मेरी
एक पुस्तक – “इतिहास एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण” प्रकाशनाधीन
है| कुछ लोगों ने इस पुस्तक की झलक जारी करने का सुझाव दिया है| अनुपालनार्थ इसके
एक भाग का कुछ अंश .....
विकास में इतिहास की भूमिका
(Role of History in Development)
इतिहास
और विकास में बहुत गहरा सम्बन्ध है, लेकिन इतिहास का अर्थ यह नहीं है कि जो वास्तव
में हुआ है, क्योंकि कोई भी उस तथाकथित वास्तविकता का वर्णन पूरा सही एवं
समुचित होने का दावा नहीं कर सकता है| इतिहास का
वास्तविक अर्थ यह है कि इसे आज कैसे प्रस्तुत किया जा रहा है| इतिहास की शुरुआत उसके
सभ्यता एवं संस्कृति के साथ ही शुरू होती है| चूँकि इतिहास की जड़े सभ्यता एवं
संस्कृति में बहुत गहरी होती है, इसीलिए इतिहास ही सभ्यता एवं संस्कृति के हर काल
एवं अवस्था के विकास को प्रभावित, नियंत्रित एवं संचालित करती रहती है| वर्तमान के
विकास का भी इतिहास से गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि कोई
भी वर्तमान अपने इतिहास की नींव पर ही खड़ा रहता है| चूँकि वर्तमान की सारी समस्यायों की जड़ें इतिहास की
गहराइयों तक जाती है, इसीलिए वर्तमान की सभी समस्यायों के समाधान के लिए हमें
इतिहास की गहराइयों में जाकर ही उसमे सुधार करना होगा| वैसे इतिहास में
समय काल एवं वस्तुएँ तो ऐतिहासिक काल की होती है, परन्तु इतिहास लिखने वाला
इतिहासकार वर्तमान का होता है, और इसीलिए कोई इतिहास भी अपने वर्तमान के सन्दर्भ
में ही लिखा जाता है|
यह
ध्यान रहे, कि इतिहास लोगो का होता है, जो लोगों के सर्वांगीण विकास में मायने
रखता है| किसी क्षेत्र के मानवीय इतिहास का काल बहुत छोटा तो हो सकता है, परन्तु
उनलोगों का इतिहास अवश्य ही गौरवपूर्ण रहना चाहिए|
दरअसल कोई इतिहास गौरवपूर्ण होता नहीं है, यह उन इतिहासकारों की अभिवृति पर निर्भर
करता है कि उसे वह गौरवपूर्ण मानता है, या नहीं मानता है| यह इतिहासकारों
की सकारात्मक सोच एवं अभिवृति पर पूर्णतया निर्भर करता है, क्योंकि वही लोगो में आ
जाता है| इसीलिए किसी के विकास के लिए उसके इतिहास काल का लम्बा होना जरुरी नहीं
है, बल्कि उसके इतिहास बोध की प्रस्तुति यानि उपस्थापन का स्वरुप महत्वपूर्ण होना
चाहिए|
....
इसे समझे बिना वर्तमान मानव संसाधन में
कोई गुणात्मक एवं बड़ा मात्रात्मक सुधार या संवर्धन नहीं लाया जा सकता है| इसलिए विकास की गति को तेज करने एवं महत्तम करने के लिए हमें
इतिहास में किए गए या हो गए अवैज्ञानिक एवं अमानवीय गलतियों को पहचान कर उसे
सुधारना होगा| इस दृष्टिकोण से हमें अपने इतिहास को जानना और समझना होगा,
तभी उस त्रुटि को सुधारा जा सकता है, और वर्तमान में अपेक्षित विकास को पाया जा
सकता है|
.......
भारतीय समाज अभी भी अपने सोच में रुढ़िवादी है, अन्धविश्वासी है, और ढोंग – पाखंड
में डूबा हुआ है| भारत के “विश्लेषण माडल” से विश्व के सभी अविकसित एवं विकासशील
समाजों एवं उनके संस्कृतियों की समस्यायों को समझा जा सकता एवं उसका समाधान पाया
जा सकता है| ……….
…….
एक ‘सामान्य मानव’ को ‘उपयुक्त मानव’ संसाधन
में रुपान्तरित करने लिए उसकी मानसिकता (Mentality), भाव (Spirit) और अभिवृति (Attitude) में सकारात्मक गुणात्मक
परिवर्त्तन करने होते हैं। यह रुपान्तरण संस्कृति से ही नियंत्रित, निर्धारित एवं
संचालित होता है, और किसी की संस्कृति उसके इतिहास बोध से प्रभावित एवं निर्धारित
होती है। और मैंने यहाँ यही बताने का प्रयास किया
गया है, जो विकास की गाथा में अभी तक उपेक्षित रहा है। भारत को आधुनिक बनने के लिए
भारत को एक सशक्त, विकसित, एवं समृद्ध राष्ट्र
बनना होगा। इसके लिए हर भारतीय की मानसिकता, भावना एवं अभिवृति को सकारात्मक एवं
सृजनात्मक बनाना होगा| सामान्य जनों में वैज्ञानिक मानसिकता विकसित करना होगा| इसके
लिए हमें संक्षेप में, ‘राष्ट्र’, ‘विकास’, ‘संसाधन’, और ‘संस्कृति’ को इतिहास के सन्दर्भ में समझना
होगा। ……..
…..
अर्थशास्त्री विद्वान अमर्त्य सेन
ने विकास की अवधारणा में “सक्षमता उपगमन” (Capability Approach)
को शामिल किया है| इस अवधारणा में लोगों को कार्य करने की स्वतंत्रता
के साथ उनके उच्चतर अवस्था का क्षमता (Capability) प्राप्त कर
लेने की सांस्कृतिक अवस्था शामिल है। ........ विकास का पक्ष मात्र आर्थिक नहीं होता है,
अपितु एक बहु आयामी प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत तमाम आर्थिक,
सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक व्यवस्था का पुनर्गठन (Re Organization), पुनर्संरचना
(Re Structure) एवं पुनर्निधारण (Re Orientation) होना होता है। विकासात्मक प्रक्रिया में मानवीय जीवन मे गुणात्मक सुधार लाना
प्राथमिकता रहता है।
विश्व
बैंक ने विकास को सरल तरीके से परिभाषित किया है, जिसमें कहा गया कि “विकास ऐसा सामाजिक- सांस्कृतिक
परिवर्त्तन लाता है, जो लोगों को उनकी मानवीय क्षमताओं को प्राप्त करने की व्यवस्था
करती है।” इस तरह यह विकास एक सामाजिक-
सांस्कृतिक संरचनात्मक रुपान्तरण की प्रक्रिया है। इसे “ऐतिहासिक रूपान्तरण”
की प्रक्रिया कहा जाना उचित है। ……
‘संसाधन’ (Resource) हमारे वातावरण में उपलब्ध
वे सभी चीजें हैं, जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करता है, और यह तकनीकी रूप में
संभव/
पहुँच योग्य (Accessible) हो, आर्थिक रूप में
मितव्ययी (Economic) हो, एवं सांस्कृतिक रूप में प्रतिषेधित (Prohobited) नहीं हो|
‘संसाधन होना’ एक विशेषता या प्रक्रिया है, जो मानव जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करता
है। संसाधन वह स्रोत या आपूर्ति है, जिससे कोर्इ लाभ उत्पादित हो और जिसकी कोर्इ उपयोगिता
हो। .........
स्पष्ट है कि मानव
ही सबसे बडा संसाधन है, जो किसी भी चीज को एक महत्वपूर्ण संसाधन में बदल
देता है। इसी कारण परम्परागत संसाधनों के अभाव वाला देश भी अपनी बेहतर संस्कृति के
कारण यानि अपनी उच्च स्तरीय वैज्ञानिक मानसिकता के कारण अपने मानवीय संसाधन के
उपयोग से अपने देशों को अग्रणी देश बनाया हुआ है| .... मानव को संसाधन बनाने में उसका संस्कार अर्थात् उसकी संस्कृति
ही प्रमुख है, क्योंकि इसमें उसकी बुद्धिमता, ज्ञान, अभिवृति, चरित्र
(न्यायिक चरित्र भी इसमें शामिल है), देश भक्ति, मानवीयता आदि सभी विशेष गुणवत्ता शामिल होती है।
किसी की संस्कृति का निर्माण उसके इतिहास बोध से होता
है, जो समुचित इतिहास लेखन से ही आता है और यही उपयुक्त मानसिकता का निर्माण भी करता
है।
इस मानसिकता में अपेक्षित सुधार किए बिना कोर्इ
आर्थिक सम्बल, समर्थन एवं आधारभूत ढाँचा काम नही करता
है, क्योंकि विकास करना भी मानव को है, विकास पाना
भी मानव को है और विकास किया जाना भी मानव के द्वारा ही है। यदि पात्र, साधन एवं कार्यकारी
तंत्र ही अयोग्य होगा, तो सब चीज बेकार है और किसी भी समाज के लिए यही स्थिति सबसे
दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत की स्थिति यही है, जिसे समझना आवश्यक है।
.....
भारत
के प्राचीन इतिहास के अध्ययन एवं लेखन में उपलब्ध साहित्यिक साधन ही प्रभावी रहा है।
वास्तव में ये सभी साहित्यिक साक्ष्य स्वयं इतिहास के द्वितीयक स्रोत भी नहीं हैं,
क्योंकि यह स्वयं किसी दुसरे साहित्यिक स्रोत पर आधारित होता है| वह स्वयं किसी प्राथमिक
स्रोत पर आधारित नहीं है एवं किसी भी पुरातात्विक साक्ष्य से समर्थित भी नहीं होता
है| भारतीय प्राचीन साहित्य का तथाकथित मौखिक एवं स्मृति स्वरुप के कारण ही इसमें
विवाद है| अब इन साहित्यों के समर्थन में अन्य वैज्ञानिक साक्ष्यों यथा पुरातात्विक
विज्ञान,
भाषा विज्ञान, धातु विज्ञान, जीव विज्ञान आदि की मांग होने लगी है। इन समस्याओं के निराकरण के लिए इतिहास
के क्षेत्र में अन्य विधाओं एवं विज्ञानों की आवश्यकता हो गयी| भारतीय इतिहास को साक्ष्यों
के साथ समर्थित करने के लिए इतिहास को मिथकों से उपर उठाना होगा।
...... कुछ लोग इतिहास की धार्मिक
व्याख्या के नाम पर अतार्किक हो गए हैं तथा धार्मिक सामंतवाद के समर्थक हो गए हैं,
जो राष्ट्र के निर्माण और विकास में बाधक बना हुआ है।
भारत में सामंतवाद
क्या आज भी जीवित है? भारतीय सामंतवाद को समझें
बिना आधुनिक भारत का कल्याण नहीं है। कतिपय
भारतीय इतिहासकारों को अपनी क्षमता एवं योग्यता पर विश्वास ही नहीं होता है और वे
सभी परिभाषाओं एवं अवधारणाओं के लिए सदैव पश्चिम की ओर ही उन्मुख रहते हैं| ये
इतिहासकार भारतीय सन्दर्भ में कोई नयी परिभाषा एवं अवधारणा गढ़ने लायक भी नहीं है|
ये सदैव भारत देश की हर संकल्पना को पश्चिम की कसौटी एवं मानक पर ही कसने को आमदा
रहते हैं, मानो भारत की कोई अलग संस्कृति एवं समस्या ही नहीं है| समस्त
यूरोप की आबादी एवं विविधता अकेले भारत में समाहित है, और कोई हर सन्दर्भ के लिए
यूरोप को ही देखता/ ताकता (Stare) रहता है| यदि कोई भारतीय संकल्पना यूरोपीय
संकल्पना के अनुरूप नहीं है, तो वे इसे बड़ी तत्परता से ख़ारिज करने को उतावले रहते
हैं| जब पश्चिम यूरोप का सामन्तवाद पूर्वी यूरोप के सामन्तवाद से भिन्न हो सकता
है, तो इस पुरानी दुनिया का सामन्तवाद क्यों नहीं बहुत भिन्न होना चाहिए?
यूरोप की सामाजिक
व्यवस्था में ‘कास्ट’ (Caste) प्रचलित था, जबकि भारत में ‘जाति’ (Jati) की
व्यवस्था प्रभावी रही| भारतीय विद्वानों ने इस ‘कास्ट’
और ‘जाति’ को समानार्थी बता कर एक बड़ा बौद्धिक घोटाला ही कर दिया है|
पश्चिम के विद्वान् इन अंतरों को नहीं समझते हैं, तो इन भारतीय विद्वानों को इसे
स्पष्ट करना चाहिए| किसी की ‘कास्ट’ उसके जीवन में बदल सकता है, जबकि किसी की
‘जाति’ उसके जीवन काल में कभी नहीं बदल सकती है|
...... सामन्तवाद को सरल शब्दों में “अवसरों की समानता का
अन्त”
(सामन्त = समानता + अन्त) कहा जाता है| इसमें “जन्म के वंश के आधार पर कार्य करने का अवसर” मिलता है
और किसी की योग्यता एवं कुशलता की कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता है| यही अवसर की
समानता का अन्त ही सामन्तवाद है|
सामन्तवाद इतिहास की एक अवस्था है, जिसकी उत्पत्ति एवं विकास उत्पादन,
वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों और उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर हुर्इ। यह
एक आर्थिक- सामाजिक-
धार्मिक संरचना है, जिसके द्वारा समाज एवं राज्य को संचालित किया जाता
रहा। इस व्यवस्था को
“शासक द्वारा अबाध गति से शासितों के शोषण का दर्शन” भी कह सकते हैं।
सामन्तवाद ने अपने हितों के
अनुरूप पहले से मौजूद संस्कृति का विरुपण (distortion, deformation) कर दिया और उसे धर्म का आवरण
यानि खोल (Veil) भी ओढा दिया| धर्म का आवरण किसी शोषक तंत्र के स्वरुप को धार्मिक
एवं सांस्कृतिक बना देता है| किसी का धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरुप यानि आवरण उस
शोषण तंत्र को पवित्र संस्कार एवं परम्परा में बदल देता है| इस धार्मिक एवं
सांस्कृतिक आवरण यानि खोल के कारण कोई भी
इस शोषण तंत्र का विश्लेषण नहीं कर सकता, क्योंकि इसे संस्कृति एवं धर्म के
विरुद्ध व्यवहार तथा सोच मानी जाती है| इससे यथास्थितिवादियों की कुत्सित इरादों
को कोई भांप भी नहीं सकता है|
‘‘धर्म,
धार्मिक विचार- विश्वास, एवं संस्थाएँ” सामन्तवाद की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। ...... भारत में धार्मिक सामन्तवादी दर्शन का अबतक नष्ट
नहीं हो पाने से ही भारत अबतक पिछडा हुआ है| यह सामन्ती संस्कृति अभी भी भारतीय
समाज में विभिन्न धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरूपों में प्रचलित है या प्रभावी है| यह
व्यवस्था यानि प्रणाली अभी भी भारतीय समाज को नियंत्रित, संचालित, नियमित एवं प्रभावित
कर रहा है, जिसे यथास्थितिवादी जाने- अनजाने में अपने
हित के लिए इसे भारत के विकास के विरुद्ध बनाए हुए है और बनाए रखना चाहते हैं। उन
यथास्थितिवादियों की यह सोच एवं व्यवहार भारत के राष्ट्रराज्य की स्थापना के विरुद्ध
है| ......
भारत में वर्तमान
धार्मिक-
दर्शन, धर्म, सम्प्रदाय और अध्यात्म अपने मध्यकालीन सामंती स्वरुप में
मौजूद है। सामंत काल में यानि मध्य काल में पुरातन एवं तत्कालीन प्रचलित भारतीय परम्पराओं
एवं अवधारणाओं की विषय वस्तु का उपयोग कर सामन्ती बुद्धिवादियों ने ही एक नए धार्मिक
दर्शन को स्थापित किया, जो सामन्ती व्यवस्था के पूर्णतया अनुरूप हुआ। यह सामंतवाद की
शक्तियों की परिस्थितिजन्य उपज थी, पर आज सामंतवाद की आवश्यकता
नही है। आज सामन्तवादी संस्कृति ही भारत की विकास को बाधित किए हुए है, जो आज
सनातनता, प्राचीनता और उत्कृष्टता का काल्पनिक चादर ओढ़े हुए है|
भारत अभी भी सामन्तवादी
धार्मिक व्यवस्था में उलझा हुआ है और इसी कारण भारत का अपेक्षित विकास नही हो पा रहा
है। .......... भारत में समस्त विकास के लिए
इस सामन्ती व्यवस्था को ध्वस्त करने की अनिवार्यता है। बौद्धिकता एवं मानवतावाद के
जीवन दर्शन पर आधारित सामाजिक- आध्यामिक व्यवस्था ही
युवाओं का और सर्वजन का कल्याण करेगा। .....
स्पष्ट
है कि किसी भी समाज या राष्ट्र के सम्यक विकास में इतिहास की यानि इतिहास बोध की
ही स्पष्ट भूमिका होती है, परन्तु कुछ तथाकथित प्रबुद्ध लोग समूचे समाज एवं
राष्ट्र को भटकाए हुए रखते हैं|
निरंजन सिन्हा
www.niranjansinha.com
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