लोग अक्सर सोचते और मानते हैं कि हम लोग ही इतिहास का निर्माण करते हैं, यानि हम ही इतिहास बनाते हैं, यानि हम जैसा सामाजिक सांस्कृतिक संरचना बनाना चाहते हैं, वैसा ही बनाते हैं। लेकिन हम इतिहास निर्माता नहीं हैं, बल्कि हम इतिहास द्वारा निर्मित हैं| इस गंभीर कथन के विश्लेषण एवं निष्कर्ष के लिए हमें सबसे पहले 'इतिहास' को परिभाषित करना चाहिए| इससे ही हम इतिहास की अवधारणा का सम्यक विशेषण कर सकेंगे और उनके सन्दर्भ में आलोचनात्मक समीक्षा भी कर सकते हैं| इसी विधि से हम इस कथन की सत्यता की जांच कर सकते हैं और सत्य के करीब पहुंच सकते हैं
'इतिहास' क्या है? पारंपरिक रूप में, यानि घिसे पिटे स्वरूप में इतिहास ऐतिहासिक स्मारकों का अनोखा भंडार है|लेकिन जब इसकी व्यापक परिभाषा होती है, तो इसकी गहराई एवं व्यापकता समझ में आती है| सामाजिक एवं सांस्कृतिक रुपांतरण का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ब्यौरा ही इतिहास है| इस प्रकार, इतिहास में समाज एवं उसकी संस्कृति का स्थिर और स्थायी परिवर्तन का विवरण है, जो हमारी बुद्धि एवं विवेक को भी बढाती हो|
इसे सभ्यता एवं संस्कृति की उद्विकासीय कहानी भी कह सकते हैं। यदि सभ्यता सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र, अर्थात व्यवस्था तंत्र का 'हार्डवेयर' है, तो संस्कृति वह सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र का 'सॉफ्टवेयर' है| अर्थात् सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र का दृश्य भौतिक स्वरुप एवं स्मारक 'सभ्यता' है, और सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र का अदृश्य विचार, मूल्य, प्रतिमान, अभिवृत्ति, संस्कार, परंपरा, रीति रिवाज आदि ही 'संस्कृति' है| अर्थात संस्कृति एक विचार है| सभ्यता का तो उद्भव एवं पतन होता रहता है, लेकिन संस्कृति में निरंतरता होती है, उसके स्वरूप में बदलाव हो सकता है| यानि संस्कृति बदल सकती है, विरूपित हो सकती है, लेकिन संस्कृति हमेशा अपनी स्वाभाविक प्रकृति के अनुकूल बदलती रहती है|
इसी तरह, संस्कृति हमारे समाज का अंतर्निहित मानसिक निधि होती है| यह समाज के आलौकिक काल का अनुभव, संस्कार, मूल्य, परंपरा एवं प्रतिमान का समेकन होता है| यह सब हम अपने समाज से ही सिखाते हैं, जो हमें संस्कृति के रूप में सिखाती है| हम कहते हैं कि हम संस्कृति के रूप में अपने विचार, मूल्य, प्रतिमान, अभिवृत्ति, संस्कार, परंपरा, रीति रिवाज आदि निश्चित करते हैं, सीखते हैं और उसका संचालन करते हैं|
इस प्रकार हमारी संस्कृति ही हमें एक पशुवत मानव से एक संस्कारित मनुष्य बनाती है, जो हमारी संस्कृति की पहचान भी है| हमारी पहचान आज एक प्रतिष्ठित मानव, एक संस्कारित मानव, एवं एक सभ्य सामाजिक मानव के रूप में है, यानि आज जो कुछ भी हैं, हम अपनी संस्कृति के कारण हैं| यह संस्कृति किसी को भी सामाजिक विरासत के रूप में मिलती है, अर्थात सांस्कृतिक समाज के सदस्यों के होने का कारण ही है| इस संस्कृति के अभाव में ही कोई होमो सेपियन्स "मोगली' बन जाता है और कोई अरस्तु बन जाता है|
सामाजिक तंत्र को संचालित, नियंत्रित, नियमित एवं प्रभावित करने वाली 'साफ्टवेयर' के रूप में महत्वपूर्ण संस्कृति हमारी 'इतिहास बोध' से निर्मित है| यह इतिहास बोध हमारी अपने इतिहास के प्रति समझ है, जिसे हम स्वीकार करते हैं| संस्कृति अदृश्य रह कर अचेतन स्तर पर मानव समाज को संचालित करता रहता है। वैसे किसी भी यथास्थितिवादी व्यवस्था या तंत्र या शासन इसी संस्कृति को अपनी मानसिकता के अनुरूप बनाए रखना चाहता है या उसे बदलने के लिए इतिहास को ही बदलना है| इसीलिए प्रसिद्ध लेखक जार्ज ऑरवेल ने कहा था कि, "जो इतिहास पर नियंत्रण रखता है, वह वर्तमान और भविष्य को भी नियंत्रित करता है"| इस प्रकार इतिहास संस्कृति के रूप में हमारा ही निर्माण होता है।
लेकिन एक व्यक्ति की भूमिका भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण में होती है, अर्थात एक व्यक्ति की भूमिका भी इतिहास की धारा को प्रभावित करती है| हमें किसी व्यक्ति के 'टिटली इफेक्ट' यानी "बटर फ्लाई इफेक्ट्स" को नहीं भूलना चाहिए, जो बदलाव का एक नया दौर शुरू कर देता है| वह एक 'उत्प्रेरक' अर्थात एक उत्प्रेरक की भूमिका भी निभाता है| बुद्ध, मार्क्स, अल्बर्ट आइंस्टीन, सिगमंड फ्रायड, आदि कई नाम हैं, इतिहास की धारा प्रभावित है|
हालाँकि आधुनिक एवं वैज्ञानिक इतिहासकारों का मानना है कि इतिहास का वास्तविक निर्माण आर्थिक शक्तियाँ ही करती हैं, अर्थात् ऐतिहासिक शक्तियाँ ही करती हैं, और इनमे व्यक्तिगत विशेष का कोई विशेष महत्व नहीं होता है| ऐतिहासिक शक्तियों में उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोक्ता के साधन एवं शक्तियों के अंतर्संबंध शामिल हैं| इस प्रकार स्पष्ट है कि एक इतिहास के निर्माण में एक व्यक्ति के रूप में हमारी भूमिका नहीं होती है, और इसीलिए अब इतिहास के किताबों में से व्यक्ति विशेष का नाम हटता जा रहा है|
अत: हम स्वीकार कर सकते हैं कि हम इतिहास निर्माता नहीं हैं, बल्कि हम इतिहास द्वारा निर्मित हैं| इसीलिए हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि यही सत्यता के करीब है|
आचार्य निरंजन सिन्हा
(यह निबंध बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा वर्ष 2023 में आयोजित मुख्य परीक्षा में निबंध पत्र का निबंध है, जिसमें 100 अंक निधारित है।)
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