सोमवार, 26 सितंबर 2022

"इतिहास एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण" पुस्तक से - एक

मेरी एक पुस्तक – इतिहास एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रकाशनाधीन है| कुछ लोगों ने इस पुस्तक के स्वरुप को जानने के लिए इसके कुछ अंश को जारी करने का सुझाव दिया है| अनुपालनार्थ कुछ अंश जारी किया जा रहा है| यह अंश उसी पुस्तक से है ---

इतिहास की संरचना कई स्वरूपों में दिखती होती है|

 

1.                  “इतिहास का सूत्र या संकेत संरचना” (Click Structure of History) -

 यह इतिहास की संरचना का वह स्वरुप है, जिसमे एक सूत्र की संरचना यानि एक संकेत की संरचना से ही इतिहास से सम्बन्धित उस विषय का सारा सन्देश समझ में आ जाता है| यह सूत्र या संकेत कोई शब्द या कोई शब्द समूह हो सकता है| ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि एक संकेत अपने साथ ही उसके सम्पूर्ण ऐतिहासिक संरचना को प्रेषित कर देता है, जिसमे इतिहास की पूरी संरचना ही समाहित होता है| जैसे यदि कोई भारतीय “हिन्दू संस्कृति” को मानता हुआ है, तो इतिहास का संरचनावाद यह स्पष्ट संकेत (सन्देश) देता है कि वह भारतीय वर्ण व्यवस्था के किसी एक खास ‘वर्ण’ में किसी एक खास ‘जाति’ का सदस्य होगा और उसका जीवन एवं कर्तव्य बोध उसी जाति के अनुसार ही सुनिश्चित होगा, और कोई भी इस अवस्था को उसके जीवनकाल में किसी भी प्रक्रम से कभी भी बदल नहीं सकता है| वह एक निश्चित विश्वास एवं संस्कार में आस्था रखता हुआ किसी खास जीवन पद्धति, परम्परा, कर्मकाण्ड आदि को करता हुआ होगा| कहने का तात्पर्य यह है कि इतिहास के ‘संरचनावाद’ के कारण ही एक ही संकेत से सब कुछ स्वत: स्पष्ट हो जाता है| इस तरह एक इतिहासकार को यह स्पष्ट होना होता है कि वह एक इतिहासकार के रूप में शब्दों या शब्दों के समूहों के द्वारा कैसा सन्देश प्रेषित करना चाहता है? ........... एक गलत सन्देश या विध्वंसकारी विचार या आदर्श के सम्प्रेषण के लिए उसे इतिहास कभी भी माफ़ नहीं करेगा और उसकी अगली पीढ़ी भी उससे घृणा करेगी|

 

2.                  “इतिहास की संरचना का आशय एवं विस्तार” (Intentional and Extensional Structure of History) –

यह इतिहास की संरचना का दूसरा स्वरुप है, जो इतिहास में एक शब्द या शब्द समूह के द्वारा उसका आशय (Intention) एवं विस्तार (Extension) का अर्थ संप्रेषित करता है यानि अर्थ देता है| इसमें उन शब्दों या शब्द समूहों को तार्किकता (Logic) एवं दार्शनिकता (Philosophy) की संरचना के साथ शब्दों या शब्द समूहों में सन्दर्भ स्थापित करता है और शब्दों को एक खास अवधारणा (Concept) से जोड़ता है| यहाँ ‘आशय’ का अर्थ इतिहासकार की उस मंशा यानि नीयत (Intention) से है, जिसका  सम्प्रेषण (Communication) वह उस शब्द के साथ करना चाहता है| इसी तरह यहाँ ‘विस्तार’ (Extension) का अर्थ उस व्याप्ति (व्यापकता) से है, जो इतिहासकार उस शब्द के द्वारा देना चाहता है|

इसे निम्न उदाहरण से समझा जाय| जैसे यदि किसी व्यक्ति के बारे में किसी इतिहास में यह चर्चा है कि वह एक धार्मिक व्यक्ति था| यहाँ ‘धार्मिक’ शब्द में एक संरचनात्मक अवधारणा अन्तर्निहित है, जो इतिहास के इस शब्द का आशय या नीयत को दर्शाता है| ‘धार्मिकता’ की अवधारणा में संस्कृति, क्षेत्र, काल या कोई भी अन्य पृष्ठभूमि के अनुसार भिन्न भिन्न आशय हो सकता है| ..........  इसी तरह अलग अलग वस्तुओं की अलग अलग धार्मिकता होती है| हालाँकि यही गुणवत्ता और विशेषता का अर्थ विशेष मानव समूहों में किसी अलौकिक शक्ति, कर्मकांड, विश्वास आदि से भी जुड़ सकता है, जो उसकी संस्कृति, इतिहास, अनुभव एवं समझ के अनुसार बदल सकता है| यही भिन्नताएं इतिहास की संरचना का विस्तार (Extension) है, अर्थात एक ‘धामिक’ व्यक्ति से यह भी अर्थ निकल सकता है कि वह एक बौद्ध हो सकता है, या एक हिन्दू हो सकता है, या वह इस्लाम का अनुयायी हो सकता है, या किसी भी अन्य ऐसे सम्प्रदाय का अनुपालक हो सकता है, या कोई मानवतावादी हो सकता है, या कोई विज्ञानवादी हो सकता है, या कोई संशयवादी हो सकता है, या कोई अन्य ‘वादी’ हो सकता है| इस तरह इतिहास का संरचनावाद एक साथ किसी शब्द या वाक्य का ‘आशय’ भी देता है एवं उसको ‘विस्तार’ भी देकर अपने में समाहित कर लेता है| यहाँ भी एक इतिहासकार अपने द्वारा लिखित यानि निर्मित इतिहास के द्वारा ऐसा संरचना तैयार करता है, जो स्पष्ट रूप में और अन्तर्निहित भाव में उसी आशय का संचार करता है एवं उसी सन्देश का विस्तार भी करता है, जिसे वह सम्प्रेषित करना चाहता है| इस आशय एवं विस्तार को व्यापक/ सर्व समाज एवं सम्पूर्ण राष्ट्र के हितों एवं लक्ष्यों के अनुरूप होना होता है|

 

3.                  “इतिहास की नवबोल संरचना” (NewSpeak Structure of History) –

‘इतिहास की संरचना’ के साथ एक और शब्द या अवधारणा इतिहास की संरचना को समझने के लिए दिया गया है| यह इतिहास की संरचना में “नवबोध” यानि “NewSpeak” के प्रयोग के साथ है| इतिहास की संरचना में इस शब्द “NewSpeak” का प्रथम उपयोग मैंने किया है, जिसका हिंदी अनुवाद “नवबोल” (नया बोल यानि नया शब्द) किया हूँ| इसका सर्वप्रथम  उपयोग प्रसिद्ध लेखक जार्ज आरवेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “उन्नीस सौ चौरासी” (1984) में किया था| यह राजनीतिक सामाजिक  प्रचार में मुख्य रूप में इस्तेमाल की जाने वाली अस्पष्ट व्यंजनापूर्ण भाषा है, जिसका एक ख़ास उद्देश्य होता है| यह किसी भी भाषा में किसी ‘विचार’ (Thought) को अत्यंत सीमित (Diminish) करने के लिए या उसके मूल अर्थ को प्रतिस्थापित करने के लिए बनाया गया (Designed) संरचना होता है| यह ‘नवबोल’ समाज में स्थापित ‘बड़े भाई’ (Big  Brother) का होता है, जिसमे धूर्ततापूर्ण भाव एवं मंशा होता है| ‘इतिहास का नवबोल संरचना’ को उदाहरण के साथ निम्नवत समझा जा सकता है| भारत के बौद्धिक (प्राचीन) काल में “नाग” शब्द का उपयोग समाज के संभ्रांत, बौद्धिक, समतावादी, एवं न्यायप्रिय वर्ग के लिए होता था| इनके विचार एवं व्यवहार न्याय, समानता, स्वतंत्रता एवं बधुत्व पर आधारित था, जो “समानता का अन्त” करने वाली व्यवस्था यानि ‘सामन्तवादी व्यवस्था’ के लिए घातक (Lethal) था| इसी कारण ‘नाग’ शब्द के भाव एवं अर्थ बदल देना था| इतिहास के कालक्रम में इसे समाज के नव उदित ‘बड़े भाइयों’ (सामन्ती शक्तियों) के द्वारा इसके भाव एवं अर्थ को अत्यन्त सीमित करने एवं प्रतिस्थापित करने के लिए समाज के सम्मनित इस ‘नाग’ के नाम से जाना जाने वाले समूह को एक जहरीले सांप (Snake) के समानार्थी बना दिया गया| .....   यह ‘नाग’ इतना महत्वपूर्ण था कि कई भारतीय भाषाओं की लिपि का नामकरण ‘देवों’ की ‘नागरी’ लिपि पर हुआ अर्थात ‘देवनागरी’ लिपि हुआ| प्रमुख प्राचीन ‘नागपुर’ नगर एवं ‘छोटानागपुर’ क्षेत्र इसी विशेष वर्ग के नाम पर हुआ| सामन्ती काल में ‘नाग’ को एक भारतीय जहरीले सांप से जाना जाने लगा| यह ‘नाग’ सामाजिक समूह ही प्राचीन काल में बुद्ध, बौद्ध एवं ‘शिव’ को संरक्षण देता था, जिसे सामन्तकाल में एक जहरीले सांप से संरक्षित दिखाया गया| ‘बौद्धिक नाग’ एवं उसकी समानतावादी अवधारणा सामन्तवाद के दर्शन के विरुद्ध था| इसका प्रभाव मध्यकालीन मूर्तिकला एवं चित्रकला पर भी देखा जा सकता है| “इतिहास का नवबोल” (New Speak of History) अवधारणा का कई दृष्टान्त इतिहास में भरे पड़े हैं, हमें सिर्फ सावधानी से नजरे घुमानी है| इस ‘इतिहास के नवबोल’ को इस संरचनावाद के सन्दर्भ में समझना होगा, अन्यथा कोई भी ‘नाग’ का अन्तर्निहित अर्थ नहीं समझ पायेगा|

 

4.                  “इतिहास  का संरचनात्मक व्यवहारवाद” (Structural Behaviourism of History) -  

‘इतिहास की संरचना’ से सम्बन्धित एक और अवधारणा मैंने दिया है, जो इतिहास की संरचना में व्यवहारवाद का प्रभाव स्पष्ट करता है| यह इतिहास में व्यक्ति, समाज, एवं संस्कृति के व्यवहार के प्रदर्शन, क्रियाविधि, एवं परिणाम को उसकी आंतरिक संरचना से स्पष्ट करता है| यह किसी व्यक्ति, समाज, एवं संस्कृति के आदर्श, उसकी भावना, एवं उसकी आंतरिक मानसिक अनुभव तथा सामान्य गतिविधियों को स्पष्ट करता है कि यह सब कैसे निर्मित, नियमित, नियंत्रित एवं संचालित होता है? इसे मानवीय मनोविज्ञान के सिगमंड फ्रायड की मनोविश्लेषणात्मक (Psycho Analytical) पद्धति से भी जोड़ा जा सकता है| इस व्यवहारवाद में मानव, समाज एवं संस्कृति  को इस रूप में देखा एवं समझा जाता है कि एक मानव, समाज एवं संस्कृति का आदर्श, उसकी भावना, एवं उसकी आंतरिक मानसिक अनुभव तथा सामान्य गतिविधियाँ उसके बाह्य वातावरण के द्वारा स्थापित किए गए  उद्दीपनों (Stimuli) के प्रति और आन्तरिक जैवकीय प्रक्रियाओं के प्रति की गई प्रतिक्रियाओं (Reaction to Stimuli) के अनुरूप होता है| अर्थात किसी भी व्यक्ति, समाज एवं संस्कृति के द्वारा किए गए कोई भी कार्य, या स्थापित आदर्श या कोई भी व्यवहार  उसके वातावरण द्वारा संचालित, नियमित एवं नियंत्रित कारकों की प्रतिक्रया के अनुसार होता है| जैसे यदि किसी व्यक्ति के द्वारा ‘गोबर (Cow dung) को किसी ‘देव’ मान कर पुजवाना है, तो उसके ऐसे स्वीकार्य व्यवहार को निर्मित करने एवं उसे संचालित करने के लिए उसकी शिक्षा एवं संस्कार को नियमित एवं नियंत्रित करना होगा| शिक्षा के क्षेत्र में उस व्यक्ति या उस व्यक्ति समूह को संस्कार या धर्म या ‘ईश्वरीय इच्छा’ के नाम पर ‘आस्थावान’ बनाना होगा, ‘तर्कहीन’ बनाना होगा, एवं अध्ययन से वंचित कर ‘मूढ़’ बनाना होगा| इसके ही साथ उसे मानसिक रूप से स्वचालित  (Automated) करने के लिए उसके संस्कार को बदलना होगा| मानसिक रूप से स्वचालित संस्कार के लिए इस कार्य एवं व्यवहार को ‘अपनी महान एवं गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत तथा धरोहर’ के नाम पर एवं पुरातन तथा सनातन महान धर्म के नाम पर “आस्थावान” बनाना होगा| ...........

“इतिहास  का संरचनात्मक व्यवहारवाद” में सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण  को समझने के लिए किसी व्यक्ति की अपेक्षा “संस्थाएँ” (Institutions) ही ज्यादा प्रभावशाली (Impressive) एवं प्रभावकारी (Effective) होती है| किसी व्यक्ति की अपेक्षा ‘संस्थाएँ’ ही किसी भी व्यक्ति, समाज एवं संस्कृति के आदर्श एवं व्यवहार को निर्मित, नियमित एवं नियंत्रित करता है| एक व्यक्ति का जीवन काल बहुत छोटा होता है, जबकि एक संस्था का जीवन काल बहुत ही लंबा होता है| व्यक्ति की अपेक्षा संस्थाएँ अदृश्य होती है, और इसकी क्रियाविधि अच्छे अच्छे की समझ से बाहर होती है| ........

5.                  “इतिहास का  संरचनात्मक स्वरुप” (Structural Form of History) - 

किसी भी ऐतिहासिक संरचना के दो स्वरुप  – एक, मानसिक स्वरुप यानि मानसिक तथ्य (Mentifacts) एवं दुसरा, भौतिक स्वरुप यानि वस्तु तथ्य (Artifacts) होता हैं| मानसिक सरंचना अदृश्य होता है, और वस्तु संरचना दृश्य होता है| आप मानसिक संरचना को ‘सांस्कृतिक संरचना’ कह सकते हैं और वस्तु संरचना को ‘सभ्यता का संरचना’ कह सकते हैं| इस तरह इतिहास की संरचना दृश्य एवं अदृश्य दोनों स्तर पर एक साथ कार्यरत होता है| ‘सांस्कृतिक संरचना’ में निरन्तरता होती है, भले ही समय के साथ उसके स्वरुप बदलते रहे, या विरूपित होते रहें, या संवर्धित होते रहें| ‘वस्तु संरचना’ में निरन्तरता नहीं होती है, क्योंकि भौतिक वस्तुओं को एक निकट समय में समाप्त होना होता है, अर्थात एक नीयत जीवन काल होता है| इसीलिए संस्कृति में निरन्तरता होती है, जबकि सभ्यताएँ आती जाती रहती है| इसे एक उदाहरण से समझें| महाराज शिवाजी एक सशक्त एवं प्रभावशाली शासक हुए, परन्तु उन पर इतिहास की संरचना के दोनों स्वरूपों का प्रभाव रहा| उनका ‘राजतिलक’ समारोह काफी चर्चित माना जाता है| मध्य काल में स्थानीय भारतीय शासकों को अपने क्षेत्र का स्वाभाविक स्वामी नहीं माना जाता था, जबतक उनका ‘राजतिलक’ समारोह’ तथाकथित “विधिवत” नहीं होता था| ‘राजतिलक’ के द्वारा उनमे ‘देवत्व’ प्रदान किया जाता था, यानि उनमे ‘देवत्व’ स्थापित किया जाता था| इतिहास की सांस्कृतिक संरचना का ‘दबाव’ एवं ‘प्रभाव’ था कि एक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली राजा को भी एक ‘विधिमान्य’ प्रक्रिया से गुजरना पड़ा| इनका एक राजा होना इतिहास की ‘वस्तु संरचना’ का उदाहरण हुआ| इस तरह एक शासक पर इतिहास की संरचना’ का प्रभाव एवं नियंत्रण हुआ| यह इतिहास का संरचनात्मक प्रभाव है| स्पष्ट है कि इतिहास का संरचनात्मक प्रभाव अपने दोनों स्वरूपों में एवं दोनों के अंतर्संबंधों के संयुक्त प्रभाव एवं नियंत्रण में कार्य करता है|

निरंजन सिन्हा

 

सोमवार, 12 सितंबर 2022

इतिहास में संरचनावाद (Structuralism in History)

इतिहास को बेहतर ढंग से समझने के लिए

'इतिहास में संरचनावाद'

एक अनूठा एवं नया अवधारणा है,

एक नया  उपकरण (Tool) है|

इतिहास में संरचनावाद समझने से पहले हमें संरचनावाद’ (Structuralism) को समझना होगातब ‘इतिहास में संरचनावाद’ की अवधारणाउसकी क्रियाविधि एवं उपयोगिता को समझा जा सकता है| ‘संरचनावाद’ प्रकृति एवं मानवीय जीवन की एक ज्ञान प्रणाली (Mode of Knowledge) हैजिसमें किसी ज्ञान के सम्पूर्ण अर्थ में उसकी अलग अलग विशिष्ट कारकों की स्वतंत्र भूमिका की अपेक्षा उन विशिष्ट कारकों के आपसी ‘सम्बन्धों’ (Relationships) के प्रभाव मेंयानि परिणाम मेंयानि उसकी सम्पूर्णता में निष्ठा एवं विश्वास रखता हैअर्थात कोई ज्ञान अपने विभिन्न भागों के स्वतंत्र एवं एकान्त / अलगाव (Isolation) में धारित गुणवत्ता के द्वारा स्पष्ट नहीं होकरअपने विभिन्न भागों की अपेक्षा अपने विभिन्न सम्बन्धों के समूह (Set of Relationships) के रूप में बेहतर ढंग से स्पष्ट होता हैकोई भी ज्ञानचाहे वह इतिहास का ही ज्ञान होविभिन्न सम्बन्धों के समूह के द्वारा ही बेहतर ढंग से स्पष्ट होता हैअर्थात इतिहास का कोई भी सम्यक ज्ञान अपने विभिन्न सम्बन्धों के समूह (Set of Relationships) के द्वारा तैयार किए गये ‘एक संरचना’ के द्वारा स्पष्ट होता हैये विभिन्न सम्बन्धों के समूह मिलकर एक संरचना बनाते हैजिसे समझ कर ही किसी भी ज्ञान को ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता हैइस तरह यह "ज्ञानवाद  का अभिवृति" (Epistemological Attitude) के रूप में स्थापित होता है|

इस संरचनावाद का सिद्धांत सर्वप्रथम स्विट्ज़रलैंड के भाषा वैज्ञानिक फर्डिनांड दी सौसुरे (Ferdinand de Saussure) (1837- 1913) ने भाषा के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक – “Course in General Linguistics” में दिया थाजिसका उपयोग कई विविध सामाजिक विज्ञान की विषयों में किया जाने लगाइस तरह संरचनावाद का सार यह विश्वास है कि किसी भी चीज को एक अलगाव (Isolation) में ढंग से नहीं समझा जा सकता हैबल्कि उसे उसके पूरी बनावट एवं उसके सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए| यह पूरी तरह ‘तार्किकता’ पर आधारित होता हैइस पूरी बनावट एवं उसके सन्दर्भ को ही उसका संरचना समझा जाता हैस्पष्ट है कि इसके अनुसार हर व्यवस्था में यानि तंत्र में एक निश्चित संरचना यानि बनावट होता हैकिसी की संरचना ही उसकी स्थिति को सम्पूर्णता में स्पष्ट करता है यानि व्याख्यापित करता हैउस तंत्र की संरचनात्मक नियम ही उनके सहअस्तित्व को निर्धारितनियमित और प्रभावित भी करता हैसौसुरे के अनुसार भाषा की संरचना’ ही किसी “प्राकृतिक यानि आदिम मानव” (Homo Natural/ Homo Primitive) को एक ‘आधुनिक मानव’ (Homo Sapiens) बनाता हैएक सामाजिक मानव’ यानि ‘मनुष्य‘ (Homo Socious) बनाता हैऔर एक ‘सृजनशील मानव’ (Homo Faber) बनाता है| भाषा में ध्वनि का उद्गार होता हैभाषा में भावों एवं अर्थों का संचार होता हैएवं किसी खास आशय का सम्प्रेषण होता हैऔर यह सब एक पशु में भी होता हैपरन्तु एक मानव में भाषा की विशिष्ट संरचना होती हैऔर इस स्तर की संरचना पशुओं में नहीं होता हैइसी विशेषता के कारण एक आदिम मानव अपने कई विशिष्ट स्वरूपों में आज कार्यरत एवं अभिव्यक्त होता हैजबकि इसके अभाव में ही पशुओं में ऐसी कोई प्रगति नहीं दिखती हैअत: सौसुरे के अनुसार भाषा की सही अभिव्यक्तिसंचारअर्थ एवं आशय के सम्प्रेषण में ‘भाषा का संरचनावाद’ समझना आवश्यक है|

प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक एवं दार्शनिक प्रो० थामस सैम्युल कुहन (Thomas S Kuhn) ने 1962 में एक पुस्तक – “The Structure of Scientific Revolution” लिखीइसमें इन्होने समझाया कि ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’ के लिए भी एक निश्चित संरचना (Structure) होना चाहिए और संरचनाओं में परिवर्तन के कारण ही नए एवं मौलिक खोज (Discovery) एवं आविष्कार (Invention) किये जाते हैं या किये जा सकते हैंउन्होंने इसे विज्ञान के सन्दर्भ में समझाया हैलेकिन यह किसी भी क्रान्ति के लिएचाहे वह वैज्ञानिक क्रान्ति होया और कोई सामाजिकसांस्कृतिकशैक्षणिकआर्थिकया राजनीतिक क्रान्ति ही होके सन्दर्भ में समान रूप से सही हैयह क्रान्तिकारी परिवर्तन या रूपांतरण मूलत: विचारों की संरचनाओं में “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) से होता है| यह पैरेड़ाईम शिफ्ट विचारों की मौलिकता में बहुत बड़ा संरचनात्मक बदलाव होता है|

यह संरचनात्मक बदलाव सूचनाओंतथ्योंविचारोंप्रक्रियाओं आदि में पुनर्व्यवस्थापन (Re Arrangment)पुनर्संयोजन (Re Combination)पुनर्विन्यास (Re Orientation)पुनर्गठन (Re Organization), पुनर्संरचना (Re Structure) आदि से होता हैया सन्दर्भ (Reference) बदलने से होता हैया पृष्टभूमि (Background) बदलने से होता हैअर्थव्यवस्था के पांचवें प्रक्षेत्र (Quinary Sector) में प्राथमिक प्रक्षेत्र (Primary Sector)द्वितीयक प्रक्षेत्र (Secondary Sector), तृतीयक प्रक्षेत्र (Tertiary Sector) के अलावे चौथे प्रक्षेत्र (Quaternary Sector) के “ज्ञान’ (Knowledge) की जानकारीतथ्योंअनुभव एवं विचारों को अपने समेटते हुए इनका पुनर्व्यवस्थापनपुनर्संयोजनपुनर्विन्यासपुनर्गठनपुनर्संरचना आदि करके या सन्दर्भ या पृष्टभूमि की ही ‘संरचना’ में बदलाव ला कर कार्य किया जाता हैपांचवें प्रक्षेत्र (Quinary Sector) में नई योजनाओंनई परियोजनाओंनए आदर्शों आदि का स्थापन एवं निर्माण किया जाता है और एक इतिहासकार का कार्यक्षेत्र इसी में होता है| जैसा कि हम जानते हैं कि अर्थव्यवस्था में प्राथमिक प्रक्षेत्र में प्रकृति से प्राप्त या उत्पादित वस्तुओं का संग्रहण होता हैजिसमे कृषिपशुपालनमत्स्यपालनखननवनोत्पाद आदि शामिल हैंजिनके अनुभवोंतथ्योंप्रक्रियाओं एवं विचारों की संरचना तैयार किया जाता हैइसी तरह द्वितीयक प्रक्षेत्र में प्राथमिक प्रक्षेत्र से प्राप्त वस्तुओं का “मूल्यवर्धन” (Value Addition) किया जाता हैयानि उसे और उपयोगी बनाया जाता है और सामान्यत: इसे उद्योग (Industry) कहा जाता हैतृतीयक प्रक्षेत्र में उपरोक्त दोनों से सम्बन्धित एवं अन्य आवश्यक सेवाएँ (Services) शामिल हैजिनमे परिवहनसंचारवितरण आदि सहित सभी प्रकार की सेवाएँ शामिल हो जाती हैचौथे प्रक्षेत्र में ज्ञानार्जन के सभी विषय एवं क्षेत्र आते हैंइन सभी चारों के संरचनाओं में या उसके सन्दर्भ या पृष्टभूमि को बदल कर किसी भी तरह से परिवर्तनबद्लाव एवं रूपांतरण के द्वारा नया विचार प्राप्त करना ही पंचम प्रक्षेत्र की परिधि में आता हैयह अर्थव्यवस्था का सबसे सर्वोच्चसबसे उत्कृष्टसबसे बारीक एवं सबसे ज्यादा उत्पादक प्रक्षेत्र (Sectors) होता है|

एक “योग्य इतिहासकार” भी इसी पांचवें प्रक्षेत्र का कार्यशील व्यक्ति होता हैजो अपने रचित इतिहास के द्वारा वह ‘इतिहास बोध’ (Perception of History) तैयार करता हैजो संस्कृति निर्माण के रूप में समाज को सदियों तक संचालितप्रभावितनियमित एवं नियंत्रित करता रहता हैइसीलिए प्रसिद्ध लेखक जार्ज ऑरवेल ने कहा था – जो इतिहास पर नियंत्रण रखता हैवह भविष्य पर भी नियंत्रण रखता है|” एक “योग्य इतिहासकार” शासन की नीतियों एवं आदर्शों को दिशा एवं आधारभूत संरचना देता हैयानि शासन की नीतियों एवं आदर्शों को दिशा देने के लिए एवं आधारभूत संरचना के निर्माण के लिए कार्य करता हैइस तरह एक इतिहासकार शासन पद्धति को प्रभावितनियमित  एवं  नियंत्रित भी करता हैहमें एक इतिहासकार के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को समझनी हैतभी वह समाजवह संस्कृति एवं वह राष्ट्र एक शक्तिशालीसमृद्धसम्पन्नसुखमय एवं विकासशील बन सकता हैएक इतिहासकार ही किसी देश की विभिन्न संस्कृतिविभिन्न धर्मविभिन्न भाषाविभिन्न विश्वासविभिन्न परम्परा एवं विभिन्न संस्कार आदि कई विविधताओं को एकसूत्र में लाने के लिए यानि जोड़ कर एकीकृत करने के लिए आवश्यक “संरचना” तैयार करता हैजिसके आधार पर ही कोई सांस्कृतिक नव निर्माण होता हैबहुत दुःख होता हैजब एक इतिहासकार अपनी इस महत्वपूर्ण भूमिका से बेखबर होता हैया लापरवाह होता हैया उदासीन होता है

इस संरचनावाद के अंतर्गत एक इतिहासकार की कई स्वरूपों में भूमिका होती हैइसी संरचनावाद का एक स्वरुप है – “इतिहास का सूत्र या संकेत संरचना” (Click Structure of History)जिसमे एक सूत्र यानि एक संकेत से ही इतिहास का सारा सन्देश समझ में आ जाता हैऐसा इसलिए होता हैक्योंकि एक संकेत उसके सम्पूर्ण संरचना को प्रेषित कर देता हैजिसमे पूरी संरचना समाहित होता हैजैसे यदि कोई भारतीय “हिन्दू संस्कृति” को मानता हुआ हैतो संरचनावाद यह स्पष्ट संकेत (सन्देश) देता है कि वह भारतीय वर्ण व्यवस्था के किसी एक खास ‘वर्ण’ में किसी एक खास ‘जाति’ का सदस्य होगा और उसका जीवन एवं कर्तव्य बोध उसी के अनुसार सुनिश्चित होगाऔर इस अवस्था को किसी भी प्रक्रम से कोई भी बदल नहीं सकता हैवह एक निश्चित विश्वास एवं संस्कार में आस्था रखता हुआ किसी खास जीवन पद्धतिपरम्पराकर्मकाण्ड आदि को करता हुआ होगाकहने का तात्पर्य यह है कि ‘संरचनावाद’ के कारण ही एक ही संकेत से सब कुछ स्वत: स्पष्ट हो जाता हैइस तरह एक इतिहासकार को यह स्पष्ट होना होता है कि वह एक इतिहासकार के रूप में शब्दों या वाक्यों या वाक्य समूहों के द्वारा कैसा सन्देश प्रेषित करना चाहता हैएक इतिहासकार इस मामले में सावधान होता हैएक गलत सन्देश या विध्वंसकारी विचार या आदर्श के सम्प्रेषण के लिए उसे इतिहास कभी भी माफ़ नहीं करेगा और अगली पीढ़ी भी उससे घृणा करेगा|

इसी संरचनावाद का दूसरा स्वरुप है – “इतिहास का आशय/ नीयत एवं विस्तार/ व्याप्ति संरचना” (Intensional and Extensional Structure of History), जो एक तार्किकता एवं दार्शनिकता के साथ शब्दों में सन्दर्भ स्थापित करता है और शब्दों को एक खास अवधारणा से जोड़ता हैजैसे यदि किसी व्यक्ति के बारे में किसी इतिहास में यह चर्चा है कि वह एक धार्मिक व्यक्ति थायहाँ ‘धार्मिक’ शब्द में एक अवधारणा अन्तर्निहित हैजो इस शब्द का आशय या नीयत को दर्शाता है| ‘धार्मिकता’ की अवधारणा में संस्कृतिक्षेत्रकाल या कोई भी अन्य पृष्ठभूमि के अनुसार भिन्न भिन्न आशय हो सकता हैकिसी भी भौतिक पदार्थ की ‘धार्मिकता’ उसकी किसी गुण या विशेषता को इंगित करता हैजैसे लोहा एक धातु हैऔर ‘ताप’ एवं ‘विद्युत’ का संचरण उसके माध्यम से होना उसकी ‘धार्मिकता’ को सूचित करता हैजैसे पानी (Water) की धार्मिकता है कि वह शीतलता प्रदान करेकिसी बर्तन में नहीं रखा जाय तो वह बहने लगेगाऔर यदि किसी बर्तन में रखी जाय तो वह उस वर्तन का आकार (Shape) ग्रहण कर लेता हैइसी तरह अलग अलग वस्तुओं की अलग अलग धार्मिकता होती हैहालाँकि यही गुणवत्ता और विशेषता का अर्थ विशेष मानव समूहों में किसी अलौकिक शक्तिकर्मकांडविश्वास आदि से भी जुड़ सकता हैजो उसकी संस्कृतिइतिहासअनुभव एवं समझ के अनुसार बदल सकता हैयही भिन्नताएं संरचनावाद का विस्तार (Extension) हैअर्थात एक ‘धामिक’ व्यक्ति से यह भी अर्थ निकल सकता है कि वह एक बौद्ध हो सकता हैया एक हिन्दू हो सकता हैया वह इस्लाम का अनुयायी हो सकता हैया किसी भी अन्य ऐसे सम्प्रदाय का अनुपालक हो सकता हैया कोई मानवतावादी हो सकता हैया कोई विज्ञानवादी हो सकता हैया कोई संशयवादी हो सकता हैया कोई अन्य ‘वादी’ हो सकता हैइस तरह संरचनावाद एक साथ किसी शब्द या वाक्य का ‘आशय’ एवं ‘विस्तार’ को भी समाहित कर लेता हैयहाँ भी एक इतिहासकार अपने द्वारा लिखित यानि निर्मित इतिहास के द्वारा ऐसा संरचना तैयार करता हैजो स्पष्ट रूप में और अन्तर्निहित भाव में उसी आशय एवं विस्तार का सन्देश देता हैजो व्यापक/ सर्व समाज एवं सम्पूर्ण राष्ट्र के हितों एवं लक्ष्यों के अनुरूप होता है|

संरचनावाद एक दर्शन हैएक अध्ययन पद्धति हैजो किसी भी विषय की गहराइयों में जाकर उसकी संरचना को समझने की दृष्टि देता है और उसके अन्तर्निहित अर्थ यानि उसके विशिष्ट आशय तक पहुंचता है| इसीलिए इतिहास में संरचनावाद का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता हैजो किसी भी कारण से अभी तक इतिहास विषय से अलग रहायह हमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के आंतरिक प्रतिरूप (Internal Pattern) को समझने एवं समझाने के लिए उपयोगी एवं सहायक हैयह सामाजिक विज्ञान में जांच-पड़ताल (Inquiry) का संरचनात्मक प्रक्रिया या प्रणाली (Mode) हैजो उसकी संरचनात्मक ढांचे को समझने या उनके सम्बन्धों को पहचानने में ही मदद नहीं करता हैअपितु उसके दृश्य दुनिया के अन्तर्निहित अर्थ को भो खोज निकलता हैअर्थात उसके सतही यानि शाब्दिक अर्थों के साथ ही उनकी अन्तर्निहित अर्थों को यानि उसके भावार्थों को भी स्पष्ट करता हैयह मानव मस्तिष्क की अचेतन एवं अवचेतन की गहराइयों में जाकर उसके छुपे हुए कारणोंछिपी हुई क्रियाविधि (Mechanism) एवं कुछ गहरी संरचनाओं के सन्दर्भ में उसके अर्थ को स्पष्ट करता हैवैसे यह सब उसके प्रत्यक्ष अभिव्यक्त विश्वासविचारव्यवहारमूल्य एवं प्रतिमान के सतही एवं दृश्य चेतना द्वारा स्पष्ट नहीं होता हैइस तरह स्पष्ट है कि किसी भी शब्दया किसी भी वाक्यया किसी भी वाक्य समूह के दो अर्थ होते हैं, - सतही अर्थ एवं अन्तर्निहित अर्थअन्तर्निहित अर्थ बदलते सन्दर्भ या पृष्टभूमि में बदल भी जाता हैऔर इसीलिए एक ही शब्द या वाक्य या वाक्य समूह के एक ही साथ कई भिन्न अर्थ हो सकता हैजो अपने सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग होता हैजैसे बौद्धिक काल में ‘भगवान’ शब्द उनके लिए प्रयुक्त होता थाजिन्होंने अपनी ‘ईर्ष्या’, ‘द्वेष’ आदि दुर्गुणों को ‘भग्न’ (Destroy) कर लियालेकिन इसी शब्द का उपयोग सामन्त (मध्य) काल में तथाकथित एक ‘ईश्वरीय’ व्यक्ति के लिए होने लगाइस तरह एक भगवान जो एक आदर्शअनुकरणीय एवं पूजनीय व्यक्ति थासामंत (मध्य) काल में ईश्वर (God) हो गयायह सब ‘इतिहास में संरचनावाद’ की समझ के बिना समुचित ढंग से नहीं समझा जा सकता है|

संरचनावाद एक बौद्धिक प्रवृति हैजो सामाजिकसांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक वास्तविकताओं को सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचनाओं के सन्दर्भ में समझने में सहायता करता हैऔर उसकी समुचित व्याख्या करता है| यह संरचनावाद सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों और संयोजनों को सामाजिकसांस्कृतिक एवं आर्थिक शक्तियों के सामूहिक संरचना के प्रतिफल के रूप में व्यक्त करता हैइस सामूहिक संरचना में प्रस्थिति (Status), स्तर (Level), क्षेत्रअवस्थिति (Location), अन्य इकाइयांतथा आर्थिक शक्तियों के उत्पादनवितरणविनिमयउपभोग एवं संचार के तत्व आदि की भूमिका स्वतंत्र रूप में एवं सामूहिक रूप में क्रियाशील होता हैइतिहास की कोई भी एक घटना को किसी एक स्वतंत्र कारक का प्रतिफल नहीं माना जा सकतायह भले ही किसी एक विशिष्ट कारक के द्वारा प्रारंभ हुआ होपरन्तु इसके साथ ही कई अन्य कारक उस पर एकसाथ क्रियाशील हो जाता है और इसका परिणाम उन सबों का संयुक्त परिणाम होता हैजैसे सामन्तवाद का उदय का प्रारंभ अर्थव्यवस्था के एक कारक “विनिमय’ (Exchange) के माध्यम – ‘मुद्रा’ (Currency) के ‘प्राधिकार’ (Authority) एवं उसके द्वारा प्रदत्त ‘गारन्टी’ (Guarantee) के समाप्त होने से हुआलेकिन इसके साथ ही इसने तंत्र एवं व्यवस्था के ‘वितरण’ (Distribution) को एवं तदुपरांत ‘उत्पादन’ (Production) को नकारात्मक रूप में प्रभावित कियाफिर इसमें ‘संचार’ (Communication) की शक्तियां प्रभावशाली हो गईइस तरह विनिमयवितरणउत्पादन एवं संचार के कारक एवं शक्तियाँ मिल कर एक सुनिश्चित ‘संरचना’ बनाया और उसी का प्रतिफल ‘सामन्ती व्यवस्था’ का उदय एवं विस्तार हुआ|

सामन्ती व्यवस्था’ की संरचना को समझने के लिए इसके विविध क्रियाविधि (Mechanism), प्रक्रिया (Processes) एवं सम्बन्धों (Relations) को समझना चाहिएइसके साथ ही इसके कई विविध सामाजिकसांस्कृतिकधार्मिकआर्थिक एवं राजनीतिक स्वरुप एवं प्रतिरूप बनेएक सामन्ती व्यवस्था की एक ख़ास विशेषता यह होती है कि वह “भक्ति” (Devotion) भाव पर आधारित होता है| इसी भक्ति के कारण ही हर छोटा सामन्त अपने बड़े सामन्त के प्रति अपनी इसी भक्ति एवं निष्ठां भाव के प्रदर्शन के लिए अपनी बहनों एवं बेटियों को अपने से बड़े सामन्तों के यहाँ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी निष्ठा को पुष्ट करता रहाकिसी भी ‘भक्ति’ में सम्पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण चाहता हैयही राजनीतिक भक्ति सभी समकालीन तत्वों को प्रभावित किया और अपने में समाहित कर नया स्वरुप दियातब धर्म में भी ‘भक्ति’ का भाव एवं दर्शन आ गयाधर्म में भी ‘भक्ति’ ही मुक्ति यानि ‘मोक्ष’ का साधन बन गयातब सामन्ती व्यवस्था के स्तरीकरण (Stratification) अनुरूप देवताओं में भी स्तरीकरण हो गयातब भाषा पर भी ‘भक्ति’ का प्रभाव आ गया और ‘भक्तिवाद’ का उदय हो गयाधर्म का ‘भक्ति आन्दोलन’ भी इसी आवश्यकता का प्रतिफल हुआउसके बाद सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था ही तथाकथित “ईश्वर” एवं उसके “ईश्वरीय शक्ति” की ‘भक्ति’ (Devotion) में डूब गया और ‘भक्ति’ को तथाकथित ईश्वरीय सत्ता तक पहुंचाने के लिए धार्मिक अभिकर्ता (Agent) भी उपलब्ध हो गए| ‘भक्ति’ के विविध स्वरुप समाज में व्याप्त हो गयाजब कोई “सामन्तवाद की संरचना” (Structure of Feudalism) को समझ जाता हैतब वह उससे जुड़ी हर प्रक्रिया एवं उत्पाद को भी बेहतर ढंग से समझने लगता है|

 संरचनावाद किसी भी प्रक्रियाओंया परिणामोंया विशिष्टताओंया सम्बन्धों के मूलमौलिकएवं आधारभूत संरचना में किसी एक कारक या तत्व की खोज की अपेक्षा उसमे अन्तर्निहित “व्यवस्था” (Order) को तलाशता हैअर्थात उन प्रक्रियाओंया परिणामोंया विशिष्टताओंया सम्बन्धों के पीछे के ‘दर्शन’ (Philosophy) को समझता हैइसी को ध्यान में रख कर वह उसका ‘विश्लेषण’ (Analyse) कर उन सरचना एवं उनके संबंधों को उद्घाटित करता हैसंरचनावाद के अनुसार किसी मानव की सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना उसकी मानसिकसामाजिकसांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षमताओं एवं क्रियाओं का संयुक्त प्रतिफल हैयानि इन संरचनाओं का परिणाम है|

इतिहास में संरचनावाद की बनावट एवं क्रियाविधि को समझने के लिए हमें ‘इतिहास एवं मिथक में सम्बन्ध’, ‘इतिहास में विज्ञान’, ‘ज्ञानवाद पर इतिहास की छाया’, ‘इतिहास की सापेक्षिता’, ‘इतिहास को चेतनता के नियंत्रक के रूप में’, ‘इतिहास मूल्य एवं प्रतिमान के स्थिरक के रूप में’, ‘संस्कृति को इतिहास के उत्पाद के रूप में’, ‘धर्म के सृजन में इतिहास’, एवं ‘इतिहास राष्ट्र के नियंत्रक एवं निर्माता के रूप में’ आदि इतिहास की भूमिकाओं को समझना है और अपने इतिहास रचना में ध्यान में रखना है|

इसका ध्यान रखने से इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए जिस ‘संरचना’ को तैयार करते हैंवह संरचना किसी भी समाज कोकिसी भी संस्कृति को और किसी भी राष्ट्र को वह अकल्पनीय उचाईयां देता हैजो किसी की कल्पनाओं की सीमाओं से भी बहुत आगे होता हैचीन (Peoples Republic of China) की 1966 – 1976 की दस वर्षीय सांस्कृतिक क्रान्ति (Cultural Revolution) का परिणाम है कि आज चीन विश्व व्यवस्था (World Order) में बहुत जल्द ही प्रथम स्थान पर आने वाला हैयह सांस्कृतिक क्रान्ति की शक्ति” (Power of Cultural Revolution) हैजिसने चीन को बहुत ही छोटी अवधि में रूपांतरित (Transform) कर इस स्थान पर यानि वर्तमान विश्व व्यवस्था में प्रथम स्थान पर ला दिया हैयह सब “इतिहास का संरचनात्मक रूपांतरण” (Structural Transformation oh History) हैइसकी शक्ति को समझा जाय|

यह इतिहास की संरचनात्मक शक्ति” (Power of the Structure of History) हैयह सब इतिहास की शक्ति हैजो इतिहास अपने संरचना में बदलाव लाकर ऐसा प्रभाव पैदा करता हैयह इतिहास का वह ‘गुरुत्वीय आकर्षण” (Gravitational Attraction) हैजो किसी भी समाजसंस्कृति एवं राष्ट्र के सभी तत्वों (Elements) एवं इकाइयों (Units) को आकर्षित (Attract) कर एक शक्ति (Power) के रूप में रूपांतरित कर देता हैजिससे ‘इतिहास’ भी चमत्कृत हो जाता हैइसे आप इतिहास का गुरुत्वीय आकर्षण” (Gravitational Attraction of History) भी कह सकते हैंइस “इतिहास का गुरुत्वीय आकर्षण” तब पैदा होता हैजब एक इतिहासकार अपने लेखन के द्वारा इसे उत्पन्न करना चाहता हैऐसा आकर्षण किसी भी इतिहास लेखन से स्वत: ही उत्पन्न नहीं हो जाता हैएक इतिहासकार अपने द्वारा रचित इतिहास में तथ्योंघटनाओं एवं प्रक्रियाओं की ऐसी व्याख्या करता है कि समाज के सभी समूहवर्गएवं समुदाय आपस में एक आकर्षण महसूस करता है और ‘राष्ट्र’ की ‘एकत्व’ की भावना को मजबूत करता हैयही “इतिहास का गुरुत्वीय आकर्षण” है|

गुरुत्वाकर्षण बल/ शक्ति (Gravitational Force) ब्रह्माण्ड के किसी भी दो वस्तुओं के बीच आकर्षण के रूप में लगता हैऔर इस बल की मात्रा (Quantity) इन दोनों वस्तुओं की मात्रा (Mass) के गुणनफल के समानुपाती (Directly Proportional) होता है और इन वस्तुओं के बीच की दुरी के वर्ग के विपरीत अनुपाती (Inversaly Proportional) होता हैध्यान रहें कि शक्ति यानि बल (Forces) के चार मौलिक तत्वों में सिर्फ ‘गुरुत्वीय आकर्षण’ को समझना ही बाकी रह गया हैशेष तीनों मौलिक (Fundamental) बलों में ‘कमजोर नाभिक बल’ (Weak Nuclear Forces), ‘मजबूत नाभिक बल’ (Strong Nuclear Forces) एवं ‘विद्युतीय चुम्बकीय तरंगबल’ (Electro Magnetic Wave Forces) को समझा जा चुका हैअर्थात अंतिम तीनों बलों की क्रियाविधि को जाना एवं समझा जा चुका हैपरन्तु ‘गुरुत्वीय बल’ की क्रियाविधि को अभी तक पूर्ण संतुष्टता से समझा जाना बाकी है|

इतिहास की इस अद्भुत ऐतिहासिक संरचना को पहचानिएसमझिएसमझाइएऔर इसी के अनुरूप ‘इतिहास की संरचना’ तैयार भी कीजिएइसी संरचना से किसी भी समाजसंस्कृति एवं राष्ट्र का भविष्य बेहतर होता हैऔर इसके लिए ‘इतिहास का संरचनावाद’ को समझना होगा|

(प्रकाशनाधीन पुस्तक - "इतिहास एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण" सेएक भाग)

निरंजन सिन्हा

www.niranjan2020.blogspot .com

 

 

रविवार, 4 सितंबर 2022

अमेरिका का पतन (Decline of USA)

आज अमेरिका का पतन होते देखा जा रहा है| अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व व्यवस्था (World Order) में प्रथम स्थान पर आया और अभी तक बरक़रार रहा| इस वक्तव्य से यानि ‘अमेरिका का पतन’ से कई प्रश्न जुड़े हुए हैं| पहला प्रश्न यह है कि यह ‘पतन’ किसके सापेक्ष (Relative) है, क्योंकि हर चीज सापेक्षिक होती है? अर्थात यह ‘पतन’ किसके ‘उत्थान’ के सापेक्ष हो रहा है? यह पतन कैसे माना जाय? यदि वास्तव में पतन हो रहा है, तो इसके लिए जिम्मेवार कारक कौन कौन हैं, यानि इस पतन के ‘अभिकर्ता’ (Agent) कौन हैं?

यदि इस पतन के तीन मौलिक एवं महत्वपूर्ण कारणों को ही समझा जाय, जो अतिविशिष्ट एवं अदृश्य है, तो यह सभी कुछ का स्पष्ट तार्किक समाधान भी करता है| इसके साथ ही इस चरित्र एवं विशिष्टता की मौलिकता को धारण करने वाले हर समाज, संस्कृति एवं देश को स्पष्ट चेतावनी भी देता है| इस आधार पर कोई भी सामान्य बौद्धिक व्यक्ति किसी भी समाज, संस्कृति एवं देश की स्थिति एवं भूमिका का निकट भविष्य और दूर भविष्य में सटीकता से पूर्वानुमान कर सकता हैं| इस आधार पर कोई भी अपनी भावी रणनीति निर्धारित कर सकता है, क्योंकि वह भविष्य की परिस्थितियों एवं सन्दर्भों को भी बहुत अच्छी तरह से देख एवं समझ रहा होता है|

यह पतन ‘चीन’ (People’s Republic of China) के सापेक्ष हो रहा है| चीन की वर्तमान सैन्य क्षमता किस स्तर की है, अब किसी से छिपी हुई नहीं है| विगत दस वर्षों में चीन ने जापान को अर्थव्यवस्था के वैश्विक द्वितीयक स्थान से हटाते हुए अमेरिका के बाद द्वितीयक स्थान पर तेजी से आ गया है और बड़ी स्थिरता एवं तीव्रता से बहुत जल्दी ही अमेरिका को पछाड़ते हुए वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रथम स्थान बनाता जा रहा है| सैन्य शक्ति में चीन अकेले अमेरिका को टक्कर देने में पूरी तरह से सक्षम है| चीन को विज्ञान एवं प्रावैधिकी में भी अन्य कई क्षेत्रों के अलावे ‘अन्तरिक्ष’ एवं उर्जा के क्षेत्र में ‘नाभिक संलयन’ (Nuclear Fusion) में तेजी से छलांग लगाते देख विश्व अचम्भित है| पश्चिम मीडिया के चटपटी ख़बरों से बेअसर स्थिर एवं गंभीर गति से पसरता हुआ और आगे बढ़ता हुआ चीन को समझना बहुत आवश्यक है|

आज अमेरिका जिन दो प्रमुख देशों के कर्ज (Debt) में डूबा हुआ है, उसमे प्रथम स्थान जापान का 1.25 ट्रिलियन डालर के कर्ज के साथ है और दुसरा स्थान 1.20 ट्रिलियन डालर के कर्ज के साथ चीन का है| इस सूचि में महत्वपूर्ण यही दो ही देश है, अन्य नहीं है| अमेरिका इन दोनों देशों के कर्ज में कोई ऋण लेकर नहीं डूबा है, यानि इन देशों से कोई उधार लिया हुआ धन नहीं है| यह ऋण ‘भुगतान संतुलन’ (Balance of Payment) के कारण है, जिसमे ‘व्यापार संतुलन’ (Balance of Trade) भी शामिल है| ‘व्यापार संतुलन’ में वस्तुओं के निर्यात एवं आयात के लिए होने वाले भुगतान के संतुलन से सम्बन्धित है, जबकि ‘भुगतान संतुलन’ में ‘व्यापार संतुलन’ के अलावे अन्य सेवाओं के भी भुगतान शामिल हो जाते है| चीन की अमेरिका पर यह कर्ज राशि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की राशि 2.61 ट्रिलियन डालर के लगभग 40 % होता है| ध्यान रहें, चीन की सकल घरेलू उत्पाद की राशि कोई 14.72 ट्रिलियन डालर है| वैसे चीन के द्वारा विश्व के कई देशों को जो कर्ज की राशि दी गई है, वह 7.10 ट्रिलियन डालर है, जो भारत की सम्पूर्ण घरेलू उत्पाद से दो गुना से बहुत ज्यादा है| इस तरह चीन ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में ‘डालर’ के स्थान पर अपनी मुद्रा “आर एम बी” (RenMinBi, लोकप्रिय नाम युआन) को स्थान दिलाता जा रहा है| उपरोक्त झलक से कोई भी चीन के उत्थान को समझ सकता है|

अब हमें यह देखना और समझना है कि अमेरिका जैसे विकसित और सावधान, सतर्क एवं सजग राष्ट्र का भी पतन इतना जल्दी कैसे हो रहा है? मैं उन देशों के पतन का उदाहरण नहीं दे रहा हूँ, जिनका अभी उदय ही नहीं हुआ है| वैसे तेजी से उदय होने का दावा कई देश कर सकते हैं, या करते हैं, परन्तु उपरोक्त आंकड़ों एवं निम्न विश्लेषण उन सभी हवाई दावेदारों के लिए भी है, जो कुछ समझना और सीखना चाहते हैं| आज यदि कोई देश अपनी तुलना अपनी भौगोलिक क्षेत्रफल का दसवां भाग (10% of Area) वाले देश से या कोई देश अपनी कुल आबादी के बीसवां भाग (5% of Population) वाले आबादी के देश (फ़्रांस, ब्रिटेन, इटली) से करे, और इस आधार पर कोई इसकी विकास गति से संतुष्ट हो जाय; तो धन्य हैं ऐसे विद्वान्|

अब उन तीन कारणों पर फोकस करते हैं -----

प्रथम, अमेरिका में निवासित वे बाहरी समुदाय (कुल आबादी का 13.7%) जो अपनी ‘तथाकथित योग्यता एवं कौशल’ के आधार पर वहां स्थायी या अस्थायी रूप में रह रहे हैं| इन अधिकतर लोगों में तथाकथित योग्यता एवं कुशलता तो थी या है और इसी आधार पर उन्हें प्रमुख एवं महत्वपूर्ण पद भी दिए गए, परन्तु वे अपनी “सांस्कृतिक जड़त्व” (Cultural Inertia) से गहरे रूप में बंधे हुए थे यानि गतिहीन थे और आज भी हैं| इस ‘सांस्कृतिक जड़त्व’ में ‘ईश्वरीय शक्ति’, ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘अंधविश्वास’ आदि कारक प्रमुख हैं| इसे आप अपनी “सामन्ती धार्मिक आस्था” में पके हुए लोग भी कह सकते हैं| ऐसे लोग अपनी अल्प आबादी के होते हुए भी और अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद भी अपने वैज्ञानिक एवं प्रावैधिकी के क्षेत्र में कोई पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) नहीं कर पाते| लेकिन अपने वातावरण में “सांस्कृतिक जड़त्व का नकारात्मक विषाणु” (Virus) का तेजी से संक्रमण फैलाते हैं|इसमें वैसे देशों के  लोग ही शामिल माने जाने चाहिए, जिनके मूल देशों में अभी भी अमानवीय एवं अवैज्ञानिक यथास्थितिवादी सांस्कृतिक जडत्व बना हुआ है। 

उपरोक्त को आप महान वैज्ञानिक न्यूटन के उदहारण से समझ सकते हैं| एक महान वैज्ञानिक होते हुए भी न्यूटन को एक धर्म परायण ईसाई होने के कारण ‘ईश्वरीय शक्ति एवं सता’ में अटूट विश्वास था| उनका दृढ विश्वास था कि इस ब्रह्माण्ड की रचना ईश्वर ने की है, और वही समस्त ग्रहों का सञ्चालन एवं नियमन करता है| वे ब्रह्माण्ड के जिन पिंडों के संचालन एवं नियमन के ज्ञात अनियमितताओं की व्याख्या नहीं कर सके, उसके लिए ‘ईश्वरीय हस्तक्षेप’ के सिद्धांत का सहारा लिया| इन अनियमितताओ को बाद में नास्तिक वैज्ञानिक लाप्लास ने शुद्ध किया। जब न्यूटन जैसे वैज्ञानिक के लिए ‘सांस्कृतिक जडत्व’ की अवधारणा महत्वपूर्ण रूप से हावी था, तो सामान्य तथाकथित वैज्ञानिक मानसिकता वाले ‘प्रबुद्धो’ की दशा क्या होगी? इसी ‘सांस्कृतिक जडत्व’ की अवधारणा की महत्ता को समझते हुए चीन के माओ त्से तुंग ने “सांस्कृतिक क्रान्ति की शक्ति” (Power of Cultural Revolution) को समझा| इसने 1966 – 76 की दस वर्ष की अवधि में चीन की सभी ‘यथास्थितिवादी’, ‘जड़तावादी’, ‘सामन्तवादी’, ‘ढोंगी’, ‘पाखंडी’, ‘अन्धविश्वासी’, एवं ‘फिजूल कर्मकांडी’ प्रत्येक ‘चिन्ह’, ‘संकेत’, ‘पुस्तक’, ‘संस्थान’ (Institution, not Institute), ‘विचार’ आदि को नष्ट कर दिया| इसी “सांस्कृतिक क्रान्ति की शक्ति” का चमत्कारिक परिणाम है, आज का उभरता चीन|

दूसरा, अमेरिका के पतन का दूसरा प्रमुख कारण इसका “दोहरा चरित्र” (Dual Character) है| इसे चरित्र का ‘दोहरापन’ कहते हैं, और भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में “दोगलापन” कहते हैं| इसे ही आधुनिक भाषा में “न्यायिक चरित्र का अभाव” (Lack of Judicial Character) भी कहते हैं| जब यह किसी भी व्यक्ति, या राजनेता, या देश के प्रमुख के द्वारा दिए गए “वचन” का उसी व्यक्ति, या उसी राजनेता, या उसी देश के प्रमुख के लिए कोई मतलब नहीं रहता है, और जब इसमें निरन्तरता (Continuity) हो जाती है, तो यह उसका “चरित्र” बन जाता है| यह जल्दी ही स्थिरता ले लेता है, और अन्य इसी के अनुरूप अपने निर्णय लेने लगते है| जब तक इन्हें कोई ‘विकल्प’ नहीं दिखता है, तबतक अमेरिका जैसे देश सही साबित होते हैं, परन्तु विकल्प मिलते ही इन पर भरोसा छोड़ दिया जाता है| वैश्विक परिदृश्य में आधुनिक (यानि वर्तमान) इतिहास में कई उदाहरण देखने को मिलेंगे, जब अमेरिका ने अपनी ‘स्पष्ट वचनबद्धता” नहीं निभाई है, और इस ‘विश्वास’ पर बने रहने वाले ने बड़ी धोखा खाई है|

तीसरा, आज वैश्विक जगत में चीन ने अमेरिका का एक स्पष्ट एवं दृढ विकल्प की उपलब्धता सुनिश्चित करायी है| इसी तरह अन्य समाजवादी देशों का भी इतिहास रहा है| परिणाम अमेरिका का दरकता हुआ ‘साख’ (Credit) है| और इसके साथ ही अमेरिका सभी क्षत्रों में पतनशील होता जा रहा है|

उपरोक्त तीनों कारकों के संयुक्त प्रभाव के आधार पर कोई भी किसी व्यक्ति, समाज, राजनेता या देश का भविष्य समझ सकता है, और आप भी समझ सकते हैं|

निरंजन सिन्हा

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सामाजिक नेतागिरी और हथौड़ा सिद्धांत

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