सोमवार, 26 सितंबर 2022

"इतिहास एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण" पुस्तक से - एक

मेरी एक पुस्तक – इतिहास एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रकाशनाधीन है| कुछ लोगों ने इस पुस्तक के स्वरुप को जानने के लिए इसके कुछ अंश को जारी करने का सुझाव दिया है| अनुपालनार्थ कुछ अंश जारी किया जा रहा है| यह अंश उसी पुस्तक से है ---

इतिहास की संरचना कई स्वरूपों में दिखती होती है|

 

1.                  “इतिहास का सूत्र या संकेत संरचना” (Click Structure of History) -

 यह इतिहास की संरचना का वह स्वरुप है, जिसमे एक सूत्र की संरचना यानि एक संकेत की संरचना से ही इतिहास से सम्बन्धित उस विषय का सारा सन्देश समझ में आ जाता है| यह सूत्र या संकेत कोई शब्द या कोई शब्द समूह हो सकता है| ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि एक संकेत अपने साथ ही उसके सम्पूर्ण ऐतिहासिक संरचना को प्रेषित कर देता है, जिसमे इतिहास की पूरी संरचना ही समाहित होता है| जैसे यदि कोई भारतीय “हिन्दू संस्कृति” को मानता हुआ है, तो इतिहास का संरचनावाद यह स्पष्ट संकेत (सन्देश) देता है कि वह भारतीय वर्ण व्यवस्था के किसी एक खास ‘वर्ण’ में किसी एक खास ‘जाति’ का सदस्य होगा और उसका जीवन एवं कर्तव्य बोध उसी जाति के अनुसार ही सुनिश्चित होगा, और कोई भी इस अवस्था को उसके जीवनकाल में किसी भी प्रक्रम से कभी भी बदल नहीं सकता है| वह एक निश्चित विश्वास एवं संस्कार में आस्था रखता हुआ किसी खास जीवन पद्धति, परम्परा, कर्मकाण्ड आदि को करता हुआ होगा| कहने का तात्पर्य यह है कि इतिहास के ‘संरचनावाद’ के कारण ही एक ही संकेत से सब कुछ स्वत: स्पष्ट हो जाता है| इस तरह एक इतिहासकार को यह स्पष्ट होना होता है कि वह एक इतिहासकार के रूप में शब्दों या शब्दों के समूहों के द्वारा कैसा सन्देश प्रेषित करना चाहता है? ........... एक गलत सन्देश या विध्वंसकारी विचार या आदर्श के सम्प्रेषण के लिए उसे इतिहास कभी भी माफ़ नहीं करेगा और उसकी अगली पीढ़ी भी उससे घृणा करेगी|

 

2.                  “इतिहास की संरचना का आशय एवं विस्तार” (Intentional and Extensional Structure of History) –

यह इतिहास की संरचना का दूसरा स्वरुप है, जो इतिहास में एक शब्द या शब्द समूह के द्वारा उसका आशय (Intention) एवं विस्तार (Extension) का अर्थ संप्रेषित करता है यानि अर्थ देता है| इसमें उन शब्दों या शब्द समूहों को तार्किकता (Logic) एवं दार्शनिकता (Philosophy) की संरचना के साथ शब्दों या शब्द समूहों में सन्दर्भ स्थापित करता है और शब्दों को एक खास अवधारणा (Concept) से जोड़ता है| यहाँ ‘आशय’ का अर्थ इतिहासकार की उस मंशा यानि नीयत (Intention) से है, जिसका  सम्प्रेषण (Communication) वह उस शब्द के साथ करना चाहता है| इसी तरह यहाँ ‘विस्तार’ (Extension) का अर्थ उस व्याप्ति (व्यापकता) से है, जो इतिहासकार उस शब्द के द्वारा देना चाहता है|

इसे निम्न उदाहरण से समझा जाय| जैसे यदि किसी व्यक्ति के बारे में किसी इतिहास में यह चर्चा है कि वह एक धार्मिक व्यक्ति था| यहाँ ‘धार्मिक’ शब्द में एक संरचनात्मक अवधारणा अन्तर्निहित है, जो इतिहास के इस शब्द का आशय या नीयत को दर्शाता है| ‘धार्मिकता’ की अवधारणा में संस्कृति, क्षेत्र, काल या कोई भी अन्य पृष्ठभूमि के अनुसार भिन्न भिन्न आशय हो सकता है| ..........  इसी तरह अलग अलग वस्तुओं की अलग अलग धार्मिकता होती है| हालाँकि यही गुणवत्ता और विशेषता का अर्थ विशेष मानव समूहों में किसी अलौकिक शक्ति, कर्मकांड, विश्वास आदि से भी जुड़ सकता है, जो उसकी संस्कृति, इतिहास, अनुभव एवं समझ के अनुसार बदल सकता है| यही भिन्नताएं इतिहास की संरचना का विस्तार (Extension) है, अर्थात एक ‘धामिक’ व्यक्ति से यह भी अर्थ निकल सकता है कि वह एक बौद्ध हो सकता है, या एक हिन्दू हो सकता है, या वह इस्लाम का अनुयायी हो सकता है, या किसी भी अन्य ऐसे सम्प्रदाय का अनुपालक हो सकता है, या कोई मानवतावादी हो सकता है, या कोई विज्ञानवादी हो सकता है, या कोई संशयवादी हो सकता है, या कोई अन्य ‘वादी’ हो सकता है| इस तरह इतिहास का संरचनावाद एक साथ किसी शब्द या वाक्य का ‘आशय’ भी देता है एवं उसको ‘विस्तार’ भी देकर अपने में समाहित कर लेता है| यहाँ भी एक इतिहासकार अपने द्वारा लिखित यानि निर्मित इतिहास के द्वारा ऐसा संरचना तैयार करता है, जो स्पष्ट रूप में और अन्तर्निहित भाव में उसी आशय का संचार करता है एवं उसी सन्देश का विस्तार भी करता है, जिसे वह सम्प्रेषित करना चाहता है| इस आशय एवं विस्तार को व्यापक/ सर्व समाज एवं सम्पूर्ण राष्ट्र के हितों एवं लक्ष्यों के अनुरूप होना होता है|

 

3.                  “इतिहास की नवबोल संरचना” (NewSpeak Structure of History) –

‘इतिहास की संरचना’ के साथ एक और शब्द या अवधारणा इतिहास की संरचना को समझने के लिए दिया गया है| यह इतिहास की संरचना में “नवबोध” यानि “NewSpeak” के प्रयोग के साथ है| इतिहास की संरचना में इस शब्द “NewSpeak” का प्रथम उपयोग मैंने किया है, जिसका हिंदी अनुवाद “नवबोल” (नया बोल यानि नया शब्द) किया हूँ| इसका सर्वप्रथम  उपयोग प्रसिद्ध लेखक जार्ज आरवेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “उन्नीस सौ चौरासी” (1984) में किया था| यह राजनीतिक सामाजिक  प्रचार में मुख्य रूप में इस्तेमाल की जाने वाली अस्पष्ट व्यंजनापूर्ण भाषा है, जिसका एक ख़ास उद्देश्य होता है| यह किसी भी भाषा में किसी ‘विचार’ (Thought) को अत्यंत सीमित (Diminish) करने के लिए या उसके मूल अर्थ को प्रतिस्थापित करने के लिए बनाया गया (Designed) संरचना होता है| यह ‘नवबोल’ समाज में स्थापित ‘बड़े भाई’ (Big  Brother) का होता है, जिसमे धूर्ततापूर्ण भाव एवं मंशा होता है| ‘इतिहास का नवबोल संरचना’ को उदाहरण के साथ निम्नवत समझा जा सकता है| भारत के बौद्धिक (प्राचीन) काल में “नाग” शब्द का उपयोग समाज के संभ्रांत, बौद्धिक, समतावादी, एवं न्यायप्रिय वर्ग के लिए होता था| इनके विचार एवं व्यवहार न्याय, समानता, स्वतंत्रता एवं बधुत्व पर आधारित था, जो “समानता का अन्त” करने वाली व्यवस्था यानि ‘सामन्तवादी व्यवस्था’ के लिए घातक (Lethal) था| इसी कारण ‘नाग’ शब्द के भाव एवं अर्थ बदल देना था| इतिहास के कालक्रम में इसे समाज के नव उदित ‘बड़े भाइयों’ (सामन्ती शक्तियों) के द्वारा इसके भाव एवं अर्थ को अत्यन्त सीमित करने एवं प्रतिस्थापित करने के लिए समाज के सम्मनित इस ‘नाग’ के नाम से जाना जाने वाले समूह को एक जहरीले सांप (Snake) के समानार्थी बना दिया गया| .....   यह ‘नाग’ इतना महत्वपूर्ण था कि कई भारतीय भाषाओं की लिपि का नामकरण ‘देवों’ की ‘नागरी’ लिपि पर हुआ अर्थात ‘देवनागरी’ लिपि हुआ| प्रमुख प्राचीन ‘नागपुर’ नगर एवं ‘छोटानागपुर’ क्षेत्र इसी विशेष वर्ग के नाम पर हुआ| सामन्ती काल में ‘नाग’ को एक भारतीय जहरीले सांप से जाना जाने लगा| यह ‘नाग’ सामाजिक समूह ही प्राचीन काल में बुद्ध, बौद्ध एवं ‘शिव’ को संरक्षण देता था, जिसे सामन्तकाल में एक जहरीले सांप से संरक्षित दिखाया गया| ‘बौद्धिक नाग’ एवं उसकी समानतावादी अवधारणा सामन्तवाद के दर्शन के विरुद्ध था| इसका प्रभाव मध्यकालीन मूर्तिकला एवं चित्रकला पर भी देखा जा सकता है| “इतिहास का नवबोल” (New Speak of History) अवधारणा का कई दृष्टान्त इतिहास में भरे पड़े हैं, हमें सिर्फ सावधानी से नजरे घुमानी है| इस ‘इतिहास के नवबोल’ को इस संरचनावाद के सन्दर्भ में समझना होगा, अन्यथा कोई भी ‘नाग’ का अन्तर्निहित अर्थ नहीं समझ पायेगा|

 

4.                  “इतिहास  का संरचनात्मक व्यवहारवाद” (Structural Behaviourism of History) -  

‘इतिहास की संरचना’ से सम्बन्धित एक और अवधारणा मैंने दिया है, जो इतिहास की संरचना में व्यवहारवाद का प्रभाव स्पष्ट करता है| यह इतिहास में व्यक्ति, समाज, एवं संस्कृति के व्यवहार के प्रदर्शन, क्रियाविधि, एवं परिणाम को उसकी आंतरिक संरचना से स्पष्ट करता है| यह किसी व्यक्ति, समाज, एवं संस्कृति के आदर्श, उसकी भावना, एवं उसकी आंतरिक मानसिक अनुभव तथा सामान्य गतिविधियों को स्पष्ट करता है कि यह सब कैसे निर्मित, नियमित, नियंत्रित एवं संचालित होता है? इसे मानवीय मनोविज्ञान के सिगमंड फ्रायड की मनोविश्लेषणात्मक (Psycho Analytical) पद्धति से भी जोड़ा जा सकता है| इस व्यवहारवाद में मानव, समाज एवं संस्कृति  को इस रूप में देखा एवं समझा जाता है कि एक मानव, समाज एवं संस्कृति का आदर्श, उसकी भावना, एवं उसकी आंतरिक मानसिक अनुभव तथा सामान्य गतिविधियाँ उसके बाह्य वातावरण के द्वारा स्थापित किए गए  उद्दीपनों (Stimuli) के प्रति और आन्तरिक जैवकीय प्रक्रियाओं के प्रति की गई प्रतिक्रियाओं (Reaction to Stimuli) के अनुरूप होता है| अर्थात किसी भी व्यक्ति, समाज एवं संस्कृति के द्वारा किए गए कोई भी कार्य, या स्थापित आदर्श या कोई भी व्यवहार  उसके वातावरण द्वारा संचालित, नियमित एवं नियंत्रित कारकों की प्रतिक्रया के अनुसार होता है| जैसे यदि किसी व्यक्ति के द्वारा ‘गोबर (Cow dung) को किसी ‘देव’ मान कर पुजवाना है, तो उसके ऐसे स्वीकार्य व्यवहार को निर्मित करने एवं उसे संचालित करने के लिए उसकी शिक्षा एवं संस्कार को नियमित एवं नियंत्रित करना होगा| शिक्षा के क्षेत्र में उस व्यक्ति या उस व्यक्ति समूह को संस्कार या धर्म या ‘ईश्वरीय इच्छा’ के नाम पर ‘आस्थावान’ बनाना होगा, ‘तर्कहीन’ बनाना होगा, एवं अध्ययन से वंचित कर ‘मूढ़’ बनाना होगा| इसके ही साथ उसे मानसिक रूप से स्वचालित  (Automated) करने के लिए उसके संस्कार को बदलना होगा| मानसिक रूप से स्वचालित संस्कार के लिए इस कार्य एवं व्यवहार को ‘अपनी महान एवं गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत तथा धरोहर’ के नाम पर एवं पुरातन तथा सनातन महान धर्म के नाम पर “आस्थावान” बनाना होगा| ...........

“इतिहास  का संरचनात्मक व्यवहारवाद” में सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण  को समझने के लिए किसी व्यक्ति की अपेक्षा “संस्थाएँ” (Institutions) ही ज्यादा प्रभावशाली (Impressive) एवं प्रभावकारी (Effective) होती है| किसी व्यक्ति की अपेक्षा ‘संस्थाएँ’ ही किसी भी व्यक्ति, समाज एवं संस्कृति के आदर्श एवं व्यवहार को निर्मित, नियमित एवं नियंत्रित करता है| एक व्यक्ति का जीवन काल बहुत छोटा होता है, जबकि एक संस्था का जीवन काल बहुत ही लंबा होता है| व्यक्ति की अपेक्षा संस्थाएँ अदृश्य होती है, और इसकी क्रियाविधि अच्छे अच्छे की समझ से बाहर होती है| ........

5.                  “इतिहास का  संरचनात्मक स्वरुप” (Structural Form of History) - 

किसी भी ऐतिहासिक संरचना के दो स्वरुप  – एक, मानसिक स्वरुप यानि मानसिक तथ्य (Mentifacts) एवं दुसरा, भौतिक स्वरुप यानि वस्तु तथ्य (Artifacts) होता हैं| मानसिक सरंचना अदृश्य होता है, और वस्तु संरचना दृश्य होता है| आप मानसिक संरचना को ‘सांस्कृतिक संरचना’ कह सकते हैं और वस्तु संरचना को ‘सभ्यता का संरचना’ कह सकते हैं| इस तरह इतिहास की संरचना दृश्य एवं अदृश्य दोनों स्तर पर एक साथ कार्यरत होता है| ‘सांस्कृतिक संरचना’ में निरन्तरता होती है, भले ही समय के साथ उसके स्वरुप बदलते रहे, या विरूपित होते रहें, या संवर्धित होते रहें| ‘वस्तु संरचना’ में निरन्तरता नहीं होती है, क्योंकि भौतिक वस्तुओं को एक निकट समय में समाप्त होना होता है, अर्थात एक नीयत जीवन काल होता है| इसीलिए संस्कृति में निरन्तरता होती है, जबकि सभ्यताएँ आती जाती रहती है| इसे एक उदाहरण से समझें| महाराज शिवाजी एक सशक्त एवं प्रभावशाली शासक हुए, परन्तु उन पर इतिहास की संरचना के दोनों स्वरूपों का प्रभाव रहा| उनका ‘राजतिलक’ समारोह काफी चर्चित माना जाता है| मध्य काल में स्थानीय भारतीय शासकों को अपने क्षेत्र का स्वाभाविक स्वामी नहीं माना जाता था, जबतक उनका ‘राजतिलक’ समारोह’ तथाकथित “विधिवत” नहीं होता था| ‘राजतिलक’ के द्वारा उनमे ‘देवत्व’ प्रदान किया जाता था, यानि उनमे ‘देवत्व’ स्थापित किया जाता था| इतिहास की सांस्कृतिक संरचना का ‘दबाव’ एवं ‘प्रभाव’ था कि एक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली राजा को भी एक ‘विधिमान्य’ प्रक्रिया से गुजरना पड़ा| इनका एक राजा होना इतिहास की ‘वस्तु संरचना’ का उदाहरण हुआ| इस तरह एक शासक पर इतिहास की संरचना’ का प्रभाव एवं नियंत्रण हुआ| यह इतिहास का संरचनात्मक प्रभाव है| स्पष्ट है कि इतिहास का संरचनात्मक प्रभाव अपने दोनों स्वरूपों में एवं दोनों के अंतर्संबंधों के संयुक्त प्रभाव एवं नियंत्रण में कार्य करता है|

निरंजन सिन्हा

 

1 टिप्पणी:

  1. इतिहास के पाचों फलकों का गहन जानकारी देने की उत्तम प्रयास हुआ हुआ है

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