मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

भारत का शुद्रीकरण क्यों?

शुद्रीकरण एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसमे लोगों को शुद्र बनाया या घोषित किया जाता है| इस तरह शुद्रीकरण के प्रक्रिया में उनको शुद्र बनाया, या बताया, या स्वीकृत कराया, या घोषित किया जाता है, जो वास्तव में ‘शुद्र’ नहीं होते हैं| “शुद्र” (Shudra) दरअसल ‘क्षुद्र’ (Kshudra) का अपभ्रंश है जिसका शाब्दिक एवं निहित अर्थ निम्न या नगण्य होता है| यह “शुद्रपन” गुणवत्ता में भी होता है और मात्रा में भी होता है| गुणवत्ता के अर्थ में घटियापन होना होता है| मात्रात्मकता के अर्थ में नगण्य होता है अर्थात अल्प संख्या होता है| यह मनोबल को तोड़ने का भाव रखता है|

वर्ण व्यवस्था में व्यक्तिगत नौकर को क्षुद्र यानि शुद्र कहा जाता था| सामंतवाद के राजनीतिक स्वरुप के समाप्त होते ही व्यक्तिगत नौकर उसी तरह समाप्त हो गए जैसे ‘गुलाम’ दास-व्यवस्था से समाप्त हो गए| स्पष्ट है कि व्यक्तिगत नौकरों का खानदानी समूह अब लुप्त हो गया यानि समाज में शुद्र अब उपलब्ध नहीं है|

समाज के ऐतिहासिक बदलाव की प्रक्रिया को वैज्ञानिक ढंग से समझना जरुरी है| समाज में बदलाव का वैज्ञानिक व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों के आधार पर ही किया जा सकता है| इतिहास सदैव एवं परंपरागत रूप में वह नहीं होता है जो दीखता रहता है या दिखाया जाता है| प्रो ई० एच0 कार ने अपनी पुस्तक “इतिहास क्या है?” (‘What is History?’)  में समझाया है कि इतिहास ‘पुरातात्विक साक्ष्य’ एवं ‘इतिहासकार’ से मिल कर बनता या तैयार होता है| ‘पुरातात्विक साक्ष्य’ तो निष्पक्ष होता है, परन्तु ‘इतिहासकार’ की मनोदशा या मंशा को समझना होता है| इतिहासकार यथास्थितिवादी हो सकता है, सामंतवादी हो सकता है, छद्म राष्ट्रवादी हो सकता है, धूर्त हो सकता है, मुर्ख हो सकता है, या निष्पक्ष हो सकता है जो अक्सर होता ही नहीं है| अत: आपको अपने ‘तर्क’ के साथ ‘साक्ष्य’ (पुरातात्विक, प्रमाणिक एवं तार्किक) पर परखना होगा| तब ही आप सत्य देख पाएंगे| मेरा यह कहना है कि सिर्फ विद्वानों के नाम पर या लिखित एवं ऐतिहासिक होने के नाम पर आप संतुष्ट नहीं हो, तर्क के साथ साक्ष्य भी मांगें|

सामंत काल में दो नए एवं महत्वपूर्ण वर्ग बनें जो वर्ण कहलाए| पूर्व के योग्यता आधारित ‘बमन’ नाम का बौद्धिक वर्ग एक नए नाम में “ब्राह्मण” कहलाये| पूर्व के राजस्व संग्राहक ‘क्षेत्रीय’ या ‘खेत्तीय’ वर्ग एक नए नाम में “क्षत्रिय” कहलाये| वणिक वर्ग को अपने व्यापारिक सेवा एवं वित्त प्रदाता जैसे प्रमुख गतिविधियों के कारण वर्ण व्यवस्था में तीसरा स्थान मिला| ध्यान रहे कि इसमें अन्य सेवा प्रदाता एवं उत्पादक वर्ग शामिल नहीं थे| व्यक्तिगत सेवको का अस्तित्व भी इन नए सामंती वर्ग से जुड़े होने के कारण चौथे एवं निम्न वर्गीय के रूप में शामिल किया गया| इस तरह ‘सवर्ण’ ‘स’ के साथ ‘वर्ण’ (वर्ण सहित) हुए जिसमे चार वर्ण – ब्राह्मण. क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र यानी क्षुद्र शामिल है|

सामंतकाल में भारतीय उपमहाद्वीप में फैले भिन्न भिन्न क्षेत्रों में भिन्न भिन्न पेशों के नाम भी भिन्न भिन्न भाषाओ एवं संस्कृति के कारण बहुत अधिक संख्या में हो गया| यह कालांतर में गतिहीनता के कारण स्थायित्व में बदल गया जिन्हें जातियां कहा गया| ये वर्ण व्यवस्था से बाहर रह गए और इन्हें “अवर्ण” माना गया| इसमें भारत की (A) “उत्पादक संस्कृति”, (B) “अरण्य संस्कृति”, (C) “विद्रोही संस्कृति” एवं  (D) “बाहय संस्कृति” के लोग शामिल थे| इनको यथास्थिति में छोड़ दिया गया| उत्पादक संस्कृति में वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादक समूह, अरण्य संस्कृति में जनजातीय एवं वनवासी समूह, बाह्य संस्कृति में भारत के बाहर उत्पन्न संस्कृति (आस्था एवं विश्वास) को मानने वाले एवं भारत में रहने वाले समूह, तथा  विद्रोही संस्कृति में सामन्तवाद जैसे नव स्थापित व्यवस्था को नहीं मानने एवं उससे विद्रोह करने वाले समूह शामिल हैं| ये विद्रोही लोग पुरातन समतावादी व्यवस्था (बौद्धिक संस्कृति) के सक्रिय समर्थक थे, जिन्हें समाज का “पवित्र योद्धा” कहा जाता था| इनमे दुसाध (दु साध्य, जिनको साधा नहीं जा सका), भंगी (जिन्होंने सामंती नियमों को भंग कर दिया) जैसे समूह शामिल थे| इन्हें पूर्व के समतावादी व्यवस्था के कट्टर समर्थक होने के कारण अपना सम्पति, सम्मान, शिक्षा, सत्ता, एवं समाज सबकुछ त्यागना पड़ा| अब इन सभी “अवर्णों” को शुद्र या क्षुद्र घोषित किया जा रहा है| यह “शुद्रीकरण” की प्रक्रिया है| इसके लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष आन्दोलन भी चलवाया जा रहा है|

यह भारतीय इतिहास का पूरा “पैरेडाईम शिफ्ट” (देखें थामस सैम्युल कुहन की पुस्तक – ‘The Structure of Scientific Revolutions’) है| यह बृहत् भारतीय समाज का मनोबल तोड़ने का धूर्ततापूर्ण प्रयास है| इसे देश को कमजोर करना कहा जा सकता है| बिस्मार्क ने जर्मनी के बिखरे जातियों एवं जनजातियों को जोड़ कर उसमे बहुत ज्यादा मनोबल बढाया| इसी मनोबल के सहारे हिटलर ने विश्व को रोंद डाला| यह मनोबल का शक्ति है, उर्जा है और मानसिक विचारो की क्षमता है|

मनोबल (Morale) को ही हौसला कहते हैं| यह समूह की शक्ति होती है| यह सीधे कार्य निष्पादन एवं लक्ष्य प्राप्ति को प्रभावित करता है|  यह व्यक्ति एवं समूह की आन्तरिक मानसिक शक्ति और आत्मविश्वास है| यह उर्जा, आशा, साहस, उत्साह एवं अनुशासन पैदा करता है| उच्च मनोबल का व्यक्ति या समूह अपना सर्वश्रेष्ट योगदान करता है| यह समूह का अभिवृति (Attitude) है| यह सामूहिक शक्ति है| उच्च मनोबल का समूह कठिन काम को आसानी से कर देता है, जबकि निम्न मनोबल का समूह आसान काम को भी ठीक से नहीं कर पाता है|

और हम भारतीय अपने बहुसंख्यक लोगों के मनोबल को चूर चूर करने में लगे है| इसका एकमात्र कारण कुछ लोगो का निजी स्वार्थ एवं यथास्थितिवादी मानसिकता का संरक्षण है| आप भी विचार कीजिये| उपरोक्त के अलावे सारी बातें कहानियां है, मिथक है, गैर ऐतिहासिक एवं काल्पनिक कहानियाँ है| उन मिथकों के साक्ष्य देखिये या खोजिए| उनके पास  कोई साक्ष्य नहीं है, सिवाय कहानियों के|

अब समय आ गया है – इतिहास का बहुसंख्यक के पक्ष में, विकास के पक्ष में और राष्ट्र के पक्ष में व्याख्या करने का| हम अपने ऐतिहासिक गौरव को इसी तरह पा सकते हैं|

निरंजन सिन्हा

मौलिक चिन्तक, व्यवस्था विश्लेषक एवं बौद्धिक उत्प्रेरक|

 


5 टिप्‍पणियां:

  1. आपका आलेख यथार्थ बोध का परिचायक है परंतु भारतीय जन अपना अमूल्य समय और श्रम व्यर्थ नष्ट कर रहा है वह भावनात्मक परंपरा से मुक्त नहीं होना चाहता

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, ज्ञानार्जन के दृष्टि से

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  3. आप ने सत्य लिखा हमारा बहुसंख्यक समाज अपनी बेडियो को काट ही नही पा रहा है लेकिन हम और आप अगर इसी तरह प्रयास करते रहेंगे तो एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी।

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  4. आपका आलेख सत्य प्रतित होतां है। बहुसंख्यक वर्ग की चुप्पी एवं विरोध नहीं करना कही न कही उसे ग॔त में धकेल दिया गया ।ऐसा भी हो सकता है कि उसके विरोध को शख्ती के साथ दबा दिया गया हो।इतिहासकारो द्वारा बहुसंख्यक वर्ग के हितों की अनदेखी जानबूझकर किया गया हो।इसकी अधिक सम्भावना है। सत्य नारायण मंडल अध्यक्ष धानुक चेतना समिति बिहार।

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