सवाल
यह है कि ईश्वर (God)
की उत्पत्ति क्यों हुई और कैसे हुई? हम जानते हैं
कि आवश्यकता ही हर आविष्कार की जननी है। जब
ईश्वर की आवश्यकता हुई,
तो इसका आविष्कार कर लिया गया,
इसकी रचना कर ली गई। मैंने "आविष्कार"
(Invention)
शब्द लिया है, "खोज" (Discovery)
शब्द नहीं। आप इन दोनों में अन्तर समझ गए होंगे, वैसे यह आलेख सिर्फ
बौद्धिकों के लिए ही है, जो ईश्वर की आवश्यकता और उसकी क्रियाविधि (Mechanism)
की वैज्ञानिकता (Scientism) की वास्तविकता को जानना समझना चाहते हैं। यदि
हम विज्ञान को समझते हैं और मानते हैं,
तो “ईश्वर की वैज्ञानिकता” (Scientism of God) को समझा ही
जाना चाहिए। यह प्राचीन पालि ग्रंथों में भी उपलब्ध था, जो अब
संशोधित, अनुवादित और सम्पादित स्वरुप में ही प्राप्त रह गया है, क्योंकि सामन्ती
व्यवस्था ने उसके मूल को नष्ट कर दिया है।
जब
मानव किसी भी कार्य - कारण (Cause
n Effect) संबंधों को समुचित रूप में समझने में असमर्थ होता था, तब उसकी
संतोषप्रद व्याख्या ईश्वर के सहारे ही किया जाता रहा। मतलब यह है
कि जब आदि मानव किसी भी प्राप्त परिणाम या उसकी क्रियाविधि को समझ नहीं पाता था, तो वह उस
परिणाम या क्रियाविधि को ईश्वर का हस्तक्षेप या उनकी इच्छा को समझ या मान लेता था|
यह आदिमानव की आदि कालीन (Primitive)
सोच और व्यवस्था रही और इसी कारण की खोज ही विज्ञान - विमर्श की शुरुआत भी
रही। इसके साथ ही जादू (Magic) और भाग्य (Fate/ Luck)
की अवधारणा का भी उदय हुआ। किसी की कलाकारी के द्वारा दृष्टि भ्रम पैदा कर किसी
भी कार्य - कारण का व्याख्या करना और ऐसा चमत्कार दिखाना जादू है| इसी तरह किसी कारण के प्रभाव से उत्पन्न कार्य में लगे
लम्बे समय की व्याख्या यानि ऐसे कार्य कारण की व्याख्या भाग्य के सहारे की जाने लगी| किसी भी वस्तु या
क्रिया की उत्पत्ति का कारण जानने की उत्सुकता ही विज्ञान का आधार हुआ।
ज्ञान के उदय, विकास और
उसमें आती गयी स्पष्टता के साथ ही ईश्वर की प्रचलित अवधारणा पूरी तरह से खंडित होती गई, या इस तरह खारिज ही हो गई। आज़
विकसित देशों में देवालयों (House
of God) को उस भवन की संरक्षण (Protection/ Maintenance) के लिए उस
देव - स्थान को ही सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन स्थल में बदल कर खर्च जुटाने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। इसीलिए
विकसित समाजों में आज़ विश्वविद्यालय और अनुसन्धान केन्द्रों की स्थापना होती रहती है
तथा पिछड़े समाजों में आज़ भी देवालयों की स्थापना होती रहती है| अर्थात ईश्वर की आवश्यकता किसी भी समाज या संस्कृति की ज्ञान के स्तर
(Level) और शासन यानि राजनीति एवं व्यवस्था की
आवश्यकता (Necessity) को ही रेखांकित करता है।
इस सदी
के महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिन्स
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास को "बिग
बैंग" (Big Bang) सिद्धांत के द्वारा
समझाते हुए ईश्वर के संबंध में एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर देते है। 'बिग बैंग
सिद्धांत' के
अनुसार आज से कोई साढ़े तेरह अरब साल पहले ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक "शून्य इकाई" या “शून्यता” (Singularity) में
महाविस्फोट से हुई थी। यह क्यों हुई और कैसे हुई, यह अभी तक वैज्ञानिकों के लिए अज्ञात है। लेकिन सभी आधुनिक
वैज्ञानिक इस मत से सहमत हैं कि महाविस्फोट से ही और इसके प्रसार से ही ब्रह्माण्ड
की उत्पत्ति एवं विकास हुआ। इस महाविस्फोट के साथ
ही पदार्थ (Matter), ऊर्जा (Energy), समय (Time), और आकाश (Space) की उत्पत्ति हुई। स्टीफन हाकिन्स का प्रश्न
यह है कि जब साढ़े तेरह अरब साल पहले पदार्थ,
ऊर्जा, समय
और आकाश ही नहीं था, तो
ईश्वर कहां रहता था यानि किस आकाश स्थान में रहता था; वह ईश्वर किस
समय से मौजूद हैं, यानि जब समय ही नहीं था, तो ईश्वर उसके पहले कैसे था; वह ईश्वर किस
पदार्थ का बना है और उस ईश्वर की क्रियाविधि के लिए ऊर्जा कहां था, यानि जब कोई
पदार्थ और उर्जा ही नहीं था, तो ईश्वर नित्य नहीं हो सकता? इन प्रश्नों की कोई वैज्ञानिक व्याख्या किसी के पास नहीं है।
इसी तरह बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में कई नैतिक प्रश्न किए, जिसका कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया जाता है। इसी क्रम में
बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व और इसके द्वारा इस संसार या ब्रह्माण्ड की रचना (Creation) के संबंध में
एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा किया है। उनका प्रश्न यह है कि ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड
या संसार की रचना किस पदार्थ (Matter)
और उर्जा से की? यदि
ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड या संसार की रचना किसी पूर्व से ही उपलब्ध किसी भी
सामग्री से की है, तो उस पूर्व से उपलब्ध वस्तु की उत्पत्ति कैसे हुई? यदि किसी भी
सामग्री का अस्तित्व ईश्वर के किसी भी सृजन से पूर्व से ही है, तो यह ईश्वर
इस ब्रह्माण्ड या संसार का सृजनकर्ता कैसे हुआ? इसी तरह ईश्वर की निर्माण सामग्री के अस्तित्व पर सवाल खड़ा
किया। इन्हीं तर्को के साथ बुद्ध ने ईश्वर के
अस्तित्व का ही खंडन किया है।
चार्ल्स डार्विन ने आधुनिक युग के शुरुआती दिनों में ही अपने अकाट्य प्रमाणों से यह साबित कर दिया कि यह मानव और यह
संसार किसी ईश्वर की रचना नहीं है। इस मानव की उत्पत्ति ही पशुओं के एक
विशिष्ट श्रेणी के उद्विकास (Evolution) से ही हुआ है, जिससे सभी
आधुनिक वैज्ञानिक सहमत हैं। इसी तरह इस संसार का भी वर्तमान अवस्था उद्विकास के
सहारे ही आया है। अब तो उद्विकास का सिद्धांत भाषा, समाज,
संस्कृति, सभ्यता, धर्म, विचार, प्रकृति, जीवन और
विज्ञान को भी अपने में समाहित कर लिया है,
यानि इन सभी की वर्तमान अवस्था तक आने की समुचित व्याख्या करती है।
अब तो अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों का अनुसंधान समूह, जो स्विट्जरलैंड के "सर्न" (CERN) प्रयोगशाला में
कार्यरत है, ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की कणिकाओं (Particle) को स्थापित कर दिया है। वैज्ञानिक हिग्स
ने सन् 1964 में
इस कणिका की परिकल्पना की थी, जिसका प्रायोगिक सत्यापन 2013 में इसी 'सर्न' के
वैज्ञानिकों द्वारा किया गया। भारतीय वैज्ञानिक
सत्येन्द्र नाथ बोस के इस क्षेत्र में किए गए योगदान की स्मृति के साथ
ही इसे अब "हिग्स बोसोन" (Higgs Boson) कहा जाता है।
अब यह कणिका ही "गाड पार्टिकल" (God Particle) के नाम से
विख्यात है, क्योंकि
ब्रह्माण्ड की रचना इसी मूलभूत कणिकाओं से हुआं है। इसे ही 'हिग्स बोसान कणिका'
भी कहा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिकों के लिए यही ईश्वर है, ऐसा
अन्तर्राष्ट्रीय भौतिकी वैज्ञानिकों का मानना है।
तो प्रश्न
उठता है कि हमारे विचारों का वास्तविकता में बदलने
यानि क्रियान्वित होने की क्रियाविधि क्या है? आभास (Inkling) क्या है? अन्तर्ज्ञान (Intuition) क्या है,
आदि आदि? इसे
भी समझ लेना जरूरी है,
अन्यथा आपकी तथाकथित ईश्वर की जिज्ञासा शान्त और संतुष्ट नहीं होगी। इसे ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) की
क्रियाविधि से ही समझना होगा। अनन्त प्रज्ञा
एक वैश्विक या यों कहें कि एक ब्रह्माण्डीय शक्तियों
का एक आव्यूह (Matrix) होता है, और यह शुद्ध विज्ञान एवं अभियंत्रण (Engineering) है। चूंकि
यह अनन्त प्रज्ञा और इसकी क्रियाविधि (Mechanism)
एक शुद्ध विज्ञान एवं अभियंत्रण है,
और इसीलिए इसकी क्रियाविधि में भी एक निश्चित, व्यवस्थित और तार्किक सुनिश्चितता ही होती है। चूंकि यह
शुद्ध विज्ञान एवं अभियंत्रण है,
और इसीलिए इस शक्ति एवं क्रियाविधि का मनोनुकूल लाभ एक निश्चित वैज्ञानिक
दृष्टिकोण, व्यवहार और प्रक्रिया को अपना कर ही पाया जा सकता है। इस अनन्त प्रज्ञा की और स्पष्ट व्याख्या के लिए विज्ञान एवं
अभियंत्रण में लगे वैज्ञानिक अभी भी लगातार प्रयासरत हैं।
क्वांटम भौतिकी (Quantum Physics)
के बढ़ते कदम इसी निष्कर्ष की दिशा की ओर जा रहा है, जैसे इसका "प्रेक्षक का सिद्धांत" (Observer Theory),
"स्ट्रिंग सिद्धांत" (String Theory) आदि आदि। लेकिन
इस अनन्त प्रज्ञा का ‘मानवीकरण’ (Personification) ही ईश्वर है। मतलब यह है कि ‘वास्तविक अनन्त प्रज्ञा’ के स्थान पर ‘काल्पनिक
ईश्वर’ को प्रतिस्थापित कर दिया जाता है, ताकि किसी भी कार्य कारण की मनमानी
व्याख्या की जा सके| यह सूक्ष्म अवधारणात्मक अंतर सामान्य जन के विश्लेषणात्मक मूल्यांकन (Analytical Evaluation) क्षमता के बाहर हो जाता है, और इसीलिए इन दोनों के क्रियाविधि में अंतर भी नहीं
समझ पाते हैं| ऐसी प्रतिस्थापना स्पष्टतया एक साजिश है, या अज्ञानता
है| इसीलिए अनन्त प्रज्ञा के मानवीकरण को कुछ आलोचक धूर्तता और
मूर्खता की श्रेणी में भी रख देते हैं, लेकिन यह दरअसल किसी के ज्ञान (विश्लेषणात्मक मूल्यांकन) के
स्तर का संकेतक होता है|
इस अनन्त प्रज्ञा के मानवीकरण के बाद ही कोई विशेष व्यक्ति (मानव) उस ईश्वर का
कर्ता/ एजेंट (Agent) बन सकता है, या ऐसा दावा कर सकता है, लेकिन कोई व्यक्ति भी अनन्त प्रज्ञा का एजेंट बनने का
दावा नहीं कर सकता है| यानि वह विशेष व्यक्ति सामान्य
मानव और तथाकथित ईश्वर के बीच मध्यस्थता (Negotiation)
की भूमिका कर सकता है और उस शक्ति
(तथाकथित ईश्वर) को प्रभावित करने का दावा कर सकता है| लेकिन जब हम अनन्त प्राकृतिक शक्तियों को इसकी वैज्ञानिकता के साथ
लेते हैं,
तो हम उसकी क्रियाविधि को समझ कर उस अनन्त प्रज्ञा का उपयोग
मानव हितों में कर पाते हैं| ऐसा करने से कोई भी उस शक्ति (अनन्त प्रज्ञा) का एजेंट
नहीं बन सकता है, अपितु
उसे उस विशेष लाभार्थी 'मानव' का एजेंट या
सहायक बनना होता है, जैसे बुद्ध, अल्बर्ट आइंस्टीन, स्टीफन हॉकिंग आदि| उसे सिर्फ अनन्त प्रज्ञा की वैज्ञानिकता और
क्रियाविधि को जानना समझना होता है| इस तरह कोई भी साधारण व्यक्ति अनन्त प्रज्ञा
की शक्ति का उपयोग कर सकता है, लेकिन वह किसी विशिष्ट मानव के बिना ईश्वर से सहयोग
प्राप्त नहीं कर सकता; ऐसा धार्मिक ग्रंथो में वर्णित होता है|
जब कोई व्यक्ति अपने को उस प्राकृतिक शक्तियों के नाम पर किसी ईश्वर का एजेंट घोषित करता है, तो उस व्यक्ति की मंशा (Intention) अनुचित यानि ग़लत होता है| इस तरह 'अनन्त प्रज्ञा ' को 'ईश्वर' घोषित कर सामान्य जनता को मनमाने ढंग से समझाना यानि बेवकूफ बनाना आसान हो जाता है| हालांकि तथाकथित ईश्वर के उस एजेंट को भी उस ईश्वर पर भरोसा नहीं होता है, और इसीलिए वह ईश्वर से अपने लिए धन मांगने के स्थान पर आपसे यानि सामान्य लोगों से ही धन मांगता है| इस तरह स्पष्ट है कि उस एजेंट को भी उस तथाकथित सर्व व्यापक, सर्व संचालक, सर्व ज्ञानी, सर्व शक्तिशाली, सर्व कल्याणकारी व्यक्तित्व, यानि ईश्वर पर विश्वास नहीं होता है|
आदिम काल का ईश्वर मानव की अज्ञानता के कारण आविष्कृत हुआ था, लेकिन मध्य काल यानि सामन्ती काल (Feudal Age) का ईश्वर सामन्तवाद की ऐतिहासिक आवश्यकताओं के कारण ही तैयार किया गया|
“बाजार की शक्तियाँ” ही इतिहास के काल में “ऐतिहासिक शक्तियाँ” कहलाती है| यानि मध्यकालीन समय में ईश्वर के सभी वर्तमान स्वरुप को सजिशतन तैयार किया गया और इसे अति प्राचीन काल का साबित करने का प्रयास भी किया गया| यह ईश्वर और ईश्वरीय व्यवस्था सामन्ती व्यवस्था की अनिवार्यताओं के कारण ही सामन्ती शोषण तंत्र को वैधानिक एवं नैतिक बनाने के लिए स्थापित किया गया; ऐसा वैश्विक इतिहासकारों का मानना है| इनमे सामन्तवाद पर गहरा अध्ययन एवं अनुसंधान करने वाले इतिहासकार पेरी एन्डरसन (Perry Anderson), एलिजाबेथ ब्राउन (Elizabeth Brown) और जार्ज डूवी (Georges Duby) प्रमुख हैं|
इसीलिए ईश्वर और ईश्वरीय व्यवस्था को आज भी मध्य युगीन अवधारणा माना जाता है। आज भी ईश्वर और ईश्वरीय व्यवस्था के दृष्टिकोण एवं अवधारणा को आधुनिक और वैज्ञानिक नहीं माना जाता है।
अब आप समझ गए
होंगे कि ईश्वर (God)
की उत्पत्ति क्यों हुई और कैसे हुई?
आचार्य निरंजन सिन्हा
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