सोमवार, 20 मार्च 2023

पिछड़ों में मेरिट और टैलेंट नहीं होता ?

मैंने देखा कि वहां एक बड़ी ही रोचक चर्चा हो रही थी। विषय था कि पिछड़ों में अपेक्षाकृत मेरिट और टैलेंट ही नहीं होता, यानि इसकी अपेक्षाकृत कमी होती है, या होता है। वैसे ‘पिछड़ गए’ एक सापेक्षिक अवधारणा है, जो किसी अन्य की तुलना में पीछे की अवस्था में ही रह गए हैं| इन पिछड़ों में कोई समाज, कोई संस्कृति, कोई क्षेत्र, कोई देश, कोई राष्ट्र, कोई वर्ग, कोई जाति या जाति समूह या कोई भी आबादी हो सकता है| वैसे भारत देश में पिछड़ों में यानि पिछड़ गए समाजों में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (OBC), ‘अनुसूचित जाति’ (SC), ‘अनुसूचित जनजाति’ (ST) एवं कुछ अन्य वर्गीकृत समूह शामिल किए जाते हैं|

यह ‘चर्चा’ एक ‘बहस’ ज्यादा थी और ‘विमर्श’ थोड़ा बहुत, या यों कहें कि विमर्श बिल्कुल ही नहीं थी। आप भी जानते हैं कि बहस में कोई एक ही पक्ष जीतता है, लेकिन कोई भी हार नहीं मानता। बहस में मुख्य मुद्दे गौण हो जाते हैं और व्यक्ति ही मुख्य हो जाता है। बहस में व्यक्ति का अहम (Ego) व्यक्ति के ज्ञान पर हावी रहता है, और इसीलिए वह व्यक्ति का विवेक कहीं दबा रहता है| लेकिन विमर्श में कोई पक्ष नहीं हारता और मुद्दा ही जीतता है। विमर्श में मुद्दा ही मुख्य होता है और व्यक्ति पृष्ठभूमि में ही रह जाता है। इसमें शामिल लोगों का विवेक सजग और सतर्क होता है| इसीलिए एक बहस किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता है, जबकि विमर्श एक ख़ास दिशा बढता रहता है या एक निष्कर्ष पर पहुँच जाता है| इसीलिए अक्सर एक बहस तीखे विवाद में ही समाप्त होता है| बहस में तथाकथित ज्ञानवान यानि छिछले ज्ञानी ही ज्यादा शामिल होते हैं, जिनकी साफ्ट पावर (Soft Power) का कौशल नगण्य या शून्य रहता है| चर्चा में शामिल लोगों का मानना था कि यह विमर्श था, लेकिन मुझे यह बहस ज्यादा और विमर्श नगण्य लगा। लेकिन हमलोग बात आगे बढाते हैं|

दरअसल पिछड़ों के एक पत्रकार नेता ने कह दिया था कि विभिन्न लोक सेवा आयोगों द्वारा संचालित परीक्षाओं के लिखित भाग में अच्छे प्राप्तांक के बावजूद पिछड़े वर्ग के सदस्यों को साक्षात्कार में कम अंक दिए जाते हैं, तो क्या पिछड़ों में मेरिट और टैलेंट की कमी होती है? यह सवाल बहुत बड़ा था। उस चर्चा में शामिल सभी व्यक्ति पिछड़े ही वर्ग के थे। ध्यान दें कि मैंने उस चर्चा में शामिल लोगों की ही बात की है, उसके दर्शकों की बात नहीं की है। दरअसल दर्शक तो चर्चा का निष्पक्ष अवलोकन कर्ता होता है, मुद्दे के विश्लेषण, मूल्यांकन और समेकन में कोई पक्षकार नहीं होता। हां, तो पिछड़ों में समाज के सभी तथाकथित सभी पिछड़ गए मान लिए लोग शामिल थे, अर्थात अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग, सभी लोग शामिल थे।

यह चर्चा इसलिए बहस में बदल गई कि क्योंकि एक प्रखर युवा (उमेश जी) ने उस पत्रकार नेता की बात के विरोध में सबूत स्वरुप में कह दिया कि यदि पिछड़ों में अपेक्षाकृत मेरिट और टैलेंट की कमी ही नहीं होती, तो आजादी के इतने सालों के बाद भी यह वर्ग देश का नीति नियामक (Policy Maker) क्यों नहीं बन पाया? क्यों इस देश का पिछड़ा वर्ग और उसके नेता अपनी मंशा और दृष्टि (Vision) अर्थव्यवस्था के प्रथम तीनों सेक्टर तक ही सीमित क्यों किए हुए है? क्या उन्हें अर्थव्यवस्था के चौथे सेक्टर (Quaternary Sector) और पांचवें सेक्टर (Quinary Sectar) पर भी ध्यान है, जो क्रमश: ज्ञान क्षेत्र और नीति निर्धारण का क्षेत्र है? जब उन्हें इसका ध्यान ही नहीं है, तो वे इसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यह उत्तर उस तथाकथित पत्रकार नेता के वक्तव्य पर भारी पड़ता हुआ दिख रहा था| लेकिन यह मुद्दा बहुत गंभीर है, रोचक है, सांदर्भिक है और सामयिक भी है। यह सवाल भारत के वैश्विक पिछड़ेपन से भी गहराई से संबंधित है। इतनी बड़ी आबादी को आगे लाए बिना भारत विकसित राष्ट्र नहीं बन सकता है। इसीलिए मुझे भी एक निष्पक्ष अवलोकन कर्ता के रूप में वहीं ठिठक जाना पड़ा।

इतना तो स्पष्ट हो चुका था कि वह प्रखर युवा उमेश जी अब सब पर भारी पड़ने वाले थे, इसीलिए उनकी आगे की बातें रोचक होने वाली थी| इसीलिए मैं भी सुनने लगा, आप भी सुन ही लीजिए| सामने वाला युवा लगभग चीखते हुए बोला – उमेश जी, तो पिछड़ों की क्या पहचान है? तो पिछड़े कैसे आगे बढे? वह क्या करे?

अब उमेश जी ने समझाना शुरू कर दिया| तो पिछड़ों की पहचान कैसे होती है? अर्थात इन पिछड़ों की विशेषताएं क्या है, जिनसे उनकी पहचान आसान है। ध्यान रहे कि मैं उनकी सरकारी पहचान की बात नहीं कर रहा हूं, मैं तो उनकी सामाजिक पहचान की बात बता रहा हूं। कमोबेश यही विशेषताएं सभी वर्गों में विभिन्न अनुपात में रहती है, लेकिन समाज की औसत अवस्था के आधार पर ही सरकार इन समूहों को वर्गीकृत करती है। इन्होने स्पष्ट किया कि कोई भी पिछड़ापन किसी के सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं होगा| इन पिछड़ों के जीवन में आर्थिक मुद्दे (अधिकतर के लिए रोटी के टुकडे ही) ही प्रमुख होते हैं। इनकी प्रतिक्रया पूर्णतया आवेश (Emotion) में होगी और त्वरित भी होगी| इसी को कुछ लोग Reflex Action, तो कुछ लोग Animalistic Action भी कहते हैं|

उमेश जी आगे बढ़ते हुए कहा कि इनकी कोई रणनीति गोपनीय नहीं होती| गुप्त योजना बनाना और कार्यान्वित करना इनके वश में नहीं है| गंभीर विमर्श इनके समझ से बाहर है और बहस अक्सर होती है। इनमे आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking) का स्वभाव या समझ नहीं होता है| अर्थात इनको वस्तु का विश्लेषण (Analyse) करना, फिर उसे सन्दर्भ विशेष की गहराइयों में जाकर इनका मूल्याङ्कन (Evaluate) करना और इसका समेकित (Integrate) स्वरुप में समझना संभव नहीं है| ये सोशल मीडिया पर सिर्फ मैसेज फारवर्ड करेंगे या कुछ सतही भावनात्मक बातों को लिखेंगे| इनसे प्रतिक्रिया लेकर यानि कोई निश्चित क्रिया के द्वारा उनकी रिफ्लेक्स प्रवृत्ति को उभार कर इन्हें आसानी से नियंत्रित एवं संचालित किया जा सकता है या किया जाता है। और ये शारीरिक श्रम को ही श्रम समझते हैं, बौद्धिक श्रम की अवधारणा इनकी सामान्य सोच से बहुत ऊपर होता है। इसीलिए ऐसे लोग अपने को ‘श्रमण (मानो कि बौद्धिक श्रम प्रमुख नहीं है) संस्कृति’ के लोग मानते हैं और इसी में मदहोश रहते हैं|

तब सामने वाला दूसरा युवक उनसे पूछ डाला कि इस पिछड़ेपन का क्या समाधान है? समाज को क्या करना चाहिए|

अब उमेश जी के कहने की बारी थी| कहने लगे कि किसी को भी आलोचनात्मक चिंतन दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान और साहित्य के अध्ययन एवं समझ से आता है| और जिस समाज, या संस्कृति, या देश की अधिकांश आबादी इससे बचती ही रहती है, वह निश्चितया पिछड़ा हुआ होता है| उसमे आलोचनात्मक चिंतन नहीं हो सकता है, कोई Out of Box नहीं सोच सकता है| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने एक बार कहा था कि किसी भी समस्या का समाधान चेतना के उसी स्तर पर नहीं हो सकता है, चेतना के जिस स्तर पर वह समस्या खड़ी हुई है| और हमारे लोग विरोधी संस्कृति और ग्रन्थ में ही समाधान खोजते हैं|

दर्शन एक विषय को कई दृष्टिकोणों से और समेकित दृष्टिकोण से देखने और समझने की विश्लेषणात्मक समझ और इसका मूल्यांकन करना विकसित करता है। इतिहास से समाज की संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत, गहराई, लक्ष्य और क्रियाविधि को समझने में सहायता मिलती है। संस्कृति समाज का साफ्टवेयर है, जो समाज की सोच, आदर्श, मूल्य, प्रतिमान, और मनोवृत्ति आदि को संचालित, नियंत्रित, नियमित और संतुलित करता है। मनोविज्ञान व्यक्ति में सामान्य बुद्धिमत्ता के अतिरिक्त भावनात्मक बुद्धिमत्ता, सामाजिक बुद्धिमत्ता और बौद्धिक बुद्धिमत्ता की समझ विकसित करता है। साहित्य व्यक्ति में अभिव्यक्ति को व्यवस्थित और कुशल स्वरुप देता है। यही सब मिलकर समझ व्यक्ति में साफ्ट स्किल विकसित करता है, जो साफ्ट पावर के रूप में प्रभावी होता है। आजकल यही शक्ति महत्वपूर्ण है और हार्ड पावर का महत्व घटता जा है। इसी साफ्ट पावर की समझ के अभाव में ही कोई असफल हो जाता है।

उपरोक्त साफ्ट पावर की आधुनिक महत्ता के कारण ही आजकल सभी सेवाओं की नियुक्तियों की अनुशंसा करने वाले सेवा आयोग भी निबंध लेखन को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। इसमें व्यक्ति का आलोचनात्मक चिंतन और Out of Box की समझ का परीक्षण लिया जाता है| Out of Box का अर्थ विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) करना होता है। यदि किसी अभ्यर्थी और विद्यार्थी में उपरोक्त समझ नहीं है, तो वह शानदार निबंध नहीं लिख पाता है।

यहाँ यह बहुत स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ऐसा नहीं है कि मेरिट और टैलेंट पर किसी व्यक्ति विशेष या समाज का आनुवंशिकी कब्जा है| मेरिट और टैलेंट पर यदि किसी का कब्ज़ा है, तो सिर्फ होमो सेपिएन्स (मानव प्रजाति) का कब्जा है| इसी के कारण होमो सेपिएन्स ही होमो फेबर और होमो सोशियस बन सका| मेरिट और टैलेंट पर किसी ख़ास संस्कृति की बढ़त हो सकती है, जिसने आलोचनात्मक चिंतन और Out of Box की समझ मेहनत कर विकसित किया है| कोई ख़ास संस्कृति अपने ख़ास समाज में सामाजिक मूल्य, प्रतिमान, आदर्श, अभिवृति, विचार, व्यवहार एवं परम्परा आदि को गढ़ते हैं और उसे निरन्तरता देते हैं| यही संस्कृति उस ख़ास समाज में आलोचनात्मक चिंतन को स्वरुप देता है, Out of Box सोचने को प्रेरित करता है और मेरिट और टैलेंट को एक ख़ास दिशा में विकसित करता है| कहने का तात्पर्य यह है कि यह साफ्ट पावर (Soft Power) है, जो एक कौशल है, और इसीलिए कोई भी संस्कृति अपने सामाजिक सदस्यों को यह कौशल सिखा सकता है| सारे मानव एक ही मानव की संतान हैं, और समय की अवधि में अपने निवास स्थान के भौगोलिक अनुकूलन के कारण विभिन्न प्रजाति के रूप में अभिव्यक्त हैं| मानवों में कौशल का वंशानुगत अनुवांशिकी के होने का स्पष्ट दावा पर अभी तक पूर्ण वैज्ञानिक सहमति नहीं बनी है|

भीड़ में से किसी ने कहा कि तब हमें क्या करना चाहिए? उमेश जी ने भी जोर देकर कहा कि हमारे समाज को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर बढना चाहिए| युवा वर्ग में आलोचनात्मक चिंतन और Out of Box की समझ विकसित करनी चाहिए| संस्कृति में सुधार के लिए काम करना चाहिए|  इसके बिना सब कुछ महज एक तमाशा है| यही कि कोई भी व्यक्ति या समाज मेरिट और टैलेंट सजगता और सतर्कता से विकसित कर सकता है| यह तो साफ्ट पावर है, एक कौशल है, जिसे विकसित करना होगा| जो भी समाज ‘दर्शन’, ‘इतिहास’, ‘मनोविज्ञान’ और ‘साहित्य’ नहीं पढेगा, उसमे साफ्ट पावर विकसित नहीं होगा| इसीलिए तो ऐसा ही निबंध लिखने के लिए आयोग महत्व देता है| इसीलिए निबंध लेखन मेरिट और टैलेंट पर आधारित कौशल को खोजता है| बात को समझिए|

विषय तो रोचक था, लेकिन वहां उपस्थित लोग इस चर्चा को विमर्श से बहस की ओर तेजी से ले जाने लगे। तब सुनने और समझने में कठिनाइयां आनी लगी। इसलिए मैं वहां से उठ गया। लेकिन विषय बड़ा रोचक था।

मुझे लगता है कि यह विषय विमर्श के रूप में आगे बढ़नी चाहिए। बाकी आप लोगों की मर्ज़ी|

आचार्य निरंजन सिन्हा

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सोमवार, 13 मार्च 2023

डिजीटल युग में शिक्षा कैसी हो?

किसी भी समाज या संस्कृति की शिक्षा कैसी हो? या कैसी होनी चाहिए? यह सब उस समाज या संस्कृति की वर्तमान स्थिति एवं अवस्था पर निर्भर करता है| किसी भी समाज की संस्कृति उस समाज की मानसिक गत्यात्मकता की स्थिति एवं अवस्था को स्पष्ट करती है| यदि कोई समाज आस्था को प्राथमिकता देता है और यदि कोई समाज ‘सवाल पूछने’ को यानि विज्ञान को प्राथमिकता देता है, तो यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि  दोनों समाज की शिक्षा की प्राथमिकताएँ अलग अलग होगी|

शिक्षा का महत्त्व तो सबको स्पष्ट है कि शिक्षा ने ही होमो सेपिएन्स’ (Homo Sapiens Modern Man) को ‘होमो सोशिअस’ (Homo Socius Social Man) और ‘होमो फेबर’ (Homo Faber Maker Man) बनाया है| लेकिन कुछ लोग साक्षरता को ही शिक्षा मान बैठते हैं, और शिक्षा को सही ढंग से समझने में चूक जाते हैं| किसी भी विषय को किसी भी भाषा एवं लिपि में पढ़ना, लिखना और उसे समझना ही साक्षरता है| लेकिन शिक्षा बुद्धि के विकास एवं संवर्धन से सम्बन्धित है| इसीलिए ‘रट्टू ज्ञान’ (Rote Learning) से कोई डिग्रीधारी हो सकता है, और उस आधार पर सरकारी या निजी नौकरी पा सकता है, परन्तु वह शिक्षित नहीं माना जा सकता है|

शिक्षा की उच्चतर अवस्था ही बुद्धि कहलाती है, और इसीलिए भारत में विशिष्ट एवं उत्कृष्ट स्तर के ज्ञानी को “बुद्ध” कहा जाता रहा| ध्यान रहे कि ‘बुद्ध’ बुद्धि की इसी अवस्था की एक भारतीय परम्परा रही और गोतम बुद्ध इस परम्परा में 22वें बुद्ध हुए| इसीलिए शिक्षा में कल्पनाशीलता को प्रमुख स्थान दिया गया| महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन और  स्टीफन हाकिन्स ने ज्ञान अर्जन में कल्पनाशीलता को प्रमुख स्थान दिया| वर्तमान भारत में बुद्ध और बुद्धि के एक महान अनुयायी डा0 भीमराव आम्बेडकर ने भी नारा दिया – Educate, Agitate, Organise यानि शिक्षित बनों, उसका मनन - मंथन करो, और उसे आवश्यकतानुसार व्यवस्थित करों| परन्तु राजनीतिक लाभ लेने वालों ने ‘बुद्धि’ के उस तपस्वी के मंत्र को ही बदल दिया और भावार्थ बदलते हुए ‘Struggle’ शब्द से प्रतिस्थापित कर दिया| इतना ही नहीं, शब्दों के क्रम को भी बदल दिया| अब आप भी समझ रहे होंगे कि इतनी महत्व की शिक्षा के मूल को कैसे सजिशतन बदल दिया जाता है|

तो शिक्षा क्या है? सफलता प्राप्त करने हेतु अनुकूलनता (Adoptability) सीखना ही शिक्षा है| शिक्षा की इसी विशेषता से यह साक्षरता से भिन्न हो जाता है| इसीलिए शिक्षा में तर्कशीलता (Logic/ Reasonableness), विवेकशीलता (Rationality) और मानवता (Humanity) अनिवार्य तत्व हो जाता है| आलोचनात्मक चिन्तन यानि Critical Thinking इसीलिए शिक्षा का मूलाधार है| इसी से “Out of Box” के विचार की उत्पत्ति एवं विकास हो पाता है| इसी से “सवाल” खड़ा किया जाता है, और इसलिए स्टीफन हाकिन्स “सवाल” खड़ा करने को ही बुद्धि यानि विज्ञान के विकास का आधार मानते हैं| बुद्धि के लिए आलोचनात्मक चिन्तन बहुत जरुरी है|

आलोचनात्मक चिन्तन यानि Critical Thinking में विषय और प्रश्न का Analyse (विश्लेषण) करना, उसका सन्दर्भ में Evaluate (मूल्यांकन) करना, फिर उसको Integrate (समेकन) करना होता है| फिर इसे सामान्यीकृत करने के लिए Open (खोलना यानि विस्तार) करना एवं समय एवं परिस्थिति के Unite करना होता है| ध्यान दें कि मैंने यहाँ पांचो Vovel (A, E, I, O, एवं U) के क्रम में Critical Thinking को समझाने का प्रयास किया है| दुसरे शब्दों में कहें, तो आलोचनात्मक चिन्तन के लिए किसी को भी ‘इतिहास’, ‘दर्शन’, ‘मनोविज्ञान’ और ‘साहित्य’ की समझ होनी चाहिए| इसी आलोचनात्मक चिन्तन की क्षमता की जांच के लिए लगभग सभी सेवा चयन आयोगों में “निबंध” (Essay) पूछे जाने लगे हैं| अत: ऐसे सभी अभ्यर्थियों को यह सब समझना चाहिए| इसीलिए विक्टर ह्यूगो ने कहा है कि “विचारो” की शक्ति दुनिया की सभी सैन्य शक्तियों से भी ज्यादा शक्तिशाली होती है| इसी कारण वैश्विक जगत में आजकल ‘साफ्ट पावर’ (Soft Power) का उपयोग और प्रचलन बढ़ गया है, जिसे अभी भी भारत जैसे देश में अपेक्षित तरीके से नहीं समझा जा रहा है|

हमारे विश्वविद्यालयों के विद्वान प्रोफ़ेसर ज्ञान के संवर्धन के लिए अभी भी “सन्दर्भ ग्रंथों” की अनिवार्यता से ऊपर नहीं उठ सके है| यह भारत का दुर्भाग्य है| इन विद्वानों की यदि वैश्विक पूछ होती, तो ये तथागत बुद्ध से भी उनके सामाजिक विज्ञान एवं विज्ञान के लिए उनसे सन्दर्भ ग्रन्थ मांगते, ये अल्बर्ट आइन्स्टीन से भी उनके Dilation of Time (समय के पसर जाने) सिद्धांत के सन्दर्भ ग्रन्थ मांगते| इनकी दृष्टि तर्क पर आधारित वैज्ञानिक परिकल्पना (Hypothesis) की प्रक्रिया पर नहीं जाती है, और इसिलिए भारत में कोई मौलिक अनुसन्धान नहीं हो रहे हैं| प्रसिद्ध वैज्ञानिक दार्शनिक थामस सैम्युल कुहन ने 1962 में अपनी पुस्तक – “The Structure of Scientific Revolution” में पैरेड़ाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) की अवधारणा को विस्तार दिया| यह अवधारणा किसी भी क्षेत्र में क्रान्ति के लिए अनिवार्य है| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा है कि – किसी भी समस्या का समाधान चेतना के उसी स्तर पर रहकर नहीं किया जा सकता है, जिस स्तर पर वह समस्या उत्पन्न हुई है|

आज समाज के सामान्य वर्गों में शिक्षा के क्षेत्र में सिर्फ अर्थव्यवस्था के प्राथमिक (Primary) प्रक्षेत्र, द्वितीयक (Secondary) प्रक्षेत्र एवं तृतीयक (Tertiary) प्रक्षेत्र तक ही सीमित है, अर्थात मोटे तौर पर कृषि सम्बन्धित, उद्योग सम्बन्धित और सेवा क्षेत्र सम्बन्धित तक ही सीमित है| यह सामान्य वर्ग अर्थव्यवस्था के चौथे प्रक्षेत्र और पांचवे प्रक्षेत्र को ध्यान में ही नहीं लाता है, और इसीलिए इसके लिए तैयार भी नहीं हो रहा है| चौथा प्रक्षेत्र (Quaternary Sector) ज्ञान क्षेत्र है और पांचवां प्रक्षेत्र (Quinary Sector) नीति निर्धारण है|

शिक्षा प्राप्त करने के दो महत्वपूर्ण स्रोत है – दुसरे से और स्वयं से| दुसरे से शिक्षा प्राप्त करना सामान्य स्रोत है, जैसे किसी शिक्षक से, पुस्तक से या किसी टेक्स्ट, दृश्य, या श्रवण या अन्य स्रोत से| परन्तु ‘स्वयं’ से प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है| इस विधि में ज्ञान अनन्त प्रज्ञा से पाया जाता है, जिसे आभास या अंतर्ज्ञान (Intuition) भी कहते हैं| यह कल्पनाशीलता से आता है, और इसी के लिए आलोचना चिंतन की जरुरत होती है|

शिक्षा यदि बुद्धि है, यानि बुद्धिमत्ता (Intelligence) है, तो हमें ‘सामान्य बुद्धिमत्ता’(General Intelligence – परम्परागत) के अलावे अन्य बुद्धिमत्ता पर भी ध्यान देना होगा| सामान्य बुद्धिमत्ता सामान्यत: रट लेने से भी आ जाता मान लिया जाता है| ‘भावनात्मक बुद्धिमत्ता’ (Emotional Intelligence – डेनियल गोलमैन द्वारा) में हमें सामने वाले की भावना को समझते हुए अपनी भावना को उसके अनुकूलन करना होता है, और आजकल किसी भी सफलता का प्रमुख आधार माना जाता है| यदि हम विचार और व्यवहार में वर्तमान समाज का ध्यान रख कर अपने विचार एवं व्यवहार को अनुकूलित करते हैं, तो इसे ‘सामाजिक बुद्धिमत्ता’ (Social Intelligence – कार्ल अल्ब्रेच द्वारा) कहा जाता है| परन्तु जब हम अपने विचार एवं व्यवहार में को ‘मानवता’ एवं ‘भविष्य’ को सन्दर्भ में रख कर अपने विचार एवं व्यवहार को अनुकूलित करते हैं, तो उसे ‘बौद्धिक बुद्धिमत्ता’ (Wisdom Intelligence – तथागत बुद्ध द्वारा) कहा जाता है| हमें अपने शिक्षण में इन सबों का ध्यान रखना है|  

आज यदि शिक्षा को आधुनिक बनाना है और अग्रणी देशों के समतुल्य ले जाना है, शिक्षा में चार्ल्स डार्विन का ‘उद्विकासवाद’, सिगमण्ड फ्रायड का ‘आत्मवाद’, कार्ल मार्क्स का ‘आर्थिकवाद’, अल्बर्ट आइन्स्टीन का ‘सापेक्षवाद’ और फर्डीनांड डी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ को अवश्य समझना होगा| ‘उद्विकासवाद’ यह समझाता है कि कोई भी स्थिति या संरचना सदैव’ सरलतम से जटिलतर की ओर जाता है| ‘आत्मवाद’ किसी चेतना यानि उसके स्वयं को ‘इड’ ‘ईगो’ एवं ‘सुपर इगो’ के सन्दर्भ में समझाता है| ‘आर्थिकवाद’ किसी भी सामाजिक रूपान्तरण को यानि ऐतिहासिक प्रक्रिया को आर्थिक शक्तियों यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियों एवं उसके साधनों के अंतर्संबंधों के आधार पर समझाता है|  ‘सापेक्षवाद’ किसी भी विषय या प्रसंग या घटना को किसी भी सन्दर्भ एवं पृष्टभूमि के सन्दर्भ में समझाता है, अर्थात बदलते सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि में सबकुछ बदल जाता है| ‘संरचनावाद’ किसी की अभिव्यक्ति को साधारण, विशिष्ट एवं निहित अर्थों में समझाता है|

आज के डिजीटल युग में कम्प्यूटर कोडिंग सहित कम्प्यूटर शिक्षा महत्वपूर्ण हो गया है| डिजीटल धोखाधड़ी को समझना और उससे सम्बन्धी सावधानियां समझना भी महत्वपूर्ण है| वैश्विक भाषा अंग्रेजी के ज्ञान के साथ में कोई भी बहुत कुछ पा सकता है, अन्यथा इसके बिना सबकुछ रहते हुए भी अज्ञात में खोया रहना पड़ता है|

हमारी मानसिक और आध्यात्मिक क्षमता भी हमारे शारीर में ही निवास करती है, और इस शरीर के बाहर कोई चेतना और ज्ञान कार्य नहीं करता है| इसलिए शारीरिक. मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी बहुत जरुरी है, और इसीलिए इससे सम्बन्धित जागरूकता एवं जानकारी बहुत महत्वपूर्ण है| आजकल यह भी एक फैशन बन गया है कि पहले स्वास्थ्य में विकृति लाओ और फिर उसे ठीक करने के लिए सार्वजनिक उपाय करों|

अंत में, उपयुक्त ‘उद्यमिता’ (Entrepreneurship) के शिक्षण एवं प्रशिक्षण के अभाव  में आज युवा वर्ग भटक रहा है| जिसने जीवन में कभी उद्यमिता नहीं किया है, वह सरकारी संस्थानों में उद्यमिता सिखा रहे हैं, मतलब जीवन भर नौकर बने रहने वाले लोग दूसरों को मालिक बनने की शिक्षण प्रशिक्षण दे रहे हैं| भारत में ‘वित्तीय साक्षरता’ (Financial Literacy) की महत्ता वैश्विक संगठन – “आर्थिक सहयोग और विकास संगठन” (O E C D) के गहराई से रेखांकन करने के बाद समझ में आयी, लेकिन अभी तक कोई सार्थक प्रयास नहीं दिखता है और इसीलिए अपेक्षित परिणाम भी नहीं है| प्रशासन में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए ‘सामाजिक अंकेक्षण’ (Social Audit) अनिवार्य है, परन्तु इसकी प्रभावी परिणाम आने के लिए कोई व्यवस्था नहीं किया गया है| समृद्ध देशों यह कई रूपों में व्यवस्थित है और इसीलिए प्रभावशाली भी है|

मैं समझता हूँ कि शिक्षा के सम्यक विकास के लिए उपरोक्त विषय को समझा जाना चाहिए, और समाज के विस्तृत दायरे में लाना चाहिए| आज के डिजीटल युग में सिर्फ सरकार के भरोसे भी नहीं रहना चाहिए| आज कोई भी सामाजिक संगठन कमतर संसाधन के बावजूद इसे व्यवस्थित ढंग से प्रचारित एवं प्रसारित कर सकता है| कई संगठन प्रयास भी कर रहे हैं, परन्तु व्यवस्थित प्रयास किया जाना अपेक्षित है| यह सामाजिक विमर्श का ज्वलंत मुद्दा होना चाहिए| कृपया इसे विमर्श में लाया जाय|

आचार्य निरंजन सिन्हा|

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