गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

शोषण तंत्र एवं देश की दुर्दशा (Exploitation System and the Plight of Country)

  

किसी भी समाज, संस्कृति, या देश की दुर्दशा (Plight) में "शोषण" (Exploitation) की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। या यों कहें कि किसी समाज की दुर्दशा में एक मात्र भूमिका शोषण की ही होती है। शोषण के कई स्वरुप होते हैं, परन्तु इन सबों में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली "व्यवस्था का शोषण" (Exploitation of System) होता है। अर्थात व्यवस्था ही शोषण का स्वरूप ले लेता है। इसके साथ ही व्यवस्था ही शोषण का संरक्षक (Custodian) भी हो जाता है| इसमें शोषण को व्यवस्था के स्वरूप में मान्य  (Approval) करा दिया जाता है। इसे दुसरे रूप में प्रशंसा (Appreciation) दिला दी जाती है| ध्यान देने की बात यह है कि यह स्वीकार्यता (Acceptance) चेतन (Consciousness) स्तर पर शोषण नहीं लगता, यह धार्मिक एवं सांस्कृतिक दायित्व (Religious and Cultural Liability) लगता है| इस तरह यह स्वीकार्यता अचेतन बाध्यता (Un Consciousness Compulsion)हो जाती है|

सभी आदमी जैवकीय वर्गीकरण में "होमो सेपियंस" कहलाता है, चाहे वह किसी क्षेत्र, संस्कृति या देश का हो। किसी भी क्षेत्र, संस्कृति और देश का कोई भी व्यक्ति किसी भी दूसरे क्षेत्र, संस्कृति या देश के विपरित लिंगी (Sex) से होमो सेपियंस का प्रजनन (Reproduction) कर सकता है। ऐसी अवस्था में यदि कोई सांस्कृतिक प्रतिमान (Norms) या तथाकथित ऐतिहासिक वर्णित घटना इसमें व्यवधान उत्पन्न करता है, तो वह स्पष्टतया "सांस्कृतिक घपला" (Cultural Scam) है। यह मानवता के प्रति, समाज के प्रति और राष्ट्र के प्रति साजिश है, अपराध है और घिनौना (Heinous) काम है। यह सब दुर्दशा के जड़ है और शोषण के विभिन्न आयामों को परिभाषित और व्याख्यायित करते हैं। इससे हम भारत में चल रहे 'सांस्कृतिक घपला' और भारतीय जनता एवं राष्ट्र के प्रति हो रहे "घिनौना काम और चेहरे" (Heinous Work and Face) को समझ पाएंगे तथा देख पाएंगे।

इन शोषण के स्वरूप को देखने, जानने और समझने के लिए अन्तर्दृष्टि (Vision) एवं दृष्टिकोण (Attitude) चाहिए। वैज्ञानिक मानसिकता (Scientific Temper) के अभाव में सामान्य लोग सिर्फ वही देख  (See) पाते है, जो बुद्धिमान एवं धूर्त व्यक्ति दिखाना चाहते हैं। तर्क (Logic) एवं साक्ष्य (Evidence) के सोचना एवं व्यवहार करना ही वैज्ञानिक मानसिकता है| यह 'आस्था' (Devotion) के विपरीत है|  सामान्य लोग के पास दृष्टि (Sight) होता है, अन्तर्दृष्टि (Insight, Vision) नहीं होता है| यह मानसिक क्षमता से दिखता है। किसी के पद, डिग्री या धन से किसी के मानसिक क्षमता का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि मानसिक क्षमता का भी वृहत् स्तरीकरण (Stratification) होता है। जो प्रत्यक्ष आंखों से नहीं दिखता, परन्तु दीखता (समझ में आना) है, वहीं अन्तर्दृष्टि है। दृष्टिकोण इससे अलग एक ही चीज या विषय वस्तु है जिसको भिन्न भिन्न आयामों (Dimensions) से देखना और समझना होता है।

शोषण के विभिन्न आयामों में "वित्तीय शोषण" (Financial Exploitation) एवं "सांस्कृतिक शोषण" (Cultural Exploitation) ही प्रमुख हैं। इसे अच्छी तरह से समझना जरूरी है। इसके अतिरिक्त शारीरिक श्रम का शोषण, बौद्धिक श्रम का शोषण, लैंगिक शोषण और संसाधनों का शोषण भी वर्गीकृत है। इसे अति गंभीर नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि यह सब उपरोक्त दोनों के आवरण में सामान्य डिग्री धारकों को भी नहीं समझ में आता है। कहने का तात्पर्य यह है कि शारीरिक, बौद्धिक एवं लैंगिक शोषण स्वरुप को सब कोई देखता और समझता है। परन्तु वित्तीय एवं सांस्कृतिक शोषण भी शोषण हो सकता है, ऐसे स्वरूप को समझने में थोड़ा स्थिरता एवं गहराई चाहिए।

सभी पिछड़े हुए संस्कृति, समाज एवं देश में दुर्दशा का प्रमुख कारण “सांस्कृतिक शोषण” की व्यवस्था है| सांस्कृतिक स्वरुप में तथाकथित धार्मिक तथा सामाजिक प्रतिमान (Norms) ही शामिल होता है| ऐसे समाज में जो धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रतिमान (रिवाज, मूल्य, संस्कार, नैतिकता आदि) वर्तमान में प्रचलित होता है, वह किसी न किसी आधार पर सुविधाभोगी वर्ग के पक्ष में होता है| भारत में इस सुविधाभोगी वर्ग का आधार जन्म का परिवार है| भारत का यह व्यवस्था दुनियां में अनूठा है, जिसका कोई साम्य अन्य कहीं नहीं है| इसे भारत में जाति एवं वर्ण व्यवस्था कहते हैं| इस व्यवस्था को भारत में कोई एक हजार वर्ष भी नहीं हुआ है, परन्तु इसे गौरवशाली एवं आदर्शवादी बनाने के लिए इसे भारत में सभ्यता के शुरुआत से बताया जाता है| इसे पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता है| इसका कोई पुरातात्विक एवं प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है| इसमें कई ढोंग, पाखण्ड एवं कर्मकांड को संस्कार, रिवाज, जीवन- मूल्य, नैतिकता आदि के नाम पर स्थापित कर दिया गया| इसमें संशोधन या सुधार की बात करना गौरवशाली संस्कृति का विरोध माना जायेगा| इसे “राष्ट्र द्रोह” भी माना जा सकता है|

भारतीय समाज इस सामंती व्यवस्था को सांस्कृतिक (धार्मिक) स्वरुप के कारण इसके मूल रूप को पहचानना ही नहीं चाह रहा है| इस सांस्कृतिक व्यवस्था आगमन नौवीं सदी के बाद भारत में हुआ| यही “सांस्कृतिक घपला” है, जिसका पर्दाफाश किया जाना भारतीय समाज एवं भारतीय राष्ट्र के लिए आवश्यक है| इसी सांस्कृतिक बाधा के कारण बहुसंख्यक समाज अर्थव्यवस्था के चौथे सेक्टर (Quaternary Sector) एवं पांचवें सेक्टर (Quinary Sector) में भागीदारी से दूर है| इस क्षेत्र के बारे वह सोचता नहीं है और ख्वाव (Dreams) ऊँचे ऊँचे देखता है| यह कटु सत्य है, जिसे समझना सभी को जरुरी है| चौथे सेक्टर में “ज्ञान क्षेत्र” आता है, जिसमे इन बहुसंख्यकों की भागीदारी की ओर कदम बढ़ें हैं| पांचवे सेक्टर में “नीति निर्धारण क्षेत्र” है, जो बहुसंख्यकों के दूरदृष्टि से बाहर है| यह भी दुर्दशा का एक प्रमुख कारण है|

वित्तीय शोषण में 'वित्तीय साम्राज्यवाद' (Financial Imperialism) और 'वित्तीय व्यवस्था' (Financial System) शामिल हैं। पहले हम आर्थिक व्यवस्था (Economic System) एवं वित्तीय व्यवस्था (Financial System) को समझते हैं| आर्थिक व्यवस्था में "उत्पादन, वितरण, विनियम, और उपभोग" के साधनों और उनके अन्तर्सम्बन्धों को व्यवस्थित करना जरूरी होता है। वही वित्तीय व्यवस्था में धन के विभिन्न स्वरूपों - निधि (Fund), नगद (Cash), एवं पूंजी (Capital) को लाभ के लिए व्यवस्था करना होता है| इसी कारण "वित्तीय साम्राज्य" कई मायने में "आर्थिक साम्राज्य" (Economical Imperialism) से भिन्न होता है। वित्तीय साम्राज्य में राजनैतिक उपनिवेश की जरूरत नहीं होती, जबकि आर्थिक साम्राज्य में राजनैतिक उपनिवेश की जरूरत हो जाती है। अर्थव्यवस्था के बदलते स्वरूप (उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के कारक) में वणिक (Mercantile) साम्राज्यवाद समय के साथ औद्योगिक  (Industrial) साम्राज्यवाद में बदल गया| इसी तरह औद्योगिक साम्राज्यवाद अर्थव्यवस्था के बदलते मांग के कारण वित्तीय साम्राज्यवाद में बदल गया| इसके लिए कोई प्रत्यक्ष राजनैतिक नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती| इसके साथ ही प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था का कोई उत्तरदायित्व नहीं रहता| इन रूपान्तरणों में “स्वतंत्रता आन्दोलनों” की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं रह जाती| वित्तीय व्यवस्था में सिर्फ पूंजी सुरक्षित रहें और लाभ मिलता रहे| वित्तीय व्यवस्था में विनिमय एवं निवेश के नाम पर शोषण का खेल होता है| बैंकिंग एवं पूंजी बाज़ार व्यवस्था से ज्यादा खेल “बाज़ार के खिलाडी” ही करते हैं| यह भारत के लिए भी पूरा सही है|

इसी सब को पहचानना और समझना ही देश को दुर्दशा (Plight) से बचाने (Rescue) एवं उबरने (Emergence) का एकमात्र उपाय है|

निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना|  

 

 

 

 

 

सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

समाज और राष्ट्र का तीव्र विकास कैसे हो?

कोई भी समाज या राष्ट्र अपनी विकास की पूरी संभावनाओं को जब पूरी तरह व्यक्त कर पाता है, तभी वह समाज और राष्ट्र अपना सम्यक और महत्तम विकास कर पाता है। ऐसे द्रुतगामी विकास के लिए कुछ विशेष पहचान, प्रक्रिया और मनोविज्ञान को समझना होता है।

 *कोई समाज और राष्ट्र इसलिए पिछड़ा हुआ होता है,* क्योंकि बहुसंख्यक समाज या समुदाय अपनी सोच में पिछडा हुआ होता है। *"*पिछडा*" हुआ का यह अर्थ हुआ कि उनकी सोच वैज्ञानिक नहीं है।* ऐसे लोग सामाजिक और सांस्कृतिक आधार पर पिछड़े हुए होते हैं और इसीलिए आर्थिक और राजनीतिक रूप में भी पिछड़े हुए होते हैं। इन पिछड़े समुदाय के अलावा अन्य लोग " *यथास्थितिवादी*" होते हैं। ये अक्सर यथास्थितिवादी इसलिए होते हैं, क्योंकि इनको कर्म के आधार पर नहीं, अपितु जन्म के आधार पर बहुत से विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। ये समुदाय यदि स्वार्थी होता है, तो *इन्हें व्यापक समाज यानि राष्ट्र नहीं दिखता है।* 

इन *पिछड़े हुए लोगों* की *विशेषताएं* होती है कि *इन्हें चीजों को सतही तौर पर ही समझना आता है और निहितार्थ समझना दूर की बातें होती है।* *इन्हें सांसारिक आवश्यकताओं के बजाय "पारलौकिक" ख्वाबों से नियंत्रित और संचालित किया जाना आसान होता है।  ये जन्म आधारित विशेषताओं में विश्वास करते हैं। अपने कर्म तथा योग्यताओं की महत्ता की समझ इन्हें नहीं है।   ये लोग व्यक्तियों और घटनाओं पर जल्दी और आक्रामक ढंग से प्रतिक्रिया देते हैं।   ध्यान रहे कि इन्हें "प्रतिक्रियाओं" के माध्यम से बहुत आसानी से नियंत्रित और संचालित किया जाता है।* _*_समाज के अधिकतर लोग उम्र के कारण भी सठिया गए होते हैं।*_ *अतः ऐसे लोगों से बदलाव की तनिक भी उम्मीद करना समय, संसाधन, ऊर्जा और धन की पूरी बरबादी है* । ऐसे लोगों को अपने विचारों की रणनीति से बाहर रखिए, ऐसे लोगों पर कोई टिप्पणी और कोई प्रतिक्रिया भी देना नासमझी है।

यह काफी *खुशखबरी* की बात है कि गंगा नदी के विशाल मैदान में *युवाओं* की संख्या आधी से अधिक है। इनको साधने के लिए हमें इनकी मनोवैज्ञानिक स्थिति और इनकी आवश्यकताओं को समझना होगा। _ध्यान रहे कि हम मानवता और राष्ट्र के पक्ष में, इसलिए सत्य भी हमारे साथ है।_ *मानवता और राष्ट्र के दुश्मनों का सहारा झूठ, पाखंड, ढोंग, अत्याचार और शोषण है।* हमें सिर्फ इनका खुलासा करना है जो तथ्य, तर्क, विज्ञान और विवेकशीलता पर आधारित हो।

हम विश्व आबादी का सोलह प्रतिशत ही है। विश्व एक छोटा और संकुचित गांव है। आज हम विश्व समाज से अलग नहीं रह सकते। विश्व समाज सदैव मानवता और विशाल समुदाय के पक्ष में होगा। हमें उन्हें अपनी बात वैज्ञानिक आधार पर समझाना होगा। फिर भारत भी हमारे साथ होगा।

हमें *युवाओं को आकर्षित* करने और अपने पक्ष में करने के लिए *एक सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम* चलाना चाहिए। यह आन्दोलन *गैर राजनीतिक* होना चाहिए। यह सिर्फ युवाओं, मानवता और राष्ट्र के पक्ष में होना चाहिए।

इसके लिए  हमें निम्न विषयों पर जमीनी स्तर पर कार्यक्रम चलाना चाहिए ----

 *1 . उद्यमिता* *(Entrepreneurship),* 

वैसे भी सरकारी नौकरी का विकल्प सब को नहीं मिल सकता। उद्यमिता व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए आवश्यक है। इसकी क्रिया विधि, व्यवस्था और संबंधित जानकारी को जानना सबके लिए जरूरी है।

 *2. वित्तीय साक्षरता (Financial Literacy),* 

धन को बनाना, धन को सम्हालना और धन से धन का विकास करना; इसका सही एवं व्यवहारिक ज्ञान जरूरी है। इसे सरल और सहज तरीके से बताया जाना चाहिए।

 *3. सामाजिक अंकेक्षण (Social Audit),* 

इससे युवाओं को सामाजिक और आर्थिक सम्मान मिलता है। इसमें " *सूचना का अधिकार अधिनियम* " की समुचित जानकारी और उपयोगिता बताई जाती है। इसी के आधार पर सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का जमीनी हकीकत जानकर रिपोर्ट बनाना ही "सामाजिक अंकेक्षण" है। इससे युवाओं को राष्ट्र निर्माण' में आत्म संतुष्टि भी मिलता है।

 *4. बौद्धिक बुद्धिमत्ता (Wisdom Intelligence),* 

किसी भी व्यक्ति के समुचित सफलता में सिर्फ "सामान्य बुद्धिमत्ता", "भावनात्मक बुद्धिमत्ता" और "सामाजिक बुद्धिमत्ता" पर्याप्त नहीं होता। उसके लिए भविष्य को ध्यान में रखकर विवेकपूर्ण बुद्धिमत्ता की आवश्यकता होती है, जिसे बौद्धिक बुद्धिमत्ता कहते हैं। इसे जानना सबके लिए जरूरी है।

 *5. सामाजिक रुपांतरण का विज्ञान (Science of Social Transformation),* 

किसी भी समाज में जो रुपांतरण होता है, वही उसका इतिहास है। *इतिहास वर्तमान की गहराई में समाया हुआ नींव (Foundation) है।* किसी भी समाज का सही यानि सच्चा इतिहास जानने के लिए *सामाजिक रुपांतरण की वैज्ञानिक व्याख्या* होना चाहिए। *यह व्याख्या उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange), और उपभोग (Consumption) की शक्तियों और उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही किया जाना चाहिए।* इसे सबको समझना चाहिए।

 *6. अन्त: प्रेरणा का क्रियाविधि (Mechanics of Inspiration)* 

कोई भी आदमी किसी बाह्य कारणों की प्रेरणा ( *Motivation* ) से प्रेरित हो जाता है, परन्तु वह अस्थाई होता है। अन्त: प्रेरणा ( *Inspiration* ) ही स्थाई और उत्कृष्ट प्रदर्शन देता है। इसे बनाए रखने और प्रभावशाली बनाने के लिए इसे समझना जरूरी है।

इससे हम युवाओं को आकर्षित कर पाएंगे और हम उन्हें सामाजिक सांस्कृतिक पहलुओं को वैज्ञानिक व्याख्या कर समझा पाएंगे। इस तरह युवाओं का आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान संभव है। इससे हम भारत का सम्यक और महत्तम विकास कर पाएंगे। तब भारत फिर से अग्रणी राष्ट्र बन पाएगा।

 *स्वर्णिम भारत आने वाला है।* 

 *_बस, कुछ समय का इंतजार है।_* 

_निरंजन सिन्हा_

स्वैच्छिक सेवानिवृत्त राज्य कर संयुक्त आयुक्त,

 बिहार, पटना, की क़लम से ........

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सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

सामाजिक उत्थान के रास्ते

किसी भी भव्य इमारत की बुनियाद (foundation) भी सुदृढ़ और सुविचारित होती है। इसी तरह किसी भी सामाजिक संगठन की बुनियाद उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक सोच और संरचना (structure) होती है।

सांस्कृतिक सोच और समझ मानसिक विचारण (thinking) की क्षमता और स्तर निर्धारित करता है। बहुसंख्यक समुदाय अर्थव्यवस्था के प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय सेक्टर के सोच तक ही सीमित है। बुद्ध चौथे (quaternary) और पांचवें (quinary) सेक्टर पर कार्यरत थे। बहुसंख्यक समुदाय अपनी सोच, समझ एवं संस्कार को अर्थव्यवस्था के प्रथम तीन सेक्टर के 'बाक्स' तक सीमित कर रखे हैं। "आउट आफ बाक्स" सोचना और समझना आवश्यक है और इसलिए इसकी शुरुआत की जानी चाहिए। इन्हें भी ज्ञान प्रक्षेत्र (चतुर्थ क्षेत्र) और नीति निर्धारण प्रक्षेत्र (पंचम क्षेत्र) में भी आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास और शुरुआत करना चाहिए। इसके बिना यह समुदाय पिछलग्गू ही रहेगा। इसका कोई विकल्प भी नहीं हो सकता है।

सांस्कृतिक क्षेत्र में सांस्कृतिक बुनियाद भी बदलना होगा, यानि बुनियाद को अलग ढंग से अलग आधार पर पुनः परिभाषित (redefined) करना होगा। इन्हें सामंतवाद (Feudalism) के सांस्कृतिक एवं धार्मिक ढांचे का  'वर्ण व्यवस्था' से बाहर निकलना चाहिए। उनकी वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय,  वैश्य और शूद्र हैं जो सामंतवाद की उत्पाद है। यानि बहुसंख्यक समुदाय को इन चारों सवर्ण से बाहर निकलना चाहिए। बहुसंख्यक समुदाय कभी शुद्र या क्षुद्र नहीं था, यह स्पष्ट हो लिया जाए। शुद्र सामंतों के व्यक्तिगत सेवक (personal servant) थे, जो सामंतवाद के राजनैतिक स्वरुप के समाप्त होते ही लुप्त (eliminated) हो गया।

दरअसल बहुसंख्यक समुदाय इनकी वर्ण व्यवस्था से सदैव बाहर थे, अब इसमें शामिल करने का पुरजोर प्रयास किया जा रहा है। यह बहुसंख्यक समुदाय का मनोबल (morale) तोड़ने का प्रयास है।

बहुसंख्यक समुदाय अवर्ण थे और है। ये बिना वर्ण के थे और वर्ण व्यवस्था से बाहर थे। उत्पादक (producer) समूह, विद्रोही (rebellion) समूह, अरण्य (forest) समूह और विदेशी संस्कृति (foreign culture) समूह अवर्ण थे और है। इससे इनमें सांस्कृतिक एकता को समान आधार मिलेगा। यह तथ्य और सत्य सामाजिक रुपांतरण की वैज्ञानिक व्याख्या पर आधारित है जो समाज के उत्पादन (production), वितरण (distribution) विनियम (exchange) और उपभोग (consumption) की शक्तियों और उनके अन्तर्सम्बन्धों (interrelationships) के आधार पर व्याख्यायित (explained) है।

आर्थिक विकास के लिए हमें युवाओं, महिलाओं और नेटिजनों (Netizens) पर आधारित होना होगा। इसके लिए हमें

1. उद्यमिता (Entrepreneurship),

2. वित्तीय साक्षरता या समझदारी (Financial Literacy),

3. सामाजिक अंकेक्षण (Social Audit),

4. बौद्धिक बुद्धिमत्ता (Wisdom Intelligence), 

5. सामाजिक रुपांतरण का विज्ञान (Science of Social Transformation), और

6. अंत: उत्प्रेरण की क्रियाविधि (Mechanics of Inspiration) 

को समझना और समझाना जरुरी होगा।

यही मूल और मौलिक आधार है। बाकी नेतागिरी चमकाने के लिए काफी है। नयी अवधारणाएं चिंतन खोजता है, सम्यक विमर्श और सहयोग चाहता है।

शुरुआत किया जाय।

निरंजन सिन्हा

मौलिक चिंतक, व्यवस्था विश्लेषक, बौद्धिक उत्प्रेरक।

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

भारत का शुद्रीकरण क्यों?

शुद्रीकरण एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसमे लोगों को शुद्र बनाया या घोषित किया जाता है| इस तरह शुद्रीकरण के प्रक्रिया में उनको शुद्र बनाया, या बताया, या स्वीकृत कराया, या घोषित किया जाता है, जो वास्तव में ‘शुद्र’ नहीं होते हैं| “शुद्र” (Shudra) दरअसल ‘क्षुद्र’ (Kshudra) का अपभ्रंश है जिसका शाब्दिक एवं निहित अर्थ निम्न या नगण्य होता है| यह “शुद्रपन” गुणवत्ता में भी होता है और मात्रा में भी होता है| गुणवत्ता के अर्थ में घटियापन होना होता है| मात्रात्मकता के अर्थ में नगण्य होता है अर्थात अल्प संख्या होता है| यह मनोबल को तोड़ने का भाव रखता है|

वर्ण व्यवस्था में व्यक्तिगत नौकर को क्षुद्र यानि शुद्र कहा जाता था| सामंतवाद के राजनीतिक स्वरुप के समाप्त होते ही व्यक्तिगत नौकर उसी तरह समाप्त हो गए जैसे ‘गुलाम’ दास-व्यवस्था से समाप्त हो गए| स्पष्ट है कि व्यक्तिगत नौकरों का खानदानी समूह अब लुप्त हो गया यानि समाज में शुद्र अब उपलब्ध नहीं है|

समाज के ऐतिहासिक बदलाव की प्रक्रिया को वैज्ञानिक ढंग से समझना जरुरी है| समाज में बदलाव का वैज्ञानिक व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों के आधार पर ही किया जा सकता है| इतिहास सदैव एवं परंपरागत रूप में वह नहीं होता है जो दीखता रहता है या दिखाया जाता है| प्रो ई० एच0 कार ने अपनी पुस्तक “इतिहास क्या है?” (‘What is History?’)  में समझाया है कि इतिहास ‘पुरातात्विक साक्ष्य’ एवं ‘इतिहासकार’ से मिल कर बनता या तैयार होता है| ‘पुरातात्विक साक्ष्य’ तो निष्पक्ष होता है, परन्तु ‘इतिहासकार’ की मनोदशा या मंशा को समझना होता है| इतिहासकार यथास्थितिवादी हो सकता है, सामंतवादी हो सकता है, छद्म राष्ट्रवादी हो सकता है, धूर्त हो सकता है, मुर्ख हो सकता है, या निष्पक्ष हो सकता है जो अक्सर होता ही नहीं है| अत: आपको अपने ‘तर्क’ के साथ ‘साक्ष्य’ (पुरातात्विक, प्रमाणिक एवं तार्किक) पर परखना होगा| तब ही आप सत्य देख पाएंगे| मेरा यह कहना है कि सिर्फ विद्वानों के नाम पर या लिखित एवं ऐतिहासिक होने के नाम पर आप संतुष्ट नहीं हो, तर्क के साथ साक्ष्य भी मांगें|

सामंत काल में दो नए एवं महत्वपूर्ण वर्ग बनें जो वर्ण कहलाए| पूर्व के योग्यता आधारित ‘बमन’ नाम का बौद्धिक वर्ग एक नए नाम में “ब्राह्मण” कहलाये| पूर्व के राजस्व संग्राहक ‘क्षेत्रीय’ या ‘खेत्तीय’ वर्ग एक नए नाम में “क्षत्रिय” कहलाये| वणिक वर्ग को अपने व्यापारिक सेवा एवं वित्त प्रदाता जैसे प्रमुख गतिविधियों के कारण वर्ण व्यवस्था में तीसरा स्थान मिला| ध्यान रहे कि इसमें अन्य सेवा प्रदाता एवं उत्पादक वर्ग शामिल नहीं थे| व्यक्तिगत सेवको का अस्तित्व भी इन नए सामंती वर्ग से जुड़े होने के कारण चौथे एवं निम्न वर्गीय के रूप में शामिल किया गया| इस तरह ‘सवर्ण’ ‘स’ के साथ ‘वर्ण’ (वर्ण सहित) हुए जिसमे चार वर्ण – ब्राह्मण. क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र यानी क्षुद्र शामिल है|

सामंतकाल में भारतीय उपमहाद्वीप में फैले भिन्न भिन्न क्षेत्रों में भिन्न भिन्न पेशों के नाम भी भिन्न भिन्न भाषाओ एवं संस्कृति के कारण बहुत अधिक संख्या में हो गया| यह कालांतर में गतिहीनता के कारण स्थायित्व में बदल गया जिन्हें जातियां कहा गया| ये वर्ण व्यवस्था से बाहर रह गए और इन्हें “अवर्ण” माना गया| इसमें भारत की (A) “उत्पादक संस्कृति”, (B) “अरण्य संस्कृति”, (C) “विद्रोही संस्कृति” एवं  (D) “बाहय संस्कृति” के लोग शामिल थे| इनको यथास्थिति में छोड़ दिया गया| उत्पादक संस्कृति में वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादक समूह, अरण्य संस्कृति में जनजातीय एवं वनवासी समूह, बाह्य संस्कृति में भारत के बाहर उत्पन्न संस्कृति (आस्था एवं विश्वास) को मानने वाले एवं भारत में रहने वाले समूह, तथा  विद्रोही संस्कृति में सामन्तवाद जैसे नव स्थापित व्यवस्था को नहीं मानने एवं उससे विद्रोह करने वाले समूह शामिल हैं| ये विद्रोही लोग पुरातन समतावादी व्यवस्था (बौद्धिक संस्कृति) के सक्रिय समर्थक थे, जिन्हें समाज का “पवित्र योद्धा” कहा जाता था| इनमे दुसाध (दु साध्य, जिनको साधा नहीं जा सका), भंगी (जिन्होंने सामंती नियमों को भंग कर दिया) जैसे समूह शामिल थे| इन्हें पूर्व के समतावादी व्यवस्था के कट्टर समर्थक होने के कारण अपना सम्पति, सम्मान, शिक्षा, सत्ता, एवं समाज सबकुछ त्यागना पड़ा| अब इन सभी “अवर्णों” को शुद्र या क्षुद्र घोषित किया जा रहा है| यह “शुद्रीकरण” की प्रक्रिया है| इसके लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष आन्दोलन भी चलवाया जा रहा है|

यह भारतीय इतिहास का पूरा “पैरेडाईम शिफ्ट” (देखें थामस सैम्युल कुहन की पुस्तक – ‘The Structure of Scientific Revolutions’) है| यह बृहत् भारतीय समाज का मनोबल तोड़ने का धूर्ततापूर्ण प्रयास है| इसे देश को कमजोर करना कहा जा सकता है| बिस्मार्क ने जर्मनी के बिखरे जातियों एवं जनजातियों को जोड़ कर उसमे बहुत ज्यादा मनोबल बढाया| इसी मनोबल के सहारे हिटलर ने विश्व को रोंद डाला| यह मनोबल का शक्ति है, उर्जा है और मानसिक विचारो की क्षमता है|

मनोबल (Morale) को ही हौसला कहते हैं| यह समूह की शक्ति होती है| यह सीधे कार्य निष्पादन एवं लक्ष्य प्राप्ति को प्रभावित करता है|  यह व्यक्ति एवं समूह की आन्तरिक मानसिक शक्ति और आत्मविश्वास है| यह उर्जा, आशा, साहस, उत्साह एवं अनुशासन पैदा करता है| उच्च मनोबल का व्यक्ति या समूह अपना सर्वश्रेष्ट योगदान करता है| यह समूह का अभिवृति (Attitude) है| यह सामूहिक शक्ति है| उच्च मनोबल का समूह कठिन काम को आसानी से कर देता है, जबकि निम्न मनोबल का समूह आसान काम को भी ठीक से नहीं कर पाता है|

और हम भारतीय अपने बहुसंख्यक लोगों के मनोबल को चूर चूर करने में लगे है| इसका एकमात्र कारण कुछ लोगो का निजी स्वार्थ एवं यथास्थितिवादी मानसिकता का संरक्षण है| आप भी विचार कीजिये| उपरोक्त के अलावे सारी बातें कहानियां है, मिथक है, गैर ऐतिहासिक एवं काल्पनिक कहानियाँ है| उन मिथकों के साक्ष्य देखिये या खोजिए| उनके पास  कोई साक्ष्य नहीं है, सिवाय कहानियों के|

अब समय आ गया है – इतिहास का बहुसंख्यक के पक्ष में, विकास के पक्ष में और राष्ट्र के पक्ष में व्याख्या करने का| हम अपने ऐतिहासिक गौरव को इसी तरह पा सकते हैं|

निरंजन सिन्हा

मौलिक चिन्तक, व्यवस्था विश्लेषक एवं बौद्धिक उत्प्रेरक|

 


भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक सम...