हम पाते हैं कि ‘इतिहास’
को बदलने, यानि इसके ‘पुनर्लेखन’ की आवश्यकता होती है| परन्तु क्यों? ऐसा कभी नए
तथ्यों के नाम पर, कभी नए शोधों के परिणाम के नाम पर, कभी ऐतिहासिक त्रुटियों को
सुधारने के नाम पर, कभी राष्ट्रीय संस्कृति की आवश्यकता के नाम पर और कभी ऐतिहासिक
वास्तविकता की स्थापन के नाम पर किया जाता है| यह हर काल और हर क्षेत्र में
होता रहता है, एवं यदि वह समाज बौद्धिक एवं सजग है और अपेक्षित परिवर्तन चाहता है| कोई इसे ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’
का भी नाम देता है, जो दरअसल ‘वर्तमान इतिहास’ को एक झटके में ही बदलने का सफल प्रयास
होता है| अत: “इतिहास को बदलना” सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक नव निर्माण का मूल, मौलिक
एवं विशिष्ट आधारभूत संरचनात्मक अनिवार्यता भी कहा जा सकता है|
आप पायेंगे कि हर समाज अपने
द्वारा धारित संस्कृति को पुरातन एवं सनातन साबित करना चाहता है और इसीलिए हर
संस्कृति को पुरातन एवं सनातन साबित होना होता है| इससे ही कोई संस्कृति गौरवशाली
हो जाता है और इसीलिए उसके हर एक सदस्य के लिए अनुकरणीय भी हो जाता है| इसी कारण जब कोई व्यक्ति या समूह कोई नई संस्कृति को अपनाता है, तो वह उस संस्कृति में प्रचलित पुरातन नाम, संस्कार
एवं रीति- रिवाज को भी अपनाता है| इससे उसे यह लगता है कि तब पूरा समाज उसे उस पुरातन
एवं सनातन समाज एवं संस्कृति का हिस्सा मान लेता है और इसीलिए वह भी गौरवशाली हो
जाता है, यानि वह गौरवशाली महसूस करता है|
यह हर संस्कृति का मानवीय
मनोवैज्ञानिक पक्ष है, जिसे समझना चाहिए| हर व्यवस्था अर्थात शासन उस क्षेत्र की पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक, सर्वव्यापी एवं गौरवशाली संस्कृति
का अनुकरण करता हुआ अपने को साबित करना चाहता है| इसे “शासन की सांस्कृतिक आवश्यकता” (Cultural Necessity of
Governance) भी कह सकते हैं| इसी सांस्कृतिक गौरव एवं आवश्यकता के नाम पर यथास्थितिवाद बनाए रखने में भी सहायता
मिलती है, या सांस्कृतिक परिवर्तन करने की आवश्यकता जताती है| इसी तथाकथित गौरव के नाम पर शासन तंत्र, यानि शोषण तंत्र की
हर गलतियों को सांस्कृतिक पहचान बनाने के नाम पर सही एवं न्यायसंगत किया जाता है| इसे
अक्सर राष्ट्रीयता की भावना से जोड़ दिया जाता है और इस तरह यह “शासन की सांस्कृतिक आवश्यकता” "राष्ट्रीय संस्कृति की
अनिवार्यता" भी बन जाती है, यानि अपनी हर शासकीय गतिविधि पर राष्ट्रीय संस्कृति
का आवरण ओढा दिया जाता है||
यह एक बहुत महत्वपूर्ण और विचारणीय विषय है| व्यवस्था और शासन एक ही नहीं है, व्यवस्था एक व्यापक अवधारणा है और शासन उसमें समाहित होता है। हालाँकि व्यवस्था में शासन को शामिल किया जा सकता है, परन्तु शासन में पूरी व्यवस्था को शामिल नहीं किया जा सकता है| व्यवस्था में हम, आप और सब कोई के साथ समाज द्वारा निर्मित हर संस्था भी शामिल होता हैं, लेकिन शासन में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं प्रचारपालिका पर ही ध्यान जाता है|
हमें व्यक्ति, शासन, व्यवस्था एवं संस्कृति में अंतर समझना चाहिए| ‘व्यक्ति’ एवं ‘शासन’ (Governance) बदलने से ‘जीवन-संस्कृति’ में
कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता है, परन्तु ‘व्यवस्था’ (System) एवं ‘संस्कृति’ बदलने से
‘जीवन-संस्कृति’ में बहुत कुछ बदल जाता है| व्यवस्था को किसी तंत्र का
हार्डवेयर एवं संस्कृति को किसी तंत्र का साफ्टवेयर कह सकते है, और यही इनके
महत्त्व को रेखांकित करता है|
सामान्यत: ‘शासन’ एवं ‘व्यवस्था’
उस समय की प्रचलित संस्कृति का ही उत्पाद होता है और इसीलिए दोनों का स्वार्थ एक
ही होता है| दोनों ही एक दुसरे के अस्तित्व का संरक्षक होता है| एक संस्कृति को पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक एवं गौरवशाली होने के लिए कई मिथक गढ़े जाते हैं| संस्कृति
को पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक एवं गौरवशाली होने से यह हर किसी के लिए भी अनुकरणीय
हो जाता है| इस तरह इस पर प्रश्न उठाना या शंका करना राष्ट्रद्रोह भी माना जा सकता
है, क्योंकि यह राष्ट्रीय
संस्कृति का स्वरुप पैदा करता है| ऐसी संस्कृति पर प्रश्न करना या शंका करना आपको
समाज विरोधी भी साबित कर सकता है| "आर्यों की कहानी" भी इसी उद्देश्य को पूरा करता
एक शानदार मिथक है|
डॉ आम्बेडकर भी हर सकरात्मत्क एवं सृजनात्मक राजनीतिक व्यवस्था की निर्माण की पूर्व शर्त सांस्कृतिक व्यवस्था में
परिवर्तन को रखते हैं| यह सांस्कृतिक आवश्यकता उस व्यवस्था के महत्त्व,
गहराई, व्यापकता एवं प्रभावशीलता को रेखांकित करता है| इसी कारण यह इतिहास साजिश का
हिस्सा भी बनता है|
संस्कृति किसी जनसमूह या समुदाय
की किसी
खास समय पर
उनके जीवन जीने का तरीका है। इसमें उस जनसमूह की
सामान्य परम्परा एवं विश्वास समाहित होता है। किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण
मानसिक निधि (Mental Treasure) को सूचित करती है। संस्कृति किसी समाज के वे
सूक्ष्म संस्कार हैं और किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों की समग्रता है, जो
उस समाज की सोचने, विचारने, और व्यवहार एवं कार्य करने की प्रतिरूप (Pattern) से बना है। संस्कृति जीवन
जीने की विधि है। संस्कृति मानव द्वारा उत्त्पन्न एक मानसिक पर्यावरण है। यह
संस्कृति सामाजिक तंत्र चलाने वाला महत्वपूर्ण साफ्टवेयर है। किसी संस्कृति का निर्माण उस समुदाय की ‘सांस्कृतिक बोध’
(Perception of Culture) यानि ‘ऐतिहासिक बोध’ (Perception of History) से
होता है| संस्कृति का निवास उसके मानस (Mind) में होता है। इसलिए किसी सोच या मानसिकता को
बदलने के लिए, या बनाए रखने के लिए इतिहास को ही बदलना होता है| हम कह सकते हैं कि संस्कृति
मानवीय समाजों में पाए जाने वाले सामाजिक व्यवहार, सामाजिक मूल्य, सामाजिक आदर्श
(Model), सामाजिक प्रतिरूप (Pattern) और सामाजिक प्रतिमान (Norm) है।
हम लेखक जार्ज ओरवेल को याद करते हैं| उनके शब्दों में- “जो
इतिहास को नियंत्रण में रखता है, वह भविष्य को भी नियंत्रण में
रखता है|” वह ऐसा इसलिए कर सकता है, क्योंकि वह संस्कृति की
क्रियाविधि को नियंत्रण में ले लेता है। इस तरह वह उस समाज को स्वत: संचालित करने वाला
साफ्टवेयर को ही नियंत्रित कर लेता है| उन्होंने यह भी बताया कि हर शासक वर्ग को शासितों के वर्ग पर शारीरिक एवं आर्थिक
नियंत्रण के अतिरिक्त मानसिक तौर पर भी नियंत्रण करना पड़ता है| यह सांस्कृतिक नियंत्रण यानि
मानसिक नियंत्रण बहुत प्रभावशाली होता है| इससे शासित यानि शोषित समुदाय स्वचालित ढंग से नियंत्रित
रहता है| यह तरीका प्रतिरोध रहित होता है| इसमें
शासित या शोषित को यह पता भी नहीं लगता है कि वह किसी से नियंत्रित, नियमित एवं
संचालित भी है| हर शासित (शोषित) को यह लगता है कि वह अपना सांस्कृतिक एवं सामाजिक
धर्म का निर्वहन कर रहा है, जो हर व्यक्ति एवं वर्ग को करना चाहिए| यह संस्कृति की साफ्टवेयर की असरदार प्रभावकारिता है|
शासित वर्ग पर यानि शोषित वर्ग
पर नियंत्रण करने के लिए उसके इतिहास बोध को बदलना होता है और इसे बदल कर ही उसकी संस्कृति
को बदला जाता है| ‘आर्यों की कहानी’ एवं ‘मूल निवासी की कहानी’ इसी उद्देश्य
की पूर्ति का हिस्सा है| बदले संस्कृति का प्रभाव सदियों तक बना रहता है| संस्कृति को बदल देने से सब नियंत्रण स्वचालित (Automated) हो
जाता है| शासित
वर्गों को यह इतिहास बोध या यह सांस्कृतिक समझ उसे धर्म एवं धार्मिक कर्तव्य एवं
संस्कार लगता है| इसे बचाए रखना या उसे बनाए रखना उनका धार्मिक
उत्तरदायित्व हो जाता है| वर्तमान इतिहास को बदलने के लिए पुराने इतिहास को
नष्ट करना होता है, या उसे विरूपित (बिगाड़) करना होता है, या उसे बदलना होता है| पर इसे धैर्यपूर्वक एवं धीरे-
धीरे करना पड़ता है| इसके
लिए बुद्धिजीवियों का सहारा लेना पड़ता है और तकनीकी समर्थन के साथ संचार के साधनों
यानि मीडिया को नियंत्रित भी करना होता है|
इतिहास को बदल कर कोई समाज एवं राष्ट्र को गर्त में भी
पहुँचा सकता हैं, या विकास के शिखर पर भी ले जा सकता है। यह हमारी मंशा एवं हमारी
बोद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है|
(यह लेखक द्वारा प्रकाशनाधीन पुस्तक – “मूल निवासी का सच” का कुछ अंश है )
आचार्य प्रवर निरंजन
"व्यवस्था को ही शासन कहना अनुचित नहीं होना चाहिए" - शायद अनुचित के जगह उचित कहना चाहते थे
जवाब देंहटाएंआपके सुझाव अनुसार यथासंशोधित।
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