओं की व्याख्या को जान - बूझ कर उलझा दिया है| इस व्याख्या  के समर्थन के सारे ग्रन्थ मध्यकालीन और कागजी हैं, जिन्हें मध्य काल में ही रचित किया गया है| इनकी पुरातनता की सच्चाई महज एक ऐतिहासिक झूठ है, जिसका कोई भी प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है|

इन सब बातों पर आप भी गंभीरता से विचार कर सकते हैं, और किसी निष्कर्ष पर आ सकते हैं|

निरंजन सिन्हा 

शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

आपकी ‘सकारात्मक एवं सृजनात्मक आयु’ कितनी है?

वैसे तो आयु का सामान्य अर्थ शारीरिक आयु से ही लिया जाता है, लेकिन विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार इन (आयु) अर्थो का भी विकास होना चाहिए| इसीलिए शारीरिक आयु के अलावे ‘बौद्धिक’ आयु (Intelligence Age), ‘सकारात्मक’ आयु (Positive Age), सृजनात्मक’ आयु (Creative Age), ‘आध्यात्मिक आयु’ (Spiritual Age) आदि आदि भी हो सकता है| शारीरिक आयु की एक विशेषता है, कि इसे सभी पशु एवं जीव भी जी लेते हैं, परन्तु सकारात्मक आयु एवं सृजनात्मक आयु आदि सिर्फ मानव ही जीते हैं| शारीरिक आयु को कालानुक्रमिक आयु (Chronological Age) भी कहते हैं, क्योंकि इसकी गिनती उसके जन्म के समय से ही की जाती है| ध्यान रहे कि जो सकारात्मक एवं सृजनात्मक जीवन जीते हैं, उनके शरीर के नष्ट हो जाने यानि उनके मर जाने के बाद भी वर्तमान और भविष्य इसी सकारात्मक एवं सृजनात्मक जीवन को याद रखते हैं; इस तरह ही एक मानव अमर हो सकता है|

एक शारीरिक आयु जीने के लिए किसी भी पशु या जीव को सिर्फ शारीरिक अस्तित्व बचाने के लिए ही उपाय करने होते हैं| ध्यान रहे कि मानव भी प्राकृतिक रूप में एक पशु ही है, लेकिन अपनी चिंतन की प्रणाली एवं क्षमता से यह पशु से अलग हो गया| ‘चिंतन’ क्या है और क्या एक पशु चिंतन नहीं करता? ‘अपनी सोच’ पर फिर ‘सोच’ करना ही ‘चिंतन’ है| एक पशु सोच तो सकता है, परन्तु अपनी सोच पर फिर सोच नहीं सकता| तो शरीरिक आयु के लिए वायु, जल, भोजन के अतिरिक्त प्राकृतिक एवं अन्य आपदाओं से सुरक्षा की कुछ आवश्यकता होती है| इन सुरक्षाओं में कपड़ा, आवास आदि शामिल है| स्पष्ट है कि जो भी जीव सिर्फ शारीरिक आयु ही जीना चाहते हैं या जीते हैं, वे एक साधारण पशु के समान हैं| एक पशु भी प्रजनन करता है, उत्पन्न बच्चे का लालन पोषण अपनी क्षमता से करता है, और शेष जिंदगी इसी को देखते हुए गुजार देता है| यदि कोई ‘दो पैरो पर चलने वाला’ और अपने को ‘बौद्धिक’ समझने वाला पशु अपने को भी एक मानव ही कहे, तो हमें कुछ विचार करने के लिए रुकना चाहिए|

हमें एक मानव को परिभाषित करने के लिए उसकी ‘सकारात्मक’ एवं ‘सृजनात्मक’ आयु देखनी ही होगी| ‘सकारात्मकता’ से सन्दर्भ प्रकृति के सामंजस्य में मानव प्रजाति के विकास के समर्थन में सक्रियता के साथ आना या खड़ा होना है| लेकिन ‘सृजनात्मकता’ से सन्दर्भ पहले से ही समाज या मानवता या प्रकृति के बेहतरी के लिए किये जाने वाले प्रयास या कार्य में कुछ नया जोड़ना है| इस ‘सृजनात्मक आयु’ को किसी की ‘रचनात्मक आयु’ भी कह सकते हैं| किसी की ‘सृजनात्मक आयु’ में सिर्फ किसी तंत्र या किसी व्यवस्था के समर्थन में किसी का आना या खड़ा होंना नहीं है, अपितु कुछ अतिरिक्त जोड़ना होता है| यह जोड़ना सिर्फ उत्पादन करना नहीं होता है, बल्कि किसी भी चीज में परिमार्जन (Modification), संशोधन (Correction), शुद्धिकरण (Purification), सुधार (Rectification), संवर्धन (Improvement), परिवर्तन (Change) आदि भी हो सकता है| ऐसा करने के लिए पूर्ववर्ती अवस्था (Stage) या व्यवस्था (Organization) या तंत्र (System) या प्रणाली (Method) या क्रियाविधि (Mechanism) की संरचना में पुनर्गठन (Re Organization), पुनर्विन्यास (Re Orientation), पुनर्संयोजन (Re Combination), पुनर्संरचना (Re Structure), पुनार्व्यव्स्थापन (Re Arrangement), के अलावे उसका पृष्ठभूमि (Bachground) एवं/ या सन्दर्भ (Reference) बदलना भी हो सकता है|

यानि मानव के बेहतरी के लिए किये गए उपागम (Approach), प्रयास (Effort), कार्य (Work), में सक्रिय योगदान देने वाले ही “मानव” होंगे| बाकि किस श्रेणी के जीव होंगे, वह कोई खुद तय कर सकता है| अर्थात मानव के बेहतर भविष्य सुनिश्चित हो सकने में किसी का योगदान ही उसके एक मानव होने की पहचान होगी| जब कोई मानव अपने विचार एवं कार्य में अपने संक्षिप्त परिवार के अतिरिक्त वृहत समाज, या राष्ट्र या सम्पूर्ण मानवता या सम्पूर्ण प्रकृति को समाहित कर लेता है, तो वह मानव एक पशु के स्तर से ऊपर उठ जाता है|

लेकिन मानव का बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने के नाम पर समाज में घूम रहे तथाकथित ढोंगी, खतरनाक एवं षड्यंत्रकारी ठेकेदारों से भी सावधान रहना है, जो इसी मूलभुत आवश्यकता को भावनात्मक स्वरुप देकर आपका समय, संसाधन, धन, उत्साह, जवानी और ऊर्जा पर डाका डाल रहा है| आपको ऐसे ठेकेदारों को भी पहचाना चाहिए, जो समाज में ऐसे हवा- हवाई प्रमाण पत्र बाँटते रहते हैं, और भावनात्मक अपील भी करते रहते हैं| ध्यान से देखिए और विचार करिए कि ऐसे ठेकेदार कौन हैं?

कोई भी अपने उम्र के विभिन्न पड़ाव यथा शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं युवावस्था तक तो अपने शरीर के ही समुचित गठन एवं समझ को विकसित करने में लगा रहता है| इन अवस्थाओं के बाद ही युवावस्था, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था आती है| समाज में सकारात्मकता एवं सृजनात्मकता की नीव तो प्रथम चारो अवस्थाओं में ही पड़ जाती है और विकसित होने लगती है, परन्तु सजग प्रयास से यह अवस्था प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था में भी विकसित होती है और कार्यान्वित दिखती है| चूँकि समाज में सकारात्मकता एवं सृजनात्मकता की नीव शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं युवावस्था में ही पड़ती है, लेकिन यह कार्यान्वित तो प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था में ही होती है, और इसीलिए इस अवस्था को कोई भी कभी भी पा सकता है| अर्थात एक मानव में प्रभावी रचना यानि सृजन शक्ति एवं क्षमता प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था में ही आती है, इसलिए आप इसके लिए सदैव उपयुक्त हैं, बशर्ते आप एक जीवित मानव हैं| ध्यान रहे, मैं पशुओं और मृत मानवों (जीवित लाश) की बात नहीं कर रहा|

जब किसी की रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था में ही आती है, तब उसकी सकारात्मक आयु एवं सृजनात्मक आयु भी उसी अवस्था से शुरू होगी| यानि इस गणना में उसकी उस आयु की गणना नहीं होगी, जो उसके शारीरिक एवं बौद्धिक गठन की नीव डालने में गुजर गयी| अर्थात किसी की सकारात्मक एवं सृजनात्मक आयु  25 वर्ष से, तो किसी की 30 वर्ष से, तो किसी की 35 वर्ष से शुरू होती है और यह किसी की किसी भी उम्र में शुरू ही नहीं होती है, और वह पशुवत ही मर भी जाता है| अर्थात सकारात्मक आयु एवं सृजनात्मक आयु की गणना का सन्दर्भ बिंदु यानि प्रारंभ बिंदु उसके शारीरिक एवं बौद्धिक गठन के बाद से ही शुरू होता है|

इसी शारीरिक आयु के साथ जुड़ा हुआ ही ‘मानसिक आयु’ (Mental Age) एवं ‘अध्यात्मिक आयु’ (Spiritual Age) है| मानसिक आयु को ही बौद्धिक आयु भी कहते हैं| हम जानते हैं कि किसी की ‘चेतना’ (Consciousness) उसकी शारीरिक अवस्था की ऊर्जा से ही संपोषित एवं संरक्षित होती है, और इसीलिए किसी के शरीर के नष्ट हो जाने से उसकी चेतना भी नष्ट हो जाती है| ध्यान रहे कि किसी का चेतना किसी का मन (Mind) कहला सकता है, किसी का आत्म (Self) कहला सकता है, किसी का Spirit हो सकता है, लेकिन यह किसी का ‘आत्मा’ (Soul) नहीं हो सकता है| यह चेतना उसका मस्तिष्क भी नहीं है, यानि किसी का मन (Mind) और उसका मस्तिष्क (Brain) का अलग अलग अस्तित्व है| और यह भी ध्यान रहे कि ‘आत्मा’ की संकल्पना सामन्ती यथास्थितिवादियों ने यथास्थितिवाद को बनाए रखने के लिए किया है, जो पुनर्जन्म, कर्मवाद, नित्यवाद एवं ईश्वर से जुड़ा हुआ है| यह चेतना का स्तर ही किसी मानव को बौद्धिक मानव एवं आध्यात्मिक मानव बनाता है| स्पष्ट रहे कि ‘आत्मा’ एक बौद्धिक षड़यंत्र एवं घोटाला है| तो चेतना क्या है?

चेतना (Consciousness) किसी भी जीव या मानव विशेष का एक विशिष्ट ‘ऊर्जा आव्यूह’ (Energy Matrix) है, जो उसके शरीर की उर्जा से संपोषित होता रहता है और उसके अनुभव, ज्ञान एवं समय के साथ -साथ विकसित होता रहता है, लेकिन यह उसके मस्तिष्क (Brain) की क्रिया प्रणाली से अभिव्यक्त होता है और अपने संपर्क में आए अन्य ऊर्जा से अनुक्रिया एवं प्रतिक्रिया करता रहता है| चूँकि यह चेतना अनुभव एवं समय के साथ विकसित होता है, इसलिए चेतना अन्य पशुओं एवं जीवन में भी पाया जाता है| लेकिन ज्ञान चूँकि चिंतन एवं मनन से आता है, इसीलिए  मानव एक विशिष्ट चेतना ग्रहण करता है, जो उसे बौद्धिक जीव बनाता है| मानव की यही चेतना (यानि आत्म) जब अनन्त प्रज्ञा से जुड़ जाती है, तो वह व्यक्ति आध्यात्मिक (अधि यानि ऊपर एवं आत्म) बन जाता है| अनत प्रज्ञा से लिया गया अंतर्ज्ञान (Intution), अंत:प्रज्ञा, आभास (Instinct), अनुमान आदि ही विशिष्ट ज्ञान बनता है| इसीलिए एक वैज्ञानिक भी एक आध्यात्मिक मानव है| प्रचलित बाबाओं का आध्यात्म से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि उनकी इस आध्यात्मिक शक्ति एवं क्षमता में सामाजिक सृजनात्मकता दिखनी चाहिए, जो नहीं दिखती है, अर्थात उसका नितांत अभाव होता है|

अब आपको स्पष्ट हो गया होगा कि किसी को सकारात्मक आयु एवं सृजनात्मक आयु पाने के लिए शारीरिक आयु के साथ -साथ अनुभव एवं ज्ञान भी प्राप्त करना आवश्यक है|

अर्थात

यदि किसी को एक पशु से अलग एक मानव बनना है,

तो उसे अनुभव एवं ज्ञान अर्जित करना ही होगा, और सृजनात्मक बनना ही होगा|

ज्ञान को कभी संस्थागत शिक्षा से नहीं जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि ज्ञान का सर्वोच्च स्तर पाने के लिए किसी व्यक्ति को एक शिक्षक एवं एक शिक्षार्थी, दोनों की ही भूमिका में आना होता है|

तो चलिए विचार करें कि

हमें सकारात्मक एवं सृजनात्मक आयु प्राप्त करना चाहिए या नहीं?

यानि हमें सच्चे अर्थो में एक मानव होना चाहिए या नहीं ...........

आचार्य निरंजन सिन्हा 

बुधवार, 18 जनवरी 2023

बहुमत आबादी की 'शक्ति और सत्ता' की राजनीति

(Politics of Mass in 'Power n Authority')

राजनीति दरअसल शक्ति और सत्ता का खेल है| राजनीति मानव समाज में शक्ति के हिस्सेदारी की नीति है, और इसीलिए सभी राजनीतिक संस्थाएँ, संगठन, समूह एवं व्यवस्थायें एक समाज में शक्ति के हिस्सेदारी की सुनिश्चितता को नियंत्रित, नियमित, एवं सञ्चालित करने में व्यस्त हैं| वह समाज चाहे वैश्विक हो, क्षेत्रीय हो, राष्ट्रीय हो, या कोई कार्यालय हो, कोई जाति समूह हो या कोई वर्ग समूह हो, शक्ति के हिस्सेदारी में ही अपनी ऊर्जा का महत्तम भाग खर्च करता है| यानि अपनी रचनात्मकता एवं सकारात्मकता पर कोई ध्यान नहीं दे पाता है| तो आइए समझते हैं कि शक्ति क्या होता है? और इस शक्ति का सत्ता से क्या सम्बन्ध होता है? और राजनीति से इसका कैसा सम्बन्ध है?

किसी की शक्ति (Power) उसकी वह योग्यता है, जिसके द्वारा वह अपनी इच्छा को दूसरों के विरोध के बावजूद भी पूरी कर सकता है| यानि सामाजिक एवं राजनीतिक शक्ति एक वस्तुनिष्ट और निष्पक्ष नहीं होकर एक सापेक्षिक योग्यता है, जो सदैव दूसरों के साथ तुलनीय होता है| लेकिन यह शक्ति क्वांटम में होती है, यानि निरन्तरता (continuity) में नहीं होती है| मतलब जब शक्ति किसी एक ही व्यक्ति, या समूह, या देश के पास होगी, तब शक्ति दूसरों के पास नहीं होगी| तो शक्ति किसी व्यक्ति, परिवार, समुदाय, संस्था, देश या राष्ट्र के पास होती है| उस शक्ति का स्वरुप भिन्न भिन्न होता है, लेकिन एक स्वरुप में यह किसी एक के ही पास होती है और उसका अनुपालन करने वालों के पास यह नहीं होती है| अर्थात ऐसे शक्ति की इच्छा का अनुपालन दुसरे अवश्य ही करते हैं| लेकिन एक शक्ति से सत्ता का क्या सम्बन्ध होता है, इसे भी भली भांति समझना जरुरी है?

एक सत्ता (Authority) एक व्यवस्थित माध्यम होता है, जिसके द्वारा शक्ति का उपयोग किया जाता है| इस तरह वह शक्ति विधिमान्य (Legal) मानी जाती है, और इसीलिए वैध (Legitimate) भी हो जाती है| अर्थात सत्ता एक शक्ति को सही एवं न्यायसंगत होने का आवरण चढ़ा देती है| यानि तब उस शक्ति को सही तथा न्यायसंगत मान लेना होता है| चूँकि सत्ता रूपी माध्यम को अपनी शक्ति को कार्यान्वित करने के लिए एक वैध संरचनात्मक तंत्र (Structural System) या ढांचा (Frame work) चाहिए होता है, इसलिए एक शक्ति ‘सत्ता’ के रूप में संस्थागत (Institutionalized) हो जाता है| इस तरह वह शक्ति सर्वजन आबादी के लिए अनुपालनीय हो जाता हैहै। इस शक्ति को सभी स्वीकार करते हैं, क्योंकि यह ‘सत्ता’ के माध्यम से अभिव्यक्त होती है| तब उस शक्ति के नियंत्रण को उचित एवं न्यायपूर्ण माना जाता है| तब इसी कारण सभी व्यक्ति, समूह, वर्ग, समाज, राज्य एवं राष्ट्र सत्ता चाहते हैं, ताकि शक्ति पर वैध (Legitimate) नियंत्रण पाया जा सके|

स्पष्ट है कि शक्ति अर्थात वैध शक्ति के लिए सत्ता चाहिए| चूँकि लोकतंत्र में राज्य की सम्प्रभुता ‘लोगो’ में निहित होती है, और लोग एक संख्या हैं, इसीलिए लोकतंत्र में शक्ति यानि सत्ता लोगों की संख्या का खेल हो जाता है| लेकिन जहाँ के लोग ‘आस्थावान’ (भक्त) होते हैं, यानि तर्कहीन, विवेकहीन, एवं अज्ञानी होते हैं, वहाँ बुद्धिमान व्यक्ति या समूह ही अपनी अल्पसंख्या के बावजूद सत्ता पर काबिज हो जाता है अर्थात शक्ति को अपनी इच्छानुसार संचालित करता रहता है| मतलब यह कि किसी की तथाकथित बुद्धिमानी भी उसके सापेक्ष व्यक्ति या समूह की तर्कहीनता, विवेकहीनता एवं अज्ञानता के कारण ही दिखती है| यानि तब संख्या का खेल भ्रामक हो जाता है| तर्क, विवेक एवं ज्ञान को ही संयुक्त रूप में ‘वैज्ञानिकता’ कहते हैं, और इस मानसिकता (Mentality) को वैज्ञानिक मिज़ाज /मानसिकता (Scientific Temper) कहते हैं|

जब बात लोकतंत्र की आती है, तो यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि क्या लोकतंत्र और प्रजातंत्र एक ही हैं, या भिन्न भिन्न हैं? भारत के संविधान में शब्द ‘लोकतंत्र’ है, ‘प्रजातंत्र’ नहीं है, हालाँकि दोनों का अंग्रेजी एक ही ‘Democracy’ है| ऐसा इसलिए है कि भारत की संप्रभुता यहाँ के लोगो में है, लेकिन प्रजातन्त्र में उस सत्ता की सम्प्रभुता उस ‘राजा’ के सापेक्ष में होती है, जिसकी प्रजा वहाँ के लोग होते हैं| स्पष्ट है कि भारत के लोग किसी की भी प्रजा नहीं है, और इसीलिए यहाँ प्रजातंत्र नहीं, अपितु लोकतंत्र है| ब्रिटेन में प्रजातंत्र है, लेकिन भारत में लोकतंत्र है|

भारत में सामाजिक समूह ‘जाति’, ‘धर्म’, ‘पंथ’, क्षेत्र’, ‘भाषा’ एवं इनके वृहत परिसंघ (Confederation) समूह के रूप में हैं, इसीलिए इस लोकतंत्र में शक्ति का खेल और सत्ता के माध्यम कई स्वरूपों में संचालित होते है, नियंत्रित होते है एवं नियमित होते है| इस शक्ति के खेल में ‘जाति’ एवं ‘धर्म’ सबसे प्रमुख हैं| भारत में सभी जातियों का उदय सामाजिक एवं आर्थिक समूह/ वर्ग के रूप में सामन्तवाद की ऐतिहासिक शक्तियों एवं उनकी अंतर्क्रियाओं के कारण मध्यकाल में हुआ है| इस काल के पहले जाति एवं वर्ण का कोई भी प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है, भले ही इसकी प्राचीनता स्थापित करने के लिए ‘आर्य आक्रमण’ एवं ‘मूलनिवासी’ की कहानी गढ़ दी गयी| आज भारत में धर्म और जाति रूपी सामाजिक समूहों को प्राथमिक आधार बनाकर सभी समूह/  दल शक्ति संतुलन का खेल खेलना चाहते है, जिसके कई विद्रूप स्वरुप भी देखने को मिल रहे हैं| जाति एवं धर्म का जो भी ऐतिहासिक, वैज्ञानिक एवं वास्तविक प्रकृति और स्वभाव हो, परन्तु इसकी राजनीति यानि शक्ति एवं सता का खेल समाज एवं देश को बहुत हानि पहुँचा रहा है|

कई राजनीतिक एवं सामाजिक नेतृत्व इन जातीय एवं धार्मिक भावनाओं का अपने राजनीतिक एवं सामाजिक हित में अपनी तरह से उपयोग कर रहे हैं, तो उनके विरोधी भी उसी का उपयोग कर उसी के आधार पर ‘जनमत’ को अपने पक्ष में ‘हाँक’ (पशु की तरह) ले जा रहे हैं| यहाँ तक तो कोई आपत्ति नहीं भी की जा सकती है, लेकिन इसके बाद शक्ति एवं सता का उपयोग कुछ ख़ास आर्थिक या सामाजिक वर्गों के ही हित में करना और बहुमत के अहित में करना बहुत गलत है| ऐसी शक्तियाँ आज बहुत सफल मान ली जा सकती है, परन्तु भविष्य की सभी पीढियाँ ऐसी शक्तियों को घृणा के साथ याद करेंगी| ऐसा इसलिए कि भविष्य की पीढियाँ सम्पूर्ण भारत को एक वैश्विक शक्ति एवं नेतृत्व के रूप में देखना चाहती हैं, सिर्फ किसी खास आर्थिक या सामाजिक समूह को ही शीर्ष पर नहीं देखना चाहती|

वैसे तमाम जातीय समूह शक्ति के संतुलन के खेल में पिछड़ जाते हैं, लेकिन धार्मिक समूह के रूप में शक्ति के संतुलन में अभी जीत मिल जा रही है, हालाँकि ऐसे खेल कभी भी भसक (भर भरा कर ध्वस्त होना) सकते हैं| अर्थात धर्म भी शक्ति के खेल में सक्रिय भागीदारी करता है| अपने किसी भी तथाकथित अच्छे उद्देश्य के होते हुए भी किसी भी विपक्षी दल को मुख्य शक्ति यानि सत्ता को पछाड़ने में सफलता नहीं मिल रही है, आगे भी सफलता की संभावना धूमिल ही दिखती है|

इसका स्पष्ट कारण है कि

बहुमत आबादी मुख्य शक्ति या सता को पछाड़ने के लिए

उसकी हर गतिविधि, घटना, निर्णय एवं कार्यान्वयन के विरोध में

तथाकथित विद्वतापूर्ण एवं सक्रिय विरोध करती हैं,

परन्तु

चुनाव के समय यानि प्रतिनिधि सभा में उम्मीदवारों के निर्वाचन के समय

उसकी ‘जाति’ एवं ‘धर्म’ को देखकर ही मत (Vote) करेंगे|

अर्थात

ये तथाकथित बहुमत आबादी के लोग अपनी प्रखर विद्वता, जोश एवं सक्रियता का बखूबी प्रदर्शन

लगातार चार वर्ष ग्यारह महीने पचीस दिन करेंगे और

फिर मत (Vote) जाति या /और धर्म के नाम पर उसी को ही देंगे, 

जिसका प्रखर विरोध अपनी विद्वता, जोश एवं सक्रियता के बखूबी प्रदर्शन के साथ 

लगातार चार वर्ष ग्यारह महीने पचीस दिन तक किया था|

ऐसी स्थिति को पाने के लिए मुख्य शक्ति यानि सता को यह ध्यान रखना होता है, कि उस ख़ास क्षेत्र के उम्मीदवार की जाति या धर्म वहां के बहुमत आबादी को अपने पक्ष में कर सके| फिर निर्वाचन के तुरंत बाद इन तथाकथित बहुमत बौद्धिकों का प्रखर बुद्धिमता दिखाने का खेल अगले चुनाव के लिए शुरू हो जायगा|

ध्यान दिया जाय, आप भी देखेंगे कि इन बहुमत आबादी वाले तथाकथित प्रखर विद्वता झाड़ने वाले लगभग सभी नेतृत्वकर्ता अपने जातीय एवं धार्मिक नेतृत्व में ही सर्व गुण देखेंगे| नतीजा यह होता है कि इस तरह ये लोग मुख्य शक्ति एवं सत्ता के विरोध में अपने बहुमत को खंडित कर देते हैं, और जिसका सबसे ज्यादा विरोध करते हैं, उसी को जीत दिला देते हैं| चुनाव के बाद फिर विद्वता दिखाने का चक्र शुरू हो जाता है| शक्ति एवं सत्ता का खेल ऐसे ही चलता रहता है| इसमें जो अल्पसंख्यक बौद्धिक लोग होते हैं, वे हर बार की तरह बार बार सफल होते हैं| शिक्षा का भी इसीलिए शक्ति से और सत्ता से गहरा सम्बन्ध है| इसी कारण अल्पसंख्यांक बौद्धिक लोगों द्वारा नियंत्रित शक्ति यानि सत्ता बहुमत आबादी को तर्कपूर्ण वैज्ञानिक शिक्षा से ही दूर रखना चाहता है|

दरअसल बौद्धिक लोग वो होते हैं, जिन्हें सामाजिक एवं व्यैक्तिक मनोविज्ञान (Psychology) की गहरी समझ होती है| यदि आप Institute of Propaganda Analysis (गूगल पर उपलब्ध है) के अध्ययन का अवलोकन करेंगे, तो आपको भी शक्ति एवं सता के खेल का गहन मनोवैज्ञानिक पक्ष समझने को मिलेगा|

आचार्य  निरंजन सिन्हा 

बुद्ध और बुद्धि

  विशिष्ट बुद्धि वाले व्यक्ति को बुद्ध कहा जाता रहा है| बुद्ध और बुद्धि में बहुत गहरा संबंध है और यह संबंध भी प्रत्यक्ष है| दरअसल बुद्ध एक ...