शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

पिछड़ों की विशेषताएँ

 (Characteristics of Backwards)

पिछड़ापन क्या है? सबसे पहले हम पिछड़ापन को समझते हैं| पिछड़ापन एक सापेक्षिक अवधारणा है, जो किसी आगे बढे हुए के तुलना में पीछे रह जाता है| मतलब यह है कि यह पिछड़ापन सदैव रहेगा, क्योंकि सभी कभी भी बराबर नहीं हो सकते है| यह किसी व्यक्ति में तो उसके व्यक्तित्व तक ही सीमित हो सकता है, परन्तु यह पिछड़ापन किसी भी समाज में, किसी संस्कृति में और किसी राष्ट्र में उसके महत्तम सदस्यों यानि उसके बहुमत के औसत से निर्धारित होती है| इस विशेषता को आगे और स्पष्ट किया गया है| हाँ, किसी के पिछड़ेपन और अगड़ेपन में कितना अंतर स्वाभाविक होगा, कितना अंतर अनुचित होगा और कितना अंतर बहुत अपमानजनक होगा, यह एक अलग विमर्श का विषय होगा|

पिछड़ा कौन है? वह हर कोई पिछड़ा है, जो “सामाजिक और सांस्कृतिक” रूप से पीछे रह गया है या अभी भी पीछे हैं| पिछड़े की इस शर्त में “आर्थिक और शैक्षणिक” को नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि यह शर्त स्थिर नहीं रहता है, यानि यह अस्थायी होता है| अर्थात कोई भी उच्चस्थ डिग्रीधारी या बहुत ही धनी या उच्चतर पदस्थ धारक भी “सामाजिक और सांस्कृतिक” रूप से पिछड़े होते हैं और इसीलिए ये समेकित रूप से पिछड़ा हुआ है| पिछड़ों में पिछड़ा हुआ व्यक्ति हो सकता है, पिछड़ा हुआ समाज हो सकता है, पिछड़ी हुई संस्कृति हो सकती है और पिछड़ा हुआ राष्ट्र या देश हो सकता है| इसका अर्थ हुआ कि कोई व्यक्ति पिछड़ा होते हुए भी अगड़े समाज का सदस्य हो सकता है और कोई व्यक्ति अगड़ा होते हुए भी पिछड़े समाज का सदस्य हो सकता है| इसी तरह कोई पिछड़े हुए राष्ट्र में भी अगड़ा या पिछड़ा समाज या व्यक्ति हो सकता है और कोई अगड़े राष्ट्र में भी अगड़ा या पिछड़ा समाज या व्यक्ति हो सकता है| लेकिन सभी पिछड़ों की एक समान कुछ विशेषताएँ होती है, जिसे आगे समझा जाएगा|

तो पिछड़ापन में बुराई क्या है? किसी के पिछड़ेपन का एकमात्र आधार उसके कार्य या पद धारण के ‘अवसर’ में उसके द्वारा अर्जित ज्ञान एवं कुशलता की पूछ यानि जरुरत नहीं होना है, जिसे वह विकसित कर सकता है, या विकसित कराया जा सकता है| लेकिन यदि किसी के पिछड़ेपन का एकमात्र आधार उसके ‘अवसर’ का जन्म आधारित वंश या कुल का होना है और उसमे उसके द्वारा अर्जित ज्ञान एवं कौशल का कोई विशेष महत्त्व नहीं है या द्वितीयक है, तो यह व्यक्ति, समाज, संस्कृति एवं राष्ट्र के जीवन के लिए घातक है| यदि किसी समाज या संस्कृति या राष्ट्र में अवसर का आधार किसी के जन्म का वंश या कुल है, तो उसी को बदलने यानि हटाने के लिए ही उसके संविधान या मुलभुत कानून में समता (Equality) एवं समानता (Equity) के सिद्धांत को प्रमुखता दिया जाता है| समता (Equality) किसी को बराबरी का सैद्धांतिक अवसर देता है, जबकि समानता (Equity) उसी बराबरी का व्यवहारिक अवसर देता है| समता (Equality) एवं समानता (Equity) में समुचित भावार्थ के लिए अंग्रेजी शब्द को ही ध्यान में रखा जाय, हिंदी में इसकी प्रमाणिकता मुझे ज्ञात नहीं है|

अब हमलोग पिछड़ों की यानि पिछड़ेपन की विशेषताओं को समझेंगे यानि इसकी मौलिकता की जाँच पड़ताल करेंगे| इस क्रम में मैं सबसे पहला स्थान “आलोचनात्मक चिंतन” (Critical Thinking) को रखता हूँ| इस “आलोचनात्मक चिंतन” का अभाव सभी पिछड़े हुए व्यक्ति में, समाज में, संस्कृति में एवं राष्ट्र में स्पष्ट रूप में दिखता है| जिनमे भी ‘आलोचनात्मक चिंतन’ का अभाव रहता है, किसी शब्द या वाक्य या किसी प्रसंग या सन्दर्भ का ‘सतही अर्थ’ (Superficial Meaning) तो समझ पाता है, परन्तु उसका ‘निहित अर्थ’ (Implied Meaning) यानि ‘भावार्थ’ नहीं समझ पाता है| अर्थात एक पिछड़ा हुआ व्यक्ति उस शब्द या वाक्य या प्रसंग या सन्दर्भ का “संरचना” (Structure) को नहीं समझता है| अर्थात वह उसका सम्यक विश्लेषण एवं गहरा मूल्यांकन करने में समर्थ नहीं होता है, और इस सन्दर्भ में हम आप सभी पिछड़े माने जाने चाहिए, यदि हम में यह “आलोचनात्मक चिंतन” अपेक्षित अवस्था में नहीं है |

पिछड़े व्यक्ति, समाज, संस्कृति एवं राष्ट्र की एक विशेषता उसको “संख्या बल” (Number Force) में विश्वास होना है, और उनका ध्यान “मानसिक एवं आध्यात्मिक बल” की ओर नहीं जाता है| ऐसे में उनका यह ‘मानसिक एवं आध्यात्मिक’ पक्ष उपेक्षित रह जाता है और ये ‘सफल होते होते रह जाते’ की मृगमरीचिका (Mirage) में फंसे रह जाते हैं| इसे दुसरे शब्दों में कहें तो इनका ध्यान अर्थव्यवस्था के चौथे प्रक्षेत्र (Quaternary Sector) यानि ‘ज्ञान क्षेत्र’ की ओर एवं पांचवें प्रक्षेत्र (Quinary Sector) यानि ‘नीति निर्धारण क्षेत्र’ की ओर नहीं जाता है| इसीलिए ऐसे व्यक्ति या समाज या राष्ट्र कभी शिखर पर पहुँच भी जाता हैं, तो वे ज्ञान एवं नीति निर्धारण की विशेज्ञता के अभाव में जल्दी ही सरक (Sliding) कर नीचे गिर जाता हैं|

पिछड़ेपन की एक विशिष्ट विशेषता है कि वह “शारीरिक श्रम” को सम्मानजनक कार्य समझता है और इसी कारण अपने समाज को ‘शारीरिक श्रमिक’ बनाये रखने में गर्व महसूस करता है| ऐसे पिछड़े हुए व्यक्ति या समाज यह समझ ही नहीं पाता है, कि ‘मानसिक श्रम’ एवं ‘आध्यात्मिक श्रम’ करना ‘शारीरिक श्रम’ से ज्यादा कठिन है और ज्यादा महत्त्वपूर्ण भी है| ये लोग ‘शारीरिक श्रम’ को ही करना गौरान्वित समझते हैं, ‘मानसिक श्रम’ एवं ‘आध्यात्मिक श्रम’करने वाले को परजीवी (Parasite) समझते हैं, और इसीलिए ऐसे व्यक्ति और समाज पिछड़े हुए रहने को अभिशप्त होते हैं|

पिछड़े हुए व्यक्ति एवं समाज की एक ख़ास विशेषता है कि ये प्रतिक्रियाओं के द्वारा बड़ी आसानी से नियंत्रित किये जाते हैं या किए जा सकते हैं| अर्थात ऐसे व्यक्ति एवं समाज को निर्देशित एवं नियंत्रित करने का बहुत ही आसान तरीका यह होता है, कि उनकी भावनात्मक पीड़ा को उभार कर इस पर “त्वरित प्रतिक्रिया” लिया जाय| इसे कुछ लोग ‘पशुवत प्रवृति’ (Animilistic Tendencies) भी कहते हैं| इसी को उभारने के लिए इनको समय समय पर कुछ मुद्दे दिए जाते रहते हैं| इस तरह इनकी सारी ‘उर्जा’, ‘संसाधन’, ‘धन’, ‘समय’, ‘जवानी’ और ‘ध्यान’ को भटकाया जा सकता है या आसानी से भटका दिया जाता है| स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ने या विकसित होने के लिए इनकी अपनी कोई ‘कार्य योजना’ या ‘रणनीति’ नहीं होती है| ये ‘लगे रहो’ की रणनीति में विश्वास करते हैं, परन्तु इसकी ‘दशा’ एवं ‘दिशा’ के बारे कोई गहरी एवं सूक्ष्म समझ नहीं होती है| ‘पशुवत’ प्रवृति से मानव का ‘स्वत: प्रतिक्रिया’ (Reflex Action) से है| ‘स्वत: प्रतिक्रिया’ में यह माना जाता है कि इसमें ‘विचार मंथन’ नहीं किया जाता है और यह किसी भी क्रिया पर बिना गहराई से सोचे विचारे ही तात्कालिक प्रतिक्रिया दे दिया जाता है|  चूँकि "भड़कने" की यह प्रवृति पशुओं में पायी जाती है, और इसीलिए मानवों की ऐसी प्रवृति को ‘पशुवत’ प्रवृति ही कहा जाता है| इसीलिए यह कहा जाता है कि पिछड़ों को प्रतिक्रिया लेकर पशुवत “हाँक” लिया जाता या सकता है|

अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि “जो कोई समस्या चेतना के जिस स्तर पर उत्पन्न हुआ है, उसका समाधान चेतना के उसी स्तर पर रह कर नहीं किया जा सकता है”| परन्तु पिछड़ों की एक ख़ास एवं विशिष्ट विशेषता यह है कि ये लोग अपनी समस्या का समाधान उसी में खोजते हैं, जिसके कारण वे उलझे हुए हैं यानि जिसके कारण वह समस्या उत्पन्न हुई है| उदाहरणार्थ यदि कोई ‘ग्रन्थ’ (पवित्र या अपवित्र, मैं उसमे उलझना नहीं चाहता) कोई समस्या खड़ा करता है, तो ये लोग समाधान उसी में खोजेंगे| ये यह समझते ही नहीं हैं कि इसके लिए किसी दुसरे ‘चेतना’ के स्तर से इसका समाधान पाया जा सकता है| ये यह समझते ही नहीं हैं कि उसकी अवधारणात्मक संरचना में भी कोई बदलाव कर त्रुटि निवारण किया जा सकता है| विचारों यानि अवधारणाओं में कोई “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) भी हो सकता है यानि “Out of Box” भी सोचा जा सकता है, उनकी मानसिक दृष्टि (Vision) से बाहर की होती है| इसीलिए ऐसे पिछड़े सदैव भटकते रहते हैं, और ‘मंजिल पहुँच ही गए हैं’, के भ्रम में ‘मदमस्त’ रहते हैं|

पिछड़ों की रणनीति को समझने के लिए विश्व के विकसित देशों का अवलोकन किया जाना चाहिए| आपने भी देखा होगा कि ‘चीन’ या ‘रूस’ अपने विरुद्ध प्रतिक्रिया या टिपण्णी पर ध्यान देते हुए भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देता है| इनकी यानि शीर्षस्त समाजों की रणनीति शान्त, निश्चिन्त, निरन्तर, गोपनीय एवं व्यवस्थित होता है, कोई चौक चौराहे पर चिल्लाते हुए व्यक्त या क्रियान्वित करता हुआ नहीं होता है| ये पिछड़े रणनीतियों का ‘तमाशा’ करते हैं, और इसके प्रति कोई गंभीरता एवं गहराई नहीं होता है| ये चीखना, चिल्लाना, गाली देना, आलोचना करना और शिकायतें करने को “युद्ध कौशल की परकाष्ठा” समझते हैं| अपने आस पास के ऐसे “प्रखर” एवं “क्रान्तिकारी” नेताओं को ध्यान में रख सकते हैं| इन “प्रखर” एवं “क्रान्तिकारी” नेताओं से किसी को कोई वास्तविक ख़तरा उत्पन्न नहीं होता है, और इसीलिए इनके विरोधी इनका मजा लेते हैं और उन्हें कोई नुकसान यानि क्षति भी नहीं होने देते हैं| हाँ, ये चीखने, चिल्लाने, गाली देने, आलोचना करने, कोसने और शिकायतें करने वाले नेतागण अपने लोगों की सारी ‘उर्जा’, ‘संसाधन’, ‘धन’, ‘समय’, ‘जवानी’ और ‘ध्यान’ को अपने चीखने, चिल्लाने, गाली देने, आलोचना करने, कोसने और शिकायतें करने में लगायें रख कर अपने दुशमनों को वास्तविक सहायता करते हैं, और इस तरह अपने लोगों को कोई भी सकारात्मक एवं सृजनात्मक कार्य भी नहीं करने देते हैं| ये युद्ध जीत लेने के भ्रम में अपने और अपने लोगों को व्यस्त रखते हैं यानि उलझाएं रखते हैं| यह व्यक्ति, समाज, संस्कृति एवं राष्ट्र स्तर पर, सभी पर समान रूप से सही है|  

इन पिछड़ों की एक बहुत ही विशिष्ट खासियत होती है कि इनको इस बात का कतिपय आभास नहीं होता है कि ये जिस मुलभुत तत्वों का जिस आधार पर विरोध करते हैं, यही मुलभुत तत्व उनके विरोधी को एक मनोवैज्ञानिक ढंग से जबरदस्त रूप में मजबूत भी करते हैं| जैसे यदि कोई व्यक्ति या समाज किसी भी संस्कृति का सदस्य है और वह उसके किसी अमानवीय  कृत्य या विचार का विरोध करता है, तो वह उस अमानवीय कृत्य या विचार को पुरातन और सनातन साबित कर यानि बता कर उसकी प्रताड़ना को लम्बी अवधि का होना दर्शाना चाहता है| परन्तु वह यह नहीं समझ पाता है कि इस तरह वह प्रताड़ना को पुरातन और सनातन बता कर उसे वह एक गौरवशाली एवं इसीलिए एक सम्मानित सनातन संस्कृति का हिस्सा बता रहा है| इस तरह वह अपनी निकृष्ट गुणवत्ता में जीनीय विशेज्ञता को निरन्तरता दे रहा है यानि बता रहा है| अर्थात वह अपनी परंपरागत जीनीय विशेज्ञता के अनुरूप ही वह समाज और राष्ट्र को अपना महत्तम दे सकता है| वह इसमें कोई पैरेड़ाईम शिफ्ट करना नहीं चाहता है, क्योंकि उसमे आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता विकसित ही नहीं हुई है| वह Out of Box सोच ही नहीं सकता है, जबकि वास्तव में यह प्रताड़ना पुरातन और सनातन नहीं है| वह सन्दर्भ ग्रंथो से बाहर जा ही नहीं सकता है, और अपने विरोधियों के द्वारा बनाए गये तालाब और कुँओं में, जो पूर्णतया उनके नियंत्रण में होता है, तैरते हुए तथाकथित ‘क्रन्तिकारी’ विरोध करते करते डूब कर मर जाते हैं| वह सदैव जीत लेने के भ्रम में तैरते रहते हैं, और अपने विरोधियों के नवाचारी उलझनों को समझ ही नहीं पाते हैं|

इस तरह यह समस्या सिर्फ ‘अवसर’ के आधार पर आधारित है| इसमें अर्जित ज्ञान और कौशल का कोई महत्त्व नहीं होकर, सिर्फ जन्म के वंश के आधार पर होना है, जो अवैज्ञानिक, मनगढ़ंत, गलत और विकास विरोधी है| इस तरह यह अवधारणा यानि सोच ही ‘व्यक्ति’, ‘समाज’, ‘संस्कृति’ और ‘राष्ट्र’ विरोधी है| बस, इतना ही समझना पिछड़ापन का समाधान है, जो आलोचनात्मक चिंतन के अभाव संभव नहीं है| यही ‘व्यक्ति’, ‘समाज’, ‘संस्कृति’ और ‘राष्ट्र’ के पिछड़ापन का आधार है और समाधान भी है| हम और आप भी इस सापेक्षिक पिछड़ापन की परिभाषा में आ जाते हैं, यदि व्यक्ति के रूप में नहीं, तो ‘संस्कृति’ और ‘राष्ट्र’ के रूप में अवश्य ही| अन्यथा गौरवशाली इतिहास का भारत आज भी विश्व को नेतृत्व देता हुआ होता!

आचार्य निरंजन सिन्हा 

An Appeal

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Acharya Niranjan Sinha is an ‘Educationist’, an ‘Innovative Thinker’ and ‘Writer’ to transform the Society in general. He needs your kind support for improving the quality of content and for broadcasting & publishing these innovative Ideas.

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--- Prof (Dr) Vinay Paswan,

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Contact:  94302 88077.

3 टिप्‍पणियां:

  1. जब तक सदियों से शिक्षा, संपत्ति, सम्मान और सत्ता से वंचित वर्गों को "विशेष अवसर" प्रदान नहीं करेंगे, एक सशक्त और समृद्ध राष्ट्र का निमार्ण संभव नहीं है। बहुत ही सुंदर विषय वस्तु पर एक सार्थक एवं साहसिक आलेख। आचार्य निरंजन को हार्दिक बधाई एवं साधुवाद!

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  2. Critical thinking, Animalistic thinking, Number force आदि का उपयोग एवं दुरूपयोग का सही व तर्क पूर्ण विश्लेषण के लिए बहुत ही आभार।

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  3. इस जागरण भरें लेखन हेतु साधुवाद।

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