यह एक कटु
सत्य है कि भारतीय भारत छोड़ रहे है, परन्तु क्यों? क्या पहले नहीं छोड़ रहे थे? पहले भी छोड़ रहे
थे, और आज भी छोड़ रहे हैं, छोड़ने की दर भले ही भिन्न भिन्न रही हों| मैं किसी काल विशेष पर
दोषारोपण नहीं कर रहा, परन्तु स्थिति की भयावहता को रेखांकित करना जरुरी है| वर्तमान
आंकड़ों के अनुसार प्रति दिन की दर से कोई 500 भारतीय दूसरे देशों की नागरिकता
ले रहे हैं, यह आंकड़ा शायद भारत सरकार का ही है| वर्तमान में बताया जाता है कि
ये "विदेशी भारतीय" कोई 8 लाख करोड़ रूपये से भी
ज्यादा की धन राशि प्रत्येक वर्ष भारत भेज रहे हैं, जो भारतीय सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का तीन प्रतिशत होता है| वर्तमान में पुर्तगाल (एंटोनियो कोस्टा), आयरलैंड (लिओ
वराडकर) और ब्रिटेन (ऋषि सुनक) के शासनाप्रमुख भी भारतीय मूल के हैं| कोई तीन करोड़ से भी ज्यादा (3.21 करोड़) भारतीय अन्य देशों
में रह रहे हैं| कई प्रमुख वैश्विक कंपनियों के प्रमुख भी भारतीय ही
हैं| ऐसे गुणवान लोग यदि भारत भूमि पर ही रहते, तो
भारत को कई गुना और अधिक देते, जिसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता| मतलब
किसी भी एक देश के लोग, जो दुसरे देशों में जाकर बस गए हैं, - के मामले में भारत
पहले नम्बर पर है| क्या ये सब भारत की नियोजन नीति के अंतर्गत शासकीय प्रयास से गए
हैं?
क्या
ये सब तथ्य भारतीय गौरव की बात है? या भारतीय दुर्भाग्य की बात है? क्यों?
ऐसे लोगों
को ‘प्रवासी भारतीय’
(Indian Diaspora) कहते हैं,
जिनकी जड़ें तो भारत में है, लेकिन ये अब भारतीय नागरिक नहीं हैं| इन्हें भारत एवं भारतीय
संस्कृति से जोड़ने हेतु हर वर्ष 09 जनवरी को “प्रवासी भारतीय दिवस”
मनाया जाता है, जिसका 17 वां आयोजन इसी वर्ष 2023 में इंदौर में किया गया| इन्हें अब “विदेशी भारतीय” (Overseas Indian) कहते हैं,
जिनमे ‘अप्रवासी भारतीय’ (NRI – Non Resident
Indian) और ‘भारतवंशी’ (PIO – Persons of
Indian Origin) शामिल कर लिए गये हैं| ‘अप्रवासी भारतीय’ उन्हें कहते
हैं, जो विदेशी भूमि पर 183 दिन या उससे अधिक दिन रहता है, और ‘भारतवंशी’ वह है,
जिसके कोई पूर्वज भारतीय रहे हों|
इन घटनाओं एवं
स्थितियों को कई व्यक्तियों, समूहों एवं तंत्रों द्वारा गौरान्वित किया जाता है, परन्तु
इसे दुसरे नजरिये से देखने एवं विश्लेषण करने और समझने की भी जरुरत है| जब यह स्थिति गौरान्वित करने वाली है, तो हम क्यों ‘अप्रवासी
भारतीयों’ को यह समझाने में लगे हैं कि उनकी अपने पूर्वजों के देश या अपने मूल देश
के प्रति कुछ जिम्मेवारी बनती है, और उन्हें यह जिम्मेवारी निभानी चाहिए? यह भावना पैदा किया जाना या यह अहसास दिलाया
जाना गलत नहीं है, परन्तु ये स्थितियाँ क्यों आई? क्या भारत में ‘विदेशी अमेरिकी’,
‘विदेशी चीनी’, विदेशी जापानी’, ‘विदेशी ब्रिटिश’, ‘विदेशी जर्मन,’ या ‘विदेशी फ्रेंच’
रहते हैं? ये भारत भूमि पर नहीं रहते, क्योंकि उनका यहाँ रहना उनके लिए शर्म की
बात है, तो यह हमारा राष्ट्रीय गौरव कैसे हो सकता है? ये अमेरिकी, चीनी,
जापानी, ब्रिटिश या फ्रेंच आदि लोग अपने उपभोग से बचे राशि को अपने देश के
सहायतार्थ भेजने में विश्वास नहीं करते हैं, अपितु अपने ही देश में रह कर उस भूमि
के समुचित एवं सम्यक विकास को समर्पित हैं| जो
भी अपनी जन्म भूमि को सदा के लिए छोड़ता है, तो एक भारी कसक के साथ बड़े बेमन से विकल्पहीनता
की स्थिति में छोड़ता है| तो क्या भारतियों के साथ भी ऐसा ही है? भारतीय
नागरिकों का भारत से बड़ी संख्या में बाहर जाना कोई प्रेम प्रसंग का मामला नहीं
है, इसके कई निहितार्थ हैं, जिसे समझा जाना अनिवार्य है|
यह तो स्पष्ट है कि इनमे
अधिकतर को विदेशी भूमि में इसलिए स्वीकार किया गया है, क्योंकि
इनके पास विशिष्ट ज्ञान एवं/ या विशिष्ट कौशल की योग्यता या विशिष्ट धन रहा है| यानि ऐसी विशिष्टता से
भारत को सिर्फ इसलिए वंचित होना पड़ रहा है, क्योंकि ऐसे लोगो को "समुचित अवसर" प्रदान करने के लिए भारत
के पास कोई ठोस सोच और योजना नहीं है| यदि भारत के पास इनके लिए कोई सोच और योजना है भी, तो उन्हें भारत के नीति निर्माताओं / निर्धारकों की “मंशा”
एवं “न्यायिक चरित्र” पर विश्वास नहीं है|
कही भी “समुचित अवसर” क्या है? समुचित अवसर वही होगा, जहाँ “आधुनिकता” होगी यानि
आधुनिकता के सभी तत्व एवं परिस्थितियाँ होगी| तो आधुनिकता
क्या है? आइए, इसे विस्तार से समझते हैं?
कोई भी
सामर्थ्यवान वहीं रहना चाहता है, जहाँ आधुनिकता होती है| “आधुनिकता” के तीन
ही आधार स्तम्भ हैं – ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’, ‘फ़्रांसीसी क्रान्ति’ एवं ‘औद्योगिक
क्रान्ति’ का प्रभाव एवं वास्तविक कार्यान्वयन| ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’ वैज्ञानिक सोच पर आधारित मानसिकता
से होती है| तर्कपूर्ण, विवेकपूर्ण एवं आलोचनात्मक ढंग से सोचना एवं समझना और
उसके अनुरूप व्यवहार करना ही वैज्ञानिकता है| वैज्ञानिक मानसिकता से तात्पर्य
हर कार्य के पीछे कोई तार्किक आधार का होना, मानना है| इसे पश्चिम में जहाँ फ्रांसिस बेकन ने सत्रहवीं सदी में समाज को
समझाया, उसे भारत में भारतीय बुद्धों ने ढाई
हजार साल पहले ही समझा दिया था| वैज्ञानिक मानसिकता वैसे स्थान एवं समय में नहीं
पनप सकती और नहीं रह सकती है, जहाँ “आस्था” ही सम्पूर्ण मानसिकता पर हावी या प्रभावी है|
ऐसे स्थानों एवं कालों में जब कोई वैज्ञानिकता की बात करता है, अधिकतर “छुईमुई”
प्रवृति के लोगों की आस्था पर आघात पहुँच जाता है| अर्थात आस्था का वर्चस्व
वैज्ञानिकता को जीवित ही नहीं रहने देता| जहाँ भी एवं जिस भी संस्कृति में किसी की वैज्ञानिकता को दूसरों की “आस्था” पर आघात समझा जाता है, वहाँ वैसी संस्कृति में कुछ लोगों को समाज एवं व्यवस्था से ‘आस्था’ के
नाम पर गुंडई करने की स्वीकृति मिल जाती है| ऐसी
परिस्थिति में कोई भी सामर्थ्यवान व्यक्ति विकल्प के अनुसार निर्णय कर ही लेता है|
‘फ़्रांसीसी क्रान्ति’ ने समाज को क्या दिया? इसने व्यक्ति एवं राज्य की संप्रभुता (Sovereignty) को गहराई से रेखांकित किया| यानि किसी भी राज्य की यानि सत्ता की यानि शक्ति की संप्रभुता वहाँ के लोगों में निहित है, को प्रमुखता से उठाया| यानि शक्ति का स्रोत उस राज्य का लोग है, यानि उसका हर मानव है| तब सब को समानता मिलेगी, स्वतन्त्रता मिलेगी और उनमे बंधुता की भावना होगी| तब राज्य को पंथनिरपेक्ष होना ही होगा| राज्य सबको प्रतिष्ठा और अवसर की समानता उपलब्ध कराएगा, सबको विचार, अभिव्यक्ति, कार्य और धर्म की स्वतंत्रता होगी, और समाज में बंधुत्व मध्यकालीन बाध्यतापूर्ण न होकर गरिमामयी होगा| इसी से सभी के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय सुनिश्चित किया जा सकेगा| इस तरह समाज के महत्वपूर्ण होते हुए भी पहली बार एक मानव को भी प्रमुख माना गया, जो कि समाज का आधारभूत घटक होता है| ऐसे राज्य में व्यक्ति की निजता को सम्मान दिया जाने लगा| भारतीय संविधान के अनुसार भारत की संप्रभुता भारत के लोगों में निहित है, जो संविधान की उद्देशिका (Preamble) में स्पष्ट है| इस क्रान्ति ने जन्माधारित विशेषाधिकारों की वैधता पर प्रश्न उठाया, और उसे खंडित कर दिया| पर जिन देशों एवं संस्कृतियों में जन्माधारित विशेषाधिकारों की वैधता बनाए रखने के लिए सनातन एवं पुरातन संस्कृति की दुहाई दिया जाता है, वैसे देशों एवं संस्कृतियों में “ज्ञान एवं कौशल” कुंठित होने लगता है| जिस देश में समाज एवं आस्था के नाम पर ‘लोग’ यानि ‘मानव’ यानि ‘व्यक्ति’ की गरिमा ही सुनिश्चित नहीं रहेगी, और उसे समुचित न्याय पा लेने का व्यवस्था से वास्तविक भरोसा नहीं मिलेगा, तब सामर्थ्यवान व्यक्ति अपने उपलब्ध विकल्प के अनुसार देश छोड़ने का निर्णय ले ही लेगा|
‘ओद्योगिक
क्रान्ति’ ने उत्पादन,
वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं प्रक्रियाओं को ही नहीं बदला, अपितु लोगो को कई
प्रकार की मानवीय सुविधाएँ भी उपलब्ध करायी| स्वभावत: सामर्थ्यवान लोग उत्पादन,
वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं प्रक्रियाओं पर अधिकार स्थापित किए जाने एवं मानवीय सुविधाएँ
पाने की संभावना तलाशते है, और उसको पा लेने के विश्वास के अनुसार ही विकल्प पर विचार करता
है|
तो क्या
आधुनिकता पाने की असली संभावना ही देश त्यागने का विकल्पता तय करती है? हालाँकि हर समझदार व्यक्ति आधुनिकता की ऐसी ही
स्थिति पाना चाहता है, परन्तु वह अपनी योग्यता में, अपने कौशल में एवं अपनी सम्पदा या
सम्पत्ति में इतना विशिष्ट नहीं होता है, कि वह अपना देशीय स्थान बदल सके| आज
भारत वैसे देशों से तुलना करने में गर्व महसूस करता है, जिनकी सम्पूर्ण आबादी भी
भारत की आबादी की कुल तीन - चार प्रतिशत भी नहीं है| मतलब
भारत की कुल आबादी का दो या तीन प्रतिशत आबादी भी वैसे देशों की सम्पूर्ण एवं
समेकित आबादी की गुणवत्ता (Quality) का नहीं है| भारत
अपनी प्राचीनता की गौरव गाथा के नाम पर कुछ भी आधुनिकता लाने पर गंभीरतापूर्वक विचार
करता हुआ नजर नहीं आ रहा है|
यदि आधुनिकता लाने
पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाता,
तो भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप
वैज्ञानिक मानसिकता पर जोर दिया जाता और आस्था पर प्रहार किया जाता दिखता,
व्यक्ति
की निजता, स्वतन्त्रता एवं गरिमा की सुरक्षा में शासन एवं समाज तत्पर रहता और
शासन
एवं समाज का ‘न्यायिक चरित्र’ स्पष्ट सन्देश देता हुआ रहता|
भारत के सजग एवं विचारवान लोगों से अनुरोध है,
कि
भारत को बदतर होने से बचाने के लिए
एक गंभीर विमर्श शुरू करें एवं
उससे निर्गत निष्कर्षों का देश के दूरगामी हित में क्रियान्वयन भी सुनिश्चित करें|
आचार्य निरंजन
सिन्हा
आदरणीय निरंजन सिन्हा सर,
जवाब देंहटाएंआपने इस बहु आयामी गूढ़ विषय को भी बड़े ही अच्छे से समझाया है!!
पढ़े लिखे लोगों को भी इस विषय की सीमित जानकारी है!!
अपने ज्ञान के अलोक से हम सभी को सँस्कारित करने के लिए अभिनंदन वंदन आभार ❤️🇮🇳🙏
सादर,
भारत को विकसित देशों की श्रेणी में देखने की प्रबल इच्छा से उद्भूत यह आलेख अत्यंत ही तर्कपूर्ण और भावपूर्ण होने के साथ ही साथ भारत के वर्तमान नीति निर्माताओं/निर्धारकों के लिए एक दूरदर्शी विजन भी प्रदान करता है।
जवाब देंहटाएंभारत देश के कल्याण की गहरी भावना से प्रेरित ऐसे अद्भुत एवं मौलिक आलेख के प्रस्तुतीकरण के लिए माननीय आचार्य श्री निरंजन सिन्हा जी को बहुत बहुत धन्यवाद।