शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

आपकी ‘सकारात्मक एवं सृजनात्मक आयु’ कितनी है?

वैसे तो आयु का सामान्य अर्थ शारीरिक आयु से ही लिया जाता है, लेकिन विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार इन (आयु) अर्थो का भी विकास होना चाहिए| इसीलिए शारीरिक आयु के अलावे ‘बौद्धिक’ आयु (Intelligence Age), ‘सकारात्मक’ आयु (Positive Age), सृजनात्मक’ आयु (Creative Age), ‘आध्यात्मिक आयु’ (Spiritual Age) आदि आदि भी हो सकता है| शारीरिक आयु की एक विशेषता है, कि इसे सभी पशु एवं जीव भी जी लेते हैं, परन्तु सकारात्मक आयु एवं सृजनात्मक आयु आदि सिर्फ मानव ही जीते हैं| शारीरिक आयु को कालानुक्रमिक आयु (Chronological Age) भी कहते हैं, क्योंकि इसकी गिनती उसके जन्म के समय से ही की जाती है| ध्यान रहे कि जो सकारात्मक एवं सृजनात्मक जीवन जीते हैं, उनके शरीर के नष्ट हो जाने यानि उनके मर जाने के बाद भी वर्तमान और भविष्य इसी सकारात्मक एवं सृजनात्मक जीवन को याद रखते हैं; इस तरह ही एक मानव अमर हो सकता है|

एक शारीरिक आयु जीने के लिए किसी भी पशु या जीव को सिर्फ शारीरिक अस्तित्व बचाने के लिए ही उपाय करने होते हैं| ध्यान रहे कि मानव भी प्राकृतिक रूप में एक पशु ही है, लेकिन अपनी चिंतन की प्रणाली एवं क्षमता से यह पशु से अलग हो गया| ‘चिंतन’ क्या है और क्या एक पशु चिंतन नहीं करता? ‘अपनी सोच’ पर फिर ‘सोच’ करना ही ‘चिंतन’ है| एक पशु सोच तो सकता है, परन्तु अपनी सोच पर फिर सोच नहीं सकता| तो शरीरिक आयु के लिए वायु, जल, भोजन के अतिरिक्त प्राकृतिक एवं अन्य आपदाओं से सुरक्षा की कुछ आवश्यकता होती है| इन सुरक्षाओं में कपड़ा, आवास आदि शामिल है| स्पष्ट है कि जो भी जीव सिर्फ शारीरिक आयु ही जीना चाहते हैं या जीते हैं, वे एक साधारण पशु के समान हैं| एक पशु भी प्रजनन करता है, उत्पन्न बच्चे का लालन पोषण अपनी क्षमता से करता है, और शेष जिंदगी इसी को देखते हुए गुजार देता है| यदि कोई ‘दो पैरो पर चलने वाला’ और अपने को ‘बौद्धिक’ समझने वाला पशु अपने को भी एक मानव ही कहे, तो हमें कुछ विचार करने के लिए रुकना चाहिए|

हमें एक मानव को परिभाषित करने के लिए उसकी ‘सकारात्मक’ एवं ‘सृजनात्मक’ आयु देखनी ही होगी| ‘सकारात्मकता’ से सन्दर्भ प्रकृति के सामंजस्य में मानव प्रजाति के विकास के समर्थन में सक्रियता के साथ आना या खड़ा होना है| लेकिन ‘सृजनात्मकता’ से सन्दर्भ पहले से ही समाज या मानवता या प्रकृति के बेहतरी के लिए किये जाने वाले प्रयास या कार्य में कुछ नया जोड़ना है| इस ‘सृजनात्मक आयु’ को किसी की ‘रचनात्मक आयु’ भी कह सकते हैं| किसी की ‘सृजनात्मक आयु’ में सिर्फ किसी तंत्र या किसी व्यवस्था के समर्थन में किसी का आना या खड़ा होंना नहीं है, अपितु कुछ अतिरिक्त जोड़ना होता है| यह जोड़ना सिर्फ उत्पादन करना नहीं होता है, बल्कि किसी भी चीज में परिमार्जन (Modification), संशोधन (Correction), शुद्धिकरण (Purification), सुधार (Rectification), संवर्धन (Improvement), परिवर्तन (Change) आदि भी हो सकता है| ऐसा करने के लिए पूर्ववर्ती अवस्था (Stage) या व्यवस्था (Organization) या तंत्र (System) या प्रणाली (Method) या क्रियाविधि (Mechanism) की संरचना में पुनर्गठन (Re Organization), पुनर्विन्यास (Re Orientation), पुनर्संयोजन (Re Combination), पुनर्संरचना (Re Structure), पुनार्व्यव्स्थापन (Re Arrangement), के अलावे उसका पृष्ठभूमि (Bachground) एवं/ या सन्दर्भ (Reference) बदलना भी हो सकता है|

यानि मानव के बेहतरी के लिए किये गए उपागम (Approach), प्रयास (Effort), कार्य (Work), में सक्रिय योगदान देने वाले ही “मानव” होंगे| बाकि किस श्रेणी के जीव होंगे, वह कोई खुद तय कर सकता है| अर्थात मानव के बेहतर भविष्य सुनिश्चित हो सकने में किसी का योगदान ही उसके एक मानव होने की पहचान होगी| जब कोई मानव अपने विचार एवं कार्य में अपने संक्षिप्त परिवार के अतिरिक्त वृहत समाज, या राष्ट्र या सम्पूर्ण मानवता या सम्पूर्ण प्रकृति को समाहित कर लेता है, तो वह मानव एक पशु के स्तर से ऊपर उठ जाता है|

लेकिन मानव का बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने के नाम पर समाज में घूम रहे तथाकथित ढोंगी, खतरनाक एवं षड्यंत्रकारी ठेकेदारों से भी सावधान रहना है, जो इसी मूलभुत आवश्यकता को भावनात्मक स्वरुप देकर आपका समय, संसाधन, धन, उत्साह, जवानी और ऊर्जा पर डाका डाल रहा है| आपको ऐसे ठेकेदारों को भी पहचाना चाहिए, जो समाज में ऐसे हवा- हवाई प्रमाण पत्र बाँटते रहते हैं, और भावनात्मक अपील भी करते रहते हैं| ध्यान से देखिए और विचार करिए कि ऐसे ठेकेदार कौन हैं?

कोई भी अपने उम्र के विभिन्न पड़ाव यथा शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं युवावस्था तक तो अपने शरीर के ही समुचित गठन एवं समझ को विकसित करने में लगा रहता है| इन अवस्थाओं के बाद ही युवावस्था, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था आती है| समाज में सकारात्मकता एवं सृजनात्मकता की नीव तो प्रथम चारो अवस्थाओं में ही पड़ जाती है और विकसित होने लगती है, परन्तु सजग प्रयास से यह अवस्था प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था में भी विकसित होती है और कार्यान्वित दिखती है| चूँकि समाज में सकारात्मकता एवं सृजनात्मकता की नीव शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं युवावस्था में ही पड़ती है, लेकिन यह कार्यान्वित तो प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था में ही होती है, और इसीलिए इस अवस्था को कोई भी कभी भी पा सकता है| अर्थात एक मानव में प्रभावी रचना यानि सृजन शक्ति एवं क्षमता प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था में ही आती है, इसलिए आप इसके लिए सदैव उपयुक्त हैं, बशर्ते आप एक जीवित मानव हैं| ध्यान रहे, मैं पशुओं और मृत मानवों (जीवित लाश) की बात नहीं कर रहा|

जब किसी की रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था में ही आती है, तब उसकी सकारात्मक आयु एवं सृजनात्मक आयु भी उसी अवस्था से शुरू होगी| यानि इस गणना में उसकी उस आयु की गणना नहीं होगी, जो उसके शारीरिक एवं बौद्धिक गठन की नीव डालने में गुजर गयी| अर्थात किसी की सकारात्मक एवं सृजनात्मक आयु  25 वर्ष से, तो किसी की 30 वर्ष से, तो किसी की 35 वर्ष से शुरू होती है और यह किसी की किसी भी उम्र में शुरू ही नहीं होती है, और वह पशुवत ही मर भी जाता है| अर्थात सकारात्मक आयु एवं सृजनात्मक आयु की गणना का सन्दर्भ बिंदु यानि प्रारंभ बिंदु उसके शारीरिक एवं बौद्धिक गठन के बाद से ही शुरू होता है|

इसी शारीरिक आयु के साथ जुड़ा हुआ ही ‘मानसिक आयु’ (Mental Age) एवं ‘अध्यात्मिक आयु’ (Spiritual Age) है| मानसिक आयु को ही बौद्धिक आयु भी कहते हैं| हम जानते हैं कि किसी की ‘चेतना’ (Consciousness) उसकी शारीरिक अवस्था की ऊर्जा से ही संपोषित एवं संरक्षित होती है, और इसीलिए किसी के शरीर के नष्ट हो जाने से उसकी चेतना भी नष्ट हो जाती है| ध्यान रहे कि किसी का चेतना किसी का मन (Mind) कहला सकता है, किसी का आत्म (Self) कहला सकता है, किसी का Spirit हो सकता है, लेकिन यह किसी का ‘आत्मा’ (Soul) नहीं हो सकता है| यह चेतना उसका मस्तिष्क भी नहीं है, यानि किसी का मन (Mind) और उसका मस्तिष्क (Brain) का अलग अलग अस्तित्व है| और यह भी ध्यान रहे कि ‘आत्मा’ की संकल्पना सामन्ती यथास्थितिवादियों ने यथास्थितिवाद को बनाए रखने के लिए किया है, जो पुनर्जन्म, कर्मवाद, नित्यवाद एवं ईश्वर से जुड़ा हुआ है| यह चेतना का स्तर ही किसी मानव को बौद्धिक मानव एवं आध्यात्मिक मानव बनाता है| स्पष्ट रहे कि ‘आत्मा’ एक बौद्धिक षड़यंत्र एवं घोटाला है| तो चेतना क्या है?

चेतना (Consciousness) किसी भी जीव या मानव विशेष का एक विशिष्ट ‘ऊर्जा आव्यूह’ (Energy Matrix) है, जो उसके शरीर की उर्जा से संपोषित होता रहता है और उसके अनुभव, ज्ञान एवं समय के साथ -साथ विकसित होता रहता है, लेकिन यह उसके मस्तिष्क (Brain) की क्रिया प्रणाली से अभिव्यक्त होता है और अपने संपर्क में आए अन्य ऊर्जा से अनुक्रिया एवं प्रतिक्रिया करता रहता है| चूँकि यह चेतना अनुभव एवं समय के साथ विकसित होता है, इसलिए चेतना अन्य पशुओं एवं जीवन में भी पाया जाता है| लेकिन ज्ञान चूँकि चिंतन एवं मनन से आता है, इसीलिए  मानव एक विशिष्ट चेतना ग्रहण करता है, जो उसे बौद्धिक जीव बनाता है| मानव की यही चेतना (यानि आत्म) जब अनन्त प्रज्ञा से जुड़ जाती है, तो वह व्यक्ति आध्यात्मिक (अधि यानि ऊपर एवं आत्म) बन जाता है| अनत प्रज्ञा से लिया गया अंतर्ज्ञान (Intution), अंत:प्रज्ञा, आभास (Instinct), अनुमान आदि ही विशिष्ट ज्ञान बनता है| इसीलिए एक वैज्ञानिक भी एक आध्यात्मिक मानव है| प्रचलित बाबाओं का आध्यात्म से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि उनकी इस आध्यात्मिक शक्ति एवं क्षमता में सामाजिक सृजनात्मकता दिखनी चाहिए, जो नहीं दिखती है, अर्थात उसका नितांत अभाव होता है|

अब आपको स्पष्ट हो गया होगा कि किसी को सकारात्मक आयु एवं सृजनात्मक आयु पाने के लिए शारीरिक आयु के साथ -साथ अनुभव एवं ज्ञान भी प्राप्त करना आवश्यक है|

अर्थात

यदि किसी को एक पशु से अलग एक मानव बनना है,

तो उसे अनुभव एवं ज्ञान अर्जित करना ही होगा, और सृजनात्मक बनना ही होगा|

ज्ञान को कभी संस्थागत शिक्षा से नहीं जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि ज्ञान का सर्वोच्च स्तर पाने के लिए किसी व्यक्ति को एक शिक्षक एवं एक शिक्षार्थी, दोनों की ही भूमिका में आना होता है|

तो चलिए विचार करें कि

हमें सकारात्मक एवं सृजनात्मक आयु प्राप्त करना चाहिए या नहीं?

यानि हमें सच्चे अर्थो में एक मानव होना चाहिए या नहीं ...........

आचार्य निरंजन सिन्हा 

2 टिप्‍पणियां:

  1. लाजवाब लेख के लिए आप को बहुत बहुत आभार। शिक्षा का एक नया एवं साकारात्मक आयाम मिला है।

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  2. अति सुन्दर आलेख। आपने इस आलेख के माध्यम से बहुत ही सरल एवं तर्कपूर्ण ढंग से मानव होने का वास्तविक अर्थ समझाया है।आप जैसे मूर्धन्य मौलिक विचारक ही भारत भूमि को पुनः विश्वगुरु बनने की दिशा में अग्रसर कर सकते हैं। आचार्य जी को इसके लिए बहुत बहुत साधुवाद।

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