गुरुवार, 15 जून 2023

मूस मोटइहें , लोढा होइहें , ना हाथी , ना घोड़ा होइहें |

मूस मोटइहें , लोढा होइहें , 

ना हाथी , ना घोड़ा होइहें |

(यह निबंध बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा वर्ष 2023 में आयोजित मुख्य परीक्षा से है, लेकिन इस सीरिज के आगे के निबंध इसके अतिरिक्त संघ लोक सेवा आयोग के होंगे|)

यह बिहार की ग्रामीण संस्कृति में प्रचलित एक प्रमुख लोकोक्ति है| इस लोकोक्ति का हिंदी भावार्थ यह है कि एक मूस , जो चूहा की एक प्रजाति है, कितना भो मोटा हो जाए, वह लोढा की तरह ही गोल मटोल हो सकता है, परन्तु वह हाथी एवं घोड़े जैसे पशुओं की तरह बड़ा, महत्वपूर्ण एवं सम्मानित नहीं हो सकता| इसका अर्थ काफी साधारण भी हो सकता हैं, और इसका अर्थ काफी गंभीर एवं प्रेरणादायक भी हो सकता है| यह किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के स्तर एवं गहराई को रेखांकित करता है|

हम समाज के वैसे लोगों की तुलना एक मूस से कर सकते हैं, जो सिर्फ एक मूस की तरह ही अपने धन को संग्रहीत करने की ही प्रवृति रखते हैं और समाज की उपेक्षा करते हैं| इस लोकोक्ति के अनुसार ऐसे लोगों को कोई ‘मुसहर’  की तरह आता है, और इनके द्वारा सारा संग्रहीत धन को भी लुट ले जाता है और उसको मार भी देता है| एक मूस की प्रवृति सिर्फ अपने भोजन संग्रहण तक सीमित होती है, और उसके अतिरिक्त उसकी कोई और उपयोगिता नहीं होता है| ऐसे ही जो मानव अपने सोच यानि मानसिकता में सिर्फ अपने ‘उपभोग’ का ही ध्यान रखता है और अपने सोच में समस्त समाज एवं मानवता को शामिल नहीं करता है, वह कितना भी बड़ा हो जाय, तो भी वह महत्वपूर्ण एवं सम्मानीय नहीं हो सकता है| वह मात्र एक सिलबट्टे का ‘लोढा’ ही जैसा तुच्छ एवं महत्वहीन ही रहेगा|

कोई भी व्यक्ति तभी महान एवं आदरणीय होता है, जब वह समस्त समाज, राष्ट्र एवं मानवता के लिए उपयोगी होता है| एक पशु और एक मानव में सिर्फ संस्कार का अंतर होता है| एक पशु अपने बच्चे पैदा करता है, उसे पालता पोसता है और फिर उसे ही देखते हुए अपना सारा जीवन समाप्त कर लेता है| यदि कोई मानव प्रजाति में जन्म लिया एक व्यक्ति भी एक पशु की तरह ही सिर्फ बच्चे को जन्म देता हो, उसे पालता पोसता हो और फिर उसे ही देखते हुए अपना जीवन समाप्त कर लेता हो, तो वह एक पशु से कतई भिन्न नहीं होता है| तो कोई व्यक्ति महान एवं आदरणीय कब हो जाता है? जब कोई व्यक्ति अपने सोच एवं मानसिकता में अपने समाज, राष्ट्र, मानवता, और प्रकृति को भी समा लेता है, यानि शामिल कर लेता है, तो वह भी महान एवं आदरणीय हो जाता है|

तो हमें इस महत्वपूर्ण लोकोक्ति का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करने से पहले ‘मूस’ का सटीक अर्थ जानना चाहिए और ‘लोढ़ा’ का सही तात्पर्य समझना चाहिए| इसके साथ ही हमें हाथी एवं घोड़े जैसे पशुओ के उदाहरण दिए जाने के पीछे इन पशुओं के इन विशिष्ट प्रकृति, गुण एवं उपयोगिता को भी देखना होगा| मूस खेतों में रहता है और चूहा घरों में रहता है| मूस को अंग्रेजी में ‘Rat’ कहते हैं, और घरों में यानि House में पाए जाने वाले को अंग्रेजी में ‘Mouse’ कहते हैं| दरअसल दोनों में जैविक भिन्नता के साथ साथ इनकी प्रकृति, गुण एवं आदत भी भिन्न रहता है|

इन मूसो को पकड़ने वाले समुदाय को ‘मुसहर’ (मूस को हरने वाला) कहते हैं| ये समुदाय बिहार में एक जाति के रूप में स्थापित हैं, जो अनुसूचित जाति के सदस्य होते हैं| अनाज यानि गेहूँ, धान, मडुआ आदि फसल के खेतो में ही मूस पाए जाते हैं| ये मूस फसल पकने पर इस फसलों की बालियों को अपने बिलों में संग्रहीत कर लेते हैं| इन संग्रहीत अनाजों को पाने के लिए मूसहर समुदाय के सदस्य इन बिलों को खोदकर इन मुसो को पकड़ते एवं खाते हैं और उन अनाजों को भी निकाल लेते हैं|

‘लोढा’ ग्रामीण घरों में सिलबट्टे पर पिसने वाला एक बेलनाकार पत्थर का ही एक भाग होता है| ग्रामीण क्षेत्रों में एक मूस के अत्यधिक मोटे हो जाने पर प्राप्त आकार एवं आकृति की तुलना उसी लोढ़े से करते हैं, क्योंकि ऐसे मूस के आकार एवं आकृति उसी अनुरूप हो जाती है| हाथी एक विशालकाय, शक्तिशाली, प्रभावशाली एवं उपयोगी पशु है| इसी तरह एक घोड़ा भी मूस की तुलना में बहुत बड़ा, फुर्तीला, एवं उपयोगी होता है| यह दोनों भी एक मूस की तरह ही शाकाहारी भी होता है| हाथी एवं घोड़े का सामरिक महत्व भी होता है और इसलिए उच्चतर समाज में महत्वपूर्ण भी होता हैं|

इसलिए किसी व्यक्ति को एक ‘मूस’ की प्रकृति, प्रवृति एवं अभिवृति नहीं रखनी चाहिए| किसी को अपनी सोच एवं मानसिकता में सम्पूर्ण समाज, राष्ट्र, मानवता एवं प्रकृति को भी समाहित कर लेना चाहिए, अन्यथा वह एक ‘मूस’ की तरह ‘अत्यधिक धन की प्रवृति’ से लोढा हो सकता है, लेकिन वह एक हाथी या घोड़ा की तरह सम्मान एवं महत्व नहीं पा सकता है| यह आज भी मानवीय जीवन मूल्यों की महत्ता को गहराई से रेखांकित करता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

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