गुरुवार, 28 मार्च 2024

मुक्ति किससे और कैसे पायी जानी है?

मुक्ति पाने के प्रयास में हम सब करते कुछ हैं, और पाते कुछ और ही है| ऐसा क्यों और कैसे होता है? इसी को समझने के लिए ही यह आलेख है|

क्या हमें गरीबी से ही मुक्ति चाहिए, या अमीरी यानि समृद्धि या

समृद्ध जीवन की स्वतंत्रता ही चाहिए?

क्या हमें किसी बीमारी से ही मुक्ति चाहिए, या हमें स्वस्थ्य रहने की स्वतंत्रता चाहिए?

क्या हमें सिर्फ अशिक्षा से यानि मुर्खता से ही मुक्ति चाहिए, या

गुणवत्तापूर्ण उच्च स्तरीय शिक्षा भी चाहिए,यानि बुद्धिमत्ता की स्वतंत्रता भी चाहिए?

क्या हमें सिर्फ ब्राह्मणवाद से ही मुक्ति ही चाहिए, या हमें जीवन में

उस मुक्ति से  बहुत बहुत आगे की आधुनिकता एवं वैज्ञानिकता की स्वतंत्रता भी पाना चाहिए?

तो सवाल बहुत ही अहम् है| तब हमें अपने जीवन में कोई वृहत एवं व्यापक लक्ष्य ही रखना चाहिए, जिसमे उपरोक्त वर्णित उदाहरण सहित अन्य तुच्छ एवं नकारात्मक बाधाओं को पार कर लेना स्वत: शामिल हो जायगा| अर्थात हमारा दृष्टिकोण, हमारा लक्ष्य विस्तृत एवं व्यापक होना चाहिए, किसी नकारात्मकता के भाव पर यानि किसी ऐसे सन्दर्भ पर केन्द्रित नहीं होना चाहिए| अभी हमें इसी उदाहरण को लेकर मुक्ति को और उसके क्रियाविधि के प्रभाव को ही समझना है, उसके बाद ही हमें किसी सांस्कृतिक या सामाजिक “वाद” (ism) या, किसी राजनीतिक दर्शन या “वाद’ से मुक्ति पाने के अर्थ को समझना चाहिए| हमें जिससे भी मुक्ति पाना होना चाहिए, सबसे पहले उस अवधारणा को सम्यक रूप से समझना चाहिए, अर्थात उस लक्षित अवधारणा को वैज्ञानिक, तार्किक, वस्तुनिष्ठ एवं विवेकपूर्ण ढंग से समझना चाहिए, और तब ही उस पर आगे बढ़ने की सोच रखनी चाहिए| दरअसल हम जिस भी बाधा को पार करना चाहते हैं, उस बाधा का ही आलोचनात्मक विश्लेषण और मूल्याङ्कन के विमर्श के लिए कोई समय ही नहीं देते हैं| हम बाद में, यानि इसी आलेख के अंत में “मुक्ति” (Liberty) के व्यापक अर्थ को समझेंगे, और संवैधानिक आईने में भी देखेंगे|

हम यहाँ यह समझने बैठे हैं कि हमें मुक्ति पाने का लक्ष्य रखना चाहिए, या नहीं? इस मुक्ति के लक्ष्य का क्या अर्थ है, अर्थात इस मुक्ति की क्रियाविधि (Mechanism) के क्या क्या निहितार्थ हैं और इसके प्रभाव की भी एक ‘आलोचनात्मक समीक्षा’ (Critical Examination) होनी चाहिए| अब हम प्रथम उदाहरण वाक्य - क्या हमें गरीबी से मुक्ति ही चाहिए, या अमीरी यानि समृद्धि या समृद्ध जीवन ही चाहिए?, का आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करते हैं| गरीबी से मुक्ति पाना एक नकारात्मक वाक्य है, क्योंकि इसमें हमारा सारा ध्यान, सारा फोकस, और सारी उर्जा गरीबी पर ही केन्द्रित रह जा रही है| ध्यान रहे कि,  हम जिस चीज पर भी अपने ध्यान केन्द्रित करते हैं, उस पर हम अपनी उर्जा प्रदान करते है, यानि हम उसको उर्जा प्रवाहित करते हैं| और हम जिस भी चीज पर उर्जा देते हैं, वह चीज अपने आकार में, अपने स्वरुप में, अपनी क्रिया में यानि अपनी गतिविधि में बढती जाती है, यानि वह ज्यादा उर्जामय हो जाता है|

कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह अपनी गरीबी को ही बढाते हैं, जो हमारा लक्ष्य ही नहीं है और हम अपने लक्ष्य के ही विरुद्ध परिणाम पाने का क्रियाविधि में लिप्त हो जाते हैं| इसीलिए हमें अपनी अमीरी बढ़ाने के लिए, यानि हमें अपने व्यक्तित्व के महत्तम विकास के लिए पूर्ण संसाधन संपन्न होना चाहिए और उसके लिए ही प्रयासरत रहना चाहिए| अर्थात अमीरी का सार्थक अर्थ हमें अपने व्यक्तित्व के महत्तम विकास के लिए पूर्ण संसाधन संपन्न होना चाहिए| हमें अपनी सारी उर्जा, समय, ध्यान, संसाधन, समर्पण एवं युक्ति अमीर बनने के लिए यानि साधन संपन्न होने के लिए ही होनी चाहिए, किसी को मिटाने के लिए नहीं; वह तो अपने आप ही अस्तित्वहीन हो जायगा| हमारी सम्पूर्ण योजना, विश्लेषण, मूल्याङ्कन एवं क्रियाविधि साधन संपन्न होने के लिए यानि अमीरी पाने के लिए होनी चाहिए| यह अमीर होना सकारात्मक कदम है, क्योंकि हम इसे पाने के लिए करते हैं| गरीबी से मुक्ति पाना एक नकारात्मक कदम है, क्योंकि हम गरीबी से बचने का प्रयास करते हैं| यहाँ भी थोडा ठहर कर समझने की जरुरत है| ऐसी ही स्थिति बीमारी एवं स्वास्थ्य के सन्दर्भ के लिए है, और ऐसी ही स्थिति अशिक्षा एवं बुद्धिमत्ता के लिए भी है, और ऐसी ही स्थिति किसी भी “वाद” (ब्राह्मणवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद या कोई और भी ‘वाद’) से बचने के लिए या उससे भी बहुत आगे जाने के सन्दर्भ में होना चाहिए|

उपरोक्त एक उदाहरण से यह स्पष्ट हुआ कि आप जिससे मुक्ति पाना चाहते हैं, वही आपका अंतिम लक्ष्य भी हो जाता है| अर्थात जब आपको उससे मुक्ति मिल जाती है और तब आपके लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है, और फिर आप उससे संतुष्ट होकर निष्क्रिय भी हो जाते हैं| जबकि आपका वास्तविक लक्ष्य उससे भी बहुत आगे जाना था या आगे जाना है| जब हमारा लक्ष्य ही उससे बहुत आगे जाना है, यानि आधुनिक, वैज्ञानिक चिंतन वाला सुखी, समृद्धमय एवं ऐतिहासिक होना है, तो हमें मुक्ति के लक्ष्य तक सीमित नहीं होकर, उससे आगे और उससे बहुत बड़ा लक्ष्य जीवन का होना चाहिए| हमारा जो अंतिम लक्ष्य होता है, हमारा जो एकमात्र लक्ष्य होता है, वह सदैव व्यापक, विस्तृत, कालजयी और मानवतावादी होना चाहिए| अर्थात हमारा लक्ष्य सदैव व्यापक मानवता के लिए होना चाहिए, मानव अस्तित्व के विकास के लिए होनी चाहिए| अर्थात हमारा लक्ष्य सदैव व्यापक मानवता के सुख, शांति, समृद्धि एवं विकास के लिए होनी चाहिए, जो निश्चितया  न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं बंधुत्व पर आधारित रहेगा| अर्थात हमारा अंतिम लक्ष्य मानवता के लिए एक बेहतर भविष्य के निर्माण एवं संरक्षण के लिए होना चाहिए, जिसमे अवश्य ही प्रक्रति के विकास एवं संरक्षा समाहित होगा और एक बेहतर एवं सुन्दर भविष्य का दृष्टि अवश्य ही सामने होगा| जब हमारा लक्ष्य एक बेहतर भविष्य है, तो हमारा पूरा समय, संसाधन, उर्जा, उत्साह, समर्पण उसी के लिए होना चाहिए, किसी और तुच्छ और नकारात्मक लक्ष्य या साध्य के लिए नहीं होना चाहिए| इसी को कहा जाता है कि कोई बड़ा लकीर ही खींच कर ही किसी दुसरे लकीर को बिना छुए और बिना कुछ बोले ही छोटा कर दिया जाता है|

स्पष्ट है कि हमारा लक्ष्य ही किसी नकारात्मक एवं तुच्छ के सापेक्ष ही नहीं होना चाहिए| हमारा कोई भी सन्दर्भ बिंदु कोई भी नकारात्मक और तुच्छ नहीं होना चाहिए| जब हमारा कोई भी लक्ष्य निर्धारित हो जाता है, स्पष्ट है कि हमें उसे पाना होता है, वह हमारा जीवन लक्ष्य हो जाता है| तब निश्चितया ही हमारा लक्ष्य किसी नकारात्मक और किसी छोटी चीज के सापेक्ष नहीं होना चाहिए| जब हमारा लक्ष्य तुच्छ और नकारात्मक नहीं होता है, तब हम उनमे नहीं उलझते हैं| छोटा और नकारात्मक लक्ष्य उलझन पैदा कर हमारा सभी कुछ सोख लेता है, और यह लक्ष्य अन्य उलझन के आलावा कुछ और पैदा भी नहीं कर पाता है| इसीलिए कुछ योजनाकार तथाकथित बुद्धिमान लोगों के समक्ष तुच्छ एवं नकारात्मक लक्ष्य रख कर खूब आनन्दित होते हैं| तब हम अपना पूरा समय, संसाधन, उर्जा, उत्साह, समर्पण उसमे देते हैं, जो हमारा वास्तविक लक्ष्य ही नहीं होता है| बल्कि हम अपना पूरा समय, संसाधन, उर्जा, उत्साह, समर्पण उसमे देते हैं, जो हमारा वास्तविक लक्ष्य ही नहीं है, अर्थात हम जिससे मुक्त होना चाहते हैं और उसी में उलझे रहते हैं| वे नकारात्मक एवं तुच्छ विचार वाले लोग जो जाल बिझाते हैं, उनका तो यही ही लक्ष्य होता है कि उनके आलोचक उनके जाल में उलझ कर ही रह जाय, और आगे का कुछ भी नहीं सोच पाएँ| वे चाहते हैं कि आपका अंतिम और एकमात्र जीवन लक्ष्य की अंतिम और उपरी सीमा ही उनकी उलझन भरी जाल ही हो| अर्थात जब आपका लक्ष्य ही उस उलझन भरी जाल से ही मुक्ति पाना है, उस जाल से ही बहार निकलना आपका अंतिम लक्ष्य है, तब आप उसी स्तर तक ही सोच पाते हैं| आप ध्यान दें कि बड़े बड़े बौद्धिक भी कहते हैं कि आप वही बनते हैं, जिस सोच पर आप ठहरे हुए होते हैं| यहो आधुनिक भौतिकी का क्वांटम सिद्धांत भी कहता है कि आप जिस भी भौतिक पदार्थ का अवलोकन करना चाहते हैं, यानि जो भी चीज अपनी सोच में रखते हैं, वही वास्तविकता में स्पष्ट अवलोकित होता है| तब हमें रुक कर सोचना होगा|

तब आप ठहर कर सोच सकते हैं कि आप उन जाल निर्माताओं के उद्देश्य को सफल बना रहे हैं, या खुद को सफल बना रहे हैं? यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप प्रत्यक्ष रूप से क्या चाहते हैं? यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप जिसकी आलोचना कर रहे हैं, यानि जिस नकारात्मक एवं तुच्छ सोच वाले का विरोध कर रहे हैं, आप उसका कितना नुकसान कर पा रहे हैं, बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि आप अपने जीवन में क्या पा रहे हैं? आपके इस सोच का, आपके इस लक्ष्य का अंतिम परिणाम क्या मिल रहा है?,इस पर भी विचार कीजिए| मतलब कि आप उनकी जाल में ही उलझ कर अप्रत्यक्ष रूप से आप उन नकारात्मक एवं तुच्छ सोच वाले को ही विजयी बना रहे हैं, और आप वहीं तुच्छता एवं नकारात्मकता पर ही ठहरे हुए हैं| आपको यह सब बड़ा ही अटपटा लग रहा होगा, लेकिन ठहर कर सोचिए, तो आपको समझ में आने लगेगा|

जब मैंने बार बार ‘मुक्ति’ की नकारात्मक अवधारणा का जिक्र कर ही दिया है, तो इसे भी सम्यक ढंग से समझ लेना चाहिए| सबसे पहला सवाल यह उठता है कि हमें मुक्ति (Liberty) चाहिए या स्वतंत्रता (Freedom) चाहिए? या दोनों ही एक साथ चाहिए? हालाँकि भारतीय संविधान में दोनों का विशिष्ट एवं अलग अलग स्थानों में प्रयोग करने के बावजूद भी दोनों को हिंदी में स्वतंत्रता के अर्थ में ही प्रयोग किया गया है| अंग्रेजी के प्रति में Preamble में ‘Liberty’ (मुक्ति) का प्रयोग है, और हिंदी के प्रति में उद्देशिका में ‘स्वतंत्रता’ का प्रयोग किया गया है, और दोनों भी भाषा में यह अधिकृत है| हालाँकि संविधान के भाग चार में, यानि मूल अधिकार के भाग में ‘Freedom’ यानि स्वतंत्रता की ही चर्चा है, मुक्ति (Liberty) की नहीं| तब हमें मुक्ति और स्वतंत्रता, दोनों को ही अच्छी तरह समझ लेना चाहिए|

मुक्ति किसी पूर्व से प्रचलित बंधन से मुक्त होना यानि आजाद होना होता है| अर्थात इसके लिए पूर्व के किसी प्रचलित बंधन यानि पूर्व के किसी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, या अन्य कोई बंधन का शर्त अवश्य है, जिससे ही मुक्ति पाना है| इस मुक्ति के लिए किसी सन्दर्भ या पृष्ठभूमि का होना चाहिए, और इसी पूर्व के बधन से स्वतंत्र हो जाना है, मुक्त हो जाना है, आजाद हो जाना है| ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता में पूर्व से किसी बंधन का होना कोई विशिष्ट शर्त नहीं होता है| इस तरह स्वतंत्रता बिना किसी सन्दर्भ या बिना किसी पृष्ठभूमि के ही स्वतंत्र रहने की अवस्था है| मतलब स्वतंत्रता एक निरपेक्ष अर्थ देता है, और मुक्ति एक सापेक्ष अर्थ देता है|

इसे किसी उदाहरण से स्पष्टतया समझा जा सकता है| कोई व्यक्ति किसी ख़ास बीमारी से मुक्ति पा सकता है, और कोई व्यक्ति सभी बिमारियों या किसी ख़ास बीमारी से मुक्त यानि स्वतंत्र रह सकता है| इस तरह मुक्ति पाना और मुक्त रहना, दोनों अलग अलग अवस्था है, और दोनों का क्रम भी निश्चित है| कोई व्यक्ति गरीबी से मुक्ति पा सकता है, और कोई गरीबी से मुक्त रहता है| स्पष्ट है कि गरीबी से मुक्त रहने का यही एक मात्र अर्थ नहीं हो सकता है कि वह निश्चितया कभी गरीब ही रहा हो| हो सकता है कि वह पहले भी अमीर था और आज भी अमीर ही है तथा उसे किसी गरीबी से मुक्ति की जरुरत ही नहीं पड़ी हो| अर्थात आज वह गरीबी से स्वतंत्र है| अत: मुक्ति एक क्रिया है, जो एक बंधन से स्वतंत्र करता है|  स्वतंत्र रहना उस मुक्ति के बाद की अवस्था है, लेकिन किसी मुक्ति का शर्त हर हाल में अनिवार्य नहीं है| अब हम मुक्ति को समझ गये हैं|

स्पष्ट है हमें किसी से मुक्ति पाने का अंतिम लक्ष्य नहीं रखना है, बल्कि हमें स्वतंत्रता से जीने का लक्ष्य रखना है| आपने भी पढा होगा कि विख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी विकास की परिभाषा स्वतंत्रता के सन्दर्भ में ही दिया है, जो वैश्विक संगठन – ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) को भी मान्य है| उनके अनुसार किसी को कोई भी कार्य करने की स्वतंत्रता मिल जाय, यही विकास है| यही उपगम (Approach) ही विकास का आधार है| तो आइए, हम भी विकसित बनें, अपने समाज को भी विकसित बनाए, और समस्त मानवता को विकास का आधार दें| स्पष्ट है कि हमें किसी के विरोध को, किसी की आलोचना को अपना अंतिम जीवन लक्ष्य नहीं बनाना है, बल्कि हमें अपना लक्ष्य मानवता के महत्तम एवं सुरक्षित विकास में लगाना है| हमें इसी सन्दर्भ में सोचना है और लक्ष्य भी निर्धारित करना है|

रुकिए, और बताइए, कि आपने क्या सोचा है? अब हम एक सकारात्मक, रचनात्मक एवं सृजनात्मक दुनिया बनायेंगे, जो न्याय, स्वतंत्रता, समता (एवं समानता) एवं बंधुत्व पर आधारित होगा, और विश्व के भविष्य में सम्पूर्ण मानवता के लिए स्थायी सुख, शांति, औए समृद्धि स्थापित करेगा| सादर||

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

रविवार, 24 मार्च 2024

‘धर्म’ कैसे एक ‘प्रचलित धर्म’ से अलग है?

ऐसा देखने में लगता है कि मैने शीर्षक में दो बार धर्म लिखकर कोई त्रुटि छोड़ दिया है, लेकिन यह त्रुटि नहीं है, बल्कि एक महत्वपूर्ण अवधारणा में संशोधन के लिए जानबूझ कर किया गया है| लेकिन आपको दोनों में ही प्रथम दृष्टया कोई फर्क नजर आ जाए, इसके लिए एक धर्म के साथ एक विशेषण – ‘प्रचलित’ लगा दिया है, और ‘प्रचलित धर्म’ लिख दिया है|मुझे "धर्म" के लिए "प्राकृतिक धर्म" लिखना चाहिए था, जो मैंने नहीं लिखा है। इसका यह अर्थ हुआ कि ‘धर्म’ शब्द का दो संरचनात्मक एवं अवधारणात्मक अर्थ होता है, अर्थात दोनों के एक ही ‘सतही अर्थ’ (Superficial Meaning) रहने के बावजूद दोनों के ‘निहित अर्थ’ (Implied Meaning) अलग अलग है| स्पष्ट है कि दोनों अर्थों में कोई घालमेल भी है, अन्यथा दोनों अलग अलग संरचना एवं अवधारणा के लिए भिन्न भिन्न शब्द संबोधित होते| या तो यह घालमेल जानबूझ कर किया गया हो सकता है, या ऐसा कोई चूक से हो गया लगता है, लेकिन चूक से इतनी बड़ी गलती होने की संभावना नहीं होनी चाहिए| अत: हमें इसका विश्लेषण (Analysis) एवं मूल्याङ्कन (Evaluation) आलोचनात्मक (Critically) ढंग से करना चाहिए|

तो प्रचलित हिंदी संस्कृत के ‘धर्म’ को ही अंग्रेजी में ‘Religion’ और अरबी फारसी में ‘मजहब’ कहा गया है| और इसी प्रचलित ‘धर्म’ को प्रसिद्ध चिन्तक एवं विचारक कार्ल मार्क्स ने एक नशा ‘अफीम’ से तुलना किया था| मार्क्स ने ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग एक नकारात्मकता के लिए किया था, जो नकारात्मक के लत (आदत) के सन्दर्भ में लिया गया है| हालाँकि यही बात अंग्रेजी के ‘Religion’ और  अरबी फारसी के ‘मजहब’ के लिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि अंग्रेजी में ‘Religion’ किसी स्थानीय Region के बहाने सामाजिक व्यवस्था एवं नैतिक उन्नयन के लिए लोकाचार, नैतिकता, परम्परा, मूल्य, प्रतिमान आदि का समन्वित अवधारणा हो सकता है, और अरबी फारसी के ‘मजहब’ भी किसी स्थानीय मजलिश के बहाने सामाजिक व्यवस्था एवं नैतिक उन्नयन के लिए लोकाचार, नैतिकता, परम्परा, मूल्य, प्रतिमान आदि का समन्वित सन्देश हो सकता है| मैं यहाँ यह सपष्ट कर देना चाहता हूँ कि अंतिम दोनों - ‘Religion’ एवं ‘मजहब’ भारतीय भौगोलिक क्षेत्र की उत्पत्ति नहीं है, और इसीलिए इन दोनों पर मेरी जानकारी भी नहीं है| और चूँकि मैं भारतीय हूँ, तथा मुझे अन्य के बारे में नगण्य जानकारी ही है, इसीलिए  मुझे  भारतीय भौगोलिक क्षेत्र में उत्पन्न एवं विकसित ‘धर्म’ एवं ‘प्रचलित धर्म’ तक ही सीमित रहना चाहिए| वैसे भी भारतीय होने के नाते मुझे सर्व प्रथम भारतीय संस्कृति को समझना चाहिए, तभी ही मैं अपने प्राचीनतम, सनातन  एवं गौरवमयी भारतीय संस्कृति की वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए काम कर सकता हूँ|

तो मैं वापस भारत भूमि के ही ‘धर्म’ एवं ‘प्रचलित धर्म’ पर आता हूँ| आपने भी सुना होगा कि यह ‘राष्ट्र धर्म’ है, यह पिता धर्म है, यह स्त्री (Woman) का धर्म है, यह लोहा (Iron) का धर्म है, यह अग्नि (Fire) का धर्म है, यह पानी (Water) का धर्म है, आदि आदि| वैसे भी मानव के उत्तम गुणवत्ता (Virtue) को नीति- विज्ञान (Ethics) में धर्म कहा गया है। इसे थोडा और विस्तारित किए जाने की आवश्यकता है| ‘राष्ट्र धर्म’ में किसी व्यक्ति एवं किसी समाज/ समूह का अपने राष्ट्र के प्रति क्या क्या कर्तव्य और दायित्व है, या हो सकता है, आदि का अभिप्राय सपष्ट होता है| एक पिता का समाज के प्रति, परिवार के प्रति एवं संतान के प्रति क्या क्या कर्तव्य और दायित्व होता है, यह उसके ‘पिता धर्म’ से स्पष्ट होता है| इसी तरह एक स्त्री (पत्नी) का धर्म भी अपने समाज, अपने परिवार एवं यथास्थिति अपने पति या संतान के प्रति कार्य एवं दायित्व निर्धारित है, जिसे मनोयोग से करना उस स्त्री का धर्म हो जाता है| लोहा एक विशिष्ट धातु है, जो ठोस होता है, कडा होता है, विद्युत एवं ऊष्मा का सुचालक होता है, आदि,; यह लोहा का धर्म (Dharm) है, गुण (Property) है, स्वभाव (Tendency) है, व्यवहार (Behaviour) है, प्रकृति (Nature) है| इसी तरह अग्नि भी जलन की प्रक्रिया है, जिसमे प्रकाश निकलता है, धुआं भी निकल सकता है, ऊष्मा निकलती है और उसमे रासायनिक परिवर्तन हो जाता है; यह सब अग्नि का धर्म है, गुण है, स्वभाव है, व्यवहार है, प्रकृति है| इसी तरह पानी एक तरल (Liquid) पदार्थ है, जो अपने संधारित पात्र (Pot) का आकार (Shape) ले लेता है, पात्र में नहीं रखे जाने पर अपने ढलाव (Slope) की दिशा में बह जाता है, अपने उच्चतम तल (Level) को प्राप्त करने की चेष्टा करता है, अपने संपर्क में शीतलता प्रदान करता है; यह सब पानी का धर्म है, गुण है, स्वभाव है, व्यवहार है, प्रकृति है|

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट  होता है कि ‘धर्म’ से अभिप्राय किसी के कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति का बोध होता है| स्पष्ट है कि जब किसी जीव या निर्जीव वस्तु का एक निश्चित संरचना स्थिर होता है, अस्तित्व निश्चित एवं स्थिर होता है, तो उसका कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति स्थिर भी ही होगा| और यही कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति ही उसका ‘धर्म’ है| अर्थात जबतक कोई जीव या निर्जीव वस्तु सनातन अवस्था में रहेगा, अर्थात अपनी स्वाभाविक निरंतरता यानि स्थिरता में रहेगा, तबतक उसका ‘धर्म’ भी निरंतरता में रहेगा, उसका धर्म सनातन रहेगा| मुझे यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि जब कोई जीव एक मानव (Human) है, तब उसका कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति भी एक स्थिरता में ही रहेगा, निरंतरता में ही रहेगा| जब यही उस जीव का, यानि उस मानव का ‘धर्म’ है, तो सभी मानव का कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति भी एक होगा, यानि सभी मानव का ‘धर्म’ भी एक ही होगा| तब यह धर्म सभी काल में और सभी क्षेत्र में सामान परिस्थितियों में एक ही होगा; इसमें विविधता हो ही नहीं सकता है| और फिर भी यदि कोई धर्म में विविधता दिखाता है, बताता है, समझता है और समझाने की कोशिश करता है, तो स्पष्ट है कि उसकी मंशा में कोई स्पष्ट छुपाव है| यदि उसकी मंशा में कोई छुपाव नहीं है, तो वह नादान है, क्योंकि मैं उन्हें कोई अन्य नकारात्मक संज्ञा देना नहीं चाहता|

तो  प्रचलित  धर्म  क्या है, और उपरोक्त वर्णित सर्वकालिक एवं सर्व व्याप्त ‘धर्म’ से यह अलग कैसे है? इसका यह स्पष्ट अर्थ हुआ कि ‘प्रचलित धर्म’ के लिए कोई दूसरा शब्द उपयुक्त है, जिसे प्रचालन (Circulation) में नहीं लाया गया, या अनजाने में लोगों को भ्रमित होने के लिए छोड़ दिया गया| जब हम ‘धर्म’ को समझ लिए हैं कि ‘धर्म एक कर्तव्य है, दायित्व है, गुण है, स्वाभाव है, व्यवहार है और प्रकृति है, और इस मायने में किसी जीव विशेष या वस्तु विशेष के लिए एक ही होगा, यह विविध स्वरूप में हो ही नहीं सकता। इसीलिए यह धर्म सनातन है, स्थिर है, निश्चित है, सर्वव्यापी है, सर्वकालिक है, एवं इस स्वरुप में एक ही है, तो ‘प्रचलित धर्म’ की भी विशिष्टता को देख लिया जाय, समझ लिया जाय|

एक ‘प्रचलित धर्म’ को सम्प्रदाय कहना चाहिए, पंथ कहना चाहिए। एक ‘प्रचलित धर्म’ में निश्चित्तया न्यूनतम एक ईश्वर होगा, या उसका दूत होगा, या उसका सन्देश होगा| चूँकि ईश्वर का कोई स्पष्ट प्रयोजन होता है, और स्पष्ट प्रयोजन में वैश्विक या ब्रह्मांडीय व्यवस्था का सञ्चालन, नियमन एवं नियंत्रण करना भी अवश्य होता है, इसीलिए उसे मानव के कर्मों का हिसाब किताब भी रखना होता है| इन कर्मों के लिए पुरस्कार एवं दंड की भी व्यवस्था होती है| इसी पुरस्कार एवं दंड के लिए ‘स्वर्ग’ एवं ‘नरक’ की भी अवधारणा होती है, भले ही इसके लिए प्रचलित विभिन्न धर्मों के लिए शब्द एवं विवरण भिन्न भिन्न हो| जब ईश्वर को मानव के कर्म का हिसाब किताब रखना है और उसके अनुसार उसका हिसाब होना है, तो निश्चितया ईश्वर व्यक्तियों के लिए यानि व्यक्तियों के समूह के लिए किसी निश्चित आधार पर कर्तव्य निर्धारित किए होंगे|गीता के अनुसार जाति एवं वर्ण ईश्वरीय व्यवस्था है। इस सुनिश्चित कर्म को नहीं किए जाने के लिए दंड का प्रावधान होगा, जो साधारणतया अगले जन्म में दिया जाता है, अर्थात ‘प्रचलित धर्म’ में ईश्वर के आलावा ‘कर्म का सिद्धांत’ होता है, स्वर्ग एवं नरक होता है, पुनर्जन्म होता है, और पुनर्जन्म के लिए “आत्मा’ (Soul) भी होता है| आपको ‘प्रचलित धर्म’ में ‘आत्म’ (Self) और ‘आत्मा (Soul) में भ्रमित कर दिया जायगा| आप Self, Soul, Spirit, Mind एवं चेतना (Consciousness) को एक दुसरे का पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त पाएंगे, और इसी के पीछे सारा खेल खेल दिया जाता है| इतना तमाशा ‘धर्म’ में नहीं है, जो ‘प्रचलित धर्म’से भिन्न है| ‘प्रचलित धर्म’ के लिए ‘धर्म’ का उपयोग करने से यह मानव के लिए कर्तव्य हो जाता है, दायित्व हो जाता है, गुण हो जाता है, स्वाभाव हो जाता है, व्यवहार हो जाता है और प्रकृति बन जाता है, या ईश्वरीय घोषणा हो जाता है, तो इन धर्मों के कर्ताओं का काम सरल, सहज और स्वाभाविक हो जाता है|

प्रचलित धर्म’ के लिए कोई दूसरा उपयुक्त शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे पंथ, सम्प्रदाय या कोई अन्य शब्द| इस पर आप भी अपनी सोच उतार सकते हैं| इसलिए प्रचलित धर्म अपने कई विभिन्न स्वरूपं अर्थात नामों में मौजूद हैं, और इसके अनुयायी एक दुसरे को गलत मानते हुए एक दुसरे के विरोधी भी हो गये हैं, या रहते हैं| जब हम वर्तमान सभी प्रचलित धर्मों का इतिहास के काल में, यानि ऐतिहासिक सन्दर्भ में आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करते हैं, तो हम पाते हैं कि सभी धर्मों का वर्तमान स्वरुप अपने मामूली संशोधनों के साथ मध्यकाल में उदय हुआ| हम जानते हैं कि इतिहासकारों ने प्राचीन काल का समापन सामन्तवाद के उदय के साथ किया है| कहने का तात्पर्य यह है कि सभी प्रचलित धर्मों का मौलिक स्वभाव अपने इस वर्तमान स्वरुप में सामन्तवादी शक्तियों के अनुरूप सामन्त काल में, यानि मध्य काल में विकसित हुआ है|

इसको एक भारतीय उदाहरण से समझें| भारत में बुद्धों का उदय कोई ढाई हजार साल पहले समाप्त हो गया था, और गोतम बुद्ध अंतिम 28वें बुद्ध हुए थे| इस बुद्धों के दर्शन एवं विज्ञान का अंतिम संपादन एवं संवर्धन गोतम बुद्ध ने कोई ढाई हजार साल पहले किया था| लेकिन बुद्ध के धर्म यानि “बौद्ध” धर्म का वर्तमान स्वरुप मध्य काल में आया और उसी समकालिक शक्तियों के अनुरूप संशोधित होकर अनुकूलित हो गया, ढल गया| ध्यान रहे कि बुद्ध ने किसी भी धर्म की स्थापना नहीं किया था| इसी तरह मध्य युग के पहले के सभी वैश्विक महान सामाजिक सांस्कृतिक विभूतियों ने अपने क्षेत्र एवं समाज के अनुकूल जो भी नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उन्नयन एवं विकास के लिए जो संहिता (Code) बनाई, सभी को मध्य काल में, थोडा कम या थोडा ज्यादा, संशोधित किया गया, सम्पादित किया गया और संवर्धित किया गया| कहने का तात्पर्य यह है कि मानव के मूल धर्म, यानि प्राकृतिक धर्म के लिए अवधारित की गई शब्द "धर्म" (पालि में धम्म) के नाम को ही स्थिर रख कर सम्प्रदाय यानि पंथ की विशेषताओं को उसमें समाहित कर एवं स्थापित कर 'धर्म' की ही अवधारणा को बदल दिया गया। इस पर रुक कर ध्यान दिया जाए। हालांकि मूल मानवीय ‘धर्म’ को अपने भौगिलिक क्षेत्र, पूर्व से प्रचलित संस्कृति, एवं प्रचलित ऐतिहासिक तथा मिथकीय गाथाओं के अनुरूप संशोधित, सम्पादित, संवर्धित करके सहज, सरल एवं सुगम्य बनाकर नए स्वरूप में प्रस्तुत किया था|

उस समय वैश्विक भौगोलिक बाधाएं थीं, भौगोलिक अलगाव था, लेकिन अब विश्व डिजीटल तकनीक के कारण एक “वैश्विक गाँव” (Global Village) हो गया है| कहने का तात्पर्य यह है कि बदलती हुई और एकीकृत होती हुई दुनिया में अब ‘धर्म’ के मूल स्वाभाव को जानने एवं समझने की अनिवार्यता है, और उसके अनुरूप समीक्षा कर अपेक्षित संशोधन, संपादन एवं संवर्धन की अपेक्षा है| चूँकि आप भी एक सजग बौद्धिक हैं, इसीलिए आप भी इस वैश्विक गाँव को सुखमय, शांतिमय, समृद्धमय, और विकासशील बनाना चाहेंगे, और इसीलिए आप भी अपने विचार को इस दिशा में मोड़ना चाहेंगे|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक  

शुक्रवार, 22 मार्च 2024

क्या शिक्षित होना भी गुनाह है?

क्या शिक्षित होना भी एक गुनाह है?, तो मेरा यह प्रश्न बेहद ही अटपटा और बेहूदा लग सकता है| तो क्या शिक्षित होना भी किसी समय, क्षेत्र, स्थिति, पृष्ठभूमि या सन्दर्भ  के सापेक्ष सही या गलत, यानि समुचित या अनुचित भी होता है, या हो सकता है? यदि शिक्षित होना एक सापेक्षिक (Relative) शब्द, या अवधारणा, या संरचना है, तो मेरा यह प्रश्न महत्वपूर्ण होने के साथ साथ अवलोकनीय अवश्य ही है, साथ ही यह आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करने योग्य भी है| मैं ट्रेन से नई दिल्ली से पटना आ रहा था, सुबह हो चुकी थी, इसलिए सहयात्रियों से वार्ता का दौर भी शुरू हो चुका था| कई तरह की बातें हो रही थी| एक सहयात्री ने कहा कि ‘शिक्षा’ धर्म को ही नष्ट कर देता है| हालाँकि मैंने तत्काल ही पूछ लिया कि ‘क्या कोई धर्म इतना कमजोर होता है कि किसी की शिक्षा से ही वह नष्ट हो जाता है, या हो सकता है?’मैंने तो एक वाजिव सवाल खड़ा तो कर दिया, फिर भी मैं एक गहन चिंतन में डूब गया कि “क्या शिक्षित होना भी एक गुनाह है?

जब कोई सवाल खड़ा कर देता है, या सवाल खड़ा हो ही जाता है, और आप उसका उत्तर खोजने लगते हैं, तो आपका मन कई दिशाओं में तैरने लगता है| जब कोई किसी प्रश्न के उत्तर जानने के लिए ‘ठहर’ (ठिठक जाना) जाता है, तो वह उसकी ‘गहराइयों’ (Depth) में, काफी ‘गहनता’ (Intensity) से उतर जाता है| तब आप उन चीजों को भी जानने समझने लगते हैं, जिस पर सामान्य और असावधान व्यक्ति का ध्यान ही नहीं जाता है, भले ही वह बड़ा पद धारी हो, धन धारी हो, या डिग्री धारी हो| जब आप किसी भी विषय के किसी ‘बिंदु’ पर यानि सूक्ष्मतम भाग पर ठहर जाते हैं, यानि केन्द्रित कर जाते हैं, तो आपका “आत्म” (Self)‘ अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से “आभास” (Intuition) यानि 'अंतर्ज्ञान' पाने लगता है, जिसे शायद आपसे पहले कोई नहीं जान रहा था|  मेरी भी यही स्थिति हो गयी थी| इसका परिणाम आज आपके सामने इस प्रस्तुति में है|

एक शिक्षित व्यक्ति क्या कर सकता है कि किसी स्थापित ‘पुरातन’, ‘सशक्त’ और ‘सनातन’ धर्म को भी खतरा हो जाता है? ध्यान रहे कि यहाँ ‘पुरातन’, ‘सशक्त’ एवं ‘सनातन’ एक विशेषण है, कोई संज्ञा सूचक शब्द नहीं है| एक शिक्षित व्यक्ति सवाल ही खड़ा कर सकता है| एक शिक्षित व्यक्ति का सवाल बड़ा ही विस्फोटक (Explosive) और घातक (Lethal) भी होता है, जिससे भारी उथल पुथल होता है और उसके साथ ही उसकी मारक क्षमता से बहुत से समाप्त ही हो जाते है| इतिहास में गैलीलियो और चार्ल्स डार्विन ऐसे ही घातक व्यक्ति के उदाहरण हैं, जिन्होंने स्थापित धर्मों की स्थापित मान्यता को ही नष्ट कर दिया| भारतीय इतिहास में गोतम बुद्ध भी लोगों से प्रश्नों (Questions) के उत्तर में प्रतिप्रश्न (Counter-Questions) पूछ कर ही लोगों को उनके संतोषजनक उत्तर तक पहुंचा देते थे| इस सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिन्स भी सवाल खड़ा करना ही शिक्षा देने का सबसे महत्वपूर्ण साधन या उपकरण मानते रहे हैं| वे मानते हैं कि सवाल खड़ा करना ही ज्ञान अर्जन का, यानि बुद्धि के विकास का पहला कदम है|

इनका एक सवाल बड़ा ही महत्वपूर्ण है, और चर्चित भी है कि कोई तेरह अरब साल पहले महाविस्फोट (Big Bang Explosion) के साथ ही “पदार्थ” (Matter), “उर्जा” (Energy), समय” (Time) एवं “आकाश” (Space) की उत्पत्ति हुई, यानि इस महाविस्फोट के पहले जब ‘पदार्थ’, ‘ऊर्जा’, ‘समय’, और ‘आकाश’ ही नहीं था, तो तथाकथित “ईश्वर” (God) किस पदार्थ का बना था?, उसकी क्रियाओं के लिए उर्जा का सृजन ही नहीं हुआ था तो वह कोई कार्य कैसे करता था?  जब कोई ‘समय’ ही नहीं था, तो इसके पहले कोई कैसे अस्तित्व में था? और जब कोई आकाश यानि दिशाएं ही नहीं थी, तो वह ईश्वर कहाँ रहता था? यह सवाल कोई शिक्षित व्यक्ति ही खड़ा कर सकता है? इसीलिए ऐसे सवालों को लोग टाल जाते हैं| शायद इसीलिए शिक्षा धर्म को क्षति पहुंचता है, या नष्ट कर सकता है| दरअसल शिक्षा तमाम तरह के धुन्धों को साफ कर देता है और इससे कई चतुर चालाक और मूर्ख बेनकाब हो जाते हैं। 

लेकिन एक ‘भक्त’ सवाल खड़ा ही नहीं कर सकता| और एक मूर्ख भी सवाल खड़ा नहीं कर सकता है। एक भक्त के पास कोई विश्लेषण क्षमता और मूल्याङ्कन क्षमता ही नहीं होती, या यदि होती भी है, तो उस स्तर की नहीं होती कि वह कोई खतरनाक सवाल खड़ा कर सके| कोई धन धारी, या कोई पद धारी, या कोई डिग्री धारी व्यक्ति साक्षर (Literate) हो सकता है, लेकिन उसके शिक्षित (Educated) होने की पुष्टि अन्य कई शर्तों पर ही हो सकती है| अर्थात जो व्यक्ति सवाल खड़ा ही नहीं कर सकता, वह साक्षर होते हुए भी या तो वह शिक्षित ही नहीं है, या वह डरा हुआ है, या शिक्षित होने के भ्रम में पडा हुआ है| एक साक्षर व्यक्ति सिर्फ सूचनाओं (इसे आजकल डाटा भी कहा जाता है) से खेल सकता है, या ‘सूचनाओं का मकडजाल’ (Web of Information) ही एक साक्षर व्यक्ति को खिलौना बना कर खेलता रहता है| लेकिन एक शिक्षित व्यक्ति उन सूचनाओं की सत्यता, वैधता, उद्देश्यशीलता एवं प्रभावशीलता का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन कर सकता है| मतलब एक साक्षर व्यक्ति सूचनाओं के पीछे दौड़ लगा सकता है, लेकिन उसकी सही सत्यता, वैधता, उद्देश्यशीलता एवं प्रभावशीलता को नहीं समझ सकता है| एक शिक्षित व्यक्ति तो सब कुछ समझ कर और विवेकपूर्ण ढंग से निर्णय ले सकता है| तो क्या शिक्षित होना भी एक गुनाह मान लिया जाना चाहिए?

किसी भी बात को सूक्ष्मता (Minutely) से समझना और उसमे अंतर करने की योग्यता एवं क्षमता ही “शिक्षा” है, और यही सूक्ष्मता का स्तर ही शिक्षा का स्तर भी निश्चित करता है| जैसे कोई गाड़ी के प्रकार में अंतर कर सकता है कि कौन बैलगाड़ी है और कौन रथ है? और कोई “आत्म” (Self) और “आत्मा”(Soul) में अंतर कर सकता है और कोई नहीं भी कर सकता है| यही अंतर का स्तर ही शिक्षा के स्तर का अंतर को बताता होता है| मैंने ‘दर्शन’ (Philosophy) के तथाकथित स्तरीय ग्रंथों में अंग्रेजी शब्द “Self” (जिसका उपयुक्त हिंदी अर्थ ‘आत्म’ होगा) के लिए “आत्मा” शब्द और “आत्म” शब्द दोनों का प्रयोग एक दुसरे के लिए खूब करते हैं| ऐसे स्तरीय पुस्तकों के लेखक भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर एवं डीन के पदों को सुशोभित करते हुए होते हैं, और हमलोग विश्वस्तरीय शिक्षा के लिए उन्ही के भरोसे हैं| यह भी शिक्षा का स्तर ही बताता है| ऐसे भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर एवं डीन के पदों को सुशोभित पहुँच के व्यक्तियों के स्तर पर आपत्ति करना भी निश्चितया एक गुनाह ही होगा|

ऐसे ही एक अन्य उदाहरण है| जब भारत में ‘राजतन्त्र’ नहीं है, यानि यहाँ का राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष कोई वंशानुगत नहीं है, यानि यहाँ कोई राजा या रानी नहीं है, तो भारत की जनता यानि नागरिक किसी की ‘प्रजा’ (Subject) कैसे हो सकती है? और भारत का तंत्र “प्रजातंत्र” कैसे हो सकता है? ध्यान रहे कि भारतीय संविधान में शब्द इसीलिए ‘लोकतंत्र’ शब्द है, ‘प्रजातंत्र’ शब्द नहीं है, हालाँकि दोनों का अंग्रेजी “Democracy” ही है|, फिर भी बड़े बड़े डिग्री धारी या पद धारी इसके प्रति सावधान नहीं है| यदि आप ऐसे शिक्षितों में कोई संशोधन की मंशा रखते हैं, तो यह भी एक गुनाह ही है|

एक बात और है, जब किसी समाज में या किसी देश में “अशिक्षा का आवेग” (Momentum of Illteracy) बहुत शक्तिशाली है, तब शिक्षित होना एक क्षम्य गुनाह ही नहीं, दंडनीय अपराध भी हो सकता है| यानि जब किसी समाज में या देश में ऐसे लोगों की बहुलता हो, या वर्चस्व ही हो, तो एक शिक्षित को अपनी अभिव्यक्ति में सावधान रहना चाहिए|अशिक्षा का आवेग’ भी विज्ञान के आवेग (Momentum) की ही तरह अशिक्षा की गुणवत्ता (Quality) यानि स्तर (Level) एवं उसके संयुक्त मात्रा (Mass) यानि आबादी और उनकी गति का गुणनफल होता है| मतलब अशिक्षितों की यदि आबादी बहुत बड़ी है, और अशिक्षा का स्तर भी निम्नतर है, तो ऐसे समाज या देश का “अशिक्षा का आवेग” बहुत शक्तिशाली प्रवाह में होगा| इस आवेग का मनोविज्ञान "समूह (Mass) का मनोविज्ञान" हो जाता है। इस समूह को 'भीड़' या "भीडतंत्र" भी कह सकते हैं। और ऐसे “अशिक्षा के आवेग” को झेलना शिक्षितों के लिए हानिकारक ही नहीं, घातक भी होता है, गैलीलियो इसका एक सटीक उदाहरण है|

मैं और ज्यादा विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन में नहीं जाना चाहूंगा, क्योंकि इस विषय पर एक लम्बा आलेख नीरस भी हो जाता है| वैसे आप स्वयं बौद्धिक है, शिक्षित हैं, मेरी कही हुई और उनकही हुई, दोनों बातों को आप अच्छी तरह समझ रहें हैं| सादर|   

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

शुक्रवार, 8 मार्च 2024

भगवान शिव ही महादेव क्यों हैं?

भगवान शिव को ही "आदि गुरु" कहा गया है और भगवान  शिव को ही "महादेव" भी  कहा गया हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है, यानि ऐसा क्यों माना जाता है? इसमें शब्द आया है - भगवान, शिव, आदि गुरु और महादेव। ‘भगवान शिव’ को ही “कल्याणकारी” कहा गया है। शिव का एक अर्थ ‘कल्याण करना’ भी होता हैं। किसी भी व्यक्ति, संस्था और समाज का जो भी नामकरण किया जाता है, उसका निर्धारण उस समाज की समझ, व्याख्या और लम्बे समय के विरासत के संग्रहण से किया जाता है, या ऐसा स्वत: होता रहता है। यह विरासत की संग्रहण या संकलन ही संस्कार और संस्कृति के रूप में समाज में अभिव्यक्त होती है और इसी कारण इसमें निरंतरता भी बनाए रखती है।

चूंकि प्रत्येक शब्दों का एक ‘संरचनात्मक ढांचा’ (Structural Framework) होता है, और इसलिए उन शब्दों के ‘सतही अर्थ’ (Superficial Meaning) के अतिरिक्त इन शब्दों के गहरा एवं व्यापक ‘निहित अर्थ’ (Implied Meaning) भी होता है। इसकी स्थिति किसी तैरते ‘आईस बर्ग’ (हिमखण्ड/ Iceberg) जैसे होती हैं, जिसका सिर्फ उपरी हिस्सा ही दिखता है, जिसे उसका टिप कहते है| लेकिन दिखने वाले हिस्से का ग्यारह गुणा हिस्सा पानी में डूबा अदृश्य ही रहता है। इसी तरह  किसी शब्दों के छोटे नाम के पीछे भी एक गहरा, व्यापक और विस्तृत संरचनात्मक ढांचा होता है। ऐसा ही ‘भगवान’, ‘शिव’, ‘आदि गुरु’ और ‘महादेव’ शब्द के लिए भी है| इससे संबंधित शब्दों के संरचनात्मक ढांचा को भी समझ लेने से शब्दों का सम्रगता से, व्यापकता से और सहजता से अर्थ स्पष्ट कर देता है। इसका निहित अर्थ उनकी अवधारणाओं के उद्विकास (Evolution) से सुनिश्चित होता है। इस अर्थ में समझाने वाले की मानसिक समझ के साथ साथ उसकी आर्थिक अवस्था और उस समाज, काल एवं क्षेत्र के सापेक्ष भी अर्थ बदलता रहता है| इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की बदलती शक्तियों के अनुरूप, यानि सामन्तवाद, उपनिवेशवाद, और साम्राज्यवाद की स्थिति इसकी समुचित व्याख्या करता है| अर्थात भगवान शिव की अवधारणा भी इतिहास की बदलती अवस्थाओं एवं व्यवस्थाओं के अनुरूप बदलती रही है|

अब हमलोग इसमें प्रयुक्त शब्दों के एक एक कर सभी का निहित अर्थ को समझते हैं। ‘भगवान’ शब्द मूलतः उस व्यक्तित्व के लिए प्रयुक्त होता है, जिसने मानव और प्रकृति को नुक़सान पहुंचाने वाली प्रवृतियों को ही भग्न कर दिया है। तब, ऐसी प्रवृत्तियों को नष्ट करने वाले यानि भग्न करने वाला ही भगवान है, जो सामंतवाद के काल में ईश्वर (God) का पर्यायवाची हो गया। हालांकि मानवता और प्रकृति के सापेक्ष दोनों शब्दों के एक ही उद्देश्यपरक अर्थ होता है, फिर भी निहित अर्थ में मौलिक भिन्नता है। शिव का अर्थ कल्याण करना है, जो सम्पूर्ण मानवता और प्रकृति का कल्याण करता है। और किसी के भी कल्याण के लिए बौद्धिकता की उत्कृष्टता और सर्वोच्चता, दोनों ही की आवश्यकता होती है। बौद्धिकता की उत्कृष्टता और सर्वोच्चता के लिए पराम्परागत शिक्षा यानि ज्ञान से हटकर ‘नवाचारी’ (Innovative) शिक्षा की आवश्यकता होती है।

इसी तरह हमलोग गुरु शब्द को भी समझते हैं। साधारणतया गुरु का अर्थ बड़ा या उत्कृष्ट होता है। अतः स्पष्ट है कि तब गुरु का कार्य नेतृत्व देना यानि मार्गदर्शन करना या ज्ञान देना भी हुआ, क्योंकि बड़ा या उत्कृष्ट ही दूसरों का मार्गदर्शन कर सकता है| ज्ञान के स्तर यानि गुणवत्ता के कारण गुरुओं का कई स्तर यानि श्रेणी हो सकता है। ज्ञान प्राप्त करने के दो तरीके होते हैं। पहले एवं साधारण तरीके में एक ज्ञान देने वाला होता है और दूसरा ज्ञान पाने वाला होता है। इस श्रेणी में शिक्षक के अलावा पुस्तकें, या अन्य डिजीटल स्वरुप या माडल हो सकता है। लेकिन ज्ञान प्राप्ति के उत्कृष्ट एवं सर्वोच्च तरीके में शिक्षक और विद्यार्थी एक ही व्यक्ति होता है। इस विधि में अलग एवं विशिष्ट ज्ञान का आभास (Intuition) होता है, जो उसमें अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) से आता है। इसे ही ‘अन्तः प्रज्ञा’ ज्ञान भी कहते हैं। यह ध्यान करने से ही आता है। इस ध्यान स्वरुप में भगवान शिव ही ऐतिहासिक महत्व के साक्ष्यों में सर्व प्रथम आते हैं। इन्हें ही ‘पशुपति’ भी कहा गया है, जिसे सिन्धु घाटी सभ्यता में एक सील में पशुओं से घिरा हुआ पाया गया। इसी ध्यान विधि करने का अनुकरण करने वालों में प्राचीन काल में गोतम बुद्ध, मध्य काल में गैलेलीयो, और आधुनिक युग में चार्ल्स डार्विन, अल्बर्ट आइंस्टीन और स्टीफन हॉकिंग आदि कुछ नाम प्रमुख हुए। ये सभी ध्यानस्थ योगी ही थे, जिन्होंने अपने आत्म (Self) को अनन्त प्रज्ञा से जोड़ कर मानव कल्याण के लिए विशिष्ट एवं उत्कृष्ट ज्ञान अर्जित किया| भले ही इन्हें भारतीय नामकरण के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं हो और इन्होने ‘स्टीरियोटाइप ध्यान’ नहीं किया हो। इस कारण शिव ही ऐतिहासिक आदि गुरु हुए।

फिर ‘देव’ और ‘महादेव’ को भी समझ लेना चाहिए। देवों में जो महान हैं, वे ही महान - देव हुए, यानि महादेव हुए। उद्विकास के क्रम में स्थापित प्राचीनतम भाषा प्राकृत और पालि में देव उन्हें कहा जाता रहा, जो कल्याणकारी ज्ञान के उपासक और अनुगामी रहे। अर्थात कल्याणकारी ज्ञान के उपासक और अनुगामी को ही देव कहा जाता है। ऐसे देवों में सामान्यतः विशिष्ट एवं उत्कृष्ट ज्ञानी ही होते हैं, जो अपने इन विशिष्ट एवं उत्कृष्ट ज्ञान की बदौलत बहुत बढ़िया सामाजिक धार्मिक व्यवस्थापक हुए| देवों के इस श्रेणी में आध्यात्मिक एवं आदि गुरु भी शामिल हो जाते हैं। भारतीय ग्रंथों में शिव को ही ‘आदि देव’ कहा गया है| भारत के विभिन्न क्षेत्रों और कालों में देवों को यानि देवताओं को भगवान बुद्ध, भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु और भगवान राम भी कहा गया है, अर्थात इन सभी को ज्ञानवान और कल्याणकारी व्यवस्थापक माना गया। इस तरह ‘शिव’ ‘गुरु’ भी हुए, ‘देव’ भी हुए, ‘आदि गुरु’ भी हुए और ‘महा देव’ भी हुए।

‘आधुनिक मानव’ यानि ‘वर्तमान मानव’ यानि ‘होमो सेपियंस’ (Homo Sapiens) का जब ‘सामाजिक मानव’ यानि ‘होमो सोशियस’ (Homo Socius) और ‘निर्माता मानव’ यानि ‘होमो फेबर’ (Homo Faber) में उद्विकास हो रहा था, उसमें सिर्फ और सिर्फ मानव की बुद्धि (Wisdom) का ही योगदान है। बुद्धि शब्द से ही चिढ़े हुए लोगों ने ‘बुद्धू’ शब्द बनाया, ‘बुद्धिमान’ भी बना, ‘बौद्धिक’ भी हुआ और ‘बुद्ध’ (विशिष्ट, उत्कृष्ट, सम्यक् तथा सर्वोच्च ज्ञाता की उपाधि) भी हुआ। उत्कृष्ट, सर्वोच्च और विशिष्ट ज्ञान ही नवाचारी ज्ञान होता है, जिसे Out of Box’ चिंतन एवं ज्ञान से ही प्राप्त किया जाता है। इसे ही The Structure of Scientific Revolution’ के लेखक थामस सैम्युल कुहन ने पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) भी कहा है। इस तरह का ज्ञान ‘ध्यान’ से ही आता है और इसके आदि गुरु भगवान शिव ही हुए हैं। इस तरह बुद्धि के, बौद्धिकता के और समस्त बौद्धिक समाज के आदि गुरु भगवान शिव ही हुए। इसी बौद्धिकता से ओतप्रोत इस भौगोलिक उपमहाद्वीप क्षेत्र को ‘आभा से रत’ यानि ‘आभारत’ यानि ‘भारत’ देश कहा जाने लगा, जहां से ज्ञान प्राप्त करने तत्कालीन विश्व से जिज्ञासु साधक आते रहे।

इनके उपासक जिन भवनों में ध्यान करते थे, उनकी उपरी ढांचा गुम्बदाकार (Dome) होता था। जब ज्ञान और अभियंत्रण का विकास हुआ, तब ज्ञानी लोग भी नदी घाटी के मैदानों में आबादियों के बीच केन्द्रित होते गए। गुम्बदाकार संरचना में ‘कास्मिक किरणें’ (Cosmic Rays) उस गुम्बद के केन्द्र पर अपसारित (Convergent) होता है और उसका केन्द्रीय स्थान उर्जामय हो जाता है। वैसे गुम्बदाकार संरचना में ‘तनाव बल’ (Tensile Force) नहीं होता है और इसलिए उसमे छत के भार वहन के लिए पीलरों की संख्या कम हो जाती है। इसे ही “स्तूप” कहा गया, जिसकी खुदाई में ही सिन्धु घाटी सभ्यता प्रकाशित हो सका था। बौद्धिक अनुयायियों में इन ऊर्जावान स्तूपों की परिक्रमा करने की भी परम्परा स्थापित हो गई, जिससे “परिक्रमा पथ” का उद्भव हुआ। मध्यकाल में जब सामान्य बौद्धिकता का ह्रास हुआ, तब साधारण सामान्य लोगों को समझने समझाने के लिए ‘अमूर्त’ ज्ञान का स्थान पर ‘मूर्त’ ज्ञान ने ले लिया। इस स्तूप और परिक्रमा पथ को जब सांकेतिक और लघु स्वरुप में बनाया गया, तो कुछ चिढ़े हुए और अज्ञानी लोगों ने इस सांकेतिक लघु स्वरुप के स्तूप को शिव लिंग कहना शुरू किया। यह पुरुष लिंग स्तूप स्वरुप है और स्त्री लिंग परिक्रमा पथ है। बाद के कालों में शिल्पीकारो इसे इसी भावना से ही पत्थरों पर उकेरने लगे और अब यह शिवलिंग बन गया।

हमें किसी भी साधारण या जटिल विषय को सम्यक और समुचित ढंग से समझने के लिए उसकी व्यापकता में, उसके विस्तार में और उसकी गहराई में जाना ही होता है। लेकिन किसी भी साधारण और सामान्य विषय की व्यापकता और गहनता में समझने एवं समझाने का उपागम (Approach) क्या हो सकता है, यानि इसके लिए कौन-सा उपकरण या अवधारणा अनुकूल हो सकता है? निश्चित ही ऐसे किसी भी विषय या अवधारणा को समझने के लिए चार्ल्स डार्विन का ‘उद्विकासवाद’ का सिद्धांत (Theory of Evolution), सिग्मंड फ्रायड का ‘आत्मवाद’ का सिद्धांत (Theory of Self), कार्ल मार्क्स का ‘आर्थिकवाद’ का सिद्धांत (Theory of Economic Forces), अल्बर्ट आइंस्टीन का ‘सापेक्षवाद’ का सिद्धांत (Theory of Relativity) और फर्नीनांड डी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ का सिद्धांत (Theory of Structuralism) को समझना ही चाहिए। चार्ल्स डार्विन अपने ‘उद्विकासवाद’ के सिद्धांत में समझाते हैं कि सभी चीजों का उद्विकास सरलतम से जटिलतम में हुआ है। सिग्मंड फ्रायड अपने ‘आत्मवाद’ के सिद्धांत में समझाते हैं कि किसी भी व्यक्ति का आत्म यानि मन कैसे बदलता है, कैसे समझता है, कैसे किसी चीज को ग्रहण करता है और कैसे व्याख्यायित करता है? कार्ल मार्क्स अपने ‘आर्थिकवाद’ के सिद्धांत में व्यक्ति और समाज की व्यवस्था में बदलाव और रुपांतरण की व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग के साधनों और उनकी शक्तियों एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर किया है। अल्बर्ट आइंस्टीन अपने ‘सापेक्षवाद’ के सिद्धांत में सभी वस्तुओं, ऊर्जा, समय और दिक् (आकाश) को ही एक दूसरे के सापेक्ष बताया और पूर्व की सारी अवधारणाओं में उथल-पुथल कर दिया। फर्नीनांड डी सौसुरे अपने ‘संरचनावाद’ के सिद्धांत में सभी व्यक्त एवं अव्यक्त अभिव्यक्तियों को इस तरह समझाते है कि सभी शब्दों एवं वाक्यों का निश्चित संरचना होता है। इन पाँचों अवधाराणाओं के आधार पर यहाँ हम किसी भी समाजो, संस्कृतियों, सम्प्रदायों, देवों  इत्यादि के बदलते स्वरुप को आसानी से समझ सकते हैं| कहने का तात्पर्य महादेव के बदलते स्वरुप इनसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है|

हमें भी अपने महादेव को इन्हीं उपकरणों की सहायता से, यानि इन्हीं अवधारणाओं के दृष्टिकोण से विश्व को समझाना और स्वीकार्य कराना है। हमें महान भारतीय सांस्कृतिक विरासत को 150 करोड़ भारतीय से 800 करोड़ की वैश्विक आबादी तक ले जाना है। इसी से भगवान शिव के बदलते स्वरुप को समुचित और सम्यक ढंग से समझा जा सकता है। ऐसे ऐतिहासिक महान व्यक्तित्व को भगवान कहा गया है, शिव कहा गया है, और इस तरह यही महादेव भी हुए। इसके लिए हमें शिव की वैज्ञानिकता और दर्शन को वैश्विक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानसिकता के अनुरूप ही परोसना होगा। इसीलिए हमने उनको आधुनिक ज्ञान और आवश्यकता के अनुरूप ही व्याख्या कर उपस्थापन का प्रयास किया है।

अगली बार, और विस्तार से।

सादर।।।

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक

शनिवार, 2 मार्च 2024

क्या भारत के लिए लोकतंत्र उपयुक्त नहीं है?

भारत एक लोकतांत्रिक (Democratic) गणराज्य (Republic) है और इसे लोकतंत्र चलाने का सत्तर साल से अधिक का लम्बा अनुभव भी है। भारतीय संविधान के उद्देशिका (Preamble) में यह स्पष्ट उल्लेखित भी है, कि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है। लेकिन आज भारत के विकास और अर्थव्यवस्था की तुलना जब जर्मनी और जापान या अन्य विकसित देशों के सामान्य लोगों से की जाती है, तब भारत के सामान्य तथाकथित बुद्धिमान लोगों की गुमवत्ता का बड़ा ही निराशाजनक तस्वीर बनती है। भारत के तथाकथित बुद्धिमान लोगों की गुणवत्ता यानि इन लोगो की सम्पूर्ण मानसिक बौद्धिकता एवं कौशल प्रदर्शन किसी भी विकसित देशों के सामान्य साधारण औसतन लोगों से तुलनीय नहीं है। जापान की आबादी भारतीय गणराज्य के एक प्रान्त बिहार की आबादी से भी कम है, अर्थात भारतीय आबादी का लगभग आठ प्रतिशत भाग भी, यानि भारतीय आबादी का तथाकथित सर्वोच्च बौद्धिक बुद्धिमान लोगों की एक बड़ी आबादी भी जापान की सामान्य साधारण औसतन आबादी की गुणवत्ता के समकक्ष नहीं है, यदि शेष अन्य 92% आबादी के योगदान को नगण्य मान लिया जाय| इसी तरह जर्मनी की आबादी भी भारतीय आबादी का चार प्रतिशत भी नहीं है। मतलब यह है कि भारत की समेकित 150 करोड़ की आबादी भी मिलकर जर्मनी जैसे नगण्य आबादी वाले देश (भारत की चार या आठ प्रतिशत की आबादी वाले देश) की मानसिक बौद्धिकता एवं कौशल प्रदर्शन के गुणवत्ता (Quality/ स्तर) की नहीं है| ऐसी ही तुलना जर्मनी और जापान की तरह अन्य विकसित छोटे छोटे देशों की औसतन सामान्य लोगों से की जा सकती है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। तब यह प्रश्न उठना या उठाया जाना अनुचित नहीं होगा कि भारत जैसे देश में लोकतांत्रिक गणराज्य की व्यवस्था असफल हो गयी ?

यहां एक बार लोकतंत्र और गणतंत्र की अवधारणा को भी पुनः स्पष्ट किया जाना चाहिए, ताकि सामान्य जन इस अवधारणा को स्पष्टतया समझ सके। ''गणतंत्र''' (Republic) राज्य की वह शासन व्यवस्था है, जिसमें उस राज्य का राज्याध्यक्ष (Head of the State – राज्य प्रमुख) जनता में से निर्वाचित होता है। लोकतंत्र' (Democracy) राज्य की वह शासन व्यवस्था है, जिसमें शासनाध्यक्ष (Head of the Government – शासन प्रमुख) जनता में से निर्वाचित होता है। इसी कारण भारत और ब्रिटेन में Democracy (भारत के लिए लोकतंत्र एवं ब्रिटेन के लिए प्रजातंत्र) होते हुए भी भारत एक गणतंत्र है, लेकिन ब्रिटेन गणतंत्र नहीं है। अब्राहम लिंकन ने तो लोकतंत्र को जनता की, जनता के लिए, जनता के द्वारा सरकार के रूप में परिभाषित किया। भारत में कुछ लोग "लोकतंत्र" को "प्रजातंत्र" भी बोलते हैं, जो भारत के संदर्भ में पूर्णतया ग़लत है। ऐसे लोग इस बात का ख्याल नहीं करते कि भारत में कोई  'राजतंत्र' (Monarchy) नहीं है और इसीलिए भारत में कोई 'राजा' (King) नहीं है और कोई उसकी 'प्रजा' (Subject) भी नहीं है। प्रजातंत्र शब्द ब्रिटेन के लिए उपयुक्त है, लेकिन भारत के लिए नहीं। इसीलिए भारतीय संविधान में 'लोकतंत्र' शब्द है, 'प्रजातंत्र' नहीं है, जबकि दोनों का ही अंग्रेजी अनुवाद 'डेमोक्रेसी' (Democracy) ही है।

चूंकि लोकतंत्र जनता की और जनता के द्वारा ही सरकार होती है, इसलिए 'जनमत' (Public Opinion) को सरकार के पक्ष में करना या रखना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इस तरह सरकार का निर्धारण, यानि सरकार का चुनाव लोगों के वोट (Vote/ मत) के बहुमत से होता है। मतलब सरकार बनाने, या बचाने, या चलाने के लिए  राजनीतिक दल को भी सामान्य लोगों को अपने पक्ष में लुभाना, यानि आकर्षित करना बहुत जरूरी हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसी भी राजनीतिक दल के लिए सरकार को बनाना, या बचाना, या चलायमान रखना ही सर्वोच्च प्राथमिकता हो जाती है। तब सरकार को लोकप्रिय बनाने के लिए और जन समर्थन पाने के लिए जनता को अकर्मण्य रख कर भी उन्हें सुविधाओं की झड़ी लगा दी जाती  है| उन्हें राज्य की ओर से सब शारीरिक सुविधाएँ सुनिश्चित कराई जाती है, लेकिन लोगों की बौद्धिक विकास यानि मानसिकता को वैज्ञानिक, तार्किक एवं विवेकशील बनाने के लिए समुचित प्रयास नहीं करने से ही विकास एक तमाशा बन जाता है| न्यूनतम जीवन स्तर को बनाने के अतिरिक्त उनके मानसिक उन्नय के लिए समुचित प्रयास नहीं किया जाना ही दुर्भाग्यपूर्ण है| और तब राज्य, या जनता, या जन कल्याण, यानि शासन यानि सम्यक विकास भी किसी भी राजनीतिक दलो की सूची में सर्वोच्च प्राथमिकता की नहीं रह जाती| ऐसी स्थिति में राज्य भी बर्बादी की ओर अग्रसर दिखने लगता है, क्योंकि तब सभी राजनीतिक दल या संगठन शासन पर प्रभावशाली नियंत्रण के लिए ही सारे राजनीतिक दांव-पेंच चलाते रहते हैं। राजकोष पर कर्ज लेकर भी बुनियादी सुविधाओं के नाम कार्य होते हैं, लेकिन बौद्धिक विकास की प्राथमिकतायें पीछे रह जाती है| विधायी सदन में स्पष्ट बहुमत नहीं रहने की स्थिति में तो सारा समय और ध्यान राजनीतिक उलझनों को ही सुलझाने में लगा रहता है और शासन की ओर समुचित ध्यान नहीं जा पाता है|

जिन देश यानि राज्य की अधिकांश यानि बहुमत से बहुत अधिक जनता अपनी मानसिकता में वैज्ञानिक नहीं हो, जिसमें कोई तार्किकता (Logic) नहीं हो, और कोई आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Analysis) की क्षमता नहीं हो, वह समाज या वर्ग कभी भी विवेकशील (Rational) हो ही नहीं सकता। यदि बहुसंख्यक जनता ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास और कर्मकांड में डूबा हुआ लकीर का फकीर बना हुआ है, तब ऐसे लोगों की तुलना किन जीवों से की जा सकती है? पशुओं में विचार और चिंतन प्रणाली विकसित नहीं होती है और वह शारीरिक आवश्यकताओं तक ही सीमित रहता है। उसकी प्रतिक्रिया भी इन्हीं आवश्यकताओं से प्रेरित होती हैं और इसीलिए इनकी क्रिया एवं प्रतिक्रिया भी 'स्वत स्फूर्त अनुक्रिया' (रिफ्लेक्स एक्सन- Reflex Action) से ही नियंत्रित होते हैं। जिस देश यानि राज्य की अधिकाँश जनता शारीरिक आवश्यकताओं से ही संचालित एवं नियमित होते हैं, और उनकी बौद्धिक क्षमता या स्तर लगभग शून्य ही हो, तो ऐसे जनमानस को उचित एवं अनुचित की समुचित समझ भी नहीं होती| ऐसा व्यक्ति या समूह कभी भी स्वंय का , या समाज का, या राष्ट्र या मानवता का सम्यक हित के बारे में जागरूक हो ही नहीं सकता| ऐसे में इनकी मानसिक स्थिति, स्तर एवं दशा उस व्यक्ति की तरह ही होती है, जिनको कोई मानसिक रोग हो गया है| ऐसे व्यक्ति को बिना उनसे परामर्श लिए ही उनका मानसिक उपचार किया जाना होता है| स्पष्ट है कि शारीरिक आवश्यकताओं से संचालित, नियंत्रित एवं नियमित व्यक्त या समाज कभी भी बौद्धिक हो नहीं सकता है| ऐसे में लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं व्यवस्थाओं का कोई मतलब भी नहीं रह जाता|

 तब यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ऐसे लोगों का मानसिक विकास कैसे हो और इनकी गुणवत्ता बढ़ाकर इन्हें बेहतर एवं ज्यादा उत्पाक मानव संसाधन कैसे बनाया जाए? इनकी ‘मानसिक जड़ता’ (Mental Inertia) कैसे दूर हो और इनमें वैश्विक गति की गत्यात्मकता (Dynamism) कैसे आए? क्या समाज या राष्ट्र को संचालित करने वाला सॉफ्टवेयर ही त्रुटिपूर्ण या अनपयुक्त है? क्या इससे यह माना जाय कि राज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था ही असफल हो गयी है? या लोकतांत्रिक प्रयास इसके लिए ऐतिहासिक समय ले रहा है, जो अनुचित भी है, जब इसके अन्य विकल्प उपलब्ध है| ध्यान रहे कि समाज या राष्ट्र को संचालित करने वाला सॉफ्टवेयर को “संस्कृति” भी कहते हैं, जिस पर ही अनिवार्यत: विचार किया जाना चाहिए| लेकिन इस पर विचार करने की हिम्मत या ऐसे सूझ की ओर ध्यान क्यों नहीं ध्यान दिया जा रहा है? यह लोकतंत्र सफलता पाने के लिए अभी तक उब- डूब ही कर रही है? यदि किसी समाज की गत्यात्मकता को किसी पुरातन गौरवशाली विरासत के नाम ठहराया हुआ है, तो यह भी प्रश्न खड़ा हो ही जाता है कि क्या लोक्तंत्र उस देश यानि राज्य में असफल हो गया है? उपरोक्त सारे विश्लेषण और मूल्यांकन से तो यही स्पष्ट है कि भारत के लिए लोकतंत्र उपयुक्त नहीं है। तो यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि इसका समुचित और सम्यक विकास का विकल्प क्या हो सकता है?

तब लोकतंत्र का एक प्रमुख विकल्प तानाशाही ही हो सकता है, जिसे अपने मस्तिष्क में लाने मात्र पर ही  विभत्स स्वरुप ही आंखों के सामने उभर कर दस्तक देने लगता है। लेकिन इस तानाशाही  के विभत्स स्वरुप और प्रचलित लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के बीच भी राज्य व्यवस्था या शासन पद्धति के कई स्वरुप (Form/ Type) और प्रतिरुप (Pattern) भी मानव इतिहास में देखने को मिला है। इस पर भी विचार करना समुचित होगा। तानाशाही का एक व्यवहारिक अर्थ होता है - अपने मनमौजी से, यानि अपनी इच्छा अनुसार ही शासन करना। जब एक ही व्यक्ति की तानाशाही वंशानुगत हो जाती है, तब वह राजतंत्र कहलाता है। लेकिन मानव इतिहास में किसी राजनीतिक पार्टी की तानाशाही, या किसी संगठन की भी तानाशाही रही है और वही राज्य व्यवस्था और शासन चलाईं है और इनमें से बहुत सफल भी रहे हैं। तय है कि उस राजनीतिक पार्टी में या उस संगठन में भी लोकतांत्रिक मूल्यों एवं प्रतिमानों का ध्यान रहता है, अन्यथा वह भी वंशानुगत हो सकता है। ध्यान रहे कि यहां भी लोकतांत्रिक मूल्यों एवं प्रतिमानों की बात की गई है, लेकिन यह संगठन के लिए है, नहीं सामान्य जनता के लिए| तब शासन नीति निर्धारण की प्रक्रिया में अवैज्ञानिक, अतार्किक और अविवेकी लोगों को शामिल नहीं किया जाएगा, लेकिन इसकी सुनिश्चितता कैसे होगी? इन अवैज्ञानिक, अतार्किक और अविवेकी लोगों का निर्धारण कैसे किया जायगा और किन लोगो के द्वारा किया जाएगा? भारत के अधिकांश सर्वोच्च बुद्धिजीवी लोग भी सामान्य लोगो एवं विशिष्ट लोगों का वर्गीकरण उनकी गुणवत्ता के आधार पर नहीं कर उनकी वंशानुगत तथाकथित जाति, वर्ण और धर्म के आधार पर ही करते हैं।

जिस राज्य या देश में किसी व्यक्ति या समाज की उत्पादकता, कौशल क्षमता एवं समेकित गुणवत्ता के लिए वंशानुगत तथाकथित जाति, वर्ण और धर्म के आधार को ही तार्किक, वैज्ञानिक एवं आधुनिक माना जाता हो, तब ऐसी स्थिति तानाशाही व्यवस्था को ही भयावह बना देती है| भारत के लगभग सभी बुद्धिजीवी जाति, वर्ण और धर्म की व्यवस्था को ऐतिहासिक, प्रामाणिक, सनातन और पुरातन विरासत मानते हैं, जबकि यह सब मध्य युगीन व्यवस्था है| आधुनिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या यही साबित करती है कि जाति, वर्ण और धर्म की व्यवस्था अपने वर्तमान स्वरुप (Form) में, प्रकार (Type) में एवं प्रतिरूप (Pattern) में मध्य युग जनित एवं विकसित व्यवस्था ही है| लेकिन तथाकथित आदुनिक  एवं वैज्ञानिक विद्वान् भी इस जाति, वर्ण और धर्म की व्यवस्था को मजबूत बनाने में लगे हुए हैं और इसको हटाने की दिखावटी प्रयास में अपने को जूझते हुए भी साबित करना चाहते हैं|

लेकिन मेरा सवाल अभी भी अधुरा ही रह गया कि क्या भारत के लिए लोकतंत्र उपयुक्त नहीं है? मैं किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया, लेकिन उपयुक्त आलोचनात्मक विश्लेषण एवं उसके उपयुक्त मूल्याङ्कन के लिए कई प्रश्न अनुत्तरित ही छोड़ दिया है| संविधान सभा में भी सांवैधानिक नैतिकता (Constitutional Morality) की बात गयी, जो आजतक शायद व्यावहारिकता में नहीं ही आ सकी| फिर भी मैं इस सवाल के बहाने आपको भविष्य की ओर देखने समझने को उत्सुक करता हूँ, ऐसा मेरा मानना है|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक 

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