इतिहास को बेहतर ढंग से समझने के लिए
'इतिहास में संरचनावाद'
एक अनूठा एवं नया अवधारणा है,
एक नया उपकरण (Tool) है|
“इतिहास
में संरचनावाद” समझने से पहले हमें ‘संरचनावाद’ (Structuralism) को समझना होगा| तब ‘इतिहास
में संरचनावाद’ की अवधारणा, उसकी
क्रियाविधि एवं उपयोगिता को समझा जा सकता है| ‘संरचनावाद’ प्रकृति एवं मानवीय जीवन की एक ज्ञान प्रणाली (Mode of Knowledge) है, जिसमें किसी ज्ञान के सम्पूर्ण अर्थ में
उसकी अलग अलग विशिष्ट कारकों की स्वतंत्र भूमिका की अपेक्षा उन विशिष्ट कारकों के
आपसी ‘सम्बन्धों’ (Relationships)
के प्रभाव में, यानि परिणाम में, यानि उसकी सम्पूर्णता में निष्ठा एवं विश्वास रखता है| अर्थात कोई ज्ञान अपने विभिन्न भागों के स्वतंत्र एवं एकान्त / अलगाव (Isolation) में धारित गुणवत्ता के द्वारा स्पष्ट नहीं होकर, अपने विभिन्न भागों की अपेक्षा अपने विभिन्न सम्बन्धों के समूह (Set
of Relationships) के रूप में बेहतर ढंग से स्पष्ट होता है| कोई भी ज्ञान, चाहे वह इतिहास का ही ज्ञान हो, विभिन्न सम्बन्धों के समूह के द्वारा ही बेहतर ढंग से स्पष्ट होता है, अर्थात इतिहास का कोई भी सम्यक ज्ञान अपने विभिन्न सम्बन्धों के समूह (Set
of Relationships) के द्वारा तैयार किए गये ‘एक संरचना’ के द्वारा स्पष्ट होता है| ये विभिन्न सम्बन्धों के समूह मिलकर एक संरचना बनाते है, जिसे समझ कर ही किसी भी ज्ञान को ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है| इस तरह यह "ज्ञानवाद का अभिवृति" (Epistemological Attitude) के रूप में स्थापित होता है|
इस
संरचनावाद का सिद्धांत सर्वप्रथम स्विट्ज़रलैंड के भाषा वैज्ञानिक फर्डिनांड दी सौसुरे (Ferdinand de Saussure) (1837-
1913) ने भाषा
के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक – “Course in General Linguistics” में दिया था, जिसका उपयोग कई विविध सामाजिक
विज्ञान की विषयों में किया जाने लगा| इस तरह
संरचनावाद का सार यह विश्वास है कि किसी भी चीज को एक अलगाव (Isolation) में ढंग से नहीं समझा जा सकता है, बल्कि उसे
उसके पूरी बनावट एवं उसके सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए| यह पूरी तरह ‘तार्किकता’ पर आधारित होता है| इस पूरी बनावट एवं उसके
सन्दर्भ को ही उसका संरचना समझा जाता है| स्पष्ट है कि
इसके अनुसार हर व्यवस्था में यानि तंत्र में एक निश्चित संरचना यानि बनावट होता है| किसी की संरचना ही उसकी स्थिति को सम्पूर्णता में स्पष्ट करता है यानि
व्याख्यापित करता है| उस तंत्र की संरचनात्मक नियम ही
उनके सहअस्तित्व को निर्धारित, नियमित और प्रभावित भी
करता है| सौसुरे के अनुसार ‘भाषा की संरचना’ ही किसी “प्राकृतिक यानि आदिम मानव”
(Homo Natural/ Homo Primitive) को एक ‘आधुनिक मानव’ (Homo Sapiens) बनाता है, एक सामाजिक मानव’ यानि ‘मनुष्य‘ (Homo Socious) बनाता है, और एक ‘सृजनशील मानव’ (Homo Faber) बनाता है| भाषा में ध्वनि का उद्गार होता है, भाषा में
भावों एवं अर्थों का संचार होता है, एवं किसी खास आशय
का सम्प्रेषण होता है, और यह सब एक पशु में भी होता है| परन्तु एक मानव में भाषा की विशिष्ट संरचना होती है, और इस स्तर की संरचना पशुओं में नहीं होता है| इसी
विशेषता के कारण एक आदिम मानव अपने कई विशिष्ट स्वरूपों में आज कार्यरत एवं
अभिव्यक्त होता है, जबकि इसके अभाव में ही पशुओं में
ऐसी कोई प्रगति नहीं दिखती है| अत: सौसुरे के अनुसार
भाषा की सही अभिव्यक्ति, संचार, अर्थ एवं आशय के सम्प्रेषण में ‘भाषा का
संरचनावाद’ समझना आवश्यक है|
प्रसिद्ध
अमेरिकी वैज्ञानिक एवं दार्शनिक प्रो० थामस सैम्युल कुहन (Thomas S Kuhn) ने 1962 में एक पुस्तक – “The Structure of Scientific
Revolution” लिखी| इसमें इन्होने
समझाया कि ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’ के लिए भी एक निश्चित संरचना (Structure) होना
चाहिए और संरचनाओं में परिवर्तन के कारण ही नए एवं मौलिक खोज (Discovery) एवं आविष्कार (Invention) किये जाते हैं या किये
जा सकते हैं| उन्होंने इसे विज्ञान के सन्दर्भ में
समझाया है, लेकिन यह किसी भी क्रान्ति के लिए, चाहे वह वैज्ञानिक क्रान्ति हो, या और कोई
सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक, या राजनीतिक क्रान्ति ही हो, के सन्दर्भ में समान रूप से सही है| यह
क्रान्तिकारी परिवर्तन या रूपांतरण मूलत: विचारों की संरचनाओं में “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) से होता है| यह पैरेड़ाईम शिफ्ट विचारों की मौलिकता में बहुत बड़ा संरचनात्मक बदलाव होता
है|
यह
संरचनात्मक बदलाव सूचनाओं, तथ्यों, विचारों, प्रक्रियाओं
आदि में पुनर्व्यवस्थापन (Re Arrangment), पुनर्संयोजन (Re Combination), पुनर्विन्यास (Re Orientation), पुनर्गठन (Re Organization), पुनर्संरचना (Re
Structure) आदि से होता है, या
सन्दर्भ (Reference) बदलने से होता है, या पृष्टभूमि (Background) बदलने से होता
है| अर्थव्यवस्था के पांचवें प्रक्षेत्र (Quinary
Sector) में प्राथमिक प्रक्षेत्र (Primary Sector), द्वितीयक प्रक्षेत्र (Secondary
Sector), तृतीयक प्रक्षेत्र (Tertiary
Sector) के अलावे चौथे प्रक्षेत्र (Quaternary
Sector) के “ज्ञान’ (Knowledge) की जानकारी, तथ्यों, अनुभव एवं विचारों को अपने समेटते हुए इनका पुनर्व्यवस्थापन, पुनर्संयोजन, पुनर्विन्यास, पुनर्गठन, पुनर्संरचना आदि करके या सन्दर्भ या
पृष्टभूमि की ही ‘संरचना’ में
बदलाव ला कर कार्य किया जाता है| पांचवें प्रक्षेत्र (Quinary Sector) में नई
योजनाओं, नई परियोजनाओं, नए
आदर्शों आदि का स्थापन एवं निर्माण किया जाता है और एक इतिहासकार का कार्यक्षेत्र
इसी में होता है| जैसा कि हम जानते हैं कि अर्थव्यवस्था में प्राथमिक प्रक्षेत्र में
प्रकृति से प्राप्त या उत्पादित वस्तुओं का संग्रहण होता है, जिसमे कृषि, पशुपालन, मत्स्यपालन, खनन, वनोत्पाद
आदि शामिल हैं, जिनके अनुभवों, तथ्यों, प्रक्रियाओं एवं विचारों की संरचना
तैयार किया जाता है| इसी तरह द्वितीयक प्रक्षेत्र में
प्राथमिक प्रक्षेत्र से प्राप्त वस्तुओं का “मूल्यवर्धन”
(Value Addition) किया जाता है, यानि उसे
और उपयोगी बनाया जाता है और सामान्यत: इसे उद्योग (Industry)
कहा जाता है| तृतीयक प्रक्षेत्र में उपरोक्त दोनों से
सम्बन्धित एवं अन्य आवश्यक सेवाएँ (Services) शामिल है, जिनमे परिवहन, संचार, वितरण आदि सहित सभी प्रकार की सेवाएँ शामिल हो जाती है| चौथे प्रक्षेत्र में ज्ञानार्जन के सभी विषय एवं क्षेत्र आते हैं| इन सभी चारों के संरचनाओं में या उसके सन्दर्भ या पृष्टभूमि को बदल कर
किसी भी तरह से परिवर्तन, बद्लाव एवं रूपांतरण के
द्वारा नया विचार प्राप्त करना ही पंचम प्रक्षेत्र की परिधि में आता है| यह अर्थव्यवस्था का सबसे सर्वोच्च, सबसे उत्कृष्ट, सबसे बारीक एवं सबसे ज्यादा उत्पादक प्रक्षेत्र (Sectors) होता है|
एक “योग्य इतिहासकार” भी इसी पांचवें प्रक्षेत्र का कार्यशील व्यक्ति होता है, जो अपने रचित इतिहास के द्वारा वह ‘इतिहास बोध’
(Perception of History) तैयार करता है, जो
संस्कृति निर्माण के रूप में समाज को सदियों तक संचालित, प्रभावित, नियमित एवं नियंत्रित करता रहता है| इसीलिए प्रसिद्ध लेखक जार्ज ऑरवेल ने कहा था – “जो इतिहास पर नियंत्रण रखता
है, वह भविष्य पर भी नियंत्रण रखता है|” एक “योग्य इतिहासकार” शासन की नीतियों एवं आदर्शों
को दिशा एवं आधारभूत संरचना देता है, यानि शासन की
नीतियों एवं आदर्शों को दिशा देने के लिए एवं आधारभूत संरचना के निर्माण के लिए
कार्य करता है| इस तरह एक इतिहासकार शासन पद्धति को
प्रभावित, नियमित एवं नियंत्रित भी करता है| हमें एक इतिहासकार के
रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को समझनी है, तभी वह
समाज, वह संस्कृति एवं वह राष्ट्र एक शक्तिशाली, समृद्ध, सम्पन्न, सुखमय
एवं विकासशील बन सकता है| एक इतिहासकार ही किसी देश की
विभिन्न संस्कृति, विभिन्न धर्म, विभिन्न भाषा, विभिन्न विश्वास, विभिन्न परम्परा एवं विभिन्न संस्कार आदि कई विविधताओं को एकसूत्र में
लाने के लिए यानि जोड़ कर एकीकृत करने के लिए आवश्यक “संरचना” तैयार करता है, जिसके आधार पर ही कोई
सांस्कृतिक नव निर्माण होता है| बहुत दुःख होता है, जब एक इतिहासकार अपनी इस महत्वपूर्ण भूमिका से बेखबर होता है, या लापरवाह होता है, या उदासीन होता है|
इस
संरचनावाद के अंतर्गत एक इतिहासकार की कई स्वरूपों में भूमिका होती है| इसी संरचनावाद का एक
स्वरुप है – “इतिहास का सूत्र या संकेत संरचना” (Click Structure of History), जिसमे एक सूत्र यानि एक
संकेत से ही इतिहास का सारा सन्देश समझ में आ जाता है| ऐसा
इसलिए होता है, क्योंकि एक संकेत उसके सम्पूर्ण संरचना
को प्रेषित कर देता है, जिसमे पूरी संरचना समाहित होता
है| जैसे यदि कोई भारतीय “हिन्दू
संस्कृति” को मानता हुआ है, तो
संरचनावाद यह स्पष्ट संकेत (सन्देश) देता है कि वह भारतीय वर्ण व्यवस्था के किसी
एक खास ‘वर्ण’ में किसी एक
खास ‘जाति’ का सदस्य होगा और
उसका जीवन एवं कर्तव्य बोध उसी के अनुसार सुनिश्चित होगा, और इस अवस्था को किसी भी प्रक्रम से कोई भी बदल नहीं सकता है| वह एक निश्चित विश्वास एवं संस्कार में आस्था रखता हुआ किसी खास जीवन
पद्धति, परम्परा, कर्मकाण्ड
आदि को करता हुआ होगा| कहने का तात्पर्य यह है कि ‘संरचनावाद’ के कारण ही एक ही संकेत से सब कुछ
स्वत: स्पष्ट हो जाता है| इस तरह एक इतिहासकार को यह
स्पष्ट होना होता है कि वह एक इतिहासकार के रूप में शब्दों या वाक्यों या वाक्य
समूहों के द्वारा कैसा सन्देश प्रेषित करना चाहता है| एक
इतिहासकार इस मामले में सावधान होता है| एक गलत सन्देश
या विध्वंसकारी विचार या आदर्श के सम्प्रेषण के लिए उसे इतिहास कभी भी माफ़ नहीं
करेगा और अगली पीढ़ी भी उससे घृणा करेगा|
इसी
संरचनावाद का दूसरा स्वरुप है – “इतिहास का आशय/ नीयत
एवं विस्तार/ व्याप्ति संरचना” (Intensional and Extensional Structure of
History), जो एक तार्किकता एवं दार्शनिकता के साथ शब्दों में सन्दर्भ स्थापित करता
है और शब्दों को एक खास अवधारणा से जोड़ता है| जैसे यदि
किसी व्यक्ति के बारे में किसी इतिहास में यह चर्चा है कि वह एक धार्मिक व्यक्ति
था| यहाँ ‘धार्मिक’ शब्द में एक अवधारणा अन्तर्निहित है, जो इस
शब्द का आशय या नीयत को दर्शाता है| ‘धार्मिकता’ की अवधारणा में संस्कृति, क्षेत्र, काल या कोई भी अन्य पृष्ठभूमि के अनुसार भिन्न भिन्न आशय हो सकता है| किसी भी भौतिक पदार्थ की ‘धार्मिकता’ उसकी किसी गुण या विशेषता को इंगित करता है, जैसे
लोहा एक धातु है, और ‘ताप’ एवं ‘विद्युत’ का
संचरण उसके माध्यम से होना उसकी ‘धार्मिकता’ को सूचित करता है| जैसे पानी (Water) की धार्मिकता है कि वह शीतलता प्रदान करे, किसी
बर्तन में नहीं रखा जाय तो वह बहने लगेगा, और यदि किसी
बर्तन में रखी जाय तो वह उस वर्तन का आकार (Shape) ग्रहण
कर लेता है| इसी तरह अलग अलग वस्तुओं की अलग अलग
धार्मिकता होती है| हालाँकि यही गुणवत्ता और विशेषता का
अर्थ विशेष मानव समूहों में किसी अलौकिक शक्ति, कर्मकांड, विश्वास आदि से भी जुड़ सकता है, जो उसकी
संस्कृति, इतिहास, अनुभव एवं
समझ के अनुसार बदल सकता है| यही भिन्नताएं संरचनावाद का
विस्तार (Extension) है, अर्थात
एक ‘धामिक’ व्यक्ति से यह भी
अर्थ निकल सकता है कि वह एक बौद्ध हो सकता है, या एक
हिन्दू हो सकता है, या वह इस्लाम का अनुयायी हो सकता है, या किसी भी अन्य ऐसे सम्प्रदाय का अनुपालक हो सकता है, या कोई मानवतावादी हो सकता है, या कोई
विज्ञानवादी हो सकता है, या कोई संशयवादी हो सकता है, या कोई अन्य ‘वादी’ हो
सकता है| इस तरह संरचनावाद एक साथ किसी शब्द या वाक्य
का ‘आशय’ एवं ‘विस्तार’ को भी समाहित कर लेता है| यहाँ भी एक इतिहासकार अपने द्वारा लिखित यानि निर्मित इतिहास के द्वारा
ऐसा संरचना तैयार करता है, जो स्पष्ट रूप में और
अन्तर्निहित भाव में उसी आशय एवं विस्तार का सन्देश देता है, जो व्यापक/ सर्व समाज एवं सम्पूर्ण राष्ट्र के हितों एवं लक्ष्यों के
अनुरूप होता है|
संरचनावाद एक दर्शन है, एक अध्ययन पद्धति है, जो किसी भी विषय की गहराइयों में जाकर उसकी संरचना को समझने की दृष्टि
देता है और उसके अन्तर्निहित अर्थ यानि उसके विशिष्ट आशय तक पहुंचता है| इसीलिए इतिहास में
संरचनावाद का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है, जो किसी भी
कारण से अभी तक इतिहास विषय से अलग रहा| यह हमें
सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के आंतरिक प्रतिरूप (Internal Pattern) को समझने एवं समझाने के लिए उपयोगी एवं सहायक है| यह सामाजिक विज्ञान में जांच-पड़ताल (Inquiry) का
संरचनात्मक प्रक्रिया या प्रणाली (Mode) है, जो उसकी संरचनात्मक ढांचे को समझने या उनके सम्बन्धों को पहचानने में ही
मदद नहीं करता है, अपितु उसके दृश्य दुनिया के अन्तर्निहित
अर्थ को भो खोज निकलता है| अर्थात उसके सतही यानि
शाब्दिक अर्थों के साथ ही उनकी अन्तर्निहित अर्थों को यानि उसके भावार्थों को भी
स्पष्ट करता है| यह मानव मस्तिष्क की अचेतन एवं अवचेतन
की गहराइयों में जाकर उसके छुपे हुए कारणों, छिपी हुई
क्रियाविधि (Mechanism) एवं कुछ गहरी संरचनाओं के
सन्दर्भ में उसके अर्थ को स्पष्ट करता है| वैसे यह सब
उसके प्रत्यक्ष अभिव्यक्त विश्वास, विचार, व्यवहार, मूल्य एवं प्रतिमान के सतही एवं दृश्य
चेतना द्वारा स्पष्ट नहीं होता है| इस तरह स्पष्ट है कि
किसी भी शब्द, या किसी भी वाक्य, या किसी भी वाक्य समूह के दो अर्थ होते हैं, - सतही
अर्थ एवं अन्तर्निहित अर्थ| अन्तर्निहित अर्थ बदलते
सन्दर्भ या पृष्टभूमि में बदल भी जाता है, और इसीलिए एक
ही शब्द या वाक्य या वाक्य समूह के एक ही साथ कई भिन्न अर्थ हो सकता है, जो अपने सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग होता है| जैसे बौद्धिक काल में ‘भगवान’ शब्द उनके लिए प्रयुक्त होता था, जिन्होंने
अपनी ‘ईर्ष्या’, ‘द्वेष’ आदि दुर्गुणों को ‘भग्न’
(Destroy) कर लिया, लेकिन इसी शब्द
का उपयोग सामन्त (मध्य) काल में तथाकथित एक ‘ईश्वरीय’ व्यक्ति के लिए होने लगा| इस तरह एक भगवान जो
एक आदर्श, अनुकरणीय एवं पूजनीय व्यक्ति था, सामंत (मध्य) काल में ईश्वर (God) हो गया| यह सब ‘इतिहास में संरचनावाद’ की समझ के बिना समुचित ढंग से नहीं समझा जा सकता है|
संरचनावाद एक बौद्धिक प्रवृति है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक वास्तविकताओं को सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचनाओं
के सन्दर्भ में समझने में सहायता करता है, और उसकी
समुचित व्याख्या करता है| यह संरचनावाद सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों और संयोजनों को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक शक्तियों के सामूहिक संरचना के प्रतिफल के रूप में
व्यक्त करता है| इस सामूहिक संरचना में प्रस्थिति (Status), स्तर (Level), क्षेत्र, अवस्थिति (Location), अन्य इकाइयां, तथा आर्थिक शक्तियों के उत्पादन, वितरण, विनिमय, उपभोग एवं संचार के तत्व आदि की भूमिका
स्वतंत्र रूप में एवं सामूहिक रूप में क्रियाशील होता है| इतिहास की कोई भी एक घटना को किसी एक स्वतंत्र कारक का प्रतिफल नहीं माना
जा सकता| यह भले ही किसी एक विशिष्ट कारक के द्वारा
प्रारंभ हुआ हो, परन्तु इसके साथ ही कई अन्य कारक उस पर
एकसाथ क्रियाशील हो जाता है और इसका परिणाम उन सबों का संयुक्त परिणाम होता है| जैसे सामन्तवाद
का उदय का
प्रारंभ अर्थव्यवस्था के एक कारक “विनिमय’
(Exchange) के माध्यम – ‘मुद्रा’
(Currency) के ‘प्राधिकार’
(Authority) एवं उसके द्वारा प्रदत्त ‘गारन्टी’ (Guarantee) के समाप्त होने से हुआ| लेकिन इसके साथ ही इसने तंत्र एवं व्यवस्था के ‘वितरण’ (Distribution) को एवं तदुपरांत ‘उत्पादन’ (Production) को नकारात्मक रूप
में प्रभावित किया| फिर इसमें ‘संचार’ (Communication) की शक्तियां
प्रभावशाली हो गई| इस तरह विनिमय, वितरण, उत्पादन एवं संचार के कारक एवं शक्तियाँ
मिल कर एक सुनिश्चित ‘संरचना’ बनाया और उसी का प्रतिफल ‘सामन्ती व्यवस्था’ का उदय एवं विस्तार हुआ|
‘सामन्ती व्यवस्था’ की संरचना को समझने के
लिए इसके विविध क्रियाविधि (Mechanism), प्रक्रिया (Processes) एवं सम्बन्धों (Relations) को समझना चाहिए| इसके साथ ही इसके कई विविध सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्वरुप एवं
प्रतिरूप बने| एक
सामन्ती व्यवस्था की एक ख़ास विशेषता यह होती है कि वह “भक्ति”
(Devotion) भाव पर आधारित होता है| इसी भक्ति के कारण ही हर
छोटा सामन्त अपने बड़े सामन्त के प्रति अपनी इसी भक्ति एवं निष्ठां भाव के प्रदर्शन
के लिए अपनी बहनों एवं बेटियों को अपने से बड़े सामन्तों के यहाँ वैवाहिक सम्बन्ध
स्थापित कर अपनी निष्ठा को पुष्ट करता रहा| किसी भी ‘भक्ति’ में सम्पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण चाहता
है| यही राजनीतिक भक्ति सभी समकालीन तत्वों को प्रभावित
किया और अपने में समाहित कर नया स्वरुप दिया| तब धर्म
में भी ‘भक्ति’ का भाव एवं
दर्शन आ गया| धर्म में भी ‘भक्ति’ ही मुक्ति यानि ‘मोक्ष’ का साधन बन गया| तब सामन्ती व्यवस्था के
स्तरीकरण (Stratification) अनुरूप देवताओं में भी
स्तरीकरण हो गया| तब भाषा पर भी ‘भक्ति’ का प्रभाव आ गया और ‘भक्तिवाद’ का उदय हो गया| धर्म का ‘भक्ति आन्दोलन’ भी इसी आवश्यकता का प्रतिफल हुआ| उसके बाद
सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था ही तथाकथित “ईश्वर” एवं उसके “ईश्वरीय शक्ति” की ‘भक्ति’ (Devotion) में डूब गया और ‘भक्ति’ को तथाकथित ईश्वरीय सत्ता तक पहुंचाने के लिए धार्मिक अभिकर्ता (Agent) भी उपलब्ध हो गए| ‘भक्ति’ के विविध स्वरुप समाज में व्याप्त हो गया| जब
कोई “सामन्तवाद की संरचना” (Structure of
Feudalism) को समझ जाता है, तब वह उससे
जुड़ी हर प्रक्रिया एवं उत्पाद को भी बेहतर ढंग से समझने लगता है|
संरचनावाद किसी भी प्रक्रियाओं, या परिणामों, या विशिष्टताओं, या सम्बन्धों के मूल, मौलिक, एवं आधारभूत संरचना में किसी एक कारक या
तत्व की खोज की अपेक्षा उसमे अन्तर्निहित “व्यवस्था”
(Order) को तलाशता है| अर्थात उन
प्रक्रियाओं, या परिणामों, या
विशिष्टताओं, या सम्बन्धों के पीछे के ‘दर्शन’ (Philosophy) को समझता है| इसी को ध्यान में रख कर वह उसका ‘विश्लेषण’
(Analyse) कर उन सरचना एवं उनके संबंधों को उद्घाटित करता है| संरचनावाद के अनुसार किसी मानव की सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना उसकी
मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक
एवं आर्थिक क्षमताओं एवं क्रियाओं का संयुक्त प्रतिफल है, यानि इन संरचनाओं का परिणाम है|
इतिहास
में संरचनावाद की बनावट एवं क्रियाविधि को समझने के लिए हमें ‘इतिहास एवं मिथक में
सम्बन्ध’, ‘इतिहास में विज्ञान’, ‘ज्ञानवाद
पर इतिहास की छाया’, ‘इतिहास की सापेक्षिता’, ‘इतिहास को चेतनता के नियंत्रक के रूप में’, ‘इतिहास
मूल्य एवं प्रतिमान के स्थिरक के रूप में’, ‘संस्कृति को
इतिहास के उत्पाद के रूप में’, ‘धर्म के सृजन में इतिहास’, एवं ‘इतिहास राष्ट्र के नियंत्रक एवं निर्माता
के रूप में’ आदि इतिहास की भूमिकाओं को समझना है और
अपने इतिहास रचना में ध्यान में रखना है|
इसका
ध्यान रखने से इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए जिस ‘संरचना’ को
तैयार करते हैं, वह संरचना किसी भी समाज को, किसी भी संस्कृति को और किसी भी राष्ट्र को वह अकल्पनीय उचाईयां देता है, जो किसी की कल्पनाओं की सीमाओं से भी बहुत आगे होता है| चीन (Peoples Republic of China) की 1966
– 1976 की दस वर्षीय सांस्कृतिक क्रान्ति (Cultural Revolution) का परिणाम है कि आज चीन
विश्व व्यवस्था (World Order) में बहुत जल्द ही प्रथम
स्थान पर आने वाला है| यह “सांस्कृतिक क्रान्ति की शक्ति”
(Power of Cultural Revolution) है, जिसने चीन को बहुत ही
छोटी अवधि में रूपांतरित (Transform) कर इस स्थान पर यानि
वर्तमान विश्व व्यवस्था में प्रथम स्थान पर ला दिया है| यह सब “इतिहास का संरचनात्मक रूपांतरण” (Structural Transformation oh
History) है| इसकी शक्ति को समझा जाय|
यह “इतिहास की संरचनात्मक शक्ति” (Power
of the Structure of History) है| यह सब इतिहास की शक्ति है, जो इतिहास अपने
संरचना में बदलाव लाकर ऐसा प्रभाव पैदा करता है| यह
इतिहास का वह ‘गुरुत्वीय आकर्षण” (Gravitational
Attraction) है, जो किसी भी समाज, संस्कृति एवं राष्ट्र के सभी तत्वों (Elements) एवं इकाइयों (Units) को आकर्षित (Attract) कर एक शक्ति (Power) के रूप में रूपांतरित कर देता
है, जिससे ‘इतिहास’ भी चमत्कृत हो जाता है| इसे आप “इतिहास का गुरुत्वीय आकर्षण”
(Gravitational Attraction of History) भी कह सकते हैं| इस “इतिहास का गुरुत्वीय आकर्षण” तब पैदा होता है, जब एक इतिहासकार अपने लेखन के
द्वारा इसे उत्पन्न करना चाहता है| ऐसा आकर्षण किसी भी
इतिहास लेखन से स्वत: ही उत्पन्न नहीं हो जाता है| एक
इतिहासकार अपने द्वारा रचित इतिहास में तथ्यों, घटनाओं
एवं प्रक्रियाओं की ऐसी व्याख्या करता है कि समाज के सभी समूह, वर्ग, एवं समुदाय आपस में एक आकर्षण महसूस करता
है और ‘राष्ट्र’ की ‘एकत्व’ की भावना को मजबूत करता है| यही “इतिहास का गुरुत्वीय आकर्षण” है|
गुरुत्वाकर्षण
बल/ शक्ति (Gravitational
Force) ब्रह्माण्ड के किसी भी दो वस्तुओं के बीच आकर्षण के रूप
में लगता है, और इस बल की मात्रा (Quantity) इन दोनों वस्तुओं की मात्रा (Mass) के गुणनफल के
समानुपाती (Directly Proportional) होता है और इन
वस्तुओं के बीच की दुरी के वर्ग के विपरीत अनुपाती (Inversaly
Proportional) होता है| ध्यान रहें
कि शक्ति यानि बल (Forces) के चार मौलिक तत्वों
में सिर्फ ‘गुरुत्वीय आकर्षण’ को समझना ही बाकी रह गया है| शेष तीनों मौलिक (Fundamental) बलों में ‘कमजोर नाभिक बल’ (Weak
Nuclear Forces), ‘मजबूत नाभिक बल’
(Strong Nuclear Forces) एवं ‘विद्युतीय
चुम्बकीय तरंगबल’ (Electro Magnetic Wave Forces) को
समझा जा चुका है| अर्थात अंतिम तीनों बलों की
क्रियाविधि को जाना एवं समझा जा चुका है, परन्तु ‘गुरुत्वीय बल’ की क्रियाविधि को अभी तक पूर्ण
संतुष्टता से समझा जाना बाकी है|
इतिहास
की इस अद्भुत ऐतिहासिक संरचना को पहचानिए, समझिए, समझाइए, और
इसी के अनुरूप ‘इतिहास की संरचना’ तैयार भी कीजिए| इसी संरचना से किसी भी समाज, संस्कृति एवं राष्ट्र का भविष्य बेहतर होता है, और इसके लिए ‘इतिहास का संरचनावाद’ को समझना होगा|
निरंजन सिन्हा
www.niranjan2020.blogspot.com
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