सोमवार, 20 मार्च 2023

पिछड़ों में मेरिट और टैलेंट नहीं होता ?

मैंने देखा कि वहां एक बड़ी ही रोचक चर्चा हो रही थी। विषय था कि पिछड़ों में अपेक्षाकृत मेरिट और टैलेंट ही नहीं होता, यानि इसकी अपेक्षाकृत कमी होती है, या होता है। वैसे ‘पिछड़ गए’ एक सापेक्षिक अवधारणा है, जो किसी अन्य की तुलना में पीछे की अवस्था में ही रह गए हैं| इन पिछड़ों में कोई समाज, कोई संस्कृति, कोई क्षेत्र, कोई देश, कोई राष्ट्र, कोई वर्ग, कोई जाति या जाति समूह या कोई भी आबादी हो सकता है| वैसे भारत देश में पिछड़ों में यानि पिछड़ गए समाजों में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (OBC), ‘अनुसूचित जाति’ (SC), ‘अनुसूचित जनजाति’ (ST) एवं कुछ अन्य वर्गीकृत समूह शामिल किए जाते हैं|

यह ‘चर्चा’ एक ‘बहस’ ज्यादा थी और ‘विमर्श’ थोड़ा बहुत, या यों कहें कि विमर्श बिल्कुल ही नहीं थी। आप भी जानते हैं कि बहस में कोई एक ही पक्ष जीतता है, लेकिन कोई भी हार नहीं मानता। बहस में मुख्य मुद्दे गौण हो जाते हैं और व्यक्ति ही मुख्य हो जाता है। बहस में व्यक्ति का अहम (Ego) व्यक्ति के ज्ञान पर हावी रहता है, और इसीलिए वह व्यक्ति का विवेक कहीं दबा रहता है| लेकिन विमर्श में कोई पक्ष नहीं हारता और मुद्दा ही जीतता है। विमर्श में मुद्दा ही मुख्य होता है और व्यक्ति पृष्ठभूमि में ही रह जाता है। इसमें शामिल लोगों का विवेक सजग और सतर्क होता है| इसीलिए एक बहस किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता है, जबकि विमर्श एक ख़ास दिशा बढता रहता है या एक निष्कर्ष पर पहुँच जाता है| इसीलिए अक्सर एक बहस तीखे विवाद में ही समाप्त होता है| बहस में तथाकथित ज्ञानवान यानि छिछले ज्ञानी ही ज्यादा शामिल होते हैं, जिनकी साफ्ट पावर (Soft Power) का कौशल नगण्य या शून्य रहता है| चर्चा में शामिल लोगों का मानना था कि यह विमर्श था, लेकिन मुझे यह बहस ज्यादा और विमर्श नगण्य लगा। लेकिन हमलोग बात आगे बढाते हैं|

दरअसल पिछड़ों के एक पत्रकार नेता ने कह दिया था कि विभिन्न लोक सेवा आयोगों द्वारा संचालित परीक्षाओं के लिखित भाग में अच्छे प्राप्तांक के बावजूद पिछड़े वर्ग के सदस्यों को साक्षात्कार में कम अंक दिए जाते हैं, तो क्या पिछड़ों में मेरिट और टैलेंट की कमी होती है? यह सवाल बहुत बड़ा था। उस चर्चा में शामिल सभी व्यक्ति पिछड़े ही वर्ग के थे। ध्यान दें कि मैंने उस चर्चा में शामिल लोगों की ही बात की है, उसके दर्शकों की बात नहीं की है। दरअसल दर्शक तो चर्चा का निष्पक्ष अवलोकन कर्ता होता है, मुद्दे के विश्लेषण, मूल्यांकन और समेकन में कोई पक्षकार नहीं होता। हां, तो पिछड़ों में समाज के सभी तथाकथित सभी पिछड़ गए मान लिए लोग शामिल थे, अर्थात अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग, सभी लोग शामिल थे।

यह चर्चा इसलिए बहस में बदल गई कि क्योंकि एक प्रखर युवा (उमेश जी) ने उस पत्रकार नेता की बात के विरोध में सबूत स्वरुप में कह दिया कि यदि पिछड़ों में अपेक्षाकृत मेरिट और टैलेंट की कमी ही नहीं होती, तो आजादी के इतने सालों के बाद भी यह वर्ग देश का नीति नियामक (Policy Maker) क्यों नहीं बन पाया? क्यों इस देश का पिछड़ा वर्ग और उसके नेता अपनी मंशा और दृष्टि (Vision) अर्थव्यवस्था के प्रथम तीनों सेक्टर तक ही सीमित क्यों किए हुए है? क्या उन्हें अर्थव्यवस्था के चौथे सेक्टर (Quaternary Sector) और पांचवें सेक्टर (Quinary Sectar) पर भी ध्यान है, जो क्रमश: ज्ञान क्षेत्र और नीति निर्धारण का क्षेत्र है? जब उन्हें इसका ध्यान ही नहीं है, तो वे इसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यह उत्तर उस तथाकथित पत्रकार नेता के वक्तव्य पर भारी पड़ता हुआ दिख रहा था| लेकिन यह मुद्दा बहुत गंभीर है, रोचक है, सांदर्भिक है और सामयिक भी है। यह सवाल भारत के वैश्विक पिछड़ेपन से भी गहराई से संबंधित है। इतनी बड़ी आबादी को आगे लाए बिना भारत विकसित राष्ट्र नहीं बन सकता है। इसीलिए मुझे भी एक निष्पक्ष अवलोकन कर्ता के रूप में वहीं ठिठक जाना पड़ा।

इतना तो स्पष्ट हो चुका था कि वह प्रखर युवा उमेश जी अब सब पर भारी पड़ने वाले थे, इसीलिए उनकी आगे की बातें रोचक होने वाली थी| इसीलिए मैं भी सुनने लगा, आप भी सुन ही लीजिए| सामने वाला युवा लगभग चीखते हुए बोला – उमेश जी, तो पिछड़ों की क्या पहचान है? तो पिछड़े कैसे आगे बढे? वह क्या करे?

अब उमेश जी ने समझाना शुरू कर दिया| तो पिछड़ों की पहचान कैसे होती है? अर्थात इन पिछड़ों की विशेषताएं क्या है, जिनसे उनकी पहचान आसान है। ध्यान रहे कि मैं उनकी सरकारी पहचान की बात नहीं कर रहा हूं, मैं तो उनकी सामाजिक पहचान की बात बता रहा हूं। कमोबेश यही विशेषताएं सभी वर्गों में विभिन्न अनुपात में रहती है, लेकिन समाज की औसत अवस्था के आधार पर ही सरकार इन समूहों को वर्गीकृत करती है। इन्होने स्पष्ट किया कि कोई भी पिछड़ापन किसी के सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं होगा| इन पिछड़ों के जीवन में आर्थिक मुद्दे (अधिकतर के लिए रोटी के टुकडे ही) ही प्रमुख होते हैं। इनकी प्रतिक्रया पूर्णतया आवेश (Emotion) में होगी और त्वरित भी होगी| इसी को कुछ लोग Reflex Action, तो कुछ लोग Animalistic Action भी कहते हैं|

उमेश जी आगे बढ़ते हुए कहा कि इनकी कोई रणनीति गोपनीय नहीं होती| गुप्त योजना बनाना और कार्यान्वित करना इनके वश में नहीं है| गंभीर विमर्श इनके समझ से बाहर है और बहस अक्सर होती है। इनमे आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking) का स्वभाव या समझ नहीं होता है| अर्थात इनको वस्तु का विश्लेषण (Analyse) करना, फिर उसे सन्दर्भ विशेष की गहराइयों में जाकर इनका मूल्याङ्कन (Evaluate) करना और इसका समेकित (Integrate) स्वरुप में समझना संभव नहीं है| ये सोशल मीडिया पर सिर्फ मैसेज फारवर्ड करेंगे या कुछ सतही भावनात्मक बातों को लिखेंगे| इनसे प्रतिक्रिया लेकर यानि कोई निश्चित क्रिया के द्वारा उनकी रिफ्लेक्स प्रवृत्ति को उभार कर इन्हें आसानी से नियंत्रित एवं संचालित किया जा सकता है या किया जाता है। और ये शारीरिक श्रम को ही श्रम समझते हैं, बौद्धिक श्रम की अवधारणा इनकी सामान्य सोच से बहुत ऊपर होता है। इसीलिए ऐसे लोग अपने को ‘श्रमण (मानो कि बौद्धिक श्रम प्रमुख नहीं है) संस्कृति’ के लोग मानते हैं और इसी में मदहोश रहते हैं|

तब सामने वाला दूसरा युवक उनसे पूछ डाला कि इस पिछड़ेपन का क्या समाधान है? समाज को क्या करना चाहिए|

अब उमेश जी के कहने की बारी थी| कहने लगे कि किसी को भी आलोचनात्मक चिंतन दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान और साहित्य के अध्ययन एवं समझ से आता है| और जिस समाज, या संस्कृति, या देश की अधिकांश आबादी इससे बचती ही रहती है, वह निश्चितया पिछड़ा हुआ होता है| उसमे आलोचनात्मक चिंतन नहीं हो सकता है, कोई Out of Box नहीं सोच सकता है| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने एक बार कहा था कि किसी भी समस्या का समाधान चेतना के उसी स्तर पर नहीं हो सकता है, चेतना के जिस स्तर पर वह समस्या खड़ी हुई है| और हमारे लोग विरोधी संस्कृति और ग्रन्थ में ही समाधान खोजते हैं|

दर्शन एक विषय को कई दृष्टिकोणों से और समेकित दृष्टिकोण से देखने और समझने की विश्लेषणात्मक समझ और इसका मूल्यांकन करना विकसित करता है। इतिहास से समाज की संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत, गहराई, लक्ष्य और क्रियाविधि को समझने में सहायता मिलती है। संस्कृति समाज का साफ्टवेयर है, जो समाज की सोच, आदर्श, मूल्य, प्रतिमान, और मनोवृत्ति आदि को संचालित, नियंत्रित, नियमित और संतुलित करता है। मनोविज्ञान व्यक्ति में सामान्य बुद्धिमत्ता के अतिरिक्त भावनात्मक बुद्धिमत्ता, सामाजिक बुद्धिमत्ता और बौद्धिक बुद्धिमत्ता की समझ विकसित करता है। साहित्य व्यक्ति में अभिव्यक्ति को व्यवस्थित और कुशल स्वरुप देता है। यही सब मिलकर समझ व्यक्ति में साफ्ट स्किल विकसित करता है, जो साफ्ट पावर के रूप में प्रभावी होता है। आजकल यही शक्ति महत्वपूर्ण है और हार्ड पावर का महत्व घटता जा है। इसी साफ्ट पावर की समझ के अभाव में ही कोई असफल हो जाता है।

उपरोक्त साफ्ट पावर की आधुनिक महत्ता के कारण ही आजकल सभी सेवाओं की नियुक्तियों की अनुशंसा करने वाले सेवा आयोग भी निबंध लेखन को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। इसमें व्यक्ति का आलोचनात्मक चिंतन और Out of Box की समझ का परीक्षण लिया जाता है| Out of Box का अर्थ विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) करना होता है। यदि किसी अभ्यर्थी और विद्यार्थी में उपरोक्त समझ नहीं है, तो वह शानदार निबंध नहीं लिख पाता है।

यहाँ यह बहुत स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ऐसा नहीं है कि मेरिट और टैलेंट पर किसी व्यक्ति विशेष या समाज का आनुवंशिकी कब्जा है| मेरिट और टैलेंट पर यदि किसी का कब्ज़ा है, तो सिर्फ होमो सेपिएन्स (मानव प्रजाति) का कब्जा है| इसी के कारण होमो सेपिएन्स ही होमो फेबर और होमो सोशियस बन सका| मेरिट और टैलेंट पर किसी ख़ास संस्कृति की बढ़त हो सकती है, जिसने आलोचनात्मक चिंतन और Out of Box की समझ मेहनत कर विकसित किया है| कोई ख़ास संस्कृति अपने ख़ास समाज में सामाजिक मूल्य, प्रतिमान, आदर्श, अभिवृति, विचार, व्यवहार एवं परम्परा आदि को गढ़ते हैं और उसे निरन्तरता देते हैं| यही संस्कृति उस ख़ास समाज में आलोचनात्मक चिंतन को स्वरुप देता है, Out of Box सोचने को प्रेरित करता है और मेरिट और टैलेंट को एक ख़ास दिशा में विकसित करता है| कहने का तात्पर्य यह है कि यह साफ्ट पावर (Soft Power) है, जो एक कौशल है, और इसीलिए कोई भी संस्कृति अपने सामाजिक सदस्यों को यह कौशल सिखा सकता है| सारे मानव एक ही मानव की संतान हैं, और समय की अवधि में अपने निवास स्थान के भौगोलिक अनुकूलन के कारण विभिन्न प्रजाति के रूप में अभिव्यक्त हैं| मानवों में कौशल का वंशानुगत अनुवांशिकी के होने का स्पष्ट दावा पर अभी तक पूर्ण वैज्ञानिक सहमति नहीं बनी है|

भीड़ में से किसी ने कहा कि तब हमें क्या करना चाहिए? उमेश जी ने भी जोर देकर कहा कि हमारे समाज को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर बढना चाहिए| युवा वर्ग में आलोचनात्मक चिंतन और Out of Box की समझ विकसित करनी चाहिए| संस्कृति में सुधार के लिए काम करना चाहिए|  इसके बिना सब कुछ महज एक तमाशा है| यही कि कोई भी व्यक्ति या समाज मेरिट और टैलेंट सजगता और सतर्कता से विकसित कर सकता है| यह तो साफ्ट पावर है, एक कौशल है, जिसे विकसित करना होगा| जो भी समाज ‘दर्शन’, ‘इतिहास’, ‘मनोविज्ञान’ और ‘साहित्य’ नहीं पढेगा, उसमे साफ्ट पावर विकसित नहीं होगा| इसीलिए तो ऐसा ही निबंध लिखने के लिए आयोग महत्व देता है| इसीलिए निबंध लेखन मेरिट और टैलेंट पर आधारित कौशल को खोजता है| बात को समझिए|

विषय तो रोचक था, लेकिन वहां उपस्थित लोग इस चर्चा को विमर्श से बहस की ओर तेजी से ले जाने लगे। तब सुनने और समझने में कठिनाइयां आनी लगी। इसलिए मैं वहां से उठ गया। लेकिन विषय बड़ा रोचक था।

मुझे लगता है कि यह विषय विमर्श के रूप में आगे बढ़नी चाहिए। बाकी आप लोगों की मर्ज़ी|

आचार्य निरंजन सिन्हा

(मेरे अन्य आलेख www.niranjansinha.com पर पढ़े जा सकते हैं|)

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही समझदारी भरा आलेख, जो धरती पर समस्त मानवता के कल्याण को अपने केन्द्र में रखते हुए, भारत की राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने तथा उसे एक सशक्त देश के रूप में विकसित करने की पवित्र भावना से प्रेरित है।

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  2. विमर्श सही है। स्वस्थ चिंतन होनी चाहिए। मेरी समझ में ग़रीबी पिछड़ेपन का मूल कारण है। अच्छा भोजन नहीं मिलने से शारीरिक विकास में कमी , सही शिक्षा नहीं मिलने से मानसिक विकास में कमी, फलतः मनोबल निचे। ऐसे लोगों को ईमानदारी से एक बार चिन्हित कर शिक्षा और आर्थिक सहयोग का massive input दिया जाना चाहिए।

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