मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता हूँ कि भारतीय
विद्वान भारत की सामाजिक संरचना, सामाजिक
स्तरीकरण एवं सामाजिक प्रक्रियाओं को ढंग से समझते हैं या नहीं समझते हैं या
समझ कर भी नहीं समझना चाहते हैं, परन्तु यह तो स्पष्ट है कि वे इस सामाजिक संरचना, सामाजिक
स्तरीकरण एवं सामाजिक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक एवं समुचित व्याख्या नहीं कर रहे
हैं| जब हम सामाजिक परिवर्तन का सम्यक विश्लेषण कर इसकी सम्यक क्रियाविधि को समझेंगे,
तो सामाजिक संरचना एवं स्तरीकरण के वास्तविक स्वरूप को साधारण ढंग से एवं सरलता से
समझना संभव होगा| आज के परिदृश्य के अनुसार भारतीय समाज का स्तरीकरण चार वर्ण में है, और निम्न वर्ण – शुद्र में कई हजार स्तरीकरण बताए जाते हैं| यह वर्तमान प्रचलित अवधारणा पूर्णतया गलत,
अवैज्ञानिक और हवा हवाई है| यह भारत में एक बहुत बड़ा बौद्धिक षड़यंत्र हैं, जिसे
हमें और पश्चिम को भी समझना चाहिए|
प्रश्न यह है कि भारतीय समाज की जनजातीय आबादी,
जो देश की मुख्य धारा से दूरस्थ एवं अगम्य क्षेत्रों में रहती हैं, इस चातुर्यवर्ण के किस
वर्ण में आती हैं, और उसका क्या तार्किक आधार है? इसे समझने की जरुरत है| भारतीय समाज के धार्मिक
अल्पसंख्यक समूह, जिनकी आस्था विदेशों में उत्पन्न धार्मिक स्वरूपों में है, इस
चातुर्यवर्ण के किस वर्ण में आते हैं और ऐसा क्यों? भारतीय समाज के अनुसूचित जाति
समूह के सदस्यों को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया, अर्थात उनको भारतीय समाज के तथाकथित
वर्ण व्यवस्था से बाहर मान लिया गया, तो उनको अब वर्ण व्यवस्था में किस प्रयोजन से, यानि किस लाभ से लिया जा रहा है? मैं यह नहीं कहना चाहता हूँ कि
इसे चुनाव की संख्या के खेल से ही जोड़ कर देखा जाय, परन्तु भारतीय जनजातीय आबादी
और भारतीय धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में क्या कहना चाहिए? स्पष्ट है कि यह
अवधारणा सामाजिक संरचना एवं स्तरीकरण को सही एवं समुचित ढंग से व्याख्यापित नहीं
करती है, और इसीलिए ऐसी अवधारणा अवैज्ञानिक है एवं उपयुक्त नहीं है| इसे उपयुक्त
ढंग से समझने से पहले सामाजिक प्रक्रियाओं को भी समझ लें, फिर समेकित रूप में इसकी
समुचित व्याख्या की जायगी|
सामाजिक प्रक्रियाओं में सामाजिक सहयोग,
प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के आपसी सम्बन्ध आते हैं| सरल (संरचना की प्राथमिक अवस्था)
एवं साधारण (उद्विकास की निम्नतर अवस्था) समाजों का अध्ययन यह स्पष्ट करता है, कि
मानव स्वभाव से ही प्रतियोगी और संघर्ष प्रवृति का नहीं होता है| वास्तव में समाज
में अर्थात सामाजिक प्रक्रियाओं में व्यवस्था भी होती है और उसके अंतर्गत सामाजिक परिवर्तन
भी होता रहता है| सामाजिक प्रक्रियाओं में सामाजिक व्यवस्था और उसके अंतर्गत
परिवर्तन के कारण ही सामाजिक प्रक्रियाओं में संस्थागत (Institutitionalised) स्वभाव
एवं प्रवृति आ जाती है, यानि रहती है| सामाजिक परिवर्तन क्या है? समाज में
संरचनात्मक बदलाव तथा विचारों, मूल्यों, एवं मान्यताओं में बदलाव ही सामाजिक परिवर्तन है|
भारतीय समाज को सही एवं सम्यक ढंग से समझना आसान
नहीं है| भारत एक उपमहाद्वीप है, जो किसी भी प्रकार से विविधता, क्षेत्र एवं जनसंख्या की विशालता के मामले में यूरोप की विशालता एवं विविधता से किसी भी तरह कम नहीं है| भारत में विभिन्न
मूल्यों (Values) एवं प्रतिमानों (Norms) के होते हुए भी एक अलग एवं विशिष्ट
संस्कृति है, जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं, और यही संस्कृति भारत को विविधता में
एकता प्रदान करती है| भारत का एक अलग सामाजिक विश्व होना, यह स्पष्ट करता है कि भारत और
भारतीय समाज को वैसे नहीं समझा जा सकता है, जैसे यूरोप एवं यूरोपीय समाज को समझा
गया है, या समझने का प्रयास किया जाता है| यह सही है कि सामाजिक परिवर्तन की
गत्यात्मकता (Mobility) को समझने में हमें भी कार्ल मार्क्स, एमिल दुर्खाइम एवं
मैक्स वेबर के सामाजिक उपकरणों (Tools) एवं सामाजिक अवधारणाओं (Concepts) का उपयोग
करना चाहिए, क्योंकि सम्पूर्ण मानव एवं उसके द्वारा निर्मित संस्थाओं की मौलिक प्रकृति
एक ही है|
ऐसा इसलिए है कि वर्तमान मानव होमो सेपिएन्स
सेपिएन्स (Homo Sapiens Sapiens) है, जो आज से कोई एक लाख साल पहले अफ्रीका के वोत्सवाना के मैदान में होमो सेपिएन्स (Homo Sapiens) से विकसित हुआ और क्रमश: सारे
विश्व में फ़ैल गया| सभ्यता एवं संस्कृति के उद्विकास के शुरूआती चरण, यानि बौद्धिक
विकास के चरण एवं स्तर एक जैसे ही रहे, भले ही उन्नतता का स्तर भिन्न भिन्न
रहा| लेकिन मध्यकाल ने भारत की स्थितियों में अपने पर्यावरण (प्रकृति एवं पारिस्थितिकी),
तकनीकी, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के अनुरूप, भारतीय समाज को इसकी
संरचना एवं स्तरीकरण के मामले में उसे शेष विश्व जगत से अलग कर दिया। पश्चिम ने सजग प्रयास कर अपने
समाज से मध्यकाल का सामन्ती प्रभाव, जो सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप में समाज को
जकड़े हुए था, को समाप्त कर दिया और इसीलिए
वह विकास एवं समृद्धि में काफी अलग एवं आगे निकल गया| परन्तु भारत ने सजग प्रयास कर
अपने समाज से मध्यकाल के सामन्ती प्रभाव को समाप्त नहीं किया है, और यह प्रभाव भारतीय
समाज को आज भी सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से जकड़े हुए है| इसीलिए भारतीय समाज को
भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही समझना चाहिए, अन्यथा इसके विकास एवं समृद्धि के लिए
किया गया सारा प्रयास एक वृहत नाटक ही साबित होकर रह जायेगा|
ध्यान दीजिए, भारत का अपेक्षित सामाजिक विकास
अभी भी नहीं हो रहा है, और पहले भी नहीं हुआ है| आप भारतीय सामाजिक विकास को किन्हीं भी वैश्विक मानकों पर जाँच लीजिए, और उसका वैश्विक तुलनात्मक अध्ययन कर लीजिए, सच्चाई आपकी समझ में आ जायगी| मैं
तथाकथित आर्थिक विकास और उनके आंकड़ों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो भारत की वृहत
आबादी के “खाने एवं पचाने” की क्षमता से सम्बन्धित है, यानि भारत के बाजारू उपभोग
क्षमता पर आधारित है| मैं सामाजिक विकास यानि सम्पूर्ण समाज के विकास की बात कर
रहा हूँ| "सरकना" (अति मंद गति या स्वाभाविक गति से बदलना) को विकास नहीं माना जाना
चाहिए| सरकना वैश्विक विकास दर से भी कम को कहा जाता है| वस्तुत: हम वैश्विक मानकों में तुलनात्मक
रूप में नीचे की ओर सरकते जा रहे हैं|
यूरोप की सामाजिक व्याख्या में कई
राष्ट्रीयताओं ने अपनी योग्यता आधारित अध्ययनों एवं शोधों के कारण अपनी सामाजिक
संरचना, स्तरीकरण एवं प्रक्रियाओं को समझा, उसका विश्लेषण किया, उसकी बीमारी को
पहचाना और उसका सम्यक ईलाज किया| परन्तु भारत में भारतीय समाज की सामाजिक संरचना,
स्तरीकरण एवं प्रक्रियाओं को एक ही राष्ट्रीयता के एक ही समूह या वर्ग, जिसका योग्यता और कौशल जन्म आधारित रहा, ने व्याख्यापित किया| यह वैश्विक मनोवैज्ञानिक
कटु सत्य है कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्राप्त एवं सम्पूर्ण जन्म आधारित
योग्यता पर आधारित सामाजिक समूह या वर्ग अपने विशेषाधिकार को अपनी अगली पीढ़ी को
सौपना चाहता है| यही मनोवैज्ञानिक स्थिति यथास्थितिवाद को मजबूती देती हैं और
सामाजिक बदलाव का मौलिक रूप में विरोध करती हैं, भले ही ऐसी मानसिकता वाले लोग चाहे कितनी भी बड़ी बड़ी
बातें कर लें| यही सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्राप्त एवं सम्पूर्ण जन्म आधारित
योग्यता वाले वर्ग या समूह सामाजिक एवं राजनैतिक शक्ति के केंद्र यानि सता पर
काबिज हैं| अपनी इसी मानवीय स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक बाध्यता के कारण ये समूह
अपने समूह या वर्ग को ही राष्ट्र समझ लेते हैं, और शेष वृहत समाज की व्यापक क्षमता
का सदुपयोग नहीं होने देते हैं| परिणामत: देश को जहाँ पहुँचना चाहिए, आज वह उससे कोसों
दूर रह गया है| इसीलिए हमारी पीड़ा एक राष्ट्रीय पीड़ा है, जो वृहत मानवता को
लाभान्वित करने से वंचित किए जाने से सम्बन्धित है|
यही सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्राप्त
एवं सम्पूर्ण जन्म आधारित योग्यता वाले भारतीय वर्ग या समूहों ने भारतीय समाज की
ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक व्याख्या की, जिसका आधार ग्रन्थ भी उन्होंने ही तैयार
किया था| इन आधार ग्रंथो को भी उन्होने ही मध्य काल में लिखे, जो निश्चितया ही
भारत में कागज के व्यापक प्रचलन होने पर ही किया, भले ही वे उसके रटते हुए निरंतरता का
दावा कई हजार वर्ष पहले का बता दें| भारतीय समाज की व्याख्या का सारा आधार कागजी
है, जो कागज के चीन में आविष्कार होने और उसके बाद अरब होते हुए भारत आगमन के बाद
का ही है| इन कागजी ग्रंथों या संदर्भो के सम्बन्ध में यादाश्त (रटन्त निरन्तरता) की सारी कहानी फर्जी
है, क्योंकि इसके समर्थन में कोई प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है| इस तरह कोई
भी ऐसा कागजी सन्दर्भ या साक्ष्य प्राचीन काल का बताया जाना प्रमाणिक नहीं हो सकता
है, और प्राथमिक भी नहीं हो सकता है|
तो हमलोग भारत की सामाजिक संरचना, सामाजिक
स्तरीकरण एवं सामाजिक प्रक्रियाओं को समझें| सामाजिक संरचना व्यक्ति को अवसर देती है, लेकिन यह व्यक्ति को एक ख़ास भूमिका में भी बाँध देती है| इस तरह सामाजिक
संरचना एक विशिष्ट प्रतिरूप (Pattern) लिए एक निश्चित नियमितता (Regularity) की
व्यवस्था है| मतलब इसमें प्रतिरूप की यानि संरचना की ख़ास अभिविन्यास (Orientation)
की नियमितता है| प्रतिरूप का यानि संरचना का ख़ास अभिविन्यास ही समाज के किसी खास
व्यक्ति को कोई खास एवं निश्चित भूमिका देता है| संरचना की ख़ास अभिविन्यास की
नियमितता का अर्थ हुआ कि, हर बार वैसे लोगों को ही वही भूमिका मिलती रहेगी, अर्थात
उनकी भूमिकाओं में नियमितता (Regularity) बनी रहेगी| इस तरह सामाजिक संरचना मानवीय क्रियाओं और
उनके आपसी सम्बन्धों से बनती है एवं संचालित होती है| स्पष्ट है कि एक समाज
व्यक्तियों के संयुक्त स्वरुप से बहुत कुछ ज्यादा होता है, क्योंकि समाज में
कार्यों को कठोरता से कराने की क्षमता होती है, अर्थात सामाजिक संरचना अपने सदस्यों
की क्रियाओं की दिशा एवं दशा पर नियंत्रण रखती है|
सामाजिक स्तरीकरण का तात्पर्य समाज के समूहों के बीच उनकी
संरचनात्मक असमानताओं के निर्धारण से है| यह स्तरीकरण जीवन के अवसर, सामाजिक
प्रस्थिति, धन, शक्ति एवं राजनैतिक प्रभाव से अभिव्यक्त होता है| इस क्षेत्र में
पश्चिम में जहाँ ‘वर्ग’ महत्वपूर्ण है,
वहीं भारत में ‘वर्ण’ एवं ‘जाति’ महत्वपूर्ण हैं| पश्चिम में किसी की ‘वर्ग’
प्रस्थिति उसके वर्तमान जीवन में कभी भी बदल सकती है, परन्तु भारत का वर्ण एवं
जाति किसी व्यक्ति के इसी जीवन में कभी नहीं बदलता है| इसीलिए पश्चिम में वर्ग का आधार
आर्थिक गतिविधियों का विस्तार, श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण है, यानि योग्यता एवं
कौशल है| वहीं भारत में सामाजिक स्तरीकरण का आधार जन्म के सामाजिक समूह ही हैं और यहाँ वर्तमान जीवन में अर्जित योग्यता एवं कौशल को प्राथमिकता नहीं है| इस तरह भारत का सामाजिक
स्तरीकरण पश्चिम के स्तरीकरण से सर्वथा भिन्न है| इसीलिए भारत के यथास्थितिवादी
विद्वान इस स्तरीकरण का अपने समूह हित में व्याख्या करते रहे हैं और आज भी कर रहे
हैं| आप ध्यान देंगे कि भारतीय ‘साड़ी’ एवं ‘धोती’ शब्द को अंग्रेजी में ऐसे ही रहने
दिया गया, परन्तु भारतीय “जाति” को अंगेजी में पुर्तगाली शब्द “कास्ट” (Caste) कर दिया
गया, जो एक ही जीवन में बदलता रहता है, जबकि भारत में किसी की “जाति” एक जीवन में कभी नहीं
बदलती| अत: पश्चिम को भारतीय समाज की इस सच्चाई से अँधेरे में रखने के इस बौद्धिक षड़यंत्र को गंभीरता से समझने की जरुरत है|
भारतीय समाज में मध्य काल में सामन्ती व्यवस्था
ने यानि ऐतिहासिक आर्थिक शक्तियों ने एक नयी राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था
एवं तंत्र को जन्म दिया, जो समय के साथ विकसित होता गया और आज भी अपने कई स्वरूपों
में मौजूद है| इस सामन्ती व्यवस्था से भारतीय समाज का दो भागों में विभाजन हो गया - एक शासक
वर्ग और दूसरा शासित वर्ग| अर्थात एक शोषक वर्ग हुआ और दूसरा शोषित वर्ग हुआ| मतलब
दोनों की अवस्था एवं विन्यास को एक दूसरे का सहयोगात्मक होते हुए भी संघर्षरत माना जा
सकता है| इसे आप प्रकार्यवादी (Functionalist) नजिरिये से देखें या प्रकृतिवादी (Naturalist)
नजरिये से देखें, मैं इसमें नहीं पड़ना चाहता हूँ| दोनों वृहत समूह एक दूसरे के
पूरक थे, अर्थात दोनों ही संयुक्त रूप में देश एवं समाज का सञ्चालन कर रहे थे या
सञ्चालन में सहयोग दे रहे थे|
शासक व्यवस्था “वर्ण” व्यवस्था कहलाया और शासित
व्यवस्था “जाति” व्यवस्था हुआ| अर्थात एक “वर्ण” व्यवस्था हुआ और दूसरा उसके
सामानांतर ही “अवर्ण” व्यवस्था हुआ| “वर्ण” व्यवस्था में एक पुरोहित यानि पुजारी
वर्ग (ब्राह्मण) हुआ, दूसरा शासक (क्षत्रिय) वर्ग हुआ, तीसरे वर्ग में व्यापारी (वैश्य)
वर्ग को मान लिया गया और चौथे वर्ग में उनके व्यक्तिगत सेवक यानि नौकर (क्षुद्र या
शुद्र) थे| मध्यकाल में शासक वर्ग अपने सामन्ती संघर्षो एवं उलझनों में घिरा हुआ
रहा और इसी कारण शासक वर्ग को अपने इतिहास एवं अन्य लेखनों के लिए समुचित समय नहीं
मिला| इस लेखन कार्य को शिक्षित पुजारी वर्ग कर रहा था और इसी कारण शासक वर्ग की
सर्वोच्चता के बावजूद लेखन में अपने वर्ग को चालाकी पूर्वक सर्वोच्च स्थान निर्धारित कर लिया|
व्यापारी वर्ग अपनी गतिशीलता, अपने अंतर्देशीय संपर्क, धन की प्रचुरता एवं क्षेत्रीय
शासकों को ऋण उपलब्ध करने के क्षमता के कारण समाज में विशिष्ट रहा, और इसी कारण
उसे वर्ण व्यवस्था का भाग मान लिया गया| शुद्र दरअसल उनके व्यक्तिगत सेवक थे, जिनकी
संख्या सदैव सम्पूर्ण आबादी की तुलना में नगण्य रही (आज भी 20 -25 सदस्यों के संयुक्त
परिवार में 2 या 3 ही व्यक्तिगत सेवक होते हैं)| इसी नगण्यता को यानि संख्या के अति
अल्प होने के कारण इन्हें “क्षुद्र” (KShudra) कहा गया, जो कालांतर में “शुद्र” (Shudra) के
रूप में प्रचलित हुआ| अपनी नगण्य संख्या एवं नगण्य भूमिका के कारण ही इनका सामाजिक स्वरूप ब्रिटिश
काल में विलुप्त हो गया, और इसीलिए आज यह उपलब्ध भी नहीं हैं| मैं इन “व्यक्तिगत
सेवकों” के वंशजों के दावेदारों पर कुछ नहीं कहना चाहता|
“अवर्ण” व्यवस्था में “जाति व्यवस्था” है| यह “जाति”
व्यवस्था श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण के कारण हुई, जो क्षेत्रीय भाषाओ एवं समयकाल
के अनुसार विभिन्न नामों से जानी जाती है| यही वस्तुओं के उत्पादक रहे और सेवाओं
के प्रदाता भी रहे, जिन पर सम्पूर्ण समाज की अर्थव्यवस्था टिकी हुई थी| जहाँ वर्ण
व्यवस्था में आपसी पदानुक्रम (Hierarchy) बताया जाता है, यानि एक दूसरे को ऊपर - नीचे
बताने का एक झूठा प्रयास किया गया है, वहीं जाति व्यवस्था में ऐसा कोई ऊपर - नीचे का
क्रम कभी नहीं पाया गया, भले ही बाद के काल में कार्य विशेष की प्रकृति, परिवेश
एवं सफाई के सन्दर्भ में उसे कुछ अन्यथा मान लिया गया हो| जहां वर्ण व्यवस्था में हर
एक वर्ण में एक ही पेशा रहां, जिसे आज जाति कहने का प्रयास किया जाता है, और इसी क्रम
में “राजपुत्रों” को ‘राजपूत’ कहा जाने लगा| वहीं जाति व्यवस्था में एक जाति के लिए एक ही
पेशा रहा| परन्तु यह निर्धारण कभी जकड़ा हुआ नहीं रहा, यानि सेवा प्रदाता भी वस्तु उत्पादक
रहे और वस्तु उत्पादक भी सेवा प्रदाता रहे, भले प्रमुखता किसी एक ही पेशे की रही, जो
उसकी विशेषज्ञता के कौशल से होती थी|
आज भले ही तथाकथित विद्वानों ने लोकतंत्र की निर्वाचन
पद्धति की कुछ आवश्यकताओं के कारण सामाजिक संरचना, सामाजिक स्तरीकरण एवं सामाजिक
प्रक्रियाओं की व्याख्या को जान - बूझ कर उलझा दिया है| इस व्याख्या के समर्थन के सारे ग्रन्थ
मध्यकालीन और कागजी हैं, जिन्हें मध्य काल में ही रचित किया गया है| इनकी पुरातनता की
सच्चाई महज एक ऐतिहासिक झूठ है, जिसका कोई भी प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है|
इन सब बातों पर आप भी गंभीरता से विचार कर सकते हैं, और किसी निष्कर्ष पर आ सकते हैं|
निरंजन सिन्हा
भारत में आठवीं से बारहवीं सदी के मध्य सामंतवादी अर्थव्यवस्था के उद्भव एवं विकास के संदर्भ में भारत की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का एक बहुत ही तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है, आदरणीय आचार्य निरंजन सिन्हा जी ने।
जवाब देंहटाएंइस अप्रतिम एवं सारगर्भित शोधपरक आलेख के लिए वे बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं।
सुंदर और सारगर्भित आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत ही वैज्ञानिक एवं सारगर्भित विश्लेषण है,आपका ये आलेख। बहुत बहुत बधाईसर!
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