(यह निबंध बिहार
लोक सेवा आयोग द्वारा वर्ष 2023 में आयोजित मुख्य परीक्षा से है, लेकिन इस सीरिज
के आगे के निबंध इसके अतिरिक्त संघ लोक सेवा आयोग के भी होंगे| यह इस सीरीज का
तीसरा निबन्ध है|)
हमें उपरोक्त के किसी भी
अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले उत्कृष्टता, कला, अनुभव एवं सत्य को समझना
चाहिए| इसके लिए इन सबका एक सम्यक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करना होगा| कला किसी
व्यक्ति के ‘विचारों’ एवं ‘भावनाओं’ की ‘अनुभव जन्य’ ‘सुन्दर’ एवं ‘बाह्य अभिव्यक्ति’
है| अर्थात किसी भी व्यक्ति के विचारों एवं भावनाओं की ऐसी ‘सुन्दर’ अभिव्यक्ति
है, जिसे दूसरा कोई भी अपने ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव कर सके| ‘सुन्दर’ का अर्थ
आनन्दित यानि आह्लादित करने वाला है| यह रेखा, रंग, मूर्ति, ताल, शब्द आदि के
सहयोग से अभिव्यक्त होता है, तथा रेखाचित्र, मूर्तिकला, नृत्य, संगीत, कविता एवं
साहित्य आदि के विविध रूप में समाज में प्रस्तुत होता है|
इस तरह यह एक ऐसा मानवीय
कौशल है, जो मनुष्य को आनन्दित कर सके| प्लेटो ने तो यह भी कह दिया कि ‘कला सत्य
की अनुकृति है’| अत: कला एक क्रिया है, एक तकनीक है, एक कौशल है, एक अनुकृति है,
एक कल्पना है, एक अभिव्यक्ति है, एक सौन्दर्य है, एक सृजन है, शिक्षण का बोधगम्य
माध्यम है, ज्ञान का सम्प्रेषण है और उस कलाकार के व्यक्तित्व का परिचायक भी है|
लेकिन यह ‘उत्कृष्ट कला’ अनुभव को प्रकाशित करती है, या सत्य को उद्घाटित करती है?
यह जानने एवं समझने के लिए हमें उत्कृष्टता, अनुभव एवं सत्य को भी समझना चाहिए|
प्रत्यक्ष ज्ञान ही अनुभव
है, चाहे यह शारीरिक स्तर पर प्राप्त किया गया है, या मानसिक या आध्यात्मिक स्तर
पर| यह प्रत्यक्षण यानि ‘Perceive करना’ यानि किसी चीज को कैसे समझते हैं, इस पर
निर्भर करता है| शारीरिक स्तर पर अनुभव हम अपने पाँचों परंपरागत ज्ञानेन्द्रियों
के उपयोग से प्राप्त करते हैं, लेकिन मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर का अनुभव हम अपने
मन से करते हैं, यानि हम अपनी कल्पनाओं से करते हैं| आधुनिक युग में महान वैज्ञानिक
अल्बर्ट आइन्स्टीन और स्टीफन हाकिन्स ने जो भो अनुभव प्राप्त किया, वह मानसिक एवं
आध्यात्मिक अनुभव ही था, जो उन्होंने अपनी कल्पनाओं में ज्ञात किया|
किसी की उत्कृष्टता उसकी स्पष्टता,
गहनता, गहराई को समेटे हुए मानवीय मूल्यों के अनुरूप होता है| चूँकि उत्कृष्टता के
स्तर को समाज ही स्थान देता है, यानि यह समाज की समझ के सापेक्ष स्तर का होता है|
अर्थात यह उस समाज के मूल्य, आदर्श, अभिवृति, संस्कार एवं संस्कृति आदि के समझ एवं
स्तर के अनुसार ही कोई चीज ‘उत्कृष्टता’ का स्थान पा सकता है| सिद्धांतत: ‘सत्य’ उसे कहते हैं, जो स्थान एवं
समय के सापेक्ष स्थिर हो, यानि निरपेक्ष हो| अर्थात सत्य एक ही होता है और वह अटल
होता है||
लेकिन जब ‘सत्य’ का
विश्लेषण करते हैं, तो हम पाते हैं ‘सत्य’ एक नहीं होता है, बल्कि एक समय एवं
स्थान में भी अनेक सत्य होता है| यह निरपेक्ष भी नहीं होता है| वैसे अब विज्ञान के
अनुसार स्थान यानि आकाश (Space) एवं समय में भी विरूपण (Distortion) आता रहता है,
यानि इसकी आकृति में बदलाव आता रहता है, इसलिए ब्रह्माण्ड को भी अटल नहीं माना
जाता| अर्थात एक ही सत्य ब्रह्माण्ड में सापेक्षिक है, निरपेक्ष नहीं है| एक ही
सत्य अवलोकनकर्ता के अनुसार बदलता रहता है, इसलिए एक ही तथ्य के लिए अनेक सत्य
होते हैं| कहा गया है कि किसी सुनी गयी बात का अर्थ सुनने वाले के समझ के अनुसार
होता है, एवं देखी गयी कोई वस्तु का सत्य उसके नजरिया से निश्चित होता है| इसलिए
कोई भी एक निश्चित सत्य नहीं है|
इसके बाद भी, कोई भी
व्यक्ति अपनी संस्कृति, समझ, ज्ञान के स्तर, पृष्ठभूमि और सन्दर्भ में अपने अनुभव
प्राप्त करता है| किसी का यह अनुभव किसी सत्य के कितना निकट है, यह सब उसके नियामक
कारको पर निर्भर करता है| एक कलाकार अपने किसी भी कलात्मक अभिव्यक्ति में पूर्णतया ईमानदार
होता है| अत: किसी भी कलाकार के कलात्मक अभिव्यक्ति में उसकी सत्यनिष्ठा पर शंका
नहीं किया जा सकता है| एक उत्कृष्ट कलाकार अपनी अभिव्यक्ति में अपना सब कुछ समर्पित
कर अपना उत्कृष्ट प्रदर्शन करना चाहता है| इसके उत्कृष्टता के स्तर में जो भी
कमियाँ है, यदि है भी, तो वह उस कलाकार के पृष्ठभूमि एवं संस्कृति की कमी होगी या
यह आलोचना करने वाले के स्तर या संस्कृति के कारण होगी|
चूँकि किसी कलाकार का सत्य भी उसके अनुभाव से
निश्चित एवं निर्धारित होता है, और सत्य भी सापेक्षिक होता है, इसलिए यह स्पष्ट है
कि कथन ‘उत्कृष्ट कला हमारे अनुभव को प्रकाशित करती है या सत्य को उद्घाटित करती
है’ सत्य प्रतीत नहीं होता है| अत: हम कह सकते है कि एक उत्कृष्ट कला हमारे अनुभव
को भी प्रकाशित करती है और सत्य को भी उद्घाटित करती है|
आचार्य
निरंजन सिन्हा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें